बुधवार, 29 अप्रैल 2009

गजल

अब जिन्दगी के मायने बदल गये हंै।
अब सम्बन्धों के आइने बदल गये हंै।।

दर्पण मंे दिखती है तस्वीर जमाने की।
अब निगाहों के पैमाने बदल गये हैंे।।

अंधी मोड़ पे ठहर गई है दुनिया।
अब रौशनी कंे ठिकाने बदल गये हैं।।

न खुशी न गम न गिला-शिकवा।
अब हम भी बहुत बदल गये हैं।

सर पे रही धूप जेठ की सदा।
सावन के ’बादल’ भी बदल गये है।।



जिन्दगी यूँ ही खफा हो गई।
अपनी राहें भी जुदा हो गई।।

दिल पर दंश है रिशतों के।
कस्में-वादे सारी हवा हो गई।।

मिलने की खुशी न बिछुडने की गम।
जज्बातें जीवन की फना हो गई।।

कदम-कदम पर टोकती है दुनिया।
अपनी नाकाबिलयत भी गवाह हो गई।।

मासूम चेहरे हैं मेरे कातिलों के।
बदसूरती ही अपनी खता हो गई।।

हर नजर पूछती है सैकडो़ सवाल।
’बादल’ की खामोशी गुनाह हो गई।।

- बिपिन बादल

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

राजनीति का दलबदलू संजाल

- विपिन बादल

चुनावी मौसम में टिकटों की घो’ाणा के साथ ही नेताओं के दल बदल का सियासी खेल शुरु होना अब प्रचलन - सा बन गया हैं। अवसरवादी नेता जहाॅं जनसेवा के नाम पर जन प्रतिनिधि बनने को आतुर रहते हैं वहीं राजनीतिक दल भी महज कुछ सीटों के लोभ में इस संस्कृति को बढ़ावा देने में रत्ती भर भी हिचक नहीं दिखाते। पाला बदलकर दूसरे दल का दामन थामने का चलन भारतीय राजनीति में नया नहीं है और कई ऐसे नेता है जिन्होंने दल बदलकर कर न सिर्फ चुनावी वैतरणी पार की बल्कि सता सुख भी भोगा। ऐसे नामो की सूची लंबी है जिन्होंने समय समय पर पाला बदला। गठबंधन के दौर में व्यक्तिगत स्तर से लेकर पार्टी स्तर तक यह नजारा खूब देखने को मिलता है। कइ्र्र क्षेत्रीय पार्टी तो सत्ता सुख से इतर रह ही नहीं सकते। लोजपा प्रमुख राम विलास पासवान तो मंत्री पद की मलाई खाने के लिए राजनीतिक आस्था और प्रतिबद्धता बदलने के माहिर खेलाड़ी के रुप में अपनी खास पहचान बना चुके हैं।
विभिन्न पार्टियों द्वारा प्रत्याशिायों की घो’ाणा के बाद तो दूसरे दलों का दामन थामने वालों की मानो बाढ़ ही आ गई। इस चुनाव में राजनीतिक निस्था बदलने वाले सांसदों मे सलीम शोरवानी,सुखदेव सिंह लिब्रा, साधू यादव, रंजीता रंजन, एस बंगरप्पा रमेश दूबे, सीमाभाई जी पटेल, कीर्तिवर्धन सिंह वगैरह इस परम्परा में शामिल हो गये हंै। पहले भी जिन लोगों ने पुरानी पार्टी छोड़कर नई पार्टी का दामन थाम नये निजाम में महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया उनमें मौजूदा केंद्रीय शहरी विकास मंत्री एस जयपाल रेड्डी केंद्रीय मंत्री रेणुका चैधरी और शंकर सिंह वाघेला प्रमुख है।
इतना ही नहीं, 14 वी लोकसभा में भी ऐसे सदस्य रहे जो पूर्व मंे न सिर्फ दूसरे दलों मंे थे। बल्कि उन्हें सरकार में महत्वपूर्ण पद हासिल हुआ जिनमें एमवी चंद्रशखरन और रघुनाथ झा शामिल है। कांग्रेस उम्मीदवार के खिलाफ इनेलो और भारतीय लोकदल से लड़ चुके एमवी राजशोखरन यूपीए सरकार मंे मंत्री भी थे जबकि 1999 मंे जद (एकी) में निर्वाचित रघुनाथ झा 2004 में न सिर्फ राजद के टिकट पर विजयी हुए बल्कि बाद में मंत्री का पद भी उन्हें मिला। कांग्रेस के वरि’ट नेता सुबोधकांत सहाय भी ऐसे नेताओं मंे शामिल है जो दूसरे दलों में रहे परन्तु दल बदलने के इनाम के तौर पर मंत्री बना दिये गये।
पुरानी पार्टी छोड़कर नए के साथ पिछले सदन में मौजूद नेताओं मंे तेदेपा से कांग्रेस में आने वाली झांसी लक्ष्मी और चिंतामोहन, जनता पार्टी से चुनाव लड़ चुके कांग्रेस के आर एल जलप्पा कांग्रेस से 1971 मंे जीते बीजद के अर्जुन चरण सेठी शामिल है। तथ्य है कि अपनी पार्टी का टिकट नहीं मिलने पर दूसरी पार्टी का दामन थामने का सिलसिला दूसरे आम चुनाव से ही शुरु होने लगा था। 57 के चुनाव मे कम से कम 14 ऐसे लोग जनता की मुहर से लोकसभा में पहुंचे जो पिछली दफा किसी दूसरे चुनाव चिह्नन पर जीते थे। उनमें सुचेता कृपालानी प्रमुख थी जो 1952 में किसान मजदूर प्रजा पार्टी तो 1957 में भारतीय रा’ट्रीय कांगे्रस के टिकट पर नई दिल्ली संसदीय सीट से चुनी गई। ऐसे लोगों मंे चार ऐसे निर्दलीय भी शामिल थे जिन्होने बाद में दूसरे दलों से नाता जोड़ लिया था। 52 का चुनाव के बाद दूसरे दलो में शामिल होने वालों मेें असम के रोबोडेपल्ली, मध्य प्रदेश के लीलाधर जोशी, ओडीशा के उमा सी पटनायक ने कांगे्रेस का दामन थामा जबकि धुबरी से सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव जीतने वाले अमजद अली ने अगला चुनाव प्रजा सो”ालिस्ट पार्टी से लड़ा। इनके अलावा गुजरात के एफबी दाबी, केरल के पीटी पुन्नूस और बी कोकर, भटिंडा के हुकूम सिंह, शिावकाशी के एम रामसामी तमिलनाडु के एनआर मुनिसामी ने दूसरे दल का दामन था। दूसरी तरफ पार्टी का टिकट नहीं मिलने पर कांग्रेस के एफबी दागी, रणचंद्र मांझी के एल बाल्मीकि और एमएसएमएल केबी पोकर, आरएसपी के त्रिदीप चैधरी ने 57 का चुनाव निर्दलीय के तौर पर लड़ा और जीते।
