रविवार, 13 फ़रवरी 2011

कब और क्यों होगी तबाह धरती

भविष्य को जानने की उत्सुकता हर मनुष्य की होती है। चाहे अच्छा हो या बुरा... आगे क्या होने वाले है, वह हमारे लिए कैसा होगा? हमारे परिजनों के लिए कैसा रहेगा? हर कोई जानना चाहता है। इसी उत्सुकता के अति उत्साह में कई बार विभिन्न अध्ययनों और अनुमानों के आधार पर कही जाती है कि हमारी धरती तबाह होने वाली है। कोई इसकी समय-सीमा 2012 तय करता है तो कोई धरती पर जलजला आने की बात 2036 में करता है। सबके अपने-अपने तर्क और साक्ष्य। मगर, सवाल यह भी मौजूं है कि जब 21वीं सदी का विज्ञान यह बताने में समर्थ है कि अमुक वर्ष में धरती तबाह हो सकती है तो क्या यह पहल नहीं होगी कि इसे कैसे रोका जाए? या फिर यह कोरी कल्पना है, बिलकुल मुंबइया फिल्मी गॉसिप की तरह।
हालिया घटनाक्रम में कुछ वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2036 के पहले धरती का विनाश हो सकता है। इन वैज्ञानिकों की माने तो 23,000 मील प्रति घंटा की रफ्तार से आ रहे विशालकाय क्षुद्र ग्रह के टकराने से धरती तबाह हो सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार धरती के काफी निकट स्थित 275 मीटर चौड़ा क्षुद्रग्रह धरती के काफी शक्तिशाली गुरूत्वीय केंद्र की होल से अप्रैल 2029 में गुजरेगा और सात साल बाद लगभग 13 अप्रैल 2036 को यह धरती से टकरायेगा। गौरतलब है कि धरती के गुरूत्वाकषर्ण के काफी शक्तिशाली होने के कारण जब यह क्षुद्र ग्रह इसके काफी निकट से गुजरेगा तो इस बल की वजह से यह क्षुद्रग्रह अपने रास्ते से विचलित हो जायेग।
नासा के नीयर अर्थ आब्जेक्ट प्रोग्राम कार्यालय के निदेशक डोनाल्ड योमांस के अनुसार, धरती के गुरूत्वाकषर्ण की वजह से यह क्षुद्र अपने रास्ते से विचलित होगा और इस बात की संभावना बनती है कि यह धरती से टकरा जाये। यह स्थिति 13 अप्रैल 2029 को हो सकती है। क्षुद्र ग्रह के धरती के काफी निकट होने के कारण ऐसा हो सकता है लेकिन हमनें इस समय धरती के टकराने संबंधी संभावनाओं को पूरी तरह खारिज कर दिया है। उनके अनुसार, 'अगर यह धरती के काफी करीब यानी की होल के पास से गुजरता है तो यह अपने रास्ते से विचलित होगा और 13 अप्रैल 2036 को सीधा धरती से आ टकरायेगा।Ó नासा वैज्ञानिक ने कहा कि यह टक्कर वैसी नहीं होगी जिस तरह 2036 में क्षुद्र ग्रह के टकराने की भविष्यवाणी रूस के वैज्ञानिक कर रहे है। काबिलेगौर है कि सेंट पीटसबर्ग सरकारी विविद्यालय के प्रोफेसर लियोनिड सोकोलोव पहले ही भविष्यवाणी कर चुके है कि 3,7000 से 3,8000 किलोमीटर की रफ्तार से चल रहा क्षुद्र ग्रह 13 अप्रैल 2029 को धरती से टकरा सकता है। प्रोफेसर सोकोलोव के अनुसार, 'यह संभव है कि 13 अप्रैल 2036 को धरती से यह क्षुद्र ग्रह टकरा जाये। हमारा काम इसके विकल्पों पर विचार करना है और इस क्षुद्र ग्रह में भविष्य में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर वैसी स्थिति का निर्माण करना है।Ó
इससे पहले भी देश-विदेश के प्रमुख वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की थी कि आगामी कुछ वर्ष में सूर्य की प्रचंड लपटों से 'सौर सुनामीÓ के कारण ऐसी खतरनाक स्थिति पैदा हो सकती है, जिससे भारत समेत विभिन्न देशों के उपग्रह ध्वस्त हो सकते है और संचार प्रणाली ठप हो सकती है। उस समय कहा गया था कि सूर्य की प्रचंड लपटों से सैंकडों हाइड्रोजन बम के बराबर ऊर्जा निकलेगी जिससे पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होगा। इसके असर से अंतरिक्ष में तैनात उपग्रह ध्वस्त हो सकते है और उनसे प्रेषित होने वाली सूचना प्रणाली भी काम करना बंद कर देगी। खतरनाक सौर आंधी बीते वर्ष अप्रैल में अमेरिका के 'गैलेक्सी 15Ó संचार उपग्रह को चौपट कर चुकी है।
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी 'नासाÓ की रिपोर्ट में सौर सुनामी के पृथ्वी पर असर के बारे में भयावह तस्वीर पेश की गई थी । रिपोर्ट में बताया गया कि सूर्य का यह तूफान पृथ्वी की संचार प्रणाली में तबाही मचा सकता है। सौर आंधी से उच्च क्षमता वाली रेडियोधर्मिता पैदा होगी जिसके असर से ट्रेनें और विमान सेवा ठप हो सकती है, जीपीएस प्रणाली रेडियों और मोबाइल नेटवर्क गायब हो सकता है, बैंकिंग तथा वित्तीय बाजार में अफरा-तफरी मच सकती है। पूरी दुनिया की संचार प्रणाली पर इस खतरनाक सौर सुनामी का असर कुछ घंटों से लेकर कई माह तक चल सकता है। वैज्ञानिक पिछले 11 वर्षो से सूर्य की गतिविधियों पर बारीकी से नजर रख रहे हैं। पिछले कुछ वर्ष से आग का यह गोला शांत है लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि यह तूफान के पहले का सन्नाटा है। यदि इसकी विनाश लीला पृथ्वी तक पहुंच गई तो धरती के समस्त तेल और कोयला भंडार से जितनी ताप ऊर्जा निकलेगी उसका सौ गुना ज्यादा ऊर्जा इससे पैदा होगी। सूर्य की ज्वाला से निकलने वाले कण 400 से 1000 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से घूमते हुए एक या दो दिन में पृथ्वी के वातावरण में पहुंच जाएंगे जिससे धरती का चुंबकीय क्षेत्र विचलित हो जाएगा।

