शनिवार, 29 अगस्त 2009

देर से लिया गया सटीक फैसला

जनता के धन पर जनता के बीच जनता से दूरी ... कुछ ऐसी ही स्थिति है हमारे सियासतदानों की। कभी जनसेवक के रूप में रहने वाले ये लोग कब जनप्रतिनिधि बन गए... कहा नहीं जा सकता। सो, सेवा भाव भी जाता रहा और प्रतिनिधित्व का दंभ भरता चला गया। वरना देश के अंदर भला क्या जरूरत आन पड़ी उन्हें व्यक्तिगत सुरक्षाकर्मी की।
यूं ही नहीं कहा जाता है कि भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। कुछ ऐसा ही किया है केंद्रीय गृहमंत्री पी। चिदंबरम ने। आखिरकार पांच वर्षों के असमंजस के बाद गृह मंत्रालय ने 30 वीआईपी से एक्स श्रेणी की सुरक्षा वापस ले ली है जिसमें भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश वाईएस सब्बरवाल भी शामिल हैं। पी. चिदंबरम का मानना है कि सुरक्षा सिर्फ उन्हीं लोगों को दी जानी चाहिए जिन्हें वास्तव में खतरा है या जो संवैधानिक पदों पर हैं। खुद गृह मंत्री ने भी कोई सुरक्षा लेने से मना कर दिया है। गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि इसके साथ ही एक्स श्रेणी की सुरक्षा वाले लोगों की संख्या 20 हो गई है। एक्स श्रेणी सुरक्षा प्राप्त लोगों को एक व्यक्तिगत सुरक्षा अधिकारी आठ घंटे के लिए मिलता है। कहा जा रहा है कि इसके बाद वाई, जेड अ©र जेड प्लस श्रेणियों के लिए भी ऐसा किया जाएगा। जैसे ही एक्स श्रेणी से लोगों से सुरक्षा वापस लेने की खबर फैली वैसे ही पुलिस सुरक्षा के लिए गृह मंत्रालय में वीआईपी लोगों के आग्रह भरे काफी काल आने लगे। विभिन्न क्षेत्रों के वीआईपी अ©र अधिकतर राजनेता गृह मंत्रालय के समक्ष अपनी सुरक्षा की आवश्यकता को सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।
काबिलेगौर है कि गृह मंत्रालय द्वारा आहूत उच्च स्तरीय समीक्षा बैठक में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, पूर्व केंद्रीय मंत्री लालू प्रसाद, राबड़ी देवी, समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव अ©र भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी सहित कुछ वीआईपी से एनएसजी सुरक्षा वापस लेने की अनुशंसा की गई लेकिन आखिरी निर्णय चिदंबरम को करना है। बहरहाल राजनीतिक दलों ने इसका जोरदार विरोध किया अ©र सरकार ने लोकसभा में कहा कि वीआईपी लोगों से सुरक्षा वापस लेने के लिए जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं किया जाएगा। बैठक के दौरान केंद्र सरकार से सुरक्षा प्राप्त करीब दो सौ वीआईपी लोगों की सुरक्षा को लेकर समीक्षा की गई। इन वीआईपी की सुरक्षा या तो एनसजी करती है या अन्य अर्धसैनिक बलों के जवान करते हं। बैठक में महसूस किया गया कि पूर्व मंत्रियों- शिवराज पाटिल, रामविलास पासवान अ©र जगमोहन की सुरक्षा को कम किया जाए जबकि पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह से सुरक्षा पूरी तरह वापस ले ली जाए। अनुशंसा की गई है कि भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला अ©र गुलाम नबी आजाद अ©र आतंकवाद विरोधी फोरम के नेता एमएस बिट्टा की एनएसजी सुरक्षा को बरकरार रखा जाए।
सच तो यह भी है कि वीआईपी सुरक्षा के कारण खर्च वहन करना भी मंत्रालय पर वित्तीय बोझ है। कुछ मामलों में यह देखा गया कि वीआईपी सरकारी सुरक्षा को रुतबे के प्रतीक के रूप में लेते हैं न कि किसी खतरे के कारण। सो, अच्छा होता कि कुछ और लोगों को इस दायरे में लाया जाता।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

नेता जी ! अब तो पढि़ए

लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को मूर्खों का शासन भी कहा जाता है। कारण, यहां विद्वता पर आंकड़ों की बाजीगरी हावी हो जाती है और बहुमत के खेल में काबिल पीछे छूट जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यह सिलसिला भारत में आजादी के बाद शुरू हुआ है, आजादी से पूर्व भी इतिहास में कई उदाहरण ऐसे हैं जिससे जाहिर होता है कि शासन करने के लिए शिक्षा की कोई विशेष अहमियत नहीं होती है। बस, जरूरत इस बात की है कि आप जनता को किस कदर अपनी ओर 'हांकÓ ले जाते हैं, प्रबंधकीय क्षमता कितनी है और आपके सिपहसालार किस दर्जें के हैं। दीन-ए-इलाही के नाम से मशहूर अकबर अनपढ़ था, लेकिन उसने जिस प्रकार से सत्ता को संभाला वह काबिले-तारीफ है। वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भी कई शासक ऐसे हुए हैं जो सही से दो पंक्ति नहीं पढऩा जानते लेकिन वर्षों तक शासन की बागडोर संभाले रहे। बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमति राबड़ी देवी इसकी मिसाल हैं और उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की ज्ञान कितनी है, इसको हर कोई जानता है। हिंदुस्तान के सियासी गलियारे में कई ऐसे अनपढ़ हैं जो पढ़े-लिखे लोगों पर शासन करते हैं। इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था की विडंबना भी कही जा सकती है।
आज का समय शिक्षा और सूचना-तकनीक का है, जहां एक सूई से लेकर परमाणु करार की बारीकियों को समझने के लिए शिक्षा की जरूरत है, वहीं हमारे नेता (विशेषकर सांसद) शिक्षा की महत्ता से अनभिज्ञ हैं। औसतन दस लाख व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले कई सांसद नाममात्र के शिक्षित हैं। वर्तमान 700 सांसदों में कम से कम तीन प्रतिशत सांसद ऐसे हैं जो या तो पांचवीं-छठीं पास हैं और किसी प्रकार से हस्ताक्षर करने में सक्षम हैं। दूसरी अहम बात यह है कि गैर मैट्रिक या निम्न शिक्षा का स्तर सिर्फ क्षेत्रीय या किसी खास पार्टी में नहीं है, बल्कि राष्टï्रीय राजनीतिक पार्टी भी इसमें बराबर की हिस्सेदार हैं। राष्टï्रीय पार्टियों में सीपीआई (एम) ही इकलौती पार्टी है, जिसमें वर्तमान में एक भी गैर-मैट्रिक नहीं है। वहीं, बहुजन समाज पार्टी में अशिक्षित राजनीतिज्ञों की संख्या सर्वाधिक हैै।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर शिक्षितों पर अशिक्षितों का राज कितना उचित है? सीपीआई(एम) भले ही सबसे पढ़ी-लिखी नेताओं से भरी-पूरी पार्टी हो, लेकिन उसे केंद्रीय सत्ता का सुख आज तक नहीं मिला है। इसके बाद दूसरे नंबर पर भारतीय जनता पार्टी के नेता शिक्षित हैं। सो, केवल उन्हें एक बार सत्ता सुख मिला। जबकि कांग्रेस पार्टी में करीब 12 प्रतिशत नेता अपेक्षाकृत कम शिक्षित हैं और इसने ही आजादी के बाद देश पर सबसे अधिक शासन किया। देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस में गैर मैट्रिक सांसदों का प्रतिशत 2।8 है जबकि दूसरे नंबर पर काबिज भाजपा में 2.86। राजनीतिक ताकत के नजरिए से देश का भविष्य इनके विचारों और कार्यों पर निर्भर करता है। ऐसे में इन बड़ी मछलियों का कुछ हिस्सा बेकार होना आगे चलकर पूरे तालाब को गंदा कर सकता है, इस संदेह को नकारा नहीं जा सकता है। नतीजतन, उसका परिणाम देश और जनता को भोगना पड़ेगा। उन हालात में पूर्व राष्टï्रपति डा. एपीजे अबुल कलाम आजाद के सपनों के भारत (भारत - 2020) में ये कहीं नहीं टिकते। स्मरणीय है कि जब देश के अधिकांश बुद्घिजीवी डा. कलाम सहित भारत-अमेरिका परमाणु करार के पक्ष में हैं तो शत-प्रतिशत शिक्षित पार्टी वाममोर्चा क्यों कर इसके विरोध में है, यह चिंता का विषय है। कहा जा सकता है कि देश की शासन की बागडोर संभालने के लिए किताबी ज्ञान के साथ-साथ प्रशासकीय ज्ञान की भी समझ होनी चाहिए।
संसद में ऐसे नेताओं की संख्या काफी है जो गर्व से कहते हैं वे मैट्रिक हैं। वर्तमान संसद में तकरीबन 16 फीसदी प्रतिनिधि ऐसे बैठे हैं, जिन्होंने या तो सिर्फ मैट्रिक तक पढ़ाई की है या तो इंटरमीडिएट तक। यदि इनको गैर मैट्रिक के साथ जोड़ दिया जाए तो ऐसे सांसदों का प्रतिशत बढ़कर 20 हो जाता है। यानी करीब एक चौथाई सांसदों ने न तो किसी विषय विशेष का अध्ययन किया और न ही उच्च शिक्षा के द्वार तक पहुंचे हैं। यह भी सच है कि ऐसे अधिकतर सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक रही है। न तो अपनी विद्वता और न लोकप्रियता के कारण जीतकर आते हैं, बल्कि अपनी दबंगई और जातीय समीकरण के सहारे इनके संसद में प्रवेश करने का गेट पास मिलता है। ऐसे में सवाल मौजूं है कि ये सांसद जब मंत्री पद संभालते हैं तो शासन का कामकाज किस प्रकार चलाते हैं। इस संबंध में सेवानिवृत्त वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जोगिन्दर सिंह कहते हैं, '' सारा काम-काज तो अधिकारी करते हैं, नेताओं अथवा मंत्रियों से केवल उनकी सहमति ली जाती है। किसी भी नीति के नियमन-निर्धारण में नेता अपनी राय बताते हैं और संबंद्घ अधिकारी उसी अनुरूप ड्राफ्ट बनाते हैं। वरिष्ठ अधिकारियों के साथ काम करने से ऐसे नेताओं की समझ भी बढऩे लगती है और वे स्वयं को एक समझदार के रूप में प्रचारित करते हैं।ÓÓ
फिलहाल, वर्तमान सरकार ने शिक्षा पर खासा जोर दिया। साल 2007-08 के बजट में सर्वशिक्षा अभियान के लिए 2006-07 के दौरान प्रावधान किए गए 7 हजार 156 करोड़ रुपए को बढ़ाकर 10 हजार 41 करोड़ रुपए कर दिया गया। शिक्षा को सभी तक पहुंचाने के लिए इसे सरकार का महत्वपूर्ण कदम कहा जाना चाहिए। इतना ही नहीं, साल 2006 से ही संसद से सड़क तक जिस प्रकार से शिक्षा में आरक्षण की गूंज सुनाई पड़ी, उससे लगने लगा कि आरक्षण की बैशाखी पर ही सही देश के नौनिहालों की शैक्षणिक स्थिति में साकारात्मक परिवर्तन दिखेगा। मगर, यथार्थ के धरातल पर केवल ये घोषणाएं राजनीतिक खेल ही साबित हुई। आखिर हो भी न क्यों? जब नीतियों के निर्धारण के लिए बनी समिति के मुखिया जब अशिक्षित और कम पढ़े-लिखे हों तो अंजाम क्या होगा- इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
यह भी जानना रोचक होगा कि अशिक्षित सांसद अधिकतर किस क्षेत्र से आतें हैं। इस मामले में हिंदी पट्टïी ही इसके लिए जिम्मेदार दिखती है। अमूमन, हिंदी प्रदेशों में शिक्षा दर भी अपेक्षाकृत कम है। उत्तरप्रदेश से वर्तमान में समाजवादी पार्टी के दो दर्जन से ज्यादा संासद हैं जिसमें गैर-मैट्रिक सांसदों का प्रतिशत 5।65 है जो बाकी की पार्टियों के मुकाबले ज्यादा है। उसी प्रदेश की दूसरी बड़ी पार्टी बहुजन समाज पार्टी है जिसके तकरीबन दो दर्जन सांसद हैं जिसमें 5 प्रतिशत गैर-मैट्रिक हैं। दोनों पार्टियों में अशिक्षित सांसदों का जो प्रतिशत है वह राष्टï्रीय स्तर के मुकाबलें दो प्रतिशत ज्यादा है। यह इस बात का संकेत है भारत के सबसे बड़े प्रदेश में राजनीति करनेवाले में अशिक्षितों का बोलबाला है, जबकि राज्य में साक्षरों का प्रतिशत 57.36 है। यही हाल उत्तरप्रदेश से सटे बिहार का है। वर्तमान में राजद के सबसे अधिक 30 सांसद हैं, जिनमें 3.23 प्रतिशत गैर मैट्रिक है। उत्तरप्रदेश और बिहार देश के ऐसे दो राज्य हैं जहां पर शासन करनेवाली पार्टियां केंद्र पर हावी रहती हैं और कह लें कि सरकार बनाने का माद्दा रखती है। इन प्रदेशों में सांसदों की शिक्षा का स्तर कम है। इसका एक कारण है भी है कि यहां की राजनीति विकास के मुद्दे से कम और जातीय मुद्दों से ज्यादा प्रभावित होती हैं। सांसदों के पढ़े-लिखे होने न होने का असर यहां के विकास कार्यों से जोड़कर देखा जा सकता है। बिहार, झारखण्ड, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे बीमार प्रदेश तेजी से विकास करने वाले राज्यों की फेहरिस्त में निचले पायदान पर हैं। वहीं दक्षिण के राज्य तेजी से विकास कर रहे हैं। पंजाब और गुजरात भी इस मामले में बेहतर हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि यहां शिक्षा का प्रतिशत भी बढिय़ा है। पंजाब में 69.95 प्रतिशत लोग शिक्षित हैं जबकि गुजरात में 69.97 प्रतिशत जो कि राष्टï्रीय शिक्षा प्रतिशत दर से बेहतर है।
विभिन्न दलों के नेताओं के शैक्षणिक स्थितियों का वृहद अवलोकन करने के बाद जो नतीजे मिले, वह चौंकाने वाला सर्वे में जिन सियासी पार्टियों में शिक्षा की स्थिति से अलग से दिखाया गया है उसमें से पांच तो हिंदी प्रदेशों पर अपना कब्जा जमाए हुए हैं, जबकि सीपीआई(एम) का केरल और पश्चिम बंगाल पर मजबूत पकड़ है। केरल में शिक्षितों का प्रतिशत 90।92 है तो पश्चिम बंगाल में 69.22 जहां कि हिंदी पट्टïी वाले राज्यों से कहीं ज्यादा है। इन्हीं पांच बड़ी पार्टियों में भ्रष्टïाचार और अपराध का भी ज्यादा बोलबाला है। इसे दूसरे रूप में कहें तो, हिंदी प्रदेशों पर राज करनेवाली पार्टियों ने अपनी जिम्मेदारी को न तो गंभीरता से लिया है और न ही वहां के आधारभूत समस्याओं को सुलझाने में अपनी कोई खास रूचि दिखाई है। इससे एक और रोचक बात निकल कर सामने आई कि संसद के दोनों सदनों में करीब सत्तर महिला सांसद हैं लेकिन ये पढ़ाई के मामले में पुरुषों से भी आगे हैं। यह पुरुष प्रधान समाज के अशिक्षित पुरुष सांसदों को अपने पर हंसने के लिए काफी है। महिला सांसदों में जहां गैर-मैट्रिक का प्रतिशत 1.45 है, वहीं पुरुषों में 2.84।
परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, जाहिरतौर पर हरेक क्षेत्र में परिवर्तन हो रहा है। भले ही सियासी हलकों में वंशवाद को हिकारत भरी नजरों से देखा जा रहा है और कांग्रेस को वंशवाद के लिए दोषी ठहराया जाता हो लेकिन राजनीति में जो वंशवाद की नई पौध आई, वह ज्यादा पढ़ी-लिखी आई। उनके पिता भले ही कम पढ़े हों, मगर उनके पुत्र और पुत्री विदेशों से पढ़ाई करके आते हैं। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी इंग्लैण्ड से पढ़कर आए हैं, तो केंद्रीय राज्य मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट, जसवंत सिंह के पुत्र मानवेंद्र सिंह, राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह, मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव, एम। करूणानिधि की पुत्री कानिमोजी करूणानिधि, एच.डी. देवगौड़ा के पुत्र एच.डी. कुमारस्वामी सरीखे नेता उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। जाहिरतौर पर इनके सोचने-समझने की शक्ति औरों से बेहतर होंगी। संसद में युवा बिग्र्रेड ने जिस प्रकार से अपनी छाप छोड़ी है, वह प्रशंसनीय है। इन युवाओं ने आशा की एक नई किरण दिखाई है, जनता को उम्मीद जगाई है। हालांकि, कुछ युवा नेता संसद की कार्यवाही के दौरान अपनी जोरदार उपस्थिति का एहसास करा पाने में सफल नहीं हो सके। कुछेक लोग इसे उनकी संकोची स्वभाव बताते हैं तो कुछ इसे सीखने-समझने का समय कहते हैं। दरअसल, वर्ष 2004 में चुनी गई 14वीं लोकसभा के पांच वर्ष के कार्यकाल में से चार साल पूरे हो चुके हैं, पांचवां साल चल रहा है। इन चार सालों में सदन में राहुल गांधी ने दो, सोनिया गांधी ने चार, धर्मेन्द्र ने शून्य, विनोद खन्ना ने चार और नवजोत सिंह सिद्धू ने केवल चार मामले उठाए। संसद की वेबसाइट में राज्यसभा और चौदहवीं लोकसभा के सदस्यों द्वारा अपने-अपने सदनों में इन चार सालों में किए गए कार्यों के संबंध में दिए गए वर्णन के अनुसार संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी इस अवधि में चार बार बोलीं। इनमें सबसे पहले सोमनाथ चटर्जी के लोकसभा अध्यक्ष बनने पर चार जून 2004 को उनके द्वारा दिया गया बधाई भाषण शामिल है। इसी साल 9 जून को उन्होंने चरणजीत सिंह अटवाल के उपाध्यक्ष बनने पर उनके सम्मान में बधाई भाषण दिया। तत्पश्चात अगस्त 2005 में उन्होंने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना विधेयक पर हुई चर्चा में हिस्सा लिया। लाभ के पद मामले में इस्तीफा दे देने के बाद दोबारा लोकसभा सदस्य चुने जाने पर उन्होंने सदन में 15 मई 2006 को हिन्दी में शपथ ली। सदन के कामकाज के विवरण में उनके बोले जाने के ये कुल चार मामले दर्ज हैं। इन चार साल में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने दो मामले उठाए। 21 मार्च 2005 को उन्होंने उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का मामला उठाया और उसके अगले साल 9 मई को आम बजट पर चर्चा में हिस्सा लिया। इसके अलावा उन्होंने प्रश्नकाल के दौरान तीन सवाल भी किये।
लोकसभा की कार्यवाही के रिकार्ड बताते हैं कि कांग्रेस की यंग ब्रिगेड ने सदन की अपनी जिम्मदारियों को गंभीरता से लिया। नवीन जिंदल ने 34 मामलों की चर्चा में हिस्सेदारी की और 338 प्रश्नों के जरिए विभिन्न मामलों में सरकार से जानकारी ली। सचिन पायलट ने 16 चर्चाओं में हिस्सा लिया और देश में भूख को पूरी तरह से समाप्त करने संबंधी उपायों पर चर्चा के लिए एक प्राईवेट मेम्बर विधेयक भी रखा। जितीन प्रसाद ने पांच विषयों पर चर्चा की और प्रश्नकाल में छह प्रश्न उठाए। कांग्रेस की युवा ब्रिगेड के अन्य सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मंत्री बनने से पहले तक 15 चर्चाओं में हिस्सा लिया और 526 प्रश्न किए। ज्योतिरादित्य की बुआ और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत कुमार अपने ममेरे भाई से कम सक्रिय नहीं रहे। भाजपा के इस युवा सांसद ने 46 चर्चाओं में शिरकत की और 577 प्रश्न सरकार पर दागे। भाजपा सांसद और जसवंत सिंह के पुत्र मानवेन्द्र सिंह ने 38 चर्चाओं में हिस्सा लिया।
सदन की कार्यवाही में जिस प्रकार से संासदों ने भाग लिया उससे स्पष्टï होता है कि राजनीतिक पृष्ठभूमि से आने के बजाए दूसरे किसी क्षेत्र से आने वाले लोग जनहित मुद्दों पर कम बोलते हैं। उनके लिए राजनीति दोयम स्तर की है, प्रथमत: उनका वह काम होता है जिस क्षेत्र से वे आते हेैं। जो नेता आम जनता के बीच से चुनकर आते हैं और खालिस राजनीति की दुकान ही चलाते हैं, वे अपेक्षाकृत जनहित की चर्चाओं में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। चुनावी वर्ष को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भले ही दलितों की कुटिया में जाकर रात बिताते हों, लेकिन भारत की सामाजिक परिस्थिति की पूरी जानकारी उन्हें आज भी नहीं हुई, सदन की कार्यवाही के आंकड़े तो कम से कम यहीं बयां करते हैं। दूसरी बात, अशिक्षित सांसदों को सदन में किस प्रकार चर्चा करनी चाहिए, किस प्रकार के सवाल करने चाहिए - इसकी अवगति भी नहीं के बराबर होती है, सो वे सदन की कार्यवाही में नाममात्र को उपस्थित होते हैं, जिससे उनकी भत्ता आदि मिलती रहे। सरकार की ओर से ऐसे अशिक्षित नेताओं के लिए कई प्रकार की कार्यशालाओं का आयोजन भी किया जाता है।
फिर सवाल यह उठता है कि आखिर अशिक्षित सांसदों को आने से कैसे रोका जा सकता है ? चूंकि आजादी के साठ बरस बीत जाने के बाद भी राजनीतिक पार्टियों ने अपने उम्मीदवारों को तय करने के लिए शिक्षा का कोई एक आधार नहीं बनाया है, उनके लिए उम्मीदवारों के चुनाव का जो आधार है, वह आज भी राजनीति को सड़ा चुका है। ऐसे में एक ही प्रभावी कदम शेष दिखती है, वो है चुनाव लडऩे के जो मानदण्ड तैयार किए गए हैं उसमें सुधार किए जाने चाहिए। यह भी पार्टियों के इच्छाशक्ति के बगैर नहीं हो सकता। कई दफा विभिन्न राजनीतिक दल कहते हैं कि सियासी प्रत्याशियों के लिए भी शैक्षणिक योग्यता को अनिवार्य किया जाए, लेकिन जातिगत और क्षेत्रीय समीकरण के भय से वे इसको अनिवार्य नहीं कर पाते हैं। राष्टï्रीय युवा जनता दल के दिल्ली प्रदेश महासचिव अजीत कुमार पाण्डेय कहते हैं, ''जब तक नेता जी पढ़े-लिखे नहीं होंगे, उस समाज का विकास नहीं हो सकता। समाज में व्याप्त बेरोजगारी और भ्रष्टïाचार के लिए भी अशिक्षा ही जिम्मेदार है। संसद में बैठे प्रतिनिधियों को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे जनप्रतिनिधियों की अनिवार्य शैक्षणिक योग्यता स्नातक हो।ÓÓ अकेले श्री पांडेय ही नहीं जो यह मांग करते हैं, राजनीतिक गलियारों में तमाम ऐसे युवा हैं जो इस सोच से इत्तेफाक रखते हैं लेकिन अपने सियासी आकाओं से कह नहीं पाते और न ही उनकी बातों को फिलहाल तवज्जो दी जा रही है। चुनाव आयोग के पास भी तमाम बुद्घिजीवी आए दिन इस प्रकार की गुहार लगाते हैं, मगर जब तक संविधान में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं की जाएगी, चुनाव आयोग तो बस मूक दर्शक बना अपना काम करता जाएगा। आखिर घंटी कौन बांधे?

