बुधवार, 27 मई 2009

हम करेंगे भारत का नवनिर्माण : मेधा पाटकर


उत्पीडि़तों और विस्थापितों के लिए समर्पित मेधा पाटकर का जीवन शक्ति, उर्जा और वैचारिक उदात्तता की जीती-जागती मिसाल है। पिछले 20 वर्षों से अधिक के उनके संघर्षशील जीवन ने उन्हें पूरे विश्व के सबसे महत्वपूर्ण शख्सियतों में शुमार किया है। इस समय वे अनेक मोर्चों पर संघर्षरत हैं। उन्हीं मोर्चों के बारे में जानने के लिए उनसे बात की -


प्र। वर्तमान में अधिक से अधिक मतदान की बात हो रही है। विचार संगोष्ठी भी आयोजित की गई। बावजूद इसके, अपेक्षित वृद्घि देखने को नहीं मिली, क्या कारण है ?

उत्तर : भले ही शिक्षा का स्तर और लोगों में जागरूकता बढ़ी हो, फिर भी इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि पढ़े-लिखे लोगों की रूचि मतदान करने में लगातार घट रही है। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लगातार मतदान प्रतिशत का गिरना दुर्भाग्यपूर्ण है। मतदान करने में गरीबों की भागीदारी ज्यादा होती है। बावजूद इसके, उनका अस्तित्व नहीं समझा जा रहा है।


प्र। चुनाव में जिस प्रकार से पैसा बहाया जा रहा है, उसे किस रूप में देखती हैं। वोट डालने के बाद भी गरीबों को उनका हक क्यों नहीं मिलता

उत्तर : सच है कि आज पूंजी का बोलबाला है, लेकिन सच्चाई यह है कि पूंजी खाकर कोई भी जी नहीं सकता। रहने के लिए घर की जरूरत पड़ती है, जिंदा रहने के लिए खाने की जरूरत पड़ती है। यह सारी सुविधाएं गरीब लोगों के द्वारा मुहैया होती है और आज उन्हीं के अस्तित्व को नहीं समझा जा रहा है। आज वह समय आ गया है जब हमें यह सोचना है कि एक ऐसे लोकतंत्र की स्थापना की जाए जिसमें गरीबों को भी वह सम्मान मिले जिसके वे हकदार हैं।


प्र। जनमानस में यह बात स्थापित होती जा रही है कि नेताओं को हमारी फिक्र नहीं है, आप क्या सोचती हैं?

उत्तर : बिलकुल। आम आदमी और विशेषकर वे श्रमिक जिनको हिस्सा ही नहीं मिल रहा है विकास की पूरी प्रक्रिया में उनको तो यही लग रहा है कि उनके नाम पर चुनाव लड़े जाते हैं और जीते जाते हैं। लेकिन उनके लिए कोई नेता जीता नहीं है। वे केवल अपना घर भरने में लगे हैं, जनता जनार्दन की सोच उनके जेहन में नहीं है।


प्र। अधिकतर लोग कहते हैं कि ये राजनीति हमें समझ में नहीं आती?

उत्तर : बहुत तर्कसंगत है क्योंकि हमारे राजनीतिज्ञ को अगर आप देखें तो उन्हें देखकर सहज ही कोई श्रद्घा का भाव नहीं व्यक्त करता। अगर आप सोचने की कोशिश करें तो आपको याद नहीं आएगा कि इंस्पिरेशनल लीडर हमने कब देखा था अंतिम बार। कुछ लोग कहते हैं नेहरू जी थे, कुछ कहते हैं वाजपेयी जी थे। मगर आज की जो पीढ़ी है उसने ऐसा नेता कहां देखा है।


प्र। आपकी संघर्ष यात्रा नर्मदा बचाओ आंदोलन से शुरू हुई थी, अब इस समस्या पर आपके संघर्ष के मुख्य बिंदु क्या रह गए हैं ?

उत्तर : नर्मदा घाटी का संघर्ष अपने पूरे उत्साह से जारी है। पुनर्वास, पानी का सही वितरण, पर्यावरण, वैक ल्पिक वनीकरण, सभी को लेकर हमारा संघर्ष चल रहा है। हमारे संघर्ष का ही परिणाम है कि सरकार के बांध के पूरा होने के पहले ही जल संग्रहण क्षेत्र से गाद निकालने को मजबूर होना पड़ा । हमने भी यह सिद्ध किया है कि कमांड एरिया का विकास न होने एवं वितरण व्यवस्था ठीक न होने से मुख्य नहर फूट रही है।

प्र। आपने कई इलाकों में विशेषकर आर्थिक क्षेत्र (सेज) के खिलाफ भी मोर्चा खोल रखा है?

उत्तर : जहां भी जल, जमीन, जंगल की बात होगी और लोगों के साथ अन्याय होगा, मैं उपेक्षितों के साथ रहूंगी। निश्चित रूप से सेज संविधान विरोधी कार्य है। तीन स्थानों पर मैं सक्रि य तौर पर सेज विरोधी आंदोलन से जुड़ी हूं। पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम, महाराष्ट्र में पूना के आसपास और आंध्रप्रदेश में काकीनाड़ा। इन सब स्थानों के अलावा जब भी मौका मिलता है, मैं अन्य संगठनों व जन आंदोलन जहां भी सेज का विरोध कर रहे हैं, वहां पहुंचती हूं।


प्र। जब आपने सिंगूर में नैनो परियोजना का विरोध किया गया तो कहा जाने लगा कि आप औद्योगीकरण का विरोध कर रही हैं, विकास नहीं चाहतीं?

उत्तर : न तो मैं विकास और न ही औद्योगीकरण के खिलाफ हूं। पीडि़तों के हक में आवाज उठाने का मतलब यह नहीं लगाना चाहिए कि मैं विकास का विरोध कर रही हूं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि जिस उद्योग की योजना बनाई जा रही है और जिस विकास की बात सत्ता पक्ष कर रहे हैं, उसकी प्रकृति कैसी है। भारत कृषि प्रधान देश है। यहां कृषि आधारित उद्योग अधिक होने चाहिए ताकि अधिसंख्य लोग लाभान्वित हो सकें। मु_ïी भर लोगों के लाभ के लिए जब भी परियोजना बनाई जाएगी, जन आंदोलन से जुड़े लोग विरोध करने को विवश होंगे।


प्र। तो फिर मुंबई में आपने मोर्चा क्यों खोला था ?

उत्तर : वहां सेज जैसी कोई बात नहीं थी मगर मुंबई की गरीब बस्तियों को उजाड़ा जा रहा था। हमने तीन संगठनों 'घर बचाओ, घर बनाओ,Ó 'फेरीवाला संगठनÓ व 'राष्ट्रीय शहर विकास संघर्षÓ के माध्यम से सरकार के समक्ष चुनौती खड़ी कर दी। हैरत तो तब हुई जब पता चला कि बड़े बिल्डर गरीबों को 400वर्ग फीट और निम्र मध्यम आय वर्ग को 600 वर्ग फीट के फ्लैट न देकर तीन करोड़ के फ्लैट बनाकर बेच रहे हैं। इनके विरुद्ध संघर्ष जारी है।


प्र। गत दिनों आप कोसी पीडि़तों से मिली थीं, क्या कहता है आपका अनुभव ?

उत्तर : कोसी की बाढ़ ने चेतावनी दी कि हम अपना मार्ग बदले। कोसी ने अत्याचार के खिलाफ संघर्ष के साथ अपना रास्ता बदला है। बाढ़ नियंत्रित करना भ्रम साबित हुआ। बाढ़ का प्रबंधन किया जाना चाहिए था। नदियों को जोडऩे की परिकल्पना अवैज्ञानिक है। नदी बेसिन के हिसाब से योजना बनानी चाहिए। जल व जमीन का बेहतर नियोजन करना होगा। भूगर्भ जल व वर्षो जल संरक्षण के मुद्दों पर काम किया जाना चाहिए।

प्र। आज जगह-जगह जनांदोलन चल रहे हैं। आपकी नजर में इसका क्या कारण है?

उत्तर : आम जनता की शक्ति से सत्ता में बैठे लोग डरते हैं। इस कारण उनकी भागीदारी नहीं सुनिश्चित करना चाहते। नतीजतन आज देश के कोने-कोने में विभिन्न मुद्दों पर आंदोलन चलाए जा रहे हैं जो बाजार व्यवस्था की पोल खोल रहे हैं। ऐसे आंदोलनों को जन सहभागिता की दरकार है। अफसोस इस बात का है कि ऐसे कई आंदोलनों को मीडिया की सुर्खियां नहीं मिलती। कोई 96 फीसदी असंगठित मजदूरों के विषय में नहीं सोचता, जिनकी पूरी जिंदगी मेहनत करके बीत जाती है। जब शरीर की ताकत जबाव दे जाती है तो उनके पास इलाज का पैसा भी नहीं रहता। इन मजदूरों को न्यूनतम बुनियादी सुविधाएं दिलाने के लिए लगातार अंादोलन चल रहा है, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकलता।


प्र। जन आंदोलन से जुड़े लोगों को सक्रिय राजनीति में आना चाहिए ?

उत्तर : आने में कोई बुराई नहीं है। मगर दूसरा पहलू यह है कि ऐसे लोग राजनीतिक छल-प्रपंच से सराबोर नहीं होते और अपनी जमानत तक नहीं बचा पाते। चुनावों में जिस प्रकार से पैसों का बोलबाला है, वैसे में आंदोलनकारी कहां से टिक पाएंगे। इसके लिए आवश्यक है कि चुनाव का पूरा चुनाव आयोग के माध्यम से किया जाए।


प्र. आपकी कोई योजना जिसे पूरा करने की ईच्छा हो?उत्तर : भारत का नवनिर्माण। बाबा आमटे का सपना था कि भारत का नवनिर्माण हो। हम चाहते हैं कि उनका यह सपना हर हाल में पूरा हो। मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले की छोटी कसरावद क्षेत्र में बाबा ने जो 'निज बलÓ नामक कुटिया बनाई थी, उनकी उस कुटिया की प्रेरणा से मिला बल हमें मजबूती देगा जिससे उनके सपने को पूरा किया जा सके।

