गुरुवार, 26 अगस्त 2010

असर

अखबार का पन्ना
लूट, अपहरण और हत्या से
भरा पड़ा था
शब्द-शब्द
किसी मासूम अबला के
स्याह हो रहे रक्त से
रंगा पटा था
पृष्ठ दर पृष्ठ उघेड़ा गया था
बुद्घिजीवी समाज के शरफात का नकाब
दिल के कोने में
उभर रहा था अक्स
बहशी का
माँ के आँखों की वेदना
गोद में लेटे हुए पुत्र
के दिमाग में भी अंकित हो रहा था
ओफ्फ

हर पन्ना आगजनी, तोड़-फोड़ से भरा है
माँ ... माँ
मेरा भविष्य किधर छिपा खड़ा है
टूटी तंद्रा माँ की
सोचा,
जिस देश का बचपन असुरिक्षत हो
उसके भटकी जवानी का हश्र क्या हेागा?
सहसा वह चीख पड़ी
अपने भविष्य को आग लगानेवाले दरिंदों
इसका असर दूसरे पर भी देखा है?

- बिपिन बादल

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

जरूरत एक अदम्य साहस की

ये एक ऐसा जंग है जो हथियार के संग सियासी हलकों में भी लड़ा जा रहा है। और जब शब्द और शस्त्र के बल पर युद्घ होता है तो उसका हल निकलना काफी मुश्किल होता है। साथ ही जब इस कार्य में जासूसों का जाल बिछा हो और एक के बाद एक कई जासूस पकड़े जाएं, तो मामला और संगीन हो जाता है। इस सच्चाई को भारत और पाकिस्तान के आवाम से बेहतर और कोई नहीं समझ सकता। पिछले छह दशक से भी अधिक समय से यह जंग चल रहा है। लेकिन अफसोस, कि इसका कोई हल नहीं निकल रहा है। उलट तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की बात जब भी आती है तो मामला और बिगड़ता चला जाता है। ऐसे में जरूरत इस बात को लेकर है कि भारतीय सत्ता पक्ष में एक ऐसा अदम्य साहसी नेता है जो इस मामले को जमीनी तौर पर सुलझा लें। जैसे कि वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश को लेकर किया था। एक बार का ही झमेला और सदियों का समाधान।
गत दिनों जिस प्रकार से चंडीगढ़ में एक पाकिस्तानी जासूसों को पुलिस ने पकड़ा तो लोग भौंचक्क रह गए। चंडीगढ के सेक्टर-44 में एक किरायदार के रूप में रहने वाला शख्स अपने को पवन कुमार बताता था, जबकि उसका असली नाम कासिफ अली था, जो कि पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था आईएसआई के लिए काम करता था। ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में यह पहली घटना हो। पिछले महीने में ऐसे ही जासूस को फिरोजपुर से भी पुलिस ने अपनी गिरफ्त में लिया था। वह भी छद्म नाम और तमाम भारतीय सरकारी दस्तावेज के संग हर्बल दवा की दुकान चला रहा था। इन जासूसों ने पुलिस को पूछताछ के दौरान कई राज बताए हैं, जिससे अंदाजा लगता है कि पाकिस्तान फिर से कोई नई साजिश रच रहा है। यह अनायास नहीं है कि गुप्तचर एजेंसी ने भारतीय सुरक्षा तंत्र को यह सूचना मुहैया कराई है कि दर्जन भर से अधिक आतंकी भारत प्रवेश कर चुके हैं। जानकार भी मानते हैं कि पाकिस्तान पहले अपने जासूस भेजता है फिर आतंकी।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारत में जितने भी आंतकी गतिविधियां संचालित होती रही हैं, उनमें अधिकत्तर प्रत्यक्ष तो कई मामलों में परोक्ष रूप से पाकिस्तान का ही हाथ होता है। कभी वहां की सरकार की सहभागिता होती है तो कई बार दूसरे संगठनों के, जिनका प्रभाव क्षेत्र पाकिस्तान ही होता है। हैरत की बात तो यह है कि जब भी भारत द्वारा शांति की बात की जाती है, सियासी रूप से पाकिस्तान की सरकार तो आगे आती है, लेकिन साथ ही साथ वह आतंकी घटनाओं की भी तैयारी कर रही होती है। ऐसे एक नहीं, कई उदाहरण हंै।
आश्चर्य तो इस बात को लेकर भी है कि न तो भारत की सरकार और न ही पाकिस्तान की सरकार ने ऐसा कोई उपाय अभी तक ढंूढ निकाला है जिसके सहारे इस स्थाई समस्या का समाधान हो सके। जब भी दोनों देशों के मंत्री स्तरीय अथवा सचिव स्तरीय वार्ताओं का आयोजन होता है और वह अपने चारित्रिक गुणों के कारण असफल होता है तो दोनों देेशों के संसद में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तीखी नोंकझोंक होती है। जैसे, संसद ही भारत-पाक का मंच बन गया हो। सत्तारूढ़ दल हतप्रभ होती है। विपक्षी कहते हैं कि वह दिग्भ्रमित है। वह आपस में लत्तम-धत्तम कर रही है। कुछ समय पूर्व भी विदेश मंत्री और गृह सचिव आपस में रस्साकशी करते नजर आएं, वह तो यहीं बयां कर रही है न...। पाकिस्तान से निपटने की बजाय वे एक-दूसरे को निपटाने में लगे रहे ।
अहम सवाल यह है कि कोई यह नहीं बता पा रहा है कि आखिर ऐसी कौन-सी नीति अपनाई जाए, जिससे 63 साल से चला आ रहा भारत-पाक गतिरोध भंग हो और ये दो पड़ोसी शांति से रह सकें। जानकारों की रायशुमारी के परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो आगरा, शर्म-अल-शेख और इस्लामाबाद की मिसाल देकर अब यह कहना गलत होगा कि दोनों देशों के बीच चल रही वार्ता बिल्कुल बंद कर दी जाए। वार्ता तो युद्धों के दौरान भी चलती रहती है। महाभारत में क्या होता था? सूर्यास्त के बाद पांडवों और कौरवों में रोज बात होती थी या नहीं? यह कहना भी ठीक नहीं कि जब तक सीमा-पार आतंकवाद चलेगा, बात नहीं होगी। क्यों नहीं होगी? जरूर होगी और जरा दो-टूक होगी। कोलमैन हेडली की कारस्तानी के जितने प्रमाण मिल रहे हैं, उनसे पाकिस्तान की बोलती बंद करने का मौका हमें मिल रहा है या नहीं? हमारे प्रमाणों और तर्को का असर दुनिया के अन्य देशों पर ही नहीं, पाकिस्तान की जनता पर भी होता है।
ऐसे में अहम सवाल यह है कि हमारा पक्ष मजबूत होते हुए भी हम मात क्यों खा जाते हैं? इसलिए खा जाते हैं कि हम बोलते हुए ही नहीं, सोचते हुए भी हकलाते रहे हैं। हमारे नेता और अफसरों को चिकनी-चुपड़ी बातें करने की लत पड़ी हुई है। क्या आज तक हमने पाकिस्तानियों से कभी आगे होकर पूछा कि आप कब्जा किया हुआ कश्मीर कब खाली करेंगे? आप संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव पर अमल कब शुरू करेंगे? देश की जनता अब यह कहने लगी है कि भारत की सरकारों ने कई सुनहरे मौके गंवा दिए। जब संसद पर सुबह हमला हुआ, तब यदि सूर्यास्त के पहले ही भारतीय जहाज पाकिस्तान के कुछ संदिग्ध अड्डों पर सांकेतिक हमला कर देते तो सारी दुनिया भारत की बहादुरी पर तालियां बजाती और पाकिस्तानी जनता यह समझ जाती कि उसकी सरकार के निकम्मेपन के कारण ही भारत को यह कार्रवाई करनी पड़ी है। मुंबई हमले के वक्त पाकिस्तान की जनता और फौज यह मानकर चल रही थी कि भारत अब ठोंकने ही वाला है, लेकिन हमारी सरकार जबानी जमा-खर्च करती रही। इसी का नतीजा है कि पाकिस्तान की सरकार चोरी और सीनाजोरी करती रहती है। लातों के भूत क्या बातों से मानते हैं? अगर दिल्ली में कोई बहादुर सतर्क सरकार होती तो असमंजस में पड़ी नहीं रहती। जैसे ही संसद या मुंबई जैसा कांड होता, वह बयान बाद में जारी करती और फौजी कार्रवाई पहले करती। प्रवक्ता बाद में बोलता, बम पहले बोलते।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि युद्ध छेडऩे की हिम्मत अब तक हमेशा पाकिस्तान ने ही की है। वह कमजोर है, लेकिन जोरदार भारत को वही नाच नचाता है। जिस दिन पाकिस्तान यह महसूस कर लेगा कि 'पटरी पर आ जाऊं, वरना मेरी खैर नहींÓ, उसी दिन से वह भारत की बात सुनने लगेगा। संसद पर हुए हमले के बाद वाजपेयी सरकार ने सीमांत पर जो फौजें भेजी थीं, उसका कुछ असर हुआ कि नहीं? मुशर्रफ ने आगे होकर पहल की। 2004 के दक्षेस सम्मेलन में द्विपक्षीय संयुक्त वक्तव्य जारी करवाया और वादा किया कि अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकवाद के लिए नहीं होने देंगे। सामारिक मामलों के विशेषज्ञ उदय भास्कर के अनुसार, पाकिस्तान कभी भरोसे लायक रहा ही नही है। वह दूसरे देशों से हासिल हथियारों के बल पर कूदता है। लेकिन चिंता की बात यह है कि पाक सेना के कई हथियार आतंकियों तक भी पहुंच चुके हैं। पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तानी सेना और आतंकी संगठनों का क्या संबंध हैं, ऐसे में भारत सरकार को हर छोटी से छोटी सूचनाओं पर गंभीरता से गौर करना होगा।