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

तैयार है हिरण, तैयार है रांची


34वें राष्ट्रीय खेल आधी-अधूरी तैयारियों से अब तक छह बार टल चुका है, मगर इस दफा मेजबान राज्य के मुख्यमंत्री तथा आयोजन समिति के पदेन अध्यक्ष होने के नाते अर्जुन मुंडा ने खुद इसके सफल आयोजन की कमान संभाली हुई है। प्रदेश के दूसरे कार्यों की अपेक्षा मुख्यमंत्री का पूरा ध्यान इस आयोजन पर है। वे कहते हैं, '34वें राष्टï्रीय खेलों का सफल आयोजन झारखंड की प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ है। प्रदेशवासी हर तरह से इसे सफल बनाने के लिए कृतसंकल्पित हैं।Ó
उल्लेखनीय है कि 34वें राष्ट्रीय खेल आयोजित कराने की मेजबानी वर्ष 2002 में रांची को मिली थी। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार पहले ये खेल 15 से 28 नवंबर 2007 में आयोजित होने थे, लेकिन आधारभूत सुविधाओं की अधूरी तैयारियों के चलते इनके आयोजन की तारीख को एक से 13 दिसंबर 2008 कर दिया गया। बाद में इसे 15 से 28 फरवरी 2009 किया गया और फिर एक बार इसे पीछे खिसकाकर एक से 14 जून 2009 किया गया था। तारीख आगे खिसकने के बाद भी खेलों के लिए स्टेडियमों का निर्माण पूरा नहीं हो पाया तो इसे 21 नवंबर से पांच दिसंबर 2010 और फिर नौ दिसंबर से 22 दिसंबर 2010 में आयोजित कराने का निर्णय लिया गया। झारखंड में पंचायत चुनाव के कारण एक बार फिर राष्ट्रीय खेलों की आयोजन तारीख आगे बढ़ाई गई और तब जाकर इसे 2011 के फरवरी में आयोजित कराने का निर्णय लिया गया।
गौर करने योग्य तथ्य यह भी है कि 10 फरवरी को खरसावां विधानसभा का उपचुनाव भी है, जहां मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा प्रत्याशी हैं। भाजपा के उम्मीदवार के रूप में बेशक, मुंडा चुनाव मैदान में हो लेकिन इनके समर्थन में झामुमो और आजसू के नेता भी हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अर्जुन मुंडा भाजपा के नहीं, बल्कि सरकार के प्रत्याशी हैं। 19 जनवरी को खरसावां में नामांकन के बाद चुनाव की पूरी जिम्मेदारी निवर्तमान विधायक सोए पर सौंपकर अर्जुन मुंडा राष्टï्रीय खेल आयोजन पर पूरा ध्यान दे रहे हैं। गठबंधन की सरकार ने इसे प्रदेश की प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है।
वैसे तो खेलों का मुख्य आयोजन मुख्य रूप से राजधानी रांची में ही निर्धारित है, लेकिन कुछ स्पर्धाएं जमशेदपुर और धनबाद में भी होनी हैं। खेल आयोजन से जुड़े निर्माण कार्यों को लेकर शुरुआत से भ्रष्टïाचार की बात होती रही है। उपकरणों की खरीद तथा अन्य निविदाओं में हुए करोड़ों रुपये के घपले की जांच विभिन्न एजेंसियां कर रही हैं। इन खेलों को अब तक का सबसे महंगा राष्ट्रीय खेल आयोजन माना जा रहा है और अव्वल तो यह कि इसके लिए खरीदे गए कई उपकरण बेकार हो चुके हैं।
झारखंड ओलंपिक संघ के महासचिव तथा आयोजन समिति के सचिव एसएम हाशमी ने लगभग एक साल पहले ही राष्ट्रीय खेलों के आयोजन पर कुल खर्च की राशि को लगभग एक हजार करोड़ रुपये आंका था।
बहरहाल, इस बार रांची पूरी तैयार दिख रही है। राज्य के प्रशासनिक महकमे के सबसे आला अधिकारी मुख्य सचिव एके सिंह कहते हैं, 'मैं खेलों की तैयारियों से संतुष्ट हूं। थोड़ा विलंब हुआ है, पर मुझे पूरा विश्वास है कि आयोजन के लिहाज से ये अब तक के सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय खेल साबित होंगे। अब कोई घपला घोटाला भी नहीं होगा। इसकी गारंटी लेता हूं। जमशेदपुर में आयोजित होने वाली पांच स्पर्धाओं तीरंदाजी, बाक्सिंग, भारोत्तोलन, महिला फुटबॉल और घुड़सवारी की तैयारियों से मैं संतुष्ट हूं। आगंतुक खिलाडिय़ों के ठहरने की व्यवस्था के मामले में कुछ कमियां हैं, जिन्हें दूर करने के लिए स्थानीय आयोजन समिति को निर्देश दे दिए गए हैं। हमारी प्राथमिकता इन्हें मितव्ययिता पूर्ण और पारदर्शी तरीके से आयोजित करने की है।Ó मुख्य सचिव का यह भी कहना है कि खेलों को भव्य और अभूतपूर्व बनाने के लिए तैयारियां युद्ध स्तर पर जारी हैं। दैनिक समीक्षा के जरिए सभी कमियों को दूर किया जा रहा है। रेल मंत्रालय से भी आग्रह किया गया है कि खेलों के एक प्रमुख आयोजन स्थल जमशेदपुर से हावड़ा के बीच लगभग आठ माह से बंद रात्रिकालीन रेल सेवा को फिर शुरू कर दिया जाए।
खेलों के आयोजन को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए मुख्य सचिव के साथ राज्य के खेल सचिव सुखदेव सिंह, विशेष खेल सचिव एनएम कुलकर्णी, खेल निदेशक अमिताभ चौधरी, झारखंड ओलंपिक संघ के कोषाध्यक्ष मधुकांत पाठक और स्थानीय समन्वय समिति की अध्यक्ष सह उपायुक्त हिमानी पांडेय लगातार कार्य स्थलों का जायजा ले रहे हैं।




