संसार में भ्रष्टाचार एक सामाजिक लाइलाज बीमारी के रूप में फैलता ही जा रहा है, हर आदमी भ्रष्टाचार की बुराई से परेशान है और इसे खत्म करने की जरूरत समझता है। लेकिन फिर भी आदमी अपने स्वार्थ, लोभ या मज़बूरी में भ्रष्टाचार को फलने फूलने में मददगार बना हुआ है। भ्रष्टाचार की बुराई सबसे ज्यादा हमारे लोकतांत्रिक शासन प्रशासन में फैली हुई है और यहीं से यह बुराई समाज में पनप रही है। इसके खिलाफ आवाज तो सभी उठाते है, लेकिन इसे खत्म करने के लिए कोई भी ईमानदार प्रयास नहीं करता है। विश्व बैंक बड़ी साफगोई के साथ कहता है कि हर साल दस खरब रुपए बतौर रिश्वत दी जाती है। वहीं, भारत सहित कई दूसरे देशों में लोग परेशान हैं भ्रष्टï राजनेताओं और राजनीतिक दलों से। भ्रष्टïाचार विरोधी संगठन 'ट्रांस्पेरेंसी इंटरनेशनलÓ ने एक अध्ययन कराया तो यह बात सामने आई कि भारत में नेताओं और पार्टियों के बाद अदालत, पुलिस और सीमा शुल्क के अधिकारी भ्रष्टï हैं, अपेक्षाकृत निजी कंपनियां, मीडिया और गैरसरकारी संस्थाएं कम भ्रष्टï है। दस में एक से एक व्यक्ति ने माना कि पिछले एक साल में उनके परिवार के लोगों को किसी न किसी काम की खातिर रिश्वत देनी पड़ी है।
भ्रष्टïाचार के मामले में दुनिया भर के 180 देशों मेंं किए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत का ईमानदारी सूचकांक 72 है, यानी वह दुनिया के 71 देशों से अधिक भ्रष्टï है। बस, राहत की बात यह हो सकती है कि भ्रष्टïाचार के मामले में हम अपने सभी पड़ोसी देशों पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल की तुलना में बेहतर हैं। इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट में सबसे ईमानदार देश बताया गया है डेनमार्क को और इसके बाद नंबर आता है फिनलैंड, न्यूजीलैंड, सिंगापुर और स्वीडन का । ब्रिटेन 12 वें नंबर पर तो संयुक्त राज्य अमेरिका 20वें पायदान पर इठला रहा है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल ने भ्रष्टïाचार मापने के लिए 10 अंकों की ईमानदारी सूचकांक बनाया था। इसमें डेनमार्क को जहां 9।4 अंक मिले, वहीं ब्रिटेन को 8.4, अमेरिका को 7.2 और भारत को 3.5 अंक मिले। श्रीलंका 3.2 अंक के साथ 94वें स्थान पर, नेपाल 2.5 अंकों के साथ 131वें नंबर पर, पाकिस्तान 2.4 अंक के साथ 138वें स्थान पर तो बांग्लादेश 2.0 अंक के साथ 162वें स्थान पर है। इस सूची के अनुसार वर्मा और सोमालिया दुनिया के सबसे भ्रष्टï देश हैं।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत ही बदनाम हो रहा है। भारत के साथ चीन भी रिश्वतखोरी में अव्वल होता जा रहा है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल ने हाल ही में एक दूसरी रिपोर्ट जारी की, जिसके अनुसार चीन और भारत की कंपनियां कारोबार करने के सिलसिले में विदेशों में रिश्वत देने के मामले में सबसे आगे है। यह संस्था मानती है कि भ्रष्टïाचार खत्म करने के लिए जो कानून लागू किए गए हैं कि उनका असर दिखना अभी बाकी है। इसी संस्था ने साल 2005 में एक अध्ययन कराया था जिसमें कहा गया था कि भारत के लोग बुनियादी सेवाएं हासिल करने के लिए चार अरब अमरीकी डॉलर के बराबर रकम हर साल रिश्वत के रूप में देते हैं। इस संस्था का कहना है कि उसने अपने सर्वेक्षण में तीस बड़े निर्यातक देशों की कंपनियों पर ज्यादा ध्यान दिया है। ये तीस देश दुनिया भर में होनेवाले निर्यात के 80 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। सर्वेक्षण के दौरान 125 देशों में 11 हजार व्यवसायियों से बातचीत की गई। हालांकि विश्लेषकों का कहना है कि भारत और चीन में चूंकि औद्योगिक विकास तेजी से हो रही है और संसाधनों की सख्त जरूरत है, इसलिए रिश्वतखोरी बढ़ी है।