यह तो पाक का स्वभाव ही है
14 अगस्त 1947 को स्थानीय समय रात्रि 10 बज कर 58 मिनट 56 सेकेंड पर कराची में, जब मेष लग्न उदित हो रहा था, तब पाकिस्तान का अभ्युदय हुआ। पाकिस्तान के जन्म के समय चतुर्दशी तिथि थी जो कि अशुभ मानी जाती है। जन्म लग्न में चर राशि है जो एक देश के लिए किसी भी कोण से अच्छा नहीं है। साथ ही लग्नेश का द्विस्वभाव राशि में होना भी अच्छा नहीं है। इसीलिए सन् 1971 में वह विभाजित हुआ। पाकिस्तान के अभी और विभाजित होने की संभावना है। लग्नेश-अष्टमेश मंगल की पराक्रम स्थान में स्थिति से यह स्पष्ट होता है कि भारत दोस्ती के लाख प्रयास कर ले, पाकिस्तान उसे अपना शत्रु मानता है और मानता रहेगा। स्व.जुल्फिकार अली भुट्टो ने कभी सुरक्षा परिषद में ऐलान किया था कि उनका देश भारत से हजार वर्षों तक युद्ध करता रहेगा। उस समय सुरक्षा परिषद् ने क्या किया या आज भी अमेरिका क्या कर रहा है, यह सबको पता है। हमें इजरायल से कुछ सीखना चाहिए। इस स्थिति पर भारत के राजनयिकों व सरकार को पुन: विचार कर पाकिस्तान के लिए कोई स्थायी नीति बनानी चाहिए।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