दल बदल 1977 और 1989 मंे सबसे ज्यादा स्प’ट प्रतीत होता है जिसकी वजह बंटे विपक्षी दलों का एकजुट होना है। 1977 में जहाॅं पूर्व काॅंग्रेसी मोरारजी देसाई केन्द्र में पहले गैर काॅंग्रेसी सरकार के मुखिया बने वहीं बाद में विशवनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशोखर और देवगौड़ा ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। बावजूद इसके ऐसा कभी नहीं रहा है जब नेताओं ने व्यक्तिगत स्वार्थ में पाला नहीं बदला हो।
सर्वविदित है कि दे”ा के पूर्व प्रधानमंत्री मोराजी देसाई किसी जमाने में कांग्रेस के वरि’ठ नेता हुआ करते थे और काॅंग्रेस के पक्ष में वेाट माॅंगने की उनकी दलील होती थी कि यही पार्टी दे”ा को स्थिर सरकार दे सकती है। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्र”ोखर भी किसी जमाने में कांग्रेस के युवा तुर्क माने जाते थे। पूर्व प्रधानमंत्री एच डी दैवगौड़ा ने कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने पर बागी के तौर पर चुनावी सफर की शुरूआत की थी तो पूर्व प्रधानमंत्री विशवनाथ प्रताप सिंह भी कभी कांग्रेस के समर्पित नेता थे। और उन्हें शीर्’ा पद तक ले जाने वाले देवीलाल उन शुरूआती नेताओं में शुमार हैं जिन्होंने कांग्रेस से बगावत कर चुनाव लड़ा था।
यूपीए सरकार मंे महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाल रहे कई सदस्य विभिन्न वजहों से पूर्व में पार्टी से बाहर चले गए थे और लौटने पर भी उन्होंने उसी प्रकार का सम्मान हासिल किया जिनमें पी चिंदबरम, अर्जुन सिंह, सतपाल महाराज शामिल है जो पीवी नरसिंह राव के जमाने में कांग्रेस से अलग हो गए थे। इनमें से अधिकांश का बाहर जाना और लौटना पूरी तरह अवसरवाद का नतीजा था। इसके विपरीत कुछ नेताओं ने देश में हमेशा एक धारा की राजनीति की जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और भाजपा नेता लालकृ’णा आडवाणी प्रमुख हैं। पुराने दल का साथ छोड़ नए के साथ राजनीतिक कामयाबी हासिल करने वालों में विजयराजे सिंधिया और उनके बेटे माधवराव सिंधिया का नाम भी शुमार हैं। विजयराजे ने 1957 में गुना से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीता था लेकिन बाद में वह विपक्ष की राजनीति में चली गई जबकि 1971 मंे भारतीय जनसंघ से जीतने वाले माधवराव 1980 में कांग्रेस से जीते फिर उन्होंने कांग्रेस कंेद्रित राजनीति ही की। जयपाल रेड्डी ने 1980 मंे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ मेडक से जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा था लेकिन पराजित हुए थे। बाद में काॅंग्रेस पार्टी में शामिल होने पर उन्हें मंत्री पद से नवाजा गया। इसी तरह शंकर सिंह बघेला कभी गुजरात में भाजपा के क्षत्रप हुआ करते थे तो रेणुका चैधरी कभी तेदेपा की ग्लैमरस् चेहरा हुआ करती थीं।
ऐसा नहीं है कि आस्था बदलने का यह खेल सिर्फ पार्टी स्तर तक ही सीमित रही है। राजनीतिक दल भी इस खेल में लगातार शामिल होते रहे हैं। खासकर जबसे गठबंधन सरकार का दौड़ चला है छोटे और क्षेत्रीय दलों की चाॅंदी ही हो गइ्र्र हैं। अवसरवाद के घोड़े पर सवार और सत्ता सुख के माहिर खेलाड़ी नीति, सिद्धान्त और प्रतिबद्धता बदल कर मंत्री पद का सुख लेते नहीं अघाते हैं। इस कला में लोजपा अध्यक्ष राम विलास पासवान ने सबको पीछे छोड़ दिया है। पिछले लोकसभा चुनाव में काॅग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले कई दलों ने बाद में काॅंग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को अपना समर्थन देने में कोई हिचक नहीं दिखाई। इस बार भी काॅंग्रेस के विरुद्ध चुनाव में उतरने वाले वामपंथी सहित राजद, लोजपा, सपा आदि दलों ने अभी से सरकार बनने की स्थिति में उसके समर्थन की घो’ाणा कर रखी है। ऐसे में कहना मुशिकल है कि मतदाता खुद को छल रहे हैं या अवसरवादी पार्टीयाॅं उन्हें छल रही हैं क्योंकि दल बदलुओं की प्रवृति बदलने वाली नहीं है।

