गुरुवार, 23 जुलाई 2009

चीन आगे और भारत पीछे क्यों?

चीन व भारत विश्व के दो बड़े विकासशील देश हैं। दोनों ने विश्व की शांति व विकास के लिए अनेक काम किये हैं। चीन और उसके सब से बड़े पड़ोसी देश भारत के बीच लंबी सीमा रेखा है। इस समय चीन व भारत अपने-अपने शांतिपूर्ण विकास में लगे हैं। 21वीं शताब्दी के चीन व भारत प्रतिद्वंदी हैं और मित्र भी। अंतरराष्ट्रीय मामलों में दोनों में व्यापक सहमति है। आंकड़े बताते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ में विभिन्न सवालों पर हुए मतदान में अधिकांश समय, भारत और चीन का पक्ष समान रहा। अब दोनों देशों के सामने आर्थिक विकास और जनता के जीवन स्तर को सुधारने का समान लक्ष्य है। इसलिए, दोनों को आपसी सहयोग की आवश्यकता है। अनेक क्षेत्रों में दोनों देश एक-दूसरे से सीख सकते हैं।
कुछ समय पूर्व जयराम रमेश ने चीन और भारत को मिलाकर एक नई ताकत की कल्पना गढ़ते हुए 'चिंडियाÓ शब्द का प्रयोग किया था। इससे पहले प्रकाशित ब्रिक की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि चीन और भारत तेजी से उभरते दो ताकतवर देश हैं जो एक दिन मिलकर अमेरिकी जीडीपी को टक्कर देने की हालत में आ सकते हैं। 1990 तक चीन दुनिया में निर्माण क्षेत्र में चैंपियन के रूप में स्थापित हो चुका था। बाद में भारत कंप्यूटर सॉफ्टवेयर से लेकर बैक ऑफिस जॉब, कॉल सेंटर एवं आरएंडडी के मामले में चैंपियन बनकर उभरा। गौर करने योग्य तथ्य है कि चीन हमेशा से संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद का सदस्य रहा है और 1990 के बाद से वह इकनॉमिक पावरहाउस के रूप में सामने आया है। लेकिन इस दौरान अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मदद के साझे इतिहास और बहुपक्षीय मंचों पर एक-दूसरे के प्रतिरोध की वजह से भारत को पाकिस्तान के साथ जोड़कर देखा जाने लगा। 1990 के दशक में भारत और पाकिस्तान ने आईएमएफ और विश्व बैंक से काफी मदद हासिल की। इतना ही नहीं, सूचना तकनीक जगत में आई क्रांति के बाद इसमें काफी बदलाव आया। 2003-08 में भारतीय अर्थव्यवस्था ने करीब 9 फीसदी की दर से विकास किया। यह चीन के बाद सबसे अधिक वृद्धि दर थी। भारत के तेज आर्थिक विकास की वजह से अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने पुराने परमाणु संरचना को तोड़कर भारत के साथ परमाणु करार करने में रुचि दिखाई। पाकिस्तान के साथ इसी तरह की डील से अमेरिका ने इनकार कर दिया था, जिसके कारण भारतीयों ने इसका स्वागत किया क्योंकि इसके जरिए पाकिस्तान के साथ एक ही तराजू पर उसे तोलने की परंपरागत अमेरिकी नीति खत्म हुई।
बेशक, भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले पांच साल में काफी तेज विकास किया है, लेकिन यह चीन से अब भी बहुत पीछे है। भारत की आबादी के हिसाब से इसका जीडीपी बड़ा नजर आता है, लेकिन सच यह भी है कि देश में गरीबों की संख्या काफी है, नवजात शिशुओं की मौत की दर अधिक है, जन्म के समय जच्चा-बच्चा की मौत के मामले काफी अधिक हैं और बच्चों में कुपोषण की समस्या दुनिया भर में सबसे ज्यादा है। बताया जाता है कि चीन के उत्पाद 10 प्रतिशत से लेकर 70 प्रतिशत तक सस्ते हैं। इसकी एक वजह चीन द्वारा अपनाई गई एक स्थिर विनिमय दर नीति है, जबकि इसके ठीक विपरीत भारत ने बेहद उलझन भरी नीति अपनाई है। हाल की आर्थिक समीक्षा में विनिमय दर नीति के बारे में कहा गया