भारत सरकार और प्रदेश सरकार के समवेत प्रयास से गरीब बच्चों के लिए मध्यान्ह भोजन योजना 15 अगस्त 1955 को लागू की गई थी जिसमें मुख्य भूमिका केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय की रही। इसके अंतर्गत कक्षा 1 से कक्षा 5 तक के सभी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को दोपहर में भोजन देने का प्रावधान किया गया था, चाहे संबंधित विद्यालय राज्य सरकार, परिषद अथवा अन्य सरकारी निकायों द्वारा संपोषित हो। सरकार ने मिड डे मिल के लिए काफी धन आवंटित किए और विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं की सहायता से प्राथमिक और अब कई माध्यमिक विद्यालयों में इसको लागू किया। कागजों में भले ही योजना सफल बताई जाए लेकिन वास्तविकता के धरातल पर आते ही इसके इर्द-गिर्द अनेक सवाल खड़े हो जाते हैं। विभिन्न रिपोर्ट बताते हैं कि जिन इलाकों में इस योजना की सबसे अधिक जरूरत थीं, उन्हीं इलाकों में यह धराशायी हो रही है, वहीं सबसे ज्यादा अनियमितता है। बच्चों को खाना नहीं मिल रहा है, लेकिन इसके लिए दोषी कौन है? सरकार व सरकारी मशीनरियों में शामिल वे लोग जिन्हें इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है।
दरअसल, मिड डे मिल योजना को लागू करना सरकार की प्राथमिकता में नहीं था। मगर, स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा अत्यधिक जोर दिए जाने पार सरकार को इसे लागू करने के लिए बाध्य होना पड़ा। स्वयंसेवी संगठनों द्वारा चलाए जा रहे इस अभियान मेें तेजी तब आयी जब पीयूसीएल ने साल 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले को सुलझाते हुए कई आदेश पारित किए, जिसके कारण यह योजना तेजी से शुरू की गई। देश में पहले-पहल यह तमिलनाडु में लागू किया गया। इसके पीछे मकसद यह था कि जिन बच्चों को खाना नसीब नहीं हो पाता है, वे खाना के नाम पर ही सही स्कूलों, में आएंगे तो उन्हें शिक्षा जरूर मिल जाएगी। कारण, देश में लाखों ऐसे परिवार हैं जो पेट की क्षुधा शांत करने के चक्कर में बच्चों को शिक्षित नहीं कर पाते हैं। लेकिन वर्तमान में यह योजना सुचारू रूप से लागू नहीं हो पा रही है। दिल्ली नगर निगम विद्यालय में पढऩे वाला छात्र मेहराजुद्दीन कहता है, ''मेरे माता-पिता गरीब हैं, वे ठेला चलाकर अपनी जीविका कमाते हैं। उनकी कमाई इतनी नहीं होती कि हम दोनों शाम भरपेट भोजन कर सकें, इसलिए सुबह में नाश्ता हमारे घर नहीं बनता। हम भूखे पेट और कभी-कभार चाय पीकर स्कूल आते हैं और दोपहर में स्कूल में खाना खाते हैं।ÓÓ स्वयंसेवी संस्था 'मंथन Ó के द्वारा कक्षा पांच से ऊपर के बच्चों पर किए गए सर्वेक्षण में यह देखने में आया है कि स्कूल के अधिसंख्य बच्चे सुबह का नाश्ता करके नहीं आते। वे बच्चे भूखे क्यों आते हैं, इसका कारण पूछने पर अधिकांश बच्चों ने इसका कारण गरीबी और परिवार की आर्थिक तंगी बताया।
कई प्रदेशों में इस योजना में घोर अनियिमितता बरती जाती है जिसका उजागर कई रिपोर्टो में हो चुका है। इस योजना का मकसद था कि स्कूलों में बच्चों की संख्याएं बढ़ाई जाए, परंतु जमीनी हकीकत कुछ और ही है। ग्राम स्वराज अभियान द्वारा किए गए शोध के अनुसार पूरे देश में 20 प्रतिशत बच्चे स्कूल से बाहर हैं। जो बच्चे स्कूल जाते हैं और जिन्हें मिड डे मिल योजना का लाभ मिल पाता है उसमें अल्पसंख्यक, दलित एवं आदिवासी बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है। कुछ विद्यालयों के शिक्षकों का तो यहां तक मानना है कि यह योजना बच्चों की पढ़ाई में बाधा उत्पन्न कर रहा है, बच्चे