प्रेम ही तो है - 3

गतांक से आगे

आज मुझे अपार खु’शी है कि हमने विवाह जैसी संस्था में बंधने के बजाय उन्मुक्त जीवन जीने की सोची। हो सकता है तुम इसे मेरी भीरूता कहो, क्योंकि कुछ लोग कह सकते हैं कि मनुशय को विवाह कर लेनी चाहिए, अपना पेट तो कुता भी पाल लेता है ओर अपनी वासना की पूर्ति कर लेता है। लेकिन इतिहास के कई प्रसंग ऐसे हैं, जहां हमारे महानायकों ने विवाह नामक संस्था को स्वीकार नहीं किया। तो क्या मैं उनकी राह का अनुसरण नहीं कर सकता ? जब कभी मुझे विचार आता है कि मेरे आज यहां होने के कारणों में से एक कारण यह भी हो सकता है - अविशवास की प्रतिक्रिया। उस दिन के बाद सोते-जागते, चैतन्य में सु”शुप्ति में, संग्राम और पलायन में, जितनी अधिक बार अविशवास के उस भयंकर आकस्मिक ज्ञान का चित्र मेरे सामने आया है, उतनी बार कोई अन्य चित्र नहीं आया। ऐसा नहीं है कि मैं सदा आनंदित रहता हूं। जीवन की पुरबा-पछुआ मुझे भी झकझोरती है और यहां की शीतलहर का अंदाजा तो तुमको है ही .... कभी-कभी मैं पीड़ा से इतना घिर जाता हूं कि आनंद मेरा अपरिचित हो जाता है। लेकिन कल्पना की आंखों से जब अंधियारे आकाश के पेट पर दो उलझे हुए शरीरों का चित्र देखता हूं, तब मेरे अंतरतम में भी कोई शब्दहीन स्वर मानो चैंककर अपने आपको पा लेता हूं।
आज जब तुमको पत्र लिख रहा हूं तो पुराने दिनों की कुछ घटनाएं बेतरतीब आंखों के सामने आ रही है और मुझे हंसी आती है। तुमसे दो-चार बातें क्या कर लेता, अपने आप को तीसमारखां समझता। और कभी मन ही मन खु’श होता कि शायद प्रेम हो गया है। पर अपना अधिकार भी समझता, तभी तो कई बातें तुमको कह देता। तुम किसी गैर से बात करती तो मन में खुंदक होती, क्योंकि तुम्हें अपना जो मानता ... आज समझ रहा हूं कि बहुत सारे लोगों की प्यार में यही हालत हो जाती है। मेरा प्यार केवल मेरा है, किसी से उसने हंसकर बात कर ली तो बस कयामत .... जब किसी से प्यार हो जाता है तो यह स्वभाविक हे कि एक-दूसरे के उपर अधिकार जमाया जाता है। परंतु यह अधिकार एक सीमा में रहे तभी अच्छा लगता है। यदि यह प्यार ओर यह अधिकार किसी की स्वतंत्रता पर रोक लगाता है तो समझिए कि गड्डी विच हिंड्रेंस। मनोवैज्ञानिकों का भी मानना है कि रिशतों को बनाए रखने हुए स्वतंत्रता और अधिकार भावना का एक अच्छा संतुलन जरूरी होता है। जैसे ही यह संतुलन बिगड़ता है रि’ते भी टूट जाते हैं। वैसे पजेसिवनेस हमेशा रिशते नहीं तोड़ती, जोड़ती भी है। पजेसिवनेस की भावना एक तरह से किसी के प्रति हमारे अंटेशन को व्यक्त करती है एंव प्रत्येक व्यक्ति को अटेंशन की जरूरत होती है। बस, हमें यह पहचानना आना चाहिए कि दूसरे व्यक्ति को किस समय अटेंशन की जरूरत है। यदि हम प्यार के रिशते की विश”श तोर पर बात करेंतो इसमें पजेसिवनेस होना व्यक्ति को किस समय अटेंशन की जरूरत है। यदि हम प्यार के रि’ते की विशश तौर पर बात करें तो इसमें पजेसिवनेस होना स्वभाविक है क्योंकि यह वह रिशता होता है, जिसमें व्यक्ति उम्मीद करता है कि सामने वाला केवल उसका होकर रहे। क्यों सही है न ?
लेकिन हम भूल गए कि रिशता प्यार को हो अथवा कोई दूसरा, मुट्ठी में बंद की रेत की तरह होता है। रेत को यदि खुले हाथों से हल्के से पकड़े तो वह हाथ में रहती है। जोर से मुट्ठी बंद करके पकड़ने की को’िशश की जाए तो वह फिसलकर निकल जाती है। आज की तारीख में यही हाल मेरा है। सो, मैं भी कोरे कागज को काली रोशनाई से स्याह करता जा रहा हूं। और अपनी भावनाओ को चस्पा करने की कवायद कर रहा हूं। तो क्या कवायद की जाए... तुम्हीं बताओ ? यह सिलसिला जारी रखूं कि इसे भी अल्पविराम के बाद पूर्णविराम तक जाने दूं?
समाप्त