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

वह तोड़ती पत्थर ..

समान काम के लिए समान मेहनताना, बालश्रम की मुक्ति और सर्व शिक्षा अभियान के तहत देश के कोने-कोने में शिक्षा की अलख जगाने के दावे झूठे हैं। यह कहना है राज्य के कुछ जिलों के खान क्षेत्र में पत्थर तोडऩे वाली महिला मजदूर, शिक्षक और बच्चों का। इनका एक समूह शीत सत्र में हक पाने के लिए नागपुर आया है। हिस्लॉप कॉलेज के समीप धरने पर बैठे हैं। वे कहते हैं प्रतिबंध के बावजूद पत्थर क्षेत्रों में बाल मजदूरी जारी है। सरकारी स्कूल हैं। पर इतनी दूर कि बच्चे नहीं जाना चाहते। स्वयंसेवी संगठनों के सहयोग के पत्थर खानों के आसापास ही छोटे-छोटे स्कूल चलते हैं। मान्यता और अनुदान नहीं मिलने के कारण स्वयंसेवी शिक्षकों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। महिला-पुरुष की मजदूरी के भुगतान राशि में भी अंतर है। असंगठित क्षेत्र की श्रेणी में आने के कारण इन मजदूरों के पास न तो राशन कार्ड है और न ही मतदाता सूची में नाम। वोट कहां और किसी लिए डालते हैं? पता नहीं है। ये तो बस एक गैर-सरकारी संगठन के कहने पर नागपुर आए हैं। खान क्षेत्र में खुले आसमान के नीचे यत्र-तत्र चल रहे स्कूलों की मान्यता के नारे लगा रहे हैं। धरने में बैठी शिक्षिकाओं को उम्मीद है कि उनके नारे सरकार जरूर सुनेगी और शिक्षा की अलख जगाने का पारिश्रमिक भी मिलेगा। खान क्षेत्रों में पढ़ाने वाले शिक्षकों में अधिकतर महिलाएं हैं।
एनजीओ की सचिव पल्लवी रेगे ने बताया कि खनिज कानून 1952 के अनुसार इस 18 साल से कम उम्र के लोगों का काम करना प्रतिबंधित है। प्रतिबंध के बाद भी राज्य के विभिन्न खान क्षेत्रों में 18 साल से कम उम्र के करीब दस लाख लड़के-लड़कियां कार्यरत हैं। अधिकतर मजदूर खान क्षेत्रों में रहते हैं। बच्चे भी पत्थर तोडऩे में लग जाते हैं। सरकारी स्कूल हैं, पर बहूत दूर। वहां वे पढऩे नहीं जाना चाहते। थोड़े से पैसे के लालच में इनका बचपन पत्थर तोडऩे में गुजर जाता है। श्रीमती पल्लवी का कहना है कि सरकारी योजना होने के बाद भी मजदूरों के कल्याण के लिए कोई योजना नहीं चलती हैं। चिकित्सा की सुविधा उपलब्ध नहीं कराई जाती है।
श्रीमती पल्लवी रेगे कहती हैं कि पत्थर खदान के मालिक, ठेकेदार सामाजिक कार्यकर्ताओं को मजदूरों से मिलने नहीं देते हैं। खान क्षेत्र में ही मजदूरों के बच्चों को इस शर्त पर पढ़ाने के लिए अनुमति देते हैं कि वे दूसरे कार्यों में किसी तरह की दखल नहीं देंगे। श्रम विभाग की टीम आने की सूचना इन्हें पहले ही मिल जाती है। तुरंत कुछ मजदूरों के लिए हेल्मेट, जूते आदि की व्यवस्था कर देते हैं। बाकी को छुट्टी दे देते हैं।
पुणे के खान क्षेत्रों में पढ़ाने वाली शिक्षिका सरोजना कुटे ने बताया कि मजदूरों के बच्चों में पढऩे की रुचि नहीं है। फिर दूर के स्कूलों में जाने की बात दूर की है। स्वयंसेवी संगठन की ओर इन बच्चों को पथरीले क्षेत्रों में ही किसी पेड़ के नीचे या पत्थर पर ही इकठ्ठा करके पढ़ाने की कोशिश चलती है। इस काम के लिए एजनीओ की ओर से कुछ वेतन भी मिलता था। अब वह भी बंद हो गया।
सतारा के कराड तालुका के सुरली गांव के खान क्षेत्र में पढ़ाने वाली भारती मोरे कहती हैं कि मजदूर सुबह छह बजे घर से निकल जाते हैं और शाम छह बजे वापस आते हैं। इस बीच उनके बच्चे इधर-उधर खेलते रहते हैं। कई बार हम लोग घूम-घूम कर इन बच्चों को इकठ्ठा कर पढ़ाने की कोशिश करते हैं।
कोल्हापुर की सुरखा माली भी कुछ ऐसी ही कहती है। उनका कहना है कि जिन क्षेत्रों में वे पढ़ाने जाती हैं, वहां खान मजदूरों के करीब 100 बच्चे पढ़ते हैं। स्कूल के नाम पर कोई भवन नहीं है। इधर-उधर बच्चों को बैठा कर पढ़ाते हैं। सर्व शिक्षा अभियान के तहत मिलने वाला पोषहणार अभी यहां तक नहीं आया है। कोल्हापुर की खान मजदूर सकू हरसुड़े कहती है कि पत्थर तोडऩे की एक दिन की मजदूरी 40 रुपये है। पुरुषों को इसी काम के लिए 60 रुपये मिलते हैं। कभी-कभी ठेकेदार से ही एक ट्रॉली भरने का ठेका मिल जाता है। जिसमें परिवार के हर सदस्य मिल कर पूरा करते हैं। इसमें बच्चे भी शामिल होते हैं। सुनीता निवल की उम्र करीब 13 साल है। आठवीं कक्षा में पढ़ती है। बड़ी होकर स्कूल खोलने का सपना है। सुनीता ने बताया कि कभी-कभी मम्मी-पापा के साथ खदानों में पत्थर तोड़ती है। कुछ महीने पहले की बात है। पत्थर तोडऩे के दौरान उसके भाई का पांव टूट गया। ठेकेदार ने पैसे भी नहीं दिए।
श्रम कल्याण कार्यालय के पास जिम्मेदारी नहीं
सेमिनरी हिल्स स्थित सीजीओ कॉम्पलेक्स के श्रम कल्याण कार्यालय के गेट पर खान मजदूरों के कल्याण के लिए ढ़ेरों योजनाओं की सूची एक बोर्ड पर लिखी है। पूछने पर यहां के एक अधिकारी ने बताया कि विभाग की कल्याणकारी योजनाएं लौह मैगनीज, क्रोम अयस्क, डोलोमाइट, चूना पत्थर और बीड़ी मजदूरों के लिए ही है। पत्थर खदानों में कार्यरत मजदूरों के कल्याणकारी योजनाएं उनके पास नहीं है।
असमान मजदूरी के सौ से अधिक मामले दर्ज
क्षेत्रिय श्रम आयुक्त (केंद्रीय) उमेश चंद ने बताया कि इन क्षेत्रों में जब भी कोई जांच टीम जाती है। वाहन आते देख मजदूर इधर-उधर बिखर जाते हैं। कोई बच्चा मिलता है तो पूछताछ पर वे तरह-तरह के बहाने बनाते हैं। कोई कहता है मिलने आए थे, तो कहता है इन्हीं पत्थरों से खेल रहे थे। यदि कोई मामला दर्ज भी कर लिया जाता है तो कठिनाई उसे कोर्ट में सिद्ध करने में होती है। सारे प्रमाण उन क्षेत्रों में तत्कालीन होते हैं। महिला-पुरुष असमान मजदूरी के बारे में हमेशा जांच पड़ताल होती है। इस मामले में इस साल सौ से भी आधिक मामले दर्ज हुए।
समस्या से अनजान हैं विधायक
धरने पर बैठी महिलाओं से मिलने लातूर जिले के अहमदपुर विधानसभा क्षेत्र के विधायक बब्रुवान खंदाड़े, गंगाखेड परभणी के विठ्ठïल गायकवाड, और चौसाला बीड के विधायक किशव राव आंधले, हेर लातूर के टी।पी. कांबले मिलने आए। पूछने पर बताया कि आज तक उन्हें इस बात की जानकारी ही नहीं थी कि खान क्षेत्रों में इस तरह से महिलाओं का शोषण हो रहा है। इस मामले में पहली बार ज्ञापन प्राप्त हुआ है।
2020 तक 7।5 लाख लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार की संभावना
वर्ष 1999-2000 में राज्य में प्राथमिक खनिजों के लिए 250 और गौण खनिजों के लिए 1772 लाइसेंस मिला था। इससे राज्य सरकार को 30 करोड़ रुपये राजस्व प्राप्त हुआ था। 421041 लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ था। अनुमान है कि वर्ष राज्य के खनिज क्षेत्रों से 2020 तक 112320 लाख रुपये राजस्व में प्राप्त होगा। 7।5 लाख लोग प्रत्यक्ष रोजगार से जुड़ेगे। खनिज क्षेत्र से जुड़े मजदूरों में करीब आधी संख्या महिलाओं की हैं।



- संजय कुमार

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

आस्था के प्रश्न

मत कुरेदो आस्था के प्रश्न को
जख्म हरे हैं अभी
कभी नहीं भर पाएंगे
सोचो,
ये आस्था के श्रोत कहाँ हैं
पूछो अपने विवेक से
सदियों से, कहानियों से
चली आ रही लोरियों से नहीं
पूछो अपने आप से
एक कुँवारी कन्या से
कैसे बन जाती है माँ
विषैले वृक्ष ने
कहाँ से मीठा फल पाया
कीचड़ और गुलाब का संबंध
मस्तिष्क के किस कोने में सही उतरता है
क्या हमारा नैतिक संस्कार
इसकी इजाजत देता है
करो मंथन और बनो विद्रोही
अपने अंदर पैदा करो एक आग
जो नापाक ग्रंथों को राख कर दे
जिनकी पृष्ठभूमि
नफरत और आतंक के
बूते तैयार की गई हो
विधर्मी का सर-कलम
या धार्मिक पराधीनता
वहशीपन की हद ही तो है
और इस घृणा का प्रचारक
किसी दरिंदे से कम नहीं
हवा में तैर रहा है प्रश्न
आखिर करोड़ो देवताओं को
किसने पैदा किया?
बाँटकर देखो
क्या प्रत्येक सर पर
एक देवता बैठता है
समान लहू वाले लोगों के अंदर
आस्था न पनपने देने का फरमान
किसने जारी किया?
जानता हँू
तुम्होर पास
उन प्रश्नों का जवाब
हो ही नहीं सकता
जिसके लिए
तर्क की तह में उतरना पड़े
आतंकित-आरोपित भावुकता ने
सदा से ही
अक्ल को बोझ माना है
तभी तो हम
दोजख के डर से
आरोपित सत्य के विरूद्घ
कुछ कहना-सुनना
बर्दाश्त ही न कर पाते
नियति की विडम्बना तो देखो
बुर्के में कैद
संकीर्ण विचारधारा की निगरानी में
हमें सदा से ही
विशाल फलक दिखाया जा रहा है
जहाँ शब्द अर्थहीन हैं
और
अभिव्यक्ति पर बंदिश लगी है।
- विपिन बादल

सोमवार, 24 अगस्त 2009

कुपोषण बनता जा रहा है चुनौती


स्वस्थ नागरिक राष्टï्र की सबसे बड़ी संपत्ति होते हैैं। यदि नागरिक स्वस्थ होंगे तो सभी राष्टï्रीय उत्पादकता में वृद्घि होगी व राष्टï्र का विकास होगा । सदियों पुरानी कहावत हैै स्वास्थ्य ही धन हैै। उत्तम स्वास्थ्य का लक्ष्य पाना, वास्तव में किसी भी व्यक्ति व राष्ट्र के लिए एक बडी उपलब्धि होती हैै। इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्र ये उठता है कि अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी क्या है ? संतुलित आहार व पौष्टिक भोजन बहुत हद तक अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी का काम करता हैै। इससे हमारे शरीर रूपी ईंजन को ईंधन मिलता हैै वह अच्छे तरीके से काम करता हैै। पूर्ण, समृद्घ व समग्र जीवन का आनंद उठाने के इच्छुक किसीभी व्यक्ति के लिए संतुलित भोजन की पर्याप्त मात्रा अत्यंत आवश्यक हैै। पिछले वर्षो में पोषण की अवधारणा में व्यापक परिवर्तन आया हैै।

18वीं सदी में माना जाता था कि सभी भोज्य पदार्थों में एक ही प्रकार के तत्व पाए जाते हंै। फिर कार्बोहाइड्रेटस, प्रोटीन और वसा जैसे ततवों की खोज हुई।इसके प्रोटीन व अमीनों एसिडस के बारे में पता चला। इसके बाद एक बडी खोज के रूस्प में सूक्ष्म पोषक तत्वों यानि विटामिनों का पता लगाया गया। पोषक तत्वों की कमी होनेवाली बीमारियों का मुकाबला करने की तकनीक का पता चलने के बाद पोषण की समूची अवधारणा बदल गई और इन तत्वों की कमी से होने वाली बीमारियों से अनेक लोगों की जान बचाने में मदद मिली।

मानव की बदलती जीवन शैली के चलते रोग विज्ञान के क्षेत्र में भी अनेक परिवर्तन हुए हैैं। आज विकासशील देशों को कुपोषण से होनेवाली बीमारियों का सामना करना पड़ रहा हैै। ये ऐसी बीमारियां हैैं जो भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों के अभाव के कारण पैदा होती है। इन देशों में भोजन की मात्रा कम होने से भी समस्याएं सामने आई। कुपोषण से अनेक राष्ट्रों का विकास अस्त व्यस्त हो गया हैै।

