सोमवार, 21 सितंबर 2009

प्रासंगिक है रामलीला का मंचन

र्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के आदर्शोंं को जन-जन तक पहुंचाने के लिए रामलीलाओं का मंचन प्राचीन समय से हमारे देश में होता आया है, जो कि आज भ्ी किया जा रहा है। लेकिन आज रामलीलाएं देखने जाने से जनता की रुचि निरंतर घट रही है। एक समय था जब दर्शकों की भीड़ से रामलीला स्थलों पर जगह की कमी हो जाया करती थी। जिसकी वजह से दर्शकों को मैदान के बाहर से ही रामलीला देखने के लिए मकानों की ऊंची छतों पर या फिर लाउडस्पीकरों से आ रही आवाज सुनकर ही संतोष करना पड़ता था। इतनी रुचि थी लोगों में। वहीं आज रामलीला कमेटियों को लीला स्थल तक लोगों की संख्या जुटाने में खासी मेहनत करनी पड़ रही है। आखिर क्या वजह है, जो सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही रामलीलाओं के इस शिक्षाप्रद मंच से लोगों का मोह भंग सा हो रहा है?
रामायण भारतीय समाज एवं विश्व के लिए एक धार्मिक एवं संपूर्ण पे्ररणादायक ग्रंथ है, जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के द्वारा रचित लीला का वर्णन बेहद सरल ढंग से किया गया है। रामायण से हमें अनेक प्रकार की शिक्षाएं मिलती हैं। जिसमें सर्वप्रथम राजपाठ अथवा सत्ता पाने के मोह को त्याग कर हमें अपना ध्यान देशहित में लगाना एवं अपने माता-पिता का आज्ञाकारी होना चाहिए, अर्थात जिस प्रकार श्रीराम ने अपने पिता दशरथ के द्वारा माता कैकई को दिए गए वचनों की लाज रखने के खातिर चौदह वर्षों तक वन में जाना स्वीकार किया। 'रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन जाएÓ। इसी प्रकार पतिव्रता नारी का धर्म निभाते हुए सीताजी ने और भाई का फर्ज निभाते हुए लक्ष्मणजी ने अपने बड़े भ्राता श्री रामचंद्र जी के संग चौदह वर्षोंं तक साथ रहने के वास्ते वन के लिए प्रस्थान किया। इसके अलावा हमें रामायण से और भी अनेक शिक्षाएं मिलती हैं। एक आदर्श भाई का फर्ज निभाते हुए भरतजी ने स्वयं को मिले राजपाट को किस प्रकार ठुकरा दिया। इसके अलावा हमें जातिवाद का भेदभाव नहीं रखना चाहिए। छोटे-बड़े निर्धन-धनी सबसे हमें प्रेम करना चाहिए, जिस प्रकार श्रीराम ने भीलों को अपनाया तथा सबरी के जूठे बैर खाए। इसके अलावा अहंकार हमें कभी भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि अहंकार का अंत बुरा होता है। जिस प्रकार अहंकारी रावण ने सीताजी का हरण अपने अहंकार वश अपने परिवार सहित समस्त सेना की जान श्रीराम चंद्र जी के हाथों गंवाई, और भी अनेक शिक्षाएं और संस्कार हमें रामायण से मिलते हैं। आज हमें आवश्यकता है रामराज्य के उस युग की जिसमें सच्चाई, भलाई, भक्ति, समर्पण, सम्मान, त्याग एवं भावना की ताकि हमारे देश में रामराज्य के समान युग पुन: आ जाए। इन्हीं उपदेशों को ध्यान में रखते हुए जन-जन तक राम के आदर्शों को पहुंचाने के लिए रामलीलाओं की शुरुआत प्राचीनकाल से हमारे देश में आरंभ हुई। जो आज भी शहरों, कस्बों एवं गांवों में परंपरागत ढंग से चल रही है।
लेकिन पहले की भांति आज होने वाली रामलीलाओं के प्रस्तुतीकरण में अनेक प्रकार के बदलाव हो रहे हैं। पुराने समय बिजली के नहीं होने के कारण लालटेन, और गैसबत्ती की रोशनी में रामलीला हुआ करती थी। रामलीला कमेटियां अपने में से ही कलाकारों का चयन करके रामलीलाएं प्रारंभ होने के महीनों पहले से उन्हें प्रशिक्षण देना आरंभ कर देती थीं। जिसके फलस्वरूप मंच पर प्रस्तुति के दौरान प्रशिक्षित कलाकारों द्वारा उम्दा अदाकारी के साथ लीला में गीत और संवाद बोले जाते थे। छोटी-छोटी रामलीलाएं भी हर गली-कूचों में हुआ करती थीं। साथ ही बड़ी रामलीलाएं भी कई स्थानों पर हुआ करती थी एवं रामलीला के स्थलों पर भी शांत वातावरण होता था। जिसे देखने के लिए लोग वर्ष भर इंतजार करते थे और उत्साह के साथ अपने परिवार व बच्चों के साथ जाया करते थे।
लेकिन आज रामलीलाओं की संख्या में लगातर गिरावट हो रही है। बढ़ती व्यस्तता के कारण रामलीला के मंचन का जिम्मा नाटक के नये कलाकारों को सौंपा जा रहा है। गली-मोहल्लों में होने वाली छोटी रामलीलाएं तो लगभग विलुप्त ही हो गई हैं। इसकी एक वजह बढ़ती हुई मंहगाई और लोगों का केबल टीवी और फिल्मों के प्रति बढ़ता रुझान भी है। रामानंद सागर द्वारा निर्देशित रामायण धारावाहिक ने तो रामलीला को आधुनिक दौरे में प्रवेश करा दिया, जिसमें श्रीराम एवं रावण के युद्ध में कंप्यूटर तकनीक का काफी उपयोग किया गया था और इसने दूरदर्शन प्रसारण के दौरान नये कीर्तिमान भी बनाए थे। इसके बाद तो अनेक रामलीला स्थलों पर बड़े पर्दे पर डिजिटल तकनीक द्वारा रामायण दिखाई जा रही है। लेकिन एक बड़े वर्ग का मानना है कि मंच पर दिखाई जाने वाली लीला की अपनी ही बात होती है। आज बदलते युग में बढ़ते आधुनिकीकरण और प्रतिस्पर्धा के चलते हालांकि कई बड़ी रामलीलाएं भी अब भव्य और हाईटेक हो गई हैं। दिल्ली की एक रामलीला में तो हनुमान जी को हेलिकॉप्टर की सहायता से संजीवनी बूटी पर्वत लेकर उड़ते हुए दिखाया। इसके अलावा आज रामलीला के मंच आधुनिक लाईटों की चकाचौंध रोशनी और डिजिटल साउंड सिस्टम से लैस हो गए हैं। साथ ही दर्शकों को जुटाने के लिए फिल्मी सितारों का भी सहारा लिया जा रहा है।
इसके बावजूद भी दर्शकों की संख्या में बढोतरी की बजाय गिरावट हो रही है जो कि चिंता का विषय है। रामलीला हमारी संस्कृति एवं समाज के सुधार के लिए एक उचित विकल्प है। राम के आदर्शों को हमारे बच्चे भी अपने जीवन में उतारें इसी बात को ध्यान में रखते हुए सभी सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों में रामलीलाओं के दिनों में स्कूलों की छुटिट्ïयां रखी जाती हैं। फिर भी आज हम इस पावन लीला की उपयोगिता नहीं समझ पा रहे हैं। आज अधिकतर महिलाएं टीवी पर दिखाए जा रहे सास-बहू के नाटकों में अधिक व्यस्त हैं। इसके साथ ही रामलीला कमेटियों को भी कुछ सुधारों की आवश्यकता है। रामलीला स्थलों पर लगे मेलों में अत्यधिक ऊंची आवाज में बजते लाउडस्पीकर लीला देखने व सुनने में बाधा डालते हैं। इस बात पर ध्यान देना होगा। अन्य बाहरी सजावट में किए गए अनाप-शनाप खर्चोंं के बजाय रामलीला के मंचन पर विशेष ध्यान देना होगा। साथ ही इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि रामलीला का मंच नेताओं के प्रचार का अड्ïडा न बनने पाए।
अत: आज के झूठ, फरेब, स्वार्थ और अपराध प्रवृत्ति के बदलते परिवेश में राम के आदर्शोंं को अपना कर जीवन में सुधार लाने के लिए रामलीला स्थलों पर जाकर लीला का आनंद उठाना चाहिए। इससे हमें प्रभु श्रीराम के आर्शीवाद के साथ हमारे सामाजिक ज्ञान में वृद्धि होगी बच्चों में अच्छे संस्कार आएंगे और रामलीला कमेटियों का मनोबल भी बना रहेगा।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

