शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

कई मिथक टूटे, नए मानक बने



जहां इस करारी हार के बाद भाजपा को कांग्रेस बने बगैर ईमानदारी से आत्ममंथन करना होगा, सत्ता के दंभ से बचना होगा, वहीं आम आदमी पार्टी को भी सत्ता के नशे से बचने के डोज अभी से लेना शुरू कर देना चाहिए। नहीं तो जैसा कि आदरणीय स्व. राजेन्द्र माथुर जी लिखते थे - सत्ता में आने के बाद हर पार्टी कांग्रेस बन जाती है।


अब तक दिल्ली की राजनीति में माना जाता रहा कि यहां पर स्थानीय लोगों का ही बोलबाला है, लेकिन हालिया विधानसभा चुनाव में जिस प्रकार से जनादेश आया और अरविंद केजरीवाल नए नायक बनकर उभरे, उसने एक नहीं कई मिथकों को धूल-धूसरित कर दिया। मसलन, दिल्ली की राजनीति में दिल्ली के बाहर के लोगों का बोलबाला नहीं है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी अपराजेय है। कांग्रेस में अभी भी जान बाकी है। पूर्वांचल के लोगों यहां वोट बैंक से अधिक कुछ भी नहीं हैं। गरीब और आम आदमी की बात नहीं सुनी जाती है। ऐसे एक नहीं, कई मिथक बन चुके थे। गंभीर चिंता का विषय....पूरी दिल्ली अराजक हो गई है..तो क्या दिल्लीवालों को जंगल में शिफ्ट हो जाना चाहिए? किस्मत दरवाजे पर आकर दस्तक दे रही थी लेकिन कमबख्त दिल्लीवालों ने बदनसीब के ही साथ जाने का फैसला किया। अभद्रता, कुसंस्कार, घमंड ,बड़बोलेपन और नकारात्मतक सोच पर जीत हुई शिष्टाचारी, संस्कारी, विनम्रता, मृदुभाषी और सकारात्मक सोच की....चाणक्य बार-बार पैदा नहीं होते...चाणक्य को चंद्रगुप्त मौर्य और उसके मुट्ठी भर विश्वासी साथियों पर भरोसा था...कलियुग के चाणक्य ने तो चंद्रगुप्त को ही आउटसोर्स कर लिया था....पैराशूट कल्चर, जमीनी कार्यकर्ताओं को जूते की नोंक पर रखने की प्रवृति और अति आत्मविश्वास के साथ घमंड के मिश्रण ने कांग्रेस जैसी पार्टी को कहीं का नहीं छोड़ा....अब बीजेपी की भी बारी है....अपने कार्यकर्ताओं पर भरोसा नहीं करके बाहर वालों को सिर आंखों पर बिठाया था बीजेपी के चाणक्य ने। बीजेपी और कांग्रेस दोनों को सबक सीखना चाहिए....केजरीवाल के 67 विधायक...और पूरी दिल्ली का नायक अरविंद केजरीवाल..
कुछ लोग दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत को राजनीति का महाक्रांति और भाजपा तथा कांग्रेस के अध्याय की समाप्ति की जो तस्वीर पेश कर रहे हैं उसका अभी कोई अर्थ नहीं है। आआपा की शानदार और ऐतिहासिक जीत है, भाजपा की अब तक की सबसे बड़ी हार है, कांग्रेस के पास तो कुछ बचा ही नहीं......। लेकिन इसकी सीमाओं को भी समझना होगा। दिल्ली जैसे एक मेट्रो शहर के राज्य में संगठन बनाना और इसे मीडिया में प्रचार दिलवाना जितना आसान है उतना ही दूसरे राज्यों में नहीं है।
गौर करें। आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के नए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली के बाहर रहते हैं। कौशांबी में, जो गाजियाबाद में है। आप का मुख्य कार्यालय भी कौशांबी में ही है। भाजपा को इस चुनाव में मुंह की खानी पड़ी है। नेता विपक्ष के लायक भी वह संख्याबल हासिल नहीं कर पाई। कांग्रेस का नामोनिशान मिट गया। गरीब और पूर्वांचल-उत्तरांचल की बात करने वाले लोेगों ने अपनी ताकत दिखा दी।