यादगार होगा खेल आयोजन : सुदेश महतो, उपमुख्यमंत्री व खेल मंत्री
सरकार चाहती है कि खेल तय समय पर और शानदार तरीके से हों। सरकार के पास समय कम है। खेलों से जुड़ा भ्रष्टाचार का मुद्दा जरूर है, पर इससे आयोजन में बाधा नहीं आएगी। सफल आयोजन के लिए हम सबको मिल कर कोशिश करनी है। राष्ट्रीय खेलों के इतिहास में पहली बार खिलाडिय़ों को कोलकाता स्थित भारत सरकार के टक्साल में गढ़े गए कीमती स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक दिए जाएंगे। इनकी औसत कीमत करीब पांच हजार रुपये होगी। राज्य सरकार ने राष्ट्रीय खेलों को अविस्मरणीय बनाने के लिए न सिर्फ आठ सौ करोड़ की लागत से 18 अंतरराष्ट्रीय स्तर के स्टेडियम तैयार कराए हैं, बल्कि खिलाडिय़ों को कीमती पदक देने के लिए एक करोड़ 40 लाख रुपये देने का फैसला किया है।

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

पर्यटन को लगे पंख

भारत में विदेशी पर्यटकों के शीर्ष दस स्थानों की वार्षिक सूची में गोआ की जगह बिहार का नाम आया है। हालांकि, 2009 में गोआ में 7 फीसदी के इजाफे के साथ विदेशी पर्यटकों की संख्या बढ़कर 376,000 हो गई थी, लेकिन बिहार में 22 फीसदी बढ़कर इस संख्या के 423,000 से ज्यादा थी
प्रदेश के विकास में पर्यटन उद्योग का खासा योगदान होता है। जितनी अधिक संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं, उसी अनुपात में ज्यादा से ज्यादा लोग इस उद्योग से जुड़कर जीवनयापन कर सकते हैं। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए नीतीश सरकार ने प्रदेश के पर्यटन स्थलों को विकसित और सुव्यवस्थित करने का संकल्प लिया है। पूरा खाका तैयार है और इसके प्रभाव भी देखे जा रहे हैं।
लोगों को यह बात हजम करने में भले ही थोड़ी दिक्कत हो, मगर यह सोलह आने सच है कि बीते साल बिहार में गोवा से अधिक पर्यटक आए हैं। यह खबर किसी भी बिहारी के लिए गर्व का विषय हो सकता है। यह आंकड़ा किसी निजी संस्था का नहीं, बल्कि भारतीय पर्यटन मंत्रालय का है। भारत के पर्यटन मंत्रालय द्वारा हाल में जारी किए गए आंकड़े बताते हैं कि देश में विदेशी पर्यटकों के शीर्ष दस स्थानों की वार्षिक सूची में गोआ की जगह बिहार का नाम आ गया है। हालांकि, 2009 में गोआ में 7 फीसदी के इजाफे के साथ विदेशी पर्यटकों की संख्या बढ़कर 376,000 हो गई थी, लेकिन बिहार में 22 फीसदी बढ़कर इस संख्या के 423,000 से ज्यादा हो जाने से गोआ की साख को बट्टा लग गया। इसकी तुलना में 2001 के आंकड़ों पर अगर नजर डालें तो स्थिति काफी चौंकाने वाली है, क्योंकि 2001 में लगभग 260,000 विदेशी पर्यटक गोआ गए थे, जबकि सिर्फ 85,700 विदेशी पर्यटकों ने बिहार की ओर रुख किया था। विदेशी पर्यटकों के गोआ की तुलना में कहीं अधिक बिहार जाने के इन तथ्यों से अनेक लोगों को हैरानी हो सकती है।
इन बदली हुई स्थितियों को भांपते हुए पर्यटकों को लुभाने के लिए बिहार सरकार अब पूरब की तरफ रुख कर रही है। पर्यटन विभाग पूर्वी एशिया के उन मुल्कों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश में जुटा है, जहां बौद्ध धर्म को मानने वालों की तादाद काफी ज्यादा है। इसके लिए विभाग ने कई तरह की तैयारियां भी कर रखी हैं। बिहार राज्य पर्यटन निगम के उप महाप्रबंधक नवीन कुमार के अनुसार, इस वक्त हम बौद्ध मुल्कों को काफी तरजीह दे रहे हैं। ऐसे मुल्कों को लुभाने के लिए हम काफी कोशिशें कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि बिहार के राजस्व आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा पर्यटन से ही आता है। ऐसे में सरकार अधिक से अधिक संख्या में देशी-विदेशी सैलानियों को राज्य की ओर आकर्षित करना चाहती है, जिससे राज्य के आय में बढ़ोत्तरी हो। पर्टयन निगम ने कुछ समय पहले ही नदी पर्यटन शुरू किया है। इसी तरह मुजफ्फरपुर के लीची के बागानों को हरा-भरा रखने के लिए सरकार किसानों को आर्थिक मदद देने पर भी विचार कर रही है। हालांकि, अभी इन्हें बतौर ऋण आर्थिक सहायता दी जाती है।
योजनाओं की कड़ी में पटना के गंगा तट पर बनारस जैसी गंगा आरती भी अब पर्यटकों को लुभाएगी। जल्द ही लोगों को गंगा तट पर गंगा आरती देखने को मिलेगी। राज्य पर्यटन विभाग के एक अधिकारी के मुताबिक धर्मनगरी काशी में प्रत्येक शाम गंगा के कई घाटों के किनारे होने वाली गंगा आरती का विहंगम दृश्य गंगा तटों पर भी लोगों को देखने को मिलेगा। इसके लिए सरकारी स्तर पर तैयारी शुरू कर दी गई है।
राज्य के पर्यटन मंत्री सुनील कुमार 'पिंटुÓ का कहना है कि गंगा आरती से जहां लोगों में धार्मिक जागृति आएगी, वहीं गंगा तट पर्यटकों को भी आकर्षित करेगा। विदेशी पर्यटक यहां की समृद्धि सांस्कृतिक विरासत को भी नजदीक से देख सकेंगे। पटना में ऐसे तो कई ऐतिहासिक और दर्शनीय स्थल हैं, मगर गंगा आरती विदेशी पर्यटकों को लुभाने के लिए काफी मददगार होगी। पहले चरण में गंगा आरती सप्ताह में दो दिन किए जाने की योजना है, इसके बाद इसे हर दिन कराया जाएगा।
सच तो यह है कि बिहार की गौरवशाली ऐतिहासिक धरोहरें किसी भी सैलानी को यहां आने के लिए विवश करती हैं, मगर एक दशक पहले यहां की अराजक राजनीतिक व्यवस्था में असुरक्षा की भावना लोगों में खौफ पैदा करती थी। इस कारण इस सूबे की ओर रुख करने में लोग नाक-भौं सिकोड़ते थे। अब परिस्थितियां बदली हैं, लोगों का नजरिया बदला है और सामाजिक माहौल बदला है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर बदला है। ऐसे में प्रदेश के विकास में पर्यटन उद्योग नई इबारत लिखने जा रहा हो तो हैरत कैसी?