यूनिसेफ की 2004 की रिपोर्ट मेें कहा गया है कि विकासशील देशों में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की कुल मौतों में से आधी मौतें कुपोषण के कारण होती हैै। कुपोषण जिसे पोषाहार की कमी भी कहा जाता है, का गंभीर दुष्प्रभाव लगभग उसी उम्र के लोगों पर पड़ता है। किंतु बच्चों, किशोरों और गर्भावस्था तथा बच्चे को सर्वाधिक विनाशकारी होता हैै। भारत भी उन्हीं विकासशील देशों में से एक है, जिसे कुपोषण का सामना करना पड़ रहा है। यदि मध्यप्रदेश की बात करें तो धार, झबुआ, बैतूल, बालाघाट, शिवपुरी व छिंदवाड़ा आदि जिलों में कुपोषण एक गंभीर समस्या बन चुकी हैै। इनके कई गांवों में तो यह महामारी बन चुकी हैै। आदिवासी इलाकों में कुपोषण की दर 6।4 फीसदी से 10.3 फीसदी हैै। हालांकि कुपोषण से निजात पाने के लिए बाल संजीवनी अभियान, दीनदयाल अंत्योदय योजना, जननी सुरक्षा योजना, बाल सुरक्षा जैसी कई योजनाएं चलाई जा रही है। इनसे कुुछ हद तक फायदा हुआ है। आदिवासी क्षेत्र बहुत पिछड़े व अशिक्षित हैं। इनमें अंधविश्वास कूट-कूट कर भरा होता हैै। अत: इन लोगों को कुपोषण के खतरों से अवगत कराने के लिए अभियान चलाया जाना आवश्यक हैै। साथ ही सरकार गरीबों के कल्याण के लिए जो योजनाएं चला रही है, इनका लाभ गरीबों तक पहुंच पाता है या नहीं, यह पता लगाना बहुत जरूरी है, अन्यथा बच्चे तथा महिलाएं इसी कुपोषण का शिकार होकर मौत की बलि चढ़ते रहेंगे।

शनिवार, 22 अगस्त 2009

भाजपा में गर्मी का एहसास

शिमला की हसीन वादियां, जहां देश के अन्य हिस्सों के अपेक्षा सर्दी का एहसास होता है। शायद यही कारण था कि भाजपाइयों ने अपने अन्र्तमन की तपिश और एक-दूसरे के प्रति कटुभाव को समाप्त करने के लिए चिंतन बैठक का आयोजन यहां किया। जब बात 'अपनोंÓ के बीच 'अपनोंÓ के छल-छद्मों की होती है खुले मैदान में नहीं होती। चारदीवारियों के बीच होती है। तभी तो शिमला का कोई सभागार नहीं लिया गया और न ही बंगलुरू की तर्ज पर नए स्थल का पंडालों के सहारे निर्माण किया गया। अभूतपूृर्व सुरक्षा और गोपनीयता को ध्यान में रखकर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने कई होटल का बंदोबस्त किया था। तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद भाजपाई अपने अंर्तमन की ज्वाला को शांत नहीं कर पाए। तीन दिनों के चिंतन बैठक के बाद भी भाजपा ने एक बार फिर अपने सामने मौजूद असल सवालों से आंख चुराने की कोशिश की। जिन्ना प्रकरण को लेकर पार्टी अलाकमान ने जसवंत को निकालने में जहां एक दिन का भी समय नहीं लिया, वहीं पार्टी के आंतरिक ताने-बाने को एक बार फिर समय के हवाले कर दिया।
यूं तो शिमला पहुंचते ही शीर्ष भाजपइयों में एकमत हो गई थी कि जसवंत सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए, जिसके केंद्र में मुरली मनोहर जोशी, अरूण जेटली और सुषमा स््रवराज माने जाते हैं। अरूण जेटली तो काफी समय से जसवंत सिंह से खुन्नस खाए हुए थे।पार्टी के अंदर नूराकुश्ती चल ही रही थी कि कि सरसंघचालक मोहन भागवत की ओर से पहली बार सार्वजनिक रूप से दी गई नसीहत और हार का पता लगाने के लिए पार्टी उपाध्यक्ष बाल आप्टे की अगुवाई बनाई समिति की रिपोर्ट के मद्देनजर चिंतन से पहले ही जसवंत सिंह पर कार्रवाई करने का मन बना लिया गया था , तभी तो राजनाथ सिंह ने कहा भी कि मैं जसवंत सिंह को पहले ही बताना चाहते था कि वह चिंतन बैठक के लिए शिमला न पहुंचे लेकिन तब तक वह निकल चुके थे। दरअसल , जसवंत सिंह को भाजपा से निकालकर पार्टी एक तीर से कई शिकार करना चाहती है। पार्टी ने अपने एक दिग्गज नेता को निकालकर अनुशासन तोडऩे वाले बाकी लोगों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि अनुशासन का चाबुक किसी पर भी चल सकता है। दूसरी तरफ पार्टी यह भी जानती है कि जसवंत को निकाले जाने से उसके ऊपर कोई खास असर नहीं पडऩे वाला है। जसवंत लंबे समय से राज्यसभा की ही राजनीति करते रहे हैं और उनका कोई खास जनाधार भी नहीं है।
वैसे ऐसा लगता है कि समय ने अपना चक्र पूरा कर लिया है। जिन्ना पर टिप्पणी करने से पार्टी के सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी के अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा था और मुंबई में हुए पार्टी के सिल्वर जुबली समारोह में राजनाथ सिंह की ताजपोशी हुई थी। अब जब राजनाथ सिंह का पार्टी के अध्यक्ष पद का कार्यकाल पूरा होने को है, जसवंत सिंह की किताब- 'जिन्ना : भारत, विभाजन, आजादी' से निकलकर जिन्ना का जिन्न फिर आ खड़ा हुआ है। राजनीतिक पर्यवेक्षक, रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और वित्त मंत्री बनाने के बाद जसवंत सिंह को बेआबरू करके पार्टी से निकाल दिया। अभी देखना यह भी बाकी है कि जसवंत को पार्टी से निकालने के कदम का असर राजस्थान में क्या होता है।
बहरहाल, लोकसभा चुनाव में हार के कारणों पर जब पार्टी में बहस की मांग उठी तो इसे टाल दिया गया। कहा गया कि इस पर अगस्त में चिंतन बैठक में चर्चा होगी। लेकिन इस अवसर पर भी पार्टी ने उन मुद्दों से कतराना बेहतर समझा जिन पर विचार के लिए बैठक बुलाई गई थी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इसकी वजह यह है कि जसवंत सिंह की कितबा पर उठे विवाद ने पार्टी को एह असहज स्थिति में ला खड़ा किया और ऐसे में बैठक का एजेंडा बदल गया? मगर यह किताब इन दिनों न आई होती तब भी बैठक का रूख यही होता। दरअसल, लोकसभा चुनाव में पराजय के कारणों की पड़ताल के लिए बाल आप्टे की अध्यक्षता में जो समिति बनाई गई थी उसकी रिपोर्ट भाजपा नेताओं के लिए बेहद असुविधाजनक है। सच तो यह है कि इस रिपोर्ट में हार के लिए नेताओं की आपसी खींचतान और धड़ेबाजी की को जिम्मेदार ठहराया गया है। राजनीतिक हलकों में जसवंत सिंह के निष्कासन को भी इसी रिपोर्ट से जोड़कर देखा जा रहा है। तभी तो भाजपा की चिंतन बैठक में उस आत्मचिंतन की धुंधली झलक नजर आई है, जिसकी मांग जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे नेता कर रहे थे। सच का सामना करने की इस पहली ऑफिशल कोशिश का नाम है- 'आप्टे रिपोर्ट।Ó तभी तो लोकसभा चुनाव में हार की वजहों की जांच के लिए वरिष्ठ नेता बाल आप्टे की अगुआई में बनी कमिटी की रिपोर्ट शिमला में गुपचुप तरीके से बांटी गई। गौरतलब है कि अरुण जेटली ऐसी कमिटी के होने से ही इनकार करते हैं। बहरहाल इस रिपोर्ट में कोई नतीजा निकालने से बचा गया है और कुछ संभावित वजहें पेश की हैं, जिन पर चर्चा होनी चाहिए।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

दांपत्य जीवन में क्यों आतें हैं वो


दुनिया की सबसे अनूठी, सबसे कीमती और सबसे रोमांचक अनुभूति है प्रेम! प्रेम जब भी जन्मता है, अनायास जन्मता है। यह न वक्त का ख्याल करता है, न परिवेश का! यह न जाति देखता है न धर्म, और न ही किसी और बंधन को मानता है। तमाम बंदिशों को तोड़कर नए बंधन का सृजन करता है। तभी तो प्रेम हरेक की बूते की बात नहीं है। इसी बूते को हासिल करने के फिराक में कई लोग भीड़ से कुछ अलग करने की चाह रखते हैं। यह अलग ही उन्हें वाकई औरों से अलग कर देता है। अलगाव के कारण कई अनिमंत्रित, अपेक्षित प्रसंग भी जुड़ते चले जाते हैं जिसका इल्म इनसान को विलंब से होता है।

माना कि प्रेम अंधा होता है, लेकिन यह तार-तार भी नहीं होता। उसकी अभिव्यक्ति के माधुर्य में सरसता भी घुली होती है। जिसे कई लोगों ने नहीं समझा। साफ है कि जब पति-पत्नी के संबंधों के बीच में तीसरे का आगाज होता है और स्थितियां नियंत्रण के बाहर जाने लगती है, तो प्रतिशोध की स्थिति आने से पहले पत्नी-पति को उसके अधिकार से वंचित करती है। अधिकार ग्रहण और दमन के कई अनपेक्षित प्रसंग आते जाते हैं।

पति-पत्नी का संबंध बहुत ही नाजुक माना जाता है। एक सुखी गृहस्थ जीवन के लिए यह अत्यन्त ही आवश्यक है कि पति-पत्नी एक दूसरे पर विश्वास करें और एक दूसरे के प्रति ईमानदार रहें। बहुत से परिवारों में पति-पत्नी के बीच कलह का कारण पति-पत्नी और 'वोÓ का मसला भी होता है। सबसे पहले इस कारण को जानना आवश्यक है कि पति-पत्नी के बीच में वो का आगमन क्यों होता है? अनेक मनौवैज्ञानिकों का मानना है कि पति-पत्नी के बीच में मधुर संबंध न होना, सेक्स संबंध की अपूर्णता तथा आपसी सदभावना की कमी के कारण ही पति या पत्नी के बीच में 'वोÓ का आगमन होता है। बात-बात पर पति का पत्नी पर शक करना या पत्नी का पति पर शक करना उचित नहीं होता। अगर किसी प्रकार का कोई मतान्तर है तो उसे आपस में बैठकर हल कर लेना पति और पत्नी दोनों के हक में अच्छा होता है। छोटी-छोटी बातों पर एक दूसरे के प्रति शंका उत्पन्न करना एवं मतान्तर को बढ़ाते रहना 'वोÓ के मार्ग को प्रशस्त करता है।

कई मामलों में ऐसा होता भी है , जब कोई स्त्री दूसरे आदमी के लिए और पुरुष , दूसरी औरत के लिए अपना घर-परिवार और सुख-सुविधा सबकुछ छोड़ देते है। आखिर क्यों ? आखिर इस विवाहेतर-प्रेम में उसे क्या मिल रहा है , जो कोई अपना सबकुछ छोडऩे पर उतारू हो जाता है ? यह जानने के लिए हमें यह देखना होगा कि हमारे यहां शादियां कैसे होती हैं। पारंपरिक शादियों में पति-पत्नी एक-दूसरे से जो पाते हैं , उसमें पाने का सुख तो होता है लेकिन विजय का गर्व नहीं। पति-पत्नी दोनों जानते हैं कि उनके बीच रिश्ते का जो पुल है , वह जाति , खानदान , हैसियत , कुंडली , दहेज़ , बिजऩेस , खूबसूरती आदि कितने ही खंभों पर खड़ा है। दुल्हन को शादी के सात फेरे लेते हुए यह पता होता है (और जीवन भर याद रहता है) कि अगर उसके पिता ने मुंहमांगा दहेज़ नहीं दिया होता तो यह बारात किसी और लड़की के घर गई होती। दूल्हे को भी यह पता रहता है कि वह अगर इतनी अच्छी नौकरी में नहीं होता या उसका बिजऩेस न होता तो आज यह खूबसूरत लड़की किसी और लड़के के गले में वरमाला डाल रही होती। इसीलिए पारंपरिक शादी में अक्सर रोमांच का अभाव रहता है। मियां-बीवी दोनों जानते हैं कि उन्हें एक-दूसरे से क्या , कितना और क्यों पाना है। उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं रहता कि उन्हें एक-दूसरे से जो मिल रहा है , उसी में संतुष्ट रहें। ज़्यादातर लोग ऐसी ही नीरस जि़ंदगी जी रहे हैं।

लेकिन कुछ खुशकिस्मत होते हैं जिनकी लाइफ में अचानक कोई खास आ जाता है जैसा कि दोस्त की प्रेमिका के साथ हुआ। यह तीसरा वह सबकुछ देता है जो पति को अपनी पत्नी से या पत्नी को अपने पति से नहीं मिल रहा है। ऐसी ही स्थिति में बीज पड़ता है निषिद्ध प्रेम का - प्रेम जो समाज की नजऱों में गुनाह है। लेकिन इस प्रेम का नशा ही कुछ और है क्योंकि इसमें जीत का एहसास है। इस प्रेम संबंध में हमें तीसरे से जो मिलता है , वह साते फेरे के रिश्ते की वजह से नहीं , किसी सामाजिक समझौते के कारण नहीं , किसी दैहिक ज़रूरत के चलते नहीं , वह मिलता है क्योंकि उस तीसरे में हममें कुछ खास पाया। इस प्रेम में एक उपलब्धि है क्योंकि उस तीसरे ने लाखों लोगों में हमें चुना है।

कहा जा सकता हैकि शायद ऐसा वहीं होता है जहां पति-पत्नी में नहीं पटती हो यानी दोनों में प्यार न हो। सवाल यह उठ सकता है कि क्या ऐसे कपल्स की जि़ंदगी में भी कोई वो आ सकता है जहां दोनों में पूरा प्यार और विश्वास हो ? क्यों होता है ऐसा ? क्योंकि संसार में कोई भी परफेक्ट नहीं होता। लव मैरिज में भी दो व्यक्ति एक-दूसरे को इसलिए नहीं अपनाते कि दोनों दुनिया के सर्वश्रेष्ठ स्त्री-पुरुष हैं। दोनों एक-दूसरे को इसलिए चुनते हैं क्योंकि जीवन के किसी मोड़ पर दोनों ने एक-दूसरे को अपने अनुकूल पाया। लेकिन दुनिया में एक-दो या सौ-दो सौ लोग नहीं बल्कि करोड़ों लोग हैं। ऐसा बिल्कुल मुमकिन है कि आज कोई लड़की आपको बहुत अच्छी लगी और आपने उससे शादी कर ली लेकिन साल , दो साल बाद कोई और लड़की मिली जिसमें कुछ और खासियतें हैं जो आपकी खुद की चुनी पत्नी में नहीं , और आपको वह भी अच्छी लगने लगे। यही हाल किसी लड़की का भी हो सकता है जिसने किसी लड़के को खुद चुना हो लेकिन कुछ सालों बाद कोई और लड़का उसे अच्छा लगने लगे क्योंकि उसमें कुछ और खूबियां हों। कहने का मतलब यह कि पारंपरिक शादी हो या लव मैरिज , जि़ंदगी में किसी तीसरे के आने के चांसेज़ हर जगह हैं। कहीं बात बढ़ती है , कहीं दबकर रह जाती है क्योंकि प्रेमी या प्रेमिका के लिए परिवार तोडऩा बहुत कम लोग चाहेंगे। ऐसे में ज़्यादातर रिश्ते गुपचुप ही चलते हैं। कुछ हिम्मतवाले समाज की परवाह किए बिना आगे भी बढ़ जाते हैं।

फ्र ायड ने कहा था कि सेक्स रचनात्मकता की प्रेरणा है। उसकी बात सिद्धांत रूप में सही है या नहीं, यह मनोशास्त्रियों का विषय है लेकिन व्यावहारिक जीवन में दुनिया के कई साहित्यकारों का जीवन इस अवधारणा को सच साबित करता है। तभी तो उन्हें पत्नी के अलावा एक या अनेक प्रेमिकाओं की जरूरत महसूस होती है।

कई हैरतअंगेज वाकये चौंकातें हैं जब सुनने में आता है कि बड़े और परिपक्व बच्चों की माताओं तक से शादी करने के लिए जवान कुंवारे तैयार खड़े हैं। अब इस तरह की खबरों में कोई भी अनहोनी बातें नहीं रह गई। विवाहोत्तर संबंध भी अब खूब फल-फूल रहे हैं। यही गति रही तो यकीनन कुछ वर्षों में ही समाज पूर्ण रूप से बदल चुका होगा। वैवाहिक संस्थाएं खत्म हों न हों लेकिन उसका स्वरूप परिवर्तित होगा। इन परिवर्तन के विरोध में कहने वाले तमाम लेखकों को अगर टटोल कर पूछा जाये जो वे स्वयं अपनी जवानी में किसी न किसी नारी से मित्रता और संबंध बनाने के लिए उतावले रहे होंगे। उनमें से कइयों को मौका नहीं मिला होगा तो कई ने छुपकर अचानक मिले अवसरों का लाभ अवश्य उठाया होगा। चूंकि, पहले घर से बाहर स्त्री का निकलना संभव नहीं था। कई परिवार परामर्शदाता मान रहे हैं कि एक ऐसे अविश्वास के चलते शादियां टूटने के आंकड़े बढ़ रहे हैं जो है भी और नहीं भी, इसे वर्चुअल इनफिडेलिटी कहते हैं। पसंद का अलग होना, एक दूसरे को समय न देना और सैक्स संतुष्टि न होना जैसी चीजें इस अलगाव के कारण माने जा रहे हैं। यानी शादी के बाद पति और पत्नी एक सांझा जिंदगी जीने के बजाय अलग-अलग जिंदगी या सेकेंड लाइफ बिता रहे हैं और इसकी जिम्मेदारी एक दूसरे पर थोप रहे हैं। काउंसलर मानते हैं कि ऐसे मामले बढ़ रहे हैं। एक केस ऐसा आया है, जिसमें एक पत्नी ने कहा कि उसके पति ने इंटरनेट पर जाकर एक अन्य महिला की छवि के साथ पत्नी का रिश्ता कायम कर लिया है और यह उसके साथ बेईमानी है। जबकि उसके पति के अपने तर्क हैं। पति का कहना है कि वह उस महिला से कभी न तो मिला है और न वह मिलने की ही कोई योजना बना रहा है। उसकी यह सेकेंड लाइफ बिल्कुल उसी तरह है जैसे उसकी पत्नी टीवी देखते हुए खो जाती है और उसे भूल जाती है। उधर, पत्नी का तर्क है कि यह वर्चुअल मैरिज ही सही, लेकिन वह महिला और उसका पति एक दूसरे के लिए वास्तविक धन खर्च कर रहे हैं। पति और पत्नी के बीच आने वाली तीसरी महिला का कहना है कि हम दोनों के बीच गहरा विश्वास है और दोनों एक-दूसरे से हर बात साझा करते हैं। पति के नजरिए से देखें, तो वह अपनी पत्नी को नजरअंदाज कर जिन महिलाओं के साथ रिश्ता बना रहा है वे उसकी कल्पनाओं में न्यूड डांसर्स और उत्तेजक महिलाएं हो सकती हैं जबकि उसकी पत्नी नहीं। पत्नी का तर्क यह भी है कि उसके पति का रात दिन इन्हीं महिलाओं की छवियों के साथ मशगूल रहना आदत नहीं बल्कि उसकी जिंदगी है।