यह कहें कि अरविंद केजरलीवाल ने नरेंद्र मोदी की आंखों से काजल चुरा ली, तो कोई दिल्ली के परिप्रेक्ष्य में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। नरेंद्र मोदी ने स्वयं को इस मुकाबले के लिए प्रस्तुत किया। अमित शाह और तमाम दिग्गजों की मौजूदगी के बाद भी वो इस मुकाबले में छाए रहे। किरण बेदी को रणनीतिक तौर पर उतारे जाने का फैसला भी उनकी मंजूरी या सोच के बिना तो नहीं ही हुआ था। खुद अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके लगातार विस्तार पाते आभामंडल से सीधा मुकाबला करने से डर रहे थे। वो चाह ही रहे थे कि ये मोदी बनाम केजरीवाल ना हो। दिल्ली के लोग दिसंबर 2013 से ही कह रहे हैं कि पीएम मोदी और सीएम केजरीवाल। पर फिर भी नरेंद्र मोदी खुद सीधे मुकाबले में उतरे और केजरीवाल जीते। खुद मोदी जी अगर इसे स्वीकार करते हैं तो वो अधिक विनम्र और बड़े नेता बनकर उभरेंगे। नहीं तो कांग्रेस की ही परंपरा का पालन होगा जहां प्रचार की पूरी कमान संभालने के बाद भी राहुल गांधी कभी हार के लिए जिम्मेदार नहीं होते। केजरीवाल कह कर उनकी आंख से काजल चुरा कर ले गए हैं।
इस जीत ने आम आदमी पार्टी को तो जिताया है लोकतंत्र को भी जितया है और उसे परिपक्व भी किया है। देश का वोटर स्थानीय और राष्ट्रीय चुनावों में कितना साफगोई से फर्क कर पाता है ये उसने बता दिया है। ये भी कि जनता माफ करना भी जानती है। जैसे लोकसभा चुनावों में तमाम आरोपों और गुजरात दंगों के दाग हवा में उछाले के जाने के बाद भी मोदी जी को पूर्ण बहुमत दिया। दिल्ली में तो 7-0 कर दिया। ऐसे ही जनता ने अरविंद केजरीवाल को भी माफ कर दिया। मोदी-शाह के विजय रथ के सामने घुटने टेके खड़ी कांग्रेस को केजरीवाल और उनके साथियों से सबक लेना चाहिए और इस लोकतंत्र की ताकत में अधिक भरोसा करना चाहिए। आम आदमी पार्टी ने जमीनी कार्य से इस ताकत का फायदा उठाया। उन्हें ऐसी सफलता मिलेगी ये खुद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा।
बात भाजपा की। आखिर 10 फरवरी ने भाजपा के अंदर और बाहर कौन से बदलाव किए ? भाजपा के समर्थकों, ‘नेताओं’ और ‘बड़े नेताओं’ सबके लिए 10 फरवरी का दिन टर्निंग प्वॉंइट बन गया। 10 फरवरी ने यह भी तय कर दिया कि भाजपाको अभी की तरह बेधड़क, बेलौस लीडरशिप अब नहीं मिल सकती, क्योंकि देश के अन्य ताकतवर क्षत्रप, जो अभी तक नेपथ्य में थे, वो सर उठाएंगे। ये 10 फरवरी इसलिए भी अहम है, क्योंकि इसी तारीख को तय हो गया कि भाजपा अगले चुनावों में क्या रणनीति बनाएगी ? बड़ा सवाल है कि क्या दिल्ली में किरन बेदी की तरह देश के अन्य हिस्सों में कोई बोल्ड कदम उठा पाएगी भाजपा ? क्या भाजपा की ये लीडरशिप मौजूद भी रहेगी?ऐसा माना जा रहा है कि किरन बेदी को लाने के लिए भाजपा की तय लाइन तोड़ने की वजह से शाह-मोदी पहले से ही अंदरूनी तौर पर घिरे हुए हैं। ऐसे में उनके इस दांव के फेल होने को विपक्षी नेता महज चूक मानकर जाने नहीं देने वाले। बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों में चुनाव को देखते हुए ये नेता खुद को अगुवा की दौड़ में शामिल करना चाहेंगे। मौजूदा दौर में भले ही कमजोर से दिखने वाले ये चेहरे अगर एकसाथ आ गए, और उन्होंने आरएसएस का समर्थन हासिल कर लिया। तो मोदी-शाह के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। ऐसे में भले ही चेहरे न बदले जाएं, लेकिन उनके फैसलों में हस्तक्षेप बढ़ जाएगा। फिर वो खुलकर किसी किरन बेदी को सीएम पद का चेहरा नहीं बना पाएंगे, और न ही किसी शाजिया, धीर, अश्विनी, कृष्णा तीरथ जैसे नेता को निर्विवादित तरीके से पार्टी में स्थापित कर पाएंगे। क्योंकि तब शाह-मोदी का हाथ पकड़ने के लिए उनके हाथ मजबूत हो चुके होंगे, जो अभी नेपथ्य में रहकर अपनी पारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