अपनों ने दगा दी

एक पुराना गीत है, 'दुश्मन न करे दोस्त ने जो काम किया है, जिंदगी ार का गम ईनाम दिया है... कुछ इसी तरह आज ाारतीय सेना के कुछ जांबाज गुनगुनाने को विवश हैं। कारगिल युद्ध में देश का झंडा बुलंद किया था, लेकिन जब उनके महिमा की व्याख्या की जा रही थी तो उन्हें दरकिनार कर दिया गया। कारगिल युद्ध के दौरान जब देश के वीर जवान अपनी जान की परवाह किए बिनाा दुश्मन से लोहा ले रहे थे, उसी समय एक जंग और खेली जा रही थी। इस बार वार करने वाले हाथ अपने ही थे। देश के उन वीर जवानों ने यह सोचा भी न होगा कि उनके अपने सीनियर अफसर उनके साथ दगाबाजी कर देंगे। एक खबर के अनुसार सीनियर अफसरों ने अपने जूनियर अफसरों की बहादुरी का सच सिर्फ इसलिए छिपा दिया कि कहीं वे उनसे आगे न निकल जाएं। बात भले ही सास-बहू के किसी नाटक सरीखी लगे, लेकिन हकीकत में यह भारतीय सेना का ही घिनौना चेहरा है। यह किसी हैरत से कम नहीं कि हिमायल की चोटियों पर जब जवान अपनी जान की बाजी लगा रहे थे, उस समय सेना के कुछ वरिष्ठ अफसरों ने अपने जूनियर अफसरों की बहादुरी को सिर्फ इसलिए छिपाया ताकि उन्हें बहादुरी के लिए मेडल और तरक्की न मिल सके। 'प्रथम इम्पैक्टÓ के पास मौजूद दस्तावेज तो यही बयां करते हैं। ऐसा ही आरोप सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दूसरे अधिकारी और एक पुस्तक के लेखक पर लगाया। प्रथम दृष्टïया में इसे ट्रिब्यूनल ने भी सही माना और आदेश दिया कि इस इतिहास को फिर से लिखा जाए, लेकिन भारत सरकार ने फिलहाल इसे मना कर दिया है।
दरअसल, 1999 में पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध की कहानी में सेना के अफसरों ने छेड़छाड़ की थी। आम्र्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल ने इस मामले में एक पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल को दोषी पाया है। सेना के इस अधिकारी ने अपने जूनियर ब्रिगेडियर रैंक के एक अधिकारी की उपलब्धियों को कम करके दिखाया था। ट्रिब्यूनल ने रिटायर्ड ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह को प्रतीकात्मक प्रमोशन देने और कारगिल वॉर के इतिहास को फिर से लिखने को कहा है, लेकिन यह सिर्फ सिंह की कहानी नहीं है। इसी तरह की कई याचिकाएं ट्रिब्यूनल में पेंडिंग पड़ी हैं।
यह मामला तब सामने आया जब कारगिल वॉर में 70 इन्फेंट्री ब्रिगेड का नेतृत्व करने वाले ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर कर उनके प्रदर्शन को कम करने का दिखाने का आरोप लगाया था। रक्षामंत्री ए.के. एंटनी ने जब आम्र्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल का गठन किया तो यह मामला हाईकोर्ट से ट्रिब्यूनल भेज दिया गया था। तब 15 कॉर्प के जनरल ऑफिसर कमांडिंग (जीओसी) लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल की रिपोर्ट से सिंह न केवल वॉर मेडल पाने से वंचित रह गए थे, बल्कि उनका प्रमोशन भी रुक गया था। ट्रिब्यूनल ने इस मामले में किशन पाल को दोषी पाते हुए सिंह मेजर जनरल का प्रतीकात्मक प्रमोशन देने और बटालिक सेक्टर में उनके प्रदर्शन को पूरे रेकॉर्ड्स के साथ सही तरह से दर्शाने का निर्देश दिया है।
ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह ने बटालिक सेक्टर से सबसे पहली बार पाकिस्तानी घुसपैठ होने की आशंका व्यक्त की थी लेकिन कथित रूप से लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल ने उनको अनदेखा कर दिया। करगिल युद्ध के बाद कुछ समय तक ब्रिगेडियर सिंह की बहादुरी के किस्से सुनाए जाते रहे, सेना ने भी अधिकृत रूप से उनकी तारीफ की, लेकिन बाद में लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल ने जो रिपोर्ट लिखी, उसमें ब्रिगेडियर सिंह की उपलब्धियों को छोटा करके बताया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि उनका नाम महावीर चक्र के लिए भेजा गया था, लेकिन उन्हें मिला सिर्फ विशिष्ट सेवा मेडल। इसके अलावा मेजर जनरल के रूप में उनका प्रमोशन भी नहीं हो सका था। अपने फैसले में जस्टिस ए.के. माथुर और लेफ्टिनेंट जनरल नायडू ने कहा है कि लेफ्टिनेंट जनरल पाल की रिपोर्ट पर भरोसा नहीं किया जा सकता। ट्रिब्यूनल में अपने ऑर्डर में लिखा है कि सालाना गोपनीय रिपोर्ट भी लेफ्टिनेंट जनरल पाल ने भेदभाव पूर्ण लिखी थी।
