गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

उफ़, ये गर्मी ...
















कम कपड़े पहने, तो खैर नहीं!

ईरान में कम कपड़े पहनकर घूमने वाली महिलाओं को अब गिरफ्तार किया जाएगा। यह फरमान एक बड़े ईरानी विद्वान अपील के बाद तेहरान की पुलिस ने जारी किया गया है। एक ईरानी विद्वान ने कहा था कि महिलओं के 'अभद्र' पहनावे की वजह से नौजवान विचलित हो जाते हैं और इससे भूकंप का खतरा भी बढ़ जाता है।ब्रिटिश समाचार पत्र 'द डेलीग्राफ' में बुधवार को छपी एक रिपोर्ट के अनुसार तेहरान पुलिस के प्रमुख हुसैन साजेदिनिया ने कहा, "जनता को हमसे उम्मीद हैं कि हम इस्लामिक मूल्यों के खिलाफ व्यवहार करने वाले पुरुषों और महिलाओं के खिलाफ सही और उचित कार्रवाई करेंगे। उत्तरी ईरान के कुछ इलाकों में कम कपड़े पहनी महिलाएं और बालिकाएं देखी जा सकती हैं।"उन्होंने कहा, "इस तरह की स्थिति को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इस तरह के हालात में पकड़ी गई महिलाओं को पहले चेतावनी दी जाएगी और फिर उनकी गिरफ्तारी होगी।" हाल ही में ईरान धार्मिक नेता अयातुल्ला अजीज ने कहा था, "सड़कों पर जाओ और अपने गुनाहों को पश्चाताप करो। यह हम पर लानत है। इस शहर को छोड़ दो।"

साभार

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

समझौता

"तुम लोगों को देखते हो -- वे दुखी हैं क्योंकि उन्होंने हर मामले में समझौता किया है, और वे खुद को माफ नहीं कर सकते कि उन्होंने समझौता किया है। वे जानते हैं कि वे साहस कर सकते थे लेकिन वे कायर सिद्ध हुए। अपनी नजरों में ही वे गिर गए, उनका आत्म सम्मान खो गया। समझौते से ऐसा ही होता है।" ओशो

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

भूखों की संख्या कितनी

केन्द्र सरकार ने 2010-11 में, भूख से मुकाबला करने के लिए 1.18 लाख करोड़ रूपए खर्च करने का वादा किया है। अगर यूपीए सरकार गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती तौर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने पर विचार करती है तो उसे अपने बिल में अतिरिक्त 82,100 करोड़ रूपए का जोड़ लगाना होगा। यह बात राष्टï्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लेकर है। आश्चर्य तो इस बात को लेकर है कि अधिनियमत के नियमन के वक्त किसी का ध्यान गरीबों की संख्या पर नहीं गया। जब यूपीए की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने इस ओर ध्यान दिलाया तो नई चर्चा शुरू हुई।
वैसे भी अपनी सरकार मंहगाई को कम नहीं करने की बात जब खुलेआम कह रही है तो उसके मंशूबों से ताल्लुक रखने वाली चुप्पियों के भेद भी खुल्लमखुल्ला हो ही जाए। 'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियमÓ के होहल्ला से पहले, सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को याद कीजिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को 2 रूपए किलो की रियायती दर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने की बात कहता है। इसके बाद केन्द्र की यूपीए सरकार के 'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियमÓ का मसौदा देखिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती दर से महज 25 किलो खाद्यान्न की गारंटी ही देता है। मामला साफ है, मौजूदा खाद्य सुरक्षा का मसौदा तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ही कतरने (गरीबों के लिए रियायती दर से 10 किलो खाद्यान्न में कमी) वाला है।
अहम सवाल यह भी है कि मौजूदा मसौदा अपने भीतर कितने लोगों को शामिल करेगा ? इसके जवाब में जो भी आकड़े हैं, वो आपस में मिलकर भ्रम फैला रहे हैं। अगर वर्ल्ड-बैंक की गरीबी का बेंचमार्क देखा जाए तो जो परिवार रोजाना 1 यूएस डालर (मौजूदा विनियम दर के हिसाब से 45 रूपए) से कम कमाता है, वो गरीब है। भारत में कितने गरीब हैं, इसका पता लगाने के लिए जहां पीएमओ इकोनोमिकल एडवाईजरी कौंसिल की रिपोर्ट ने गरीबों की संख्या 370 मिलियन के आसपास बतलाई है, वहीं घरेलू आमदनी के आधार पर, सभी राज्य सरकारों के दावों का राष्ट्रीय योग किया जाए तो गरीब रेखा के नीचे 420 मिलियन लोगों की संख्या दिखाई देती है। यानि गरीबों को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों के अपने-अपने और अलग-अलग आकड़े हैं। इसके बावजूद गरीबों की संख्या का सही आंकलन करने की बजाय केन्द्र सरकार का यह मसौदा, केवल केन्द्र सरकार द्वारा बतलाये गए गरीबों को ही शामिल करेगा।
आ र्थिक पंडितों का मानना है कि राष्ट्रीय आय में वृध्दि जिस दर से होती है कोई जरूरी नहीं कि उसी दर से देश की गरीबी घटे। लेकिन आर्थिक नियम यह भी कहते हैं कि अगर राष्ट्रीय आय में वृध्दि होती है तो इसका अंश देश की जनता में बंटता है। बंटवारा समान हो या असमान इसकी जवाबदेही आर्थिकी की नहीं होती, सरकार की होती है। सरकार यह जवाबदेही तय करती है कि विकास के साथ समानता भी पनपे। लेकिन विकास और समानता सहचरी हो, यह समस्या भारत के सामने ही नहीं बल्कि उन सारे देशों के सामने है जो आज विकास की दौड में हैं। भारत के सामने यह समस्या कुछ ज्यादा ही विकराल भले ही हो। गरीबी पर सुरेश तेंदुलकर की आई रिपोर्ट कुछ ऐसी ही कहती है। रिपोर्ट के अनुसार भारत का प्रत्येक तीसरा व्यक्ति गरीब है। आर्थिक क्षेत्र में छलांग लगाते भारत के लिए यह रिपोर्ट किसी शर्म से कम नहीं। रिपोर्ट तो आखिर कागजी सुबूत है जो सर्वे के आधार पर तय किए जाते हैं। सर्वे कोई भी हों उसका एक राजनीतिक पहलू अवश्य होता है। तभी तो गरीबी राजनीति के लिए सबसे लोकप्रिय हथकंडा मानी जाती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि देश में गरीबी एक अलग समस्या है जबकि उसका मापदंड तय करना उससे अलग समस्या। यहां मापदंड से अर्थ उसे तय करने की नीतियों और तरीकों से है। आज अहम सवाल सामने यह है कि देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की वास्तविक संख्या कितनी है? मौजूदा समय में सरकार के पास चार आंकड़े हैं और चारों भिन्न-भिन्न। इसमें देश की कुल आबादी में गरीबों की तादाद 28.5 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक बताई गई है। इन दोनों में से कौन सा आंकडा सही है यह सरकार को ही तय करना है। तीन दशक पहले के आर्थिक मापदंड के अनुसार देश में गरीबी रेखा से नीचे आने वाली आबादी कुल जनसंख्या की 28.5 प्रतिशत है। अभी तक यही आंकडा सरकार दिखाती आई थी, जिसमें गरीबी पिछली गणना से कम दिखती है। इस सरकारी आंकलन को सरकार द्वारा ही गठित तीन समूहों ने खारिज कर दिया है। योजना आयोग द्वारा गठित एसडी तेंदुलकर की रिपोर्ट ने बताया कि वर्ष 2004-05 में गरीबी 41.8 प्रतिशत थी। जबकि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एनसी सक्सेना समिति के अनुसार देश में 50 प्रतिशत यानी आधी आबादी निर्धन है। समस्या सिर्फ इन आंकड़ों के साथ ही नहीं है। गरीबी की प्रतिशत और गरीबी रेखा का निर्धारण इतना पेंचीदा काम है कि सरकार की विभिन्न समितियां भी इसे साफ नहीं कर पातीं। लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो सरकार इसे जानबूझ कर पेंचीदा बनाए रखना चाहती है जिसका सरल उदाहरण विभिन्न समितियों का विभिन्न आंकडे पेश करना है।
आश्चर्यजनक रूप से तेन्दुलकर की यह रिपोर्ट सेनगुप्ता कमेटी की उस रिपोर्ट को भी झूठा साबित कर रही है जिसमें उन्होंने देश की अस्सी फीसदी आबादी को 20 रुपये प्रतिदिन पर गुजारा करने की बात कही थी। यानी महीने में 600 रुपये पर। तेन्दुलकर का कहना है कि असल में भारत में 41 प्रतिशत से अधिक आबादी 447 रुपये मासिक पर गुजारा कर रही है जो कि सेनगुप्ता के बीस रुपये प्रतिदिन से काफी कम है। इनसे यही बात साफ होती है कि गरीबी रेखा को लेकर ही जब इतनी दुविधा है तो फिर उसके उन्मूलन पर कार्यान्वयन की स्थिति कैसी होगी। जो गरीब हैं वे और गरीब होंगे।