भ्रष्टïाचार के लिए जहां आम लोग-बाग नेता-अफसर गठजोड़ को जिम्मेदार मानते हैं तो नेता नौकरशाही के मत्थे सारा ठीकरा फोडऩा चाहते हैं। प्रशासन में भ्रष्टाचार अब तक ऐसी आम बीमारी मानी जाती है, जिसे कोई खत्म नहीं करना चाहता है। नौकरशाह अक्सर राजनेताओं को भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार बताते है, तो राजनेता सरकार में बैठने के बाद नौकरशाहों को इस बुराई का जन्मदाता बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते है। आर्थिक सुधारों और उपभोक्तावाद की अर्थव्यवस्था ने समाज में भ्रष्टाचार को बहुआयामी और अति शक्तिशाली बना दिया है। बर्लिन की ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल के अनुसार भारत में ऐसा कोई सरकारी विभाग नहीं है, जहॉ रिश्वत का लेन देन न होता हो। भ्रष्टाचार की पूंजी का निवेश, भूमि, भवन,सुखोभोग की वस्तुओं और साधनों पर किया जाता है। हाल ही मीडिया में खबर प्रसारित हुई कि एक रात के लिए तीन युवतियों के अश्लील नृत्य के आयोजनों पर एक लाख रुपया खर्च किया गया, इस आयोजन के साथ जो शराब और भोजन मेहमानों को परोसा गया, उसकी कीमत इस खर्च में शामिल नहीं है। भ्रष्टाचार की बुराई उपभोक्तावाद और भोगविलास को बढ़ावा देती है। इस कारण गरीब, बेरोजगार और मजबूर युवतियां अपना देह बेचने के लिए मजबूर की जाती है। इस अनैतिक कारोबार में प्रशासन और पुलिस के जिम्मेदार कर्मचारी भी कहीं न कहीं सहयोगी और हिस्सेदार बन जाते है। भ्रष्टाचार ने सरकारी तंत्र की नैतिकता, कत्र्तव्यनिष्ठा और राष्ट्र तथा समाज के प्रति निष्ठा को भी नष्ट किया है। इसका एक शर्मनाक प्रमाण मुंबई बमकांड 1993 है,इस बर्बर आतंकवादी घटना की अदालती कार्रवाई हो चुकी है और दोषी व्यक्तियों को सजा भी घोषित की जा चुकी है। इस बमकांड के अपराधियों में महाराष्ट्र पुलिस और कस्टम विभाग के छोटे अफसर और कर्मचारी भी शामिल हंै, जिन्होंने भारत में आतंक फैलाने के लिए समुद्र के रास्ते विदेश से लाई गई आरडीएक्स,विस्फोटक सामग्री, एके 47 बंदूके, चंद लाख रुपए रिश्वत लेकर मुंबई तक भिजवाने में मदद की। इसी विस्फोटक और घातक सामग्री से मुंबई में कई स्थानों पर विस्फोट हुए, जिनमें जानमाल का भारी नुकसान हुआ, लेकिन फिर भी किसी भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी और अफसर की नैतिकता नहीं जागी और किसी ने भी पुलिस और जांॅच एजेंसी को स्वप्रेरणा से अपने अपराध की सूचना नहीं दी। पुलिस और जांॅच एजेंसियों में महीनों तक लगातार जांॅच करके जब कुछ सुराग पता लगाए, तभी इन भ्रष्ट और बेईमान देशघाती अपराधियों का पता चल पाया और वर्षों मुकदमा चलने के बाद अदालत से उन्हें सजा हो पायी। प्रशासन में भ्रष्टाचार की बुराई ने आम जनता के विश्वास को भी डिगा दिया है। इसीलिए महानगरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों तक में बाहुबलियों और धनपतियों का समानांतर राज चल रहा है। उत्तरप्रदेश, बिहार में तो जनता इन्हीं बाहुबलियों से अपने भूमि भवन संबंधी विवादों का निपटारा कराने पर मजबूर हो रही है। कई बाहुबली जनता के संकटमोचक बनकर चुनाव में जीत भी जाते है और विधानसभा तथा संसद में बैठकर राजनीति और शासन का अपराधीकरण कर रहे है।