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

विद्या की देवी सरस्वती की पूजा


वसंत पंचमी एक भारतीय त्योहार है, इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। यह पूजा पूर्वी भारत में बड़े उल्लास से मनायी जाती है। इस दिन स्त्रियाँ पीले वस्त्र धारण करती हैं।
प्राचीन भारत में पूरे साल को जिन छह मौसमों में बाँटा जाता था उनमें वसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम था।जब फूलों पर बहार आ जाती, खेतों मे सरसों का सोना चमकने लगता, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगतीं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाता और हर तरफ़ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं। वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता था जिसमें विष्णु और कामदेव की पूजा होती, यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता था। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है।
सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों, खासतौर पर मनुष्य योनि की रचना की। अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों आ॓र मौन छाया रहता है। विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा ने अपने कमण्डल से जल छिड़का, पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ। यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है- प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु। अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से ख़ुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी और यूँ भारत के कई हिस्सों में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी जो कि आज तक जारी है। पतंगबाज़ी का वसंत से कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन पतंग उड़ाने का रिवाज़ हज़ारों साल पहले चीन में शुरू हुआ और फिर कोरिया और जापान के रास्ते होता हुआ भारत पहुँचा.
वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। यों तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है, पर वसंत पंचमी (माघ शुक्ल 5) का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन मां शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कलाकारों का तो कहना ही क्या? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं।
[संपादित करें]पौराणिक महत्व
इसके साथ ही यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है। सर्वप्रथम तो यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे झूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रध्दा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है.
वसंत पंचमी पर मां सरस्वती की पूजा विशेष रूप से की जाती है। मां सरस्वती को विद्या, बुद्धि, ज्ञान, संगीत और कला की देवी माना जाता है। व्यावहारिक रूप से विद्या तथा बुद्धि व्यक्तित्व विकास के लिए जरुरी है। शास्त्रों के अनुसार विद्या से विनम्रता, विनम्रता से पात्रता, पात्रता से धन और धन से सुख मिलता है।
वसंत पंचमी के दिन यदि विधि-विधान से देवी सरस्वती की पूजा की जाए तो विद्या व बुद्धि के साथ सफलता भी निश्चित मिलती है। वसंत पंचमी पर मां सरस्वती की पूजा इस प्रकार करें-
- सुबह स्नान कर पवित्र आचरण, वाणी के संकल्प के साथ सरस्वती की पूजा करें।
- पूजा में गंध, अक्षत के साथ खासतौर पर सफेद और पीले फूल, सफेद चंदन तथा सफेद वस्त्र देवी सरस्वती को चढ़ाएं।
- प्रसाद में खीर, दूध, दही, मक्खन, सफेद तिल के लड्डू, घी, नारियल, शक्कर व मौसमी फल चढ़ाएं।
ऎं हीं श्रीं वाग्वादनी सरस्वती देवी मम जिव्हायां। सर्व विद्यां देही दापय-दापय स्वाह।
इस मंत्र के जप से साधक को मां सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है।
इस मंत्र की एक माला प्रतिदिन जपें।
मंत्र जप स्फटिक की
माला से करें।
मंत्र जप का आरंभ शुभ मुहूर्त, वार एवं योग में अपने गुरू से दीक्षा लेने के बाद शुरू करें...

या कुन्देन्दु तुषार हार-धवला,
या शुभ्र-वस्त्रावृता
या वीणा-वर-दण्ड-मंडितकरा
या श्वेत पद्मासना
या ब्रह्माच्युत शंकर प्रभ्रृतिभिर देवै-सदा वन्दिता
सा माम पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाड्यापहा.
शुक्लां प्रजापति विचार सार परमा माध्यम जगद्व्यापिणी,
हस्ते मालिकम कमलं पद्मासने संस्थितम.
वन्देतं परमेश्वरी भगवती....
सा माम पातु सरस्वती भगवती बुद्धिप्रदाम शारदाम.....

