रविवार, 6 सितंबर 2015

दिग्गी की हुई अमृता

किसी भी पुरुष या स्त्री को किसी भी उम्र में परस्पर प्रेम करने का अधिकार है। प्रेम को किसी भी बंधन में नहीं बांधा जा सकता न उम्र में, न जाति या मजहब के बंधन में। प्रेम सिर्फ मन देखता है।



सुभाष चंद्र 

नेताओं के चरित्र पर कई तरह के सवाल उठते रहे हैं। कभी उनके आर्थिक गड़बड़ियों के लिए तो कई उनके वैयक्तिक जीवन को लेकर। नेताओं के विवाहेत्तर संबंध में हमेशा से सुर्खियों में छाए रहे हैं। यूं तो दुनिया में कई प्रेम विवाह होते हैं, लेकिन यह कुछ हटकर होगा जिसका कारण है इस विषय में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह का होना और दूसरा उनकी 67 साल की उम्र और आखिर में उनकी पत्नी का स्वर्गवास होने के बावजूद वह प्रेम संबंध में पड़ गए। बमुश्किल एक साल ही हुआ और उन्होंने दोबारा शादी कर ली। मई, 2014 में प्रेम सरेआम हुई और योगेश्वर कृष्ण की जन्मदिवस के एक दिन बाद 6 सितंबर, 2015 को अमृता राय ने अपने फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया, ‘मैंने और दिग्विजय सिंह ने हिंदू रिति रिवाज से शादी कर ली है।’
जब बात नेता और पत्रकार की हो, तो सुर्खियों में रहना लाजिमी है। लिहाजा, जब बीते साल मई महीने यानी 2014 में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और टीवी पत्रकार अमृता राय की प्रेम कहानी की खबरें सरेआम हुई और बाद में इसकी स्वीकारोक्ति हुई, तो सोशल साइटस ट्विटर पर यह टॉप ट्रेंड बन गया था। उल्लेखनीय है कि सोशल साइट ट्विटर पर जो विषय सबसे ज्यादा चर्चित होते हैं, उन्हें टॉप ट्रेंडिंग लिस्ट में रखा जाता है। गूगल पर 5 लाख लोगों ने इस प्रेम कहानी को सर्च किया था। इसके अलावा फेसबुक और इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी कांग्रेस नेता और पत्रकार के संबंध उजागर होने का मामला लगातार टॉप पर है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अपनी पत्नी अमृता और दिग्विजय सिंह के रिश्ते को लेकर सोशल मीडिया में मची हलचल पर प्रोफेसर आनंद प्रधान ने नाराजगी जताई थी। उन्होंने फेसबुक पर लिखा,यह मेरे लिए परीक्षा की घड़ी है। मैं और अमृता लंबे समय से अलग रह रहे हैं। सहमति से तलाक के लिए आवेदन किया हुआ है। हमारे बीच संबंध बहुत पहले से खत्म हो चुके हैं। अलग होने के बाद अमृता अपने बारे में कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र हैं और मैं उनका सम्मान करता हूं। उन्हें भविष्य के लिए शुभकामनाएं। 