सुरक्षा की कीमत 10 रुपए

अंतर्राष्टï्रीय सीमा पर बेशक सुरक्षा के नाम पर तमाम बंदोबस्त किए जाते हों लेकिन सीमा सुरक्षा बल चंद रुपए की खातिर उसे दरकिनार कर जाते हैं। जिसका लाभ तस्करों को होता है। हालात इतने बदत्तर हैं कि कभी भी कोई आतंकी संगठन इन तस्करों की सहायता से सुरक्षा व्यवस्था में जबरदस्त सेंध लगा सकता है।्रएक ओर अवैध प्रवासियों पर नजर रखने के लिए भारत-बांग्लादेश सीमा के पास स्थित 60 पासपोर्ट नियंत्रण केंद्रों को पूरी तरह कम्प्यूटरीकृत करने का फैसला किया गया है । वहीं दूसरी ओर यह खबरें भी आ रही है कि सीमा सुरक्षा बल के कुछ जवान तस्करों से महज 10 रुपए से 100 रुपए लेकर सामान से भरे बड़े डिब्बे और कॉर्टून को सीमा पर आने-जाने देते हैं। सीमाई इलाकों का स्याह सच यह भी है कि दहशतगर्दों पर नकेल कसने के सरकार कितने ही दावे करती रहे लेकिन देश की सरहद महफूज नहीं हैं। भारत की पूर्वी सरहद में सुराख बन चुके हैं। जहां से तस्कर ही नहीं मौत का सामान लेकर दहशतगर्द भी आसानी से बांग्लादेश से भारत आ सकते हैं।
इस इलाके में रुकने वाली हर ट्रेन में भारत से तस्करी कर लाया गया माल लादा जाता है और इसी के साथ इसमें निकलते हैं आतंकवादी। कुछ दिन पहले ही इंटेलिजेंस एजेंसी ने एक वीडियो तैयार किया है जो दिखाता है कि किस तरह बांग्लादेशी घुसपैठिए भारत में घुसने का इंतजार कर रहे हैं। बांग्लादेश राइफल्स के जवान घुसपैठियों को रोकने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। अव्वल तो यह भी कि सीमा सुरक्षा बल के सूत्र बताते हैं कि घुसपैठिए इतना दूसरे सीमाई इलाके इस्तेमाल नहीं करते जितना वो भारत-बांग्लादेश सीमा का इस्तेमाल करते हैं। यही वजह है कि सीमा सुरक्षा बल इस बारे में काफी चिंतित है और उसने अपनी सुरक्षा बढ़ा दी है। बीएसएफ की कमजोरियों को जानकर सरकार ने उन्हें आधुनिक साजोसामान से लैस करने का काम शुरू किया है मगर फिर भी देश के दुश्मनों को भारत में घुसपैठ करने से रोकना इतना आसान नहीं है। पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई आतंकियों को भारत में भेजने की फिराक में रहती है। उसके लिए बांग्लादेश बॉर्डर सबसे आसान टारगेट है क्योंकि सरहद पर मौजूद सुरागों से दहशतगर्द बड़े आराम से देश में दाखिल हो सकते हैं।
गौर करने योग्य तथ्य यह भी कि बंग्लादेश से कई परिवार मुर्गी के अंडो का व्यापार करने भारत आते हैं। न तो उनके पास कोई पासपोर्ट होता है और न ही वीजा। फिर भी वे बेरोकटोक सीमा पर आवाजाही करते हैं। इसके लिए उन्हें सुरक्षा बलों के जवानों को 10 रुपए से 100 रुपए तक देने होते हैं। अंडों का व्यापार करने वाले इस काम में बच्चों को लगाते हैं, कारण सुरक्षा बल के जवान बच्चों से एक कार्टून के एवज में 10 से 30 रुपए लेते हैं जबकि वयस्क से उसी कार्टून के लिए 100 रुपए तक वसूलते हैं। हालांकि सीमा सुरक्षा बल के किसी भी अधिकारी ने औपचारिक रूप से इसकी पुष्टिï नहीं की। लेकिन अंडों के व्यापारी इसका जिक्र करते हैं।
इतना ही नहीं, भारत-बांग्लादेश सरहद पर पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले से होकर बांग्लादेशी घुसपैठिए बेहद आसानी से भारत में कदम रख लेते हैं। कोहिनूर अशरफी एक संदिग्ध आतंकी है। हिंदी और बांग्ला बोलने में माहिर अशरफी को पिछले दिनों सीमा सुरक्षा बल ने गिरफ्तार किया था। उससे एक डायरी मिली जिसमें उसके पाकिस्तान, दिल्ली और पटना में कुछ कांटेक्ट का पता चला। 2002 की ये डायरी हाथ से लिखी कुछ लाइनों से शुरू होती है, इसमें लिखा है या अल्लाह... इन लोगों को खत्म कर। मगर अशरफी कहता है कि वो निर्दोष है। वो कहता है कि एक कुली ने मुझे सीमा पार कराने के एवज में 800 रुपए मांगे और 400 रुपए वापसी के। मैं यहां एक दलाल की मदद से आया था। उसने मुझे चेतावनी दी थी कि अगर मैं किसी को कुछ बताऊंगा तो वो मुझे पकड़वा देगा। उसने बताया कि मैं अकेला आया था। मैंने दूसरों को भी देखा लेकिन अगर आप सही तादाद जानना चाहते हैं तो दलालों से पूछें। उसने बताया कि उसने सुबह करीब 6 से 7 बजे के बीच सीमा पार की।
दरअसल, भारत में घुसपैठ के लिए बड़े-बड़े इलाकों में बाड़बंदी हटाई जा रही है। तार काट दिए जाते हैं। जहां सीमा पर निगरानी चुस्त रहती है वहां दलालों को पैसा देकर आसानी से भारत में घुसा जा सकता है। कृष्णपाद मंडल बताता है कि हमने दलालों को पैसे दिए। ये पैसा उस समय सुरक्षा के हालात के मद्देनजर 200 से 400 रुपए तक हो सकता है। यहां दोनों तरफ दलाल हैं जिनके बीएसएफ और बीडीआर में कांटेक्ट हैं। केवल दलाल ही जानते हैं कि बीएसएफ और बीडीआर के किन अफसरों को पैसा देना है। एक बार भारतीय सीमा में घुसने के बाद ज्यादातर बांग्लादेशी वोटर लिस्ट में भी शामिल हो जाते हैं।
बहरहाल, बांग्लादेश की तरफ से हो रही आतंकियों की घुसपैठ और ड्रग्स की तस्करी को रोकने के लिए सीमा सुरक्षा बल ने सीमाई गांवों को सीमा में कुछ अंदर शिफ्ट करने का सुझाव दिया है मगर गांव वाले इसके लिए तैयार नहीं हैं। हरीपुकुर गांव निवासी शेख यूनिस कहते हैं कि हमारे लिए बहुत मुश्किल हो जाएगी क्योंकि हमारी पूरी जमीन-जायदाद यहीं है। हमारी कमाई हमारी जमीन से होती है और इसे पीछे नहीं खिसकाया जा सकता। इस इलाके में जीरोलाइन की कोई अहमियत नहीं है। तस्करी जोरों पर है और बांग्लादेश राइफल्स अक्सर इसे दूसरी नजर से देखती है। सीमा के साथ लगे इलाकों में सैकड़ों-हजारों की जिंदगी ड्रग्स की तस्करी पर निर्भर है। साफ है गांववाले ये जगह छोड़कर क्यों नहीं जाना चाहते। तो अगली बार अगर आप ये बयान सुनें कि भारत बांग्लादेश सीमा पूरी तरह से सील है तो उसपर भरोसा करने से पहले सौ बार सोच लें।
वहीं भारत सरकार के गृह मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि बांग्लादेश से आने वाले लोग सही यात्रा दस्तावेजों के साथ आएं, इसके लिए इन केंद्रों को कम्प्यूटर प्रणाली और ऑनलाइन सुविधाओं से युक्त करना जरूरी है । इससे संवेदनशील पूर्वी सीमा पर स्थित चौकियों का निरीक्षण करने में भी मदद मिलेगी । हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय के सचिव (सीमा प्रबंधन) जरनैल सिंह के नेतृत्व में उच्चस्तरीय केंद्रीय टीम ने असम के करीमगंज क्षेत्र का दौरा किया था । टीम को पता चला कि पासपोर्ट नियंत्रण केंद्रों की स्थिति अच्छी नहीं है और वहां के अधिकारियों को आगंतुकों के यात्रा दस्तावेज की गहन जांच करने में कठिनाई होती है । वहां से लौटने के बाद श्री सिंह ने विदेश मंत्रालय और नेशनल इन्फॉर्मेटिक्स सेंटर तथा अन्य विभागों के अधिकारियों के साथ नई दिल्ली में बैठक की, जिसमें इस योजना को जितनी जल्दी संभव हो, लागू करने के बारे में विचार-विमर्श किया गया ताकि इन केंद्रों के जरिये आने वाले लोगों की बेहतर निगरानी की जा सके । बांग्लादेश से लोगों के लगातार आने पर रोक लगाने के लिए सरकार ने हाल ही में भारत-बांग्लादेश सीमा के पास ऐसे 46 स्थानों की शिनाख्त की थी, जहां से बांग्लादेश से घुसपैठ होती है । सीमा की रक्षा करने वाली फौज के प्रयासों के बावजूद इन मार्गों को बंद नहीं किया जा सका है, जिनका इस्तेमाल बारंबार घुसपैठ के लिए हो रहा है । ये 46 स्थान असम, मेघालय, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में हैं । सीमा सुरक्षा बल ने, जो 4,095 किमी लंबी सीमा की चौकसी करता है, कहा है कि इस सीमा को पूरी तरह सील न कर पाने के कई कारण हैं, जिनमें यहां का दुर्गम क्षेत्र और लंबे नदी तटीय क्षेत्र जैसी कई कठिनाइयां शामिल हैं ।

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

ओवर स्मार्ट मिस्टर मिनिस्टर आॅफ स्टेट


बहुत खूब। जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद भी करते हैं। कांग्रेस की भावना का भी कद्र नहीं किया, पार्टी लाइन पर क्या काम करेंगे आप? लांग टर्म आपसे क्या उम्मीद की जा सकती है? संयुक्त राष्ट्र संघ में नेतृत्व को लेकर एक बार अपनी उम्मीदवारी क्या जता दी, आम आदमी का कद आपको इतना छोटा लगने लगा कि उन्हें कैटल तक (मवेशी) कह डाला। .....और नहीं तो क्या, इकोनाॅमी क्लास का भावार्थ तो यही हुआ न? इस क्लास में आम आदमी ही तो ज्यादातर सफर करते हैं। आपने पार्टी सुप्रीमो सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी का भी मजाक उड़ा डाला। इसलिए तो पूरी कांग्रेस को आप पर बौखलाना लाजिमी है। आपको पता होना चाहिए कि इस तरह के सार्वजनिक आचरण से कांग्रेस अध्यक्ष या किसी को भी दुख हो सकता है।
हमें पता है कि वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के कहने पर आपको पांच सितारा होटल का अस्थायी निवास छोड़ने पर बड़ा दुख हुआ है। लेकिन यह तो केंद्र सरकार की पाॅलिसी मेटर है। आम जनता इसमें आपकी कोई मदद भी नहीं कर सकती। लेकिन आपके इस कथन से कि इकोनाॅमी क्लास भेड़-बकरियांे की क्लास है, लगता है कि थरूर साहब, आप अब भी खुन्नस में हैं। अरे, यह तो केंद्र सरकार की मितव्ययिता अभियान है, जिसकी सराहना की जानी चाहिए। जैसे और कांग्रेसी इस अभियान की प्रशंसा कर रहे हैं, वैसे आपको भी करनी चाहिए। आप छोटी-छोटी बातों को दिल से लगा लेते हैं। आप विदेश राज्य मंत्री हैं, तो आपको यात्राआंे की दिक्कत कहां है? खामख्वाह परेशान हो रहे हैं। पार्टी की ओर से इस सादगी अभियान का संदेश देने में आपको हिस्सा लेना चाहिए और मुक्त कंठ से प्रशंसा करनी चाहिए।
अब आपसे क्या कहंे, आपने यह कहकर कि एकजुटता दिखाने के लिए आप भी अब अन्य नेताओं के साथ कैटल क्लास में सफर करेंगे, साथी नेताओं को भी नीचा दिखाया है। आप पर कांग्रेस प्रवक्ता जयंती नटराजन पूरी तरह नाराज हैं। आपकी कार्यशैली कांग्रेसी कार्य संस्कृति से भी मेल नहीं खाता। अपने में बदलाव लाएं, वरना आपका तो कुछ नहीं होगा, आपकी आपत्तिजनक सार्वजनिक आचरण से पार्टी को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। कम से कम पार्टी के लिए ऐसा न किया करें। आपसे अच्छे तो नंदन नीलेकणी जी हैं, जो बड़े औद्योगिक घराने से संबंधित होने के बावजूद पार्टी लाइन पर छोटी कार और सामान्य आवास जैसे सादगीपूर्ण उपायों पर गौर कर रहे हैं। कई बार तो यह लगा कि आप इस देश के नागरिक भी हैं या नहीं, क्योंकि आपने हवाई जहाज की इकोनाॅमी श्रेणी को, जिससे भारत के आम लोग यात्रा करते हैं, ‘मवेशी श्रेणी’ कह दिया है। इतना ही नहीं, आप तो पवित्र गायों पर भी कमेंट करने से बाज नहीं आए। आपकी इस व्यंग्यात्मक टिप्पणी के कारण सोनिया जी अपमानित महसूस कर रही हैं।
आपके जैसे ओवर स्मार्ट मिनिस्टर आॅफ स्टेट को जनता की अदालत में इस अपमान के बदले क्या सजा मिलनी चाहिए। शशि थरूर जी आपकी संवेदनहीनता के कारण आपको मंत्री पद से हटा भी दिया जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अब तो आपकी हर देश-विदेश की यात्राओं पर सरकार और जनता दोनों की नजर होनी चाहिए। देश के खजाने से आप कितना खाते हैं, कितना गिराते हैं और कितना बर्बाद करते हैं? सभी भारतीयों की संवेदनशीलता के मद्देनजर उनका बयान स्वीकारने योग्य नहीं है। भारत में प्रतिदिन हजारों लोग इकोनाॅमी क्लास में सफर करते हैं। इकोनाॅमी क्लास का अर्थ सस्ती क्लास से होता है। अब जब भी आप जहां जाएं, कोई मतलब नहीं, लेकिन आपके यह कहने से कि अगली बार जब आप केरल जाएंगे तो ‘मवेशी श्रेणी’ में ही जाएंगे, केरल की जनता की प्रतिष्ठा का भी हनन हुुआ है।


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सुशिल देव
वरिष्ठ पत्रकार
9810307519

बुधवार, 16 सितंबर 2009

जंगल राज

प्रजातंत्र हो जाने के बाद यहां जंगल मे भी राज चलाना काफ़ी कठिन हो गया है।उपर से राजनीति भी जोरों पर है।अभी हाल ही मे आम चुनाव हुए थे जिसमे शेर की पार्टी ने हाथी के दल को पटखनी दी और पुर्ण बहुमत लेकर सत्तासीन हुई.लम्बे-चौडे वादे किये गये.भेडों-बकडों के समुह को यह कहकर वोट मांगा गया कि शेर अब उसका शिकार नही करेंगे.मछलियों से वादा किया गया कि मगरमच्छों से उनकी रक्षा की जायेगी.छोटे-छोटे जानवरों को विश्वास दिलाय गया कि सस्ते दरों पर उन्हे चारा उपलब्ध कराये जायेंगे.किसी भी पशु-पक्षी को बेरोजगार नही रहने दिया जायेगा और सारे फ़ैसले जानवरों के हितों को ध्यान मे रखकर लिया जायेगा.हाथी के दल ने भी कुछ मिलते-जुलते वादे ही किये थे लेकिन अंततः पशुमत शेर की पार्टी के पक्ष मे रहा.हाथी को विपक्ष का नेता चुना गया और शेर की सरकार बनी.सियारों को प्रमुख मन्त्रालय दिये गये----क्योंकि चुनाव के दौरान उन्ही की ब्युहरचना और लिखे गये भाषण काम आये थे.