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

धर्मांतरण द्वारा भारत की आत्मा से खिलबाड

- विनोद बंसल

भारतीय गणतंत्र की 61वीं वर्षगांठ के ठीक एक दिन पूर्व हमारी
सर्वोच्च न्यायालय ने मात्र चार दिन पूर्व स्वयं द्वारा सुनाए गए एक
ऐतिहासिक निर्णय में बदलाव कर न सिर्फ़ अपने ही नियमों को नजरंदाज किया है
बल्कि धर्मांतरण के संबंध में एक नई बहस का बीजा-रोपण भी किया है। संभवत:
यह अभूतपूर्व ही है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने किसी मुकदमे में अपने
ही निर्णय को स्वेच्छा से संशोधित किया हो और उसका कोई कारण नहीं बताया
गया हो।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने बाईस जनवरी 1999 को उडीसा के मनोहरपुर गांव
में आस्ट्रेलियन मिशनरी ग्राहम स्टैन्स व उसके दो बच्चों को जिन्दा जलाए
जाने के आरोप में रविन्द्र कुमार पाल (दारा सिंह) व महेन्द्र हम्ब्रम को
आजीवन कारावास की सजा सुनाते हुए 21 जनवरी 2011 को कहा था कि फांसी की
सजा दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में दी जाती है। और यह प्रत्येक मामले में
तथ्यों और हालात पर निर्भर करती है। मौजूदा मामले में जुर्म भले ही कड़ी
भ‌र्त्सना के योग्य है। फिर भी यह दुर्लभतम मामले की श्रेणी में नहीं आता
है। अत: इसमें फांसी नहीं दी जा सकती। विद्वान न्यायाधीश जस्टिस पी
सतशिवम और जस्टिस बी एस चौहान की बेंच ने अपने फैसले में यह भी कहा कि
लोग ग्राहम स्टेंस को सबक सिखाना चाहते थे, क्योंकि वह उनके क्षेत्र में
मतांतरण के काम में जुटा हुआ था। न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी भी
व्यक्ति की आस्था और उसके विश्वास में हस्तक्षेप करना और इसके लिए बल,
उत्तेजना या लालच का प्रयोग करना या किसी को यह झूठा विश्वास दिलाना कि
उनका धर्म दूसरे से अच्छा है और ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करते हुए किसी
व्यक्ति का मतांतरण करना (धर्म बदल देना) किसी भी आधार पर न्यायसंगत नहीं
कहा जा सकता। इस प्रकार के धर्मांतरण से हमारे समाज की उस संरचना पर चोट
होती है, जिसकी रचना संविधान निर्माताओं ने की थी। किसी की आस्था को चोट
पहुंचा कर जबरदस्ती धर्म बदलना या फिर यह दलील देना कि एक धर्म दूसरे से
बेहतर है, उचित नहीं है।
उपरोक्त पंक्तियों को बदलते हुए न्यायालय ने कहा कि इन पक्तियों को इस
प्रकार पढा जाए-“घटना को घटे बारह साल से अधिक समय बीत गया, हमारी राय और
तत्थों के आलोक में उच्च न्यायालय द्वारा दी गई सजा को बढाने की कोई
आवश्यकता नहीं है।“ आगे के वाक्य को बदलते हुए माननीय न्यायालय ने कहा कि
“किसी भी व्यक्ति के धार्मिक विश्वास में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप
करना न्यायोचित नहीं है।“
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चार दिन के भीतर ही अपने निर्णय में स्वत:
संशोधन करते हुए निर्णय की कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियों को हटा लिए जाने से
कई प्रश्न उठ खडे हुए हैं। एक ओर जहां चर्च व तथा कथित सैक्यूलरवादियों
का प्रभाव भारत की सर्वोच्च संस्थाओं पर स्पष्ट दिख रहा है। वहीं, भारत
का गरीब बहुसंख्यक जन-जातीय समाज अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। मामले
से संबन्धित पक्षकारों में से किसी भी पक्षकार के आग्रह के विना किये गए
संशोधन को विधिवेत्ता उच्चतम न्यायालय नियम 1966 के नियम 3 के आदेश
संख्या 13 का उल्लंघन मानते हैं। साथ ही वे कहते हैं कि इससे भारतीय दण्ड
संहिता की धारा 362 का भी उल्लंघन होता है।
इस निर्णय ने एक बार फ़िर चर्च की काली करतूतों की कलई खोल कर रख दी है।
विश्व में कौन नहीं जानता कि भारत की भोली-भाली जनता को जबरदस्ती अथवा
बरगला कर उसका धर्म परिवर्तन कराने का कार्य ईसाई मिशनरी एक लम्बे समय से
करते आ रहे हैं। अभी हाल के दिनों की सिर्फ़ दो घटनाओं पर ही गौर करें तो
भी हमें चर्च द्वारा प्रायोजित मतांतरण के पीछे छिपा वीभत्स सत्य का पता
चल जाएगा । सन् 2008 में कर्नाटक के कुछ गिरजाघरों में हुईं तोड़-फोड़ की
घटनाओं में “सेकूलर” दलों और मीडिया ने संघ परिवार और भाजपा की
नवनिर्वाचित प्रदेश सरकार को दोषी ठहराने का भरसक प्रयास किया था।
किन्तु, न्यायाधीश सोम शेखर की अध्यक्षता में गठित न्यायिक अधिकरण द्वारा
अभी हाल ही में सौंपी रिपोर्ट स्पष्ट कहती है कि ये घटनाएं इसलिए घटीं,
क्योंकि ईसाई मत के कुछ संप्रदायों ने हिंदू देवी-देवताओं के संदर्भ में
अपमानजनक साहित्य वितरण किया था। तथा इस भड़काऊ साहित्य का मकसद हिंदुओं
में अपने धर्म के प्रति विरक्ति पैदा करना था। मध्य प्रदेश में मिशनरी
गतिविधियों की शिकायतों को देखते हुए 14 अप्रैल, 1955 को तत्कालीन
कांग्रेस सरकार ने पूर्व न्यायाधीश डॉ. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता
में एक समिति गठित की थी। समिति की प्रमुख संस्तुति में मतांतरण के
उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकालना और उन पर पाबंदी लगाने
की बात प्रमुख थी। बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुचित श्रद्धा, अनुभव
हीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए न हो। बाद में देश के कई
अन्य भागों में गठित समितियों ने भी नियोगी आयोग की संस्तुतियों को उचित