सच तो यह है कि कांग्रेस महासचिव और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह हमेशा सुर्खियों में रहते हैं। हर पखवाड़ा और हर माह वह सुर्खियों में रहते हैं। मानो उनका यह सबसे प्रिय शगल हो। बीते साल दिग्गी बाबू ने अपने प्यार को ट्विटर के जरिए दुनिया के सामने रखा था। दूसरों के निजी जीवन में झांकने वाले दिग्गी बाबू ने खुद ही अपने निजी जीवन की किताब को दुनिया भर के सामने खोलकर रख दिया। दिग्विजय सिंह ने खुलेआम ट्विटर पर अपने पिछले कुछ समय से टीवी एंकर अमृता राय के साथ प्रेम संबंधों का खुलासा किया। उस समय उन्होंने दावा किया था कि वे जल्द ही अमृता के साथ शादी के बंधन में बंधेंगे।
हालांकि, इस दावे को हकीकत तक आते-आते साल भर का समय लग गया। प्रेम करने वालों के राधाकृष्ण से बढ़कर कोई उपमा या उपमेय नहीं होता है, लिहाजा श्रीकृष्णाटमी के अगले दिन अमृता ने अपने दूसरे प्यार को पति के रूप में सार्वजनिक कर दी। 
बता दें कि दिग्विजय सिंह की ‘लेडी लव’ अमृता राय जानी-मानी पत्रकार हैं। वे एनडीटीवी न्यूज चैनल में एंकर थीं, फिर उन्होंने जी न्यूज ज्वाइन किया। इन दिनों वे राज्य सभा टीवी में बतौर सीनियर एंकर काम कर रही हैं। ट्विटर पर अपने रिश्ते को कबूल करने के बाद अमृता ने यह भी कहा था कि उनका ई-मेल हैक कर लिया गया है। इस बीच एक शादीशुदा महिला पत्रकार के साथ संबंधों की स्वीकारोक्ति पर भाजपा की ओर से कहा गया था कि यह नैतिकता का प्रश्न होने के साथ अपराध की श्रेणी में आता है और इसके लिए उन्हें सजा भी हो सकती है। भाजपा नेता मीनाक्षी लेखी ने उस समय कहा था कि गुप्त विवाह संभव नहीं है। दिग्विजय पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कहा था कि नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले ने नैतिकता की नई परिभाषा गढ़ी है। लेकिन, अब जबकि अमृता ने पूरे हिंदू रीति-रिवाज से शादी होने का एलान कर दिया, तो भला कोई क्या कर सकता है?
मटुक चैधरी और जूली के बाद दिग्विजय सिंह दूसरे व्यक्तित्व बनकर सामने आए हैं। बताया जाता है कि अमृता अजीब किस्म की महत्वाकांक्षा की असीम विकृति का शिकार रहीं हैं। वे एक साधारण एंकर थीं। राज्य सभा टीवी में आते ही उनका रवैया बदलने लगा। अमृता का हाव भाव सामान्य एंकर की तरह नहीं था। धीरे-धीरे उनका प्रोमोशन होता गया, वो यात्राएं करने लगीं, नेताओं का साक्षात्कार लेने लगीं और अपने को शायद स्टार मानने लगीं। आनंद प्रधान से अलग होने की सोच के पीछे उनकी स्टार बन जाने और सत्ता के शीर्ष पर संबंध होने की मानसिकता की प्रमुख भूमिका रही है। कई लोगों का कहना है कि अगर एक ओर महत्वाकांक्षा का खिंचाव है और दूसरी ओर किसी खूबसूरत, जवान और पढ़ी लिखी संगिनी के साथ आलिंगबद्ध होने तथा जीने की कामना। समाज को इसका विरोध करना चाहिए...