बिना किसी लाग-लपेट के कहें तो दिल्ली में भाजपा की हार का मलतब है, मोदी-शाह लीडरशिप से पहले की एक्टिव लीडरशिप के ताकतवर होने की पूरी संभावना। इसके अलावा दूसरी पीढ़ी की लीडरशिप भी अपनी उभार के लिए जोर डालेगी। यहां से इन गुटों में टकराव की पूरी-पूरी संभावना नजर आती है। आडवाणी खेमा जो लोकसभा चुनाव से 6 महीनों तक पूरी तरह से हावी था, उसे नरेंद्र मोदी ने पीछे ढ़केल दिया था। वो राजनाथ की मदद से खुद फ्रंट पर आए, और लगातार चुनाव दर चुनाव फतह करते रहे। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ा, तो उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण किले उत्तर प्रदेश के घेरेबंदी की कमान अमित शाह के हाथों में दी। अमित शाह के बनाए समीकरणों में भाजपा ने सभी दलों का सफाया कर दिया। इसका इनाम नरेंद्र मोदी ने उन्हें ‘मैन ऑफ द मैच’ बताकर दिया और सरकार गठन के साथ ही उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा दिया। और जो भी चेहरे दौड़ में थे, उन्हें नेपथ्य में ढकेलते हुए बहुतों को तय मंत्रालय से बेदखल कर दिया गया, तो बहुतों को कोई कुर्सी ही न मिली। वो चेहरे जो भाजपा की रीढ़ हुआ करते थे, अंधेरे में डूब गए।
दिल्ली में युवक युवतियों के डांस और गीत टीवी चैनलों के टीआरपी के लिहाज से सुन्दर विजुअल हैं। उसे बार-बार दिखाने से लोगों के बीच माहौल बनता है। यही उत्तर प्रदेश में नहीं हो सकता। कुछ शहरों में आप कर सकते हैं, पर गांवों में कैसे? दूसरे राज्यों में भी यही स्थिति है। उ. प्र. के 80 लोकसभा क्षेत्रों में एक-एक सभाये करनेे के लिए कम से कम दो महीना चाहिए।
आआपा ने अभी तक कोई दूरगामी गंभीर राजनीति विचार, प्रशासनिक व आर्थिक सोच भी सामने नहीं रखा है। दिल्ली को आधार बनाकर आआपा लोगांे को आकर्षित कर सकती है। पर यह विविधताओं से भरा देश है। दिल्ली की तरह एकरुप समस्या वाहे शहर में उसको चिन्हित करना व उसे मुद्दा बनाना जितना आसान है उतना ही दूसरे राज्यों के संदर्भ में नहीं है। हां, भाजपा को अपनी कार्यसंस्कृति और निर्णय प्रक्रिया पर गहन विमर्श में बदलाव करने की आवश्यकता इस परिणाम ने अवश्य उत्पन्न किया है। नहीं करेंगे तो दूसरे राज्यों में खामियाजा भुगतेंगे।
कांग्रेस को अपनी नीति, रणनीति, नेतृत्व, मुद्दे पर कहीं ज्यादा गहन मंथन और आमूल बदलाव का साहस दिखाना होगा, अन्यथा उसकी और दुर्दशा होगी। कांग्रेसियों के एक बड़े वर्ग ने भाजपा को हराने के लिए अपनी पार्टी की जगह आआपा को मत देने की जो रणनीति अपनाई वह उसके लिए आत्मघाती था। लेकिन उसे यह देर से समझ में आयेगी। पर किसी दृष्टि से यह परिणाम भारत में किसी बड़े परिवर्तन का सूचक नहीं है। जो दल इस परिणाम से अपने पुनरोदय की उम्मीद लगाये हैं उनको इससे बहुत कुछ ठोस नहीं मिलने वाला।

मेरी बिल्ली मुझसे ही म्याऊं