बताया जाता है कि ब्रिगेडियर सिंह ने युद्ध के एक साल के भीतर अपनी शिकायत दर्ज करवा ली थी, मगर पाल उसके साथियों ने दस साल तक यह फाइल दबा कर रखी। वह तो रक्षा मंत्री एके एंटनी ने सेना के सारे विवाद सेना के भीतर ही निपटाने के लिए आम्र्ड फोर्स ट्रिब्यूनल का गठन कर दिया और वहां से सच का खुलासा हुआ। ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट में कहा गया है कि कारगिल युद्ध में बहादुरी दिखाने वाले तीन और अधिकारियों के साथ अन्याय हुआ है। ब्रिगेडियर सुरेंदर सिंह ने ही सबसे पहले घुसपैठ की जानकारी दी थी और उस समय वे कारगिल में 121 बिग्रेड के कमांडर थे। उन्होंने भी शिकायत की थी कि उनकी चेतावनी को नजरअंदाज किया गया और इससे सेना को भारी नुकसान हुआ। इस सही शिकायत से नाराज होकर ब्रिगेडियर सुरेंदर सिंह को तो नौकरी से ही निकाल दिया गया। कारगिल युद्ध के ग्यारह साल बाद अब एक एक बात सामने निकल कर आ रही है कि कैसे घुसपैठ की रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया गया और उसके बाद सेना की रणनीति गलत तरीके से बनाई गई। लेफ्टिनेंट जनरल पाल ने इस रिपोर्ट को दबा कर तब तक रखा जब तक वास्तव में हमला नहीं हो गया। और तो और लेफ्टिनेंट जनरल पाल की नीयत इतनी खराब थी कि उन्होंने ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह को मेजर जनरल पद पर पदोन्नत होने से रोक दिया। ब्रिगेडियर अब एक निजी विमान सेवा में काम करते हैं और पाल भी रिटायर हो चुके हैं।
गौरतलब है कि कारगिल युद्ध जब पूरे चरम पर था तो तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नाडीज ने 48 घंटे में जीत का दावा किया था, मगर यह लड़ाई 80 दिन चली और भारत के कुल 55 अधिकारी और सैनिक मारे गए। उस समय लेफ्टिनेट जरनल निर्मल चंद्र विज, जो बाद में सेनाध्यक्ष बने और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अध्यक्ष के तौर पर कैबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल किए हुए हैं, डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशंस थे। अब कम लोगों को याद है कि सेना अधिकारी के नाते जनरल विज भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की एक बैठक में भाजपा मुख्यालय में जाकर सीमा की हालात की जानकारी देने गए थे, जो एक अक्षम्य अपराध है।
गौरतलब है कि प्राधिकरण की रिपोर्ट में कहा गया है कि कारगिल का इतिहास लिखने वाले लेफ्टिनेंट जनरल पाल ने दूसरे लेफ्टिनेट जरनल एच एम खन्ना को वरिष्ठ समीक्षा अधिकारी बनाया था और रिकॉर्ड में हेरा-फेरी की थी। जिस समय घुसपैठ चल रही थी, उस समय एक युद्ध अभ्यास किया गया था। उसमें ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह दुश्मन सेना के कमांडर बने थे और इस अभ्यास के बाद उन्होंने बटालिक कारगिल, द्रास और मश्कोह सेक्टरों मे घुसपैठ के तौर तरीकों की जानकारी दी थी। उन्होंने यह भी बताया था कि इन घुसपैठियों में 600 पाकिस्तानी सैनिक भी होंगे। उस समय भी लेफ्टिनेंट जनरल पाल ने इस रिपोर्ट को मजाक बताया था, जबकि जुब्बार और खुलबार पहाड़ों के पास से दुश्मनों के हथियार भी बरामद हो चुके थे। संभवत: जनरल पाल के इसी झूठे भुलावे में जॉर्ज फर्नांडीज ने 48 घंटे में जीत की घोषणा कर दी थी। इन्फेंट्री डीवीजन-3, 15 कोर के ब्रिगेडियर अशोक दुग्गल खुलबार इलाके में तैनात थे और उन्होंने भी इस जानकारी की पुष्टि की थी, मगर मेजर जनरल वीएस बदवार ने रिपोर्ट को गलत बताया था। बाद में भी ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह का नाम महावीर चक्र के लिए भेजा गया लेकिन जनरल पाल ने एक झूठी समीक्षा रिपोर्ट लिख कर उन्हें मामूली विशिष्ट मैडल ही मिलने दिया।