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

प्रेम ही तो है - 2

गतांक से आगे

अनुकूल वस्तु अथवा वि”ाम को प्राप्त करने की ललक मानव का जन्मजात स्वभाव है। यह ललक समान्यतः दो प्रकार की होती है, प्रत्येक वस्तु के प्रति तथा किसी विशो”ा वस्तु के प्रति। इनको क्रमश: लोभ और प्रेम कह सकते हैं। लोभ में वस्तु की मात्रा प्राप्त करने की ललक होती है औ प्रेम में वस्तु की विश”ाता के प्रति ललक होती है। प्रेम अपनी इशट वस्तु के लिए अन्य वस्तु का त्याग करता है और केवल उसी को प्राप्त करने की इच्छा रखता है। जबकि लोभी प्रत्येक वस्तु को प्राप्त करना चाहता है। मैं आजतक अपनी उस गलती को नहीं भूला, जिसका परिमार्जन तुमने किया था। और कहा था, अपनी गलतियों को पूरी विनम्रता के साथ स्वीकार करना चाहिए, तब आप कभी गलत नहीं रह जाएंगे। गलतियां ही सबसे अच्छा गुरू होती है। इसलिए हर उस गलती से सबक लें, जिससे आपको दुःख पहुंचा हो। यह जानने की कोशिश’ करें कि फलां समय में उस दुःख का कारण क्या था ? इस बात की पूरी संभावना है कि वह जरूर कोई छोटी-सी बात ही होगी।
जिस प्रकार से हम मिले थे और हमारा लगाव एक-दूसरे के प्रति हुआ था, उसको सामाजिकता के आधार पर प्रेम की संज्ञा दी जा सकती थी। लेकिन हमने नहीं दी ... आखिर क्यों ? इसमंे तुम्हारी गलती रही या मेरी ? प्रेम शब्द से यौवनोचित्त यौन-चित्र जिनके मन में उदय पाता हो, उनसे मुझे कुछ नहीं कहना है। मेरे निकट प्रेम उस परस्पराकर्”ाक तत्व के लिए सगुध संज्ञा है, जिस पर चराचर समस्त सृ”िट टिकी है। निर्गुण भा”ाा में उसी को ई’ा तत्व कहा जा सकता है। जीवन के यौवन काल में जिस काम और कामना का प्राबल्य देखा जाता है, वह अभिव्यक्ति में वैयक्तिक है। ’प्रेमी-प्रेमिका’ शब्दों के उपयोग में खतरा है कि हम व्यक्तिगत संदर्भ मंे सिमट जाते हैं। पर जो महाशक्ति तमाम जगत और जीवन के व्यापार को चला रही है, उसके सही इंगित के लिए हमारे पास एक संवेद्य संज्ञा तो यही है - प्रेम। इसे राधा-कृ”ण का प्रेम कह सकते हैं, जिसे केंद्र में रखकर ही भक्ति युग का सारा ताना-बाना बुना गया।
तुम भी तो कहा करती थीं कि आज के आधुनिक युग में प्रेम का अर्थ अमूमन काम-वासना से लगाया जाता है। प्रेम के नाम पर युवक-युवतियां वासना का गंदा खेल खेलते हैं और प्रेम जैसे सात्विक तत्व को बदनाम करने की कोशिश’ करते हैं। यदि प्रेम से तात्पर्य वासना से होता और प्रेेमिका से पत्नी का तो भारतीय संस्कृति में राधा-कृ”ण का अमर प्रेम नहीं होता। त्रेता में लीलाधर कृशण ने राधा के संग प्रेम करके प्रेम को महिमामंडित किया और जनता के सामने एक माडल प्रस्तुत किया। यह जरूरी नहीं कि जिससे हम प्रेम करते हैं वहीं पति अथवा पत्नी बने। कृशण ने राधा के संग प्रेम किया और विवाह रूकमिणी के संग। प्रेम न जात-पात देखता है और न ही संबंध। वह तो बस प्रेम की मंदाकिनी में बह जाना जानता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब कृ”ण ने राधा से प्रेम किया तो राधा किसी की ब्याहता थी, लेकिन उन्होंने प्रेम को कलंकित नहीं होने दिया।
विवाह कितना भी प्रेम विवाह हो, पत्नी यथार्थ पर आकर निरी स्त्री हो आती है। उसी तरह पुरू”श पति होने पर देवरूप से नीचे आ जाता है और मनु”य बनता है। प्रेम की ही खूबी है कि वह सामान्यतः से उठाकर उसे सुंदरता, दिव्यता आदि से मण्डित कर जाता है। इस गुण को प्रेम से छीलकर अलग नहीं किया जा सकता है। इसी की प्रगाढता की महिमा है कि भक्ति और भगवान की सृ”िट हो जाती है। जो लोग औरत शब्द पर ही टिके रहना चाहते हैं और देवी अथवा अप्सरा को नि”कासन दिए रहना चाहते हैं, वे अपनी जानें। मेरे विचार में वह संभव नहीं है। इशट तो है ही नहीं। कोई विज्ञान या यथार्थ या वैराग्य का वाद प्राणी को परस्पर रोमांचित हो आने की क्षमता से विहीन नही ंबना सकेगा। कठिनाई बनती है, बीच में दैहिकता के आने से। मुख्य बाधा का कारण यह है कि हमने विवाह-संस्था को भोग-आधिपत्य की धारणा पर खड़ा किया है। इसलिए विवाह को सदा ही प्रेम की खरोंच में आना पड़ता है। प्रेम विवाहों को तो और भी अधिक....

क्रमश:

प्रेम ही तो है

आज मैं वो करने जा रहा हूं, जो काफी पहले करना चाहिए। मन में कोई बात दबी रह जाए तो अच्छा नहीं होता। आज मैं अपनी भावनाओं को कोरे कागज पर उकेरने जा रहा हूं जिसको मैंने भोगा। महसूस कियास और जिया। जिसकी प्रेरणा भी तुम ही रही हो। तो शुरूआत कर दिया जाए न... शायद तुम सामने होती तब भी मुझे मना नहीं करती। आखिर इतना वि’वास तो तुम पर आज भी है। चाहे आज तुम किसी और की हो गई हो... क्या हुआ अगर मुझे मनचाहा मुकाम नहीं मिल पाया। इस बात की खुशी और भी ज्यादा है कि तुम्हारी मुराद पूरी हो गई।
मुझे आज भी याद है, वो पहला दिन जब तुम मेरे पास आई थी। हाथों में खनकती चूड़ियां, माथे पर बड़ी-सी बिंदी, कानों में इठलाती झुमकियां और होठों पर आया हुआ हल्का-सा तबस्सुम। मेरे आस-पास का हर कण तो उस समय इनके मिति प्रभाव से जैसे खिल ही उठा था। मैं नहीं जानता वो एक पल मेरे मानसपटल पर इतनी गहरी छाप छोड़ जाएगा। न जाने कितनी ही युवतियों और महिलाओं से रोज वास्ता पड़ता था। सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक दर्जनों से मुलाकात होती और कुछेक से हंसी-ठिठोली भी। लेकिन तुममें न जाने क्या बात थी ? आज भी नहीं समझ पा रहा हूं कि किस तरह तुमसे एक पल की मुलाकात काफिला बनकर मेरे वजूद से जुड़ गया। तुम्हारा अस्तित्व मुझसे, मेरे जीवन से, मेरे हल पल से, मेरे होने न होने से, हर एक वस्तु से जो मुझसे जुड़ी है, इस तरह से जुड़ जाएगा कि मुझे उसमें स्वयं को ढूढने में उम्र निकल जाएगी। मैं आज भी तुम्हारी एक झलक को अपनी आंखों में बसाकर पूरा दिन गुजार लेता हूं, अपनी रातों को समझाता हूं और सुबह तुम्हारे दीदार का इंतजार करता रहता हूं। यदि इस तरह भी उम्र गुजर जाए तब भी रंज नहीं होगा। तुमतो जानती हो कि इनते पर भी कभी तुम्हें स्पर्श करने को मन लालालियत न हुआ। आज भी लगता है कि तुम्हें छूं लूंगा तो सारा सपना टूट जाएगा। क्या हुआ मैं तुम्हारे सपनों में नहीं आता, आजादी केवल इतनी चाहिए कि मैं जब चाहूं तुम्हें सपने में बुला सकूं। और इस पर केवल और केवल मेरा अधिकार है।
मुझे इससे कोई वास्ता नहीं कि आज तुम मेरे बारे में क्या सोचती हो तथा दूसरे लोग क्या सोचते और बोलते हैं ? मैं यह भी नहीं जानता कि तुम मुझे कितना जान पाई हो। मैं तुमसे कुछ नहीं मांगता। प्रेम कुछ पाने का नाम नहीं है, मेरे लिए प्रेम का अर्थ है समर्पण। ओशा ने भी कहा है , ’प्रेम: एक ही मंत्र है समर्पण, समग्र समर्पण। जरा सा भी बचाया खुद को कि खोया सबकुछ। बस, खो दो खुद को। पूरा का पूरा। बिना शर्त। और फिर, पा लोग वह सबकुछ, जिसे पाए बिना जीवन एक लंबी मृत्यु के अलावा और कुछ भी नहीं है। और समझकर करने के लिए मत रूके रहने क्योंकि किए बिना समझने का कोई उपाय नहीं है।’
आज मैं तुमसे बिना कुछ मांगे अपना सबकुछ समर्पित करता हूं। वैसे भी मेरे पास स्वयं का कुछ बचा ही क्या है ? जो कुछ भी है उस पर अब केवल तुम्हारा ही अधिकार है, सो तुम्हें अर्पित कर रहा हूं। मन में कोई दुराव मत रखना। तुम को तुम्हारा ही सबकुछ दे रहा हूं। जीवन में जितने पल बचे हैं, उनमें तुम्हें महसूस करता रहूंगा, कोई हर्ज तो नहीं...
तुम ही तो कहा करती थी कि हम चाहे कितने भी माॅडर्न हो जाएं लेकिन हमारा मांजी हमेशा अपनी ओर खींचता है। शायद यही वजह है कि तमाम माॅडर्न हिट हाॅप इंस्ट्रूमेंट से सजे गानों पर हमारा जिस्म कितना ही थिरक ले, पर मन थिरकता है आज भी पुराने सिनेमाई गीतों की धुन पर। इसी के कारण हर दूसरे दिन नए रिमिक्स एलबम बाजार में आ रहे हैं, यानी पुरानी मिठाई नई चाशनी के तड़के के संग। तुम्हारा यही अंदाज संभवतः मुझे भा गया और मैं आजतक तुम्हारे इंतजार में हूं। उसी जगह आज भी तुमको ताक रहा हूं, जहां हम दोनों पहली बार एकनजर हुए थे। अधिकतर लोगों का मानना है कि फनकार को किसी खास मौजूं की जरूरत नहीं होती, वह अपने आसपास की चीजों से ही तरगीब हासिल कर लेता है। हम दोनों जिस फन में थे, उसकी नियति भी तो यही थी। तभी तो खूब से खूबतर की तलाश में हम सरगर्दा रहते थे। नहीं तो क्या जरूरत है लोगों को महानगर की सड़कों की धूल और गलियों की खाक छानने की ?

क्रमश:

रविवार, 19 अप्रैल 2009

तबाही का अंदेशा


विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी के तापमान में मध्यम वृद्धि का स्तर 1970 से शुरू हुआ, जो अब लगातार बढ़ रहा है। इसके कारण हर साल साढ़े चार लाख लोगों को असमय मौत का शिकार होना पड़ रहा है। अगर यही हालात रहे तो वर्ष 2030 तक यह आंकड़ा दुगना होना तय है यानी हर साल नौ लाख से अधिक लोगों की मौत। वर्ष 2003 में यूरोप में बड़ी भीषण गर्मी को लोग अभी तक नहीं भूले हैं, जिसमें 20 हजार से अधिक जानें गई थीं।इस साल जुलाई-अगस्त में फिर भीषण गर्मी की चेतावनी दी जा रही है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह साफ़ हो चुका है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण बाढ़,चक्रवात और गर्म हवा की घटनाएं बढ़ जाती हैं। कहने की ज़रूरत नहीं है कि इनके कारण न सिर्फ़ भारी तबाही होती है, बल्कि बीमारियांॅ भी तेज़ी से फैलती हैं। इसका सर्वाधिक दुष्परिणाम ग़रीब देशों को भोगना पड़ेगा।

ग्लोबल वार्मिंग के चलते हवा, पानी और पर्यावरण सर्वाधिक प्रभावित होंगे और इन्हीं से परंपरागत और नई बीमारियों का जन्म होगा।चिकित्सा विज्ञान मलेरिया पर अब तक नियंत्रण नहीं पा सका है, जबकि मच्छरों ने प्रगति करते हुए डेंग्यू नामक नई ख़तरनाक बीमारी फैलाना शुरू कर दिया है। कुछ समय पूर्व अफ्रीकी देश मोजांबिक में आई बाढ़ के बाद वहां मलेरिया जम कर पसर गया था ग्लोबल वार्मिंग से सर्वाधिक ख़तरा वायु प्रदूषण का है। ओजोन की छतरी में छेद के बाद पृथ्वी पर सूर्य की पराबैंगनी किरणों के दुष्प्रभाव ने अभी से अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। इसी के साथ पृथ्वी की सतह पर ओजोन में वृद्धि का ख़तरा भी बढ़ गया है।इससे हृदय और फेफड़े संबंधी रोगों में भी ख़ासी बढ़ोत्तरी होगी। परिवहन का बढ़ता प्रदूषण जहांॅ कार्बन डाॅय आॅक्साइड बढ़ा रहा है, वहीं फेफड़ों तक भी गहरी पैठ बना रहा है। स्टाॅक होम मेडिकल साइंस रिसर्च जनरल के अनुसार यह समय आ गया है कि हम वाहनों के जनरल के अनुसार यह समय आ गया है कि हम वाहनों के कम से कम इस्तेमाल पर अभी से अमल शुरू कर दें, ताकि संभावित ख़तरे का एक हद तक मुकाबला किया जा सके।