ठहराया। जस्टिस नियोगी आयोग की रिपोर्ट, डीपी वाधवा आयोग की रिपोर्ट तथा
कंधमाल में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद बनाए गए जस्टिस एससी महापात्रा
आयोग की रिपोर्ट के साथ और कितने ही प्रमाण चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं
कि इस आर्यवर्त को अनार्य बनाने में चर्च किस प्रकार संलग्न है।
इस प्रकार, विविध न्यायालयों व समय समय पर गठित अनेक जांच आयोगों व
न्यायाधिकरणों ने स्पष्ट कहा है कि अनाप- सनाप आ रहे विदेशी धन के
बल-बूते पर चर्च दलितों-वचितों व आदिवासियों के बीच छल-फरेब से ईसाइयत के
प्रचार-प्रसार में संलग्न है। उनकी इस अनुचित कार्यशैली पर जब-जब भी
प्रश्न खडे किए जाते हैं, चर्च और उसके समर्थक सेकुलरबादी उपासना की
स्वतंत्रता का शोर मचाने लगते हैं। आखिर उपासना के अधिकार के नाम पर लालच
और धोखे से किसी को धर्म परिवर्तन की छूट कैसे दी जा सकती है। यदि देह
व्यापार अनैतिक है तो आत्मा का व्यापार तो और भी घृणित तथा सर्वथा
निंदनीय है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाधी तथा डॉ. भीमराव
अंबेडकर सहित अनेक महापुरुषों ने धर्मांतरण को समाज के लिए एक अभिशाप
माना है। गांधीजी ने तो बाल्यावस्था में ही स्कूलों के बाहर मिशनरियों को
हिंदू देवी-देवताओं को गालियां देते सुना था। उन्होंने चर्च के मतप्रचार
पर प्रश्न खड़ा करते हुए कहा था- ''यदि वे पूरी तरह से मानवीय कार्य और
गरीबों की सेवा करने के बजाय डॉक्टरी सहायता व शिक्षा आदि के द्वारा धर्म
परिवर्तन करेंगे तो मैं उन्हें निश्चय ही चले जाने को कहूंगा। प्रत्येक
राष्ट्र का धर्म अन्य किसी राष्ट्र के धर्म के समान ही श्रेष्ठ है।
निश्चय ही भारत का धर्म यहां के लोगों के लिए पर्याप्त है। हमें धर्म
परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है।'' एक अन्य प्रश्न के उत्तर में गांधी
जी ने कहा था कि ''अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो
मैं मतांतरण का यह सारा खेल ही बंद करा दूं। मिशनरियों के प्रवेश से उन
हिंदू परिवारों में, जहां मिशनरी पैठ है, वेशभूषा, रीति-रिवाज और खानपान
तक में अंतर आ गया है।'' इस संदर्भ में डॉ. अंबेडकर ने कहा था, ''यह एक
भयानक सत्य है कि ईसाई बनने से अराष्ट्रीय होते हैं। साथ ही यह भी तथ्य
है कि ईसाइयत, मतांतरण के बाद भी जातिवाद नहीं मिटा सकती।'' स्वामी
विवेकानद ने मतांतरण पर चेताते हुए कहा था ''जब हिंदू समाज का एक सदस्य
मतांतरण करता है तो समाज की एक संख्या कम नहीं होती, बल्कि हिंदू समाज का
एक शत्रु बढ़ जाता है।' यह भी सत्य है कि जहां-जहां इनकी संख्या बढी,
उपद्रव प्रारंभ हो गये। पूर्वोत्तर के राज्य इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
वर्ष 2008 में उडीसा के कंधमाल में हुई स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की हत्या,
तथा आज मणिपुर, नागालैंड, असम आदि राज्यों में मिशनरियों द्वारा अपना
संख्याबल बढ़ाने के नाम पर जो खूनी खेल खेला जा रहा है वह सब इस बात का
प्रत्यक्ष गवाह है कि भारत की आत्मा को बदलने का कार्य कितनी तेजी के साथ
हो रहा है।
यदि हम आंकडों पर गौर करें तो पायेंगे कि उडीसा के सुन्दरगढ, क्योंझार व
मयूरभंज जिलों की ईसाई आबादी वर्ष 1961 की जनगणना के आकडों के अनुसार
क्रमश: 106300, 820 व 870 थी जो वर्ष 2001 में बढ कर 308476, 6144 व 9120
हो गई। यदि इसी क्षेत्र की जनसंख्या ब्रद्धि दर की बात करें तो पाएंगे कि
वर्ष 1961 की तुलना में जहां ईसाई जनसंख्या तीन से दस गुनी तक बढी है
वहीं हिन्दु बाहुल्य इन तीन जिलों में हिन्दुओं की जनसंख्या गत चालीस
वर्षों में मात्र कहीं दुगुनी तो कहीं तिगुनी ही हुई है। क्या ये आंकडे
किसी भी जागरूक नागरिक की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त नहीं हैं? आज चर्च
का पूरा जोर अपना साम्राज्यवाद बढ़ाने पर लगा हुआ है। इस कारण देश के कई
राज्यों में ईसाइयों एवं बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है।
मतांतरण की गतिविधियों के चलते करोड़ों अनुसूचित जाति से ईसाई बने
बन्धुओं का जीवन चर्च के अंदर ही नर्क बन गया है। चर्च लगातार यह दावा भी
करता आ रहा है कि वह देश में लाखों सेवा कार्य चला रहा है, लेकिन उसे
इसका भी उत्तर ढूंढ़ना होगा कि सेवा कार्य चलाने के बावजूद भारतीयों के
एक बड़े हिस्से में उसके प्रति इतनी नफरत क्यों है कि 30 सालों तक सेवा
कार्य का दाबा करने वाले ग्राहम स्टेंस को एक भीड़ जिंदा जला देती है और
उसके पंथ-प्रचारकों के साथ भी अक्सर टकराव होता रहता है। ऐसा क्यों हो
रहा है? इसका उत्तर तो चर्च को ही ढूंढ़ना होगा। क्या छलकपट और फरेब के
बल पर मत परिर्वतन की अनुमति देकर कोई समाज अपने आप को नैतिक और सभ्य
कहला सकता है?
किन्तु अब एक अहम प्रश्न यह है कि आखिर कब तक हम, हमारी सरकारें और
मजबूत लोकतंत्र के अन्य प्रहरी धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण की ओर बढते इस
षढयंत्र पूर्वक चालाए जा रहे अभियान को यूं ही चलने देंगे और अपनी आत्मा
के साथ खिलवाड को सहन करते रहेंगे। वर्तमान परिपेक्ष में किसी राजनेता से
तो इस सम्बन्ध में आशा करना बेमानी सी बात लगती है। हां, न्याय की देवी
के आंखों की पट्टी यदि खुल जाए तो शायद मेरे भोले भाले वनवासी, गिरिवासी
व गरीव भरतवंशी का भाग्योदय संभव है।