सोमवार, 18 मई 2009

इसे कहते हैं ग़ज़ल

ग़ज़ल काव्य और संगीत की एक ख़ूबसूरत विधा है। पहले ग़ज़लें फ़ारसी भाषा में लिखी जाती थीं। ग़ज़ल की शुरुआत काव्य की एक शैली के रूप में हुई, और फिर ये भारतीय गायकी की एक शैली बन गई। यह इस्लामी और भारतीय संगीत के आपसी संपर्क के सबसे खूबसूरत तोहफों में से एक है। गजल का विकास तेरहवीं शताब्दी के आस पास पश्चिमी भारत में हुआ। हिन्दी-उर्दू की पहली ग़ज़ल अमीर ख़ुसरो की लिखी मानी जाती है।
जब कभी यह प्रश्न पूछा जाता है कि ग़ज़ल क्या है तो सवाल सुन कर मन कुछ उलझन में पड़ जाता है। क्या यह कहना ठीक होगा कि ग़ज़ल जज्‍़बात और अलफ़ाज़ का एक बेहतरीन गंचा या मज्मुआ है? या यह कहें कि ग़ज़ल उर्दू शायरी की इज्‍़ज़त है,आबरू है? लेकिन यह सब कहते वक्‍़त मेरे मन में एक प्रश्न उठता है कि क्या यह सच है! माना कि ग़ज़ल उर्दू काव्य का एक अत्यंत लोकप्रिय ,मधुर, दिलकश और रसीला अंदाज़ है मगर यह भी उतना ही सच है कि उर्दू साहित्य में ग़ज़ल हमेशा चर्चा का विषय भी रही है। एक तरफ तो ग़ज़ल इतनी मधुर है कि लोगों के दिलों के नाजु़क तारों को छेड़ देती है और दूसरी ओर वही ग़ज़ल कुछ लोगों में ऐसी भावनाएं पैदा करती है कि जनाब कलीमुद्दीन अहमद साहब इस ‘नंगे शायरी’ यानी बेहूदी शायरी कहते हैं। जनाब शमीम अहमद इसे मनहूस शैली की शायरी कहते हैं, और जनाब अज्‍़मतुल्लाखान साहब तो यह कहने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते कि ,’ग़ज़ल क़ाबिले गर्दन ज़दनी है’,यानी इसे जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिये।
वैसे, ग़ज़ल में दो पंक्तियों में स्केल-मीटर के साथ कोई बात कही जाती है जिसे एक शेर (बहुवचन: अशआर) कहते हैं। ग़ज़ल के प्रथम शेर को मकता और आख़िरी शेर को कहा जाता है। आख़िरी शेर या मतले में शायर प्राय: अपना उपनाम या तख़ल्लुस देता है। ग़ज़ल का हर शेर अपने में संपूर्ण अर्थ लिए होता है। एक ग़ज़ल के विभिन्न शेर अलग-अलग भावनाएँ या अलग-अलग विषय लिए भी हो सकते हैं। एक ग़ज़ल के हर शेर का तुकान्त (rhyme) एक ही होती है। ग़ज़ल उर्दू भाषा में अधिक लिखी गई हैं परंतु अन्य भाषाओं में भी लिखी जा सकती हैं और लिखी जाती रही हैं जैसे दुष्यंत कुमार ने अपनी पुस्तक साये में धूप में हिन्दी में बहुत सी ग़ज़लें लिखी हैं।
कुछ जानकर की राय में ग़ज़ल का मतलब है औरतों से बातचीत अथवा औरतों के बारे में बातचीत करना। यह भी कहा जा सकता है कि ग़ज़ल का सर्वसाधारण मतलब है माशूक़ से बातचीत का माध्यम। उर्दू के प्रख्यात साहित्यिक स्वर्गीय रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी साहब ने ग़ज़ल की बड़ी ही भावपूर्ण परिभाषा लिखी है। आप कहतेहैं कि,’ जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता है और हिरन भागते समय किसी झाड़ी में फंस जाता है जहां से वह निकल नहीं पाता ,उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज़ निकलती है। उसी करुण स्वर को ग़ज़ल कहते हैं। इसीलिये विवसता का दिव्यतम रूप प्रकट होना ,स्वर का करुणतम हो जाना ही ग़ज़ल का आदर्श है।’
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये
पंखुड़ी एक गुलाब की सी है।- मीर
ग़ज़ल शेरों से बनती है। हर शेर में दो पंक्तियाँ होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की खा़स बात यह है कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक सम्पूर्ण कविता होता है और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले,पिछले अथवा अन्य शेरों से हो ,यह ज़रुरी नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना गलत न होगा कि उसमें २५ स्वतंत्र कवितायें हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे शेर को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं। मत्ला ग़ज़ल के पहले शेर को ‘मत्ला’ कहते हैं। इसके दोनो मिसरों में यानि पंक्तियों में ‘काफिया’ होता है। अगर ग़ज़ल के दूसरे शेर की दोनों पंक्तियों में का़फ़िया तो उसे ‘हुस्ने मत्‍ला’ या ‘मत्ला-ए-सानी’ कहा जाता है। क़ाफिया वह शब्द जो मत्ले की दोनों पंक्तियों में और हर शेर की दूसरी पंक्ति में रदीफ़ के पहले आये उसे ‘क़ाफ़िया’ कहते हैं। क़ाफ़िया बदले हुये रूप में आ सकता है। लेकिन यह ज़रूरी है कि उसका उच्चारण समान हो, जैसे बर, गर, तर, मर, डर, अथवा मकाँ,जहाँ,समाँ इत्यादि। रदीफ़ प्रत्येक शेर में ‘का़फ़िये’ के बाद जो शब्द आता है उसे ‘रदीफ’ कहते हैं। पूरी ग़ज़ल में रदीफ़ एक होती है। ऐसी ग़ज़लों को ‘ग़ैर-मुरद्दफ़-ग़ज़ल’ कहा जाता है। ग़ज़ल के आख़री शेर को जिसमें शायर का नाम अथवा उपनाम हो उसे ‘मक्‍़ता’ कहते हैं। अगर नाम न हो तो उसे केवल ग़ज़ल का ‘आखरी शेर’ ही कहा जाता है। शायर के उपनाम को ‘तख़ल्लुस’ कहते हैं।
अमूमन ग़ज़लकार कोई न कोई तखल्लुस रख लेते हैं, लेकिन उसको साकार नहीं कर पाते हैं। कम भी ऐसे ग़ज़लगो हुए हैं जिन्होंने अपने तखल्लुस को सार्थक किया है। गालिब, मीर जैसे महान शायर भी इसको सार्थक करने में उतने सफल नहीं हो सके। पूरे ग़ज़लकारों पर नज़र दौड़ाई जाए तो बलवीर सिंह ‘रंग’ ऐसे ग़ज़लकार हैं, जिन्होंने अपने ‘रंग’ उपनाम को सार्थक किया है। उसी प्रकार श्री देवेन्द्र ‘मांझी’ ने भी अपने ‘मांझी’ उपनाम को तमाम उपमाओं में पिरोकर ग़ज़ल को एक नई दिशा देने का काम किया है। मांझी को ग़ज़ल की व्याकरण और काफिया-रदीफ की मुक्कमल जानकारी है, लिहाजा वह औरों से अलग दिखता है।

ये है मांझी की गजल:

अंधी रातों के दरम्यां कैसे,
डूब जाती हैं सिसकियां कैसे ?
ला के इस आरजू के साहिल पर,
तोड़ दी तूनें सीपियां कैसे ?
याद जब कोई करने वाला नहीं?
आ रही हैं ये हिचकियां कैसे ?
लिखके अ’शकों की रोशनाई से,
उसने भेजी है अर्जियां कैसे ?
तीरगी में नहा रहे हैं लोग?
शहर की गुल हैं बतियां कैसे ?
चल के देखें हूजूर में उनके?
मुआफ होती हैं गलतियां कैसे ?
तेरी कशती से झील में मांझी
वो पकड़ते हैं मछलियां कैसे ?

शनिवार, 16 मई 2009

मनमोहन का रिकार्ड

जनादे’श 2009 आने से पूर्व कयासबाजी हो रही थी कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अटल बिहारी वाजपेयी की तरह लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री के सिंहासन पर बैठने में कामयाब हो पाएंगे। लोकसभा में मात्र एक वोट से अपनी 13 माह पुरानी सरकार गंवाने के बाद वाजपेयी ने 1998 में दोबारा शानदार वापसी की थी अ©र 1977 के बाद पहली बार किसी नेता ने ऐसा करिश्मा कर दिखाया था। एक नई शुरूआत के साथ मनमोहन सिंह ने अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री का रिकार्ड दोहराई और भारतीय लोकतंत्र में जवाहर लाल नेहरू के बाद दूसरे प्रधानमंत्री बनें जो अपने पांच साल के कार्यकाल के बाद दोबारा प्रधानमंत्री बने हैं। कांग्रेस ने सपफतौर पर कह दिया कि मनमोहन ही पीएम हो गए। 76 वर्षीय सिंह पहले नेता हैं जिन्हें कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया है। यह वह पार्टी है जिसने आजादी के बाद के छह दशक में से देश पर 50 साल तक राज किया है। पहले भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तथा महासचिव राहुल गांधी सिंह की उम्मीदवारी को लेकर जान लड़ाए हुए हैं अ©र कई बार घोषणा कर चुके थे कि इस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं होगा। सिंह दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद ऐसा करने वाले गांधी नेहरू परिवार के बाहर के पहले कांग्रेसी प्रधानमंत्री होंगे। गठबंधन सरकार के मुखिया के तौर पर ऐसा कर पाना अपने आप में किसी करिश्मे से कम नहीं होता है।
काबिलेगौर है कि 1977 में जनता पार्टी के प्रयोग के बाद 1980 में इंदिरा गांधी सत्ता में आईं। अक्तूबर 1984 में उनकी हत्या के बाद राजीव गांधी लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत हासिल कर प्रधानमंत्री बने। लेकिन 1989 में वह भी दोबारा प्रधानमंत्री बनने का करिश्मा नहीं दोहरा सके अ©र कांग्रेस के सबसे बड़ी एकल पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद उन्हें विपक्ष में बैठना पड़ा। उसके बाद से संसद में बहुमत हासिल करना राजनीतिक दलों के लिए एक प्रकार से मृगमरिचिका ही साबित होता रहा है। 1989 के चुनावों के बाद वीपी सिंह 11 महीने तक प्रधानमंत्री पद पर रहे अ©र उसके बाद चंद्रशेखर की सरकार मात्र चार महीने ही चली। पीवी नरसिंह राव ने 1991 से लेकर 1996 तक पांच साल का प्रधानमंत्री का कार्यकाल पूरा किया। लेकिन उनके बाद प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी कुछ ही दिन इस पद पर रहे। विपक्षी कांग्रेस ने उनकी सरकार को 13 दिन का चमत्कार करार दिया। इसके बाद एचडी देवगौड़ा 11 महीने अ©र इंद्र कुमार गुजराल चार महीने तक प्रधानमंत्री रहे। 1998 अ©र 1999 में वाजपेयी ने सत्ता संभाली जबकि मनमोहन सिंह ने 2004 में उनकी जगह ले ली। नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री बनने के साथ सिंह ने राजनीति में कदम रखा था अ©र वह देश में आर्थिक सुधार प्रक्रिया के प्रणेता कहे गए।

गुरुवार, 14 मई 2009

कविता, जो मैंने नही लिखी

सत्य

सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए– जाए सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता पथराई नज़रों से वह यों ही
देखता रहेगा सारा –सारा दिन,
सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा –सारा दिन, सारी–सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक
लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा लोथ की तरह,
स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!


नोट - यह कविता नागार्जुन जी की है. मुझे काफी अच्छी लगी..

बुधवार, 13 मई 2009

कुत्ता हमसे बेहतर

गत दिनों मैंने रविश जी का लेख पढ़ा-सुना और देखा भी। पढ़ा उनके ब्लाॅग पर और देखा एनडीटीवी पर। दोनों जगह प्रस्तुतिकरण अच्छा। लेख का लबोे-लुबाव था नाम में क्या रखा है। पप्पू नाम को लेकर जो बखेड़ा उठा, उसका प्रस्तुतीकरण लाजबाव रहा। पढ़ने की प्रक्रिया के दौरान ही मेरे दिमाग में राजधानी दिल्ली के कमोबेश हरेक चैक-चैराहों पर लगे पोस्टर की बात सूझी।
पोस्टर में एक कुत्ता के मुंह से कहलवाया गया है कि अकारण जब मैं नहीं भौंकता तो भला आप क्यों हाॅर्न बजाते हैं। एकबारगी में कोई विशेष बात नहीं । बेवजह गाड़ीचालकों को हाॅर्न बजाने से रोकने के लिए यह प्रयोग था, जिसे कुछ गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्थाओं ने चलाया था। रिस्पांस कितना मिला, अभी कहा नहीं जा सकता। जब पुलिस गाड़ीवानों पर लगाम नहीं लगा सकी तो भला पोस्टर पर चस्पा किए गए कुत्तों की क्या बिसात ?
ऐसे में सवाल उठता है कि इनसान को सही रास्ते पर लाने के लिए इतने सारे पशुओं, उपालंभों में से कुत्ता का ही चुनाव क्यों किया गया ? इसके कई कारण हो सकते हैं। मसलन, कुत्तेे की स्वामिभक्ति, उसकी घ्राण क्षमता, लक्ष्य प्राप्ति की सतत उत्कंठा। संभव है इसकी सर्वत्र उपलब्धता भी एक कारण रहा हो। इन तमाम तर्क को एकबारगी ताक पर रख दिया जाए तो जेहन में आता है कि छोटी सी बातों पर भी बतंगर खड़ा करने वाले कई अधिकारों की बात करने वाले संगठन जो महज किसी भी मुद्दे पर अपना झंडा-बैनर साथ लेकर जंतर-मंतर पहुंचने वाले एक भी संगठन ने इस पोस्टर के खिलाफ कोई धरना-प्रदर्शन नहीं किया और न ही जनहित याचिकाओं की बाढ़ से त्रस्त रहने वाले न्यायपालिकाओं में एक और बारिश नहीं हुई। आखिर, हमें कोई बुरा अथवा छोटा बताने की कोशिश करता है तो हम झगड़ लेते हैं। कई बार हुक्का-पानी भी बंद कर लेते हैं। मगर, इस बार हम चुप रहे। आखिर क्यों ?
मैंने कई बार पढ़ा और दूसरों से सुना कि पत्रकार कुत्तों की तरह होते हैं और जो कुत्तों की गुण को आत्मसात नहीं कर पाता, वह अच्छा पत्रकार नहीं बन सकता। भला पत्रकारिता और कुत्ता में क्या संबंध ? अरे भाई, जब पूस की रात में प्रेमचंद अपने नायक को कुत्ते के आगोश में लपेट सकते हैं तो पत्रकार अपने भीतर उसके गुण को क्यों नहीं धारण कर सकता। खबरों को सबसे पहले सूंघने या यूं कहें कि सबसे पहले बे्रक करने वाले ही तो आज के इलेक्ट्राॅनिक युग में नाम कमा सकता है न !
गौर करने योग्य यह भी है कि बाजारवाद की चपेट में आकर भारतीय सामाजिक ताना-बाना जब धुंधला रहा है, संवेदनाएं छीजती जा रही है, फिर भी कुत्तों की स्वामिभक्ति की मिसाल पूर्व की तरह ही कायम है। इतिहास बताता है कि कई बार स्वामी की सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मी ने वि’वासघात करते हुए स्वामी की हत्या की, मगर किसी कुत्ते के कारण उसके स्वामी की मौत हुई हो, यह खबर मैंने नहीं सुनी है। क्या आपने सुनी है ?

मंगलवार, 12 मई 2009

राजनीति का साम्प्रदायिकरण

‘साम्प्रदायिक पार्टी’, ‘साम्प्रदायिक एजेंडा’, ‘साम्प्रदायिक भाषण’ आदि शब्दों पर जिस तरह से राजनीतिक पार्टियांॅ विभिन्न अवसरों पर गाहे-बगाहे हो- हल्ला मचाने के लिए आतुर दिखती है, उससे इस ब्द के सही अर्थ और संदर्भ पर ही प्रशन चिन्ह लगता दिखने लगा है। ‘सरदार’ और ‘बिहारी’ की तरह साम्प्रदायिकता भी एक ऐसा जुमला बनता जा रहा है कि घर-परिवार के झगड़े में भी यदि इसका इस्तेमाल होने लगे तो शायद ज्यादा आशचर्य नहीं होगा। स्वघो’िषत धर्मनिरपेक्षतावादियों ने कथित राषट्रीयतावादियों के लिए इस शब्द का ऐसा प्रचलन शुरू कर दिया है कि सम्पूर्ण भारतीय राजनीति ‘आरोपित’ साम्प्रदायिकता के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई है। साथ ही क्रूर हकीकत यह भी है कि धर्मनिरपेक्षता के प्रखर समर्थक और घो’िषत रहुनुमा अपने व्यवहार में कहीं अधिक साम्प्रदायिक हैं और इसके विरोध में उठने वाली हर आवाज को ही कटघरे में खड़ा करने पर आमादा हंै।
मुस्लिम लीग की स्थापना के साथ ही देश की राजनीति में साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण शुरू हो गया था। इसकी प्रतिक्रिया में जब हिन्दुओं के एक संगठन का गठन किया गया तो स्वाधीनता संग्राम के चरम काल में भी देश में मुस्लिम और हिन्दुओं के बीच की खाई और चैड़ी हो गई थी। विडम्बना यह है कि आज ‘लीगी’ सोच और मानसिकता वाली जमात को धर्मनिरपेक्षता को तगमा पहना दिया गया है जबकि प्रतिक्र्रियावादी शक्ति को साम्प्रदायिक घो’ त कर दिया गया है। वैसे सामान्य सिद्धान्त यही है कि किसी क्रिया के बाद ही उसकी प्रतिक्रिया होती है। किन्तु वत्र्तमान दौर में प्रतिक्रिया जताना ही गुनाह होे गया है।
देश में रा’ट्रपिता महात्मा गाॅंधी पर ‘तु’टीकरण‘ का आरोप लगाया जाता है जो कि सम्पूर्ण सच् नहीं है। मुसलमानों को स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा से जोड़ने और देश की अखण्डता को अक्षुण्ण रखने के लिए उनके कुछ निर्णयों पर अंगुली उठाई जा रही है। किन्तु हकीकत यह भी है कि इन सबके अलावा महत्मा गाॅधी ने आज के संदर्भ में साम्प्रदायिक करार दिये गये वंदे मातरम्, राम, हिन्दू, धर्मांतरण, गौ रक्षा आदि के संदर्भ में अपनी स्प’ट राय रखी थी जो आज के धर्मनिरपेक्षतावादियों को हजम नहीं हो सकती। इस संदर्भ में एक घटना विशो’ा उल्लेखनीय है, देश विभाजन की त्रास्दी से उपजे दंगे के समय महात्मा गाॅधी नोआखाली गये थे। वहाॅ उन्होंने कुछ मुसलमानो के घर और मस्जिद में भी रामधुन का आयोजन किया था। मस्जिद में रामधुन पर कुछ मुसलमानों ने आपत्ति की तो मस्जिद के प्रभारी ने उन्हें महात्मा गाॅधी के व्यक्तित्व के बारे में समझाते हुए कहा था कि महात्मा गाॅधी साम्प्रदायिक नहीं हैं। इतना ही नहीं उन्हौंने यह भी कहा था कि राम और रहीम एक ही ईशवर के दो नाम हैं इसलिए मस्जिद में रामधुन करने में कोई हर्ज नहीं है। महात्मा गाॅधी ने उसी वक्त यह सवाल किया था कि जब राम और रहीम एक ही परमात्मा के दो नाम हैं तो क्या दोंनों नाम लेना जरूरी है? एक ही नाम पर्याप्त नहीं है? (वे टू काम्युनल हाॅंर्मोनी, नवजीवन प्रकाशन) भाजपा और मोदी के खिलाफ अक्सर महात्मा गाॅंधी को याद करनेवाले काॅंग्रेसी, वामपंथी और महज कुछ वोटों की खातिर धर्ममनिरपेक्षता का राग अलापने वाले क्षुद्र मानसिकता वाले क्षेत्रीय पुरोधा क्या महात्मा गाॅधी की तरह यह बेबाकी भी अपना पायेंगें? राजनीतिक स्वार्थवश महात्मा गाॅधी को याद करने वाले नेता क्या धर्मांतरण और वंदे मातरम् पर भी उनके धर्मनिरपेक्ष विचारों को अपनायेंगे? क्या इसका विरोध करने वाले कथित धर्मनिरपेक्षतावादी वही तेवर और मुखरता अपनायेंगे जो वे ‘साम्प्रदायिक’ भाजपा के खिलाफ अपनाते रहे हैं? धर्मांतरण, वंदे मातरम, गो हत्या, हिन्दु, राम आदि पर गाॅधी के विचारों की अन्देखी कर इन्हें साम्प्रदायिक मुद्दा माननेवालों के मुॅंह से गाॅंधी का स्मरण मात्र भाजपा के विरुद्ध हथियार के रूप में करनेवालों की बातें कितनी हास्यास्प्रद हो गई हैं। गाॅधी ही नहीं लोहिया भी राम और शिाव को सांस्कृतिक एकता का प्रतीक मानते रहे किन्तु लोहियावादियों ने इसे साम्प्रदायिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा।
राजनीति दलों की क्षुद्र मानसिकता ने आज देश की सम्पूर्ण राजनीति का साम्प्रदायिकरण कर दिया है। राजनीतिक साम्प्रदायिकरण की खाई इतनी चैड़ी हो गई है कि इसे पाटना आसान नहीं दिख रहा। भारतीय जनता पार्टी को साम्प्रदायिक घो’िात कर दिया गया है और उसका डर दिखा कर मुस्लिम वोटों को अपनी ओर खीचने में हर तिकड़म अपनानेवाले राजनीतिक दलों की जमात स्वघो’िात धर्मनिरपेक्षता के झंडेबदार बन गई हैं। साम्प्रदायिकता की उनकी परिभा’ाा महज भाजपा के इर्द-गिर्द घूमकर रह जाती है और इसका एकमात्र निहितार्थ भाजपा के खिलाफ मुस्लिम वोटों का धु्रवीकरण करना रह गया है। यह परिभा’ाा इतनी क्षण भंगुर है कि कब किस दल को साम्प्रदायिक या धर्मनिरपेक्ष करार दिया जाय, कहना मुशिकल हो गया है। भाजपा के सहयोगी दल को भी साम्प्रदायिक घो’िात कर दिया जाता है और भाजपा से उन्हें अलग होते ही धर्मनिरपेक्षता का सर्टिफिकेट थमा दिया जाता है। इस आधार पर रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, जयललिता, नवीन पटनायक, चन्द्रबाबू नायडू, एचडी देवगौड़ा, उमर अब्दुल्ला समेत दर्जनों क्षेत्रीय क्षत्रप साम्प्रदायिक करार दिये जा चुके हैं। भाजपा गठबंधन से अलग होते ही मानों उन्हें गंगा स्नान का पुण्य मिल गया और वे एक बार फिर से धर्मनिरपेक्षता के पुरोधा घो’िात कर दिये गये हैं। जब धर्मनिरपेक्षता का सर्टिफिकेट इतनी आसानी से मिल जाती है तो क्षेत्रीय दल भला सुविधानुसार अवसरवादी राजनीति से क्यों हिचकेंगें? और तो और साम्प्रदायिकता का यह शिागूफा कितनी लचर हैं कि भाजपा शासन के दौरान कई मुस्लिम संस्था और उलेमाओं ने भी भाजपा को साम्प्रदायिक मानने से इंकार कर दिया था। यह भी दिलचस्प है कि पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली के शाही ईमाम तक ने भाजपा के समर्थन में वोट डालने का फतवा जारी किया था। तब शायद उन्हें भी राजग के दुबारा जीत की उम्मीद थी, और स्वभावतः सŸाा के नजदीक रहने की उनकी जमाती रणनीति भी।
साम्प्रदायिकता बनाम् धर्मनिरपेक्षता की बहस को काॅंग्रेसियों और वामपंथियों ने बड़े जतन से हवा दिया। अपने हर मुमकिन कोशिाश में उन्होंने हिन्दूत्व से जुड़े हर सांस्कृतिक, एेितहासिक और साहित्यिक तथ्यों को भी साम्प्रदायिकता के चशमे से ही देखा। यही कारण रहा कि देश के चिंतन की मुख्यधारा से उन चीजों को हटा दिया गया जो सेकुलर चशमे में ‘हरा‘ नहीं दिखता था। हिन्दुत्व से जुड़े गाॅंधी के विचारों से भी कन्नी काटनेवाले लोग भाजपा के खिलाफ गाॅंधी की दुहाई देते नहीं अघाते हैं। अयोध्या विवाद के चरम काल में वामपंथियों ने एक नारा गढ़ा था ‘गाॅंधी हम शर्मिन्दा हैं, तेरे कातिल जिन्दा हैं’। ये वही वामपंथी हैं, जो गाॅंधी और सुभा’ाचन्द्र बोस को ‘सामा्रज्यवादी कुŸाा’ और पता नहीं क्या -क्या कहा करते थे। 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन का भी इन लोगों ने विरोध किया था। इतना ही नहीं आज चन्द्रशोखर आजाद, बटुके”वर दŸा आदि भारत माता के सैकड़ों सपूतों की अन्देखी कर महान क्रांतिकारी भगत सिंह को वामपंथी साबित करने की होड़ में वे इस तथ्य को भी निर्लज्जतापूर्वक भूल गये हैं कि भगत सिंह को जीते-जी वे मात्र ‘उपद्रवी’ मानने रहे और जेल में भी उन्हें हिकारत की दृ’िट से ही कामरेड लोग देखा करते थे। ये तो भला हो एक पत्र और भगत सिंह के लेखनी का जिस पढ़कर उनकी “ाहादत के बाद लाल झंडावालों को लगा कि भगत सिंह को पहचानने में उनसे भूल हो गई और वे भी विचारों से ‘कामरेडो के समान’ ही थे। तब से इस महान क्रांतिकारी को ‘लाल झंडा’ में लपेटने का कोई अवसर उन्होंने नहीं छोड़ा और अब तो शहीद भगत सिंह को ‘कामरेड’ के रूप में ही देखा जाने लगा है वामपंथी खेमे में।
जहाॅ तक काॅग्रेस की बात है तो वह आजादी मिलते ही गाॅंधी और उनके विचारों से कटने लगी थी। आजादी के बाद गाॅंधीजी ने काॅंग्रेस पार्टी को खत्मकर एक नई पार्टी बनाने का सुझाव दिया था जिसे ‘दूरदर्”ाी’ जवाहर लाल नेहरू ने ठुकरा दिया था। गाॅंधीजी की प्रार्थना सभा की परम्परा भी काग्रेस से खत्म कर दी गई और ‘रघुपति राघव राजा राम’ अघो’िात रूप से ‘साम्प्रदायिक’ मान लिया गया। इतना ही नहीं, वंदे मातरम्, धर्मांतरण, गो-हत्या आदि पर गाॅंधीजी के विचार काॅंग्रेस सहित तमाम सेकुलर पार्टियों को विचलीत करने के लिए काफी है। हालात यह है कि आज इन तमाम विचारों को भाजपा की झोली में डालकर काॅंगे्रस इन्हें साम्प्रदायिक घो’िात कर चुकी हैं। दूसरे शब्दों में काॅंग्रेस के लिए गाॅंधी के कई विचार भी मौजूदा दौर में साम्प्रदायिक हो चुुका है।
काॅंग्रेस के सहयोगियों की बात की जाय तो मतलबपरस्ती और सत्ता सुख के माहिर खेलाड़ी राम विलास पासवान ने राजग सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं मिलने का गुब्बार गुजरात दंगे की आड़ में निकाला था। ये वही पासवान हैं जो रेल मंत्री के रूप में गुजरात जानेवाली ट्रेन से गाॅंधीजी के प्रिय भजन ‘ बै’णव जन तो तिणै कहिये, जो पीर पराई जाणे रे’ का प्रसारण मात्र इसलिए बंद करवा दिया था क्योंकि एक मुस्लिम यात्री ने इस ‘साम्प्रदायिक भजन’ के खिलाफ शिाकायत की थी। विशो’ा परिस्थितियों में गाॅंधीजी को दुहाई देनेवाले वामपंथियों ने तो राम-सीता को भाई-बहन साबित करने की अथक मुहिम चलाकर न सिर्फ करोड़ों हिन्दुओं के आस्था पर चोट किया था बल्कि गाॅंधीजी के आराध्य राम पर कीचड़ उछालने का कुत्सित अपराध भी किया था। राजनीति के साम्प्रदायिकरण ने देश की राजनीति को दो ध्रुवीय खेमे में तब्दील कर दिया है। एक तरफ भाजपा है तो दूसरी तरफ वे तमाम दल जो कथित धर्मनिरपेक्षता की छदम् और मौका परस्त व्याख्या पर ही राजनीति चलाते हैं। इसकी आॅंच उन दलों पर भी पड़ता है जो भाजपा के साथ होते हैं। भाजपा और उसके सहयोगियों के लिए प्रगतिशील मीडिया और दूसरे खेमे के राजनीतिक दलों ने ‘साम्प्रदायिक’ मुहावरा गढ़ दिया है जबकि बाॅकी दलों को घो’िात तौर पर ‘सेकुलर’ मान लिया गया है। इतना ही नहीं बंगलादेशी, ‘सिमी सदस्यों‘ और ‘इंडियन मुजाहिदीन के कार्यकर्ताओं‘ सहित सभी मुसलमानो को सेकुलर होने का सर्टिफिकेट पहले ही दे दिया जाता है। इसके अलावा भाजपा विरोधी हिन्दुओं को भी सेकुलर शब्द से सम्मानित किया जाता है जबकि हिन्दुत्ववादी दल और उनके समर्थकों को ‘देश तोड़ने वाला और समाज बाॅंटनेवाला साम्प्रदायिक‘ मान लिया गया है। यहाॅं यह भी शीशो की तरह साफ है कि सेकुलरिज्य का राजनीतिक निहितार्थ महज बड़े वोट बैंक के तौर पर मुसलमानों की सेवा परस्ती है। अल्पसंख्यक शब्द की राजनीतिक व्याख्या मुसलमानों से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाती है। बौद्ध, जैन, पारसी आदि वोट ब्ैंक के लिहाज से अमहत्वपूर्ण अल्पसंख्यकों की कोई व्याख्या सेकुलर दलों के डिक्सनरी में नहीं होता। हाॅं, पंजाब में सिख और पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा विभिन्न राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों में, जहाॅं धर्मांतरण में व्यस्त हैं, वहाॅं ईसाई को मतों की आवशयकतानुसार अल्पसंख्यक मान लेने की मजबूरी सेकुलर दलों में साफ देखी जा सकती है। सवाल यह भी है कि इस तरह मनमाने आधार पर साम्प्रदायिक और धर्म निरपेक्षता का सर्टिफिकेट बाॅंटने वाले कौन लोग है और यह अधिकार उन्हें किसने दे दिया है ? क्या इस तरह किसी को घो’िात तौर पर बिना किसी प्रमाण के साम्प्रदायिक या धर्मनिरपेक्ष करार देने का उनकेेे पास कोई संवैधानिक या कानूनी अधिकार प्राप्त है ?
