सोमवार, 6 जुलाई 2009

औंधे मुंह सामाजिक न्याय

भारतीय राजनीति व्यवस्था में वंचित समूहों की हिस्सेदारी बढऩे की जो प्रक्रिया लगभग 20 साल पहले शुरू हुई थी, उस मॉडल के नायक-नायिकाओं का निर्णायक रूप से पतन हो चुका है। हालांकि यह सब एक दिन में नहीं हुआ है लेकिन अब वह समय है, जब इनके पतन और विखंडन की प्रक्रिया पूरी हो रही है। सामाजिक न्याय की राजनीति का सफर जिस उम्मीद से शुरू हुआ था, उसे याद करें तो इन मूर्तियों का इस तरह गिरना और नष्ट होना तकलीफ देता है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार बड़ी साफगोई से मानते हैं कि कुछ चीजें जो उन्हें विरासत में मिली है, उसमें आमूल-चूल परिर्वतन करना होगा। वे मानते हैं कि 15 साल का समय बहुत बड़ा समय होता है। अगर प्रदेश में राजद-कांग्रेस की सरकार ने कुछ नहीं किया तो इसका मतलब ये तो नहीं है उसके बाद आने वाली सरकार कुछ न करे। उनकी सरकार ने बिहार के आधारभूत ढंाचा को विकसित करने का कार्य किया और इस प्रक्रिया में कहीं न कहीं बिहार की राजनीति से 'सामाजिक न्यायÓ जैसी सियासी धुरी छिटकती चली गई। जिस प्रकार से बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का राजनीतिक वजूद घट गया है , वैसे में अहम बात यह है कि इनसे राजनीति के जिस मॉडल की बागडोर संभालने की अपेक्षा की जा रही थी और इनके जनाधार की जो महत्वाकांक्षाएं थीं, उसे पूरा करने में ये नाकाम हो चुके हैं। यह एक सपने के टूटने की दास्तान है। यह सपना था भारत को बेहतर और सबकी हिस्सेदारी वाला लोकतंत्र बनाने का और देश के संसाधनों पर खासकर वंचित सामाजिक समूहों की हिस्सेदारी दिलाने का।
सच तो यह है कि भारत के सामाजिक संदर्भों में राजनीति का यह मॉडल लोकतंत्र के नए समूहों तक राजनीति के विस्तार का मॉडल था। जिन लोगों को आजादी के बाद सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पाई थी, ये उन्हें ताकत देने का मॉडल था। यह राजनीति देश की 85 फीसदी जनता को जोडऩे की बात करती थी। ऐसी 85 फीसदी जनता में दलित थे, पिछड़े और अति पिछड़े थे, मुसलमान और दूसरे अल्पसंख्यक थे और कुल मिलाकर तमाम उत्पादक समूह थे। कभी सामाजिक न्याय के अगुआ रहे लालू-पासवान की जोड़ी अपनी लय खो चुकी है। दरअसल मायावती, मुलायम, लालू और पासवान जैसे नेता पिछले कुछ साल से सामाजिक न्याय की राजनीति तो क्या, उसकी बात भी नहीं कर रहे थे। वंचित समूहों के मुद्दों को उठाना वे भूल चुके हैं। मध्यम और छोटे किसानों के मसले, सिंचाई और ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े मुद्दे, शिक्षा को हर किसी तक पहुंचाने की बात, नौकरियों, ठेके और सप्लाई में हर तबके की हिस्सेदारी जैसे सवालों को इन नेताओं ने आखिरी बार कब गंभीरता से छुआ है, यह याद करना भी मुश्किल है। बिहार में तो नीतीश कुमार ने चतुराई से महादलित, अति पिछड़ों और पसमांदा मुसलमानों की बात करके और पंचायत स्तर पर ऐसे समूहों को आगे लाकर लालू यादव के पांव तले की जमीन खींच ली है। बिहार से सरोकार रखनेवाले राकांपा महासचिव तारिक अनवार कहते हैं, 'लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय के नारे के सहारे जनता को दिग्भ्रमित कर 15 वर्ष तक सत्ता में बने रहे और अब नीतिश कुमार भी जात-पांत की राजनीति कर लोगों को गुमराह कर रहे हैं।Ó