असल में मनुष्य प्राकृतिक रूप से स्वतंत्र है। वह अपने संबंधों में कभी भी बंधा हुआ नहीं रहना चाहता। परिवर्तन उसका नैसर्गिक स्वभाव है और नयापन उसकी चाहत। हकीकत है कि इस शारीरिक भूख, जिसे मृगतृष्णा कहकर हंसी में उड़ा दिया जाता है, को समाप्त कर दिया जाये तो जीवन नीरस हो जायेगा। वैसे तो यह संभव नहीं लेकिन अगर ऐसा हो भी गया तो न तो कोई संबंध रहेगा, न ही कोई बंधन और न ही कोई परिवार और समाज। यह नैसर्गिक चाहत और इसी छटपटाहट के कारण मनुष्य स्वयं की बनाई पारंपरिक व्यवस्थाओं के विरोध में अनैतिक व सामाजिक विद्रोह करता रहा है। आज कई परिवार के अंदर झांक कर देखें तो जो टूट नहीं चुके हैं वे टूटने की कगार पर हैं या फिर घुटन इतनी है कि लोग उससे निकलना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि सभी परिवार से विमुख हैं, कइयों में भावनाएं हैं, जिस कारण से वे दु:खी होते हुए भी साथ रहना पसंद करते हैं। अन्यथा कइयों के साथ मुश्किल इस बात की है कि उनके पास रास्ते नहीं है। नयी मंजिल नहीं है। शारीरिक और मानसिक शक्ति नहीं है। और जिस दिन जिस किसी को भी यह प्राप्त होती जा रही है वह परिवार के बंधन से टूटकर भाग रहा है। इस सत्य को हमें स्वीकार करना होगा।

बुधवार, 19 अगस्त 2009

देश : और टूटेगा

क्या हम 22 दिसंबर 1953 को गठित राज्य पुनर्गठन आयोग के सबक को भूल गए हैं? इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 30 सितंबर 1955 को सौंपी थी। इसके तीनों सदस्यों-जस्टिस फजे अली, हृदयनाथ कुंजरू और केएम पाणिक्कर की निष्पक्षता पर किसी को संदेह नहीं था। तब विपक्ष कमजोर था और कांग्रेस का वर्चस्व था। फिर भी आयोग की रिपोर्ट आने के बाद मुंबई, अहमदाबाद और कई अन्य स्थानों पर दंगे भड़के थे। हाल ही में दस नए प्रदेशों के लिए अचानक दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग के गठन की मांग उठी है। पहले से ही कई समस्याओं से जूझ रहे हम लोग क्या ऐसा विभाजनकारी कदम उठा सकते हैं? आखिर इसका फायदा भी क्या होगा?
समुचित विकास और बेहतर प्रशासन के लिए छोटे राज्यों के गठन की मांग और उस पर की जाने वाली राजनीति नई नहीं है। ऐसे में केंद्र सरकार के पास 10 नए प्रदेशों की मांग कोई आश्चर्य नहीं पैदा करता है। केंद्रीय गृहमंत्रालय का कहना है कि बिहार से मिथिलांचल, गुजरात से सौराष्ट्र और कर्नाटक से कूर्ग राज्य अलग बनाने सहित कम से कम दस नए प्रदेशों के गठन की मांग की गई है। मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि ये मांगें तेलंगाना राष्ट्र समिति और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा जैसे अन्य संगठनों और व्यक्तिगत लोगों से मिली हैं। अधिक मुखर संगठन टीआरएस ने आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र को मिलाकर तेलंगाना राज्य बनाने की मांग कुछ वर्ष पहले रखी थी। वहीं जीजेएम पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग और आसपास के क्षेत्रों को मिलाकर गोरखालैंड बनाने को दबाव डाल रहा है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बांदा चित्रकूट झांसी ललितपुर और सागर जिले को मिलाकर बुंदेलखंड राज्य बनाने की मांग लंबे समय से मंत्रालय के पास लंबित है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों को मिलाकर हरित प्रदेश या किसान प्रदेश के गठन को लेकर भी मांगें की गई हैं। पश्चिम बंगाल और असम के क्षेत्रों को मिलाकर वृहद कूच बिहार राज्य, महाराष्ट्र से विदर्भ राज्य, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों को मिलाकर भोजपुर राज्य बनाने की मांग भी की गई है। एक और मांग सबसे खुशहाल प्रदेश गुजरात से सौराष्ट्र राज्य अलग बनाने की है जो पिछले कई वर्ष से मंत्रालय के समक्ष लंबित है।
छोटे प्रदेशों के पैराकारों का मानना है कि जनसंख्या एवं क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत के प्रदेशों के आकारों में बड़ी विषमता है। एक तरफ़ बीस करोड़ से भी अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश जैसे भारी भरकम राज्य तो वहीं सिक्किम जैसे छोटे प्रदेश जिसकी जनसंख्या मात्र छ: लाख है। इसी तरह एक ओर राजस्थान जैसा लंबा चौडा राज्य जिसका क्षेत्रफल साढे तीन लाख वर्ग किमी है वहीं लक्षद्वीप मात्र 32 वर्ग किमी ही है । किंतु तथ्य बताते हैं कि छोटे प्रदेशों में विकास की दर कई गुना अधिक है। उदाहरण के लिए बिहार की प्रति व्यक्ति आय आज मात्र 3835 रु है जबकि हिमाचल जैसे छोटे राज्य में यही 18750 रु है । छोटी इकाइयों में कार्य क्षमता अधिक होती है । सिर्फ आर्थिक मामले में ही नहीं बल्कि शिक्षा,स्वास्थ्य जैसे विभिन्न मामलो में भी छोटे प्रदेश आगे हैं। जैसे कि शिक्षा के क्षेत्र में यूपी का देश में 31 वां स्थान है (साक्षरता दर -57 फीसदी) जबकि इसी से अलग होकर नवगठित हुआ उत्तराँचल प्रान्त शिक्षा के हिसाब से भारत में 14 वां स्थान रखता है (साक्षरता दर -72 फीसदी)।
बताया जाता है कि 1956 में, भारत में जिस तर्क पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया था उसका मुख्य आधार भाषा था। भाषा राज्यों के गठन का एक आधार तो हो सकती है लेकिन पूर्ण और तार्किक आधार नहीं। इसको हम इस तरह से समझ सकते हैं कि क्या सभी हिन्दी भाषी राज्यों को मिलाकर एक राज्य बना देना उचित होगा और क्या भाषा के आधार पर राज्य का विकास किया जा सकेगा? इसका जवाब कोई भी दे सकता है कि भाषा के आधार पर बनाए गए राज्यों का विकास समान योजनाओं के आधार पर नहीं किया जा सकता क्योंकि क्षेत्र विशेष की आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न होती हैं। बड़ा राज्य होने पर प्रशासनिक नियंत्रण भी चुस्त-दुरूस्त नहीं रह पाता और आम लोगों को यदि राजधानी पहुंचना हो या फिर हाईकोर्ट में गुहार लगानी हो तो यह काफीखर्चीला और लम्बी दूरी तय करने वाला साबित होता है।
जहां तक छोटे या बड़े राज्यों का प्रश्न है, तो छोटे राज्य के प्रशासन पर मुख्यमंत्री का पूरा नियन्त्रण रहता है। हरियाणा से लेकर हिमाचल और गुजरात तक इसके सटीक उदाहरण हैं। कुछ लोग तीनों नवनिर्मित राज्यों के उदाहरण देकर कहते हैं कि ये तीनों अपने खर्च के लिए केन्द्र पर निर्भर हैं; पर वे यह भूल जाते हैं कि इन तीनों की आर्थिक, भौगोलिक और शैक्षिक स्थिति क्या रही है? शासन पहले इनकी ओर कितना ध्यान देता था? उत्तरांचल के निर्माण से पूर्व कोई सरकारी कर्मचारी वहां जाना पसंद नहीं करता था। आम धारणा यह थी कि सजा के तौर पर उन्हें वहां भेजा जा रहा है। इसलिए वहां पहुंचते ही वह वापसी की जुगाड़ में लग जाता था। यही स्थिति झारखंड और छत्तीसगढ़ की भी थी। इन राज्यों में शिक्षा की स्थिति क्या थी, यह इस बात से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि 1997-98 तक सम्पूर्ण उत्तरकाशी जिले का एकमात्र डिग्री कालिज जिला केन्द्र पर ही था। लगभग ऐसी ही स्थिति चिकित्सालय की भी थी। यह सब तब हुआ, जब 50 साल तक तो यह क्षेत्र अपने मूल राज्य में ही थे। तब इनका विकास क्यों नहीं हुआ? वस्तुत: जब तक शासन-प्रशासन में समर्पित और सही सोच वाले लोग नहीं होंगे; तब तक विकास नहीं हो सकता। ऐसे लोग हों, तो भी छोटे राज्य में विकास तीव्रता से हो सकता है।
बिहार में मिथिलांचल राज्य आंदोलन से जुड़े ताराकांत झा का कहना है कि छोटे राज्य और बहुत छोटे राज्य में अंतर अवश्य करना होगा। यहां संकेत पूर्वोत्तर भारत के ऐसे राज्यों से है, जहां जनसंख्या कुछ लाख ही है। इनमें से कई का निर्माण कांग्रेस ने ईसाइयों को खुश करने के लिए किया था। कांग्रेस ने सदा भाषायी और जातीय-जनजातीय भेदों को बढ़ाया, जिससे उसे वोट मिल सके। इससे उसे कुछ समय के लिए तो लाभ हुआ; पर इससे देश के हर भाग में भाषा, बोली या जातीय आधार पर राज्य बनाने की मांग उठ खड़ी हुई। इसलिए राज्य निर्माण का आधार प्रशासनिक सुविधा होनी चाहिए। जब जनसंख्या लगातार बढ़ रही है, तो नये या छोटे राज्यों के निर्माण को कब तक टाला जा सकता है? इसलिए 'दूसरा राज्य पुनर्गठन आयोगÓ बनाकर व्यापक विचार-विमर्श प्रारम्भ करना चाहिए। अच्छा हो, इस बारे में कोई समान नीति बने। जैसे किसी भी राज्य की जनसंख्या 50 लाख से कम और दो-ढाई करोड़ से अधिक न हो। ऐसे ही हर 25 साल बाद राज्यों की पुनर्रचना की जाये।
वहीं, बुन्देलखंड एकीकृत पार्टी के संयोजक संजय पाण्डेय के अनुसार यदि भारत को वर्ष 2020 तक विकसित देश बनाना है तो भारत के राज्यों का एक बार पुनर्गठन जरूरी है । पाण्डेय का कहना है कि जब तक भारत में बुन्देलखंड और विदर्भ जैसे अति पिछड़े क्षेत्र बदहाल हैं (जहां विकास तो दूर लोग भुखमरी से जूझ रहे हैं) तब तक विकसित भारत की परिकल्पना भी बेमानी होगी, क्योंकि जिस तरह शरीर को तभी स्वस्थ कहा जा सकता है जब शरीर के सभी अंग स्वस्थ हों , ठीक उसी तरह भारत को तभी विकसित कहा जायेगा जब इसकी सीमा के भीतर आने वाले सभी भाग समृद्ध होंगे । उनके अनुसार बुन्देलखंड जैसे पिछड़े क्षेत्रों को नया राज्य बनाकर विकास के नए आयाम स्थापित किये जा सकते हैं।
पश्चिम उड़ीसा में उठ रहे कौशलाचंल से जुड़े आर।के. साहु कहते हैं कि अमेरिका पचास छोटे राज्यों का संघ है इसलिए उसकी सम्पन्नता आज जगजाहिर है। हमारे देश में कुछ लोग छोटे राज्यों का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि उनका मानना होता है कि इससे देश टुकड़ों में बंटता है,किन्तु उनकी यह धारणा विल्कुल गलत है । आज़ादी के समय भारत में 14 प्रदेश थे आज 35 हैं तो क्या इतने सारे नए प्रदेशों के बनने से देश खंडित हुआ नहीं । तब भी भारत अखंड था ,आज भी अखंड है और कुछ नए राज्य बने तो भी भारत अखंड ही रहेगा।
राजनीतिक हलकों में कहा जाता रहा है कि कांग्रेस भी छोटे राज्यों के गठन की समर्थक रही है। यह अलग बात है कि इस सैद्धांतिक सहमति के बावजूद कांग्रेस कभी भी किसी भी क्षेत्र को अलग से राज्य बनाने को लेकर आंदोलन वगैरह चलाने से परहेज ही करती रही है, बल्कि तेलंगाना और विदर्भ के मसले पर उसे ठंडा रुख अख्तियार करते भी देखा गया है।
सच तो यह भी है कि हर राज्य और क्षेत्र की भू राजनीतिक स्थितियां एक जैसी नहीं होतीं। फिर भी जैसे आंदोलन उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ को लेकर चले या तेलंगाना और विदर्भ को लेकर आज भी चल रहे हैं, वैसा कुछ पूर्वाचल, बुंदेलखंड और पश्चिमी उत्तरप्रदेश को लेकर नहीं दिखाई पड़ा। अजीत सिंह जरूर गाहे-बगाहे अपनी आवाज बुलंद करने की कोशिश करते रहे हैं, पर कभी उसे जनांदोलन की शक्ति नहीं दे पाए। इसलिए कभी-कभी इस बात को लेकर संदेह पैदा होता है कि उत्तरप्रदेश के विभाजन को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों और नेताओं की ओर से आने वाले वक्तव्यों को वास्तविक जनसमर्थन कितना प्राप्त है? बेहतर प्रशासन और जनाकांक्षाओं की समुचित देखभाल के लिए नि:संदेह छोटे राज्य एक बेहतर विकल्प हो सकते हैं। लेकिन जब ऐसे मुद्दे महज राजनीतिक शिगूफे में तब्दील होने लगते हैं, तो तय मानिए कि वे अपनी तार्किक नियति तक नहीं पहुंच सकते। बहरहाल, किसी भी राज्य ने अपनी सिफारिशें नहीं की हैं जो नया राज्य बनाने के लिए जरूरी है। पर मांगें उठना जारी है। मंत्रालय ने किसी भी नए राज्य के गठन को लेकर की गई मांग पर कोई फैसला नहीं किया है।

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

किस्मत

बहुत खेल चुकी तू मुझसे
अब जानम तेरी बारी है,
आज देखना है मुझको
ये तेरी कैसी यारी है।

कहती हो तुमसे मुहब्बत है
तुझपे ही जान निसारी है,
आज देखना है मुझको
तू कैसी अबला नारी है।

सोचा भी न था मैंने
तूने दी वो मात करारी है,
आज देखना है मुझको
तूझे कैसी सीरत प्यारी है।

बहुत बनाया है मुझको
अब बनने की तेरी बारी है,
आज देखना है मुझको
तूझे कौन सी सूरत प्यारी है।

जीने की चाह नहीं मुझको
पर मौत क्यों मुझसे हारी है,
आज देखना है मुझको
मेरी किस्मत कितनी प्यारी है।

सोमवार, 17 अगस्त 2009

पतियों का 'शिमला घोषणापत्र'

संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने भले ही पत्नियों को तारण का अधिकारी बताया हेा और आजाद हिन्दुस्तान में महिलाओं के संरक्षण हेतु तमाम कानूनी कवायदें हो रही हों। लेकिन बेचारे पतियों की हाल जानने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। दहेत प्रताडऩा कानून सहित तमाम छेड़छाड़ कानून किसी न किसी रूप में महिलाओं का ही पक्ष लेते हैं। जबकि कई बार मामला इसके उलट भी रहता है। लेकिन....
इतिहास की बिसात पर वर्तमान की नींव रखी जाती है और उसी नींव पर भविष्य की इमारत खड़ा करने के ख्वाब संजोए जाते रहे हैं। सो, आज के आधुनिक प्रताडि़त पतियों ने हाल ही में 'शिमला घोषणापत्रÓ जारी किया है। कहने-सुनने-पढऩे में भले ही अजीब लगे लेकिन पति-पत्नी का संबंध हिंदुस्तान-पाकिस्तान के मानिंद रहे हैं। पति-पत्नी की नोंक-झोंक दिनचर्या में शुमार होते रहे हैं। जब पानी सिर के ऊपर हो जाता है तो बगावत का बिगूल फूंका जाता है। और तो कोई चारा भी नहीं होता...
तभी तो कुछ पत्नियों के सताए पतियों ने प्रण लिया है कि अब वे किसी भी पुरुष को प्रताडि़त नहीं होने देंगे। सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन के बैनर तले एकजुट हुए प्रताडि़त पतियों ने 'शिमला घोषणापत्रÓ जारी किया है। मांग की है कि पत्नी द्वारा पति की प्रताडऩा रोकने के लिए अलग से पुरुष कल्याण मंत्रालय खोला जाए। उल्लेखनीय है कि पत्नी द्वारा कानून की धाराओं का दुरुपयोग कर जो जुल्म पति और उसके परिजनों के साथ किए जाते हैं, उससे कई हंसते-खेलते परिवार खत्म हो गए हैं। पतियों के साथ हो रहे अन्याय पर चर्चा के लिए शिमला में देशभर से लोग जुटे थे। दो दिन की चर्चा के बाद यह घोषणा पत्र जारी किया गया है। इसमें मांग की गई है कि पत्नियों द्वारा दहेज उत्पीडऩ के नाम पर मानसिक व शारीरिक रूप से प्रताडि़त करने और घरेलू हिंसा के मामलों के तहत दर्ज होने वाले मुकदमों को जमानती बनाया जाए। इसके लिए एक राष्ट्रस्तरीय कमेटी का गठन भी किया जाए। क्योंकि पतियों और उनके परिवार के खिलाफ दहेज प्रताडऩा के 98 फीसदी मामले झूठे पाए गए हैं। घोषणा पत्र में महिलाओं की तर्ज पर राष्ट्रीय पुरुष आयोग के गठन की भी मांग की गई है।
हाय रे पतियों की आजादी? भारतीय समाज को पुरूष प्रधान कहा जाता रहा है और नारी शक्ति की पूजा होती रही है। लेकिन वास्तविकता के धरातल पर... आधुनिकता के चादर में अंदर तक समाए हमारे समाज की वास्तविकता क्या है? कहां जा रहे हैं हम? इन्हीं सवालों के जबाव पतियों के नजरिए से ढूंढने के लिए स्वतंत्रता दिवस पर फाउंडेशन द्वारा आयोजित सेव इंडियन फेमिली के दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में संस्था के 21 राज्यों से करीब 150 प्रतिनिधियों ने दो दिन चर्चा की। कानून की किन धाराओं का लाभ उठा कर पत्नियां पतियों को प्रताडि़त करती हैं उन पर भी चर्चा हुई। वक्ताओं ने बताया कि राष्ट्रीय अपराध अन्वेषण ब्यूरो के 2006 के आंकड़ों के मुताबिक देश में 100 में से आत्महत्या करने वाले 63 पुरुषों में से 45 फीसदी शादीशुदा होते हैं। जबकि 100 में से 37 महिलाएं आत्महत्या करती हैं। इनमें से मात्र 25 फीसदी ही शादीशुदा होती हैं। महिलाएं आत्महत्या करें तो उसे दहेज प्रताडऩा व घरेलू हिंसा कहा जाता है, लेकिन जब पुरुष आत्महत्या करे तो कारण तनाव व अन्य बताए जाते हैं।
बहरहाल, सवाल अपनी जगह मुंह बाए खड़ा है कि क्या पतियों का 'शिमला घोषणापत्रÓ अपने वजूद को हासिल कर सकेगा अथवा हिंदुस्तान-पाकिस्तान की तरह कई और समझौते करने होंगे और मामला चलता रहेगा। यह तय कौन करेगा?