बिहार में सियासी पारा आसमान पर है। एक तरफ पूर्व मुख्यमंत्री और जेडीयू विधायक दल के नेता नीतीश कुमार राज्यपाल से मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश कर चुके हैं तो वहीं मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने राज्यपाल से मुलाकात के बाद नीतीश के नेता चुने जाने पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। अब गेंद राज्यपाल के पाले में है और उनका एक फैसला बिहार की सियासत में नई लकीर खींच सकता है।  इसके साथ ही बिहार में चल रही राजनीतिक उठापटक दर्शा रही है कि पद का मोह व्यक्ति को किस हद तक ले जा सकता है। एक, जिसे मुख्यमंत्री पद लॉटरी खुलने की भांति मिला था अब वह पद नहीं छोड़ने पर उतारू है और इसके लिए अपनी ही पार्टी के विरोध में झंडा बुलंद कर रहा है तो दूसरी ओर एक ऐसा व्यक्ति है जोकि आठ माह पहले जिस नैतिकता के नाम पर पद छोड़ कर गया था वह कोई ऐसा पुख्ता कारण नहीं बता पा रहा है कि क्यों वह इस पद पर वापस आना चाहता है।
130 विधायकों के समर्थन का दावा करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश ने साफ किया कि उन्हें जल्द से जल्द सरकार बनाने का न्योता मिलना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता है तो विधायकों की खरीद फरोख्त को बढ़ावा  मिल सकता है। नीतीश के साथ पहुंचे लालू यादव की आरजेडी के 24 विधायक भी जेडीयू के साथ हैं। ऐसे में लालू ने नीतीश को तुरंत सीएम बनाए जाने के साथ ही समर्थन की चिट्ठी राज्यपाल को सौंपने की बात कही। नीतीश कुमार के खेमे ने मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को पार्टी से बर्खास्त भले कर दिया हो लेकिन मांझी इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं हैं। राज्यपाल से मिलने के बाद सीएम जीतनराम मांझी ने नीतीश के विधायक दल के नेता चुने जाने को ही अवैध करार दे दिया। उन्होंने ये भी भरोसा जताया कि जब राज्यपाल उन्हें बहुमत साबित करने के लिए कहेंगे, वो ऐसा करने में सक्षम हैं। सियासी सुगबुगाहट ये भी है कि पीएम से मिलने के बाद मांझी के हौसले बुलंद हैं और वो भी अपने साथ बहुमत के जरूरी आंकड़े जुटाने का दम भर रहे हैं।
दरअसल, पिछले साल लोकसभा चुनावों में जनता दल युनाइटेड की करारी हार के बाद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से खुद इस्तीफा इसलिए दे दिया था क्योंकि उन्हें पता था कि पार्टी में उनके इस्तीफे की मांग उठेगी। शिवानंद तिवारी ने इसकी शुरुआत की भी लेकिन उन्हें जल्द ही चुप करा दिया गया। मधेपुरा से लोकसभा चुनाव हारने के बाद पार्टी अध्यक्ष शरद यादव भी नीतीश से नाराज बताये जा रहे थे हालांकि वह नीतीश को पद से हटाने जैसा साहस नहीं दिखाते लेकिन फिर भी इससे पहले की इस्तीफे की मांग बलवती हो, नीतीश ने खुद ही श्नैतिकताश् की मिसाल बनते हुए हार की जिम्मेदारी ली और मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया। हालांकि जब मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश ने जीतन राम मांझी का चयन किया तब यह साफ हो गया था कि वह रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाना चाहते हैं। मुख्यमंत्री पद के लिए पार्टी में नीतीश कुमार के बाद कई और तगड़े दावेदार थे लेकिन नीतीश ने उनको कमान इसलिए नहीं सौंपी कि कहीं वह आगे चलकर उनके लिए ही संकट ना पैदा कर दें। नीतीश ने उस समय बड़ी चतुराई से एक ऐसे व्यक्ति (जीतन राम मांझी) का