सेना ने कारगिल की लड़ाई के अपने पुराने इतिहास पर कायम रहते हुए फैसला किया है कि वह अवकाश प्राप्त ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह के मामले में सुनाए गए निर्णय पर सैन्य न्यायाधिकरण में पुनरीक्षण याचिका दायर करेगी। सेना का साफ कहना है कि उसने कारगिल की लड़ाई के इतिहास से कोई छेड़छाड़ नहीं की है। सेना की कानूनी एजूटेंट ब्रांच ने सोच विचार कर तय किया है कि सैन्य न्यायाधिकरण के उस फैसले के खिलाफ पुनरीक्षण याचिका दायर की जाए जिसमें ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह के मामले को सही पाते हुए यह आभास दिया गया था कि सेना ने रिकॉर्ड में हेराफेरी की और ब्रिगेडियर सिंह को पदोन्नति से वंचित किया। सेना इस बात का भी खंडन कर रही है कि ब्रिगेडियर सिंह के नाम की सिफारिश महावीर चक्र के लिए की गई थी। सूत्रों के अनुसार सेना न्यायाधिकरण के सामने कारगिल की लड़ाई का गोपनीय इतिहास पेश करेगी, जिससे एक मेजर जनरल की टिप्पणियों की विसंगतियां जाहिर होती हैं।
यह सही है कि किताब पर आपत्ति एक अधिकारी ने की है, लेकिन दर्जनों ऐसे कारगिल शहीद के परिवार है, जिन्हें अन्यान्य तरीकों से उपेक्षित किया गया है। किसी को उसके हक की पेंशन नहीं दी जा रही है तो किसी को आवंटित पेट्रोल पंप तक नहीं मिला। ऐसे में वह परिवार आज भी सरकार की ओर टकटकी लगाए बैठा है। हल्द्वानी जिले के कालाढुंगी चकलुवा के राम सिंह धड़ा निवासी सिपाही मोहन चंद्र जोशी 19 वर्ष की आयु में मात्र सवा साल की सेवा में ही ऑपरेशन विजय का हिस्सा बने। कुमाऊं रेजिमेंट की फस्र्ट नागा यूनिट का गौरव बने मोहन ने 10 से 20 जून 1999 तक द्रास सेक्टर में पाक सेना को धूल चटाई। इस दौरान वह शहीद हो गए। उनके माता-पिता का वर्ष 1996 में ही निधन हो गया था। चार भाइयों में से दूसरे नंबर के मोहन थे। उनके बड़े भाई गणेश दत्त जोशी कहते हैं कि मोहन के बलिदान पर हमें ही नहीं, पूरे देश को गर्व है। शहीद मोहन के परिजनों को हालांकि, आठ कमरों के दो पक्के मकान और काशीपुर में एक पेट्रोल पंप समेत 10 लाख रुपये की धनराशि मिल गई है, मगर मोहन के छोटे भाई योगेश का कहना है कि सरकार की ओर से एक मृतक आश्रित को नौकरी देने की बात भी कही गई थी, लेकिन सैनिक कल्याण बोर्ड और संबंधित विभागों के कई चक्कर लगाने के बाद भी कुछ हाथ नहीं लगा।
सरोवर नगरी नैनीताल के होनहार सैन्य अधिकारी मेजर राजेश अधिकारी भी कारगिल की लड़ाई में शहीद हो गए थे। 1965 में जन्मे राजेश के पिता का जल्दी निधन हो गया। माता मालती अधिकारी के संघष भरे लालन-पालन के बाद राजेश को सेना में कमीशन मिल गया। अदम्य कौशल के लिए राजेश को 1996 में महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। 1999 में उन्हें कारगिल युद्ध में भेजा गया, जहां पाक फौज से लड़ते हुए वह 29 मई 1999 को वीरगति को प्राप्त हो गए। इधर, उत्तराखंड राज्य गठन के बाद उनकी बूढ़ी मां मालती अधिकारी राजेश स्मृति स्मारक के लिए राजनेताओं तथा शासन प्रशासन के अधिकारियों के आगे चक्कर काटती रहीं, पर आज तक स्मारक का निर्माण नहीं हो सका। काफी जद्दोजहद के बाद इस वर्ष नैनीताल स्थित जीआईसी का नामकरण कारगिल शहीद मेजर राजेश अधिकारी के नाम पर किया गया। उनकी बूढ़ी मां मालती अधिकारी को अभी भी जांबाज सैन्य अधिकारी शहीद राजेश की स्मृति में शहीद स्मारक बनने का इंतजार है। पिथौरागढ़ जिले के लामागड़ गांव में 1981 में जन्मे जीवन खोलिया चार भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। कुमाऊं रेजीमेंट के इस सिपाही ने 11 जनवरी 2001 में मात्र 23 वर्ष की आयु में कारगिल युद्ध के दौरान सियाचिन ग्लेशियर में पाकिस्तानियों से लोहा लेते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। शहीद जीवन खोलिया के परिजन आज भी शासन-प्रशासन और नेताओं के वादाखिलाफी से आहत हैं। और तो और, उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में प्रशासनिक उपेक्षा के चलते कारगिल शहीद इश्तियाक खां के परिवार वाले भूखों मरने को विवश थे। पिछले वर्ष इस शहीद की मां तहरनिशा को 2,500 रुपये माहवार मिलने वाली पेंशन प्रशासनिक लापरवाही की वजह से पिछले सात महीने तक नहीं मिली। आय का एकमात्र साधन पेंशन नहीं मिलने से शहीद की मां और छोटा भाई जुनैद खां गांव के लोगों से भीख मांग कर अपना पेट भर रहे थे। जब काफी हो-हल्ला हुआ तो कुछ माह का पेंशन दिया गया था। दरअसल, ऐसे एक नहीं ढेरो मामले हैं।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