मानव तथा प्रकृति के लिए हवा के बाद दूसरी ज़रूरत पानी की है। सात महासागरों और दो ध्रुवों से घिरी पृथ्वी पर उपलब्ध जल में से मात्र एक प्रतिशत ही पीने योग्य है। इसीलिए अभी से यह कहा भी जाने लगा है कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर ही होगा।मानव अभी इस संभावित खतरे से अनजान-सा है और फ़िलहाल बाढ़ और तूफानों को झेलने के लिए अभिशप्त है। सुनामी पीड़ितों को आज भी मदद की दरकार है और लगातार नए-नए सुनामी पैदा होने के संकेत मिल रहे हैं। मुंबई वासियों को पिछले साल भारी वर्षा और बाढ़ ने खूब परेशान किया था,जबकि बंगाल-बिहार की तो यह स्थायी नियति है। ये हालात दूसरे, देशों में भी हैं, जो भविष्य की भारी तबाही के संकेत हैं। वैश्विक गर्माहट ने अचानक तीव्रतम बारिश के हालात बना दिए हैं। मंुबई एक उदाहरण है। आने वाले दिनों में ऐसे भयावह मंज़र कहीं भी दिखाई दे सकते हैं। अचानक आने वाली बाढ़ जन-धन की हानि के साथ कई बीमारियां भी लाती हैं। महानगरीय संस्कृति में जल-मल व्यवस्था पास-पास ही होती है, जो बाढ़ के कारण कई गंभीर बीमारियों का कारण बनती हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण अचानक भीषण बारिश और उससे होने वाली बीमारियों में इज़ाफे को रिकार्ड भी किया जा चुका है। अमेरिका स्थित हावर्ड मेडिकल रिसर्च इंस्टीटयूट के एक अध्ययन में पाया गया है कि अमेरिकी शहरों में भीषण बारिश के बाद जनजनित रोगों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है।बांग्लादेश में अक्सर फैलने वाले हैजे के प्रकोप को भी वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ कर देख रहे हैं। मिशिगन यूनिवर्सिटी का एक अध्ययन दल यह पता करने में लगा है कि प्रशांत महासागर के ताप के कारण तो हैजे का संक्रमण नहीं होता है।अगर ऐसा होता है तो हैजे नामक महामारी के फिर से सिर उठाने का ख़तरा उत्पन्न होना मान लेना चाहिए।

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

अंदर मौन, बाहर औन

चुनावों में नेताओं की जुबां कैसे फिसलती है, इसे जनता ने बार-बार देखा है। एआर अंतुले, सोनिया गांधी सरीखे लोग भले ही कुछ पुराने पड़ गए हों पर वरूण गांधी, लालू प्रसाद, सु”ामा स्वराज अािद के मामले अभी मौजूं हैं। इन नेताओं को बोलते वक्त शब्दों के अर्थ का ज्ञान नहीं होता है और न ही शब्द की व्यापकता का। तभी तो उनके वाणी पर वाणों की बौछार होती है। हो-हल्ला मचाया जाता है। मामला पुलिस और चुनाव आयोग से होते हुए अदालत तक पहुंच जाता है। मगर अफसोस कि जब इन नेताओं के पास जनता की समस्याओं पर बोलने का मौका-ओ-दस्तूर होता है, तब ये फिसड्डी साबित हेाते हैं। 14वीं लोकसभा का इतिहास तो यही बताता है, जिसमें पंाच सालों में 56 नेताओं ने जुबान तक खोलने की जहमत नहीं उठाई।
दरअसल, चुनावी बिसात पर वोटरों को बिछाने की गरज से सियासी दल हर तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। कहीं जाति-बिरादरी के फतवे जारी हो रहे हैं तो कहीं हिंदुत्व की आत्मा जगाई जा रही है। कहीं अल्पसंख्यकों के उत्थान का दर्द साल रहा है। और तो और महिला आरक्षण पर दशकों से बात हो रही है, पर संसद में उसे पास नहीं किया जा रहा है। भला हो भी तो कैसे ? जब पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्षा ममता बनर्जी, रालोद के नेता अजित सिंह, जम्मू-क’मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला, पूर्व भाजपा नेता कल्याण सिंह, कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर, अभिनेता-राजनीतिज्ञ धर्मेंद्र, गोविंदा सहित 56 सांसदों ने अपने पांच साल के कार्यकाल में एक प्र’न भी नहीं किया हो। जबकि लोकसभा के आंकड़े बताते हैं कि पांच सालों में विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित 60255 प्र’न पूछे गए। हैरत तो तब होती है, जब लोकसभा सचिवालयों के कागजों में दर्ज है कि पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी और कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी सदन की कुल कार्यवाही में दस फीसदी ही उपस्थित रहे हों। इतना ही नहीं, 67 सांसद ऐसे रहे जिन्होंने पांच साल में दस से कम प्र’न पूछे। इसका अर्थ यह नहीं कि बचे हुए सांसद भी इनके मार्ग का अनुसरण करें। इसके ठीक उलट ’िावसेना सांसद आनंदराव बिठोवा अडसूल ने पांच साल में 1255 सवाल किए जो कि 14वंीं लोकसभा में किसी भी सदस्य के पूछे सवालों में सर्वाधिक है। 1251 सवालों के साथस दूसरे स्थान पर शिावसेना के अधरराव पाटिल हैं।
ऐसा भी नहीं है कि सांसद अपनी अशिाक्षा अथवा जानकारी के अभाव के कारण सदन में मुंह खोलने से हिचकिचाते हों। लोकसभा का रिकार्ड बताता है कि 543 में से 428 सांसद या तो स्नातक हैं या इससे अधिक शिाक्षित हैं। 157 संासद स्नातकोतर हैं जबकि 22 के पास डाॅक्टरेट की उपाधि है। लोकसभा सचिवालय के आंकड़े बताते हैं कि पहली लोकसभा में 192 संासद मैट्रिक से भी कम ’िाक्षित थे, जबकि 14वीं लोकसभा में ऐसे सांसदों की संख्या घटकर 19 ही रह गई। पहली लोकसभा में 85 सांसद स्नातकोतर थे जबकि अब ऐसे सांसदों की संख्या बढाते हैं। इनमें राहुल गांधी, जतिन प्रसाद, नवीन जिंदल, ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट शामिल हैं।
इसे विडंबना ही कह सकते हैं कि इतने शिाक्षित होने के बाद भी जनप्रतिनिधि संसद में मुंह तक नहीं खोलते हैं, जबकि चुनावों में बेसिर-पैर की बातें करके सांप्रदायिक सौहार्द्र और सामाजिक व्यवस्थताओं को चोट करने पर आमादा रहते हैं।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