चयन किया जोकि उनके लिए राजनीतिक रूप से चुनौती खड़ी करने की हैसियत नहीं रखता था। साथ ही मांझी को मुख्यमंत्री पद देकर महादलित वोटों को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता था। लेकिन नीतीश की चतुराई खुद उन पर और पार्टी पर भारी पड़ गयी। मुख्यमंत्री पद पर आते ही मांझी अकसर विवादित बयान देते गये और प्रशासन के लचर होते जाने के समाचार पार्टी की छवि पर असर डालने लगे। यही नहीं जब मांझी को यह भान हो गया कि नीतीश अब उनको हटाकर खुद मुख्यमंत्री पद पर आना चाहते हैं तो वह बागी भी हो गये और पार्टी के भीतर का झगड़ा सड़कों पर आ गया।
देखा जाए तो, नीतीश ने मांझी को आसान मोहरा समझ कर बड़ी भारी गलती की थी। उन्होंने सोचा था कि वह उनके इशारे पर ही काम करेंगे तथा इस दौरान वह (नीतीश) जनता परिवार को एकजुट करने और पार्टी संगठन को मजबूत करने में थोड़ा ध्यान लगाएंगे। वह कुछ सफल होते भी दिखे क्योंकि राज्य विधानसभा उपचुनाव में जद-यू ने राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और भाजपा को करारी मात दी। इसके बाद से नीतीश मुख्यमंत्री पद पर वापस आने की जुगत भिड़ाने लगे। उनके नाम पर जब राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव भी राजी हो गये तो उनका हौसला बढ़ गया। उन्हें अन्य नेताओं ने भी यही सलाह दी कि इस वर्ष होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में यदि भाजपा से मुकाबला करना है तो नेतृत्व उन्हें ही संभालना होगा। अब सही समय का इंतजार होने लगा लेकिन समय आने पर मांझी उसी नाव में छेद करने पर उतारू हो गये जिसका उन्हें खिवैया बनाया गया था।
बहरहाल, मांझी ने जो रुख अख्तियार किया है उसे नैतिक आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि चाहे जो भी कारण रहा हो, उनकी राजनीतिक हैसियत को बढ़ाने का काम नीतीश कुमार ने ही किया और नीतीश के चाहने पर ही वह मुख्यमंत्री पद पा सके। अब यदि पार्टी नयी रणनीति के हिसाब से मुख्यमंत्री पद पर नीतीश कुमार की वापसी चाह रही है तो उन्हें नीतीश के लिए मार्ग प्रशस्त करना चाहिए था। उनके बागी तेवर उनका राजनीतिक कैरियर चैपट भी करवा सकते हैं। फिलहाल तो उन्हें भाजपा की सहानुभूति प्राप्त होती नजर आ रही है जबकि वह मुख्य विपक्षी दल होने के नाते मांझी सरकार की काफी आलोचना करती रही है। बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी चाहते तो बिहार की दलित-उत्पीड़ित जनता के पक्षधर और सेक्युलर-लोकतांत्रिक सियासत के तरफदार नेता बनकर एक नया इतिहास रच सकते थे। लेकिन बीते कुछ महीनों के दौरान उनके काम, बयान और गतिविधियों पर नजर डालें तो निराशा होती है। उन्होंने दलितों के बीच चुनावी-जनाधार पैदा करने की कोशिश जरूर की, पर दलित-उत्पीड़ितों के मुद्दों और सरोकारों के लिए कुछ खास नहीं किया। ले-देकर वह बिहार के कुछ सवर्ण-सामंती पृष्ठभूमि के दबंग नेताओं के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संरक्षण-समर्थन में उभरते ‘दूसरे रामसुदंर दास’ नजर आए। अगर उन्होंने कर्पूरी ठाकुर के रास्ते पर चलने की कोशिश की होती, तो नीतीश कुमार या शरद यादव उनके खिलाफ मुहिम छेड़ने का साहस नहीं कर पाते। लेकिन कुर्सी पर बने रहने और जिस नीतीश ने उन्हें मुख्यमंत्री नामांकित किया, को चिढ़ाने और नीचा दिखाने के लिए वह भाजपा के शीर्ष पुरूष और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नहीं, राज्य के छोटे-मोटे भाजपा नेताओं का भी अभिनंदन करने लगे।
वैसे, संवैधानिक आधार पर मांझी का यह कहना भी सही है कि विधायक दल की बैठक बुलाने का अधिकार सिर्फ मुख्यमंत्री को है लेकिन यदि विधायक अपने नेता के प्रति अविश्वास व्यक्त करते हुए नया नेता चुन लें तो उसमें कुछ गलत नहीं है। नीतीश कुमार को सिर्फ जद-यू विधायक दल का ही नहीं बल्कि राजद, माकपा और कांग्रेस विधायकों का भी समर्थन प्राप्त है, ऐसे में उन्हें सरकार बनाने से रोकना उचित नहीं होगा। हालांकि इस मुद्दे पर राज्यपाल अपने विवेक के अनुसार निर्णय करेंगे कि वह मुख्यमंत्री मांझी के विधानसभा भंग करने के प्रस्ताव को मानें अथवा जद-यू के उस पत्र पर गौर करें जिसमें नीतीश को नया नेता चुनने की जानकारी और सरकार बनाने के लिए निमंत्रण देने का आग्रह किया गया है। इस पूरे प्रकरण में भाजपा को बहुत सतर्कता से आगे कदम बढ़ाना होगा। मांझी की सरकार को समर्थन देना उसके लिए घाटे का सौदा साबित हो सकता है क्योंकि इसी वर्ष विधानसभा चुनाव हैं। नीतीश को रोकने का कोई भी गलत प्रयास जनता में सही संदेश नहीं पहुंचाएगा और बाद में नीतीश इसको भुना भी सकते हैं। यदि मांझी भाजपा में शामिल होकर जद-यू सरकार के खिलाफ बिगुल बजाएं तो शायद यह भाजपा के लिए फायदेमंद रहे। बहरहाल, यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि जनता ने तो पांच साल तक सरकार चलाने का जनादेश दिया था लेकिन राजनीतिक कारणों से आज प्रदेश को राजनीतिक अस्थिरता की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। वैसे मांझी जब मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तभी उन्हें इस बात का अहसास होना चाहिए था कि इस पद पर उनकी अस्थायी नियुक्ति है क्योंकि नीतीश कुमार नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने और फिर वापस पद पर आने का काम पहले भी करते रहे हैं। केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान एक रेल दुर्घटना के बाद उन्होंने इसकी जिम्मेदारी लेते हुए मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था लेकिन दो माह बाद पद पर वापस आ गये। इसी प्रकार केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देकर अल्पमत वाली बिहार सरकार के मुखिया बने और जब सरकार गिर गयी तो वापस केंद्र में आ गये।
इस सबके बीच एक सवाल उठना लाजमी है, अगर मांझी सचमुच दलित-उत्पीड़ित अवाम के हमदर्द रहे हैं, तो बिहार में ऐसे समुदायों के लिए चले कार्यक्रमों के प्रति उनका रवैया क्या था? शायद ही इस बात पर किसी तरह का विवाद हो कि बिहार जैसे राज्य में भूमि-सुधार दलित-उत्पीड़ित समुदायों के पक्ष का सबसे प्रमुख एजेंडा है. आजादी के तुरंत बाद ही बिहार में भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करने की कोशिश की गई । लेकिन ताकतवर नेताओं की एक लाबी ने इसे नहीं होने दिया। क्या जीतनराम मांझी के ‘दलित-एजेंडे’ में भूमि सुधार जैसा अहम मुद्दा शामिल है? क्या अब तक के अपने कार्यकाल में मांझी ने भूमि सुधार की बंदोपाध्याय रिपोर्ट को पटना सचिवालय की धूलभरी आलमारियों से बाहर निकालने की एक बार भी कोशिश की? अगर नहीं, तो कहां है उनका दलित-एजेंडा? दलित-एजेंडा सिर्फ भाषणबाजी नहीं हो सकता! ऐसी भाषणबाजी तो दलित समुदाय से आने वाले पहले के नेता भी करते रहे हैं।  