लोजपा और राजद के बीच फंसा पेंच

लोजपा-राजद गठबंधन के बीच सीटों के तालमेल का पेंच फिलहालउलझ गया है। लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान ने प्रदेश अध्यक्ष पशुपति कुमार पारस को सीटों का बंटवारा तय करने को अधिकृत किया था, लेकिन इस मुद्दे पर कोई वार्ता नहीं हो सकी। अब इस मामले पर दिल्ली में ही चर्चा होगी। बातचीत के लिए पारस राजद के प्रदेश अध्यक्ष अब्दुल बारी सिद्दीकी के साथ बुधवार रात्रि दिल्ली रवाना हो गए। अब आठ अगस्त तक फैसला होने की संभावना है।
राजद के साथ दिक्कत है कि वह लोजपा के साथ गठबंधन भी हर हाल में बनाये रखना चाहती है साथ ही साथ वह उसकी मांग को भी पूरा करने की स्थिति में नहीं है। राजद सूत्रों की माने तो लोजपा की ओर से दावा की जाने वाली अधिकांश सीटों के लिये उसके पास मजबूत प्रत्याशी तक नहीं है। राजद नेताओं का कहना है कि तालमेल का आधार सीटों की संख्या नहीं बल्कि जीतने की संभावना होनी चाहिये।
उधर लोजपा के सूत्रों की मानें तो रामविलास पासवान के स्तर से ही सीट शेयरिंग के मामले को सुलझाया जायेगा। लोजपा नेतृत्व का कहना है कि चार सीटिंग सीटों पर राजद से पहले बात होनी है। लोजपा विधायक दल के नेता महेश्वर सिंह की सीट हरसिद्धि अब आरक्षित हो गयी है। ऐसे में इनके लिए नयी सीट की दरकार होगी। महेश्वर सिंह का कहना है कि तालमेल कर उनके लिए सीट पार्टी तय कर लेगी। इसी तरह वारिसनगर की सीट भी अब लोजपा के लिए नहीं रह पायेगी। यह सीट पहले आरक्षित थी, अब मुक्त हो गयी है। इनके लिए भी दूसरी सीट की व्यवस्था की जा रही है। विधायक डा. अच्युतानंद सिंह की जंदाहा सीट भी खत्म हो गयी है। उनके लिए भी लोजपा को नयी सीट की आवश्यकता है। बथनाहा से जीती लोजपा विधायक नगीना देवी को भी परिसीमन की वजह से नए इलाके में जाने की नौबत पड़ सकती है। बथनाहा का बड़ा हिस्सा दूसरे विधानसभा क्षेत्र में चला गया है। किशोर कुमार मुन्ना को भी लोजपा ने लड़ाने का वादा किया है। इन चार लोजपा विधायकों को एडजस्ट करने का मसला सामने आ जाने के कारण राजद के साथ सीटों का बंटवारा फंसा हुआ नजर आ रहा है। लोजपा सूत्रों ने बताया कि राजद के प्रदेश अध्यक्ष श्री सिद्दीकी इन चार विधायकों के च्वाइस का ध्यान में रखकर अपने पत्तो खोलेंगे। प्रदेश में कांग्रेस की सक्रियता देखते हुए राजद अपने सहयोगी दल लोजपा से सीटों के तालमेल को लेकर बहुत सतर्क है। यही कारण है कि विस्तार से इस मसले विमर्श के लिए राजद ने अपने प्रदेश अध्यक्ष को दिल्ली रवाना किया है।

साभार

बुधवार, 4 अगस्त 2010

सुलगने को तैयार अयोध्या

अयोध्या एक बार फिर सुलगने को तैयार है। तारीख मुकर्रर तो नहीं हुई है, लेकिन इंतजाम शुरू हो चुके हैं। मध्य जुलाई में हिंदुवादी संगठनों ने अयोध्या में एकत्र होकर काफी कुछ तैयारी करनी शुरू कर दी। हालांकि, इसे इन संगठनों का चिंतन शिविर भी बताने की कोशिश की गई। पर वास्तविकता तो यह है कि विश्व हिंदू परिषद के बैनर तले एकत्र हुए साधु-संतों ने आगामी रणनीति को लेकर विचार विमर्श किया।
जैसे ही इलाहाबाद हाईकोर्ट में अयोध्या के विवादित बाबरी मजिस्द-राम जन्मभूमि मामले की सुनवाई पूरी हुई और फैसला आने की गुंजाइश दिखी पड़ी, ये संगठन हरकत में आ गए। बाबरी विध्वंस के बाद नेपथ्य में चले गए कई लोग अचानक मुखर होने लगे। ये लोग बड़ी साफगाई के साथ कहने लगे हैं कि बाबरी विध्वंस प्रकरण को लेकर भाजपा ने सत्ता हासिल की, लेकिन राम मंदिर पर कोई ठोस निर्णय नहीं लियास। सो, इस बार अपने दम पर ही राममंदिर का निर्माण करेंगे। किसी राजनीतिक दल की बैशाखी की जरूरत नहीं है।
यह अनायास नहीं था कि विश्व हिंदू परिषद के शीर्ष नेता बीस वर्ष बाद अयोध्या में इक_े हुए । दिसंबर 1992 में बाबरी ढांचा ध्वस्त होने के बाद पहली बार मंदिर आंदोलन के अगुआ आयोध्या में आयोजित विहिप की केंद्रीय प्रबंध समिति की बैठक में शामिल हुए। दो दिन की बैठक के बाद हिंदुवादी संगठनों के नेता सहित साधु-संतों ने फैसला लिया कि एक बार फिर राम मंदिर मुद्दे पर अगस्त से देश भर में अभियान शुरू करने की तैयारी है। ये लोग अपनी तैयारियों को लेकर इस कदर आश्वस्त हैं कि कहते हैं कि इसके लिए केंद्र सरकार को का कड़ा फैसला लेने पर मजबूर होना पड़ेगा। काबिलेगौर है कि जिला इस मामले को अदालत में 40 साल लगे, हाईकोर्ट में 20 साल बीत गए, इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में अटका तो? लेकिन विहिप के शीर्ष नेताओं का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट तक मामला जा नहीं पाएगा। हम संसद में फैसले के लिए सरकार को मजबूर कर देंगे। जब शाहबानो के लिए कानून बदल सकता है तो यह करोड़ों लोगों की आस्था का प्रश्न है। देश में ताकत का ऐतिहासिक प्रदर्शन होगा।
बेशक, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक विशेष खंडपीठ में अयोध्या में एक विवादित भूमि के मालिकाना हक से संबंधित मामले की सुनवाई पूरी हो गई है। इस भूमि पर हिंदुओं और मुसलमानों की ओर से एक सदी से भी अधिक समय से दावा किया जा रहा है। स्थानीय निवासियों को इस बात का अंदेशा हो चला है कि फैसला चाहे जो हो, चाहे जिसके हक में हो, मगर जिस दिन फैसला आएगा उस दिन देश के इतिहास का एक और बड़ा दंगा भड़क सकता है। लोगों के मन में यह भय घर कर रही है कि जिस प्रकार अयोध्या के संत महात्मा और विहिप के लोग गर्भगृह पर ही मंदिर बनाने की बात कह रहे हैं उससे स्पष्ट है आने वाले समय में इस पर राजनीति एक बार फिर गरमाएगी। लगातार हिंदुवादी संगठनों के नेता अयोध्या का भ्रमण कर रहे हैं। मंदिरों के शहर के रूप में विख्यात अयोध्या के विभिन्न मंदिरों में लोगों की बैठकें देखी जा सकती हैं।
राजनीतिक हलकों की बात करें तो विहिप के अंतर्राष्टï्रीय अध्यक्ष अशोक सिंघल भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी से खार खाए बैठे हैं, लेकिन बीते दिनों वह भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी से मुलाकात कर चुके हैं। वह भी अयोध्या में सम्मेलन करने से पूर्व। परिषद के इस अभियान में भाजपा भी सक्रिय रही , लेकिन परदे के पीछे। तय योजना के अनुसार 16 अगस्त से चार महीने तक देश भर के गांवों-कस्बों में अभियान चलाया जाएगा। बीस वर्ष पहले के मंदिर आंदोलन की तरह इसमें कोई बड़ी सभाएं नहीं होंगी, लेकिन नवंबर-दिसंबर में कुछ कार्यक्रम बड़े स्तर पर हो सकते हैं। इसका मकसद दो दशक पुराने आंदोलन के बाद बड़ी हुई और विहिप के इरादों से बेखबर युवा पीढ़ी को मंदिर मुद्दे से वाकिफ कराना है। माना जा रहा है कि अगर विहिप माहौल बनाने में सफल होती दिखती है तो भाजपा के नेता अभियान में खुलकर सक्रिय हो सकते हैं। भाजपा का रूख भी विहिप नेताओं को लेकर कुछ नरम हुआ है। तभी तो भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता तरुण विजय कहतेे हैं, पार्टी के लिए मंदिर भूलने वाला विषय हो ही नहीं सकता। लेकिन विहिप के इस अभियान को लेकर अभी पार्टी स्तर पर कोई फैसला नहीं लिया गया है।
बेशक, भाजपा अभी दुविधा में है किन्तु विहिप व आरएसएस के एजेंडे में मंदिर मुद्दा सबसे ऊपर आ गया है। संघ इस मुद्दे पर 1991 की भांति संतों को आगे करके आंदोलन करने के मूड में है। संघ के सरकार्यवाह सुरेश जोशी भैया ने इसकी पुष्टिï कर दी है। कहा जा रहा है कि अटल युग के अवसान के बाद भाजपा भी एक बड़ा मुद्दा चाह रही है, जिससे वह आम लोगों की नजर में आए। विपक्ष की भूमिका में वह सक्षम नहीं दिखाई पड़ रही है। ऐसे में भाजपा के रणनीतिकार भी अयोध्या को सुलगाने की बात सोच रहे हैं। आखिर, यही तो वह मुद्दा है जिसने भाजपा को दिल्ली की कुर्सी पर बिठाया।

यादगार वर्ष
1528 : अयोध्या में एक ऐसे स्थल पर मस्जिद का निर्माण किया गया जिसे हिंदू भगवान राम का जन्म स्थान मानते हैं। समझा जाता है कि मुग़ल सम्राट बाबर ने ये मस्जिद बनवाई थी जिस कारण इसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता था।
1853 : पहली बार अयोध्या के पास सांप्रदायिक दंगे हुए।
1859 : ब्रिटिश सरकार ने विवादित जगह पर बाड़ लगा दी और परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों को और बाहरी हिस्से में हिंदुओं को पूजा पाठ करने की इजाजत दे दी।
1949 : मस्जिद के भीतर भगवान राम की मूर्तियां पाई गयीं। मुसलमानों ने इसका विरोध किया और दोनों पक्षों ने अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। सरकार ने इस जगह को विवादित घोषित करके ताला लगा दिया।
1984 : कुछ हिंदुओं के नेतृत्व में भगवान राम के जन्म स्थल को मुक्त करने और वहां राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया।
1986 : जिला मजिस्ट्रेट ने हिंदुओं के लिए विवादित मस्जिद के दरवाजे पर से ताला खोलने का आदेश दिया। मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया।
1989 : विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज किया और विवादित स्थल के नजदीक राम मंदिर की नींव रखी।
1990 : विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने बाबरी मस्जिद को कुछ नुकसान पहुंचाया। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बातचीत के जरिए विवाद सुलझाने की कोशिश की मगर अगले साल बातचीत फेल हो गई।
1992 : शिव सेना और विहिप के कार्यकर्ताओं ने 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद को गिरा दिया। इसके बाद देश भर में हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे जिसमें 2000 से ज़्यादा लोग मारे गए।