भ्रष्टïाचार के लिए जहां आम लोग-बाग नेता-अफसर गठजोड़ को जिम्मेदार मानते हैं तो नेता नौकरशाही के मत्थे सारा ठीकरा फोडऩा चाहते हैं। प्रशासन में भ्रष्टाचार अब तक ऐसी आम बीमारी मानी जाती है, जिसे कोई खत्म नहीं करना चाहता है। नौकरशाह अक्सर राजनेताओं को भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार बताते है, तो राजनेता सरकार में बैठने के बाद नौकरशाहों को इस बुराई का जन्मदाता बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते है। आर्थिक सुधारों और उपभोक्तावाद की अर्थव्यवस्था ने समाज में भ्रष्टाचार को बहुआयामी और अति शक्तिशाली बना दिया है। बर्लिन की ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल के अनुसार भारत में ऐसा कोई सरकारी विभाग नहीं है, जहॉ रिश्वत का लेन देन न होता हो। भ्रष्टाचार की पूंजी का निवेश, भूमि, भवन,सुखोभोग की वस्तुओं और साधनों पर किया जाता है। हाल ही मीडिया में खबर प्रसारित हुई कि एक रात के लिए तीन युवतियों के अश्लील नृत्य के आयोजनों पर एक लाख रुपया खर्च किया गया, इस आयोजन के साथ जो शराब और भोजन मेहमानों को परोसा गया, उसकी कीमत इस खर्च में शामिल नहीं है। भ्रष्टाचार की बुराई उपभोक्तावाद और भोगविलास को बढ़ावा देती है। इस कारण गरीब, बेरोजगार और मजबूर युवतियां अपना देह बेचने के लिए मजबूर की जाती है। इस अनैतिक कारोबार में प्रशासन और पुलिस के जिम्मेदार कर्मचारी भी कहीं न कहीं सहयोगी और हिस्सेदार बन जाते है। भ्रष्टाचार ने सरकारी तंत्र की नैतिकता, कत्र्तव्यनिष्ठा और राष्ट्र तथा समाज के प्रति निष्ठा को भी नष्ट किया है। इसका एक शर्मनाक प्रमाण मुंबई बमकांड 1993 है,इस बर्बर आतंकवादी घटना की अदालती कार्रवाई हो चुकी है और दोषी व्यक्तियों को सजा भी घोषित की जा चुकी है। इस बमकांड के अपराधियों में महाराष्ट्र पुलिस और कस्टम विभाग के छोटे अफसर और कर्मचारी भी शामिल हंै, जिन्होंने भारत में आतंक फैलाने के लिए समुद्र के रास्ते विदेश से लाई गई आरडीएक्स,विस्फोटक सामग्री, एके 47 बंदूके, चंद लाख रुपए रिश्वत लेकर मुंबई तक भिजवाने में मदद की। इसी विस्फोटक और घातक सामग्री से मुंबई में कई स्थानों पर विस्फोट हुए, जिनमें जानमाल का भारी नुकसान हुआ, लेकिन फिर भी किसी भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी और अफसर की नैतिकता नहीं जागी और किसी ने भी पुलिस और जांॅच एजेंसी को स्वप्रेरणा से अपने अपराध की सूचना नहीं दी। पुलिस और जांॅच एजेंसियों में महीनों तक लगातार जांॅच करके जब कुछ सुराग पता लगाए, तभी इन भ्रष्ट और बेईमान देशघाती अपराधियों का पता चल पाया और वर्षों मुकदमा चलने के बाद अदालत से उन्हें सजा हो पायी। प्रशासन में भ्रष्टाचार की बुराई ने आम जनता के विश्वास को भी डिगा दिया है। इसीलिए महानगरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों तक में बाहुबलियों और धनपतियों का समानांतर राज चल रहा है। उत्तरप्रदेश, बिहार में तो जनता इन्हीं बाहुबलियों से अपने भूमि भवन संबंधी विवादों का निपटारा कराने पर मजबूर हो रही है। कई बाहुबली जनता के संकटमोचक बनकर चुनाव में जीत भी जाते है और विधानसभा तथा संसद में बैठकर राजनीति और शासन का अपराधीकरण कर रहे है।