क्या अमीरदास आयोग को फिर से बहाल करने के बारे में कभी विचार किया? इसका गठन कुख्यात रणवीर सेना के राजनीतिक रिश्तों की जांच के लिए हुआ था लेकिन भूस्वामी लाबी के दबाव में पूर्ववर्ती सरकार ने उस आयोग को ही खत्म कर दिया। राज्य के मुख्यमंत्री और दलित नेता के तौर पर मांझी की बड़ी परीक्षा शंकरबिघा हत्याकांड के सारे अभियुक्तों के स्थानीय अदालत द्वारा छोड़े जाने के फैसले पर भी होनी थी।

समाज पर एक बदनुमा दाग



बचपन, इंसान की जिंदगी का सबसे हसीन पल, न किसी बात की चिंता और न ही कोई जिम्मेदारी। बस हर समय अपनी मस्तियों में खोए रहना, खेलना-कूदना और पढ़ना। लेकिन सभी का बचपन ऐसा हो यह जरूरी नहीं। कई देशों में आज भी बच्चों को बचपन नसीब नहीं है। आज दुनिया भर में 215 मिलियन ऐसे बच्चे हैं जिनकी उम्र 14 वर्ष से कम है। और इन बच्चों का समय स्कूल में कॉपी-किताबों और दोस्तों के बीच नहीं बल्कि होटलों, घरों, उद्योगों में बर्तनों, झाड़ू-पोंछे और औजारों के बीच बीतता है। भारत में यह स्थिति बहुत ही भयावह हो चली है। दुनिया में सबसे ज्यादा बाल मजदूर भारत में ही हैं। 1991 की जनगणना के हिसाब से बाल मजदूरों का आंकड़ा 11.3 मिलियन था। 2001 में यह आंकड़ा बढ़कर 12.7 मिलियन पहुंच गया।
आसमान में पतंग उड़ाने, कहीं दूर तक सैर तक जाने, मजे -मौज और पढ़ाई करने वाले दिनों में अपनी इच्छाओं का दमन करके दुनिया के लगभग एक करोड़ बच्चे कहीं कल -कारखानों में, कहीं होटलों में तो कहीं उंची चहारदीवारियों में बंद कोठियों की साफ -सफाई में लगे हैं। कानून किताबों में पड़ उंघ रहा है। क्योंकि उसे जगाने वाले हाथ देखकर भी कुछ नहीं करते बल्कि कई बार तो वह खुद ही कानून तोड़ते नजर आते हैं। और इस पर भी दर्दनाक बात यह कि बच्चों के मुददे कभी विधानसभा और संसद में गंभीरता और नियमितता से उठाए ही नहीं जाते क्योंकि बच्चों का कोई वोट बैंक नहीं होता, बच्चों के मुददे जनप्रतिनिधियों को चर्चा में नहीं लाते।
 अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 12 जून बाल मजदूरी के विरोध का दिन है। अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन आईएलओ 2002 से हर साल इसे मना रहा है। दुनिया भर में बड़ी संख्या में बच्चे मजदूरी कर कर रहे हैं। इनका आसानी से शोषण हो सकता है। उनसे काम दबा छिपा के करवाया जाता है। वे परिवार से दूर अकेले इस शोषण का शिकार होते हैं। घरों में काम करने वाले बच्चों के साथ बुरा व्यवहार बहुत आम बात है। 1992 में भारत ने कहा था कि भारत की आर्थिक व्यवस्था देखते हुए हम बाल मजदूरी हटाने का काम रुक रुक कर करेंगे, क्योंकि हम यह एकदम से रोक नहीं पाएंगे। अफसोस की बात यह है कि आज 21 साल बाद भी हम बाल मजदूरी खत्म नहीं कर पाए हैं। और आज भी पूरी तरह से इसके खात्मे की बात बहुत दूर लग रही है। अगर हम बालश्रम मंत्रालय के ही आंकड़े ले लें, तो वो एक करोड़ बच्चों की बात करते हैं। साफ है कि यह संख्या कम है। इनमें से 50 फीसदी बच्चे लड़कियां हैं। जिनमें से कई तस्करी का भी शिकार होती हैं।