है, 'हाल के वर्षों के दौरान विदेशी मुद्रा विनिमय दर नीति किसी पूर्व निर्धारित या घोषित लक्ष्य या दायरे के बिना, लचीलेपन के साथ विनिमय दर की सतर्कतापूर्वक निगरानी और प्रबंधन के व्यापक सिद्धांतों द्वारा निर्देशित थी। एक सुव्यवस्थित ढंग से मांग और आपूर्ति की अंतर्निहित दशाओं को विनिमय दर का निर्धारण करने की अनुमति दी गई। इस पूर्वनिर्धारित उद्देश्य के साथ, विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार में भारतीय रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप इस उद्देश्य से प्रेरित था कि अतिरिक्त उतार-चढ़ाव को कम किया जाए, मुद्रा भंडार के पर्याप्त स्तर को बनाए रखा जाए और एक व्यवस्थित विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार का विकास किया जाए।Ó
वर्तमान माहौल में चीन और भारत की बात की जाए तो दोनों के बीच का अंतर और गहरा गया है। चीन अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा खिलाड़ी बन गया है, जबकि भारत राडार के इस स्क्रीन पर कहीं नजर नहीं आता। वर्तमान संकट के लिए लोग अमेरिका को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, लेकिन अमेरिका का मानना है कि चीन की तरफ से बढ़ते कारोबारी दबाव की वजह से खतरा उत्पन्न हुआ है। चीन ने अपने विदेशी मुदा भंडार में दो ट्रिलियन डॉलर जमा कर लिया है। यह भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का आठ गुना है। इसकी वजह से अमेरिका चीन को अपने ट्रेजरी बॉन्ड बेचने पर मजबूर हो गया। इससे चीन का सरप्लस डॉलर अमेरिकी बाजार में दोबारा पहुंच गया। अमेरिका का कहना है कि इस वजह से अमेरिका को ब्याज दरों में कटौती करनी पड़ी और लोगों ने मनमाना कर्ज ले लिया। हो सकता है कि इस विश्लेषण में कुछ चीजें बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई हों, लेकिन यह सच है कि मैक्रोइकनॉमिक असंतुलन की वजह से मंदी की यह समस्या पैदा हुई है। जी-20 देशों ने समस्या का समाधान निकालने के प्रयास शुरू कर दिए हैं, लेकिन कई विश्लेषकों का मानना है कि इसे दूर करने के लिए जी-2 (चीन एवं अमेरिका) देशों का प्रयास ही काफी है। इतिहासकार नील फगुर्सन ने अब इसे चिमेरिका (चीन-अमेरिका) नाम दिया है। उनका कहना है कि 21वीं सदी में अमेरिका और चीन का प्रभुत्व कायम रहने वाला है। काबिलेगौर है कि चीन अब देने वाला बन चुका है। आईएमएफ के कर्ज देने की प्रस्तावित बढ़ी राशि में चीन से 40 अरब डॉलर का योगदान देने का फैसला किया है, जबकि इसमें जापान और शायद अमेरिका का योगदान 100 अरब डॉलर है। भारत इस सूची में कहीं नहीं है, बल्कि यह कर्ज लेने वाले देशों में शामिल है।

1 टिप्पणी:

निशांत मिश्र - Nishant Mishra ने कहा…

देखिये, उन्होंने शहर के बीचोंबीच रिकॉर्ड समय में १५ मील लम्बा सीधा मार्ग बनाया और इसके लिए उसके आड़े आने वाले लगभग १० लाख लोगों को वहां से हटा दिया. क्या भारत में ये संभव है? यहाँ तो शहर को चौपट करने में वोटों की राजनीति की जाती है. मैं भोपाल का रहनेवाला हूँ जहाँ छुटभैये नेताओं ने झुग्गी बस्तियों की कतारें लगा दी हैं जहाँ सब हीटर में खाना बनाते हैं और ढेरों बिजली जलाकर एक पैसा नहीं देते. उसका खामियाजा बिल भरनेवाले ईमानदार लोगों को भरना पड़ता है. जब कोई अधिकारी उनपर कार्रवाई करने आता है तो कोई आदमी अपने ऊपर मिट्टी का तेल डाल लेता है या कोई औरत अपने कपडे फाड़ लेती है.