आमसभा मे हाथी ने चमचों को मंत्रालय दिये जाने पर सरकार की आलोचना की और यह भी आरोप लगाया कि जिन क्षेत्रों मे शेर की पार्टी को सीटें नही मिली उन क्षेत्रों से किसी को भी मंत्री नही बनाया गया।इस पर शेर शांत रहा और यह कहते हुए हंस दिया कि जब हाथी का शासन था तो वे सत्ता पाकर उनमत्त हो गये थे और बेरहमी से छोटे जानवरों को कुचल दिया था.इस पर विपक्ष मे बैठे जानवरों ने शोर मचाना चालू कर दिया.शेर भी आखिर शेर था, वह अपना मूल स्वभाव कैसे भूल सकता है.वह भी गुर्राने लगा. तभी एक मंत्री आकर शेर के कानों मे फ़ुसफ़ुसाया "महोदय ,मिडियावाले देख रहे हैं.यहां जो कुछ भी होता है उसमे मसाला लगाकर टेलीविजन के जरिये छोटे जानवरों को दिखाये जाते हैं. राजनीति यही कहता है कि सबके सामने सबको बोलने दो लेकिन अकेले मे जो विरोध करे उसकी जुबान काट लो.भरी सभा मे विरोध हो तो हंस्कर टाल दो और रात के अंधेरे मे विरोधी को पांव तले कुचल दो".शेर को थोडी बहुत राजनीति की बातें समझ मे आ रही थी.आखिर उसकी पुलिस-कुत्तों की फ़ौज, उसके जेब मे है और काली बिल्ली न्यायालय चलाती है.अकेले दम पर वह हजारो जानवरों को अपना शिकार बना सकता है.तभी विपक्ष से एक जानवर खडा हुआ और बोलने लगा "आप सभी जानवरों को सस्ते दर पर चारा कहां से देंगे जबकि आपके मंत्री खुद चार खा जाते हैं?". दुसरा बोला "जानवरों को बेवकूफ़ बनाकर पचासो साल से आप राज करते रहे,इतने दिनो मे आप ने क्या किया?".एक एक कर सभी जानवर बोलते रहे और शेर शांत भाव से सुनता रहा.फ़िर सभा क विसर्जन कर दिया गया.सायंकाल मिडियावालों को शेर ने अपने आवास पर बुलाकर बहुत अच्छा भोज दिया.उन्हे बकरे की मीट और मुर्गे की टांग पडोसी गयी.रात मे टीवी पर विपक्ष मे बैठे जानवरों के दुर्व्यवहार की खिल्ली उडायी गयी. सरकार की दूरदृष्टि की प्रशंसा की गयी.शेर की ईमानदारी और सहनशीलता की सराहना हुई.

रात के बारह बज चुके थे।काम करते करते शेर थक चुका था.वह बहुत भूखा था.मिडियावालों के साथ यह कहते हुए वह खाना नही खाय था कि उसने मांसाहार छोड दिया है.दिन के सर्वदलीय भोज मे पनीर की सब्जी जो उसे पसन्द नही है,यह बहान बनाकर नही खाया था कि आज उसे उपवास है.राजनीति का मतलब यह नही होत कि राज करनेवाला भूखा रहे और बांकी सभी मौज करें.उसे सियारों की यह राजनीति पसंद नही आयी.तभी एक सियार शेर के पास आया और भोजन-गृह मे पधारने का अनुरोध किया.सभी जानवर अपने-अपने घरों मे चले गये.शेर का भोजन-गृह जो कि एक अंधेरी गुफ़ा की तरह था-मे शेर प्रवेश कर गया.गुफ़ा मे घुसते ही स्वादिष्ट खाने का गंध उसकी नाक तक पहुंचने लगा.डरी हुई कई छोटी-छोटी निरीह आंखे अंधेरी गुफ़ा मे भी चमक रही थी.शेर मुस्कुराने लगा---अब उसे राजनीति अच्छा लगने लगा था.

- अरविन्द झा
बिलासपुर

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

‘दुर्गा सप्तषती रत्नाकर’ का लोकार्पण


मैथिली हास्य-व्यंग्य के षीर्षस्थ रचनाकार डा0 जयप्रकाष चैधरी ‘जनक’ द्वारा मैथिली भाषा में अनुदित ‘दुर्गा सप्तषती रत्नाकर’ का लोकार्पण परंपरा की लीक से हटकर नौ कुंवारी कन्याओं के हाथों दरभंगा स्थित सी। एम. लाॅ कालेज परिसर में किया गया। वैदेही सेवा मंच, कोलकाता द्वारा प्रकाषित इस पुस्तक में दुर्गा सप्तषती के ष्लोकों को मैथिली के सहज षब्दों में पिरोया गया है।

इस अवसर पर आकाषवाणी, दरभंगा के सहायक केंद्र निदेषक एस।के.आचार्य, पूर्व मेयर ओम प्रकाष खेड़िया, डा0 देवकांत मिश्र, बैद्यनाथ चैधरी सहित मृत्युंजय झा आदि उपस्थित हुए। समारोह का संचालन मणिकांत झा एवं अमलेंदु षेखर पाठक ने संयुक्त रूप से किया। पुस्तक की समीक्षा आकाषवाणी, दरभंगा के कार्यक्रम अधिषासी डा0 पी. एन. झा ने की।


- प्रवीण मैथिल
दरभंगा

सोमवार, 14 सितंबर 2009

हिन्दी बनाम हिंगलिश


बहुत ट्यूशन लिया, मगर अंग्रेजी बोलना नहीं आया। हां, अंग्रेजी बोलने की चालाकी जरूर आ गई है। हिंदी बोलते-बोलते अंग्रेजी के शब्दों से खेल जाता हूं और लोगों को प्रभावित कर देता हूं। कोचिंग और ट्यूशन लेने से कम से कम हिंदी में अंग्रेजी बोलने का सलीका तो आ ही गया है। किसी को जब फ्रीक्वेंट हिंदी बोलने में भी तकलीफ होती है, तो उसका क्या करूं ? मगर मुझे हिंदी तो क्या अंग्रेजी बोलने में भी अब कोई हिंचक या शर्म नहीं। यह सब कोचिंग और ट्यूशन से ही संभव हो सका है। इतना ही नहीं, कोचिंग से अंग्रेजी के दीवानों की गहराई का पता भी चल गया है।

कहते हैं कि आदमी सोहबत में ही कुछ सीखता-बनता है। अगर अंग्रेजी की पढ़ाई के दौरान किसी लड़की से दोस्ती हो जाए, समझो टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलना तो सीख ही जाओगे। क्योंकि हिंदी को अंग्रेजी स्टाइल में बोलने की कला अंग्रेज बनते युवक-युवतियों से भला बेहतर कौन जान सकता है। जनरल प्रैक्टिस में साॅरी, बट, एक्सक्यूज मी, पार्डन, थैंक्स, ओके, टा-टा, बाय-बाय और एक्च्युअली जैसे दो दर्जन शब्दों को अगर हिंदी वाक्यों में आपको घुमाना-फिराना आ गया तो आप लोगों को अंग्रेजी बोलकर प्रभावित कर सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आप हिंदी का आसानी से अंग्रेजीकरण कर लेते हैं। इसे हिंगलिश कहिए तो भी कोई बुरा नहीं होगा।

ऐसे हिंगलिशदाओं के तर्क हैं कि जब पत्र-पत्रिकाओं में अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल हिंदी के साथ किया जाने लगा है, तो आम आदमी क्यों नहीं कर सकता? हिंदी में अगर अंग्रेजी शब्दों और लटके-झटके का इस्तेमाल किया जाए तो सामने वाले ज्यादातर लोगों को प्रभावित किया जा सकता है। कुछ लोग तो कुछ वाक्यों की रट्टा भी लगाकर रखते हैं और जरूरत पड़ने पर उसका धड़ल्ले से इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। यह भी सच है कि ज्यादातर हिंगलिशदां किसी के साथ भी अंग्रेजी बोलने की क्षमता महज 10-20 मिनट से ज्यादा नहीं रख पाते, अपनी औकात में आ जाते हैं। यानी तुरंत हिंदी बोलने लगते हैं, लेकिन वह आदत से मजबूर होते हैं। उन्हें अंग्रेजी बोलना है, इसलिए वह हिंगलिश बोलने लगते हैं।

हिंदी हमारी मातृभाषा भी है और राष्ट्रभाषा भी। हिंदी दिवस और पखवाड़ा पर इसे बार-बार याद दिलाने की आवश्यकता क्या है? क्या सरकारी दफ्तरों के बाबुओं और कर्मचारियों को इतना ख्याल नहीं रहता? अव्वल तो यह है कि हिंदी में लिखने और काम करने को प्रेरित करने वाले आदेश अंग्रेजी में भेजे जाते हैं। दफ्तर में अंग्रेजी में फाइलें चल रही हैं, लेकिन बाहर हिंदी पखवाड़ा की वकालत करते बैनर और पोस्टर लग रहे हैं। हिन्दी सम्मेलनों में अतिथियों का संबोधन जब अंग्रेजी में होता है तो सिर पिटने अलावा और क्या बचता है। ऐसे हिन्दीदां से कहीं अच्छा तो वे विदेशी हैं, जो भारत आकर अपनी बात हिंदी मंे रखना पसंद करते हैं। हिंदी की चिंदी उड़ाते बदतमीजी से भला तमीज की उम्मीद करना कितना लाजिमी है? लिखते-लिखते सवाल बहुत बन गये हैं। लेकिन इन सवालों से क्या हिंदी में अंग्रेजीकरण का रंग भरकर होली मनाने वाले भला रंगीनियों से बाज क्यों आए?



- सुशील देव

9810307519

शनिवार, 12 सितंबर 2009

साहब की सोच

छोटे साहब हर समय जिम्मेदारियों से लदे रहते हैं।कभी कर्मचारियों के कार्य का वितरण,कभी अधिकारियों के अधिकार का संघर्ष और उपर से अपने कार्य क दबाब.सचमुच इन सारे दायित्वों का निर्वाह काफ़ी कठिन है.सामान्यतः उनसे कभी भुल नही होती.वह हर समय आदर्श सोचते हैं.
आज तो सुबह से ही दुखद समाचारों कि श्रिखला शुरु हो गयी है.पहला समाचार यह था कि जानकी बाई जो हमारे कार्यालय मे चपरासी, कल मर गयी.उसकी बहू ने पूछने पर इस बात की जानकारी दी.फौरन यह सूचना छोटे साहब को दी गयी.साहब ने तभी बाबू को बुलाया और उदारता दिखाते हुए आदेश पारित किया कि सभी अधिकारी दो सौ रुपये,ग्रुप सी कर्मचारी सौ रुपये और चतुर्थवर्गिय कर्मचारी पचास रुपये जमा करें और सारे रुपये जानकी के बेटे को भेज दिया जायें।कुल आठ हजार पचास रुपये जमा किये गये.एक चतुर्थवर्गिय कर्मचारी के हाथों जानकी के बेटे के पास भेज दिया गया.जानकी का बेटा मातृशोक के सदमे मे डूबा था.सो सारे रुपये तत्काल उसकी बहू ने जमा रख लिया. तभी छोटे साहब के फोन की घंटी बजने लगी.बडे साहब का फोन था.उन्होने अपने पचहत्तर वर्षीय पिता के देहावसान का दुखद समाचार दिया.छोटे साहब ने उनके निधन पर गहरा शोक प्रगट किया.शोक लहर तत्काल जंगल मे लगे आग की तरह पूरे कार्यालय मे फैल गयी.अभी कार्यालय मे कार्य की शुरुआत ही हुई थी.महिला कर्मचारियों की आंखों से निकली अश्रुधारा शोक की लहर को उसी तरह आवर्धित करने लगी जैसे पवनदेव के सहयोग से महासमुद्र की लहरें तेज हो जया करती है. कार्यालय का कार्य पुरी तरह से ठप हो गया .शोक की लहर में कर्मचारियों के लिये कंप्युटर की कीबोर्ड पर उंगली फ़ेरना कठिन था और अधिकारियों के लिये निर्णय लेन.बडे दिलवाले अधिकतर कर्मचारीगण एवं अधिकारीगण छोटे साहब के पास आकर बडे साहब के पिता के निधन पर शोक प्रगट किया और उनके अंतिम संस्कार मे भाग लेने की इच्छा जतायी.साहब ने उन सभी को हस्ताक्षर कर कार्यालय छोडने की अनुमति दे दी स्वयं भी उनके साथ हो लिये.शेष बचे लोग अपने-अपने कार्य मे लगे रहे.सायंकाल लगभग पांच बजे अंतिम संस्कार के उपरांत सभी लोग कार्यालय वापस आ गये.जानकी का बेटा छोटे साहब के कक्ष के पास खडा था. छोटे साहब के कक्ष मे जाने के बाद वह भी आदेश लेकर कक्ष मे प्रवेश किया.पुछने पर वह बोलने लगा "साहब! मेरी मां ने मरने से पहले कहा था कि आफ़िस जाकर बता देना नही तो साहब लोगों को पानी कौन पिलायेगा. उसने तीस साल रेलवे की सेवा की थी.जीते जी जब साहब लोग खुश होकर उसे रुपये देते थे तो वह नही लेती थी,मरने के बाद वह इतने रुपये लेकर क्या करेगी?आज तो यहां दो-चार लोग ही काम कर रहे थे,क्यों न ये सारे रुपये रेलवे को दे दिया जाये" वह तनिक चुप हो गया.साहब भी शान्त रहे.उन्होने रुपये लेकर अपने लोकर मे रख लिया.वह फिर कहने लगा "साहब मेरी मां इस कार्यालय मे सब को जानती थी और हर कोइ उसे दीदी कहकर पुकारते थे". वह फिर से चुप हो गया. वह जहां खडा था और साहब जहां बैठे थे उन दो स्थानों की सामाजिक दूरी इतनी ज्याद थी कि एक-दुसरे के विचारों के ज्वार को समझना नामुमकिन था और अश्रुधारा के रुप मे प्रगट करना उतना ही शर्मनाक.इसी बीच वह आदेश लेकर चला गया. साहब ने अपने कमरे का दरबाजा अन्दर से बंद कर दिया और फूट-फूटकर रोने लगे.जानकी के हाथ से इतने दिनों मे उन्होंने जितना पानी पीया था,सार पानी आंसू के रुप मे अपनी आंखों से बहा दिया.अक्सर जब एक बार कहने पर कोई बात जानकी नही सुनती तो साहब चिल्ला उठते थे और कहते थे बहरी हो गयी हो क्या.आज उनके फूट-फूटकर रोने की आवज दरवाजा बंद होने के कारण कोई नही सुन रहा,शायद बहरी जानकी सुन रही होगी.इससे बढकर श्रद्धांजलि क्या हो सकती है? साहब ने जानकी का कर्ज चुका दिया था.
अब चिंतन का समय था।साहब का चिंतन बडे साहब के पिता और जानकी के रेलवे के प्रति किये गये योगदानों की तुलना पर केंद्रित हो गया था.ईश्वर ने उन दोनों के जीवन मे तो बहुत बडा फर्क कर दिया था लेकिन मृत्यु तो सभी की एक जैसी होती है.ईंसानों ने उनके जीवन मे भी फर्क किया था और मृत्यु मे भी.क्षण भर के लिये साहब को लगा कि जानकी हाथ मे पानी का ग्लास लेकर खडी है,उनक चिंतन टूट गया.
- अरविन्द झा
बिलासपुर

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

भाषाई उहापोह

हमारे देश में विकास की भाषा क्या हो? इसको लेकर स्वतंत्रता काल से आज तक सर्वसम्मत फैसला नहीं लिया जा सका है। संविधान सभा के सदस्यों ने केवल इतना कह दिया कि हिन्दुस्तान में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी है, सो यह राष्टï्रभाषा होने की अधिकारिणी है। मगर वास्तविकता क्या है? यही न कि हमारे राष्टï्र के पास कोई राष्टï्रभाषा नहीं है। अनेकता में एकता की बात करने वाला हिन्दुस्तान कई बार भाषा और प्रांत के नाम पर विद्रोह की ज्वाला में धधक उठा है। हजारों लोग उसकी तपिश को झेल चुके हैं। न्यायालय में काम काज की भाषा आज भी अंग्रेजी ही है। अंग्रेजी बोलने वाले स्वयं को सभ्य व सुशील मानते हैं।
ऐसे में हमारे मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने आशा की एक किरण दिखाई। जब 10वीं बोर्ड की परीक्षा को ग्रेडिंग प्रणाली में परिवर्तित करने की बात शुरू हुई थी तो मंत्री महोदय ने कहा कि पूरे देश में हिंदी को अनिवार्य किया जाएगा। हिंदी भाषियों के लिए यह स्वर्णिभ आभा थी।
काबिलेगौर है कि अभी हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है और 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाएगा। मानो हिंदी केवल उत्सव की चीज रह गई है। हमारे रोजमर्रा जिंदगी की बात नहीं हो। विदेशों में जैसे मदर्स डे, फादर्स डे और वेलेंटाइन डे का आयोजन किया जाता है, उसी तरह हम हिंदी दिवस मना रहे हों। गौर करने लायक यह भी है कि विदेशी समाजिक ताने-बाने में संयुक्त परिवार की अवधारणा नहीं है, जबकि हमारे समाज में आज भी वह कायम है। जब बच्चे अपने माता-पिता से दूर रहेंगे और उनमें कोई सरोकार नहंीं होगा तो वर्ष में एक दिन उन्हें स्मरण करने का औचित्य समझा जा सकता है। हमारे यहां तो राधा-कृष्ण की पूजा घर-घर में होती है, नित्य-प्रतिदिन। तो भला हम प्रेम दिवस 'वेलेंटाइन डेÓ क्यों मनाए? हम तो हर दिवस को प्रेम से ही शुरूआत करते हैं।
खैर, बात हो रही थी हिन्दी को लेकर। सारे तथ्य और शोध इस ओर इशारा कर रहे हैं कि यदि भारत और भारतीय समाज का लोकतांत्रिक विकास होना है तो इसका रास्ता युनिवर्सल इंग्लिश मीडियम एजुकेशन से होकर गुजरता है। भारतीय भाषाओं का रोजगार से रिश्ता जिस कदर कमजोर होता जा रहा है, उसमें देश की बड़ी आबादी को भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देना और इंग्लिश माध्यम से शिक्षा के लाभ से उन्हें वंचित रखना लगभग आपराधिक कृत्य है। अगर विकास का लाभ हर किसी तक पहुंचाना सरकार का अजेंडा है तो उसे इस दिशा में गंभीरता से काम करने की जरूरत है।
सवाल सिर्फ जॉब मार्किट में इंग्लिश के बढ़ते महत्व का नहीं है। इंग्लिश एजुकेशन का असर इससे कहीं ज्यादा व्यापक है। यह हमारे समाज और सामाजिक संस्थाओं पर असर डालती है। समाज को जड़ कर देने वाली जाति संस्था को तोड़ने का दम इंग्लिश शिक्षा में ही नजर आ रहा है। यह बात हम सब अपने आसपास शायद महसूस भी करते हैं। लेकिन दो विदेशी शोधकर्ताओं ने 2003 में जब मुंबई में इस नजरिए से समाज को खंगाला तो चौंकाने वाले नतीजे आए। आज के संदर्भ में इसकी फिर से चर्चा जरूरी है। ऐसे शोध कायदे से किसी भारतीय विश्वविद्यालय या शोध संस्थान को कराने चाहिए। ब्राउन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री कैवन मुंशी और येल यूनिवर्सिटी के मार्क रोजेंविग ने पिछले दो दशक में मुंबई के दादर इलाके में 10 इंग्लिश मीडियम और 18 मराठी मीडियम सेकेंडरी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, स्कूल के रिजल्ट, पास होने के बाद उनके रोजगार के पैटर्न और उनकी स्कूलोत्तर सामाजिक जिंदगी का अध्ययन किया। यह शोध 'द अमेरिकन इकनॉमिक रिव्यू' में छपा। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की साइट पर यह पूरा शोध पढ़ा जा सकता है। भारतीय समाज में बदलाव के बारे में नजरिया बनाने में इस शोध से मदद मिलेगी।
कहा जा रहा है कि अंग्रेजी शिक्षा की अनदेखी और कई बार विरोध करके खासकर हिंदी प्रदेश, अपना भारी नुकसान कर चुके हैं। पूरी आईटी क्रांति इन प्रदेशों को छुए बिना गुजर गई। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कोई साइबर सिटी नहीं बन पाई। साथ ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी ये प्रदेश खासकर दक्षिण भारतीय राज्यों और महाराष्ट्र से पीछे रह गए। हालांकि हिंदी प्रदेश के तमाम नामचीन नेता अपनी संतानों को इंग्लिश में एजुकेशन दिला रहे हैं। यानी वे जानते हैं कि उनके बच्चों के लिए क्या बेहतर है। अंग्रेजी विरोध अब वोट जुटाने का औजार भी नहीं बन सकता। ऐसे में क्या वे इस बात का प्रयास करेंगे कि आम जनता को वे भारतीय भाषाओं की महानता की नारेबाजी में नहीं उलझाएं और देश के विकास के लिए अंग्रेजी शिक्षा के युनिवर्सलाइजेशन को अपना अजेंडा बनाएं। इन स्थिति में सरकार के साथ समाज को तय करना होगा कि वोह कौन सा रास्ता चुनेगी .

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

स्वाइन फ्लू : खतरा टला नहीं

रिदा शेख की मौत ने स्वाइन इनफ्लूय्ोजा य्ाानी स्वाइन फ्लू को भारत में भी महामारी के तौर पर स्थापित कर दिय्ाा है। जब विश्व स्वास्थ संगङ्गन ने इसे महामारी घोषित किय्ाा था तब भारतीय्ा, य्ाह सोच कर खुश हो रहे थे कि इसके वाय्ारस भारत में नहीं पनप रहे हैं। एक तरह से भारत के लिए य्ाह बीमारी अनजानी थी। पर भारतीय्ाों की य्ाह खुशनसीबी ज्य्ाादा दिनों की नहीं थी। विदेशों से आने वाले लोग इसके वाहक बन भारत में इसकी संख्य्ाा में वृद्धि करते रहे और अब आलम य्ाह है कि य्ाह बीमारी न सिर्फ उन स्थानों में फैल रही है जहां विदेशों से आने वालों की संख्य्ाा ज्य्ाादा है बल्कि देश के दूसरे इलाकों में भी तेजी से पनप रही। अब भारतीय्ा स्वास्थ्य्ा मंत्र्ाालय्ा के सामने इसे महामारी मानने के अलावा कोई चारा नहीं है। साथ ही सरकार य्ाह भी समझ्ा चुकी है कि इससे निबटना इतना आसान न होगा क्य्ाोंकि अब तक इसकी कोई कारगर दवा बाजार में उपलब्ध नहीं है।
कोई भी बीमारी महामारी तभी बनती है जब लोगों को बीमारी की वजह और उससे बचाव के तरीकों का ज्ञान न हो। कुछ ऐसा ही स्वाइन फ्लू के साथ भी है। अधिकांशतः लोग, जिसमें पढे लिखे लोग भी शामिल हैं, य्ाही जानते हैं कि य्ाह बीमारी सुअर से फैलती हैं। भारत के दूरस्थ गांवों में तो शाय्ाद डाक्टरों को भी इसके लक्षणों और बचाव के तरीकों के बारे में सटीक पता न हो। कुछेक अगर य्ाह जानते भी हों कि बीमारी के लक्षण क्य्ाा हैं तो भी उन्हें इसके सही इलाज और बचाव बारे में कोई जानकारी नहीं है। ऐसे में अगर इस बीमारी ने भारत में महामारी का रूप ले लिय्ाा है तो इसमें किसी को कोई आश्चयर््ा नहीं होना चाहिए। पहले भारतीय्ा स्वास्थ विभाग न तो इस रोग को गंभीरता से ले रहा था और न ही लोगों को इससे बचाने के लिए कोई मुहिम ही छेडी थी। पर जब इससे ग्रसित रिदा शेख ने इस बीमारी से जूझ्ाते हुए दम तोड दिय्ाा तब भारतीय्ा स्वास्थ्य्ा विभाग जागा और इससे गंभीरता से निबटने का दावा कर रहा है लेकिन अब भी दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में भी इससे निबटने के पुख्ता इंतजामों की कमी तमाम सरकारी दावों की पोल खोलती है। इस बीच भारत में इसके रोगिय्ाों की संख्य्ाा दिनों दिन बढती ही जा रही है और साथ ही इससे होने वाली मौतों की भी।
कैसे फैला
स्वाइन फ्लू को मैक्सिकन फ्लू, हाॅग फ्लू, य्ाा पिग फ्लू के नाम से भी जाना जाता है। भारत के लिए भले ही य्ाह रोग नय्ाा और अचंभित करने वाला हो पर पश्चिमी देशों के लोग इससे भली भांति परिचित हैं। पर इसके खतरे से वह भी अनजान ही थे क्य्ाोंकि सुअर से य्ाह वाय्ारस किसी व्य्ात्ति€ में होना काॅमन नहीं है। दरअसल इंसान के खून में ऐसी एंटीबाॅडीज पाए जाते हैं जो इसके वाय्ारस को पनपने नहीं देते। फिर अचानक क्य्ाोंकर इंसानी खून में इसके वाय्ारस पनपने लगे, इसपर रिसर्च जारी है।
अबतक य्ाह माना जाता था कि सुअर का मास पकाने के साथ ही स्वाइन फ्लू के वाय्ारस नष्ट हो जाते हैं। पर इंसानों में इसके लक्षण पाए जाने के बाद इस अवधारणा को दरकिनार कर दिय्ाा गय्ाा है। य्ाह रोग उन लोगों में पहले फैलता है जो सुअर पालते हैं और सुअर के साथ काम करते हैं। फिर य्ाह रोग संपर्क में आने पर एक व्य्ात्ति€ से दूसरे में आसानी से फैल जाता है। सुखद य्ाह है कि अब तक भारत के सुअर में इसके वाय्ारस नहीं पनपे हैं। भारत में अब तक जितने भी संक्रमित व्य्ात्ति€ मिले हैं वह य्ाह संक्रमण विदेशों से लेकर आए हैं।
प्रकार
20 वीं शताब्दी में स्वाएन फ्लू को पहचाना गय्ाा। 1918 में फ्लू पेनडेमिक के नाम से पहचाना जाने वाला य्ाह रोग ही 2009 में स्वाइन फ्लू के नाम से पहचाना जाता है। एच1एन1, एच1एन2, एच3एन1, एच3एन2, एच2एन3, आदि इसके मुख्य्ा प्रकार हैं जो सुअर में पाय्ाा जाता है। इसके अलावा एच5एन1 कई पक्षिय्ाों में भी पाय्ाा जाता है। अभी लोगों में जो वाय्ारस फैल रहा है वह ए टाइप का वाय्ारस है जो एच1एन1 का ही एक प्रकार का है।
रोग के लक्षण
इसके लक्षण भी सामान्य्ा फ्लू की तरह ही होते हैं जैसे तीप ज्वर, सर्दी, गले की खराश, शरीर में ऐंङ्गन, सरदर्द आदि। ध्य्ाान रखने वाली बात य्ाह है कि स्वाइन फ्लू भी आम फ्लू की तरह ही फैलता है और फ्लू के फैलने का लिए य्ाह मौसम सबसे उत्तम है। य्ाानी बारिश और गर्मी के इस संक्रमण काल में य्ाह और भी तेजी से पनप सकता है। दुखद य्ाह है कि अब तक इससे बचाव के लिए न तो कोई दवा बनी है और न ही कोई वैक्सीन, इसलिए समझ्ादारी इसी में हैं कि इससे खुद को बचाय्ाा जाए।
कैसे बचें
µप्रय्ाास करें कि इसके रोगिय्ाों से दूर रहें। अगर फिर भी आपको य्ाह रोग हो जाता है तो दूसरों को इससे बचाएं।
µअगर आपके आसपास रोग के फैलने की संभावना हो तो अपना नाक और मुंह अच्छी तरह से ढककर रखें खासकर खांसते और छींकते समय्ा। एक बार इस्तेमाल करने के बाद रूमाल फेंक दें।
µ खांसने और छींकने के बाद अपने हाथों को साबुन से धोए
µआखों, मुंह और नाक को छूने से बचे अन्य्ाथा इसके वाय्ारस आसानी से आपके शरीर पर कब्जा जमा लेंगे।
µबीमार लोगों से दूर रहने का प्रय्ाास करें।
µरोगी व्य्ात्ति€ अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाए और जब तक वह पूरी तरह से ङ्खीक नहीं हो जाता तब तक आफिस, स्कूल य्ाा किसी भी भीड भाड वाले स्थानों पर न जाएं।

य्ाह रोग पश्चिमी देशों जैसे य्ाूनाइटेड स्टेट, य्ाूरोप, मैक्सिको, कनाडा, दक्षिण अमेरिका और एशिय्ाा के कुछ देश (चीन, ताइवान, और जापान) के सुअरों में आम है। भारत इस लिहाज से सुरक्षित रहता अगर य्ाह रोग विदेश से लौटने वाले अपने साथ न लाते तो। भारत में पहले जो भी व्य्ात्ति€ पाजिटिव पाए गए हैं वह सभी विदेशों से लौटे थे। पर धीरेµधीरे उनके वाय्ारस य्ाहां के अन्य्ा लोगों में भी पनपने लगे। भारत में पहले स्वाएन फ्लू का केस केरल में मिला। एक 54 वर्षीय्ा डाक्टर और उसका 24 वर्षीय्ा पुत्र्ा जब ब्रिटेन से भारत लौटे तो अपने साथ स्वाइन फ्लू के वाय्ारस लेकर आए। इसी तरह दुबई से आने वाली एक महिला में भी स्वाइन फ्लू के वाय्ारस पाए गए हैं। आश्चयर््ा तब हुआ जब गुडगांव की एक 12 और एक 7 वर्षीय्ा बच्ची में भी इसके वाय्ारस पाए गए। कहना गलत न होगा कि इसके वाय्ारस किसी भी उम्र के लोगों में हो सकता है। अब तक इसके रोगी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, कोच्चि, गुडगांव, पुणे, हैदराबाद जैसे शहरों में पहचाने गए हैं। य्ाह वही शहर है जहां विदेशी जहाज ज्य्ाादा आते हैं। इनमें सबसे ज्य्ाादा केस पुणे में सामने आएं हैं।
अगर केन्द्रिय्ा स्वास्थ्य्ा विभाग के आकडों पर गौर करें तो अब तक भारत में इसके रोगिय्ाों की संख्य्ाा सैकडों में पहुंच चुकी है। जिस तेजी से य्ाह स्कूलों और कालेजों में फैल रहा है उसे देखकर तो य्ाही लगता है कि अगर जल्द ही इस पर काबू न पाय्ाा गय्ाा तो भारत के लिए इस महामारी से निबटना काफी मुश्किल होगा क्य्ाोंकि आजकल भारत की जैसी जलवाय्ाु है उसमें फ्लू के फैलने की संभावना दोगुनी हो जाती। उसपर भारत की विशाल जनसंख्य्ाा भी सोन पे सुहागे का काम करेगी। हालांकि इस बीमारी के वाय्ारस अब भी भारत में नहीं पनपे रहें हैं पर एक व्य्ात्ति€ से दूसरे में बडी ही तेजी से पनप रहे हैं। भले ही य्ाह रोग विदेशी धरती से आय्ाा है पर अगर य्ाह लगातार य्ाूं ही पनपता रहा तो भारत के लिए य्ाह भीषड महामारी का रूप अख्तिय्ाार कर सकती है। इसलिए इससे घबराने की बजाय्ा, जरूरत है जरा सी सावधानी बरतने की य्ाानी इस गंभीर बीमारी से डरने की बजाय्ा इससे बचने के उपाय्ा करना ज्य्ाादा लाजमी है क्य्ाोंकि इलाज से बचाव बेहतर है।


- नीलम शुक्ल देवांगन

बुधवार, 9 सितंबर 2009

ईशारा


ये मौत भी,

मेरे ही ईशारों पर हुई है।

छल किया था,

धोखा दिया था उसने।

मैने उसे समझाया,

चेतावनी दिया,

अपनी गलतियों से बाज आए।

बहुत उपर तक पहुंच है मेरी।


एक अद्रुश्य शक्ति के समक्ष,

जो स्रुष्टि का निर्माता भी है

और चलाता भी है।

मैने क्षमा न करने

और न्याय पाने की

मौन स्वीक्रुति दे दी।

ये मौत भी,

मेरे ही ईशारों पर हुई है।



- अरविन्द झा
bilaspur

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

वेदना


चंद शब्दों को

चुन और सहेजकर

छंदों में

अर्थपूर्ण विन्यास करन्ना

मानसिक स्तर पर

प्रसव पीड़ा ही तो है

और मैं,

घटनाओं और अभिव्यक्तियों को

शब्द बनाकर

जीवन छंदों में

जो लगातार उतार रहा हूँ।

कैसे कहूँ

किन वेदनाओं का गवाह रहा हूँ?


- विपिन बादल

सोमवार, 7 सितंबर 2009

चांद

मां बाजरे की रोटी पका रही थी।कच्चे लकडी के जलने से घर में धुआं फ़ैल चुका था.चारपाई पर पिताजी लेटे हुए थे.दस साल की बच्ची चुपके से घर से निकल पडी.आज पुर्णीमा की रात है.साहब के घर कविजन आए होंगे.कविताऎं गाऎंगे और पुरी-जलेबी खाऎंगे.उसे भी खाने को मिलेगा-यह सोचकर वह चुपके से साहब के कमरे मे आकर खडी हो गयी.एक कवि ने कहा "मेरे मह्बुब की तरह यह चांद भी खुबसुरत लग रहा है. इसक रंग भी उसके होठों की तरह लाल है."
तभी उसकी मां चिल्लाती हुई आई और उसके बालों को पकडकर खीचने लगी।"उधर तेरा बाप बीमार है,घर मे खाने को कुछ भी नही है और इधर तु साहेब लोगों की कविता सुन रही है."फ़िर उसने खिडकी से झांकते हुए पुनम की चांद को देखा और कहने लगी"देखो तो आज ये चांद कितन बदसुरत लग रहा है,इसका रंग गर्म तवे की तरह लाल है."


- अरविन्द झा
बिलासपुर
09752475481

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

काले धन का खेल

कहा जा रहा है कि ग्राहक की गोपनीयता को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के कारण स्विस बैंक में भारतीयों का करीब 70 लाख करोड़ रुपए जमा है। आरोप लग रहा है कि यह सारा धन जनप्रतिनिधियों की दलाली और भ्रष्टïाचार से कमाया है। खातेदारों में सर्वाधिक नेता और नौकरशाह हैं। व्यापारी वर्ग इतना धन लंबे समय तक बैंकों में नहीं रख सकता। जाहिरतौर पर जो देश को चलाने का दंभ भरते हैं उनके पास ही है सर्वाधिक काला धन। बात हो रही है इस धन को स्वदेश लाने की। क्या यह संभव है? यदि संभव है तो संभावनाएं कैसी हैं?
ारत में 70 के दशक में ही सोने की तस्करी भी बढ़ी और दाउद इब्राहिम भी बढ़ा। फिर सोने का दाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लाने के बाद भारत में हथियारों के तस्करी वाले गिरोह आतंकवाद के नाम पर बढऩे लगे। इनके पैसे की आवाजाही के लिए पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल जैसे अशांत देश काम आने लगे। इसके बाद हथियारों की तस्करी, ड्रग्स की तस्करी, आतंकवादियों को वित्तीय सहायता और हवाला का जोड़ और जोर बढ़ता गया। जब 90 के दशक में भारत में हवाला की चर्चा चलने लगी तो ये सामने आया कि हथियारों की तस्करी में विदेशों में बसे भारतीय उद्योगपति भी संलिप्त हैं। इसी दौरान ये बात भी सामने आई कि भारत की अर्थव्यवस्था में जितना वैध धन है उतना ही अवैध धन भी है।
कहने को भारत एक विकासशील देश है जो आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर चल पड़ा है। कई विकसित देश इसकी स्वीकारोक्ति करते हैं। मगर हाल के दिनों में जिस प्रकार से भारतीयों के स्विस बैंक में जमा धन राशि पर बावेला काटा जा रहा है और सरकार की ओर से भी बयान आ रहे हैं कि उन्हें देश में लाने की कवायद की जाएगी। वैसे में उम्मीद की जा रही है कि स्विस बैंको सहित अन्यान्य गुप्त बैंकों में जमा गुप्त धन, जिसे 'काला धनÓ की संज्ञा दी जा रही है, भारत आ जाए तो यहां सर्वांगीण विकास हो जाएगा। सच भी कुछ ऐसा ही आभास करा रहा है। अनुमान लगाया जा रहा है कि विश्व में भारत ऐसा देश है, जिसके 70 लाख करोड़ रुपए स्विस बैंक में जमा हैं। सच तो यह भी है कि स्विस बैंकों जैसे दुनिया में 77 'कर-स्वर्गÓ हैं , जहां दुनिया के अमीर अपना काला धन जमा करके ऐश कर सकते हैं । वहां का भी हिसाब मिलाएं , तो भारतीय अमीरों द्वारा भारत की लूट का और ज्यादा विकराल हो जाएगा । हाल ही में , जर्मनी की सरकार के हाथ में ऐसे ही एक कर-स्वर्ग लीचेन्स्टाईन के दो नंबरी खातों की जानकारी आई थी , जो उसने सम्बन्धित देशों की सरकारों को देने का प्रस्ताव किया था । कई सरकारों ने इसका उपयोग किया और काले धन वालों के विरुद्ध कार्यवाही भी शुरु की । लेकिन भारत सरकार ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई ।
आखिर कैसे करती , क्योंकि यह जानकारी उजागर होने पर शायद बड़ी-बड़ी जगहों पर बैठे लोग बेनकाब हो जाते , तूफान आ जाता । वर्ष 1991 में हवाला काण्ड में भी तो सत्तादल से लेकर तमाम विपक्षी नेताओं के नाम थे । बोफोर्स , जर्मन पनडुब्बी जैसे तमाम सौदों में दलाली व कमीशन की राशि भी ऐसे ही बैंकों में जमा होती है। यह सारा धन जनप्रतिनिधियों की दलाली और भ्रष्टाचार से कमाया है। व्यापारी वर्ग इतना धन लंबे समय तक बैंकों में नहीं रख सकता। स्विस बैंक काला धन वालों के लिए आकर्षण का केंद्र इसलिए है कि यहां धन की गोपनीयता बनी रहती है। यहां मुद्रा के उतार-चढ़ाव से निवेशक को भारी लाभ मिलता है। जैसे 1991 में 15 रुपए का एक डॉलर मिल रहा था। आज एक डॉलर का मूल्य 50 रुपया है। इसीलिए इस समय अमरीका, फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन की सरकारें स्विट्जरलैंड की सरकार पर दबाव डाल रही हैं कि स्विस बैंक अपने यहां के गुप्त खातों को सार्वजनिक करे। भारत अब तक टालू रवैया अपनाता रहा है। देश के व्यापक कदम उठा कर स्विस बैंक से काला धन लाना चाहिए। इसके लिए कुछ छूट और सुविधा निवेशकों को देना पड़े, तो कोई हर्ज नहीं है।
वरिष्ठ अर्थशास्त्री और चिंतक प्रोफेसर उत्सा पटनायक के अनुसार यदि प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2400 कैलोरी आहार का मापदंड माना जाए तो ग्रामीण भारत का लगभग 80 फीसदी निवासी गरीब है। यदि प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2200 कैलोरी आहार मापदंड भी माना जाए तब भी 70 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। दूसरी ओर इसी भारत का 25 से 70 लाख करोड़ रूपए कालेधन के रूप में विदेशों में जमा होता है। देश में बसने वाले लगभग सवा लाख लोगों के पास 440 बिलियन डॉलर की जायदाद है। ऐसे में सवाल उठता है कि ये अकूत जायदाद और कालाधन कहां से लाया गया? जवाब एक ही है हमारी लचर शासन -व्यवस्था, जिसमें कुछेक अनैतिक कृत्यों को संस्कार के रूप में आत्मसात कर लिया गया है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर काला धन की शुरूआत कैसे और कब हुई? दरअसल, प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के वक्त से ही स्विट्जरलैंड बैंकों की दृष्टि से प्रसिद्ध हो चला था। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले मंदी आई थी। उस समय वहां के बैंकों को झटका न लगे इसके लिए कई तरफ से कोशिश हुई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संसार का शक्ति केंद्र यूरोप से हटकर अमेरिका हो गया। उसी दौरान शीत युद्ध की भी स्थितियां उभरी। ऐसे में जब उपनिवेशों का आजाद होना शुरू हुआ तो कई जगह तो लोकतंत्र के प्रयोग हुए लेकिन कई जगहों पर शासन भ्रष्ट लोगों के हाथों में चला गया। इसी दौरान दक्षिण अमेरिका, मध्य अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के कुछ देशों के सत्ताधीशों, नौकरशाहों और थैलीशाहों की तिकड़ी ने जनता का शोषण शुरू किया। शोषण के इस पैसे की पनाहगाह के तौर पर स्विट्जरलैंड उभरा। स्विटजरलैंड के देखा-देखी और कई छोटे देश इस राह पर चल पड़े और बैंकों की दुकानदारी शुरू कर दी। साठ के दशक के उत्तरार्ध में और सत्तर के दशक की शुरूआत में कुकुरमुत्तों की तरह ऐसे बैंक उग आए। इन्हें बड़े देशों का परोक्ष समर्थन तो मिला ही साथ ही इन्हें स्थानिक स्थिति का भी फायदा मिला। इन बैंकों में सरकारी और गैरसरकारी अवैध पैसा रखा जाने लगा। भारत में 1969 में कांग्रेस के टूटने के बाद धनबल का प्रयोग काफी तेजी से बढ़ा। भारत में आया राम गया राम के समय से ही नौकरशाह अपने को स्थाई सत्ता संचालक मानने लगे और राजनेताओं को अस्थाई सत्ता संचालक। इसके बाद यहां के नौकरशाहों को हैसियत से ज्यादा धन बनाते देखा गया। वे विदेशों में पदस्थापित होने में रूचि लेने लगे। उस समय ये चर्चा चलने लगी कि कुछ राजनेताओं और नौकरशाहों के पैसे स्विट्जरलैंड में जमा हो रहे हैं। ये पैसे का बढ़ता जोर ही था कि थैलीशाहों ने अपना स्वार्थ साधाने के लिए नीतियों में फेरबदल करवाना भी शुरू कर दिया। थैलीशाह अपने धन में बढ़ोत्तरी के लिए किसी भी तरह के रास्ते को अपनाने के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो गए थे। इस का परिणाम यह हुआ कि थैलीशाहों ने अपने धन में इजाफा के लिए नौकरशाहों को अपने साथ लेना शुरू किया। साथ ही इन लोगों ने अपना स्वार्थ साधने के लिए नौकरशाहों के पदस्थापन और प्रमोशन को भी प्रभावित करना शुरू किया। 70 के दशक के अंत में और 80 के दशक के शुरू में राजनेता, नौकरशाह और थैलीशाह की तिकड़ी और ज्यादा मजबूत होने लगी और यह चरम पर है।
फिलहाल भारत को इस बात का दुख है कि स्विस बैंकों के संगठन यूबीएस ने उसे अपने खातेधारियों का नाम देने से इन्कार कर दिया है और अमेरिका ने जब ऐसी ही जानकारी चाही तो उसे देने राजी हो गए। यहां बात अमेरिका व भारत की नहींहै, जानकारी लेने के तरीके की है। स्विट्जरलैंड की राजनीतिक व्यवस्था में यह नियम है कि उसके बैंक अपने ग्राहकों की जानकारी गुप्त रखेंगे। यह व्यवस्था विगत 3 सौ वर्षों से चली आ रही है। जेनेवा के बैंकर्स फ्रांस की सरकार के बैंकर हुआ करते थे। लुई 16वें ने तो एक बैंकर को बाकायदा महानिदेशक बनाया हुआ था। प्रथम विश्वयुध्द के बाद यूरोप के कई देशो की मुद्रा का भारी अवमूल्यन हुआ, लेकिन स्विस बैंक में स्थिरता बनी रही। नतीजतन कई देशों ने स्विस बैंकों में धन जमा करना लाभकारी समझा। देश की गिरती वित्तीय व्यवस्था को देखते हुए फ्रांस ने पेरिस स्थित एक स्विस बैंक के दफ्तर में छापा मार खातेधारियों का नाम मालूम किया। तब 1934 में स्विट्जरलैंड ने एक कानून बनाया कि खातेधारियों का नाम उजागर करना आपराधिक कृत्य होगा। जर्मनी ने जब स्विस बैंकों में धन जमा करने वालों को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया तो स्विट्जरलैंड ने गोपनीयता बनाए रखना और जरूरी समझा। बाद में ऐसा भी वक्त आया कि नाजियों द्वारा लूटी गई संपत्ति और यहूदियों का बचाया धन दोनों स्विस बैंकों में जमा थे। दुनिया भर के भ्रष्ट शासकों ने अपना धन स्विस बैंकों के हवाले किया। 1984 में स्विट्जरलैंड की जनता ने गोपनीयता बरतने को 73 प्रतिशत वोट देकर स्वीकृत किया। स्विट्जरलैंड की अर्थव्यवस्था बेहद स्थिर है। यहां के नियम ऐसे हैं कि राशि के डूबने का कोई खतरा नहींहै। गोपनीयता का कानून इतना कड़ा है कि यदि कोई बैंक ग्राहक की इजाजत के बगैर जानकारी देता है तो स्विस पब्लिक एटार्नी द्वारा तुरंत कार्रवाई शुरू हो जाती है। इसमें केवल आपराधिक गतिविधियों जैसे मादक पदार्थों का कारोबार या संगठित अपराध आदि की पड़ताल के लिए अपवाद स्वरूप जानकारी दी जा सकती है।
बहरहाल, हर मामले में अमेरिकापरस्ती करती दिखने वाली भारत की सरकार अमेरिका के किसी भी सकारात्मक कदम से कुछ भी सबक नहीं लेती दिखती है। यहां यह बताना आवश्यक है कि अमेरिका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा का प्रशासन अपने देश के लोगों के गुप्त बैंक खातों से अपने देश की संपत्ति वापस लाने में लगा हुआ है। स्विट्जरलैंड का सबसे बड़ा बैंक है यूबीएस। यूबीएस दुनिया का सबसे बड़ा निजी बैंक भी है। अमेरिकी प्रशासन ने दबाव बनाते हुए इस बैंक और स्विस प्रशासन पर यह आरोप लगाया कि अमेरिकी लोगों को टैक्स चोरी में यह बैंक मदद कर रहा है और आसानी से उनके गुप्त खाते खोल रहा है। यह अमेरिकी दबाव रंग लाया और यूबीएस ने खातों में जमा रकम की जानकारी देने की बात स्वीकार ली। यूबीएस का कहना है कि उसके यहां उन्नीस हजार अमेरिकी खाते हैं। इसमें से बैंक वैसे 250 खातों के बारे में जानकारी देने को राजी हो गया है जिनमें सबसे ज्यादा पैसे जमा हैं। इन गुमनाम खातों के बारे में अमेरिका ने अब दबाव बढ़ाते हुए यह कहा है कि यूबीएस में 52,000 अमेरिकी लोगों के खाते हैं। अमेरिका का अगला कदम इन खातों में जमा पैसे को वापस लाना है। ऐसा करके एक तरह से अमेरिका ने अपने यहां के भ्रष्टाचार पर ही चोट किया है। दूसरी बात यह भी है कि यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था बहुत कुछ अमेरिका पर निर्भर है। इसलिए भी यूबीएस ने उसे इन्कार नहींकिया। भारत ने इस तरह से अपनी बात शायद नहींरखी। फिर स्विट्जरलैंड की कोई राजनीतिक मजबूरी भी भारत के साथ बंधी नहींहै। इसलिए भारत को ही कूटनीति और इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए जानकारी हासिल करने की कोशिश करनी होगी। देश से हजारों लोग हर साल स्विट्जरलैंड जाते हैं। इनमेंसे कई बार-बार वहां जाते हैं। उनके आवागमन का मकसद जानना कोई कठिन कार्य नहींहै। लेकिन बात वही है कि इस इच्छाशक्ति के बदले होने वाले क्षणिक नुकसान और अंतर्संबंधों के बिखराव को क्या सरकार व अन्य राजनीतिक दल सहने तैयार हैं। राजनीति, अफसरशाही और अपराध के आपसी गठजोड़ के टूटने पर ही भ्रष्टाचार रुकेगा और काले धन का कारोबार भी।

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

देसी करेंसी विदेशी स्याही


भारतीय नोटों की छपाई के लिए कागज ब्रिटेन, नीदरलैंड, जर्मनी, इटली और फ्रांस जैसे यूपरोपीय देशों की छह कंपनियों से मंगाती है। इसके लिए कंपनियों से समझौता किया गया है कि वे किसी अन्य देश या संगठन को वह कागज नहीं बेचेंगी जिस पर भारतीय नोट छापे जा रहे हैं। हालांकि अभी तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिया गया है जिससे इस कागज के दुरूपयोग की बात सामने आए।

आजाद हुए हिंदुस्तान को बेशक छह दशक से अधिक का समय हो चुका है लेकिन अभी तक भारतीय मुद्रा के लिए सरकार कागज और स्याही का निर्माण नहीं कर पा रही है। दशकों पुराने ढर्रे पर चल रही है और विदेशों से इसका आयात कर रही है। जो कंपनी हमें कागजों की आपूर्ति करती है और वह वही कागज और स्याही दूसरे देशों और अवांछित संगठनों को भी कर रही है। नतीजा, हमारी अर्थव्यवस्था को खतरा। सच तो यही है। असली जैसे दिखने वाले नकली भारतीय नोटों के बढ़ते चलन की बढ़ती समस्या से निपटने के लिए मनमोहन सरकार ने फैसला लिया है कि वह उन कंपनियों से कागज और इंक नहीं खरीदेगी, जो पाकिस्तान को भी इसकी आपूर्ति कर रहे हैं। हाल के दिनों में जिस प्रकार से खुफिया एजेंसियों को जानकारी मिली है, वह विदेशी कंपनियों की साख और भारत की चिंता को और बलवती कर रही है। जिस लेन-देन को विशेष गोपनीयता के साथ किया जाता रहा है वह अब भंग हो चुकी है। विशेषज्ञों ने भी माना है कि समान कागज और स्याही के इस्तेमाल के कारण नकली नोटों को पहचानना मुश्किल हो रहा है। यहां तक कि बैंकों को भी इन नकली नोटों को पकडऩे में दिक्कत हो रही है।

दरअसल, भारत और पाकिस्तान नोट छापने के लिए समान कंपनियों से कागज और इंक खरीद रहे हैं। समान गुणवत्ता के कागज और इंक मिलने से पाकिस्तान बड़े पैमाने पर नकली भारतीय नोट छापकर भारत भेजने में सफल हो रहा है। सरकार ने अब सिर्फ उन कंपनियों से कागज और इंक खरीदने का फैसला किया है जो पाकिस्तान को इसकी आपूर्ति नहीं करेगी। इसके लिए एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल जल्द ही यूरोप जाएगा। गौरतलब है कि भारत को नोट की छपाई के लिए विशेष इंक की आपूर्ति स्विटजरलैंड की एक कंपनी करती है और कागज की सप्लाई छह यूरोपीय कंपनियां करती है। उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार यह प्रतिनिधिमंडल यूरोपीय संघ के अधिकारियों को इस समस्या की जानकारी देगा और इससे निपटने के लिए भारत द्वारा उठाए जा रहे कदमों पर बातचीत करेगा। साथ ही प्रतिनिधिमंडल उन देशों की सरकार से भी बातचीत करेगा जहां ये कंपनियां स्थित हैं। प्रतिनिधिमंडल को नोट बनाने वाले उच्च गुणवत्ता के कागज और इंक सप्लाई करने वाली उन नई कंपनियों से बातचीत करने को भी कहा गया है, जो सिर्फ भारत को ऐसे कागज और इंक की सप्लाई कर सके। सुरक्षा एजेंसियों ने सीधी चेतावनी दे दी कि जब तक पाकिस्तान से इन नकली नोटों की सप्लाई नहीं रोकी जाती तब तक इस समस्या से प्रभावी तरीके से निपटा नहीं जा सकता है। सुरक्षा एजेंसियों का कहना था कि इस समस्या से निपटने की लंबी रणनीति के तहत भारत को खुद ही इतनी गुणवत्ता के कागज और इंक बनाने की तकनीक विकसित करने का प्रयास शुरू करना चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की कोई समस्या नहीं आए।

जहां एक ओर श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश नकली भारतीय मुद्रा के मामले की जांच में सहयोग कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इसके तार लंदन से जुड़े होने का पता चला है। जांच में इस बात का खुलासा हुआ है कि पाकिस्तान की खुफिया एजंसी आईएसआई नकली भारतीय नोटों को बनाने के लिए लंदन से कागज मंगा रही है। नकली नोटों के मामले में आईएसआई का जुड़ाव पहले ही सामने आ चुका है। लेकिन अब पता चला है कि पाक खुफिया एजंसी अपने देश की सरकार पर दबाव बनाकर लंदन की एक कंपनी से खास कागज मंगा रही है, जिससे भारतीय डिजाइन के नोट आसानी से बनाए जा सकते हैं। श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश के साथ हालिया जांच के नतीजों का ब्योरा देते हुए अधिकारी बताते हैं कि पाकिस्तान लंदन में मौजूद कंपनियों से काफी बड़ी संख्या में कागज मंगा रहा है जो उसके अपने नोटों के लिए जरूरी मात्रा से काफी कम है। आईएसआई इस अतिरिक्त कागज का इस्तेमाल नकली भारतीय नोट बनाने के लिए करती है। माना जा रहा है कि पाकिस्तान नकली भारतीय नोटों का जाल फैलाने के लिए अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहीम के नेटवर्क का सहारा ले रहा है। जांच एजंसियों के सूत्रों के मुताबिक, आईएसआई नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में पाकिस्तान इंटरनैशनल एयरलाइंस के विमानों के जरिए नकली करंसी को भेज रहा है।

कहा तो यहां तक जा रहा है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने भारत की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने की हरचंद कोशिशेां में जुटी है। पिछले कुछ वर्षो में नकली नोटों के एकदम असली जैसे दिखने के बाद से ही खुफिया एजेंसियों ने इस बारे में संबंधित विभागों को सतर्क किया था। सूत्रों का मानना है कि नोट छपाई में उपयोग आने वाली विशेष स्याही और कागज आाईएसआई को उपलब्ध है। अनुमान तो यह भी है कि भारतीय बाजार में उपलब्ध मुद्रा में 10 से 15 फीसदी नकली हो सकती है। साल 2007-08 के दौरान जाली नोटों की जांच के बाद उनकी कीमत में 137 फीसदी की वृद्घि दर्ज की गई। पिछले वित्तीय वर्ष के 2।4 करोड़ रुपए के मुकाबले इस साल उनका मूल्य बढ़कर 5.5 बढ़कर रुपए हो गया। वित्त मंत्रालय संबंधी की स्थायी समिति ने इस बात पर नाराजगी जताई है कि कई दशक बाद भी नोट का कागज बनाने और छपाई से जुड़ा पूरा काम अपने देश में नहीं होता। उसने सरकार से पूछा है कि हम अब तक क्यों विदेशी कंपनियों पर निर्भर है। नोट का कागज बनाने के लिए अब तक संयुक्त उद्यम पेपर मिल क्यों नहीं बना। सुरक्षा पेपर और इंक के लिए विदेशों के भरोसे रहने से देश पर नकली मुद्रा के प्रचार का खतरा मंडरा रहा है। वित्त मंत्रालय के मुताबिक नोट छपने वाला कागज देश में नहीं बनता। सरकार इसे ब्रिटेन, नीदरलैंड, जर्मनी, इटली और फ्रांस जैसे यूपरोपीय देशों की छह कंपनियों से मंगाती है। इसके लिए कंपनियों से समझौता किया गया है कि वे किसी अन्य देश या संगठन को वह कागज नहीं बेचेंगी जिस पर भारतीय नोट छापे जा रहे हैं। समिति की रिपोर्ट में हालांकि ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिया गया है जिससे इस कागज के दुरूपयोग की बात सामने आए।


मंगलवार, 1 सितंबर 2009

आप दीपो भव:

स्थापना से लेकर आज तक सभी संगठन मंत्री तो संघ से भेजे गए। तपोनिष्ठ दीनदयाल उपाध्याय, वाजपेयी, मोदी, आडवाणी सभी के सभी तो संघ के प्रचारक ही रहे हैं। भाजपा आज वह अंगुलिमाल डाकू बन गयी है, जिसके पाप का भागी बनने के लिए कोई तैयार नहीं है। मातृ संगठन संघ के मुखिया भी स्पष्टï संकेत दे चुके हैं कि यदि भाजपा को आगे बढऩा है तो रास्ता खुद निष्कंटक बनाना होगा।
पुराणों में कथा है कि शुक्रदेव अपने पिता के साथ जंगल में एक कुटिया बनाकर रहते थे, जब वे अभी छोटे थे तो खेल-खेल में एक दिन उन्हें ख्याल आया कि अपनी कुटिया के बाहर गुलाब का पौधा लगाना चाहिए। खोजबीन कर वे कहीं से गुलाब के एक-दो पौधे लाए और उन्हें कुटिया के बाहर क्यारी में रोप दिया। नित्य नियम से वे उन पौधों को सींचते, उनकी छंटाई करते और धूप और तपिश से उनको बचाने का प्रबंध करते। कुछ दिनों बाद गुलाब की कली दिखाई देने लगीं लेकिन उसकी तुलना में कांटे कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहे थे। उन्होंने सोचा कि गुलाब खिलने में तो देर लगेगी। जाने कितने दिन लग जाएंगे तब तक तो ढेरों बड़े-बड़े कांटे उग आएंगे। यह सोचकर शुक्रदेव ने पौधों की देखभाल छोड़ दी।
तीमारदारी के अभाव में गुलाब के पौधे धीरे-धीरे मुरझाने लगे और आखिरकार एक दिन सूख गए। पिता ने शुक्रदेव से पूछा कि शौक में लगाए पौधों की देखभाल एकाएक बंद क्यों कर दी। शुक्रदेव बोले, 'इनमें फूलों की अपेक्षा तीक्ष्ण कांटे अधिक तेजी से बढ़ रहे थे, जो चुभते थे। इसलिए मैंने पौधों की देखभाल छोड़ दी।Ó शुक्रदेव का जवाब सुनकर पिता मुस्कराए फिर पास बैठाकर उसे समझाया, ''तुमने कांटों के भय से पौधों की देखभाल छोड़ दी, इसी कारण वे सूख गए। कांटों के भय से हर कोई ऐसा ही करता रहा तो गुलाब कैसे खिलेंगे।ÓÓ
वर्तमान में यही स्थिति राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ की है। सत्तारोहण के बाद संघ ने भाजपा से परोक्ष रूप से कुछ दूरी दिखाने की कोशिश की। इसके कुछ समय बाद भाजपा के सर्वमान्य नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी सक्रिय राजनीति से विलग हो गए। नतीजा, पार्टी के अंंदर एका का अभाव? पार्टी में गुटबाजी और पद लोलुप्ता प्राथमिकता होती गई। यूं कहें कि कभी अनुशासन का दंभ भरने वाले नेता वैचारिक स्तर पर निरंकुश दिखने लगे। आखिरकार पार्टी में रोज-रोज की जूतम पैजार के बाद पार्टी में बदलाव की कमान परोक्ष रूप से राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ को संभालनी पड़ी। इतिहास साक्षी है कि संघ प्रमुख अति महत्वपूर्ण मुद्दों पर भाजपाइयों को नागपुर तलब करते रहे हैं और वहीं से संदेश जारी किया जाता रहा है। मगर, हालिया घटनाक्रम में संघ के सभी शीर्ष नेता एक साथ दिल्ली में मौजूद हैं रहे और वरिष्ठ भाजपाइयों से मिले। मोहन भागवत समेत संघ के शीर्ष पदाधिकारी मोहन भैया जी जोशी , मदन दास देवी , सुरेश सोनी और दतात्रेय होसवले राजधानी में जुटे। एक-एक कर कई पार्टी नेताओं से घंटों मुलाकात की। उसके बाद संघ के सरसंघचालक मोहन राव भागवत ने भाजपा में बदलाव के लिए सार्वजनिक रूप से तीन संदेश दिए। पहला, लालकृष्ण आडवाणी को विपक्ष के नेता पद से इस्तीफा देना होगा। दूसरा, पार्टी अध्यक्ष पद से दिसंबर में राजनाथ सिंह की विदाई हो जाएगी। तीसरा, पार्टी के सभी फैसलों में आडवाणी और राजनाथ सिंह की संयुक्त भूमिका रहेगी। संघ ने भाजपा में बदलाव के लिए इस बार दबाव बढ़ाकर इन दोनों नेताओं के सामने कोई विकल्प नहीं छोड़ा है। साथ ही यह संकेत भी दे दिया है कि भाजपा पर संघ की पकड़ ढीली नहीं हुई है।
भाजपइयों और संघ के कुछ प्रचारकों से हुई बातचीत से तो अभी तक यही संकेत मिल रहे हैं कि सुषमा स्वराज आडवाणी की जगह विपक्ष की नेता, राजनाथ की जगह अरुण जेटली पार्टी अध्यक्ष और जेटली की जगह वेंकैया नायडू राज्यसभा में विपक्ष की नेता बन सकते हैं। सुषमा स्वराज और वेंकैया नायडू के नाम पर पार्टी में एकमत तैयार किया सकता है लेकिन सबसे ज्यादा दिक्कत अरूण जेटली को लेकर है। पार्टी में आडवाणी विरोधी खेमा जेटली को पार्टी की कमान सौंपने को तैयार नहीं है। साथ ही भाजपा में संगठन महासचिव का दायित्व संभाल चुके कुछेक व्यक्ति भी जेटली को नापसंद करते हैं। वैसी स्थिति में मुरली मनोहर जोशी को वाजपेयी के आर्शीवाद के साथ कुर्सी थमाई जा सकती है। मगर जोशी उम्र के आखिरी पड़ाव की ओर बढ़ चले हैं, सो युवा वर्ग को उनके पक्ष में तैयार करना होगा। भाजपा मुख्यालय में चर्चा तो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नामों की भी है, लेकिन ये दोनों नेता फिलहाल अपना प्रदेश छोडऩा नहीं चाहते।
भगवा बिग्रेड का एक तबका यह भी कहता है कि आडवाणी और मोहन भागवत के बीच केमिस्ट्री नहीं बन पा रही है। रज्जू भैया , के । सी . सुदर्शन तक तो भाजपा संघ के सामने नतमस्तक रहती थी , लेकिन अब मोहन भागवत चूंकि आडवाणी से उम्र में कम है , तो कहीं न कहीं संघ के सम्मान में भी कमी आई है , जिससे चलते संघ अब आडवाणी को बिल्कुल नहीं चाहता। हालांकि भगवा बिग्रेड के नेता अब मीडिया से बातचीत करने में कतरा रहे हैं , फिर भी नाम न छापने की शर्त पर संघ , विहिप और बीजेपी के नेताओं ने स्वीकारा कि अब वे सभी चाहते है कि एक बार ढंग से भाजपा की सफाई हो जाए। मजे की बात यह है कि अधिकांश नेता पार्टी की इस दुर्दशा से व्यथित होने के बजाए इस बात पर संतुष्टि जता रहे हैं कि यह नए प्रारूप पाने का दौर है। कुछ का तो यहां तक कहना है कि पार्टी का कांग्रेसीकरण हो गया है , जिसे दूर करने के लिए संघ को कड़े कदम उठाने पड़ रहे हैं। इस बावत भगवा बिग्रेड इस बात को हल्कापन देते हुए यह भी कह रहा है कि अभी वेट ऐंड वॉच की पोलिसी अपनाई जारी है , क्योंकि अभी पिक्चर बाकी है मेरे दोस्त।
सत्यापित सत्य है कि जब बात 'अपनोंÓ के बीच 'अपनोंÓ के छल-छद्मों की होती है खुले मैदान में नहीं होती। चारदीवारियों के बीच होती है। तभी तो पार्टी में चिंतन के लिए अभूतपूृर्व सुरक्षा और गोपनीयता को ध्यान में रखकर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने कई होटल का बंदोबस्त किया था। तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद भाजपाई अपने अंर्तमन की ज्वाला को शांत नहीं कर पाए। तीन दिनों के चिंतन बैठक के बाद भी भाजपा ने एक बार फिर अपने सामने मौजूद असल सवालों से आंख चुराने की कोशिश की। जिन्ना प्रकरण को लेकर पार्टी अलाकमान ने जसवंत को निकालने में जहां एक दिन का भी समय नहीं लिया, वहीं पार्टी के आंतरिक ताने-बाने को एक बार फिर समय के हवाले कर दिया। सच तो यह भी है कि जसवंत सिंह को निकाले जाने के तरीके पर कई तरह के सवाल खड ़े हो गए हैं। पर्दे के पीछे खेली गई राजनीतिक शतरंज की चालों का अनुमान लगाया जा रहा है कि इसमें किसने किसको मात दी है। पार्टी के अंदर ही फुसफुसाहट है कि चिंतन बैठक से बाहर रखने के लिए ही पार्टी की कमजोरियों पर विचार-विमर्श से पहले जसवंत सिंह को बाहर का रास्ता दिखाना कितना उचित है, जबकि यही काम दिल्ली में किया जा सकता था या फिर चिंतन बैठक के बाद किया जा सकता था। जसवंत सिंह की बात सुनकर उन्हें उनके किए की सजा सुनाई जा सकती थी। घोषित रूप से तो पार्टी ने अपने प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर के माध्यम से कहलवा दिया कि पार्टी के संसदीय बोर्ड के पास किसी को भी पार्टा से निकालने के अधिकार हैं। लेकिन इस बात का जवाब कोई नहीं दे रहा कि जसवंत सिंह को पार्टा से निकालने के लिए आवश्यक प्रक्रिया का पालन करने में क्या दिक्कत थी। एक अन्य प्रवक्ता ने कहा कि प्रक्रिया का पालन तो किया जाना चाहिए था, जिससे कार्रवाई पर कोई उंगली न उठा सके। ऐसा नहीं किया गया, इसीलिए उंगलियां उठ रही हैं। इस प्रवक्ता ने इस बात से इनकार नहीं किया कि इस प्रकार के कदमों से पार्टी में अंतर्कलह और बढऩे की आशंका है। इस वक्त भाजपा कई प्रकार के संकटों से गुजर रही है, जिनमें नेतृत्व के सवाल ने पार्टी को परेशानी में डाला हुआ है। संघ ने युवा लेकिन अगली पांत के चार नेताओं से आगे देखने के निर्देश देकर आलाकमान की परेशानी को बढ़ा दिया है। शिमला से दिल्ली आते-आते मामला बिगड़ता ही चला गया। तभी तो संघ प्रमुख को दिल्ली आना पड़ा। वैसे ऐसा लगता है कि समय ने अपना चक्र पूरा कर लिया है। जिन्ना पर टिप्पणी करने से पार्टी के सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी के अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा था और मुंबई में हुए पार्टी के सिल्वर जुबली समारोह में राजनाथ सिंह की ताजपोशी हुई थी। अब जब राजनाथ सिंह का पार्टी के अध्यक्ष पद का कार्यकाल पूरा होने को है, जसवंत सिंह की किताब- 'जिन्ना : भारत, विभाजन, आजादीÓ से निकलकर जिन्ना का जिन्न फिर आ खड़ा हुआ है।
बहरहाल, भाजपा की मौजूदा दुर्दशा का कारण चुनावी हार के सदमे से उसका उबर नहीं पाना लगता है। शिमला चिंतन बैठक में छायाओं के पीछे भागने के बजाय काफी कुछ सोच-विचार की जरू रत है। पार्टी को ऐसे मुद्दे नहीं सूझ रहे, जिन्हें उठाकर वह जनता का ध्यान खींच सके। राष्ट्रीय महत्व के लगभग प्रत्येक महत्वपूर्ण मुद्दे पर उसकी भूमिका नकारात्मक रही है। आंतरिक रू प से वह विभाजन और स्थानीय स्तर पर बगावत की बेहद गम्भीर समस्या से जूझ रही है। इस तथ्य के बावजूद, कि कांग्रेस की तरह ही उसका व्यापक और बडा जनाधार है, वह आत्म-नाश के पथ पर बढ रही है। ऐसा लगता है कि भाजपा अपने पुनरूद्धार के लिए एक बार फिर संघ की विचारधारा की ओर बढ रही है। वह अपनी राजनीति चलाने के लिए स्वयं को पूरी तरह उसे सौंपने के लिए भी तैयार है। भाजपा के लिए यह त्रासदी ही होगी, यदि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों को उठाने के लिए पर्याप्त राजनीतिक जनाधार होने के बावजूद वह ऐसा करेगी। वर्तमान में पार्टी के पास ऐसी कोई नीति नहीं है, जिसकी बदौलत वह उन राज्यों में गठजोड़ के लिए सहयोगी दल तलाश सके, जहां वह खुद के बूते नहीं लड़ सकती। राजनीतिक एकाकीपन अवश्यम्भावी लगता है। बदतर बात यह है कि भाजपा खुद ही ऐसा कर रही है।