कौन देगा जवाब?

 क्या ईवीएम आने के बावजूद वोटों से खिलवाड़ किया जा सकता है? चुनाव संबंधी निर्णय लेने में क्यों लग जाता है वर्षों का समय? क्या अरुणाचल प्रदेश की जनता देश के दूसरे लोगों के साथ नहीं कदमताल कर सकती हैं? नीदो आज भी मांग रहा है जवाब, लेकिन कौन देगा उसे?

सुभाष चंद्र

यदि यह कहा जाए कि चुनावी मौसम में सियासी दांवपेंच अपने चरम पर होता है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सुदूर पूर्वोत्तर के राज्य अरुणाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव में कुछ ऐसा ही हुआ और मामला अभी गुवाहटी हाईकोर्ट के ईटानगर बेंच में है। मामला रागा विधानसभा क्षेत्र (25) का है। 2014 विधानसभा चुनाव परिणाम में जैसे ही निवर्तमान विधायक नीदो पवित्र को महज 21 वोटों से हारने की सूचना मिलीं, उन्हें भरोसा नहीं हुआ। तमाम चीजों का आकलन करने के बाद उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और मामला कोर्ट में है।
रागा विधानसभा क्षेत्र से 2004 और 2009 के विधानसभा चुनाव में नीदो पवित्र हजार वोटों से अधिक के अंतर से चुनाव जीते थे। उन्हें कई विभागों का संसदीय सचिव बनाया गया था और अपने कर्तव्य का बेहतर निर्वहन किया। वरिष्ठ कांग्रेस नेता नीदो पवित्र ने कहा कि 2014 विधानसभा चुनाव में भाजपा के नेता तमार मुरतेम ने धांधली की है। ईवीएम मशीन के वोटों की गिनती में मैं आगे चल रहा था। पोस्टल बैलेट की गिनती में भाजपा नेता ने गड़बड़ी की है और महज 21 वोटों से विजयी घोषित करवाया है। हमारे पास तमाम साक्ष्य हैं, जिससे इस गड़बड़ी का खुलासा हो रहा है। मैंने गुवाहटी हाईकोर्ट से गुहार लगाई है। सुनवाई शुरू हो चुकी है। मुझे सौ फीसदी भरोसा है कि मैं पहले दो बार रागा का विधायक रहा हूं और इस बार भी क्षेत्र की जनता ने मुझे ही अपना प्रतिनिधि बनाया है। 
उल्लेखनीय है कि रागा विधानसभा अरुणाचल प्रदेश के लोअर सुअनसरी जिला में आता है। 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा नेता तमार मुरतेम को 6401 और कांग्रेस नेता नीदो पवित्र को 6380 वोट मिलने की घोषणा हुई। इस चुनाव में इस सीट पर 139 लोगों ने ‘नोटा’ का बटन दबाया था। इससे पहले 2009 के विधानसभा चुनाव में नीदो पवित्र 5460 वोटों के साथ और 2004 के विधानसभा चुनाव में 4258 वोटों के साथ विजयी हुए थे। बता दें कि 2004 के चुनाव में नीदो ने बतौर निर्दलीय प्रत्याशी अपना चुनाव जीता था और फिर कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए थे। उससे पहले 1999, 1995 और 1990 के विधानसभा चुनाव में भी रागा विधानसभा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी तालो मुगली विजयी हुए थे।
प्राप्त जानकारी के अनुसार, 2014 विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद नीदो पवित्र ने चुनाव से जुड़े तमाम साक्ष्य जुटाएं। स्थानीय प्रशासन से भी बात की। जब उनकी बातों पर समुचित गौर नहीं फरमाया गया तो आखिरकार हाईकोर्ट की शरण ली। हाईकोर्ट में दायर याचिका में नीदो पवित्र ने भाजपा नेता तमार मुरतेम और पीठासीन पदाधिकारी तालुक रिगिया के खिलाफ याचिका दाखिल किया है। याचिका में कहा गया है कि नीदो पवित्र को ईवीएम में 6275 वोट और 105 पोस्टल वोट मिलाकर कुल 6380 हुआ, जबकि भाजपा नेता तमार मुरतेम को ईवीएम में 6241 वोट और 160 पोस्टल वोट मिलाकर कुल 6401 वोट हुआ। याचिका में यह भी आरोप लगाया गया है कि मतदान के दिन यानी 9 अप्रैल 2014 को पोलिंग बूथ संख्या 25/15 जिग्गी एलपी स्कूल पर भाजपा नेता अपनी पत्नी श्रीमती यपी मुरतेम और कुछ कार्यकर्ताओं के साथ आर्इं और गड़बड़ियां की। ऐसे एक नहीं, कई मौका-ए-वारदात का जिक्र करते हुए नीदो पवित्र ने याचिका दाखिल किया है। उन्हें पूरा भरोसा है कि न्यायपालिका से उन्हें पूरा न्याय मिलेगा और एक जनप्रतिनिधि के रूप में वे फिर से अपने क्षेत्र सहित अरुणाचल प्रदेश के विकास में अपना योगदान देंगे। 