चीन की चाल तो नहीं करमापा प्रकरण में

आज की तारीख में यह सवाल उठता है कि भारत को अस्थिर करने के लिए चीन कभी भी कैसे भी कदम उठाने से नहीं चूकता है उसी कदम में ताज़ा प्रकरण करमापा लामा के रूप में देखा जा सकता है ? जिस तरह से अत्यधिक सुरक्षा वाली चीनी सीमा से पार होकर करमापा भारत आ गए थे तब भी कुछ लोगों को यह संदेह हुआ था कि आखऱि बिना चीन के सहयोग के कोई किस तरह से इधर आ सकता है ? अभी तक तो केवल यही चल रहा था कि पाक आतंकियों को इसी तरह से घुसपैठ करके भारत भेजता रहता था. करमापा को भारत ने जितना सम्मान दिया और अगर उसके बाद भी उन्होंने चीन के एजेंट की तरह ही काम किया होगा तो यह पूरे तिब्बत के लिए बहुत ही दुखद घटना होगी क्योंकि भारत ने अपना बहुत नुकसान हो जाने के बाद भी तिब्बत पर अपनी नीति से हटने से मना कर दिया था। चर्चा इसको लेकर भी हो रही है कि चीन का जासूस होने का आरोप झेल रहे तिब्बती बौद्ध धर्म गुरु करमापा उग्येन दोरजे के पास कोई कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए कोई राजनयिक विशेषाधिकार है और भारतीय कानूनों के तहत उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है।
दरअसल, हिमाचल प्रदेश में करमापा के मठ और दिल्ली के मजनू का टीला से 23 देशों की मुद्राओं में करीब 7 करोड़ रुपये की रकम बरामद की गई है। इस बरामदगी के बाद शक जताया जा रहा है कि करमापा के तार चीन से जुड़े हो सकते हैं। उधर, करमापा के कार्यालय की ओर से साफ किया गया है कि करमापा कानूनी कार्रवाई में सहयोग करने के लिए तैयार हैं। केंद्र सरकार के एक अधिकारी ने कहा, 'भारत तिब्बत की सरकार को मान्यता नहीं देता है तिब्बत की किसी निष्कासित सरकार को भारत मान्यता नहीं देता है। भारत धर्मशाला में तिब्बतियों की सरकार को दलाई लामा का एक ब्यूरो भर मानता है। भारत के लिए तिब्बती शरणार्थी हैं, उनके पास कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए कोई अधिकार नहीं हैं। अधिकारी ने कहा कि कानून अपना काम करेगा।' हालांकि कोर्ट के एक आदेश के मुताबिक 1985 से पहले जन्मे तिब्बती शरणार्थी भारतीय नागरिकता ले सकते हैं। भारत सरकार ने साफ किया है कि करमापा दलाई लामा के संभावित उत्तराधिकारियों में से एक हैं, लेकिन अभी उन्हें चुना जाना बाकी है। वहीं, एक अन्य अधिकारी का कहना है कि भारत तिब्बती धर्मगुरुओं को धार्मिक नेता ही मानता है, इसलिए उनके साथ वही बर्ताव किया जाएगा तो भारतीय धर्मगुरुओं के साथ किया जाता है। केंद्र सरकार ने करमापा उग्येन दोरजे के हिमाचल प्रदेश स्थित अस्थायी आवास से करोड़ों रुपए की विदेशी मुद्रा बरामद होने पर गंभीर चिंता जताई है। सरकार को संदेह है कि संभवत: करमापा चीन के लिए एजेंट के रूप में काम कर रहा था। केंद्र सरकार इस मामले की जांच करेगी। इस संबंध में करमापा से पूछताछ भी हो सकती है और उन पर मुकदमा भी चलाया जा सकता है।
सरकारी सूत्रों का कहना है कि दोरजे के चीन से संबंध स्पष्ट हैं। 17वें करमापा को हमेशा से ही चीन का आदमी माना जाता रहा है। चीन हिमालय सीमा लद्दाख से तवांग पर स्थित सभी बौद्ध मठों पर अपने नियंत्रण का प्रयास करता रहा है और करमापा उसकी मदद करता आया है। सूत्रों के मुताबिक करमापा पहले चीन में रहता था और फिर भारत आया था। उस पर काफी पहले से ही संदेह रहा है। करमापा की गतिविधियों को लेकर भी संशय रहा है क्योंकि यह देखा गया कि वह धार्मिक भावनाओं की आड़ लेकर चीन का एंजेडा चला रहा था। सूत्रों के मुताबिक खुफिया एजेंसियों ने करमापा पर काफी समय से नजर रखी हुई थी।
करमापा उग्येन त्रिनले दोरजे को उनके सिद्धबाड़ी स्थित अस्थायी निवास पर अघोषित नजरबंद कर दिया गया है। ग्यूतो तांत्रिक विवि सिद्धबाड़ी स्थित करमापा के कार्यालय व आवास के बाहर सशस्त्र पुलिस बल तैनात किया गया है। पुलिस करमापा सहित उनके अन्य प्रमुख सहयोगियों से किसी भी समय पूछताछ कर सकती है। उधर, शुक्रवार को दलाईलामा कर्नाटक के लिए रवाना हो गए। करमापा को भारत ने सामान्य तिब्बती की तरह शरण दे रखी है। ऐसे में सशस्त्र पहरे के कदम को अलग नजर से देखा जा रहा है।
गौरतलब है कि तिब्बती आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा का समर्थन हासिल कर चुके करमापा उग्येन त्रिनले दोरजी से पुलिस ने पूछताछ की, जबकि उनके द्वारा समर्थित एक ट्रस्ट के कार्यालयों से 7.5 करोड़ रुपये मूल्य की विदेशी मुद्रा जब्त किए जाने के सिलसिले में दो और लोगों को गिरफ्तार किया गया है। करमापा ने चीन के साथ किसी तरह के संबंध होने की बात से इनकार करते हुए कहा है कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप निहायत काल्पनिक और बेबुनियाद हैं। राज्य के पुलिस अधिकारियों की एक टीम ने सिधबारी स्थित गयुतो मठ में करमापा से 50 सवाल पूछे, लेकिन उन्होंने विदेशी मुद्रा और वहां से बरामद दस्तावेजों से पूर्ण अनभिज्ञता जताई। पुलिस ने कहा कि उन्होंने करमापा को धन की बरामदगी और मठ के कामकाज से जुड़े प्रश्न पूछे, लेकिन उन्होंने इस घटनाक्रम से पूरी तरह से खुद को अलग करते हुए कहा कि ट्रस्ट का कामकाज शक्ति लामा और गोम्पु शेरिंग देखते हैं और उनकी भूमिका सिर्फ धार्मिक प्रमुख के रूप में शिक्षा देने की है। पुलिस महानिरीक्षक पीएल ठाकुर के अनुसार, उना के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक केजी कपूर के नेतृत्व में एक टीम ने अंग्रेजी में करमापा से प्रश्न पूछे, जिसका जवाब उन्होंने एक दुभाषिये के जरिये दिया। जांच कार्य जारी है तथा और अधिक सूचना मिलने के बाद करमापा से दोबारा पूछताछ की जा सकती है। करमापा ने सभी आरोपों का खंडन किया और कहा कि यह धन श्रद्धालुओं ने दान में दिया था, जो समूची दुनिया से आते हैं और ट्रस्ट से जुड़े हैं। धर्मशाला आधारित व्यवसायी केपी भारद्वाज के आवास और होटल पर छापा मारने के बाद उन्हें और कॉरपोरेशन बैंक के अंबाला शाखा के प्रबंधक डीके धर को शनिवार रात गिरफ्तार कर लिया गया। इस संबंध में भारद्वाज से पूछताछ के दौरान कुछ सुराग हाथ लगे हैं।
दूसरी तरफ करमापा 17 वें करमापा उग्येन त्रिनले दोरजी पर कार्रवाई से सिक्किम में उनके अनुयायी मायूस हैं। करमापा अवतार होने के दो अन्य दावेदार थाई दोरजी व दावा जांगपो के विरोध के बावजूद उग्येन त्रिनले दोरजी के समर्थन में राज्य के ज्यादातर बौद्ध धर्मानुयायी उठ खड़े हुए हैं। इसमें राज्य के अन्य बौद्ध सम्प्रदायों निंगमापा, गेलुकपा व साक्यापा के गुम्पा मठ , खुलकर सामने आए। राज्य के प्रमुख गुम्पा उत्तरी सिक्किम स्थित फूदोंग,ल्हाचूंग.ल्हाचेन व पश्चिम सिक्किम स्थित पेमायांगची व टासिडिंग गुम्पा ने करमापा के मठ के खिलाफ पुलिस कार्रवाई का विरोध किया है। करमापा स्वागत समिति के प्रवक्ता केएन तोबदेन का कहना है कि पुलिस कार्रवाई के बावजूद करमापा के प्रति हमारी आस्था में कमी नहीं आई है। हम उन्हें रूमतेक गुम्पा के रिक्त गद्दी पर बैठाने का प्रयास जारी रखेंगे। हमारी कमेटी केंद्र सरकार से उन्हें सिक्किम में प्रवेश की इजाजत देने की मांग पर अडिग है। आवश्यकता पड़ी तो उनके समर्थन में सिक्किम में रैली निकलेगी। पूर्वी सिक्किम रूमतेक स्थित करमापा के निर्वासित मुख्यालय धर्मचक्र केंद्र व गुम्पा में उग्येन त्रिनले दोरजी की प्रतिमा की रोज पूजा अर्चना होती है। इन दिनों इसकी जिम्मेदारी गोशिर ग्यालसाप रिमपोचे पर है। गुम्पा की संपत्ति का हिसाब.किताब करमापा रिगपे दोरजी अर्थात करमापा ट्रस्ट के नाम पर होता है। इसमें रूमतेक गुम्पा के तीन व राज्य सरकार के धर्म मामलों के विभाग के एक अधिकारी सचिव सदस्य के रूप में है।
उल्लेखनीय है कि करमापा के अवतार होने की दावेदारी के चलते वर्ष1993 से विधि व्यवस्था बनाए रखने के लिए रूमतेक गुम्पा में केंद्रीय अर्द्ध सैनिक बल आइटीबीपी को तैनात किया गया है। अनुयायियों व घरेलू पर्यटकों को पूजा अर्चना के लिए गुम्पा के द्वार हमेशा खुले रहते हैंए लेकिन करमापा के अवतार के तीनों दावेदारों को उसमें प्रवेश की अनुमति केंद्र सरकार ने नहीं दी है।
सच तो यह भी है कि करमापा के तिब्बतियों के अध्यात्मिक गुरु होने के कारण भारत ने उन्हें भी पूरी सुविधाएँ और सहयोग प्रदान किया है पर जिस तरह से उनके यहाँ से करोड़ों रूपये की विदेशी मुद्रा की बरामदगी जारी है उससे कहीं न कहीं यह पैसा हवाला या अन्य माध्यमों से लाया लगता है उससे तो यही कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं करमापा लामा की गतिविधियाँ संदिग्ध प्रतीत होने लगती हैं ? अब यह आवश्यक है कि इस मसले पर पूरी पारदर्शिता के साथ काम किया जाए क्योंकि यह मामला चीन से जुड़ा होने के कारण बहुत ही संवेदन शील हो चुका है और हिमाचल सरकार या केंद्र सरकार इसे केवल धार्मिक मुद्दा मानकर नहीं चल सकती है ? अब समय आ गया है कि इस तरह से चलने वाले किसी भी धार्मिक, सामाजिक या अन्य गतिविधियों के धन और दान पर पूरी नजऱ रखने के लिए एक ठोस निगरानी तंत्र को विकसित किया जाए। भारतीय धर्म गुरु भी जिस तरह से पूरी दुनिया में घूमते रहते हैं उसके बाद उनके धन के लें दें पर निगरानी रखनी बहुत आवश्यक हो गयी है।