खाना खाने के बाद भाग जाते हैं। शिक्षकों का कहना है कि ये बच्चे पेट दर्द, शौच आदि का बहाना बनाकर घर चले जाते हैं तो कभी-कभी अभिभावक एक ही बच्चे का नाम कई स्कूलों में लिखवा लेेते हैं और कई स्कूलों से लाभ उठाना चाहते हैं। अभिभावक भी पढ़ाई के प्रति सजग नहीं हैं, जहां बच्च थोड़ा-बहुत पढऩा-लिखना सीखने लगता है, वहीं उसकी पढ़ाई छुड़ाकर कामों में लगा दिया जाता है। वहीं दूसरी ओर बच्चों के अभिभावकों का कहना है कि यह योजना बच्चों को फायदा न दिलाकर उनलोगों को फायदा दिला रही है जो अनाज वितरण से लेकर भोजन बनाने एवं उसकी देखरेख करते हैं। वे अच्छी कमाई कर रहे हैं। इस संदर्भ में सर्वेक्षण के जो नतीजे निकले हैं उसके अनुसार अधिकतर मामलों में समय पर खाद्यान्न की आपूर्ति न होना ओर कुप्रबंधन मुख्य कारक तत्व है और इसके लिए भारतीय खाद्य निगम को दोषी ठहराया गया है। अन्य मामलों में सरकार द्वारा स्कूलों को समय पर इस योजना का चलाये जाने के लिए राशि का आवंटन न होना भी जिम्मेवार है। सर्वेक्षण में पाया गया कि 7 प्रतिशत स्कूलों में आपसी मतभेद योजना के सुचारू रूप ने चलने का कारण था, वहीं 9 प्रतिशत स्कूलों में शिक्षक ही उपलब्ध नहीं थे। योजना सही ढंग से चले और बच्चों को आवश्यक पोषण इस योजना के माध्यम से मिल सके, इसके लिए बच्चों को पेट के कीड़े मारने की दवा देना भी बहुत जरूरी है, पर कहीं भी पेट के कीड़े मारने की दवा नहीं दी गई थी।
खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के आंकड़ों की जुबानी बात की जाए तो भी यही परिलक्षित होता है कि मिड डे मिल योजना के मद में सरकार जितना अनाज आवंटित हुआ था कि उतना खर्च नहीं हो पाया। सरकारी गोदाम में लाखों टन अनाज धरे रह गए। विभाग द्वारा साल 2001-02 में 18.67 लाख टन चावल और 9.96 टन गेहंू आवंटित था जबकि खर्च हुए महज 13.48 लाख टन चावल और 7.28 टन गेहंूं। इसी प्रकार साल 2002-03 में 18.84 लाख टन चावल और 9.40 टन गेहंू के एवज में 13.75 लाख टन चावल और 7.45 टन गेहंू, साल 2003-04 में 17.72 लाख टन चावल और 9.08 टन गेहूं के एवज में 13.49 लाख टन चावल और 7.20 टन गेहंू, साल 2004-05 में 20.14 लाख टन चावल और 7.35 टन गेहंू के एवज में 15.41 लाख टन चावल और 5.92 टन गेहंू, साल 2005-06 में 17.78 लाख टन चावल और 4.72 टन गेहंू के एवज में 13.64 लाख टन चावल और 3.63 टन गेहंू और साल 2006-07 (जनवरी तक ) में 17.17 लाख टन चावल और 4.17 टन गेहंू के एवज में 10.48 लाख टन चावल और 2.85 टन गेहंू खर्च हुए हैं। इस प्रकार सरकार द्वारा जितना अनाज आवंटित किया जाता है, संबंधित मशीनरी उसका सदुपयोग नहीं कर पा रही है। सर्वशिक्षा अभियान की तरह यह भी विभागीय अकर्मण्यता और उपेक्षा का शिकार होता जा रहा है। कई प्रसंग ऐसे आए हैं जब मिड डे मिल योजना के तहत दी जाने वाली भोजनों पर कई प्रकार के कीड़े आदि मिले हैं, तत्क्षण तो उस पर बावेला मचाया जाता है लेकिन बाद में फिर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है।
गुरुवार, 2 जुलाई 2009
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2 टिप्पणियां:
सच कह रहे हैं सुभाष जी..भारत में एक अछे योजना का भी ऐसा हाल कर दिया जाता है की..और ये योजना उन्ही में से एक का उदाहरण है....सामयिक आलेख के लिए आभार..
हर जगह की बात तो नहीं कह सकती .. पर अधिकारियों की मिली भगत से अधिकांश जगहों पर सरकार के किसी भी योजना का लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाता है ।
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