आजाद भारत में धर्मनिरपेक्षता की रेखा मुस्लिम वोटों से खींचने की शुरूआत देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने की थी तो वत्र्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘देश की संपदा पर अल्पसंख्यकों का पहला हक’ की उद्घो’ाणा कर साम्प्रदायिक राजनीति का सम्पूर्ण खाका ही सामने रख दिया। वामपंथी सोच से प्रभावित पंडित नेहरू ने कहा था कि ‘अल्पसंख्यक साम्प्रदायवाद ज्यादा खतरनाक नहीं होती‘। हिन्दुस्तान में बहुसंख्यक हिन्दुओं को दोयम दर्जा और उनकी भावनाओं को दर किनार करने की परिपाटी तभी से राजनीति में चल पड़ी। वैसे नेहरू के व्यक्तिगत अहं और अदूरदार्शिाता का दु’परिणाम कशमीर समस्या के रूप में देश भुगत ही रहा है। काॅग्रेस और वामपंथियों के अलगाववादी सोच तथा फूट डालो और राज करो की राजनीति ने वोटरों को जाति और मजहब में बाॅंटकर दशकों तक सत्ता सुख भोगा है। ‘धर्म को अफीम’ माननेवाली विचार धारा न तो अपने ही पार्टी के मुस्लिम संासदों और बुद्धिजीवियों को इस्लाम को अफीम मनवानेे में सफल हो सकी न ही ‘लाल दुर्ग’ पशिचम बंगाल में अपने पार्टीजनों को दुर्गा पूजा या सरस्वती पूजा के सार्वजनिक पंडालों से अलग रख सकी। अपनी असफलता को सांस्कृतिक उत्सव के नाम पर ढ़कनेवाले वामपंथियों ने एक ही काम सबसे सफलतापूर्वक किया, वह था- पशिचम बंगाल को बंगलादेशी मुसलमानों का सैरगाह बनाना। मेहमान की तरह उनका आवभगत कर उन्हें राशन कार्ड और पहचान पत्र तक उपलब्ध कराया गया। ‘सेकुलर’ वोट बढ़ाने का उनका रा’ट्र विरोधी और मजहबी मुहिम कभी साम्प्रदायिक नहीं माना गया लेकिन इसके प्रतिरोध में उठी आवाज ‘फासिस्ट’ करार दी गई। इसी सोच और कार्य प्रणाली ने न सिर्फ असम से दिल्ली तक बंगलादेशिायों की बाढ़ ला दी है बल्कि वे कानून व्यवस्था के समक्ष भी एक चुनौती बनते जा रहे हैं। कथित सेकुलर बिरादरी के घो’िात धर्मनिरपेक्ष पार्टियाॅं किस मुस्तैदी से राशन कार्ड और वोटर कार्ड मुहैया करवा देती है इसकी झलक पिछले दिनों राज ठाकरे ने दिखलाया था जब उन्हौंने अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन और मुम्बई हमले के आतंकी कसाव का फर्जी राशन कार्ड पेश कर दिया। निरपेक्षतावादी खेमा ठाकरे को तो साम्प्रदायिक मानता है किन्तु देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करनेवालेे सेकुलर ही बने रहते हैं।
काॅग्रेस, वामपंथी दल, मुलायम, लालू, पासवान, मायावती आदि तमाम सेकुलरतावादियों के लिए धर्मनिरपेक्षता की एकमात्र व्याख्या देश के दूसरे सबसे बड़ी जनसंख्या वाले मुस्लिम जमात का ऐन-केन- प्रकारेण वोट हासिल करना है। इसके लिए सेकुलरवादी दल, मीडिया और इससे जुड़े बुद्धिजीवी तरह तरह की व्याख्या, मुहावरों और अतार्किक विशले’ाण गढ़ने में माहिर हैं। यहाॅं तक कि भाजपा की राजनीतिक सहयोगी जदयू भी दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यक आबादी की वोट हासिल करने के गरज से ही भाजपा के ‘साम्प्रदायिक मुद्दे’ से अपनेको अलग-थलग दिखाने का भरसक प्रयास करने से नहीं चूकती। मुसलमानों से जुड़े मसले पर कब चुप्पी साध लेनी है और कब चीख-चीख कर आसमान सिर पर उठा लेना है इस कला में ‘सेकुलर समुदाय‘ को महारत हासिल है। शायद उनके ‘धर्मनिरपेक्षता’ का तकाजा भी यही है।
धर्मनिरपेक्षता की मनगढ़ंत व्याख्या करनेवाली जमात अपने अतिवादी अभिव्यक्ति में ऐसा व्यवहार कर रही है मानों वे सुपर संवैधानिक संस्था हों। अयोध्या के विवादित ढ़ाॅंचा के तोड़ने से लेकर गोधरा ट्रेन अग्निकांड के बाद की जन प्रंतिक्रिया तक उनके अभिव्यक्ति की उतेजक और भड़काऊ मुखरता कभी कशमीर में आतंकियों को तंदूर मुहैया कराने से लेकर अफजल गुरू की सजा या अयोध्या, अक्षरधाम सहित दिल्ली में बारंबर होने वाले श्रृख्लाबद्ध विस्फोट के कसूरवारों को सजा दिलवाने के मामले में नहीं देखी गई न ही 1983 के मुम्बई विस्फोटों के मास्टर माइंड दाऊद इब्राहिम के पाकिस्तान से प्रत्र्यापण के मामले को रा’ट्रीय एजेंडा से जोड़ने की मुिहम के तहत देखी गई। अफजल गुरू के फाॅंसी पर सरकारी उदासीनता के आरोपों को भी महज साम्प्रदायिक पार्टी के अनावशयक मांग के रूप में देखा गया। बटाला मुठभेड़ में शहीद इंस्पेक्टर शर्मा के प्रति संवेदनशीलता के बदले इस पर प्रशन उठाने वाले पर ही इनका मुुख्य जोर रहा। धर्मनिरपेक्षतावादी दल और सेकुलर मीडिया के सामने देश की सुरक्षा से भी बड़ा मामला भाजपा है। कभी नरेन्द्र मोदी की ही तरह कल्याण सिंह भी इस खेमे के लिए देश के सबसे बड़े गुनाहगार हुआ करते थे। किन्तु उनके मुलायम सिंह से हाथ मिलाने के बाद अचानक ही वे सवकी नजर में पाक साफ हो गये। नरेन्द्र मोदी पर सवाल उठानेवाले 1984 के सिख विरोधी दंगा तथा गुजरात दंगे पर सुप्रीम कोर्ट के जाॅंच समिति में तीस्ता सीतलवाड़ के झूठे बयानों और गलत साक्ष्य और गवाह खड़ा करने के रिर्पोट पर लगभग पल्ला झाड़ते ही दिखते रहे। इतना ही नहीं, क्वात्रोच्ची पर से रेड अलर्ट वारंट हटाने और नरेन्द्र मोदी के गोधरा कांड के बाद के दंगे की भूमिका पर जाॅंच का सर्वोच्च अदालत के आदेश की खबर एक ही दिन आने के वाद भी मीडिया में मोदी तो छा गये किन्तु क्वात्रोच्ची पर सीबीआई और सरकार का रूख सामान्य घटना बनकर रह गई। इलेक्ट्राॅंनिक मीडिया की बात छोड़ भी दे ंतो सेकुलर प्रिंट मीडिया ने भी अगले ही दिन अपने त्वरित एकतरफा संपादकीय का वि’ाय केवल मोदी को ही बनाया। यह अकारण नहीं है कि मीडिया की साख आम लोगों में काफी घटगई है और उन्हें ‘सत्ता के दलाल‘ के रूप में अधिक जाना जाने लगा है। दूसरे को नैतिकता और राजधर्म सिखाने वाली मीडिया अपनी गिरेवान में झांकने की खुद भी हिम्मत जुटा पाने की स्थिति में नहीं रह गया है।
मुम्बई हमलों के बाद भी काॅंग्रेस के एक मंत्री ने आतंकी हमले में मारे गये करकरे की शहादत पर सवाल उठाया तो दूसरे मंत्री ने बटाला कांड पर न्यायिक जाॅंच पर अपना बयान दिया। क्या उनके लिए देश की सुरक्षा से भी बढ़कर वोट बैंक हो गया है? मुसलमानों का वोट हथियाने के फेर में उलझे रहनेवाले दल उनकी समस्याओं से वास्ता नहीं रखते यह तथ्य अब मुसलमानो के समझ में भी आने लगा है। हिन्दूओं को विभिन्न जाति के चशमे से देखनेवाली राजनीतिक बिरादरी मुस्लिम समाज में व्याप्त घोर जातियता को नजरअंदाज कर उनके ‘एक मुशत वोट‘ को ही देखते हैं। और उन्हें ‘साम्प्रदायिक भाजपा और अन्य हिन्दूवादी’ संगठनों का डर दिखा कर इस एक मुशत वोटों को अपनी झोली में डालने की चाल ही चलते रहते हैं। इसमें भी उनका राजनीतिक नफा-नुकसान का पूरा समीकरण काम करता है। यदि मुसलमानों को वे विभिन्न जाति और वर्ग में बाॅंट कर देखेंगे तो उनके समस्याओं के अंबारों से भी विभिन्न मोर्चे पर अलग-अलग जूझना होगा और उनके विकास और सुविधाओं का भी ध्यान रखना होगा। जवाहदेही से भागनेवाला सेकुलर राजनीतिक दल, बुद्धिजीवी और मीडिया इन झमेलों से पल्ला झाड़ केवल एक आरोपित डर दिखा कर आतंकित दूसरे बड़े बहुसंख्यक समुदाय का एकमुशत वोट बटोरने की कुत्सित चाल में ही उलझा रहता है और घड़ियाली आॅंसू और मनभावन संवाद संपर्को से उनका सबसे बड़ा हमदर्द बनने का स्वंाग मात्र करता है। गोधरा पर लालू यादव द्वारा बनर्जी आयोग का गठन या मुसलमानों की स्थिति पर सच्चर कमिटी की रिपोर्ट ऐसे ही स्वांग मात्र साबित हुए। मुसलमानों की बदहाली यथावत् ही बनी रही किन्तु अपने हथकंडों से उनका वोट बटोरने मंे ये सफल होते रहे। मुसलिम धर्मगुरू भी राजनीतिक सरपरस्ती और निजी महत्वाकांक्षा के तहत राजनीतिज्ञों वाला स्वांग ही करते आये हैं और मुसलिम समुदाय के मूलभूत समस्याओं को नजरअंदाज कर उनके एकमुशत वोट पर फतवा जारी करने तक ही अपना दायित्व मानते हैं। इसके बावजूद इन सेकुलरिस्टों का विद्रूप चेहरा तब बेनकाब हो जाता है जब एक कथित सेकुलर पार्टी अपने एक सांसद को मात्र इस इल्जाम में पार्टी से नि’कासित कर देता है कि उसने गुजरात के विकास की तारीफ विदेश में कर दिया था।गोधरा ट्रेन कांड के बाद भड़का हिंसा अतीत बन चुका है। इतने सालों मे बहुत पानी बह चुका है और गुजरात ने विकास का एक नया अध्याय लिखा है। इससे समाज के सभी वर्गों को फायदा हुआ है और अब वे वत्र्तमान में जीना चाहते हैं। किन्तु वोट के स्वार्थ में उलझे सेकुलर बिरादरी और उनसे जुड़े बुद्धिजीवी और मीडिया न सिर्फ गड़े मुर्दे उखाड़ने के चतुर सयान खेलाड़ी हैं बल्कि हिन्दूत्व के मुद्दे पर इतना आक्रोशिात हो जाते हैं कि खुद अपने को प्रताड़ित पक्ष मानकर हल्ला. बोल की अगुवाई मंे शामिल हो जाते हैं। यही कारण है कि जो लोग अयोध्या और गोधरा के बाद के दंगे को हर पल हवा देते रहते हैं वे सिख विरोधी दंगा, क”मीर के लाखेा हिन्दुओ के हत्या आ विस्थापन का दर्द और गोधरा में ट्रेन में जले लोगों की संवेदन से कभी जुड़ नहीं पाते। ‘हिन्दू आतंक’ की नई व्याख्या गढ़नेवाले लोग साध्वी के नारको की वकालत तो करते हैं किन्तु दे”ा के विभिन्न भागों में विस्फोट करने वाले आतंकियों के नारको टेस्ट को साम्प्रदायिक मांग मान लेते हैं। वरुण गाॅंधी के कथित भड़काऊ भा’ाण पर हल्ला बोलनेवाले लोग लालू यादव के भा’ाण पर तीखी प्रतिक्रिया तक नहीं करते। और तो और चुनाव आयोग द्वारा वरुण गाॅंधी के भा’ाण के मामले में सुझाव और निर्देश के बाद भी काॅंग्रेस के इमरान किदवई और डी. श्रीनिवास के उŸोजक भा’ाणों पर न तो सेकुलर दलों की नजर जाती है और न ही चुनाव आयोग ही वरुण वाला तेवर अपना पाता है। मीडिया भी वरुण मामले में अपनाये गये अपने खबरोशं की धार को कुंद पाने लगता है। शाहबानो मामले में दिखाई गई तु’ितकरण नीति भी सेकुलर राजनीति का हिस्सा बनकर रह जाती है इस देश में। मुसलमानों द्वारा तलाक पर कोर्ट के आदेश को शरीअत मामले में दखल और भारतीयता और संविधान के ऊपर इस्लामिक बंधुत्व तथा कुरान को माननेवाली मानसिकता भी सेकुलर ही माना जाता रहा और सेकुलर समाज ने इस मुद्दे पर अपनी जुवान बंद ही रखी। कथित धर्मनिरपेक्ष देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारो से भरे सेकुलर बिरादरी ने सलमान रुशदी और तस्लीमा नसरीन के किताब पर लगे बंदिशके खिलाफ जुवान तक नहीं खोली। नरेन्द्र मोदी और भाजपा को कोर्ट की दुहाई देने वाली जमात ने समान नागरीक संहिता पर कोर्ट के दो आदेश आने के बाद भी न्यायिक फैसले को मानना भी शायद साम्प्रदायिक ही मान लिया है। पता नहीं राजनीति और मीडिया का साम्प्रदायिकरण क्या-क्या गुल खिलाने वाली है। पर इस आगाज के अंजाम भयावह होने का खतरा तो बना ही हुआ है।

