दिल्ली सरकार ने साल 2010 का राष्टï्रमंडल खेल के आयोजन को दिल्ली के गौरव के रूप में प्रचारित किया था । हजारों करोड़ों का बजट बना, बयानबाजियां की गई, श्रेय बटोरने की होड़ मची, लेकिन इस चुनावी वर्ष में काम की गति धीमी पड़ गई। जब सियासतदानों को अपनी कुर्सी की चिंता सताने लगे तो विकासात्मक कार्यों को कौन तरजीह देता है? हालांकि, राष्टï्रमंडल खेलों की सच्चाई इससे कुछ अलग भी है। राष्टï्रीय खेलों के गौरवमय इतिहास को खंगाला जाए तो कई उदाहरण ऐसे हैं जिससे लगता है कि आर्थिक दृष्टिïकोण से ऐसे आयोजन की परिणति सुखद नहीं है। सरकार की ओर से भले ही खेलों के आयोजन के लिए धन दिया गया हो लेकिन लोक निर्माण विभाग में जिस प्रकार से अभियंताओंं की कमी है उससे निर्माण कार्य खासा प्रभावित हो रहा है और दिल्ली सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ है।
दिल्ली 2010 में राष्टï्रमंडल खेलों का आयोजन तो कर रहा है लेकिन इससे जुड़े कई ऐसे पहलू हैं जो सवाल खड़ा करते हैं। असल में संयुक्त राष्टï्रमंडल खेलों के आयोजन के लिए दिल्ली को एकदम नए सिरे से संवारने की बात की गई थी। इसके लिए विशेष तौर पर 40 हेक्टेयर भूमि पर 600 करोड़ की लागत से खेलगांव का निर्माण किया जा रहा है। साथ ही खिलाडिय़ों के लिए 19 पंचसितारा होटलों के निर्माण की भी योजना है। इस लागत मूल्य के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण आठ होटल भूखंडों की नीलामी की बात कर रहा है। लेकिन जिस प्रकार से लोक निर्माण विभाग मेें अभियंताओं की कमी है, उससे सरकारी विभाग की परेशानी बढ़ती जा रही है कि निर्माण कार्य किस प्रकार पूरा कराया जाएगा। विभाग के इंजीनियर इन चीफ आर। सुब्रहमण्यम भी खुद अभियंताओं की कमी की समस्या से परेशान है। वे कहते हैं, ''इंजीनियरों की कमी के बारे में सरकार को लिखा गया है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि अधिकतर इंजीनियर विभाग छोड़कर जा रहे हैं। हाल ही के दिनों में सुपरिटेंडेंट लेवल के कई इंजीनियर या तो नौकरी छोड़कर चले गए या उन्होंने वीआरएस लेकर प्राइवेट कंपनियां ज्वाइन कर ली हैं।ÓÓ लोकनिर्माण विभाग के आंकड़े बताते हैं कि विभाग में सुपरिटेंडेंट इंजीनियर (सिविल) के 27 पद हैं जिस पर 20 मौजूद हैं, सुपरिटेंडेंट इंजीनियर (इलेक्ट्रिकल) के 5 पद हैं जिस पर 4 मौजूद हैं और इग्जेक्युटिव इंजीनियर (इलेक्ट्रोनिक्स) के 24 पद हैं जिस पर 20 मौजूद हैं। इसके अलावा अस्टिेंट इंजीनियर के 98 पद में 72 और जूनियर इंजीनियर के 606 पद में केवल 303 इंजीनियर ही विभाग में हैं। जाहिरतौर पर इससे विभाग द्वारा संचालित तमाम निर्माण कार्य प्रभावित हो रहा है। इसक ी सूचना राज्य मंत्रिमंडल को भी है, लेकिन चुनावी रणनीति तैयार करने में जुटी मंत्रिमण्डल के मुखिया सहित अन्य सहयोगियों को इसकी सुध लेने की फुर्सत नहीं है।
दूसरी ओर, इस आयोजन के अर्थगणित और भी चौंकाते हैं। आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी ने आयोजन के इस अवसर को प्राप्त करने के लिए 1730 करोड़ रुपए की बोली लगाई थीं लेकिन बाद में यह 4700 करोड़ तक पहुंच गई। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। इससे पहले 2006 में मेलबोर्न में खेलों की बोली 670 करोड़ लगाई गई थी जो बाद में 3800 करोड़ तक पहुंच गई थी। साल 2002 में भी मैनचेस्टर की बोली 4000 करोड़ के करीब पहुंच गई थी।
बताया जाता है कि 25 वर्ष पूर्व दिल्ली में एशियाई खेलों की बजट की शुरूआत 550 करोड़ से की गई थी जो बाद में 10000 करोड़ तक पहुंच गई थी। ऐसे में 2010 के राष्टï्रमंडल खेलों की परियोजना के लिए जब 26,000 करोड़ का बजट प्रस्तावित हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इन आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि आयोजन के लिए जितना पैसा चाहिए, आयोजकों को उससे कहीं अधिक मिल जाता रहा है। इसलिए देखने वाली बात है कि आयोजक इस पैसे का कितनी बेहतरी के साथ उपयोग करते हैं।
राष्टï्रमंडल खेलों के अर्थगणित को जानकर भले ही सरकार इस आयोजन को सफल बनाने में कोई कसर नहीं छोडऩा चाहती, मगर बाद में आने वाले वक्त की तसवीर का अक्स देखा जाए तो आयोजन के परिणाम आयोजकों के माथे पर चिंता की लकीर खींच सकते हैं। सवाल यह उठता है कि इस आयोजन में सरकार 26000 करोड़ के इतने बड़े रकम को किस प्रकार समायोजित करेगी? क्या इसके लिए उसके पास ठोस व्यवस्था है? सवाल इसलिए उठ रहा है कि अब तक विश्व के जिन राज्यों-शहरों ने ऐसे खेल आयोजित किए हैं, वह अब शायद पछता रहा है। राष्टï्रीय खेलों के आयोजकों के इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो जिन देशों ने भी एशियाई या ओलंपिक खेलों का आयोजन किया है, वे अभी तक उसके कर्ज से उबर नहीं पाए हैं। 2004 में एथेंस ओलंपिक में 20000 करोड़ की जगह 82000 करोड़ खर्च किए और वह 20 वर्ष तक इस कर्ज को वापस करेंगे। 2000 में सिडनी में हुए ओलंपिक खेलो में कुल खर्च 20000 करोड़ हुआ, जिसे चुकाने में आयोजकों वर्ष 2010 में सफल होंगे। ऐसा ही कुछ 2008 में चीन में होनेवाले ओलंपिक खेलों का हाल है, जहां 65000 करोड़ का अनुमानित बजट था लेकिन अब तक 150000 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। लंदन में साल 2012 में होने वाले ओलंपिक खेलों में शुरूआती बजट 6000 करोड़ था लेकिन अब यह 49000 करोड़ तक हो गया है।
दिल्ली में आयोजित राष्टï्रमंडल खेलों के आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी का कहना है, ''शुरूआती संसाधनों को जुटाने के लिए दिल्ली सरकार ने 26000 करोड़ रुपए के प्रस्ताव की घोषणा की, लेकिन अब तक इसमें 19000 करोड़ खर्च हो चुके हैं और शेष रुपए का एकत्रीकरण आयोजन समिति और विभिन्न विभागों द्वारा किया जाएगा।ÓÓ लेकिन दिल्ली के तत्कालीन वित्तमंत्री डा। ए.के. वालिया ने कहा था, ''शुरूआती संसाधनों में ही 27000 करोड़ खर्च होंगे। इसके अलावा, दिल्ली सरकार ने अन्य संसाधन तैयार करने के लिए अलग से योजना आयोग को 770 करोड़ का अनुमानित बजट भेजा है।ÓÓ
इन बयानबाजियों के बीच गैर सरकारी संगठन हेजाडर्स सेंटर की रिपोर्ट ने सबको भौंचक्का कर दिया। रिपोर्ट के अनुसार इतने बड़े धनराशि को जनता से ही वसूला जाएगा। प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष। हेजाडर्स संगठन के निदेशक दूनू का मानना है कि इस खर्च को पूरा करने के लिए जनता की जेबें ढीली की जाएगी। इस धन की वसूली कभी उन पर बिजली टैक्स लगाकर तो कभी सेल टैक्स लगाकर, कभी वाटर टैक्स लगाकर तो कभी कोई अन्य टैक्स लगाकर की जाएगी। लब्बोलुआब यह है कि इस खर्च को सीधे-सीधे आम जनता को अपने कंधों पर उठाना होगा, लेकिन क्यों ?
शुक्रवार, 3 जुलाई 2009
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1 टिप्पणी:
बहुत अच्छा लेख! काफ़ी विस्तार से आपने बताया है।
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