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तानिया के पिता हैं नीदो पवित्र
अरुणाचल प्रदेश के लोगों के लिए नीदो पवित्र एक जाना-पहचाना नाम है। दो बार कांग्रेस के विधायक और महत्वपूर्ण मंत्रालय के संसदीय सचिव के रूप में उन्होंने बेहतर काम किया है। इसे विडंबना ही कहा जाए कि पूर्वाेत्तर से बाहर निकलते हुए उनकी पहचान उनके बेटे नीदो तानियाम से अधिक है।
नीदो तानिया, एक युवक, केवल उन्नीस साल का, दुबला-पतला लड़का था। एक निजी प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में फर्स्ट इयर का छात्र। जिसे 29 जनवरी को अचानक, दिल्ली के व्यावसायिक बाजार लाजपतनगर में, आठ दुकानदारों द्वारा पीट-पीट कर खत्म कर दिया गया। उसने अपने बाल आजकल के युवाओं की तरह ‘कलर’ (रंगीन) कर रखे थे। वह दिल्ली की एक पनीर की दुकान में, पनीर या क्रीम-मक्खन खरीदने नहीं, बल्कि अपने किसी दोस्त का पता पूछने गया था। उसने अपने ऊपर की गई टिप्पणी पर नाराज हो कर उस दुकान का शीशा तोड़ दिया। इसके लिए उसने दस हजार रुपये का जुर्माना भर दिया और अपने हत्यारों के साथ ‘समझौता’ कर लिया। 
उसकी हत्या करने वालों में दो हत्यारे नाबालिग थे, ठीक उसी तरह, जैसे ‘निर्भया’ बस बलात्कार कांड का सबसे जघन्य बलात्कारी भी नाबालिग था। जाहिर है जब तक मौजूदा कानूनों में संशोधन नहीं किए जाते, तब तक उसे हत्या की सजा नहीं दी जा सकेगी। कानून को अब यह समझना होगा कि बदले हुए सामाजिक यथार्थ में बच्चे अब नाबालिग नहीं, ‘वयस्क’ हो चुके हैं। वे बलात्कार, चोरी, डकैती, लूट और हत्याएं करने लगे हैं। 
आज भी बरकरार है सवाल
निदो तानिया उस अरुणाचल प्रदेश का था, जो उत्तर-पूर्व में है, जहां रहनेवालों के चेहरे-मोहरे दिल्ली और उत्तर-भारतीयों से अलग होते हैं। वही अरुणाचल प्रदेश, जिसे चीन कई वर्षों से अपने नक्शे के भीतर दिखाता है, लेकिन इसके बावजूद वह अभी तक भारत का हिस्सा इसलिए बना हुआ है, क्योंकि वहां की जनता अब भी स्वयं को भारतीय गणतंत्र का हिस्सा मानती है।
नीदो की हत्या ने उस समय जो सवाल खड़े किए, वह आज भी कायम है। जबाव नहीं मिला। कुछ ही समय पहले अमेरिका के मशहूर अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने एक  सर्वेक्षण में दुनिया के उन दस सबसे मुख्य देशों में भारत को शिखर पर रखा है, जहां नस्ल, जेंडर (लिंग), सामुदायिक और जातीय असहिष्णुता सबसे अधिक है। इस पर सोचने की जरूरत है। निदो तानियाम की हत्या के कुछ ही दिन पहले, दक्षिण दिल्ली के उसी इलाके में, बाहर घूमने निकलीं मणिपुर की  दो लड़कियों के जूते में, दो युवकों ने अपने पालतू कुत्ते का पट्टा बांध दिया था और जब डर कर वे लड़कियां चिल्लाने लगीं, तो वे हंसने लगे और जब उनमें से एक लड़की ने कुत्ते को दूर रखने के लिए उसे पैर से ठोकर मारी तो उन्होंने उस लड़की को बाल पकड़ कर घसीटा और उसे ‘चिंकी’ कहते हुए गालियां दीं। उन लड़कियों की मदद में आए उत्तर-पूर्व के दो युवकों को उन्होंने मारा-पीटा। शिकायत करने पर भी पुलिस ने एफआइआर दर्ज नहीं की।

कहां से आए चाणक्य?


 बिहार की आबादी प्रतिशत में काफी कम ब्राह्मण देश की अस्सी प्रतिशत जगहों पर कैसे बैठे हैं? विधानसभा में इनकी संख्या आबादी प्रतिशत से अधिक कैसे है ? इसे कैसे उखाड़ फेंका जाए? इसके कौन-कौन कारक हैं ? बिहार की राजनीति में कभी ब्राह्मणों की तूती बोलती थी । 90 के दशक में ब्राह्मणों के उपेक्षित होने में मंडल,कमंडल की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण रही है। राममनोहर लोहिया के तीनों शिष्य लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान ने बिहार को जिस वर्ग में बांट दिया, उसमें बाह्मण समुदाय कहीं नहीं था।