काबिलेगौर है कि बिहार विकास के हर पैमाने पर नीचे आ रहा था और सत्ता मेें आते ही नीतिश कुमार ने कहा कि हर पैमाने पर हमको उठाना होगा और उसके लिए ज़रूरी है कि पहले हम आधारभूत ढाँचे को दुरूस्त करें, एक वातावरण बनाएं, निवेश का वातावरण बनाए। यहां जब निवेश होगा, कल कारखाने खुलेंगे तो रोजग़ार के अवसर पैदा होंगे। कहने-सुनने में ये बातें सही लगती है मगर यथार्थ के धरातल पर परिदृश्य बदल जाती है। जिस वर्ग विशेष की राजनीति करके लालू प्रसाद ने 15 वर्षों तक बिहार की सत्ता में दखल रखा, उसी वर्ग को अपने पाले में करके और विकास का छोंका लगाकर नीतिश आज सुशासन का ढिंढोरा पीटे जा रहे हैं। तभी तो वे कहते हैं, 'वह तो भटकाव उनका था। हमनें तो राजनीति की कांग्रेस के खिलाफ वे तो भटक गए और उस भटकाव में हम थोड़े ही साथी हो सकते थे इसलिए हमने अपना रास्ता स्वयं चुना। अब सबसे बड़ा भटकाव हुआ सामाजिक न्याय के मुद्दे पर। जन नायक कर्पूरी ठाकुर जी जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने बिहार में बिहार सरकार की नौकरी में आरक्षण लागू की और उसमें पिछड़े वर्गों का वर्गीकरण किया गया। पिछड़े वर्ग और अत्यंत पिछड़े वर्ग। यहां एक योजना चल रही थी कि पिछड़े वर्ग और अत्यंत पिछड़े वर्ग को मिला दिया जाए. यानी अत्यंत पिछड़े वर्ग को अलग से आरक्षण मिला हुआ है वह उससे वंचित हो जाते। मैंने इसका विरोध किया इसलिए वैसा हो नहीं सका। लेकिन मुझे लग गया कि सामाजिक न्याय के नाम पर ये जो कब्ज़ा वाली राजनीति चलने लगी इसलिए हमारे लिए एक दूरी का कारण तो ये है।Ó
जानकारों की राय में बुनियादी चीज़ें है सामाजिक न्याय यानी समाज में जो वंचित रहे हैं अवसर से वंचित रहे हैं उनको अवसर दिलाना और बराबरी पर लाना और बराबरी पर लाने के लिए जो वंचित रहे हैं उनको विशेष अवसर देना । सामाजिक न्याय का जो आंदोलन है वह जातीवाद के ख़िलाफ़ है क्योंकि सामाजिक अन्याय जातिप्रथा ने पैदा किया है, तो जब हम सामाजिक अन्याय की बात करते हैं तो जातिप्रथा के प्रतिकूल है तो जातिप्रथा को समाप्त होना चाहिए। चीज़ें थोड़ी बदलीं लेकिन व्यवहार वही रह गया तो यह सामाजिक न्याय नहीं है। तो यह सामाजिक न्याय की मूल अवधारणा के प्रतिकूल है। स्वयं नीतिश कुमार कहते हैं, 'भारतीय समाज में एक गज़ब द्वंद्व है लेकिन ये लोकतंत्र का कमाल है और मुझको लगता है कि लोकतंत्र में इतनी जीवंतता है कि हमको ऐसा लगता है कि अब वो क्रिटिकल प्वाइंट पहुंच रहा है जहां उससे जनमत पैदा हो रहा है और उस जनमत के प्रभाव पर सभी राजनीतिक दलों को ये सोचना पड़ेगा मज़बूर होना पड़ेगा कि अभी तो आप कुछ भी कह लें, हम एक दूसरे पर आरोप लगा देंगे कि आपने किया इसलिए हम कर रहे हैं।Ó
बिहार की सियासी जमीन से बावस्ता लोकसभा की पहली महिला अध्यक्ष बनने के साथ ही मीरा कुमार ने स्पष्ट कर दिया था कि वह समाज में ऊंच-नीच के भेदभाव पूर्ण माहौल के खिलाफ लड़ती रहेंगी। डॉ। आंबेडकर के बाद देश के दूसरे बड़े दलित नेता के रूप में उभरे बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार ने अपने पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, ' सामाजिक न्याय राजनीति का सवाल नहीं, बल्कि मिशन है। Ó ऐसे में सवाल यह है कि अपनी चमक खो चुके इन नेताओं के पास अब वापसी का कोई मौका है। इस सवाल का जवाब आज दे पाना किसी के लिए संभव नहीं है। पता नहीं, इन नेताओं को भी इसका जरा भी अहसास है कि उन्होंने कोई ऐसा रास्ता चुन लिया है, जो उनके लिए नहीं बना था। लालू यादव और पासवान अब फिर से कर्पूरी ठाकुर के सपनों से जुड़ पाएंगे या नहीं, मायावती क्या फिर से कांशीराम की 85 फीसदी लोगों की राजनीति के साथ एकरूप हो पाएंगी, मुलायम सिंह क्या दलित-पिछड़ा एकता के राममनोहर लोहिया के सपनों को साकार करने की कोशिश कर पाएंगे, ये भारतीय राजनीति के बड़े सवाल हैं।