- बिपिन बादल

शनिवार, 9 मई 2009

परिवार की भेंट चढे मोइली

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भले ही कहते हों कि भारतीय लोकतंत्र में परिवारवाद और वं’ावाद अलोकतांत्रिक है मगर राजनीतिक यथार्थ है। इसे राहुल की व्यक्तिगत सोच मान लें। और कोई चारा भी नहीं है। वरना जिस प्रकार से कांग्रेस ने अपने मीडिया प्रभारी वीरप्पा मोइली को चलता किया है, वह कई सवालों के जद में आ गया है। चार चरण के चुनाव हो चुके हैं, पांचवा और आखिरी बाकी है। तो भला क्यों मीडिया प्रभारी की छुट्टी की गई ? राहुल ने जब नीति’ा की खूबी बताई तो मोइली ने उसमें नुस्ख क्यों निकाला... आदि-आदि।
हालिया घटनाक्रम में एम। वीरप्पा म¨इली क¨ कांग्रेस के मीडिया विभाग के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। उनकी जगह कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी क¨ पार्टी के मीडिया विभाग का प्रमुख नियुक्त किया गया है। वह पहले इस जिम्मेदारी क¨ संभाल रहे थ्¨। कहा जा रहा है कि मोइली ने आश्चर्यजनक तरीके से जद (यू) नेता नीतिश कुमार की आल¨चना की थी। ऐसा समझा जा रहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के खिलाफ टिप्पणिय¨ं से पार्टी आला कमान उनसे नाराज था। उनके हटाए जाने क¨ इसी मामले से ज¨ड़़कर देखा जा रहा है। हाल में ही पार्टी नेता राहुल गांधी ने नीतिश की तारीफ कर उन्हें लुभाने की क¨शिश की थी। म¨इली ने कहा था मैं नहीं मानता कि कांग्रेस नीतिश कुमार क¨ हीर¨ बनाने जा रही है। जिस तरीके से उन्ह¨ंने भाजपा से नाता रखा है अ©र उसे बनाए हुए हैं। सांप्रदायिकता के कारण उनकी धर्मनिरपेक्ष साख दूषित हुई है। इससे पहले कांग्रेस मीडिया प्रमुख ने रेल मंत्री लालू प्रसाद अ©र ल¨जपा प्रमुख राम विलास पासवान क¨ केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक का बायकाट करने संबंधी रपट¨ं के मद्देनजर आड़़े हाथ लिया था। बाद में उन्ह¨ंने अपना रुख नरम करते हुए कहा था कि वे संप्रग का हिस्सा है अ©र संप्रग सरकार में ल©टेंगे।
माना जा रहा है कि म¨इली इससे पहले भी अपनी हदें पार कर चुके हैं। इसकी वजह से पार्टी क¨ विचित्र स्थिति का सामना करना पड़़ा है। म¨इली पिछले कुछ महीने से पार्टी के मीडिया विभाग के प्रमुख थ्¨। उन्ह¨ंने पिछले महीने उस समय द्विवेदी क¨ प्रभार स©ंप दिया था जब वह कर्नाटक गए थ्¨। उन्ह¨ंने पिछले हफ्ते ही द¨बारा यह जिम्मेदारी संभाली थी। भला इसे क्या माना जाए ? राहुल के लाइन से अलग चलने का परिणाम ?

कमजोर प्रधानमंत्री,लचर विदेश नीति

विपिन बादल

चुनाव प्रचार अपने चरम पर है उपलब्धि और नाकामी के आरोप और प्रत्यारोप से बढ़ी चुनावी सरगर्मी में सब दल मात्र किसी तरह सत्ता हासिल करने की जुगत मंे मशगूल हैं। अपने को कमजोर प्रधामंत्री कहे जाने से आहत और हताश मनमोहन सिंह जाने-अनजाने इस आरोप को सही साबित करते ही दिखते हैं कि वे निःसंदेह कमजोर ही हैं और सरकार की वास्तविक कमान 10 जनपथ में ही है। इसका एक मात्र प्रमाण तो उन्होंने राजस्थान के एक चुनावी रैली में स्वयम् रैली मे स्वयम् यह कहकर दे दिया कि वे यहां ’सोनिया गंाधी’ के दूत में रुप में् आये हैं। जब देश का प्रधानमंत्री अपने ही देश में किसी का दूत मानने में गौरवान्वित होता हो तो समझा जा सकता है कि वह कितना मजबूत है और निर्णय लेने में कितना सक्षम। स्वाात्रोच्ची के मामले में उनका यह कहना भी इतना ही हास्यास्पद है कि किसी को तंग करना अच्छी बात नहीं है। मामले कोर्ट मंे होने के बाद भी सरकार नियंत्रित सीबीआई द्वारा स्वात्रोच्ची से रेड अलर्ट हटाने की इंटरपोल को दी गई सूचना और उसके बाद प्रधानमंत्री का अतार्किक रूप से उसका बचाव करना शंका उत्पन्न करना है कि सरकार को कहंा से निर्देश मिलता है। जबकि सोनिया गंाधी और स्वात्रोच्ची की मित्रता के बारे में काफी कुछ मीडिया की खबरों मंे आता रहा है। कोर्ट में मामला लंबित होने के बाद भी सरकारी एजेंसी और सरकार के मुखिया ने पहले ही अपना फैसला सुना दिया है उससे यह भी स्पष्ट है कि कंाग्रेसी सरकार न्यायालय और न्यायिक प्रक्रिया को कितना अहमियत देती है। वैसे न्यायिक आदेश और प्रक्रिया को धता बताने कंाग्रेस की पुरानी परमपरा रही है। 1975 मंे न्यायालय के आदेश को मानने से इंकार करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में ईमरजेंसी लगा दिया था। पूर्व प्रधामंत्री राजीव गंाधी ने शाहबानो केस में संसद मंे मिले प्रचण्ड बहुमत के बदौलत अदालत के फैसले को ही पलट दिया था 1984 मंे हुए सिख विरोधी दंगे के प्रमुख आरोपियों को पार्टी ने कई बार टिकट भी दिया था जबकि उनके खिलाफ संगीन मामला अदालत में था। इसी तरह समान नागरीक संहिता लागू करने सम्बन्धी अदालत का दो आदेश अभी भी सरकारी फाइलों मंे ही कहीं दबा पड़ा है। अफजल गुरू के फंासी के मामले मंे जिस तरह से अदालती आदेश के बाद भी उस फाइल पर धूल की परत मोटी होने के लिए छोड़ दिया गया है उससे भी साबित होता है कि सरकार और उसकी मुखिया कितने मजबूत हैं।
यह सरकारी मजबूती भारत की विदेश नीतियों और खासकर पड़ोसी देशों से हमारे संबंधांे पर भी दिखाई देता है। पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, चीन, नेपाल सभी पड़ोसियों से हमारे सम्बन्ध तल्खी भरे हैं। पाकिस्तानी रवैया को देखते हुए भी हमारी ढुलमुल नीति का ही तकाजा है पाकिस्तान की नजरों मंे हमारी अहमियत नहीं के बराबर रह गई है। जम्मू-कश्मीर सहित देश भर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी कार्यवाही के प्रमाण के बाद भी पाकिस्तान का रूख अड़ियल रहा है जबकि भारत की गर्जना अंततः गिड़गिड़ाने में तब्दील होती रही है। इसकी ताजा मिसाल मुम्बई हमलों में पाकिस्तानी संलिप्तता सामने के बाद भी देखने को मिल रहा है। भारत की तमाम ’कूटनीति’ फिसड़डी साबित होती रही है। यही हाल श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका सरकार पर दवाब बनाने की ’नीति’ मंे भी देखने को आया है। लिट्टे के भारत विरोधी गतिविधियों और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गंाधी की हत्या मं संलिप्त्ता के बाद भी महज तमिल वोटों की खातिर सरकार ने श्रीलंका सरकार पर दवाब बनाने का गलत कदम उठाया। श्रीलंका के तमिल जनता की सुरक्षा पर भारत की चिंता जायज हो सकती है किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए था श्रीलंकाई सरकार भी अपनी जनता के जान-माल की सुरक्षा के प्रति कहीं ज्यादा संवेदनशील होगी। जाहिर था अपने देश की सुरक्षा और लिट्टे के आतंक से दशको ंसे त्रस्त श्रीलंका के लिए भारत के युृद्ध विराम की अपील कोई मायने नहीं रखती थी। यही हाल पाकिस्तान में सिख और हिन्दूओं पर तालिबानियों द्वारा जजिया कर लगाने और उन्हें प्रताड़ित करने के सम्बन्ध मंे मनमोहन सिंह की चिंता पर देखने को मिला जब पाकिस्तान ने उन्हें टका सा जवाब दे दिया कि वह पाकिस्तान के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करे।
जाहिर है जो सरकार अपने देश में पाक समर्थित आतंकी कार्यवाही से विस्थापन का दंश झेल रहे कश्मीरी पंडितों के संवेदनाओं के प्रति असंवेदनशील रहा हो उसका दूसरे देश की जनता के प्रति संजीदगी दिखाना महज दिखावा ही माना जाएगा। इतना ही नहीं भारत ने नेपाल को भी प्रधान सेनापति रूक्मांगद कटवाल को बर्खास्त नहीं करने की सलाह दी थी किन्तु भारत विरोधी माओवादियों की नेतृत्ववाली सरकार ने उसे मानने से इंकार कर दिया। यह अलग बात है कि नेपाल के इस अंदरूनी समस्या से अल्पमत में आई प्रचण्ड सरकार को इस्तीफा देना पड़ गया। हूजी आतंकियों के भारत विरोधी अभियान के बाद भी भारत की ’कूटनीति’ वहंा कोई रंग लाती नहीं दिखाई देती। जाहिर है वोट बैंक पर आधारित सरकार की ढुलमुल विदेश नीति हर मोर्चे पर असफल होती रही है।

कमजोर प्रधानमंत्री,लचर विदेश नीति

विपिन बादल

चुनाव प्रचार अपने चरम पर है उपलब्धि और नाकामी के आरोप और प्रत्यारोप से बढ़ी चुनावी सरगर्मी में सब दल मात्र किसी तरह सत्ता हासिल करने की जुगत मंे मशगूल हैं। अपने को कमजोर प्रधामंत्री कहे जाने से आहत और हताश मनमोहन सिंह जाने-अनजाने इस आरोप को सही साबित करते ही दिखते हैं कि वे निःसंदेह कमजोर ही हैं और सरकार की वास्तविक कमान 10 जनपथ में ही है। इसका एक मात्र प्रमाण तो उन्होंने राजस्थान के एक चुनावी रैली में स्वयम् रैली मे स्वयम् यह कहकर दे दिया कि वे यहां ’सोनिया गंाधी’ के दूत में रुप में् आये हैं। जब देश का प्रधानमंत्री अपने ही देश में किसी का दूत मानने में गौरवान्वित होता हो तो समझा जा सकता है कि वह कितना मजबूत है और निर्णय लेने में कितना सक्षम। स्वाात्रोच्ची के मामले में उनका यह कहना भी इतना ही हास्यास्पद है कि किसी को तंग करना अच्छी बात नहीं है। मामले कोर्ट मंे होने के बाद भी सरकार नियंत्रित सीबीआई द्वारा स्वात्रोच्ची से रेड अलर्ट हटाने की इंटरपोल को दी गई सूचना और उसके बाद प्रधानमंत्री का अतार्किक रूप से उसका बचाव करना शंका उत्पन्न करना है कि सरकार को कहंा से निर्देश मिलता है। जबकि सोनिया गंाधी और स्वात्रोच्ची की मित्रता के बारे में काफी कुछ मीडिया की खबरों मंे आता रहा है। कोर्ट में मामला लंबित होने के बाद भी सरकारी एजेंसी और सरकार के मुखिया ने पहले ही अपना फैसला सुना दिया है उससे यह भी स्पष्ट है कि कंाग्रेसी सरकार न्यायालय और न्यायिक प्रक्रिया को कितना अहमियत देती है। वैसे न्यायिक आदेश और प्रक्रिया को धता बताने कंाग्रेस की पुरानी परमपरा रही है। 1975 मंे न्यायालय के आदेश को मानने से इंकार करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में ईमरजेंसी लगा दिया था। पूर्व प्रधामंत्री राजीव गंाधी ने शाहबानो केस में संसद मंे मिले प्रचण्ड बहुमत के बदौलत अदालत के फैसले को ही पलट दिया था 1984 मंे हुए सिख विरोधी दंगे के प्रमुख आरोपियों को पार्टी ने कई बार टिकट भी दिया था जबकि उनके खिलाफ संगीन मामला अदालत में था। इसी तरह समान नागरीक संहिता लागू करने सम्बन्धी अदालत का दो आदेश अभी भी सरकारी फाइलों मंे ही कहीं दबा पड़ा है। अफजल गुरू के फंासी के मामले मंे जिस तरह से अदालती आदेश के बाद भी उस फाइल पर धूल की परत मोटी होने के लिए छोड़ दिया गया है उससे भी साबित होता है कि सरकार और उसकी मुखिया कितने मजबूत हैं।
यह सरकारी मजबूती भारत की विदेश नीतियों और खासकर पड़ोसी देशों से हमारे संबंधांे पर भी दिखाई देता है। पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, चीन, नेपाल सभी पड़ोसियों से हमारे सम्बन्ध तल्खी भरे हैं। पाकिस्तानी रवैया को देखते हुए भी हमारी ढुलमुल नीति का ही तकाजा है पाकिस्तान की नजरों मंे हमारी अहमियत नहीं के बराबर रह गई है। जम्मू-कश्मीर सहित देश भर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी कार्यवाही के प्रमाण के बाद भी पाकिस्तान का रूख अड़ियल रहा है जबकि भारत की गर्जना अंततः गिड़गिड़ाने में तब्दील होती रही है। इसकी ताजा मिसाल मुम्बई हमलों में पाकिस्तानी संलिप्तता सामने के बाद भी देखने को मिल रहा है। भारत की तमाम ’कूटनीति’ फिसड़डी साबित होती रही है। यही हाल श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका सरकार पर दवाब बनाने की ’नीति’ मंे भी देखने को आया है। लिट्टे के भारत विरोधी गतिविधियों और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गंाधी की हत्या मं संलिप्त्ता के बाद भी महज तमिल वोटों की खातिर सरकार ने श्रीलंका सरकार पर दवाब बनाने का गलत कदम उठाया। श्रीलंका के तमिल जनता की सुरक्षा पर भारत की चिंता जायज हो सकती है किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए था श्रीलंकाई सरकार भी अपनी जनता के जान-माल की सुरक्षा के प्रति कहीं ज्यादा संवेदनशील होगी। जाहिर था अपने देश की सुरक्षा और लिट्टे के आतंक से दशको ंसे त्रस्त श्रीलंका के लिए भारत के युृद्ध विराम की अपील कोई मायने नहीं रखती थी। यही हाल पाकिस्तान में सिख और हिन्दूओं पर तालिबानियों द्वारा जजिया कर लगाने और उन्हें प्रताड़ित करने के सम्बन्ध मंे मनमोहन सिंह की चिंता पर देखने को मिला जब पाकिस्तान ने उन्हें टका सा जवाब दे दिया कि वह पाकिस्तान के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करे।
जाहिर है जो सरकार अपने देश में पाक समर्थित आतंकी कार्यवाही से विस्थापन का दंश झेल रहे कश्मीरी पंडितों के संवेदनाओं के प्रति असंवेदनशील रहा हो उसका दूसरे देश की जनता के प्रति संजीदगी दिखाना महज दिखावा ही माना जाएगा। इतना ही नहीं भारत ने नेपाल को भी प्रधान सेनापति रूक्मांगद कटवाल को बर्खास्त नहीं करने की सलाह दी थी किन्तु भारत विरोधी माओवादियों की नेतृत्ववाली सरकार ने उसे मानने से इंकार कर दिया। यह अलग बात है कि नेपाल के इस अंदरूनी समस्या से अल्पमत में आई प्रचण्ड सरकार को इस्तीफा देना पड़ गया। हूजी आतंकियों के भारत विरोधी अभियान के बाद भी भारत की ’कूटनीति’ वहंा कोई रंग लाती नहीं दिखाई देती। जाहिर है वोट बैंक पर आधारित सरकार की ढुलमुल विदेश नीति हर मोर्चे पर असफल होती रही है।

बुधवार, 6 मई 2009

विचार करें

कब तक हम सहते रहें, सत्ता के अन्याय
पानी सिर पर आ गया, कर लें कोई उपाय।

दर्शक बनकर देखते, हम सत्ता का खेल
बिन पटरी के भागती सभी दलों की रेल।

राजनीति दिखला रही, अजब अनूठे रंग
उनकी पूजा हो रही, जो चेहरे बदरंग।

लोकतंत्र के देश में इसका है अवसाद
धुंध चढा सूरज बना, मेरा गांधीवाद।

कैसे दुनिया से मिटे, बतला हा-हाकार
सच्चाई की देह पर होते हैं नित वार।

है ये शहरी सभ्यता, इससे मोह बिसार
जितने उंचे हैं महल उतने तुच्छ विचार।

सर्द गर्म सब सह लिया, मिला न फिर भी चैन
रिशते सारे हैं यहां, ज्यों पत्थर के नैन।

मंगलवार, 5 मई 2009

कथा / बस, और नहीं


समय के साथ समाज बदलता है, लेकिन पुरूष की मानिसकता में बदलाव नहीं आता है। पुरूष की आदम मानसिकता औरत को अपनी जागीर ही समझता रहा है। औरतों की सिसिकियों को कभी भी पुरूष समाज ने नहीं सुनी। तवायफों के मामले में तो हरगिज नहीं। दिल्ली का जीबी रोड हो या कोलकाता का सोनागाछी, बनारस की तंग गलियां हो अथवा मुजफ्फरपुर का चतुर्भुज स्थान, तवायफ की सिसकी एक-सी है। दास्तान एक है, फर्क नाम और स्थान का है लेकिन काम एक है।

शबनम, इसी बदनाम गली में पैदा हुई। पली-बढी, लेकिन अपनी माताओं के पेशो को नहीं अपनाया। फिर भी लोग उसे उसी च’में से ताकते थे, जिस तरह उसकी माताओं को। उसकी माँ की ही जिद थी कि उसकी बेटी इस बदनाम पेशो में नहीं आएगी। बहुत हो चुका। जो क”ट व प्रताड़ना उसने सही, उसकी बेटी नहीं सहेगी।

नतीजतन, उसकी बेटी बीए की पढ़ाई कर रही है। बेशक शबनम अपनी माँ नसीमा के साथ रह रही है, बदनाम गली में, मगर उसका दामन आज भी पाक साफ है। कई बार मौसी ने दबाव डाला। मगर नसीमा के आगे उसकी एक न चली। न’ाबनम, इसी बदनाम गली में पैदा हुई। पली-बढी, लेकिन अपनी माताओं के पे’ो को नहीं अपनाया। फिर भी लोग उसे उसी चशमें से ताकते थे, जिस तरह उसकी माताओं को। उसकी माँ की ही जिद थी कि उसकी बेटी इस बदनाम पेशो में नहीं आएगी। बहुत हो चुका। जो क”ट व प्रताड़ना उसने सही, उसकी बेटी नहीं सहेगी। सीमा ने साफतौर पे कह दिया कि जिन जलालतों से उसे दो-चार होना पड़ा है, उसकी बेटी उनको नहीं सहेगी।

नसीमा उस दिन को आजतक नहीं भूल पाई, जब स्कूल में शबनम की दाखिला के लिए वह खून के आंसू रोई थी। कोई भी स्कूल उसे दाखिला देने को राजी नहीं था। सब उसके बाप का नाम पूछते और फिर हराम की औलाद कहकर दुत्कार देते। नसीमा ने कितानों के सामने हाथ-पांव जोड़े, लाख मिन्नतें की लेकिन कोई फायदा नहीं। कई दिनों तक स्कूलों के चक्कर लगाने पड़े। एकबारगी तो उसने हार ही मान ली थी और उसको लगने लगा था कि उसकी बिटिया भी बदनाम गलियों में ही दफन हो जाएगी। जिन परछाइयों से वह उसको दूर रखना चाहती थी, वह दबोचे जा रही थी। नसीमा का किसी काम में जी नहीं लगता। उसका धंधा भी प्रभावित होने लगा। मौसी का डांट-फटकार अलग। ग्राहक रोजाना आते, मगर नसीमा की विशोश दिलचस्पी नहीं रहती, महज औपचारिकता भर। ग्राहकों का आना भी कम होने लगा। कोठे की कमाई प्रभावित होने लगी। मौसी ने तो एक बार शबनम को हटाने की बात करने लगी। नसीमा बुरी तरह हिल चुकी थी। किसी तरह ग्राहकों को पटाने लगी। चेहरे पर बाजारू मुस्कान लगाने लगी। मौसी ने साफ कहा था, ‘एक बच्ची के कारण यदि पांच-छह लोगांे का जीवन प्रभावित होता है तो बच्ची को ही अलग कर दिया जाए। न रहे बाँस न बजे बाँसुरी... सारी फसाद की जड़ यह लड़की ही है।’

डूबते को तिनके का सहारा। नसीमा के साथ ही कुछ ऐसा हुआ। ग्राहकों की रोजाना आवाजही में एक दिन ऐसा ग्राहक आया, जिसने उससे इ’क की बात कर डाली। नसीमा की अनुभवी आँखें यह तार चुकी थी कि वह बेवफाई का मारा हुआ कोई देवदास है। बातों-बातों में उसे यह भी पता चला कि वह एक स्कूल का मालिक है। बस क्या था... नसीमा ने अपने नैन-मटक्के शुरू किए। लहराती लट, नागिन सी लहराती काया के सामने पुरू”ा को निहाल होना ही था और किला फतह नसीमा ने कर ली। उसने यह वादा करा लिया कि शबनम का दाखिला उसी के स्कूल में होगा। बदले में नसीमा को अपना जिस्म देना था। इससे पहले भी तो नसीमा अपने जिस्म का सौदा करती आई है, क्या हुआ यदि उसने अपनी बेटी के लिए यही काम किया। पहले केवल वह पैसा के लिए करती थी, इस दफा तो पैसा के साथ उसकी बेटी की भलाई भी थी। उसका अपना स्वार्थ था, जो किसी सपने से कम नहीं था।

शबनम स्कूल जाने लगी। समय बीतता गया। शबनम ने मैट्रिक पास कर ली। काॅलेज में दाखिला का समय आया। इस बार दिक्कतें तो आई लेकिन स्कूल जैसी नहीं। काॅलेज में दाखिला होने लगा। नसीमा के अरमानों को जैसे पंख लग गए हों। अपनी बिटिया में वह अपने सपने भी संजाने लगी। अमूमन यही होता है जब कोई माँ किसी कारण अपने अरमानों को पूरा नहीं कर पाती, और जब उनकी बेटी सयानी होकर उन्हीं रास्तांे पर चलने लगती है तो हरेक माँ को स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति होने लगती है। नसीमा भी एक माँ थी...।

समय बदल जाए तो समाज बदलता है। मगर समाज के लोगों की सोच में कोई बदलाव नहीं आता। खासकर, तब जब कोई दलित-दमित आगे बढ़ने की को’िश’श करने लगता है। यह एक ऐसा कटु सत्य है जिसे लोग जानते हुए भी जानना नहीं चाहते, आखिर उनका स्वरचित तिलिस्म टूट जाएगा। भला कोई क्योंकर चाहेगा कि उसका अपना तिलिस्म टूटे? कुछ ऐसा ही हाल था मुजफ्फरपुर के लोगों का...। तथाकथित कुलीन घरानों के लोग अपनी काम क्षुधा की तृप्ति के लिए भले ही चतुर्भुज स्थान की ओर आएं हों, उनके बेटे भी उनके रास्ते पर चले हों, लेकिन उन्हें यह कतई पसंद नहीं था कि उनकी बेटी एक तवायफ की बेटी के साथ एक ही बेंच पर बैठकर पढे़? उन्हें इससे अपनी बेटी की बदचलनी का डर होने लगा? समाज के ठेकेदारों ने काफी हाय-तौबा की। पहले तो शबनम को रास्ते में रोककर बेइज्जत किया और फिर काॅलेज के खिलाफ नारेबाजी की। कई दिनों तक यह खबर स्थानीय अखबारों की सुर्खियों में शुमार होता रहा। सप्ताह दिन बाद जैसे बात आई-गई हो गई। इस दरम्यान तवायफों की जिन्दगी सुधारने के नाम पर लाखों का वारा-न्यारा करने वाली एकाध स्वयंसेवी संस्थाएं आगे आई। शबनम का बचाव किया गया। काॅलेज प्रशासन से बात की गई। संस्थाओं के साथ नसीमा ने खुद जाकर काॅलेज के प्रिंसिपल से बात की। नसीमा ने प्रिंसिपल के सामने हाथ जोड़कर कहा, ‘आपके सामने एक माँ हाथ फैलाए खड़ी है, जो चाहती है कि उसकी बेटी को वह मुकाम हासिल हो जिसका सपना उसने देखा है। यदि इसी तरह हम जैसी की बेटियों को समाज दुत्कारता रहा तो समाज का कैसे भला होगा? यदि समाज ऐसा ही निशठुर बना रहा तो तवायफों का उद्धार कैसे होगा?’ इतना कहते-कहते नसीमा की आँखू में आँसू आ गए। प्रिंसिपल ने एक माँ की ममता को देखा, जो अपनी बच्ची के लिए तड़प रही थी। उन्होंने तवायफों के बारे में काफी कुछ सुन रखा था लेकिन एक तवायफ भी इतनी ममतामयी हो सकती है पहली बार देखा। उन्होंने लोगों से यह कहते सुना था कि कोठेवाली बसे-बसाए घरों को उजाड़ती है, मगर अपनी संतान के लिए इस कदर बिलखती माँ को पहली बार देखा। प्रिंसिपल का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने शबनम को काॅलेज हाॅस्टल में ही रहने की इजाजत दे दी।अब क्या था, शबनम खूब मन लगाकर पढ़ने लगी। उसके व्यवहार ने सहपाठियों को अपनी ओर आकर्शित करना शुरू कर दिया। काॅलेज में उसकी सहेलियां बनती गई। परीक्षा में अव्वल आने से पूरे काॅलेज का ध्यान उसकी ओर गया। हरकोई उसकी काबिलियत की दाद देता। उनमें कई वैसे लोग भी शामिल थे जिन्होंने प्रारंभ में उसकी मुखालफत बस इसलिए कि थी कि वह कोठेवाली की बेटी है।

दूसरी तरफ नसीमा भी खुश थी कि उसकी बेटी खूब पढाई कर रही है। उसके अरमानों को पूरी करेगी। पहले तो हरेक रविवार को शबनम मिलने आती थी कि लेकिन मौसी की हरकतों की वजह से नसीमा ने हरेक रविवार को आने से मना कर दिया। छिप-छिपाकर वह खुद बेटी से मिलने चली जाती थी। यह सिलसिला करीब दो साल तक चलता रहा। नसीमा का उम्र ढलान पर था। शरीर में पहले वाली रौनक नहीं रही। जाहिरतौर पर कोठे की कमाई कम होने लगी। उपर से पुलिसवालों ने तंग करना शुरू कर दिया। कोठे की कमाई में कमी आने के कारण पुलिस के हिस्से में भी कमी आ गई। सो पुलिसवालों को बर्दा’त नहीं हो रहा था। दूसरे कोठों पर छापे नहीं मारते, मगर नसीमा के कोठे पर छापे मारे जाने लगे। बेवजह रात में परेशान किया जाने लगा। अधेड़ पुलिसवालों का जब जी नहीं लगता, इधर आता और चला जाता...। क्या मजाल नसीमा या मौसी की? जो उन्हें रोक सकती। जाते वक्त पैसे भी निचोड़कर ले जाते। मौसी अपना आपा खोने लगी। कई बार तो उसने नसीमा की जमकर धुनाई की।

मौसी नसीमा पर हमेशा दबाव बनाती कि वह शबनम को इस धंधे में शामिल कर लें। जवान है, खूबसूरत है, धंधा खूब चलेगा। एकबार फिर कोठे की रौनक लौट आएगी। नए-नए ग्राहक आएंगे, खूब पैसे कमाएंगे। मौसी कहती, ‘तवायफ की बेटी तवायफ नहीं बनेगी तो और क्या बनेगी? जमाना उसे हरगिज किसी और रूप में स्वीकार नहीं करेगा... अब तो पहले वाला मुजरा भी नहीं होता... जब नबाव ही नहीं रहे तो मुजरा कौन सुनेगा? नए जमाने में तो पुरू”ा केवल शरीर को रौंदना जानता है...निहारने के लिए तो घर में पत्नी और पार्क में प्रेमिका है, रंडी तो बस... तुम कितना भी अपनी बेटी को पढ़ा-लिखा लो, उससे कोई ब्याह करने वाला नहीं... जमाना बहुत जालिम है। कोठेवाली को कोई भी अपना घरवाली नहीं बनाता। यही सदियों की रीत है।’मौसी की बातों को सुनकर नसीमा बौखला जाती। कई दफा तो उसके जी में आता कि यहीं पर मौसी का गला घोंट दिया जाए। कितना देर ही लगेगा... एक बूढ़ी औरत को मारने में... बस कुछ पल... लेकिन वह हिम्मत नहीं जुटा पाती। मौसी ने नसीमा की इतनी धुलाई की थी कि उसकी नजरों में आज भी मौसी उतनी ही शक्तिशाली है, जितनी कि जवानी के दिनों में थी। मन मसोसकर रह जाती थी। ज्यादा होता तो अंधेरे कमरे में जाकर दो-चार आँसू टपका आती। पर कभी शबनम से इन बातों का जिक्र नहीं करती।

सोचती किसी तरह समय कट ही जाएगा। जीवन का आखिरी पहर ही तो है। वैसे भी तवायफों की जिंदगी चालीस वसंत के बाद कोई मायने नहीं रखती। नसीमा तो इस उम्मीद पर जी रही थी कि वह शबनम के अरमानों को पूरा होते देखना चाहती थी। किसी तरह वह अपनी पढ़ाई पूरी कर लें और उसका घर बस जाए। नसीमा माँ भले बनी लेकिन एक पत्नी का सुख उसे कभी नहीं मिला। उसके लिए वह जीवन भर तरसती रही। जीवन में कई पुरू”ा आए लेकिन अपना कहने वाला कोई नहीं। एक आया भी तो धोखेबाज निकला। वायदे तो लंबे-चैड़े किया करता था लेकिन किसी काम का नहीं। बस, माँ बनाकर चला गया। पता नहीं कहाँ? जाने के बाद एक चिट्ठी तक नहीं दी... नसीमा ने भी जाने के बाद कोई खोज नहीं की... क्यों करती। उसे तो बस अपनी बिटिया की फिक्र रहने लगी।

शबनम को काॅलेज के एक लड़के से कब प्यार हो गया, पता नहीं चला... प्यार की पींगे बढ़ाते-बढ़ाते प्रेमी ने ब्याह का न्यौता दे डाला। शबनम को सहजा विशवास नहीं हुआ कि कोई उससे भी शादी करेगा। जिस प्रकार से वह कोठे की किस्से-कहानी सुनती और बचपन में माहौल देखा था उसे विशवास नहीं था कि कोई भी उसके सपने का राजकुमार होगा जो उसे डोली में बिठाकर ले जाएगा। उसने नसीमा से बात की। नसीमा के आंखों में आंसू छलक आए... उसने कहा, ‘बेटी, दुनिया बड़ी जालिम है। कोई तुमसे प्रेम करता है और तुम्हें ताउम्र अपना बनाना चाहता है तो उसे किसी प्रकार के अंधेरे में नहीं रखना चाहिए। मैंने जीवन भर अंधेरे में बिताया है। मैं नहीं चाहती कि तुम भी... उस लड़के को सारी बातें बता दो... अपने बारे में और मेरे बारे में भी... यह पल दो पल का साथ नहीं बल्कि जीवन भर का साथ होने वाला है। हमने तो पल में ही जिंदगी को ढोया है, तुम्हें तो जीवन भर का सोचना है। बाकी तुम पढ़ी लिखी हो, हमसे बेहतर सोच-समझ रखती हो। ’

‘मैंने उसको सारी बातें साफ-साफ बता दिया। उसके बाद भी वह मुझे चाहता है। उसका कहना है कि तुम्हारी मां कोठे पर रहती है तुम तो नहीं। और औरों की तरह तुम्हारी मां ने तुम्हें उस नरक में नहीं धकेला बल्कि तुम्हें उससे दूर ही रखा। इसी से तुम्हारी माँ की सोच का पता चलता है। लेकिन...’

‘लेकिन क्या?’

‘वह हमारी जाति का नहीं है... वह एक दलित हिंदू है। क्या तुम इजाजत दोगी?’

‘तू भी कितनी नादान हो... अरे पगली, तुम्हारी खुशी के लिए तो मैं अपनी जान तक दे सकती हूँ। तो तुम्हारी शादी क्या चीज है। जब वह तैयार है तो मैं क्यों नहीं...’ कुछ रूककर, ‘मेरे जीवनकाल में इस कोठे पर बहुतेरे आए और गए। विभिन्न रंग-रूप के। न जाने उनमें कौन हिंदू था और कौन मुसलमान... अथवा किस जाति का। हमारी जिंदगी में जाति और धर्म बेमानी बातें लगती है। उनका हमारे लिए कोई मोल नहीं। इस बदनाम गली में तो मैंने सिर्फ दो ही जाति देखंे हैं- एक औरत का और दूसरा मर्द का। तीसरा तो कोई होता ही नहीं है।’‘तो... मैं तुम्हारी रजामंदी समझूं!’

‘तुम दोनों की ही खुशी में मेरी खुशी है। मुझ जैसी अभागिन माँ के लिए इससे बढ़कर और खुशी क्या होगी कि उसकी बेटी दुल्हन बनने जा रही है।’

शबनम शादी की तैयारी करने लगी। यार-दोस्तों ने सारा जिम्मा अपने कंधे पर लिया। उनके लिए भी यह किसी मुम्बइया सिनेमाई कहानी से कम नहीं था कि एक कोठेवाली की बेटी की शादी होने जा रही है। काॅलेज के प्रिंसपल को जब इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने भी प्रसन्नता जाहिर की... आखिर एक नई शुरूआत होने जा रही थी। समाज में समाज के वंचित को स्थान मिलने जा रहा था। नसीमा भी खुश थी। शादी की रस्म एक मंदिर में संपन्न होना था, मगर नसीमा ने साफ मना कर दिया कि वह इस समारोह में शामिल नहीं होगी। जिस सपना के लिए वह जी रही थी, वही क्षण जब आने वाला था तो उसका यह निर्णय... संभवतः उसके मन में कहीं डर समाया था कि हो सकता है उसके वहां रहने से विवाह में कुछ अड़चन आ जाएं... नसीमा जैसी माँ के लिए यह डर अस्वभाविक भी नहीं था।

खुशी-खुशी शादी हुई। मंदिर में भगवान को प्रणाम करने के बाद शबाना अपनी माँ से आशीर्वाद लेने पहुंची। आखिर उसी ने तो उसकी जिन्दगी को संवारा था। भला उससे आशीश लिए नई जीवन की शुरूआत कैसे हो पाती? दुल्हन के वेश में ही वह कोठे पर चली आई। लेकिन यह क्या ?

नसीमा एक अँधेरे कमरे में अकेली चारपाई पर पड़ी है। एक बाती तक नहीं...क्या उसे खुशी नहीं है कि उसकी शबनम दुल्हन बन गई। शबनम को अंदेशा हुआ... जो मां उसकी आहट पहचान लेती थी वह आज सामने होने पर भी निशचेशट पड़ी है... उसने आवाज लगाई... नसीमा ने करवट बदली... धीरे से उठकर बैठी। ‘कहो, कैसी हो... सबकुछ ठीक रहा न? ’

शादी हो गई। तुमसे आशीर्वाद लेेने आए हैं और तुम इस कदर...’

‘हमारा क्या है? जीवन के बाकी दिन गिन रही हूं? जो सपना देखा था वह भी पूरा हो गया। जीवन में कोई लालसा नहीं बची। उपरवाले से दुआ करती हूं कि अब मुझे उठा ले... बहुत हुआ उसका रहमो-करम... देख ली उसकी दुनिया...वाह रे उपर वाले... क्या-क्या न तूने दिखाया इस दुनिया में... अब तो रहम कर...’‘तुम ऐसा क्यों बोल रही हो?’

तभी पीछे से मौसी आती है। नसीमा उठकर बैठना चाहती है, लेकिन सही से बैठ नहीं पाती । उसे डर सताने लगता है कि कहीं मौसी दोबारा वही राग अलापना शुरू न कर दें... मगर मौसी वैसा कुछ नहीं करती। शबनम को आशीर्वाद देती है, ‘सदा सुहागन बनी रहो। इस गली में लोगों के सुहाग उजड़ते देखे हैं, पहली बार इस कोठे पर किसी सुहागिन को अपने सुहाग के साथ देखा है। उपरवाला तुम दोनों की जोड़ी को सलामत रखें... मगर...’

‘मगर क्या...’

‘तुम लोग बुरा न मानों तो एक बात कहें...’

इतने में नसीमा मौसी से चुप होने को कहती है। मौसी चुप हो जाती है और उसकी आंख डबडबा जाती है।

शबनम को लगता है जैसे उससे कुछ छुपाया जा रहा है... नसीमा की यह दशा और मौसी की आँखों में पानी उसने पहली बार देखा।

‘आपलोग मुझसे कुछ छुपा रहे हैं... माँ तुमको मेरी कसम... साफ-साफ कहो न...क्या बात है?’

‘कुछ भी तो नहीं...’

मौसी से रहा नहीं गया। वह बीच में ही बोल उठी, ‘बहुत हुआ नसीमा... मैंने तुम पर लाख ज्यादतियां कि... लेकिन यह कभी नहीं चाहा कि तुम मर जाओ... क्यों बेटी की खुशिायों के लिए अपनी जिंदगी तबाह करने पर तुली हो। देखो, अब तो इसकी शादी भी हो गई।’

‘क्या हुआ है मेरी माँ को?’

‘अपनी माँ से ही पूछो तो बेहतर होगा...’

नसीमा चुप रही। बस आंखों से आंसू बहाए जा रही थी।

‘आप ही बताइए न...’

‘अरे, तुम्हारे जीवन की खुशी के लिए इसने अपना जीवन नरक बना लिया। एक तो पहले से ही नरक में थी। दो साल से इसे टीवी हो चुका है। ईलाज नहीं करा रही। कहती है ईलाज में पैसा लगेगा तो बेटी की पढ़ाई कहां से होगी?... तुम्हीं कहो, मैं क्या करूं? मैंने कई बार बोला, सरकारी अस्पताल चलो, वहां ईलाज हो जाएगा। लेकिन ये है कि मानती ही नहीं... कहती है कि मेरा क्या है... मर जाउंगी तो ही अच्छा रहेगा। बेटी की शादी हो जाएगी, उसका घर बस जाएगा तो जीवन सफल हो जाएगी। इसी खातिर पिछले दो साल से इसका हाल बुरा होता चला गया है। इस बीच में तुम्हें भी आने से रोक दिया। ’

शबनम की आँखे भर आई। आखिर उसकी माँ ने उसके लिए कितना कुछ नहीं किया। अपनी जीवन को दांव पर लगाकर उसकी हर खुशिायों को पूरा किया। लाख जलालत सही, दुनिया की बदनामियां सही, लेकिन उसकी दामन को पाक साफ बनाए रखी। आज शबनम के आँखों के सामने वे सारे चित्र एक-एक करके आने लगे जो उसने नसीमा के साथ बिताए थे। तभी उसे आभास हुआ कि किसी ने उसकी पीठ पर हाथ रख दिया हो, वह कोई और नहीं... उसका पति था। दोनों में जैसे आमसहमति बनी। आँखों ही आँखों में बात की गई और निर्णय लिया गया।

‘माँ... उठो। चलो। आज से तुम हमारे साथ रहोगी। तुमने अपना कर्तव्य निभाया... अब मुझे भी कुछ करने का मौका दो। एक संतान से उसका अधिकार मत छीनो। बहुत दुःख सहा। अब, और नहीं सहने की जरूरत है। हम हैं न... मौसी मैं अपनी माँ को ले जा रही हूँ! आपको कोई आपत्ति तो नहीं?’

‘नहीं, मुझे भला क्या आपत्ति होगी... तुम अपनी माँ को ले जा रही हो... मेरी नसीमा तो सदा मेरे पास रहेगी। इसी कमरे में... मेरे यादों में।’