सवाल उठता है कि भ्रष्टïाचार चहुंओर है, लेकिन सरकारी सेवाओं में सबसे भ्रष्टï कौन है? हालिया एक सर्वेक्षण ने तो पुलिस को कटघरे में ला कर खड़ा कर दिया है। बर्लिन की ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल की पुलिस के बारे में कहा है कि यही सबसे भ्रष्टï है। इस सर्वेक्षण में भाग लेनवाले लोगों ने पिछले एक साल में पुलिस में भारी भ्रष्टïाचार पाया। ये सर्वेक्षण ग्रामीण और शहरी इलाकों दोनों ही में किए गए। आमतौर पर माना जाता है कि उत्तर भारतीय राज्यों में रिश्वत का चलन जोरो पर हैं और दक्षिण भारतीय राज्यों में कम। लेकिन इस सर्वेक्षण के दौरान बंगलौर के सरकारी अस्पतालों में जानेवाले आधे से ज्यादा लोगों ने कहा है कि उन्हें किसी भी सेवा के लिए रिश्वत देनी पड़ती है।
हाल ही में हुई राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में केन्द्रिय वित्तमंत्री पी। चिदम्बरम द्वारा उजागर किए गये इस तथ्य से कि गरीब तक एक रुपये की इमदाद पहुंॅचाने के तौर तरीके इतने अचंभित करने वाले हो गये है कि गरीब तक एक रुपए की राशि पहुंॅचाने के लिए सरकारी खज़ाने से चार रुपये व्यय हो जाते हैं। वित्तमंत्री का यह खुलासा क्या हमारी वितरण प्रणाली के चरित्र और उसकी त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया के बारे में सवालिया निशान नहीं लगा रहा है ? प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी 11वींं पंचवर्षीय योजना के प्रस्ताव को अंतिम रूप देने के लिए बुलाई गई इसी बैठक में इस बात पर गंभीर चिंता जताई कि पिछड़े वर्गों तक विकास का लाभ जिस गति से पहुंॅचना चाहिए, वह नहीं पहुंॅच पा रहा है। उनका मानना है कि गांॅवों और शहरों के बीच की खाई पाटने की गति धीमी है तथा पिछड़े इलाकों, विशेषकर गरीब परिवारों को आज भी जीवन की बुनियादी सुविधाओं का समुचित फायदा नहीं मिल पा रहा है। प्रधानमंत्री ने पूर्व में भी आर्थिक असमानता दूर करने और कौशल बढ़ाने के उद्देश्य से दी जा रही सब्सिडी व्यवस्था पर भी असंतोष जताया था।
गौरतलब है कि यदि एक गरीब तक एक रुपये की सहायता पहुंॅचाई जाती है तो उस एक रुपये को उस तक पहुंॅचाने में 3।65 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। बैठक में जो आंकड़े प्रस्तुत किए गये वे हमारी एजेंसियों की कार गुज़ारियों को प्रदर्शित करने के लिए काफ़ी है। आंकड़े बताते हैं कि राशन का 58 प्रतिशत अनाज तो गरीबों तक पहुंॅच ही नहीं पाता है। इसमें से करीब 36 प्रतिशत अनाज तो बीच में ही गायब हो जाता है। गरीबों के नाम से शासकीय गोदामों से निकले अनाज के बोरे बीच में ही खो जाते हैं। यह खाद्यान्न वितरण की कार्यपद्धति के नुक्श का प्रमाण हैं सहायता के नाम पर गरीबों को लूटा जा रहा है। बिचौलिए और मुनाफाखोर लोग खूब चांदी काट रहे है। गोदामों से गरीब परिवारों के लिए निकला 42 प्रतिशत माल परिवहन के दौरान गायब होना अब आम बात हो गई है। ट्रकों में माल चढ़ाने से लेकर उतारने तक जो खेल होता है, उसमें कई खिलाडिय़ों की भूमिका होती हैं सरकारी एजेंसियों में व्याप्त भ्रष्टाचार उसमें बिचौलियों के हिस्से, दूकानदारों की मुनाफाखोरी और कालाबाज़ारी की प्रवृत्ति के बीच सार्वजनिक वितरण प्रणाली चल तो रही है पर डगमगाते हुए।