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

अरे बाप, लड़कियां इतनी पकाऊ

सुनते आ रहे हैं कि लड़के लड़कियों को पटाने के लिए उसे पकाते रहते हैं। यानी, बातों में उलझाए रहते हैं। एक बंद नहीं कि दूसरा शुरू। लेकिन दिल्ली का हाल ही अजूबा है। यहां तो लड़कियां फोन कर-करके लड़कों को पकाती है। न दिन देखती है न रात। बस, बात करेंगी? आप नहीं चाहेंगे तब भी। आपकी रूचि नहीं होगी तो जगाएगी... है न जबरदस्ती।
मोबाइल ने इस मुसीबत को और बढ़ा देती हैं। मेरी एक मित्र हैं, पंजाबन। वो कहती है कि बिहारी पकाऊ होते हैं। चलिए मान लिया...उनकी बात। आखिर हमारी मित्र हैं। दोस्तों में ये बाते चलती हैं। लेकिन पिछले कुछ महीनों से मुझे तो दिल्ली की लड़कियों ने परेशान कर रखा है। नंबर बदल-बदल कर फोन करती हैं। कभी किसी कंपनी के नाम पर तो कभी किसी दूसरी। आप न चाहें तब भी आपको फोन करेगी।
फोन करते ही एक सांस में अपना नाम-पता-काम सब बता देंगी। आपके पूछने से पहले। अमूमन ऐसे कॉल लोन के लिए आते हैं या फिर इंवेस्टमेंट करने के लिए। अव्वल तो यह कि आपका नाम उनको पहले से पता होता है और छूटते ही आपके नाम के संग संबोधन करेंगी। आपको लगेगा कि ये आपकी जान-पहचान की है, लेकिन दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं होता।
ऐसा ही एक फोन आज आईसीआईसीआई से मेरे पास आया। जान न पहचान, फिर भी सलाह देती हैं कि भविष्य के लिए कुछ रकम बचा लें। आगे काम आएगा। मैंने कहा नहीं करना है तो पूछती हैं कि काम नहीं करते? बोला नहीं, तो गुर्राती हैं कि फिर कैसे काम चलता है, मतलब कि रोटी कहां से मिलती है? अब, भला मेैं अपना पूरा ब्यौरा दूं उनको। लेकिन, यकीन मानिए, वे नहीं मानी। पूछती हैं, दिल्ली में रहते हैं, पांच वर्षों से मोबाइल रखें हैं, पैसा तो होगा ही। मैंने बोला, पिताजी का पैसा है, उसी के बल पर जीता हूं तो बोलती हैं- आजकल ऐसा कहां होता है? अब आप ही बताएं, कैसे उनकी बोलती बंद करूं?
इसी प्रकार करीब सप्ताह भर पहले कोटक महिन्द्रा बैंक से फोन आया, वे भी बचत की महिमा बता रहे थे। योजना और कंपनी का प्रोफाइल सुनने के बाद जब मैंने कहा कि पैसा नहीं है तो बड़े रौब से पूछती हैं, दिल्ली में करते क्या हैं? पूछने का अंदाज फिरौती जैसा था। मैंने कहा, घास छिलता हूं तेा बोलती हैं कि दिल्ली में घास कहां है? अब, मैं उनको दिल्ली सरकार के बागवानी विभाग से आंकड़ा लाकर दूं। पता नहीं, लड़कियों को अकल कब आएगी? कब वो पकाना छोड़ेगी? हो कोई सॉल्यूशन तो जरूर बताएं....

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

प्रेम के लिए प्रकृतस्थ होना जरूरी

बिना प्रकृति का सान्निध्य लिए प्रेम संभव नहीं है। यदि आपको प्रेम करना है तो प्रकृति के बीच जाकर और प्रकृति के रंग में ढ़लकर ही संभव है। यह कहने का यह मतलब यह भी नहीं है कि मैंने कोई शोध किया है अथवा दार्शनिक हो गया हूं। दरअसल, बैठे-बैठे यह विचार आया। एक खोज के क्रम में। ऐसा कई बार होता है कि आप करते हैं कुछ और हो जाता है कुछ। अमूमन, प्रेम में भी ऐसा ही होता है। कई मित्रों ने कहा कि उन्हें पता ही नहीं चला कि उन्हें प्रेम कब और कैसे हो गया। हलांकि, यह अलग मुद्दा है।
बात ये है कि जब तक आप-हम प्रकृति का अवलंबन स्वीकार नहीं करते प्रेम नहीं हो सकता। ओशो कहते हैं, 'प्रेम यानी समर्पण। समग्र समर्पण।Ó व्यवहार मैं भी देखा जाए तो बिना समर्पण के प्रेम हेाता कहां है? हां, कुछ पल के लिए आकर्षण हो सकता है। लेकिन जब प्रेम होगा तो समर्पण होगा ही। प्रकृति हमसे प्रेम करती है इसलिए हमें तमाम प्रकार के संसाधन उपलब्ध कराती है। माँ प्रेम करती है और बिना किसी लोभ के हम पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करती है।
आज कुछ तसवीर तलाशने के क्रम में तथाकथित प्रेमी-युगल का तसवीर देखने का मौका मिला। एक देखा, दो देखा और सिलसिला बढ़ता गया। अधिकतर युगल गलबाँहे डाले पार्क में बैठे थे। पार्क यानी बगीचा, प्रकृति है वहां। शहर की आपाधापी से दूर युगल कुछ पल शांति की तलाश में शायद गया होगा। तो मन में सवाल उठा कि प्रेम की पींगे बढ़ाने के लिए पेड़ का ही ओट क्यों? घर या किसी और भवन का एकांत कोना भी तो हो सकता है? लेकिन नहीं, अधिसंख्य प्रेमी प्रेम और झाडिय़ों की ओट में ही दिखें। चलिए इसी बहाने उन्हें प्रकृति की याद तो आईं।
अब गौर कीजिए, भारतीय प्रेम परंपरा के सर्वोच्च शिखर पर बैठे राधा-कृष्ण की किसी तसवीर को। दोनों किसी कदंब पेड़ के नीचे मिलेंगे। किसी-किसी तसवीर में तो सरित प्रवाह भी मिल जाएगा और गाय के भी दर्शन होंगे। मानों, कृष्ण ने प्रकृति को जानने के लिए ही प्रेम का वह रूप दिखाया हो। आज जब ग्लोबल वार्मिंग को लेकर हर कोई दुबला हुआ जा रहा है, वैसी स्थिति में प्रेम के नाम पर ही सही लोग प्रकृति को तलाशते तो हैं।

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

किम की मौत का रहस्य

जब इंसान सार्वजनिक जीवन में आ जाता है तो उसे बहुत सारे कायदे-कानून और लोकलाज का ख्याल रखना पड़ता है। लेकिन कुछ लोग अपने मन के मालिक होते हैं। जो मन में आया, किया। न तो लोकलाज और न ही कोई पछतावा। ऐसे ही बिरले लोगों की श्रेणी में उत्तर कोरिया के राष्टï्राध्यक्ष किम जोंग इल भी आते हैं, जो अपने राजशाही लाइफस्टाइल और मनमौजी के लिए विख्यात रहे हैं।
उत्तर कोरिया के राष्टï्रपति किम जोंग इल के पास देश-विदेश की यात्रा के लिए छह विशेष आलीशान ट्रेनें हैं। साथ ही सिर्फ उनके उपयोग के लिए 19 विशेष स्टेशन बनाए गए हैं। बताया जाता है कि ट्रेनों में विशेष कांफ्रेंस रूम, श्रोताओं के कमरे और आलीशान बेडरूम की भी व्यवस्था की गई थी। कहा जाता है कि किम हवाई यात्रा से घबराते हैं और कहीं भी जाने के लिए रेलमार्ग का ही उपयोग करते हैं। जनवरी 2006 में वह ट्रेन से ही चीन गए थे। ट्रेनों में सैटेलाइट फोन और फ्लैट स्क्रीन टीवी की सुविधा उपलब्ध है ताकि किम ताजा हालातों से अवगत रहें। किम की कहीं की भी यात्रा के पूर्व लगभग 100 सुरक्षाकर्मियों को स्टेशनों पर पहले से ही भेजा जाता है। इसके साथ ही अन्य ट्रैकों की बिजली गुल कर दी जाती है, ताकि उस समय कोई और ट्रेन उस स्टेशन पर न आ सके।
ऐसा नहीं है कि इनका यही एक शौक रहा है। किम जोंग-इल के पूर्व खानसामे का दावा है कि उनको जिंदा मछली खाना और ऐसी पार्टियों की मेजबानी करने का शौक है जिसमें वह औरतों को अमेरिकी डांस म्यूजिक पर निर्वस्त्र होने और नाचने का आदेश देते हैं। 'द सनÓ ने जोंग-इल के पूर्व खानसामे केनजी फूजीमोतो के हवाले से कहा उन्हें ऐसी ताजा मछली खाने में मजा आता है जो अब भी साँस ले रही हो और अपनी पूँछ हिला रही होती हो। उत्तर कोरिया से भाग कर जापान में छिपे 56 वर्षीय फुजीमोतो ने अपनी किताब 'आई वाज किम जोंग-इल्स कुकÓ (मैं किम जोंग-इल का खानसामा था)में यह भी दावा किया कि उत्तर कोरियाई राष्ट्रपति अपनी मौजमस्ती पूरा करने के लिए महिलाओं को अपने सहयोगियों के साथ निर्वस्त्र नृत्य करने का आदेश देते हैं। फूजीमोतो का कहना है कि उत्तर कोरियाई राष्ट्रपति हालीवुड के ऐक्शन हीरो ज्यां क्लाड वान डैम के प्रशंसक हैं और खूब शराब पीते हैं।
और उनकी यही शौक उन्हें ले डूबी। किम जोंग इल की तबीयत लगातार बिगड़ती गईं। मीडिया में उनके हार्ट, डायबिटीज, ब्रेन हेमरेज और बार-बार अचेत हो जाने की बीमारियों की गिरफ्त में आ जाने के दावे किया गया। उनकी मृत्यु को लेकर संशय बरकरार रखा गया। कई बार खबरें आई कि किम जोंग इल की मृत्यु हो चुकी, तो कुछ दिन बाद उनका वीडियो प्रसारित कर दिया जाता है। दरअसल, इनका परिवार की उत्तर कोरिया का राजशाही परिवार रहा है। इनके पिता किम इल सुंग उत्तर कोरियाई सरकार की 1948 में विधिवत स्थापना के बाद राष्ट्रपति हुए थे और सन् 1994 में उनका निधन हुआ। उन्हें उत्तर कोरिया का शाश्वत राष्ट्रपति घोषित किया गया है। इसलिए उनके सुपुत्र भले ही वहां तानाशाह हों, उनका आधिकारिक पद राष्ट्रपति का नहीं है और उनके पोते का भी नहीं होगा। किम इल सुंग क्रांतिकारी थे, इसलिए उनके खानदान में यह क्रांतिकारी काम हुआ कि वे मरने के बाद भी राष्ट्रपति बने रहे। कुछ लोग कह सकते हैं कि यह किम इल सुंग ने नहीं, उनके बेटे किम जोंग इल ने अपने पिता को शाश्वत राष्ट्रपति घोषित किया। लेकिन क्या फर्क पड़ता है, कितने लोग दोनों के बीच फर्क बता सकते हैं। तस्वीरें साथ-साथ रख दी जाएं तो कितने लोग बता सकते हैं कि कौन बेटा है, कौन बाप? खानदान की तीसरी पीढ़ी के बारे में तो कुछ पता ही नहीं कि किम जोंग कैसे दिखते हैं, क्योंकि उनकी एक ही तस्वीर उपलब्ध है, जो लगभग 15 साल पुरानी है, जब वे 11 साल के थे।
अभी भी संशय बरकरार है। किम की सेहत को लेकर द. कोरिया और जापान से लेकर अमेरिका तक के मीडिया में समय-समय पर निगेटिव खबरें आती रहती हैं। पिछले साल तो बीजिंग स्थित दक्षिण कोरियाई दूतावास ने ऐसी खुफिया रिपोर्ट मिलने का दावा कर दिया था कि किम की मौत हो चुकी है। जापान के फुजी टीवी ने तो यहां तक दावा कर दिया था कि किम को बचाने के लिए उनका सबसे बड़ा बेटा किम जोंग-नाम खुद फ्रांस जाकर एक न्यूरोसजर्न को लेकर चीन होते हुए प्योंगयांग आया था। लेकिन फ्रांस के ही एक अखबार ने इस खबर को गलत बता दिया था। जापान और अमेरिका में प्रमुखता के साथ किम की मौत की खबरें छपने के बाद बीबीसी ने उत्तर कोरिया की तरफ से जारी खंडन और उसकी ये स्वीकारोक्ति भी प्रसारित की कि किम को दिल का दौरा जरूर पड़ा है।
लेकिन सवाल कायम है कि किम के बाद कौन? किम की बिगड़ती सेहत की खबरों का असर उ. कोरिया की अवाम और शासन तंत्र दोनों पर एक हद तक जरूर पड़ता है। जानकार बताते हैं कि कम्युनिस्ट सिस्टम में नेता की खराब सेहत का पता चलने के बाद पार्टी का असंतुष्ट खेमा और सैनिक ताकतें उससे पिंड छुड़ाने की कोशिश में जुट जाती हैं। लेकिन ये खबरें गलत साबित होती नजर आए, तो पूरा सिस्टम नेता के साथ आ खड़ा होता है। साठ साल पहले उ. कोरिया की स्थापना के समय से ही वहां कम्युनिस्ट राज के पूरे ढांचे पर किम इल-सुंग और उनके परिवार की मजबूत पकड़ रही है, और इसीलिए उनके बेटे किम जोंग-इल की सेहत को लेकर उठने वाले तमाम सवालों को बगैर देर किए खत्म करने की कोशिशें की जा रही हैं। गत अप्रैल-मई में किए गए मिसाइल और एटमी परीक्षण इसी नजर से देखे जा रहे हैं।
किम जोंग-इल के उत्तराधिकारी के बारे में अभी तक कोई आधिकारिक घोषणा तो नहीं की गई है, लेकिन वेस्टर्न मीडिया को लगता है कि किम अपने तीन बेटों और दामाद में से सबसे छोटे बेटे किम जोंग-उन को ही सत्ता की बागडोर सौंपना चाहते हैं। 26 साल के किम जोंग-उन की शक्ल-सूरत, चाल-ढाल और सोच-विचार की उग्र शैली बिलकुल अपने पिता जैसी ही है, और पार्टी के वर्कर उसे 'ब्रिलिएंट कॉमरेडÓ के नाम से पुकारते हैं। किम के सबसे बड़े बेटे किम जोंग-नाम का नाम उत्तराधिकार से इसलिए बाहर हो चुका है कि 2001 में उसे तोक्यो एयरपोर्ट पर फर्जी पासपोर्ट पर हवाई सफर करते पकड़ लिया गया था। वैसे एक खबर ये भी है कि किम अपने दूसरे बेटे किम जोंग-चुल को लीडर के तौर पर सामने लाने के लिए ट्रेनिंग दे रहे हैं, लेकिन इस पर यकीन करने वाला तबका काफी छोटा है। उधर किम के साले जंग सोंग-थक को 2012 का इंतजार है, जब किम के उत्तराधिकारी का औपचारिक ऐलान होगा। अगर फैसला किम के किसी बेटे के हक में गया, तो उसे थक की चुनौती का सामना भी करना पड़ेगा।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

1947 टू एके-47

देश के स्वभामिमान पर जब स्वहित हावी हो जाता है तो पूर्व स्थापित मान्यताएं छीजते चले जाते हैं। एक-एक कर पुराने गौरवशाली इतिहास पर वर्तमान कालिख पोतता चला जाता है। नतीजन, राष्टï्र व समाज संक्रमण काल से गुजरता है। उन परिस्थितियों में भविष्य का स्पष्टï चित्र नहीं उभर पाता है। आखिर, जब महात्मा गांधी की भूमि पर गोधरा कांड होता हो, पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने वाले बाल गंगाधर तिलक के प्रदेश में क्षेत्रवाद आग उगल रहा हो, जवाहर लाल नेहरू के संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व अतीक अहमद सरीखें लोगों के हाथों में जाता दिखे तो चिंता होना स्वभाविक है।
भारत को आजादी मिले छह दशक से अधिक का समय हो चुका है। उम्र के हिसाब से बात की जाए तो यह वह उम्र होती है कि जब इनसान अपने जीवन के तमाम रंग देख चुका होता है। बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, गृहस्थजीवन आदि। इनसान को प्रौढ़ माना जाता है, लेकिन हमारा देश तो आज भी संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। आर्थिक और तकनीकी स्तर पर बेशक नए आयाम गढ़े गए हों, वैचारिक स्तर पर देश अधोमुखी हुआ है। शायद यही वजह है कि जिस आजादी को हासिल करने के लिए लोगों ने तिरंगे का सहारा लिया, आज तिरंगे पर हथियार हावी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सर्वोच्च संस्था संसद में बैठने के लिए आजादी के मतवालों ने तिरंगा लेकर आंदोलन किया तो वर्तमान में संसद के अंदर पहुंचने के लिए बाहुबली नेता एके-47 सरीखें हथियारों का सहारा लेते हैं। यह संक्रमण नहीं तो और क्या? एक नहीं ढेरों उदाहरण हैं। अव्वल तो यह कि देश के उच्चतम न्यायालय ने भी इस प्रकार के मामलों की सुनवाई में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच के आदेश नहीं दे सकता है। शीर्ष कोर्ट ने इसकी जिम्मेदारी जांच एजेंसियों पर डाली है। मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग के खिलाफ दायर आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले की सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया।
काबिलेगौर है कि देश के प्रथम राष्टï्रपति राजेंद्र प्रसाद जिस क्षेत्र से आते थे, उस सीवान का प्रतिनिधित्व मो. शहाबुद्दीन करते हैं। राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में देश को सुचारु ढंग से चलाने के लिए नीति-निर्धारण करने में महत्वूर्ण भूमिका निभाई तो आज शहाबुद्दीन बंदूक के बल पर अपने मन की चलाता है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का संसदीय क्षेत्र फूलपुर इस बात पर इतराता था कि उसने देश को पहला प्रधानमंत्री दिया, लेकिन आज क्या हाल है? बाहुबली और कई मामलों में वांछित अतीक अहमद को लोग डरकर वोट देते हैं। नेहरू-गांधी की विरासत की मलाई खा रही सोनिया की कांग्रेस अतीक अहमद को नेहरू जी की लोकसभा सीट फूलपुर से प्रत्याशी बनाती है। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विरोध का बिगुल फंूकने वाले बरेली के मंगल पांडे को हर कोई जानता है। आज बलिया सहित उसके पड़ोसी जिलों की क्या दशा है? बेशक, समाजवादी विचारधारा के चंद्रशेखर ने कई वर्षों तक बलिया का प्रतिनिधित्व किया हो, लेकिन हर कोई जानता है कि उनकी दबंगई के चलते इलाके में कोई उनके विरोध में चंू तक नहंीं कर सकता था। बलिया के पड़ोसी जिले गाजीपुर के अफजल अंसारी के कारनामों से हर कोई वाकिफ है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर कराए जाने वाले आम चुनाव में अंसारी किस प्रकार की व्यवस्था का मुजाहिरा करते हैं, कहने की आवश्यकता नहीं है।
विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा गुजरात अपने सपूत महात्मा गांधी को लेकर मुदित होता रहा है। उसी गुजरात में जब मानवता को कलंकित करने वाली गोधरा जैसी घटना घटती है और प्रदेश के मुखिया नरेंद्र मोदी का नाम भी घसीटा जाता है तो गांधी की विरासत शर्मशार होती है। अनेकता में एकता का रंग भरने के लिए महाराष्टï्र के कद्दावर नेता लोकमान्य बाल गंगधार तिलक ने गणेश महोत्सव का शुभारंभ किया। यह तिलक का ही प्रभाव था कि पूरे देश के लोग एक झंडे के नीचे आकर स्वंत्रतता के लिए आंदोलित हुए थे। पिछले कुछ समय से उन्हीं तिलक के महाराष्टï्र में पहले बाल ठाकरे और अब राज ठाकरे क्षेत्रवाद के नाम पर लोगों को लील रहे हैं। सऊदी अरब से एक मुसलमान आकर हिंदुस्तानी बनता है। जो पहले सर्वहारा था, महात्मा गांधी के कहने मात्र से विशुद्घ शाकाहारी बनता है और भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में आगे बढ़कर जिम्मेवारी लेता है। देश का पहला शिक्षा मंत्री बनकर शैक्षणिक सुधार करता है, लेकिन आज के मुसलमान धर्म के नाम पर सांप्रदायिक हो जाते हैं जिसका लाभ राजनीतिक दल उठाते हैं। आखिर, इसके लिए तो मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपना सर्वस्व न्यौछावर नहीं किया था? लोगों के मन में सवाल उठता है कि मक्का से आकर मौलाना अबुल कलाम आजाद को भारत को सर्वांगीण रूप से समझते हैं, लेकिन भारतीय होकर भी कश्मीर के यासीन मलिक सरीखे नेता अलगाववाद की राजनीति करते हैं।
पड़ोसी मुल्क किसी प्रकार से राष्टï्रीय अखंडता को आहत न कर सके, इसके लिए कश्मीर के राजा हरि सिंह ने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया। उसी कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद जैसे नेता भी हैं जो अपनी बेटी महबूबा के लिए आतंकवादियों के सामने घुटने टेक देते हैं। देश के गृहमंत्री के कर्तव्य को पूरी शिद्दत के साथ वल्लभ भाई पटेल ने निर्वहन कर आने वाली पीढिय़ों को संदेश देनेे की कोशिश की थी। उनकी विरासत को उनके बाद के लोग संभाल नहीं पाए। राजग के शासनकाल में देश के तात्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी कंधार कांड में आतंकवादियों के सामने झुकते हैं तो यूपीए के समय शिवराज पाटिल मुंबई हमले में अपनी अक्षमता का सार्वजनिक मुजाहिरा करते हैं।
गणराज्य क्या होता है, यह वैशाली ने बताया था। लोकतांत्रिक गणराज्य की अवधारणा देने वाले वैशाली में मुन्ना शुक्ला, सूरजभान सरीखे बाहुबली अपनी उपस्थिति का एहसास कराते हैं। 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दंूगाÓ का जयघोष पश्चिम बंगाल से नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने किया था। आजादी मिलने के करीब तीन दशक बाद भी वहां के किसान और गरीबों को वाजिब हक नहीं मिला। परिणाम नक्सलवाड़ी आंदोलन। नक्सलवाद का उदय। बीतते समय के साथ नक्सलवाद अपने मूल उद्देश्यों से भटकता गया और विदेशी अतताइयों के संपर्क में आता रहा। परिणाम आज सबके सामने हैं। देश के प्रधानमंत्री सहित गृहमंत्री देश की स्वतंत्रता-अखंडता के लिए बड़ा समस्या मानते हैं और सेना की मदद ली जाती है। शस्य-श्यामला पंजाब की धरती ने भगत सिंह को दिया। उसी पंजाब की धरती से भिंडरवाले जैसों ने बंदूक थाम ली। हालात इस कदर बिगड़ गए कि पवित्र धार्मिक स्थल पर भी सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी। आखिर, बंदूक का बोलबाला जो हुआ। गौर करने योग्य तथ्य यह भी है कि चुनावों में बिहार के जेल में बंद कामेश्वर बैठा चुन लिए जाते हैं। कौन हैं कामेश्वर बैठा? ...उस विचारधारा के बूते उभरा एक ऐसा नाम जो हमारी संसदीय राजनीति, लोकतंत्र की पवित्र मतदान व्यवस्था का कट्टर विरोधी रहा है। आज जिसकी पहचान ही उग्रवादी हिंसा, खून-खराबा तक सिमट गई है। समझ नहीं आता कि वह कौन सा फार्मूला है जो रातों-रात न सही, चंद हफ्ते-महीने में पूरे लोकसभा क्षेत्र में इतना बड़ा जनाधार तैयार कर दे कि एक कैदी सांसद बन जाए। इसी प्रकार चतरा से नामधारी जी जीतते हैं। राज्य की विधानसभा चलाने का लंबा अनुभव रहा। शेरो-शायरी में ऐसे माहिर कि विपक्षी विधायकों को भी लोहा मनवाते रहे सदन में, लेकिन जनता में छवि हमेशा दलबदलू की रही। वैसे भी, भूखे पेट जब ईश्वर तज दिए जाते हैं तो कवियों-शायरों की क्या पूछ?
भारतीय महिलाओं को इस पर नाज होता है कि उनके सामने सरोजिनी नायडू जैसी महिला इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा चुकी हैं। आज उन्हें इस बात को लेकर कष्टï भी होता है कि नायडू के प्रदेश में ही मायावती सरीखी महिला भी हैं जो कहने को तो दलित की बेटी हैं, लेकिन करोड़ों की माला पहनती हैं। मायावती की राजनीतिक पार्टी बसपा में कितने धनबली और बाहुबली हैं, किसी से छिपा नहीं है। काबिलेगौर है कि देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाले प्रदेश उत्तरप्रदेश में बाहुबलियों का बोलबाला है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े बदमाशों की एक लिस्ट देखी जाए तो अतीक अहमद (फूलपुर, इलाहाबाद), मुख्तार अंसारी (गाजीपुर अब मऊ से विधायक), रघुराज प्रताप सिंह (विधायक, कुंडा, प्रतापगढ़), धनंजय सिंह (विधायक, रारी, जौनपुर), हरिशंकर तिवारी (हारे विधायक, चिल्लूपार, गोरखपुर) सामने आतेे हैं। इन पांचों की हैसियत यह है कि निर्दल चुनाव जीतते हैं या जीतने का माद्दा रखते हैं। यह सूची सिर्फ उनकी है जिनकी चर्चा पूरे प्रदेश में होती है।
ये तो चंद उदाहरण हैं। हाल इस कदर बदतर हैं कि भारतीय चुनाव व्यवस्था तीन 'सीÓ यानी करप्शन (भ्रष्टाचार), क्राइम (अपराध) और कैश (धन) से प्रभावित है। अगर पिछले चुनावों के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है। एक सर्वेक्षण के अनुसार 1996 में देशभर में 70 सांसद एवं 100 विधायक ऐसे थे, जिनकी पृष्ठभूमि दागी थी जबकि 14वीं लोकसभा में 132 सांसद दागी पृष्ठभूमि के हैं जिन पर मुकदमें चल रहे थे। इसका मतलब यह हुआ कि पिछले 10 वर्षों में इस संख्या में 89.88 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 14वीं लोकसभा में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनकर आने वाले 17.7 प्रतिशत सांसद दागी हैं। भारतीय जनता पार्टी में ऐसे सांसदों की संख्या 20 प्रतिशत है जबकि इस मुद्दे को लेकर भाजपा अक्सर ही संसद की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करती रही है। राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी का प्रतिशत तो और भी ज्यादा है। जिन पर चल रहे मुकदमें में उन्हें सजा हो सकती है, ऐसे सांसदों का दलवार विश्लेषण चौंकाने वाला है। राजद में ऐसे सांसदों की संख्या 34.8 प्रतिशत है जबकि बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में क्रमश: 27.8 और 19.44 प्रतिशत ऐसे सांसद हैं। हालांकि, यह कोई तात्कालिक घटना नहीं है। इस स्थिति तक पहुंचने में कई दशक लगे हैं। 1930 के दशक में कांग्रेस पर कब्जा करने के लिए बड़े पैमाने पर फर्जी सदस्य बनाने एवं तोडफ़ोड़ की घटनाएं सामने आई थीं। 1937 के चुनावों के बाद बनी प्रांतीय सरकारों में भी भ्रष्टाचार की शिकायतें मिली थीं। इसे भारतीय राजनीति में अपराधीकरण का प्रस्फुटन माना जा सकता है। वैसे अपराधीकरण के वर्तमान स्वरूप की शुरुआत 70 के दशक में हुई थी। इसकी जानकारी 1977 में धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय पुलिस आयोग की ओर से पेश की गई रिपोर्ट से मिलती है। रिपोर्ट में कहा गया था कि चुनावों से पहले राजनीतिक दल मतदाताओं के विचारों को प्रभावित करने के लिए उन्मुक्त तरीके से गुंडे-बदमाशों का प्रयोग करने लगे हैं। राजनीति में अपराधीकरण का अगला चरण तब शुरू हुआ, जब अपराधी राजनीति में प्रवेश कर चुनाव लडऩे लगे। 70 से 90 के दशक तक स्थितियां कितनी बदतर होती गईं, इसका अनुमान नरसिंहराव सरकार के कार्यकाल में गठित वोहरा समिति की रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। यह समिति राजनीतिज्ञों और अपराधियों के सांठगांठ की जांच के लिए गठित की गई थी। हालांकि, समिति की रिपोर्ट को प्रकाशित नहीं होने दिया गया था जिसमें इस बात का खुलासा किया गया था कि किस प्रकार अपराधियों व माफियाओं ने धनबल और बाहुबल विकसित कर नेताओं व सरकारी कर्मचारियों के साथ मजबूत गठबंधन बना लिया है।

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

पत्रकारिता के लिए डिग्री नहीं है जरूरी

इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की भीड़ ने पत्रकारिता कॉलेज और इंस्टीच्यूटों की बल्ले-बल्ले कर दी है। जिसे देखिए, ग्लैमर और रूतबा के लिए इन संस्थानों में जा घुसता है और येन-केन प्रकारेण कुछ दिनों बाद एक डिग्री हाथ में लेकर बाजार में निकल जाता है। अपने लिए नौकरी खेाजना। और यहीं से उसकी असली पत्रकारिता शुरू होती है। हाथ में डिग्री आना एक बात है और उसके सहारे अपने को स्थापित करना दूसरी। बतातें चले कि आज जितने भी मीडिया के बड़े नाम हैं किसी के पास पत्रकारिता की कागजी डिग्री नहीं है, जबकि वे लोग चलती-फिरती मीडिया संस्थान हैं, जिनके सान्निध्य मात्र से पत्रकारिता आ जाती है।
तमाम पत्रकारीय सिद्घांतों पर बाजार किस कदर हावी होता है, इसका मुजाहिरा पत्रकारिता से अधिक कहीं नहीं दिखेगा। डिग्री हासिल करने के क्रम में बताया जाता है कि पत्रकारिता में जनपक्षीय सरोकार होता है, लेकिन जब विज्ञापन आ जाने से जनपक्षीय सरोकार से जुड़े खबर को हटाकर वहां अदद विज्ञापन चस्पा कर दिया जाता है, तो डिग्रीधारी बेजुबान हो जाते हैं। जिस संस्थान (अखबार, पत्रिका आदि) के बल पर वह अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानते हुए इतराते हैं, उसका मास्टरहेड ही जब बाजार के आगे झुकता है तो भला डिग्रीधारी की रीढ़ की हड्डी कैसे मजबूत रह सकती है। जब संस्थान के मालिक किसी राजनीतिक दल की पैरोकार करते हैं और उसके विरोध की खबर संपादक द्वारा दबा दी जाती है तो पत्रकारिता का कौन सा सिद्घांत वहां लागू होता है। कॉलेजों में तो यह नहीं सिखाया जाता है? वहां तो मानवीय सरोकारों की घूंटी पिलाई जाती है।
यदि आप 'एÓ ग्रेड के संस्थान में हैं तो ठीक। यदि 'बीÓ और 'सी Ó श्रेणी के संस्थानों में पत्रकारिता करना चाहते हैं तो रोज नई मुसीबत। 'सीÓ ग्रेड का तो फिर भी एक सिद्घांत होता है स्वहित। तथाकथित लोगों की रायशुमारी में पीतपत्रकारिता ही उसकी नियति होती है, फिर भी उसका दृष्टिïकोण एकांगी होता है - पैसा कमाओ। डराओ या धमकाओ या फिर ब्लैकमेलिंग करों, लेकिन कमाओ।
अंतद्र्वंद की स्थिति 'बीÓ गे्रड के संस्थानों में होती है। यहां नियुक्ति से लेकर कामकाज के स्तर पर कुछ भी स्पष्टï नहीं होता है। नियुक्ति में यदि आपके साथ किसी महिला की उम्मीदवारी है तो आपका न होना निश्चित मानिए। महिला से संपादक को और भी कई प्रकार के काम लेने की सोच होती है। अपना स्टेटस सिंबल भी तो दिखाना है। आपकी नियुक्ति इस बात पर भी निर्भर करती है कि आप किस प्रदेश से हैं? आपकी जाति क्या है? आपकी विचारधारा कौन सी है? बिहार के लोग बिहारियों को प्रश्रय देंगे तो कायस्थ जाति के लोग कायस्थों को ही नौकरी देंगे। पत्रकारिता में ब्राह्मïणवाद तो पुरानी बात है ही। यदि आप पर भगवा विचार हावी है तो तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का झंडा बुलंद करने वाले कभी आपको अपने साथ नहीं रखेंगे? यकीन मानिए, दिल्ली से निकलने वाली एक साप्ताहिक पत्रिका में कायस्थों का बोलबाला इस कदर हैं कि औरों की वहां गुंजाइश ही नहीं है। वहीं, एक संपादक नये प्रोजेक्ट की तैयारी में जुटे हैं और उनकी पहली प्राथमिकता इस बात को लेकर है कि उम्मीदवार ब्राह्मïण हो। वैसे भी संपादकों का महिला प्रेम तो आदिकाल से चला आ रहा है। भला, ये बातें तो पत्राकारिता के कॉलेजों में नहीं बताई-सिखाई जाती है। जब आपकी नियुक्ति हो भी जाती है तो 'बीÓ ग्रेड के संस्थानों में कारण हर दिन युद्घ लडऩे जैसा है। कारण, ये तथाकथित सिद्घांतों के पैरोकारों भी होते हैं और साथ में अनैतिक रूप से पैसा भी कमाना चाहते हैं। संपादकीय और प्रबंधकीय दृष्टिïकोण में सामंजस्य नहीं हो पाता। नतीजन, संपादकीय टीम को आर्थिक परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है।
हमारे कुछ मित्र कहते हैं कि फलां-फलां संस्थानों में महिलाओं का शोषण होता है। उनको यह बताता चलंूं कि हमारी भी कुछ महिला मित्र हैं। कुछ सामान्य तो कुछ अतिसुंदर। हालंाकि, यह दोस्ती का पैमाना नहीं है मेरे लिए। कुछ संस्थानों में कुछेक महिलाओं को केवल उनके सुडौल-मांसल शरीर के कारण नियुक्ति हुई है तो उन्हें उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी न... आज से करीब तीन वर्ष पूर्व एक संस्थान में मैं भी गया था इंटरव्यू देने। पहली बार संपादक बने सज्जन ने हालांकि मेरी लेखनी की तारीफ की, लेकिन मौका दिया सुडौल-मांसल-नवयौवना को। तय खुद करें? कुछ दिन बाद उसी महिला ने संपादक पर शोषण का आरोप लगाया और चलती बनी...एक नई मंजिल की ओर....
इसका मतलब यह नहीं कि हरेक महिला इसी फर्में की होती हैं। शोषण तो पुरूष पत्राकारों का भी होता है। कई वरिष्ठ पत्रकारों को कलम थामें वर्षों हो गए हैं। लेकिन आज भी पत्रकार बने हैं। एक सज्जन तो नए-नए लड़कों को नौकरी देने का आश्वासन देकर तो कभी जरूरतमंदों को आर्थिक लाभ का भरोसा देकर स्टोरी कराते हैं और केवल उसमें अपना नाम चिपका देते हैं। क्या यह बात पत्रकारिता के कोर्स में बताई जाती है।
यकीनन, आप कहेंगे नहीं। तो फिर क्यों अपने माँ-बाप के धन को बर्बाद करें एक डिग्री के लिए। जिसकी कोई अहमियत नहीं है। जब जुगाड़तंत्र के सहारे ही आगे बढऩा है।