सुभाष चंद्र 

बेशक पुराण-शास्त्रों और समाज में ब्राह्मण को विशिष्ट मान्यता दी गई है। हिंदुस्तान की राजनीति में भी इनका काफी वर्चस्व रहा, लेकिन नब्बे के दशक आते-आते इनकी शक्ति क्षीण होती गई और ये हाशिए पर धकेल दिए गए। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी प्रदेशों में कभी सत्ता की धुरी ब्राह्मण ही रहे, लेकिन दोनों प्रदेशों में आज ये दलित और अन्य जातियों से काफी पीछे हैं। भले ही आज भी ब्राह्मण नेता हों, लेकिन पहले वाली आदर-सत्कार उन्हें नसीब नहीं है। आखिर क्यों? नब्बे के दशक में जैसे ही बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद का चेहरा उभरता है, जातीय राजनीति में सत्ता की सियासत से ब्राह्मणों को पूरी तरह से बाहर कर दिया जाता है। बरबस ही आज सवाल उठ रहा है कि क्या चाणक्य की कर्मभूमि में ब्राह्मणों की राजनीति का अवसान काल है ? 
असल में, उत्तर प्रदेश के साथ ही बिहार में मंडल के दौर से, बिहार के संदर्भ में कहें कि कर्पूरी ठाकुर के समय से ही तिलक तराजू ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद का विरोध पहले चरम पर पहुंचा और अब यह सत्ता का कारक है। बिहार की आबादी में केवल 7 प्रतिशत की भागीदारी है ब्राह्मणों की। इसमें मतदाताओं की संख्या और भी कम हो जाएगी, क्योंकि लगभग हरेक परिवार के सदस्य प्रवासी जीवन जी रहे हैं। हालांकि, डॉ. जगन्नाथ मिश्र जैसे नेता आज हौसला नहीं छोड़े हैं। उनका कहना है कि राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है। तमिलनाडु को देखिए, वहां दलित राजनीति होती है, लेकिन दलितों की नेता तो जयललिता ही हैं न! फिर बिहार में ऐसी स्थिति क्यों नहीं हो सकती है? जयललिता ब्राह्मण हैं, लेकिन दलितों की नेता हैं। बकौल राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के नेता जयनारायण त्रिवेदी, ‘देखिए ब्राह्मणों ने हमेशा से चाणक्य की भूमिका निभाई है और भविष्य में भी वे इस भूमिका में सक्रिय रहेंगे। चाणक्य के बगैर सत्ता चल ही नहीं सकती।’
यहां हम यह बता दें कि लोकसभा चुनाव में जैसे ही बिहार में जदयू की दुर्गति हुई, उसके बाद आनन-फानन में नीतीश कुमार ने अपनी कुर्सी छोड़ी और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया। मांझी के मंत्रिमंडल में एक भी ब्राह्मण को शामिल नहीं किया गया था। बिहार की राजनीति में यह आजादी के बाद का पहला मंत्रिमंडल था, जिसमें एक भी ब्राह्मण नहीं रहा। इसके बाद भला कोई भी ब्राह्मण नेता क्या कहेगा? यहां सवाल यह भी है कि नीतीश कुमार जिस कुर्मी जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं वो 3 प्रतिशत है, तो 7 प्रतिशत वाले ब्राह्मण का यह हाल क्यों ? आपको बता दें कि बिहार की राजनीति में 2011 की जनगणना के अनुसार, यादव 13 प्रतिशत, कुर्मी 3 प्रतिशत, कोइरी 4 प्रतिशत, कुशवाहा 2 प्रतिशत और तेली 3 प्रतिशत सहित अतिरिक्त पिछड़ा वर्ग 17 प्रतिशत, महादलित 10 प्रतिशत, पासवान और दुसाध 6 प्रतिशत, मुस्लिम 16.5 प्रतिशत, आदिवासी 1.3 प्रतिशत, भूमिहार 6 प्रतिशत, राजपूत 9 प्रतिशत और कायस्थ 3 प्रतिशत हंै।  कभी बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों की तूती बोलती थी । 90 के दशक में ब्राह्मणों के उपेक्षित होने में मंडल,कमंडल की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण रही है। राममनोहर लोहिया के तीनों शिष्य लालू यादव,नीतीश कुमार ओर रामविलास पासवान ने बिहार को जिस वर्ग में बांट दिया उसमें बाह्मण समुदाय कहीं नहीं था।अभी तक का हालात ऐसा है कि सभी पार्टी ब्राह्मण को साथ लाने में डर रहे हैं कि इससे कहीं बाकी जाति उनसे दूर न हो जाएं ।
अतीत की ओर चलें, तो हमें पता चलता है कि कांगे्रस में 30 के दशक में कायस्थों का वर्चस्व था। उसके बाद राजपूत और भूमिहार का दौर आया। कांगे्रस में जब बिखराव आया और इंदिरा कांग्रेस बनी, तो ब्राह्मणों का कद बढ़ा। इंदिरा गांधी ने ब्राह्मणों के साथ पिछड़े, दलितों व मुसलमानों को मिलाकर सत्ता की सियासत के लिए एक नया समीकरण बनाया जो हिट हुआ। इसे लेकर सवर्णों की ही दूसरी जातियों में ब्राह्मणों से ईर्ष्या बढ़ी। बिहार के संदर्भ में बात करें, तो जयप्रकाश नारायण आंदोलन के समय ब्राह्मणों को दरकिनार कर दिया गया था।  एक नारा चला था- लाला, ग्वाला और अकबर के साला वाली जाति की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि जातीय राजनीति और ब्राह्मणों के अवसान से यदि किसी को सर्वाधिक नुकसान हुआ है, तो वह कांग्रेस पार्टी है। बिहार के साथ उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस का सच इसी के करीब है। बिहार प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं प्रेमचंद्र मिश्र। वे कहते हैं कि जिस दिन ब्राह्मण फिर से कांग्रेस के साथ आ जाएंगे, उसी दिन से उनका भाग्य बदल जाएगा। 
ब्राह्मण हमेशा से अपनी सामाजिक कूटनीतिक राजनीतिक संरचना और उसकी उपयोगिता के कारण दूसरों का ध्यान खींचता आ रहा है। यही कारण है कि कल तक ब्राह्मणों के खिलाफ सर्व समाज में जहर उगलने वाले आज अपनी रणनीतियां पलटकर इनका समर्थन पाने के लिए, इनके आगे-पीछे भाग रहे हैं। बिहार में कुछ जो चर्चित ब्राह्मण नेता हुए, उसमें कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके प्रजापति मिश्र, ललित नारायण मिश्र, विनोदानंद झा, जगन्नाथ मिश्र, विंदेश्वरी दुबे, केदार पांडेय, भागवत झा ‘आजाद’ आदि का नाम लिया जाता है। ये सभी कांग्रेसी रहे। समाजवादी नेताओं में रामानंद तिवारी एक बड़े नाम हुए, लेकिन उनकी पहचान ब्राह्मण नेता की नहीं रही, बाद में उनके बेटे शिवानंद तिवारी राजनीति में आए। भागवत झा ‘आजाद’ की राजनीतिक फसल उनके बेटे कीर्ति झा ‘आजाद’ के सांसद बनने की है। यह अलग बात है कि वे अपने पिता के विपरीत भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। भले ही 3 बार सांसद बने, लेकिन मंत्री पद अब तक नसीब नहीं हुआ है। डॉ. जगन्नाथ मिश्र खुद कई बार मुख्यमंत्री रहे, बाद में अपने बेटे नीतीश मिश्र की सियासत नीतीश कुमार के सहारे चमकाते रहे। अब जगन्नाथ मिश्र और उनके बेटे जीतन राम मांझी खेमे में हैं। जदयू खेमे में एक संजय झा का नाम बीच-बीच में आता रहा, लेकिन कोई भी बड़ा सम्मान उन्हें अब तक नहीं मिला है। ललित नारायण मिश्र के परिवार से उनके बेटे विजय मिश्र जदयू से विधान परिषद के सदस्य हैं। विजय मिश्र के भी बेटे ऋषि मिश्र जदयू के कोटे से ही विधायक हैं, लेकिन नीतीश कुमार की पार्टी में उनकी हैसियत भी बस एक विधान पार्षद या विधायक भर की है।
बहरहाल, प्रेमचंद्र मिश्रा का जो दुख है, उससे कई राजनीतिक विश्लेषक भी इत्तेफाक रखते हैं। चाणक्य को एक प्रतीक मानकर बार-बार ब्राह्मणों को श्रेष्ठ रणनीतिकार बताया जाता रहा है। बिहार में कई ब्राह्मण नेताओं ने बतौर मुख्यमंत्री और मंत्री रहकर लंबे समय तक राज किया है, आज वहां ओबीसी राजनीति के उभार के बाद अतिपिछड़ों व दलित-महादलितों की राजनीति के उभार के दौर में ऐसा क्या हो गया कि सवर्ण समूह की तो हैसियत बढ़ी, लेकिन ब्राह्मण अनुपयोगी होते गए। विश्लेषकों का कहना है कि बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों को एक सिरे से बाहर कर देने का मसला महत्वपूर्ण नहीं है। नीतीश कुमार पहले तो सवर्णों के लिए सवर्ण आयोग बनाकर अपनी राजनीति साधने में लगे हुए थे, लेकिन जीतन राम मांझी भी सवर्णों के लिए अलग से आरक्षण का पासा फेंक चुके हैं। चूंकि, कमान फिर से नीतीश के हाथ में है, अब भाजपा भी साथ नहीं है, लिहाजा अगड़ी जातियों को एक सवर्ण समूह में बदलने के बाद ब्राह्मणों का नुकसान सबसे ज्यादा हुआ है। 
आगामी विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ताल ठोंक रही है। गिने-चुने ब्राह्मण नेता इसके साथ हैं। भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय ब्राह्मण समुदाय से जरूर हैं, लेकिन पार्टी में दबदबा नहीं बना पाए हैं। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता अश्विनी चौबे, फिलहाल ब्राह्मण बहुल संसदीय क्षेत्र बक्सर से सांसद हैं।  सच यह भी है कि बिहार से वर्तमान समय में दो सांसद ब्राह्मण हैं और दोनों भाजपा के ही हैं।
 देश भर के अगड़ों की तरह बिहार में भी अगड़े वर्ग द्वारा मतदान का औसत और जातियों के मुकाबले कम रहता है। इसकी वजह दूसरी जातियों के अपेक्षाकृत अगड़ों की अधिक संपन्नता है। समृद्ध लोग गरीबों के मुकाबले कम मतदान करते हैं। साथ ही दूसरी जातियों के मुकाबले वो अधिक संख्या में प्रवासी होते हैं और बाहर रहने की वजह से मतदान नहीं कर पाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि हर अगड़ा भाजपा के नाम पर वोट देता है। पिछड़ों की राजनीति करने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल के जो चार सांसद 2009 में चुने गए थे, उनमें लालू को छोड़ तीनों अगड़ी जाति के थे। 
असल में, 1980 में जन्म के बाद से ही भाजपा की पहचान अगड़ी जातियों की रही। अपने दम पर वह पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों का वोट नहीं खींच पाई। 2005 और 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में और 2009 के आम चुनाव में बिहार में जदयू-भाजपा को मिली भारी जीत का सबसे बड़ा कारण ये था कि उसका गठबंधन एक सफल जातीय समीकरण पर अमल कर पाया था। बतौर मुख्यमंत्री नीतीश ने यादवों के अलावा पिछड़ी जातियों को अतिपिछड़ा का, पासवानों के अलावा दलितों को महादलित का, और सम्पन्न मुसलमानों के अलावा बाकी मुसलमानों को पसमंदा का दर्ज़ा देकर सरकारी सहायता देनी शुरू कर दी थी। इसके चलते 2010 में इस गठबंधन को अगड़ों के अलावा कई पिछड़ों और दलितों और कुछ मुसलमानों का भी वोट मिला। लेकिन जैसे ही जून 2013 में जब भाजपा ने मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया, तो यह गठबंधन टूट गया। मोदी की मुसलमान-विरोधी छवि का हवाला देते हुए नीतीश ने भाजपा से सत्रह साल पुराना नाता तोड़ लिया। जिस प्रकार से लोकसभा चुनाव में भाजपा का सफलता मिली, उससे पार्टी कार्यकर्ता उत्साहित हैं।