नागरिक आपूर्ति के विषय को लेकर राजनैतिक दलों द्वारा भी कम राजनीति नहीं की जाती है। केन्द्र का आरोप रहता है कि राज्यों को आवश्यकता अनुसार, समय पर उचित मात्रा में खाद्यान्न और आवश्यक वस्तुओं का कोटा उपलब्ध कराया जाता हैं, किंतु राज्यों द्वारा आवंटित वस्तुएं उठाने में तत्परता और गंभीरता नहीं दिखाई देती, इधर राज्यों द्वारा वितरण प्रणाली में आये दोष को लेकर केन्द्र को कोसा जाता है कि केन्द्र द्वारा कोटा निर्धारित करने और उसके आवंटन में राज्यों के साथ भेदभाव किया जाता है। केन्द्र और राज्यों की राजनैतिक लड़ाई में उपभोक्ता चूर-चूर होता रहता है। कुल मिलाकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली केन्द्र और राज्यों के बीच आरोप-प्रत्यारोपों, सरकारी एजेंसियों के भ्रष्टाचार, बिचौलियों और दूकानदारों की कालाबाज़ारी और मुनाफ़ाखोरी की प्रवृत्ति की चपेट में है। एक तरफ यह भी शिकायतें आती रहती है कि वितरण प्रणाली में बढ़ती जा रही खोट के कारण बड़ी मात्रा में खाद्यान्न गोदामों से उठ ही नहीं पाता हैं।गोदामों का अनाज सीधे दलालों के माध्यम से मुनाफा कमाने के लिए खुले बाज़ार में पहुंॅच जाता है। जो माल गरीबों के लिए सस्ती दर पर उपलब्ध कराने के लिए भेजा जाता है उस पर मुनाफा कमाकर खुले बाज़ार में बेचकर इस व्यवस्था से जुड़े लोगों द्वारा चांॅदी काटी जा रही है।
सरकार द्वारा गरीबों तक सस्ती दर पर माल पहुंॅचाने की इसलिए भी व्यवस्था की जाती है कि सरकार का उद्देश्य हानि उठाकर भी गरीबों की मदद करना है। एक स्थान के दूसरे स्थान पर माल पहुंॅचाने की प्रक्रिया और परिवहन पर इतना अधिक खर्च होता है, जितना कि उस माल का मूल्य नहीं होता। परिवहन व्यवस्था में भी भ्रष्टाचार परिलक्षित होता है। परिवहन की दरों को बढ़ा-चढ़ाकर वस्तुएं भेजने की प्रवृत्ति से भी गरीबों तक पहुंॅचाने वाली सामग्री पर सरकार का व्यय बढ़ जाता है। वित्तमंत्री के अनुसार गरीब तक एक रुपया पहुंॅचाने पर चार रुपये खर्च होने से यह बात साफ़ तौर पर उभरकर आती है कि चार रुपये का जो अंतर आ रहा है, वह गरीबों पर खर्च नहीं हो पा रहा हैै। इस चार रुपये के खर्च को कम किया जा सकता है बशर्ते कि वितरण प्रणाली की व्यवस्था पर कठोर नियंत्रण रखा जाय। ऐसा नियंत्रण तभी संभव है जब केन्द्र और राज्य इस चार रुपये के हिस्सेदारों को चिन्हित कर उन पर मज़बूत शिकंजा कसते रहें। यदि वर्तमान वितरण प्रणाली में सकारात्मक बदलाव नहीं आयेगा तो गरीब तो गरीब बना रहेगा ही साथ ही भ्रष्टाचारी और मुनाफाखोरी लोग दिन-ब-दिन अमीर से अमीर बनते चले जायेंगे।
शनिवार, 4 जुलाई 2009
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4 टिप्पणियां:
भ्रष्टाचारियों के बारे में क्या कहा जाए .. किसी भी क्षेत्र को अछूता नहीं छोडा इन्होनें।
desh se bhrashtachar mit jaaye to sari samasyayen hi khatm ho jaayengi.
सब देख रहे हैं खड़े खड़े...
इनसे कौन कैसे लड़े..
दरअसल भ्रष्टाचार आज समाज में एक अघोषित मान्यता प्राप्त कर चूका है जिसके लिए ..बहुत से समवेत.शशक्त प्रयास करने होंगे...
भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी हो चुकी है की इसके उन्मूलन करने के लिए सार्थक प्रयास किये जाने की जरुरत है. बढ़िया आलेख. धन्यवाद.
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