हताश मानसिकता ,निराश लोग

- विपिन बादल

चुनावी घोषणा के शंखनाद के बाद मौसमी बरसात की तरह तीसरें मोर्चे के आने का चलन-सा हो गया है, उद्धेशय क्या, नेतृत्व किसका आदि हर सवाल चुनाव के बाद तय करने की परम्परा-सी इस मोर्चे ने बना रखी है। जिसका सीधी मतलब है चुनाव परिणाम के बाद जोड़-तोड़ और मोल भाव के समीकरण पर तुक्का के रूप मे नये सरकार और नये नेतृत्व का अचानक अस्तित्व में आ जाना। कुल मिलाकर तीसरा मोर्चा हताश मानसिकता और निराश लोगों का जमावड़ा भर रह गया है जो ऐन केन प्रकारेण मात्र सता हासिल करना चाहता है।

तीसरे मोर्चे के गठन पर ध्यान दिया जाय तो साफ नजर आता है कि इसमें शामिल सभी दल कभी संप्रग या राजग का हिस्सा हुआ करता था। प्रमुख घटक दल से हाथ लगी निराशा और अतृप्त महत्वकांक्षाओं ने उन्हें अलग मोर्चा के रूप में खड़ा किया है। समस्त आकलन चुनावी भगदड़ पर अधारित है जिसमें हठात् पता ही नहीं चलता कि कौन किधर है। और चुनाव के बाद ऊँट किस करवट बैठेगा। तीसरे मोर्चे के गठन का तमाम आकलन सीट बँटवारा से लेकर, टिकट वितरण और चुनाव परिणाम के बाद तक अंसतु’टों के आकलन के पूर्वामान पर आधारित रहता आया है। अक्सर ऐसा भी हुआ कि चुनाव परिणाम आने के बाद तीसरी मोर्चा बिखर गया है और इसके घटक दल सत्ता के नजदीक दिखनेवाली पार्टी या मोर्चा की ओर छिटक गई है।

बहरहाल तीसरे मोर्चे में जहां मायावती और देवगौड़ा जैसे प्रधानमंत्री पद के स्वघोषित दावेदार हैं वही बंगाल और केरल को छोड़कर बाकी जगह पहचान की संकट से गुजर रहे वामपंथियों का जमावड़ा भी है। परजीवी वामपंथी पार्टी दूसरे के कंधे पर बैठकर ही अपना अंकशास्त्र मजबूत करती रही है। किन्तु इस बार कांग्रेस से हुए खटास और लालू-पासवान द्वारा संप्रग नहीं छोड़ने के ऐलान ने बंगाल और केरल के बाहर इनके खाता खुलने की स्थिति पर ही प्रशन चिन्ह लगा दिया। बिहार में टिकटों के बंदरबाट से लालू पासावन की जोड़ी ने भले ही कांग्रेस से पार्टी स्तर पर अलग राह चुनी पर वे वामपंथियों को घास भी नहीं ड़ाले। केरल और बंगाल जैसे अपने गढ़ों में भी इस बार वामपंथियों की हालत काफी पतली है। गठजोड़ के दौर में संख्याबल की महता को देखकर उन्होंने एच.ड़ी देवगौड़ा चन्द्र बाबू नायडु, जयललिता आदि लोगों की भीड़ जुटाकर वह अपने लिए मात्र कुछ सीटों का ईजाफा चाहती है।
तीसरे मोर्चे की बात सुनकर मैथिली की एक लोकोक्ति याद आती है-तीन टिकट, महा विकट, यानि कि अपने ही उद्देशय को बिगाड़नें वाले लोगों का जमावड़ा है। वैसे भी, तीसरी मोर्चा नाम से ही स्प’ट है कि ये चुनावी मैदान में कहीं स्पर्धा में न होकर अपने ’तीसरा’ पहले से ही मानकर चल रहे है ठीक वैसे ही जैसे पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा दिल्ली में पहले से ही घोषित कर चुकी थी कि 'भारी' पड़ा कांग्रेस।

मोर्चे में शमिल दलों का हाल यह है कि इन दलों और उसके नेताओं का राज्य से बाहर पहचान का घोर संकट है। मायावती ने पहले ही प्रधानमंत्री पद की दावेदारी और घटक दलों से चुनावी तालमेल न करने की घोषणा कर तीसरे मोर्चे की हवा पहले ही निकाल दी। किन्तु अपने सीटों के चिंता में वामपंथियों को उतावलान देखते ही बनता है। राज्य-बीजद गठबंधन टूटते ही वामपंथी एक तरफा उसका स्वागत करने लगे और येचुरी तो 'सीताराम' भजते तुरंत नवीन पटनायक के दरबार में पहुंच गये। पटनायक का स्तुतिगान कर वे उड़ीसा में भी बीजद के सहारे एकाध सीट प्राप्त करने की फिराक में दिखते रहे। बावजूद तमाम दौड़-भाग के वामपंथी अपनी हार लगभग स्वीकर ही चुके हैं। तभी तो वामपंथी नेता अभी से 'कांग्रेस' से परहेज नहीं और चुनाव के बाद धर्मनिरपेक्ष सरकार का राग अलापना शुरू कर दिया है।

बिहार मे संप्रग घटक दलों के बिखराव और जदयू तथा राजद मे बगावत के बाद भी तीसरे मोर्चे या वामपंथियों को कोई लाभ मिलना नही दिखा। लालू पासवान ने स्प’ट कहा है कि वें संप्रग का घटक बने रहेंगे। साथ ही बगावती नेताओं ने भी कांग्रेस या अन्य दलों का ही दामन थामा है। तीसरे मोर्चे की हताश मानसिकता ही है किय यह धड़ा अभी से दो स्पष्ट ध्रुवों मे बंटा दिख रहा है। सबकी अपनी गोटी अपनी चाल है।