बड़े शहरों के साथ-साथ आपको छोटे शहरों में भी हर गली नुक्कड़ पर कई राजू-मुन्नी-छोटू-चवन्नी मिल जाएंगे जो हालातों के चलते बाल मजदूरी की गिरफ्त में आ चुके हैं। और यह बात सिर्फ बाल मजदूरी तक ही सीमित नहीं है इसके साथ ही बच्चों को कई घिनौने कुकृत्यों का भी सामना करना पड़ता है। जिनका बच्चों के मासूम मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। उम्र के हिसाब से अगर बात करें, तो 10 से 14 साल की उम्र के बच्चों से मजदूरी के मामले में उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात, असम, कर्नाटक, का हाल बहुत बुरा है। क्राय ने 2009-10 का विश्लेषण किया था। जिसमें देखा गया कि 10 से 18 साल के बच्चों में 42 फीसदी बच्चे असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं और इतने ही बिना किसी मजदूरी के काम कर रहे हैं। याद रखिए कि ये आंकड़े सरकारी हैं। दिल्ली की अगर बात करें, तो यहां सबसे ज्यादा समस्या गायब होते बच्चों की है। यहां हर दिन कम से कम 14 बच्चे गायब हो जाते हैं। ये फिर या तो बाल मजदूरी का शिकार होते हैं या फिर तस्करी का।
माना जा रहा है कि आज 60 मिलियन बच्चे बाल मजदूरी के शिकार हैं, अगर ये आंकड़े सच हैं तब सरकार को अपनी आंखें खोलनी होगी। आंकड़ों की यह भयावहता हमारे भविष्य का कलंक बन सकती है। भारत में बाल मजदूरों की इतनी अधिक संख्या होने का मुख्य कारण सिर्फ और सिर्फ गरीबी है। यहां एक तरफ तो ऐसे बच्चों का समूह है बड़े-बड़े मंहगे होटलों में 56 भोग का आनंद उठाता है और दूसरी तरफ ऐसे बच्चों का समूह है जो गरीब हैं, अनाथ हैं, जिन्हें पेटभर खाना भी नसीब नहीं होता। दूसरों की जूठनों के सहारे वे अपना जीवनयापन करते हैं। जब यही बच्चे दो वक्त की रोटी कमाना चाहते हैं तब इन्हें बाल मजदूर का हवाला देकर कई जगह काम ही नहीं दिया जाता। आखिर ये बच्चे क्या करें, कहां जाएं ताकि इनकी समस्या का समाधान हो सके। सरकार ने बाल मजदूरी के खिलाफ कानून तो बना दिए। इसे एक अपराध भी घोषित कर दिया लेकिन क्या इन बच्चों की कभी गंभीरता से सुध ली?
आखिर लक्ष्य पूरा नहीं होने के क्या कारण हैं? जवाब में कई कारण आते हैं।  हमारे देश में बच्चों के लिए काफी सारे अधिनियम हैं। हर एक्ट में बच्चे की उम्र का पैमाना अलग अलग है। इससे कंपनी को या उन लोगों को फायदा हो जाता है, जो मजदूरों को रखते हैं। जैसे चाइल्ड लेबर एक्ट में 14 साल से कम उम्र के बच्चे को काम पर रखना गैरकानूनी है, जबकि शादी के लिए कम से कम उम्र की सीमा 21 साल है, तो वोटिंग के लिए 18 साल। 15 साल का बच्चा भी बड़ा नहीं होता। वह चाइल्ड लेबर एक्ट में जा सकता है। बच्चे की कॉमन परिभाषा नहीं है। दूसरा मुद्दा यह है कि भारत में बच्चों के लिए काम करने वाली स्वास्थ्य, श्रम जैसे अलग अलग विभागों के बीच आपस में कोई सामंजस्य नहीं है।
बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने के लिए जरूरी है गरीबी को खत्म करना। इन बच्चों के लिए दो वक्त का खाना मुहैया कराना। इसके लिए सरकार को कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। सिर्फ सरकार ही नहीं आम जनता की भी इसमें सहभागिता जरूरी है। हर एक व्यक्ति जो आर्थिक रूप से सक्षम हो अगर ऐसे एक बच्चे की भी जिम्मेदारी लेने लगे तो सारा परिदृश्य ही बदल जाएगा। क्या आपको नहीं लगता कि कोमल बचपन को इस तरह गर्त में जाने से आप रोक सकते हैं? देश के सुरक्षित भविष्य के लिए वक्त आ गया है कि आपको यह जिम्मेदारी अब लेनी ही होगी। क्या आप लेंगे ऐसे किसी एक मासूम की जिम्मेदारी?