आसान नहीं कांग्रेस-राकांपा के लिए

लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन से उत्साहित कांग्रेस के हाथों इस बार राकांपा प्रमुख शरद पवार को महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे को लेकर कड़ी सौदेबाजी का सामना करना पड़ेगा। इस बार कांग्रेस का पलड़ा काफी भारी रहेगा क्योंकि लोकसभा चुनाव में राज्य में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है जबकि तगड़ा झटका खाने वाली राकांपा भाजपा अ©र शिवसेना से भी पीछे रहते हुए चैथे स्थान पर रही। महाराष्ट्र से एक केन्द्रीय मंत्री ने अपना नाम उजागर नहीं करने के आग्रह पर कहा कि हमारी रणनीति गठबंधन को तोड़ने की नहीं बल्कि पवार को यह अहसास दिलाने की है कि वह बदली परिस्थिति के अनुरूप आचरण करें। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष माणिराव ठाकरे ने भी कुछ दिन पहले एक बयान में लोकसभा चुनाव के बाद नई वास्तविकताअ¨ं का हवाला देते हुए कहा था कि गठबंधन सहयोगियों को सीटों के बंटवारे पर बात करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए। 288 सदस्यीय महाराष्ट्र विधानसभा के पिछले चुनाव में कांग्रेस 166 अ©र राकांपा 122 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। राकांपा ने अधिकतर सीटें चीनी पट्टी कहलाने वाले पश्चिमी महाराष्ट्र में लड़ी थीं, जो उसका गढ़ माना जाता है। लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजों ने दर्शाया कि वहां उसका आधार खिसका है। इस साल लोकसभा चुनाव के लिए सीटों की सौदेबाजी में पवार 2004 की बनिस्बत एक सीट अधिक पाने में सफल रहे थे। उनकी पार्टी को 48 में 22 सीट चुनाव लड़ने के लिए दी गई थीं।
महाराष्ट्र के मतदाताओं पर निर्भर करता है कि वे अपने प्रदेश को किस तरह की राजनैतिक पार्टी या पार्टियों के समूह को सत्ता सौंपेंगे। वैसे माहौल कांग्रेस के पक्ष में ही है। उसे पुनः सत्ता में आने की स्थिति बनी हुई है। महाराष्ट्र प्रदेश उद्योग, कृषि, व्यवसाय और विभिन्न सेवाओं का का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। यहांॅ के मतदाताओं की सोच उत्तर और दक्षिण भारत के मतदाताओं की तुलना में कुछ न्यारी ही रहती है। महानगरी मुंबई पर उद्योग और व्यवसाय के प्रभाव के चलते फिल्मी उद्योग जगत का एक ऐसा असर है जहांॅ से राजनैतिक दलों को प्राणवायु मिलने की अपेक्षाएं बनी रहती है। फिल्म-जगत के मतदाताओं की सूचियों में जहांॅ दक्षिण भारत, बंगाल, पंजाब, गुजरात-राजस्थान,और उत्तर प्रदेश-बिहार जैसे राज्यों के मतदाताओं की संख्या अधिक है, वहंीं महाराष्ट्र की सामाजिकता और संस्कृति के परंपरागत मतदाताओं की भी संख्या कम नहीं है। इन्हीं सब मुद्दों के चलते महाराष्ट्र और विशेषकर मुंबई के मतदाताओं का मन टटोलने में राजनैतिक दलों ने अपने-अपने रथ मैदान में उतार दिए हैं। यह प्रदेश जहांॅ कभी-कभी शिवसेना जैसी हिंदूवादी पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसी कांग्रेस से विलग हुई पार्टी के प्रभाव में रहा है वहीं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का भी यहांॅ दबदबा रहता आया है। ऐतिहासिक रूप से देखा जाय तो यह प्रदेश कांग्रेस पार्टी के ही निमंत्रण में रहता आया है। बीच बीच में राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक हलचलों, धु्रवीकरण और भाजपा के बढ़ते प्रभाव के कारण जरूर शिवसेना-भाजपा गठबंधन पार्टी सत्ता में बनी रही किंतु राज ठाकरे के शिवसेना से विद्रोह कर देने के बाद नवगठित एम।एन.एस.(मनसे) पार्टी के वजूद में आने से इस पार्टी को काफी धक्का लगा और वह अपने जनाधार को शनैः शनैः खोती चली गई। ऐसा ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ घटित हुआ। इस वर्ष लोकसभा के चुनाव में इस पार्टी ने निर्वाचन पूर्व अपने तेवर बरकरार रखने का पांसा फेंका था, किंतु चुनाव परिणामों ने इस दल को आइना दिखा दिया।
देश के राजनैतिक परिदृश्य के मद्देनज़र और महाराष्ट्र में चल रही राजनैतिक सरगर्मियों के आधार पर यह अब माना जाने लगा है कि महाराष्ट्र में होने वाले विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी फिर से आत्म गौरव के साथ सत्ता पर काबिज हो जायगी। महाराष्ट्र में पिछले कुछ दौर में जो कुछ घटित हुआ उससे भी महाराष्ट्र के लिए यह उपयुक्त ही होगा कि वहांॅ कांग्रेस ही सत्ता में आये। ताज होटल, ओबेराय होटल और सी।एस.टी. के 26/11 के हादसों के दौरान जिस तरह केंद्र और राज्य सरकार की नींव हिलती दिख रही थी उस दौर में यू.पी.ए. सरकार में अगुआई कर रही कांग्रेस पार्टी ने जिस बुलंदी और व्यूह रचना के साथ अपनी पार्टी की साख जमाये रखी वह सराहनीय माना गया। केंद्रीय गृह मंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री को पदच्युत कर कांग्रेस पार्टी ने बड़ी ही दूरदर्शिता का काम किया और विपक्ष के विघटनकारी इरादों को नाकामयाब कर दिया। 26/11 के हादसों के दौरान जिस तरह केंद्र और राज्य सरकार की नींव हिलती दिख रही थी उस दौर में यू.पी.ए. सरकार में अगुआई कर रही कांग्रेस पार्टी ने जिस बुलंदी और व्यूह रचना के साथ अपनी पार्टी की साख जमाये रखी वह सराहनीय माना गया। केंद्रीय गृह मंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री को पदच्युत कर कांग्रेस पार्टी ने बड़ी ही दूरदर्शिता का काम किया और विपक्ष के विघटनकारी इरादों को नाकामयाब कर दिया। 26/11 की घटना के परिप्रेक्ष्य में कांग्रेस के लिए महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव एक ऐसा इम्तहान है जिसमें उसे सफलता पूर्वक उत्तीर्ण होना ही है। दूसरा मुद्दा महाराष्ट्र में राज ठाकरे द्वारा फैलाये गये प्रदेशी और गैर प्रदेश नागरिकों के मुद्दे के रायते को भी राजनैतिक आधार पर ही समेटना जरूरी होगा इसके लिए मात्र कांग्रेस के अलावा किसी अन्य दल के पास कोई मंत्र नहीं हो सकता। कांग्रेस पार्टी को इतना भर करना होगा कि सही उम्मीदवारों को सही सीट से टिकिट दे दे और जो कुछ भी पार्टी में अंतद्र्वद्व है उसे निर्वाचन के समय में भुला दें।
हालांकि सियासी हलकों में चर्चा है कि कांग्रेस महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर वहां शरद पवार की अगुवाई वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) से चुनाव पूर्व गठबंधन करेगी। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के अनुसार, दोनों पार्टियां चुनाव पूर्व गठबंधन करेंगी। गठबंधन के बारे में घोषणा जल्द ही किए जाने की सम्भावना है। कांग्रेस राज्य में रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया से भी गठबंधन की उम्मीद कर रही है। हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि साम्प्रदायिक ताकतें सत्ता में न आ सकें। महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव अक्टूबर माह में कराए जाने की सम्भावना है। सच तो यह भी है कि कांग्रेस में यह धारणा बनी है कि लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में सत्रह सीट पाने के साथ वह राज्य की नंबर एक पार्टी के रूप में स्थापित हुई है जबकि प्रदेश में अपने को नंबर एक पार्टी का दावा करने वाली राकांपा चैथे स्थान पर लुढ़क गई है। प्रदेश कांग्रेस के नेताअ¨ं का कहना है कि इस बार विधानसभा चुनाव में राकांपा के साथ सीटों का बंटवारा करने में नई वास्तविकता को ध्यान में रखे रहना होगा। उधर कांग्रेस के इन बदले तेवरों से विचलित हुए बिना राकांपा प्रमुख पवार ने भी दबाव बनाए रखने के लिए कह दिया है कि कांग्रेस अगर साथ छोड़ना चाहती है तो उन्हें भी अकेला चलने में कोई झिझक नहीं होगी। इसके साथ ही पवार ने हालांकि यह भी कहा कि उनकी पार्टी कांग्रेस से गठबंधन के साथ चुनावी मैदान में उतरना चाहती है अ©र कांग्रेस आलाकमान का भी यही विचार है। केन्द्रीय मंत्री विलासराव देशमुख इस बार अकेले विधानसभा चुनाव लड़ने का रुख अपनाने के सबसे बड़े पैरोकार हैं। 9 साल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे देशमुख का तर्क है कि दोनों दल अलग-अलग चुनाव लड़ें अ©र चुनाव बाद दोनों फिर साथ आ सकते हैं। पवार के प्रतिद्वन्द्वी कहे जाने वाले कांग्रेस के एक अन्य केन्द्रीय स्तरीय नेता का हालांकि विचार है कि कांग्रेस को अगर राज्य की सत्ता में बने रहना है तो उसे राकांपा से चुनावी गठबंधन बनाए रखना चाहिए।
काबिलेगौर है कि कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अ©र राज्यसभा के उपसभापति के। रहमान खान ने कहा था कि पार्टी हाईकमान महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव से पहले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से गठबंधन करने पर दल तथा राज्य के हितों पर विचार मंथन करने के बाद ही फैसला लेगा। महाराष्ट्र विधानसभा के महत्वपूर्ण चुनावों की तैयारियों का जायजा लेने के लिए रक्षा मंत्री एके एंटनी की अगुवाई में गठित पांच सदस्यीय समिति में शामिल खान का कहना था कि राकांपा से गठबंधन का फैसला लेना इस समिति के अधिकार क्षेत्र में शामिल नहीं है। लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन से राज्य में कार्यकर्ताअ¨ं का मनोबल ऊंचा हुआ है। अति आत्मविश्वास की कोई गुंजाइश नहीं है। गठबंधन के मुद्दे पर कार्यकर्ताअ¨ं को पार्टी हाईकमान पर पूरा भरोसा है। तालमेल को लेकर पार्टी अ©र राज्य के हितों को ध्यान में रखकर ही कोई निर्णय लिया जाएगा।
ऐसे में निश्चित ही लोकसभा निर्वाचन की व्यूह रचना के अनुरूप महाराष्ट्र में विविधवर्णी और विविध संस्कृतियों वाले मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में कांग्रेस पार्टी सौ प्रतिशत कामयाबी की ओर बढ़ रही है। महाराष्ट्र में वि।स. निर्वाचन के बादल छाने लगे हैं और कांग्रेस के साथ ही विभिन्न राजनैतिक दल भी अपने धुंघयाते चूल्हों से फूंक लगा रहे हैं ताकि अपनी रोटियां सेक सकें।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

यदि गम नहीं होता

ेकभी-कभी सोचता हूँ
यदि गम नहीं होता तो क्या होता ?
जिन्दगी हमेशा रंगीन
और खुशियों से भरी होती
लेकिन दुनिया के गम से
बेगाना ही रहता
अपने-पराए में फर्क नहीं कर पाता
यदि गम नहीं हेाता तो
कदाचित
जिन्दगी खुशी का खजाना होता
कभी-कभी सोचता हँू
अगर ऐसा होता तो क्या होता
नहीं आँखों से मोती झरते
न जीवन में अंधेरा होता
तो खाक जीने में मजा आता
यदि अश्कों का दरिया नहीं बहता
तो हँसी का फव्वारा क्या नहीं फूटता
यदि गम नहीं होता तो
खुशी-खुशी जीने का मजा नहीं होता।

बुधवार, 12 अगस्त 2009

क्या कहते हैं ये कार्यक्रम

टेलिविजन चैनलों पर कुछ रिएल्टी कार्यक्रम अभी सर्वाधिक चर्चा और विवादों का विषय रहे हैं। इनमें कामसूत्र को थीम बनाकर डाॅस कार्यक्रम से लेकर एमटीवी पर हाल ही खत्म हुआ वह कार्यक्रम भी शामिल है ंिजसमें निर्देशक और प्रोड्यूसर को ’खुश’ करके ही सफलता प्राप्त करने का आरोप प्रतियोगियों ने लगाया है। तथापि अभी सर्वाधिक चर्चा में स्टार प्लस पर दिखाया जानेवाला ’सच का सामना’ सोनी पर प्रसारित होनवाला ’इस जंगल से मुझे बचाओ’ तथा 2 अगस्त को सम्पन्न डा एनडीटीवी ईमाजिन का बहुचर्चित ’राखी का स्वयम्बर’ शामिल है। इन रिएल्टी शो की सबसे बड़ी खासियत यह भी है कि अपने आगामी एपिसोड की कुछ बातों ाके मीडिया में जान बूझकर लीक कर चैनल प्रबंधन न सिर्फ इन्हें चर्चा में ला देते है बल्कि टेलिविजन रेटिंग प्वाइन्ट (टी आर पी) के अनबुझे खेल में शामिल हो अपने लिए अच्छे कमाई का जुगाड़ भी बना लेते हैं।
सच का सामनाः इस कार्यक्रम के प्रसारण से ही पहले ही पूर्व क्रिकेटर सचिन टेंडुलकर के बाल सखा विनोद कांबली के साक्षात्कार का वह अंश मीडिया की सूर्खियांे में छा गया जिसमें कथित तौर पर कांबली ने अपने बुरे दौर में सहयोग नहीं करने का आरोप सचिन पर लगाया था। यद्यपि कार्यक्रम देखने पर यह स्पष्ट हो गया कि पूरा प्रसंग उस तरह नहीं था जिस तरह मसाला लगाकर मीडिया में इसे उछााला था। इस कार्यक्रम में सेक्स आधारित प्रश्न पूछकर लोकप्रियता और कामयाबी का घटिया फार्मूला अपनाया गया है। मसलन किसी महिला से यह पूछना कि यदि उनके पति को जानकारी न हो तो क्या वह किसी पुरूष से सेक्स कर सकती हैं यह किसी पुरूष से यह पूछना कि क्या उन्होंने अपनी बेटी की उम्र के किसी लड़की से सम्बन्ध बनाया है या किसी करीबी रिश्तेदार से सेक्स किया है? बाद में एक कार्यक्रम में वह सज्जन बहुत गर्व से बता रहे थे अपनी जीवन की जिस सच्चाई को उन्होंने कुछ भी गलत नहीं था। सवाल उठता है कि यदि इसी तरह का खुलासा उनकी पत्नि या बेटी अपने बारे में उनकी उनस्थिति में टीवी पर करती तो क्या वे इतना ही गौरवन्वित महसूस करते? यह सवाल इसलिए भी प्रासंगिक है कि इस कार्यक्रम का संचालन कर रहे राजीव खंडेंलवाल की माँ ने भी इस कार्यक्रम की आलोचना करते हुए इसमें पूछे जानेवाले सवालों का अमर्यादित और शर्मनाक कहा है। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा है कि अपने बेटे और पति की उपस्थिति में वह इस कार्यक्रम में शामिल नहीं होगी? सवाल उठता है कि जो चैनल, प्रोड्यूसर और संचालक इस कार्यक्रम को ’मसालेदार’ बनाये जाने के लिए तमाम नुस्खा अपनाते हैं, वे अपने पारिवारिक सदस्यों को इसमें क्यों नहीं बुलाते? इसमें उन चैनलों के मालिकों को भी बुलाया जाना चाहिये जो इस तरह के भौंडे कार्यक्रम का समर्थन करते है। ऐसे होने पर मीडिया जगत का वह कुलषित, कलंकित, और स्याह चेहरा सामने आ सकता है जिससे पता चल सके कि अपनी पीठ थपथपानेवाले मीडिया का अपना का चेहरा कितना घृणित हैै। एक इसके साथ ही एक दूसरा तथ्य यह भी है कि जिस पाॅग्रिाफिक टेस्ट के नाम पर यह कार्यक्रम चर्चा का विषय बना है वह टेस्ट ही अपनी प्रामाणिकता को लेकर संदेह के घेरे में है।
मुझे इस जंगल से बचाओ: सोनी पर प्रसारित होनेवाले इस रिएल्टी शो को भी प्रसारण से पहले ही मीडिया में सूर्खियां मिलनी शुरू हो गई थी। कार्यक्रम के बीच में भी कई खबरें ’लीक’ करके इसे लगातार चर्चा में बनाये रखने का हथकंडा लगातार अपनाया जाता रहा है। रिएल्टी के नाम पर अंग प्रदर्शन, अमर्यादित भाषा आदि का बखूबी इस्तेमाल किया गया है। हाफ पैंट मं जंगल में रहने वाली प्रतियोगी विकनी पहनकर कैमरे के सामने नहाती ’जंगल क्वीन्स,’ जो टीवी जगत की अदा कराएं हैं, टीवी के सामने ’प्रायोजित’ नोक-झोंक और अशालीन बातचीत पर ही सारा ध्यान लोागों ने लगा रखा है। उनके खान-पान की जो स्थिति दिखाई गई है वह भी प्रतियोगियों के जंगल प्रवास की दुश्वारियां दिखाने का पूर्व नियोजित एजेंडा ही लगता है। कभी तो उन्हें खाना ही मपस्सर नहीं होता और वे मात्र दाल वह भी अपर्याप्त होने का रोना रोते दिखाये जाते हैं तो कभी उन्हें जीवित मछली परोसा जाता है। इतना ही नहीं आइस क्यूब पर जमा हुआ कीड़ा-मकोड़ा भी खाने को दिया जाता है। सवाल है कि इस बकवास के आधार पर निर्माता क्रूा रिएल्टी पेश करना चाह रहा है?
राखी का स्वयांवर ; एन डी टीवी ईमाजिन पर बहुचर्चित मह कार्यक्रम भी अपेन संकल्पना से लेकर अंत तक लगातार मीडिया को मसाला पेश करता रहा। यद्यपि 2 अगस्त को यह कार्यक्रम खत्म हो गया और राखी ने कनाडा के व्यवसायी और गुजराती मूल के अप्रवासी भारतीय इलेश पारूजनेवाला को अपना जीवन साथी चुनकर सगाई भी रचा लिया है परन्तु जिस तरके से सारी खबरें पहले ही मीडिया में आती रही उससे इसके रिएल्टी शे पर सवाल तो उठता ही है साथ ही संपादन की खामी भी लगातार दिखती रही है।
आइटम गर्ल के रूप मंे विख्यात राखी सावंत के स्वयम्वर की घोषण ने ही देश में कौतुहल और उत्सुकता का माहौल बना दिया था। रिएल्टी शो राखी के मायके वालो (ईमैजिन टीवी) के व्यवसायिक दृष्टि से अति भव्य और बेहद खर्चीला आयोजन था। 12 हजार से अधिक आवेदनों में 16 को स्वयमम्बर के लिए चयनित किया गया। इससे उम्र में राखी के काफी छोटे प्रतियोगी से लेकर बीबी-बच्चों वाले पुलिस अफसर तक शामिल थे। हांलाकि बाद में यह खुला कि कश्मीर के अतहर न सिर्फ शादी शुदा थे बल्कि उनके तीन बच्चे भी थे। वह तो खैर स्वयम्बर से बाहर कर दिये गये किन्तु इसी बहाने एक चैनल ने इस स्वयम्वर का ’स्टिंग आपरेशन’ के नाम पर कई दिनों तक लोगों को वासी समाचार खूब परोसा। इतना ही नहीं इस चैनल ने नया तमाशा पेश करते हुए एक 87 वर्षीय बुर्जुग को उनके बेटे के साथ स्टूडियो मंे बैठाया कि यह वृद्ध राखी से शादी करना चाहते हैं। इसका प्रसारण भी दिनों तक किया जाता रहा। दर्शक यह नहीं समझ पा रहे थे कि इन बकवासों से यह 24 घंटेवाला चैनल चाहता क्या है? क्या वह भी राखी के स्वयम्बर के बहाने टीआरपी खेल में शामिल होने का कयावद कर रह था?
तमाम प्रतियोगियों में ऋषिकेश का मनमोहन तिवारी राखी को बहुत पसंद आया था। राखी उसे काफी पसंद करने लगी थी। इलेश पारूजनवाला, क्षितिज जैन, और मानस कत्याल के साथ वह भी उन अंतिम चार प्रतियोगियों में था जिनमें से राखी को अपना वर चुनना था। राखी ऋषिकेश भी गई किन्तु वहां जाने क्या हुआ कि राखी ने तुरंत ही उसे नकार दिया। राखी ने इसके लिए मनमोहन के घरवालों पर ठीक व्यवहार नहीं करने और मनमोहन के जीवन में किसी अंजली नाम की लड़की के होने का आरोप लगाया था जिसे मनमोहन राखी के लिए छोड़ने के तैयार नहीं थे। ऋषिकेश के एक होटल में जहंा राखी ने एक ही सांस में मनमोहन और उनके परिजनों पर तमाम आरोप लगाये वहीं यह भी कह बैठी कि मनमोहन ने ही देर रात उनके होटल जाकर उनसे शादी करने में अपनी असमर्थता जता दी थी। फिर सच क्या था राखी ने मनमोहन को स्वयम्बर से निकाला या फिर मनमोहन ने ही राखी से शादी करने से इंकार कर दिया था? पहले कहा गया था कि अंतिम चार चुने गये वरों में से असली दुल्हे का फैसला मुम्बई के किया जाएगा। किन्तु ऋषिकेश में घटी अंतिम चार में से भी एक निष्कासन दिखाया जाना था। असल में पूरे घटनाक्रम में अचानक नाटकीय मोड़ आने से एपिसोड जोड़ा गया जिसमें थोड़ा तार्किक दिखने और थोड़ा राखी के सम्मान का रखने के लिए मनमोहन का निष्कासन दिखाया गया। यहां भी सवाल उठता है कि जब यह कार्यक्रम ’रिएल्टी’ था तो उस प्रसंग को क्यों नहीं कैमरे में दर्ज किया जा सका जब मनमोहन ने होटल में ही राखी से मिलकर शादी से इंकार किया था? संपादन निर्देशन की चूक यह भी थी जब मनमोहन के निकासी को तार्किक जामा पहनाने के लिए एक और कड़ी जोड़ने का निर्णय होना ही था तो राखी के मुंह से वह संवाद ही क्यों प्रसारित किये गये जिसमें उन्होंने ही इस बात का खुलासा किया था कि मनमोहन ने ही असल में उनसे शादी करने से इंकार किया था?
राखी के स्वयम्वर के चर्चा और विवाद मं समाचार चैनलों ने भी अपनी ’खोजी पत्रकारिता’ का अद्भूत नमूना पेश किया। एक चैनल को 87 वर्षीय वुर्जुग को भी राखी से शादी करने का इच्छुक बताकर मसाला परोसने के बाद भी कोई फायदा होते नहीं दिखा तोवह प्रतियोगिता से बाहर किये गये लोगों के बहाने एक अलबेला स्टिंग आपरेशन शुरू कर दिया। सबसे तेज होने का दावा करनेवाले चैनल ने समाचार बेचने के लिए मनमोहन के माता-पिता का भी सहारा लिया। किन्तु जब बात बनती नहीं दिखाई दी तो खोजी पत्रकारिता की अनुपम मिसाल कायम करते हुए इसने दो सनसनीखेज खुलासे कर डाले। पहला तो यह कि राखी स्वयम्बर पार्ट 2 शुरू होनेसाल है। और दूसरा यह कि प्रतियोगिता से बाहर किये गये लव शर्मा और मनमोहन तिवार को फिर से स्वयम्वर में आमंत्रित किया जा सकता है, ऐसी खोजी टीवी पत्रकारिता पर क्यों न हे देश कुरवान?
जब राखी का स्वयम्वर भी उनके इमेज की तरह हाॅट हो मीडिया के लिए तो इस मसालेदार समाचार को बेचने से भला कौन पीछे हट सकता था। चैनलों पर ऐसे-ऐसे लोग आमंत्रित किये गये जो यह घोषण करते नहीं थकते थे कि यह सब राखी का ड्रामा है। एक चैनल ने तो राखी के परिजनों का ही सहारा लेकर यह खुलासा भी कर डाला कि राखी शादी शुदा है। उनके दावे में बताया गया कि राखी ने 2004 मंे ही शादी कर ली थी, पति से अलग रह रही है और अभी उनका तलाक नहीं हुआ है। सवाल है कि जब यह खबर इतना पुख्ता है तो राखी के परिजन और उसके कथित पति ने इस बहुचर्चित स्वयम्वर को रोकने का प्रयास क्यों नहीं किया? खैर स्वयम्वर से शादी अभी टालकर इसे सगाई पर ही विराम दिया गया है, किन्तु रिएल्टी शो के संदर्भ में यह सवाल जरूर उठता है कि तत्काल आधारित है तो इसकी खबरें सप्ताह भर पहले से ही मीडिया में कैसे आ जाती है। चाहे विनोद कंाबली के सच का सामना हो स्वयम्वर में इलेश का जीतना मीडिया में यह खबरें प्रसारण से काफी पहले ही आ गई थी।

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

कितने रीयल हैं रिएल्टी शो ?

टेलिविजन के विभिन्न चैनलों पर आजकल रिएल्टी शो की भरमार है। गीत -संगीत, नाच -गान, स्वयम्बर, जंगल - मंगल, प्रतियोगिता, आदि कितने सच का सामना रिएल्टी के नाम पर दर्शकों को रील लाइफ में दिखाया जा रहा है। अभी एनडीटीवी इमैजिन पर ’राखी का स्वयम्बर’ सोनी पर ’इस जंगल से मुझे बचाओ’ तथा स्टार प्लस पर ’सच का सामना’ सर्वाधिक चर्चा में रहनेवाला कथित ’रिएल्टी शो’ है। इसके अलावा सोनी पर ही सलमान खान द्वारा प्रस्तुत ’दस का दम’ भी दर्शकों में अपनी पैठ बनाने के जुगत में है। मजे की बात यह है कि ’कौन बनेगा करोड़पति’ से लेकर ’सच का सामना’ तक अधिकांश कार्यक्रम विदेशोेेें में लोकप्रिय टीवी शो का भारतीय संस्करण भर हैं। तमाम चैनलों का पूरा गणित इन कथित रिएल्टी शो के बहाने अपना टीआरपी बढ़ाना मात्र है। फिर भी अहम् सवाल यह है कि ये बहु प्रचारित रिएल्टी शो कितने रियल होेेते हैं ?
छोटे पर्दे पर सबसे पहले अन्नू कपूर और रेणुका शहाणे जी टीवी पर ’अंताक्षरी’ के नाम से पहले रिएल्टी शो के साथ अवतरित हुए थे। इसके बाद शुरु हुआ इस प्रचलन को स्टार प्लस पर दिखये गये ’कौन बनेगा करोड़पति’ की अपार सफलता के बाद तो मानो पंख ही लग गया। मेगा स्टार अमिताभ बच्चन इस कार्यक्रम के प्रस्तोता थे। गौरतलब है कि उस वक्त बुरे दौर से गुजर रहे स्टार प्लस और अमिताभ दोनो को ही इस कार्यक्रम की अप्रत्याशित सफलता से दुबारा अपनी लय में आने में मदद मिली थी। इसके बाद तो स्टार एंकरों के सहारे विभिन्न चैनलों पर इससे मिलते जुलते कार्यक्रमों की मानो बाढ़ ही आ गई। जिसमें नीना गुप्ता के एंकरिंग में ’कमजोर कड़ी कौन’, गोविन्दा के ग्लैमर के सहारे ’जीतो छप्पड़ फाड़ के’ तथा अमन वर्मा पर दाॅंव खेलते हुए ’खुल जा सिमसिम’ आदि प्रमुख हैं। पर ये तमाम कार्यक्रम अमिताभ वाला जादू उत्पन्न नहीं कर सके और जल्दी ही दर्शकों ने उन्हें नकार दिया। यहाॅं तक कि जब मीडिया के चहेतेे शाहरुख खान केबीसी के दूसरे संस्करण में स्टार चैनल पर आये तो भी यह प्रोग्राम घुटने के बल चलने से धराशायी हो गया।
’राखी के स्वयम्बर’ के बाद सच का सामना और इस जंगल से मुझे बचाओ अभी सर्वाधिक चर्चा और विवाद में है। सामनेवाले की सच्चाई समाज को क्या संदेश देता है यह तो कार्यक्रम के निर्माता और संचालक ही शायद जानते होंगे पर यह समाज के एक बड़े वर्ग को उद्वेलित जरुर कर रहा है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर हथौड़े की तरह चोट करने वाला यह कार्यक्रम इतना विवादित हो चुका है कि संसद में भी इस पर जमकर बहस हुई। ’मोमेंट आॅफ ट्रªुथ’ के नक्कालों ने चश्चिमी जगत और भारतीय परिवेश के अंतर को नजरअंदाज कर सिर्फ चर्चा, विवाद, टीआरपी और इस सबके आड़ में मोटी कमाई मात्र पर अपना ध्यान केन्द्रित किया और इसमें वे सफल भी दिख रहे हैं। ’सच का सामना’ एक ऐसा रिएल्टी शो है जो अमर्यादित और शालीनता की हदों को पारकर सेक्स आधारित प्रश्नों के सहारे ही अपनी प्रासांगिता और चर्चा के केन्द्र में रहने में विश्वास करता है।। एक करोड़ की इनाम राशि का लोभ दिखा कर यह कार्यक्रम न सिर्फ प्रतियोगियों के निजी जीवन में अनावश्यक ताक - झाॅक करता है बल्कि दर्शको के सामने अपने ही स्टाइल में उनकी पोल भी खोल देता है। प्रतियोगियो द्वारा उपलब्ध कराये गये जानकारी के आधार पर करीब 50 प्रश्न तैयार किये जाते हैं फिर उन्हीं मे से कुछ सवालो को दर्शकों के सामने सनसनीखेज ढ़ंग से पूछकर तथा उन्हें पूर्व में दिये गये जवाब के तुलना कर इनाम की राशि को केेन्द्र में रख दर्शको में उत्सुकता बनाया जाता है। इस में सेक्स आधारित सवालों केा सबसे अधिक तरजीह दी जाती है। सवालो के कुछ नमूने इस प्रकार हैं ....क्या आपने अपनी बेटी की उम्र के किसी लड़की से सेक्स किया है? क्या आपने अपने किसी निकट संबंधी महिला से संसर्ग किया है? एक महिला से पूछा जाता है कि यदि आपके पति को कभी जानकारी न हो सके तो क्या आप किसी पुरुष से सेक्स करना चाहेंगी? दूसरी महिला से जानकारी माॅंगी जाती है कि क्या किसी पुरुष का सही परिचय जाने बिना आप उसके साथ महिने भी रही हैं? ये सारे सवाल प्रतियोगियों के सगे संबंधी (पति, पत्नि,माता - पिता, भाई- बहन, मित्र) की उपस्थिति में पूछा जाता है। यह अत्यन्त व्यक्तिगत सवाल हैं और इससे सामाजिक स्तर पर क्या संदेश जा सकता है इससे कार्यक्रम के संचालकों को कोेई लेना -देना नहीं होता। इतना ही नहीं अपना टीआरपी बढ़ाने के लिए ये कई प्रश्नो के उत्त्र पहले ही मीडिया में लीक भी कर देते हैं जैसा कि बिनोद कांबली के प्रसंग में हुआ। इस कार्यक्रम में प्रसारित होने वाले बेहूदा सवाल जवाब को पाॅलिग्राफ टेस्ट के नाम पर लोगों केा भरमाया जाता है। सवाल यह भी है कि जिन लोगों केेेा इस कार्यक्रम मे बुलाया जाता है उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में दर्शकों केा कोई रुचि या भी या नहीं इस सबसे अलग चैनल मात्र अपने नफा नुकसान के आकलन में ज्यादा व्यस्त दिखता है। कार्यक्रम का भोंडापन इस बात से भी उजागर होता है कि इसके संचालक के माता पिता भी इसे इसे अमर्यादित ,अशालीन बतातेेे हुए कहते हैं कि इसे बच्चों के साथ नहीं देखा जा सकता है। राजीव की माॅं लक्ष्मी खंडेलवाल कहती हैं कि वे इस कार्यक्रम में अपने पति और बेटे के सामने नहीं आ सकती। सच्चाई केे ढ़िढोरा पीटने वाले इस कार्यक्रम में क्या कभी चैनल के कर्ता धर्ता, निर्माता, संचालक या उनके परिजन भी आने ही हिम्मत दिख पायंेगे ? शायद तब यह कार्यक्रम ज्यादा रोचक और ईमानदार प्रतीत होेेगा। अभी तो सारे पतियोगी मात्र एक करोड़ हासिल करने के लोभ में ही आ रहे हैं।
’इस जंगल से मुझे बचाओ’ भी विदेशी कार्यक्रम का नकल है। इसमें प्रतियोगी महिलाओं के मांसल बदन का दर्शन, कैमरे के सामने बिकनी में नहाती प्रतियोगी महिलाएॅ उनके बीच की अश्लील गाली गलौज पर ही ज्यादा ध्यान केन्द्रित किया गया है। साथ ही कभी कैमरे के सामने खाने की कमी से कलमते प्रतियोगी तो कभी खाने में उन्हें परोसा जाने वाला जीवित मछली या आइसक्रीम पर चिपके कीड़े मकोड़े खाते दिखला कर पता नहीं क्या संदेश दिया जा रहा है। क्या भारत में केाई मांसाहारी प्राणी जीवित मछली या कीड़े मकोड़े खाता है ?
इसी कड़ी में एक चैनल पर आने वाला ’रोडिज’ और ’स्पिील्टसविला’ कार्यक्रम भी अपने अंदाज में सुर्खियों में रहा है। भारतीयता की अपेक्षा ’इंडियन कल्चर’ के हिमायती रघुराम जहाॅं इंडियन युवाओं को उदंडता और स्व केन्द्रित होना सीखा रहे हैं वहीं युवा वर्ग के लिए नई नई गाली ईजाद करने में भी माहिर हैंै। इसी चैनल में हाल में ही खत्म हुए कार्यक्रम ’स्पिील्टसविला’ पर प्रतिभागी लड़कियो ने आरोप लगाया है कि इसमें उन्हीं लडकियोेें को जीतनेेेेे का ज्यादा अवसर दिया गया जो कार्यक्रम के निर्देशक और निर्माता को ’खुश’़ कर सकती थी। अश्लीलता और फूहड़ता का ऐसा ही समावेश कामेडी केे नाम पर भी विभिन्न चैनलों पर देखने को मिलता है। शर्म से दर्शकों की नजरें तब झुक जाती है जब उन अबोध बच्चों के मुॅह से अमर्यादित बातें सुनने कोेे मिलती है जिनके दूध के दाॅत भी टूटे नहीं होतेे हैं। एक कार्यक्रम में तो प्रतिभागियों केा कामसूत्र के थीम पर नाचने को कहा जाता है। ’राखी का स्वयम्बर’ यद्यपि 2 अगस्त को खत्म हो गया किन्तु अपने अनोखे प्रस्तुति के लिए यह भी काफी चर्चा में रहा। मीडिया में तो यह भी दावा किया गया है कि टीआरपी केेे खेेेल मेें यह सभी कार्यक्रमों पर भारी पड़ा।

क्रमशः

- बिपिन बादल

सोमवार, 10 अगस्त 2009

क्यों न हो टेलिविजन चैनल के लिए भी सेंसर बोर्ड?

टेलिविजन चैनलों के कई कार्यक्रम अब काफी बोल्ड हो गये हैं। ऐस लगता है कि अब इनमें ’वे-वाॅच’ और ’बोल्ड एंड ब्यूटीफुल’ जैसे विदेशी कार्यक्रमों को पीछे छोडने की होड़ लग गई है। ’कौन बनेगा करोड़पति’ से लेकर सच का सामना तक अधिकांश चर्चित रिएल्टी शो विदेशी सिरिमलों के नकल पर भी आधारित है। बहुत पहले अपराधी के तह तक पहुंचने का दावा करनेवाली ’इंडियाज मोस्ट वाॅटेड’ भी ’अमेरिकाज मोस्ट वांटेड’ से ही प्रभावित थी। चूंकि भारतीय संस् कृति और सभ्यता पर प्रश्न उठाने वाले निर्माता निर्देशक पश्चिमी कार्यक्रमों का सीधा नकल करने की ही प्रगतिशीलता और प्रयोग मानने लगे है, इसलिए उनकी नज़र में भारतीय समाज भी पश्चिमी जगत की तहर खुला और बिंदास दिखने लगा है। ’रोडीज’ के रघुराम कहते हैं कि “वे कौन लोग हैं? जो सभ्यता और संस्कृति जैसी दकियानूसी बातें करते हैं? क्या उनकी सभ्यता और संस्कृति इतनी कमजोर है कि एक फिल्म या टीवी कार्यक्रम से बिखर जाय?” वे आगे कहते है, ’देश में दो समाज एक साथ रहते है, एक भारतीय दूसरा इंडियन। हम इंडियन समाज के कार्यक्रम बनाते हैं उनका यह भी कहना है कि दकियानुसी भारतीय समाज के लोग ने इंडियन कल्चर वाला कार्यक्रम देखते ही क्यों हैं? उनकस समर्थन फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट से लेकर ’मुझे इस जंगल से बचाओ’ और ’सच का सामना’ के समर्थक भी करते हैं। अब इस ’इंडियन कल्चर’ के हिमायती भारतीयों को यह भी मान लेना चाहिए कि उनके दिमागमें कचरा भरा है और वे मौलिक कल्पनाशीलता और सृजन के काबिल ही नहीं रह गये हैं। इसलिए विदेशी कार्यक्रमों का अंधानुकरण करने को ही प्रयोगधार्मिता मान चुके हैं। जिस ’इडिसन कल्चर’ के युवाओं के लिए वे गाली-गलौज और मर्यादित अशालीन और अभद्र भाषा और दृश्यों का इस्तेमाल करते है, वे सिवाय अभद्रता और गालियों के नया सीखते ही, क्या है इन कार्यक्रमों से। यहां तक कि सच का सामना के संचालन राजीव खंडेलवाल की मां लक्ष्मी खंडेलवाल भी जानती है कि यह कार्यक्रम बच्चों के साथ देखने लायक नहीं है। ग्यारहवीं का छात्रा अर्चना कहती है कि ’रेडीज में जब रघुराम गाली देता है तो उसे सुनने में काफी मजा आता है। अब वे हमारे स्कल के बच्चे भी उन गालियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं। उसी के क्लास की रूचिका कहती है कि संवाद के बीच में जहां पी बजता है, वहां गालियां होती है और उसे सीखने के लिए ध्यान से सुनना पड़ता है। अब स्कूलों से बच्चे दूसरे को गाली देने के लिए पी का इस्तेमाल करते हैं। छोटी गाली के लिए छोटी पीं और बड़ी गाली के लिए बड़ा पीं पीं... बच्चे बोलने लगे हैं। सुन रहे हैं रघुराम जी क्या सीखा रहे हैं आप इंडियन कल्चर के बच्चों को। कैमरे से सामने बिकनी में नहाने से लेकर इस ’पीं’ का इस्तेमाल धड़ल्ले से ’मुझे इस जंगल से बचाओ’ मंे भी होता है।
’सच का सामना’ अपनी फूहड़ता के लिए कई परिवारों को तोड़ने का सबब बनने की राह पर है। ऐसा में सवाल उठता है कि क्या टेलिविजन के लिए एक सेंसर बोर्ड का अलग से गठन नहीं किया जाना चाहिए?
फिल्मों और टेलिविजन में एक खास अंतर यह है कि फिल्म देखने के लिए टिकट लेना पड़ता है। उस अनुरूप लोग सेंसर्ड और अंसेसर्ड फिल्म देखने की अपनी इच्छा की पूत्र्ति करते हैं। किन्तु हर घर में पहुंच रखनेवाले टेलिविजन में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। चैनल बदलने ही कौन सा दृश्य या संवाद आपको देखना-सुनना पड़े कहा नहीं जा सकता है। यहां आप एकदम से विवश हो जाते हैं। ऐसे कार्यक्रमों के हिमायती का कहना है कि ये कार्यक्रम रात में आता है जब बच्चे सो जाते हैं। इन इंडियन कल्चर के लोगों को कौन समझाये के पाश्चात्य प्रभावित ’इंडियन कल्चर’ मंे रात हमेशा जवां होती है और दस-साढे़ दस बजे आज के ’इंडियन’ बच्चे नहीं सोते हैं। फिर इनका प्रोमों तो दिन में कई बार चलता हे और इन कार्यक्रमों की रीपीट टेलिकास्ट भी अक्सर दिन में ही होता है। अतः इन्हें रोकने के लिए एक नियामक बोर्ड का होना आवश्यक है। संसद में भी इन कार्यक्रमों पर बहस होने के बाद उम्मीद है कि सराकर और सभी सम्बन्ध पल इस दिशा में ईमानदारी से सोचेंगे।



- विपिन बादल

रविवार, 9 अगस्त 2009

नए आयाम गढ़ते छोटे उस्ताद

टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर आजकल रिएल्टी शो की भरमार है। गीत-संगीत, नाच-गान, जंगल-मंगल, प्रतियोगिता आदि कितने रिएल्टी को बाजार का मुलम्मा चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। विकास के पहिए पर सवार होकर समय जिस गति से आगे बढ़ रहा है, उसका पार पाना मुश्किल है। इस सब के बीच एक नई बात यह हुई कि कम उम्र के बच्चों को अपनी प्रतिभाओं को निखारने-संवारने का बेहतरीन मौका मिल रहा है। कम उम्र में ही वे नए आयाम गढ़ रहे हैं और स्थापित लोग हैरत भी नजरों उन्हें अपलक निहार रहे हैं।
सच में नन्हे उस्ताद हैं। वे लिटिल चैंपियन हैं। वे किड्स स्टार हैं। अब वे ही नहीं, उनके घर वाले भी मशहूर और मालामाल हैं। टीवी के स्क्रीन पर, सिनेमा के परदे पर और जब-तब स्टेज पर जलवे बिखेर रहे उन लिटिल स्टार्स को देखकर शायद हर मां-बाप अपने बच्चों को यही याद दिला रहे हैं। एक हालिया सर्वे के अनुसार अब बच्चों में डॉक्टर, इंजीनियर या सिविल सर्वेंट के बजाय सेलिब्रिटी बनने का क्रेज ज्यादा है। जब से रियलिटी शोज की धूम मची है, बच्चों के ख्वाबों को तो मानो पंख लग गए हैं। वे उडऩा चाहते हैं शोहरत के पंख लगाकर। रियलिटी शोज ने बच्चों में सेलिब्रिटी बनने की ललक जगा दी है।
अपने इसी ललल को वे साकार भी कर रहे हैं। कुछ बच्चे तो अपने हुनर से नामचीन और स्थापित कलाकारों को भी हैरत में डाल देते हैं। वरना कोई तुक नहीं बनता कि इंदौर के सात वर्षीय स्वरित शुक्ला के 'सरगमÓ पर पकड़ देखकर गायक सुखविंदर अपने गले पर हाथ रखकर कहें कि ऐसा अजूबा मैंने आज तक नहीं देखा है। (सा रे गा मा लिटिल चैम्पस,2009)। जिन शब्दों का अर्थ तक स्वरित नहीं जानता उसको बखूबी अपनी गायकी में ढाल लेता है। वहीं, छह वर्षीय अप्सा एंकरिंग कर रही है। अमूमन छह-सात वर्ष के बच्चे सही ढंग से स्कूल जाने लायक भी नहीं बन पाते, उनके माता-पिता को हर पल उनका ख्याल रखना पड़ता है, वैसे में एक-दो नहीं दर्जनों बच्चे विभिन्न रिएल्टी शोज में अपने 'फनÓ से कार्यक्रम के जज और दर्शक को दांतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर कर रहे हैं। कोई इन्हें ईश्वर की नेमत कह रहा है तो कोई इसे परिवार की संगत का नाम दे रहा है। सूफी गायकी सहित अन्य गायकी में अपना नाम स्थापित कर चुके कैलाश खेर कहते हैं, 'गीत-संगीत से संबंधित रिएल्टी शोज में जिस प्रकार से आठ से बारह वर्ष तक के बच्चे जिस प्रकार से गायकी कर रहे हैं, वह केवल रियाज से संभव नहीं है। कितना भी रियाज किया जाए लेकिन बगैर ईश्वर की नेमत के यह सहज नहीं है। जरूर इन बच्चों पर ऊपर वालों की असीम कृपा है।Ó
ऐसा नहीं है कि बच्चे केवल रिएल्टी शोज में ही भाग लेते हैं। कई बाल कलाकार विभिन्न फिल्मों और धारावाहिकों में अपने हुनर का झण्डा बुलंद कर चुके हैं। 'बालिका वधूÓ की आंनदी, 'आपकी अंतराÓ की अंतरा सरीखें बाल कलाकार अपने बूते चैनल का टीआरपी बढ़ाने में सक्षम रहे हैं। ऐसे में बच्चों की एक नई फौज तैयार हो रही है जो अब बाल कलाकार बनना चाह रही है। एक तरह से उनमें गुणात्मक विकास हो रहा है। साथ ही बच्चों से माता-पिता की अपेक्षाएँ काफी बढ़ गई हैं और अधिकांश पालकों से बातचीत में यह तथ्य सामने आता है कि हम अपनी इच्छा आकांक्षाएँ बच्चों पर नहीं लाद रहे हैं, बल्कि यह प्रतिस्पर्धा का जमाना है। इस कारण बच्चों को मेहनत कर सफलता तो प्राप्त करना ही होगी। बच्चों के मन में अच्छाई और बुराई के बीच के अंतर को समझाने की अपेक्षा सफलता की परिभाषा ही रटवाते रहते हैं। मीडियाकर्मी तब्बसुम हक कहती हैं, 'टीवी की दुनिया में जाते ही बच्चे भावनाओं और प्रेम से ऊपर सफलता को समझने लगते हैं और एक रोबोट की तरह काम करने लगते हैं। इस प्रक्रिया में बचपन कहीं खो-सा जाता है। बच्चों का बचपन माता-पिता की सामाजिक प्रतिष्ठा और आकांक्षाओं की बलि चढ़ जाता है। बचपन मन ही मन रोता होगा, पर उसका रुदन माता-पिता को सुनाई नहीं देता, क्योंकि वे अपने बच्चों को सफलता दिलवाने के लिए स्वयं इस प्रक्रिया में इतने उलझ जाते हैं कि अपने बच्चे की तरफ ही उनका ध्यान नहीं जाता।Ó दर्शकों की वाहवाही जीतने के लिए व अपने शो की टीआरपी बढ़ाने के लिए आजकल रियलिटी शो में छोटे बच्चों को हथियार बनाकर बाजी खेली जा रही है। जिसमें शायद इन शो के निर्देशकों की तो चाँदी हो रही है पर दूसरी ओर जीवन की जंग में उन बच्चों की हार हो रही है, जिनमें कल तक जीत का जुनून था पर आज हार की मायूसी। टेलीविजन पर वर्तमान में दिखाए जाने वाले कई रियलिटी शो जैसे छोटे मियाँ, बूगी-वूगी, सारेगामा, अमूल स्टार वॉइस ऑफ इंडिया का केंद्र नन्हे बच्चे ही हैं, जो अपनी पढ़ाई व परिवार को छोड़कर इन कार्यक्रमों में शिरकत करने दूर-दूर से आते हैं व एक जोकर की तरह सबको हंसाते है। बच्चों के बारे में जैसा कि कहा जाता है कि वे तन और मन दोनों से ही कोमल होते हैं। एक छोटी सा आघात ही उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए काफी है। फिर मजा नहीं आया, तुमने ऐसा गाना क्यों चुना, आज तुम नहीं छाए ... वगैरह कमेंट तो आग में घी की तरह काम करते हैं। पढ़ाई की उम्र में एक ओर जहाँ ये मासूम बच्चे एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी बन जाते हैं वहीं पैसे व ख्याति का लालच इनसे इनका बचपन छीन लेता है व छोटी सी उम्र में ही बड़ा बना देता है। कई बार सुनने में आता है कि रियलिटी शो में हार के सदमे को न सह पाने के कारण किसी बच्चे ने आत्महत्या की कोशिश की तो किसी को अपने तनाव पर काबू पाने के लिए मनोचिकित्सक का सहारा लेना पड़ा। आखिरकार बच्चों के बीच टैलेंट की जंग के नाम पर जिंदगी से जंग कैसी?
सच तो यह भी है कि गत 5 वर्षों में चैनलों पर बच्चों के लिए भी रियलिटी शो के आयोजन किए गए, जिनमें देश के कुछ ही राज्यों से बच्चों ने भाग लिया है। महाराष्टï्र, आंध्रप्रदेश, जम्मू-कश्मीर सहित दक्षिण के तमाम राज्य जहां भाषाई भेदभाव अपेक्षाकृत अधिक है, के बच्चे इन शोज में नहीं आते। हिंदी कार्यक्रम उन्हें रास नहीं आता। हिंदी चैनलों पर जितने भी रिएल्टी और टेलेंट शो होते हैं उनमें बिहार, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम और उत्तरपूर्वी प्रदेशों से ही प्रतिभागी आए हैं। जबकि बॉलीवुड और हिंदी की दुनिया इससे कहीं अधिक है। कई कार्यक्रमों में तो विदेशों के भी प्रतिभागी आए हैं, जिनका सरोकार हिंदुस्तान से रहा है। लेकिन भाषा और क्षेत्रीयता के नाम पर हो-हल्ला करने वाले महाराष्टï्र और आंध्रपदेश सरीखें राज्यों के प्रतिभागी ने इसमें शिरकत नहंी की। कुछ बच्चों ने तो तमाम रूढि़वादी बंदिशों को तोड़कर भी अपने हुनर का मुजाहिरा किया है। हाल ही में राजस्थान के बीकानेर की प्रियंका माल्या ने अपने परिवार और गांव वालों से विरूद्घ गीत-संगीत के कार्यक्रम में भाग लिया। कार्यक्रम के जज अलका याज्ञनिक, अभिजीत और कैलाश खेर ने लोगों से विशेष रूप से उनके गांववालों से निवदेन किया कि एक प्रतिभा को केवल अपनी पुरातन विचारधारा के कारण मत कुचलिए। इसका असर हुआ और गांव के आधे से अधिक लोग प्रियंका के पक्ष में खड़े हुए। लिहाजा, छोटे उस्ताद जो आगे बढऩे का जज्बा रखते हैं तमाम रूढि़वादी बंदिशों को तोड़कर आगे बढ़ रहे हैं। निश्चित रूप से यह आने वाले कल के लिए एक सुनहरी किरण है।
हरेक सिक्के के दो पहलू होते हैं। सो, एक ओर बाल कलाकार नए आयाम गढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर वे कई परेशानियों में भी फंसते जा रह हैें। बच्चों के अभिभावक की अपेक्षा बढ़ती चली जाती है। रियलिटी शोज के औचित्य और अभिभावकों के बर्ताव पर सवाल खड़े करते हुए वरिष्ठ मनोविद डॉ। संदीप वोरा कहते हैं , 'सफलता का कोई शार्टकट नहीं होता। दरअसल, बच्चों के अभिभावक और रियलिटी शोज के आयोजक सेलिब्रिटी बनाने के नाम पर मासूम बच्चों को अपनी कमाई का हथियार बना रहे हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो बच्चे रियलिटी शो में चमकने के बाद भी आगे चलक र गुमनाम हो जाते हैं। छोटी उम्र में तनाव का अंजाम खौफनाक हो सकता है। इसका असर मानसिक विकास पर तो पड़ता ही है, पढ़ाई-लिखाई भी चौपट होने लगती है।Ó लेकिन डॉ. वोरा इस बात का भी हिमायत नहीं करते कि अपने बच्चों को सेलिब्रिटी बनाने का ख्वाब कोई पाले ही नहीं।Ó एक रियलिटी शो के होस्ट और भोजपुरी फिल्मों के स्टार रवि किशन भी मानते हैं कि कई बार तो बच्चों को 12 से 14 घंटे तक लगातर रियाज और फिर शूटिंग करनी पड़ती है। जाहिर है छोटे बच्चों के लिए यह बोझिल काम ही होगा। वह कहते हैं, 'आयोजकों को भी यह बात समझनी होगी। बच्चों के मूड का भी ध्यान रखना होगा। सबसे बड़ी चीज यह है कि शोज में शामिल होने वाले जज अगर बच्चों की तारीफ न कर सकें, तो कम से कम उनकी खिंचाई तो न करें।Ó

शनिवार, 8 अगस्त 2009

बदलते मापदण्ड

अगर किसी ने मुझे गदहा कहा
तो मुझे खुद पे गर्व होगा
आखिर किसी ने मेरे
सीधेपन और सहिष्णुता की पहचान की तो की।

किसी को कुत्ता कहना
उसकी वफादारी को सही आंकना है
अब तो मानव
कुत्ता कहलाने के भी काबिल नहीं रहा
वह तो खिलानेवाले को ही
काटने दौड़ता है सबसे पहले।

साँप
दूध और डंडा में
अंतर नहीं समझता है
जो भी सामने आए
उसी पर दंश छोड़ता है
इसीलिए इसकी तुलना
आदमी से की जाने लगी है।

सबसे बड़ा अपमान मुझे
आदमी कहलाना लगता है
जो अंदर और बाहर
जहर ही जह रखता है
सियार, चील और घडिय़ाल
की बिसात ही क्या
यह गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलता है।

- विपिन बादल

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

गौर फरमाएं

इक दावत एक कलम हो तो गजल होती है,

जब ये सामान बहम हो तो गजल होती है।


मुफलिसी, भूख, मरज, इश्क, बुढ़ापा, औलाद

दिल को हर किस्म का गम हो तो गजल हेाती है।


तन्दुरूस्ती भी जरूरी है तगज्जुल के लिए

हाथ और पांव में दम हो तो गजल होती है।


शेर नाजिल नहीं होता कभी लालच के बगैर,

दिल को उम्मीदे-रकम हो तो गजल हेाती है।


गजल की शक्ल बदल दी है ऑपरेशन से,

सुखनबरी है अगर ये, तो सर्जरी क्या है?


मेरी गजल में तखल्लुस किसी का फिट कर लो,

तखल्लुसों की भी इस शहर में कमी क्या है?


मैं जब गजल में गुलिस्तां का जिक्र करता हँू,

वो पूछते हैं गुलिस्तां की फारसी क्या है?

- दिलावर फिगार, पाकिस्तान।



लफ्ज तोड़े-मरोड़े, गजल हो गई

सर रदीफों के फोड़े, गजल हो गई।


काफिया तंग देखा तो उसकी जगह,

रख दिए ईंट-रोड़े, गजल हो गई।


ऊंट-बिल्ली से बेमेल मिसरे थे कुछ,

कान उनके मरोड़े, गजल हो गई।


लीद करके अदीबों की महफिल में कल,

हिनहिनाए जो घोड़े, गजल हो गई।


लेके माइक गधा, इक लगा रेंगने,

हाथ पब्लिक ने जोड़े, गजल हो गई।


पंख चींटी के निकले, बनी शाइरा

आन लिपटे मकोड़े, गजल हो गई।


इक रूबाई थी 'अल्हड़Ó पे कब से फिदा,

ले उड़े कुछ निगोड़े, गजल हो गई।


- अल्हड़ बीकानेरी, हिन्दुस्तान

सस्ती लोकप्रियता का आसान नुस्खा

लोकप्रियता के लिए चर्चा और विवाद में बने रहना कुछ लोगों का शगल होता है। तथ्य है कि इस सस्ती लोकप्रियता का किटाणु नामचीन लोगोेें में कुछ ज्यादा ही होता है। खासकर राजनीति और कला जगत से जुड़ी हस्तियाॅ ंतो मानो इस फोबिया का शिकार ही होती है। फिल्मी दुनिया के जान पहचाने चेहरे तो इसे अपनी कामयाबी और लगातार काम मिलते रहने का सबसे आसान मंत्र मानते हैं। परन्तु कई बार इस चक्कर में वे उन सीमाओं का उल्लंघन करने से भी बाज नहीं आते जिससे सामाजिक सद्भाव प्रभावित हो सकता है। अपने नीहित स्वार्थ के लिए ’साम्प्रदायिक कार्ड’ खेलने से भी नहीं हिचकने वाले लोग अक्सर यह भूल जाते हैं कि उनके कला और कृतित्व को दूसरे वर्ग, सम्प्रदाय और धर्म के लोगों ने ही ज्यादा सराहा है। अभी कुछ दिन पहले ही साम्प्रदायिकता की आॅंच में चर्चा की रोटी सेंकनेवालो में फिल्म कलाकार इमरान हाशमी भी शामिल हुए हैंै। सवाल है कि साम्प्रदायिक कार्ड खेलकर विवाद खड़ा करने वाले इन कलाकार रुपी कलहकारों पर अंकुश लगाने के लिए कठोर कानूनी प्रावधान नहीं होना चाहिए ?
हाल के दिनों में अभिनेता इमरान हाशमी ने अपनेको ’मुसलमान’ होने के कारण किसी हाऊसिंग सोसाइटी में घर नहीं मिलने का पिटा पिटाया आरोप लगाकर सेकुलर मीडिया में खूब सुर्खियाॅं बटोरी। ’विचारपरस्ती’ में आकंठ डूबे कुछ मीडिया समूह तो कई दिनों तक इसे अपने समाचार और चर्चा मंे शामिल कर धर्मनिरपेक्षता के कुुंद हो रहे धार को तेज करने की फिर से एक मुहिम ही चला दी। जैसा कि स्वाभाविक था, ऐसे मामले में निर्माता निर्दशक महेश भट्ट हमेशा की तरह ’माइक’ संभालने वालों में सबसे आगे रहे। इस बार तो मामला उनके प्रिय भानजे इमरान हाशमी ने उठाया था इसलिए उनका उछलकर सबसे आगे आना कतई अनापेक्षित नहीं था। सेकुलर इलेक्ट्रानिक मीडिया अपनी फितरत के अनुसार इस मामले को सुर्खी बनाता रहा किन्तु इस अहम् बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि इमरान को उसके पसंदीदा सोसाइटी में घर नहीं मिलना एक अलग मुद्दा था जिसे इमरान और मीडिया ने ’मुसलमान’ शब्द से जोड़कर अपनी संकीर्ण मानसिकता को जाहिर किया। इमरान ने कहा कि ’’ उसे लगता है’’ कि उसके मुसलमान होने की वजह से मकान नहीं दिया गया। यानि उसने अपनी कल्पना को मकान नहीं मिलने के कारण में शामिल कर लिया और इसमें मुसलिम रंग भरकर सोसाइटी पर दवाब बनाने की सोची समझी रणनीति अपनाई। ऐसे में उसके मामा भला कैसे साथ नहीं निभाते! भानजे को शह देकर उकसाने और उचित अनुचित में साथ देने की भारतीय परम्परा तोे महाभारत काल से ही देखने में आती है।
यह कोई पहला उदाहरण नहीं है जब कुछ नामचीन लोगों ने अपनी भड़ास को ’मुसलिम एजेंडा’ बनाने का प्रयास किया है न ही यह अंतिम उदाहरण होने की ही संभावना दिखती है। मैच फिक्ंिसग की जद मेें आये पूर्व क्रिकेटर मुहम्मद अजहरुद्दीन ने इस कार्ड का इस्तेमाल काफी पहले किया था। सेकुलर खेमे के प्रमुख खेलाड़ी और बाॅलिवुड हस्ती शबाना और जावेद अख्तर भी इस खेल में शामिल हो चुके हैं। जिन नामचीन हस्तियों द्वारा इस तरह का खेल खेला गया है वे कहीं न कहीं बीमार मानसिकता से ग्रस्त भी हो सकते हैं, इसकी संभावाना भी बनती है। इन लोगों को अभिनेता शाहरुख और सलमान खान ने आइना दिखलाने वाला जवाब देते हुए कहा कि जिस तरह का आरोप इमरान ने लगाया है वैसा ’मुम्बई’ में नहीं होता। उन लोगों ने इस तरह के घटिया आरोपों का सहारा लेकर दवाब बनाने की छिछोरी रणनीति बनाने वालों को स्पष्ट कहा है कि यदि इस तरह की कोई बात मुम्बई में होती तो आरोप लगाने वाले उस मुकाम को कभी हासिल नहीं कर सकते थे जिस मुकाम पर वे आज हैं।
हाशमी ने एक और आरोप लगाते हुए कहा कि सोसाइटी द्वारा उनसे चरित्र प्रमाण पत्र माॅंगा गया। पता नहीं हाशमी साहब कितने पढ़े लिखे हैं कि इस तरह का इस तरह का आरोप लगाने से पहले कुछ सोचते भी नहीं। स्कूल - काॅलेज में नामांकन, स्थानांतरण से लेकर सरकारी और कई गैर सरकारी संस्थानों में भी चरित्र प्रमाण पत्र की आवश्यकता पड़ती है। इसके अलावा भी कई जगह इसका प्रावधान है। अभिनय करना जीविकोपार्जन का एक साधन हो सकता है किसी व्यक्ति के अच्छे चरित्र की गारंटी नहीं। यदि किसी सोेेेसाइटी के नियम और शर्तों में इसका उल्लेख है तो उसका पालन किया जाना चाहिए न कि अपनेको अति विशिष्ट मानकर इससे आहत होना चाहिए।
इमरान हाशमी का प्रकरण वास्तव में एक खास मानसिकता का द्योतक है जिसका सबसे ंअधिक फायदा देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी के चतुर सयान लोग काफी उठाते रहे हैं। वोट आधारित सरकार की तुष्टीकरण की नीति और प्रगतिशीलता का चादर ओढ़नेवाला मीडिया का एक बड़ा वर्ग इस मानसिकता को खाद पानी मुहैया कराते हैं। किन्तु यह देश और समाज के हित में नहीं है। अपने फायदे के लिए धर्म और सम्प्रदाय की ओट लेनेवाले सामाजिक सद्भाव के लिए खलनायक का काम कर रहे हैं। कानून को इस दिशा में कारगर और सख्त होने की आवश्यकता है।


- विपिन बादल
9810054378

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

जुर्म किया तो क्या?

आम धारणा है कि एक झूठ को बार-बार पूरे शिद्दत के साथ बोला जाए तो वह सच जैसा लगने लगता है और संभवत: इसी धारणा पर मुंबई हमले के आरोपी अजमल कसाब चल रहा था। फिर अचानक एक दिन उसने वह सच कबूला जो वाकई सच था। तभी तो कहा जाता है कि सत्य प्रताडि़त हो सकता है पराजित नहीं। इस प्रकरण में तो सौ फीसदी सही है। ऐसे में सवाल उठता है कि महीनों तक झूठ बोलने वाला कसाब अचानक सच बोलते ही अपने लिए 'फांसीÓ की मांग क्यों करने लगा? जो अपने मुल्क से हिंदुस्तान आया था लोगों की जान लेने, आज वह अपने प्राण क्यों गंवाना चाहता है? जानकार कहते हैं कसाब 'जन्नतÓ के लिए फांसी के फंदे पर झूलना चाहता है।
अद्र्घसत्य भी तो यही है। पाकिस्तान के कुछ मदरसों में जहां आतंकवादियों को पहली शिक्षा दी जाती है उसके पाठï्यक्रम में पढ़ाया जाता है कि जिहाद करने वालों को जन्नत नसीब होती है। इस पाठयक्रम का सार इस प्रकार है,'हमारा धर्म दुनिया का सबसे अच्छा धर्म है, हमारे मुस्लिम अफगानिस्तान पर रूसी कम्युनिस्टों ने कब्जा कर लिया है, ये कम्युनिस्ट अल्लाह में विस्वास नहीं करते, इसलिए वे काफिर हैं। इन काफिरों को मारना जिहाद कहा जाता है। इस जिहाद में कुर्बानी देने वाला सीधे जन्नत जाएगा, जहां 72 कुंवारी हूरें उसका इंतजार कर रही होंगी।Ó
तभी तो मुंबई में 26/11 को हुए आतंकवादी हमलों के केस में मोहम्मद अजमल आमिर कसाब ने अपना जुर्म स्पेशल कोर्ट में कबूल किया। उसने जज से मुकदमे को जल्द खत्म करने की गुजारिश की। इससे पहले कसाब जुर्म कबूल करने से इनकार कर चुका था और खुद को नाबालिग भी बता चुका था। खुद कसाब के वकील अब्बास काजमी ने अचानक आए इस बदलाव पर हैरत जाहिर करते हुए कहा, 'मुझे आज से पहले इसका पता नहीं था।Ó वहीं सरकारी वकील उज्ज्वल निकम की त्वरित प्रतिक्रिया थी, ' यह कम सजा पाने के लिए कसाब की नई तिकड़म है। Ó काबिलेगौर है कि मुकदमे के 65 वें दिन जब इस केस में 135 वां गवाह बयान देने के लिए सामने आया , तभी कसाब ने अपने वकील से 30 सेकंड बात की। फिर वकील ने कोर्ट में बताया कि कसाब कुछ कबूल करना चाहता है। इजाजत मिलने पर कसाब ने जज को बताया कि वह कैसे करांची से मुंबई आया , छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और कामा अस्पताल पर हमले किए। उसने तीन पुलिसवालों की हत्या करने और टैक्सी में बम प्लांट करने की बात भी मानी। कसाब ने उन लोगों के नाम भी लिए , जो अटैक को पाकिस्तान से हैंडल कर रहे थे। इनमें अबू हमजा , अबू जिंदाल , अबू काफा और जकी - उर - रहमान लखवी हैं। कसाब के मुताबिक , लखवी ने ही उन्हें कराची से बोट पर विदा किया था और वही हमले का मास्टरमाइंड था।Ó बकौल सरकारी वकील उज्ज्वल निकम, 'कसाब ने लश्कर - ए - तैबा के संस्थापक हाफिज मोहम्मद सईद का नाम एक बार भी नहीं लिया , जबकि इससे पहले वह सईद का पूरा ब्यौरा मैजिस्ट्रेट को बता चुका है। जिंदाल का नाम वह काफी सोच - समझ कर ले रहा है।Ó
गौर करने योग्य तथ्य यह भी है कि स्पेशल कोर्ट के जज एम । एल . ताहिलयानी ने कसाब से पूछा , ' आज अचानक आपने क्यों कबूल किया ? जब पहले चार्ज लगाए गए थे तब क्यों नहीं किया ?Ó इस पर कसाब ने कहा , ' पहले पाकिस्तान ने यह नहीं माना था कि मैं उनका हूं। आज मान लिया है , इसलिए मैं बयान दे रहा हूं।Ó गौरतलब है कि पाकिस्तान में फेडरल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी ने रावलपिंडी की अदालत में जो चार्जशीट दाखिल की है , उसमें कसाब को पाकिस्तानी नागरिक माना गया है।
कुछ इसी प्रकार का मामला संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरू की है जो भारतीय कानून की नजरों में अपराधी है और न्यायालय उसे फांसी की सजा मुकर्रर कर चुका है। लेकिन भारतीय सरकारी-राजनीतिक व्यवस्था के चंद छिद्रों के कारण उसका मामला अधर में लटका हुआ है। जबकि हिंदुस्तान के अतिसुरक्षित तिहाड़ जेल में हाईप्रोफाइल कैदी के रूप में जीवनयापन कर रहा है अफजल स्वयं कई बार मांग कर चुका है कि उसे जल्द से जल्द फांसी दे दी जाए। लेकिन, हमारी व्यवस्था है कि हम फांसी नहीं दे रहे? सुरक्षाबलों ने कई साथियों की प्राण गंवाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन किया और न्यायपालिका अपना काम कर चुकी है, बावजूद सियासत पर कुण्डली मारकर बैठे चंद लोग अपने कौन सा स्वार्थ देख रहे हैं, कहा नहीं जा सकता?
दरअसल, बार-बार हो रहे आतंकी हमलों ने जिन जुमलों को जनता की जुबान पर चढ़ा दिया है उनमें से एक है जेहाद। जानकारों की मानें तो कुरआन में यह शब्द कहीं नहीं है। इसे गढऩे का श्रेय अमरीकी प्रशासन को है। डब्ल्यूटीसी टावर्स पर हमले, जिसमें तीन हजार से ज्यादा बेकसूरों ने अपनी जान गंवाई थी, के बाद इस शब्द का मीडिया में जमकर इस्तेमाल शुरू हो गया। जेहाद और काफिर शब्दों को मीडिया ने नए अर्थ दे दिए। धीरे-धीरे ये शब्द पहले आतंकवादियों से और बाद में सभी मुसलमानों से जुड़ गए। सच यह है कि कोई जन्म से आतंकवादी नहीं होता। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक कारण उसे आतंकवादी बनाते हैं। अल् कायदा का गठन आईएसआई ने सीआईए के इशारे पर करवाया था। अल् कायदा ने बडी़ संख्या में मदरसों की स्थापना की। इनमें पढऩे वाले मुस्लिम युवकों के दिमाग में यह भर दिया गया कि (काफिरों) को मारना (जिहाद) है। इस सबका उद्देश्य था अल् कायदा के नेतृत्व में मुस्लिम लडा़कों की ऐसी फौज तैयार करना जो अफगानिस्तान से रूसी सेनाओं को खदेड़ सके। कुर्बानी देने वाला सीधे जन्नत जाएगा जहां 72 कुंवारी हूरें उसका इंतजार कर रही होंगी। इस प्रकार एक राजनैतिक लड़ाई पर धर्म का मुल्लमा चढ़ा दिया गया। अल कायदा के लड़ाके अफगानिस्तान की लड़ाई खत्म होने के बाद दक्षिण एशिया में आतंक फैलाने में जुट गए। इस तरह अपने निहित राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए अमरीका ने एक ऐसे भस्मासुर का निर्माण कर लिया जिसकी चपेट में बहुत कुछ भस्महोनेवाला था। कुरान में (जिहाद) का अर्थ होता है बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्ष करना, अन्याय के खिलाफ लडऩा लेकिन जिहाद के नाम पर अमरीका ने विश्व को आतंकवाद का उपहार दिया है। यह सही है कि भारत जैसे कई देशों की इस्लामिक संस्थाएं, शिक्षण-संस्थान और उलेमा तथा विद्वान यह प्रचार कर रहे हैं कि आतंकवादी जिस जेहाद शब्द के इस्तेमाल के साथ निर्दोष लोगों का कत्ल कर रहे हैं, इस्लाम में उसको पूरी तरह ख़ारिज किया गया है। इन संस्थाओं ने इस मुत्तलिक बाकायदा मुहिम संचालित कर रखी है। लेकिन आतंकवादियों का 'जेहादÓ दिन पर दिन और तीखा तथा मारक होता जा रहा है। उसका एक कारण यह भी है कि उलेमाओं की बात समझने और जेहाद का सही अर्थ खोजने के लिए एक सीमा तक धैर्य और समझदारी की ज़रूरत है, वहीं आतंकवादियों का 'जेहादÓ किसी उत्तेजक नारे की तरह 'थ्रिलÓ पैदा करता है। यही कारण है कि जेहाद के खिलाफ जेहाद का आंदोलन बहुत हद तक असरकारक सिद्ध नहीं हो रहा है। इसके अलावा आतंकवाद को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मिलने वाली राजनीतिक मदद और उप्रेरणा से भी इन्कार नहीं किया जा सकता जिसके चलते धर्मगुरुओं की एक फौज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इन आतंकवादियों की हिमायत में लगी है। 'जेहादÓ शब्द सुनते ही लोगों के दिमाग पर तुरंत युद्ध की तस्वीर खिंचने लगती है, लेकिन इस्लाम के नजरिए से यह सही मतलब नहीं है। जेहाद सिर्फ लड़ाई नहीं, बल्कि ऐसे नियमों और बुराइयों से जंग है, जो इंसान और इंसानियत के खिलाफ हों। इस्लाम में इंसानियत के दुश्मनों के खिलाफ लड़ी गई लड़ाइयों को ही जेहाद कहा गया है। किसी के खिलाफ बिना किसी मुद्दे के जंग का ऐलान दरअसल जेहाद नहीं है। मौलाना मोहम्मद अबुल हसन अशरफ मियां कहते हैं, 'इस्लाम और इंसानियत के खिलाफ काम करने वालों का सामाजिक बहिष्कार भी जेहाद है। केवल लड़ाई से बुराइयों पर जीत नहीं होती। बुराई करने वाले या उसे बढ़ावा देने वाले लोगों को समाज से दूर करना भी जेहाद है। लोगों को सच्चाई और चैन व अमन के राह पर चलवाने के लिए किया गया हर काम जेहाद है।Ó
केवल यह कहकर छुटकारा नहीं पाया जा सकता कि आतंकवादी हिंसा सिर्फ कुछ सिरफिरे या बहके हुए लोगों का काम है। पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर हो रही आतंकवादी गतिविधियां इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि इस्लाम की पूरी विचारधारा में कहीं ऐसा कुछ जरूर है जिसे इस तरह की हिंसा के लिए आसानी से आधार बनाया जा सकता है। चार दिन की चांदनी की तरह चार दिन की शांति और फिर धमाका! यह हिंदुस्तान की नियति बन गई है। क्या देश का कोई हिस्सा ऐसा बचा है जिसके बारे में कहा जा सके कि यहां आतंकवाद के नापाक कदम नहीं पड़ सकते। सच यही है कि कहीं भी कभी भी आतंकवादी हमले हो सकते हैं और दुखद यह है कि ऐसी प्राय: हर घटना के तार इस्लामी मान्यताओं से जुड़ जाते हैं या जोड़ दिए जाते हैं।
ऐसे में सवाल सुरसा की भांति मुंह खोले खड़ा है कि अफजल और कसाब को फांसी मिलेगी या नहीं? सच तो यह भी है कि अफजल की फांसी को आजीवन कारावास में बदलने से दुनिया में कोई नहीं मानेगा कि किन्हीं शांतिवादी या गांधीवादी मूल्यों की विजय हुई है। यह तो सबसे भयावह अपराधियों के पैरोकारों के दबाव में अपनी ही न्याय प्रक्रिया का उपहास करना है। इसलिए इससे केवल यही माना जाएगा कि इसलामी आतंकवाद, उग्रता और ब्लैकमेल के समक्ष टिकने का साहस और आत्मबल भारत में नहीं है। दुनिया भर के इसलामी जेहादी इससे यह भांप लेगे कि किस हद तक भारत भूमि पर उनका आदेश, चाहे अप्रत्यक्ष ही सही चलने लगा है। यह हमारे देश और जनगण के भविष्य के लिए कितनी चिंताजनक बात होगी, उसे समझने का प्रयास करना चाहिए।