वैसे भारतीय लोकतंत्र अनिशचतताओं से भरा पड़ा है और राजनीतिक स्वार्थ बेमेल गठजोड़ पर इस हदतक आश्रित है कि कब क्या हो जाय, इसका पूर्वानुमान लगाना नितांत मुशिकल हो गया है। यह स्थिति तीसरे मोर्चे के लिए लाभदायक भी सिद्ध हो सकती है। दरअसल चन्द्रशखर दैवगौड़ा और गुजरल जैसे हाशिाये के लोगों को अचानक प्रधानमंत्री बन जाने की घटना ने कई क्षेत्रीय नेताओं में के महत्वकांक्षाओं में उफान ला दिया है। मायावती, पासवान, लालू, पवार, आदि नेताओं ने अपने प्रधानमंत्री बनने की इच्छा का सार्वजनिक उद्गार भी किया है। देवगौड़ा भी ’दूसरी पार्टी’ का मंसूबा बाँधे है। ऐसे में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और दो या अधिक उप प्रधानमंत्री आदि प्रलोभन एक नये गठजोड़ को चुनाव के बाद जन्म दे सकता है। सब कुछ चुनावी नतीजों और नेताओं के महत्वकांक्षाओं पर निर्भर करता है।

वैसे तो चुनाव परिणाम के बाद तीसरे मोर्चे का बिखराव तय माना जा रहा है। ’साम्प्रदायिकता’ या भ्र’टाचार और कमजोर प्रधानमंत्री के तर्क पर राजग और संप्रग के बीच ही ध्रुवीकरण होने की फिलहाल संभावना दिखती है। परंतु यदि गंगा उलटी बह गई तो ’पदों’ के भूखे नेताओं का जमावड़ा संप्रग और राज्य से छिटक कर फिर से एक नया इतिहास रच सकता है। जिससे हताश-निराशा जमावड़ा सŸाा के केन्द्र में आकर अचानक प्रांसगिक हो सकती है। अनिशिचतता भरे भारतीय लोकतंत्र में कुछ भी हो सकता है। यहां सुविधावादी अवसरवदिता के पक्ष में नई-नई परिभाषाऎं और तर्क गढ़ने मे पारगंत नेताओं का भरमार जो है। फिलहाल आगे-आगे देखिये होता है क्या ?

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

कैसे होगा पटाक्षेप

भारतीय लोकतंत्र का चुनावी महापर्व शुरू हो गया। लाखों लोगों ने प्रथम स्नान का आनंद लिया। कयास लगाए जा रहे है। बहस-मुहाबिसे होंगे; पहले भी होते रहे हैं। सो, इस दफा भी होंगे। कोई हैरत की बात नहीं है। जैसे-जैसे मीडिया सयाना होता जा रहा है, यह सिलसिला भी प्रौढ़ता की ओर बढ़ता जा रहा है। इस सबके बीच आम मतदाता यह देखकर हतप्रभ है कि इस महापर्व से अघ्र्य रूपी मुद्दे गायब हो रहे हैं। राष्ट्रीयता पर क्षेत्रीयता का लबादा इस कदर चढ चुका है कि कोई भी राजनीतिक दल बहुमत की आस में नहीं है। क्या होगा परिणाम ? हम भी जानते हैं, आप भी।ऐसे में सवाल उठता है कि यह घटाटेप क्यों ? जबाव के रूप में सामने आता है कि जब एक हजार के करीब राजनीतिक दल अपनी-अपनी दुकान सजा कर बैठे हों तो कैसे होगा पटाक्षेप। दरअसल, लोकसभा की 543 सीटों पर कब्जा जमाने के लिए एक हजार से अधिक राजनीतिक दल संसदीय चुनावों में शामिल हो रहे हैं। वर्ष 2004 में हुए लोकसभा चुनावों के बाद राजनीतिक दलों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है अगर चुनाव आयोग ने 1027 राजनीतिक दलों के नाम पंजीकृत किए हैं। सूची में अधिकतर नाम गैरमान्यता प्राप्त दलों का है। ऐसी पार्टियों की संख्या 2004 में जहां 173 थी इस बार वह बढ़कर 980 हो गई है। इसके अतिरिक्त राज्यस्तरीय पार्टियों अगर राष्ट्रीय पार्टी की संख्या में भी वृद्धि हुई है। राज्यस्तरीय पार्टियों की संख्या 36 से बढ़कर 40 हो गई है वहीं लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता दल को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल गया है। चुनाव आयोग के अनुसार अब कांग्रेस अगर भाजपा के अलावा बसपा, भाकपा, माकपा, राकांपा अगर राजद राष्ट्रीय पार्टियां हैं। चुनाव आयोग के प्रावधानों के अनुसार उस पार्टी को राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता दी जाती है जिसके उम्मीदवारों को पिछले आम चुनावों में चार या अधिक राज्यों में कुल वैध मतदान का कम से कम छह प्रतिशत मत प्राप्त होता है। राष्ट्रीय दल की मान्यता के लिए अन्य प्रावधान भी हैं लेकिन राज्यस्तरीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लिए उसके उम्मीदवारों को संसदीय या विधानसभा चुनावों में राज्य में कुल मतदान का कम से कम छह प्रतिशत मत मिलना चाहिए। अन्य पार्टियां जो इन प्रावधानों को पूरा करने में विफल रहती हैं उन्हें पंजीकृत गैरमान्यता प्राप्त दल का दर्जा दिया जाता है। इन सब दलों के अलावा मैदान में उतरने वाले उम्मीदवारों को निर्दलीय माना जाएगा। इस राजनीतिक विद्रूपता के बीच सहसा ही स्मरण हो आता है नागार्जुन की कुछ पंक्तियां -

'स्वेत-स्याम-रतनार ’ अंखिया निहार के
सिण्डकेटी प्रभुओं की पग-धूर झार के
लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के
खिले हैं दांत ज्यों दाने अनार के
आए दिन बहार के,
बन गया निजी कम
दिलाएंगे ओर अन्न दान के, उधार के
टल गए टिकट मार के
आए दिन बहार के
सपने दिखे कार के
गगन विहार के
सीखेंगे नखरे, समुन्दर पार के
लौटे टिकट मार के
आए दिन बहार के ।

बेशक, यह कविता बरसों पहले लिखी गई हो, मगर इसका प्रासंगिकता पर कोई सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता।