सोमवार, 23 दिसंबर 2013

सबको साथ लाएंगे लवली?




विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद दिल्ली में कांग्रेस में जान फूंकने की जिम्मेदारी अरविंदर सिंह लवली को सौंपी गई है। अरविंदर सिंह लवली ने कहा कि वह सभी गुटों को एक साथ लाएंगे और आम लोगों को पार्टी से जोड़कर इसे धरातल पर मजबूती प्रदान करेंगे। उन्होंने कहा कि वह खासकर युवाओं और महिलाओं को पार्टी से जोड़ेंगे। दिल्ली कांग्रेस का प्रमुख नियुक्त करने के तुरंत बाद 46 वर्षीय लवली ने कहा कि वह जिम्मेदारी मिलने से खुश हैं और आगामी लोकसभा चुनावों में पार्टी को मजबूत बनाने के एकमात्र उद्देश्य से काम करेंगे। गौर करने योग्य यह भी है कि रामबाबू शर्मा को अपवाद मान लिया जाए, तो पिछले डेढ़ दशक में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष की भूमिका लगातार मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित के बाद ही शुरू होती थी। लेकिन इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय के बाद प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए पूर्व मंत्री व पार्टी विधायक अरविंदर सिंह लवली के पास खुलकर खेलने का पूरा मौका है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या लवली पर जिस तरह से पार्टी आलाकमान ने भरोसा जिताया है, उस पर वह खरा उतर पाएंगे?
दरअसल, अरविंदर सिंह लवली को दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष जे.पी.अग्रवाल के इस्तीफे के बाद यह जिम्मेदारी दी गई है। अरविंदर सिंह लवली 1990 में वह दिल्ली प्रदेश यूथ कांग्रेस के महासचिव चुने गए। बाद में उन्हें एनएसयूआई का महासचिव बना दिया। 1996 तक वह इस पद पर रहे। 1998 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीतकर वह सबसे कम उम्र के विधायक बने। सन 2000 में उन्हें दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी का महासचिव बनाया गया। 2003 में वह मंत्री बने। वह गांधीनगर विधानसभा से जीतते रहे हैं। सूबे के पुराने कांग्रेसियों का मानना है कि लवली ताकतवर प्रदेश अध्यक्ष साबित होंगे। एक तो उनके काम करने की शैली आक्रामक है, दूसरी बात यह है कि उन पर कोई दबाव नहीं होगा। उनका कहना है कि साढ़े छह साल तक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे जयप्रकाश अग्रवाल के संबंध शुरुआती दिनों में शीला दीक्षित से ठीक-ठाक थे, लेकिन बाद में दोनों के बीच तल्खी बढ़ी, जिसका असर संगठन व सरकार के संबंधों पर दिखा। पार्टी नेताओं का कहना है कि स्वर्गीय रामबाबू शर्मा वर्ष 2006 में जब प्रदेश अध्यक्ष बने, तब भी दीक्षित व शर्मा के बीच बेहद तीखे संबंध रहे। लेकिन बड़ी बात यह थी कि पार्टी लगातार चुनावी जीत दर्ज कर रही थी और दीक्षित पार्टी का चेहरा बनी हुई थीं। राजधानी में कांग्रेस का असली चेहरा उन्हें ही माना जाता रहा है, लेकिन इस हार ने समीकरणों को बहुत हद तक बदल दिया है।
अध्यक्ष बनने के बाद अरविंदर सिंह लवली ने कहा कि दीक्षित व अग्रवाल सहित सभी बड़े नेताओं के आशीर्वाद से ही वह पार्टी के संगठन को मजबूत करने का काम करेंगे। हालांकि, यह सबको पता है कि यदि क कांग्रेस को आगे आने वाले चुनावों में मजबूती देनी है, तो यह जिम्मेदारी मुख्य रूप से लवली को ही निभानी है। लवली का कहना है कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की जनता से झूठे वायदे किए हैं और उसके झूठ की पोल खोलने के लिए हमने 'आप' को समर्थन दिया है। आम आदमी पार्टी सरकार बनाए या न बनाए, इस मुद्दे पर एसएमएस, आॅनलाइन और घर-घर जाकर सर्वे करा रही है। आप के इस सर्वे पर भी लवली सवाल उठाने से नहीं चूके। उन्होंने कहा कि किसे पता है, एसएमएस में क्या जवाब आ रहे हैं? लवली ने प्रदेश अध्यक्ष बनते ही जिस प्रकार से आम आदमी पार्टी पर सियासी हमले तेज किए हैं, उससे साफ है कि कांग्रेस के वोट बैंक पर कब्जा जमा लेने वाली पार्टी उनके निशाने पर रहेगी। आप नेता कुमार विश्वास ने कहा कि कांग्रेस एक धोखेबाज पार्टी है। उनका आशय यह था कि कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह से लेकर चंद्रशेखर तक की सरकारों को पहले समर्थन दिया और फिर बाद में समर्थन वापस लेकर उनकी सरकारें गिरा दीं।
उल्लेखनीय है कि कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में मिली हार में आम आदमी पार्टी (आप) की भूमिका बहुत बड़ी है। दूसरी भूमिका गुटबाजी की थी। टिकट बंटवारे में पूरी तरह अराजकता थी। यह चुनाव नतीजों से भी साफ पता चलता है। जिन डेढ़ दर्जन विधायकों के टिकट काटने की मांग हो रही थी, उनमें से ज्यादातर को 25 फीसद से कम वोट मिले हैं। इतना ही नहीं गैर विधायक वाली सीट पर जहां मनमानी से टिकट बांटे गए उनमें ज्यादातर को तो 20 फीसद से कम वोट मिले हैं। ऐसी सीटों के कांग्रेस कार्यकत्तार्ओं को फिर से संगठित करना नए प्रदेश अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली के लिए आसान न होगा। काफी समय से कांग्रेस में कार्यकर्ता बनाने का काम हुआ ही नहीं। पहले दिन से पार्टी में आने वाले नेता चुनाव लड़ने की जुगत में लग जाते हैं। बताते हैं कि जो नए विधायक और नेता चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस में आए थे उनको टिकट देने की मनाही कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की ओर से हुई थी बावजूद इसके उनको पार्टी में लाने वाली मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से हस्तक्षेप करवाकर टिकट दिलवाया। उनमें ज्यादातर चुनाव हार गए क्योंकि कांग्रेस के ही दूसरे दावेदारों के समर्थक उन्हें हरवाने में लग गए। इस तरह के कई नेता तो मतदान के दिन खुलेआम जीतने वाली आप के उम्मीदवारों को वोट दिलवाते दिखे। कांग्रेस को सबसे कम वोट नजफगढ़ सीट पर महज 7.05 फीसद मिला। यह वह सीट है जहां एक बार कांग्रेस का विधायक जीता था और हर वार कांग्रेस मुख्य मुकाबले में रहती थी। इसी तरह विधायकों वाली सीट में सबसे कम वोट नरेला में 18.77 मिला।  18 उन सीटों पर कांग्रेस को 20 से 25 फीसद के बीच वोट मिले हैं, इनमें से ज्यादातर पिछली बार कांग्रेस के पास थीं और कांग्रेस नेतृत्व पर उम्मीदवार बदलने का दबाव ज्यादा था और दिल्ली कांग्रेस की चुनाव समिति की बैठक में भी उन्हें बदलने की मांग उठाई गई थी। लेकिन सभी विधायकों को फिर से टिकट देने की जिद में वे सारे विधायक टिकट पा गए। उनमें ज्यादातर चुनाव हार गए। इन सीटों में भी भाजपा के प्रभाव वाली ग्रेटर कैलाश, शकूर बस्ती, कृष्णा नगर, तिलक नगर, द्वारका, हरि नगर भी हैं। लेकिन महरौली, त्रिनगर, वजीरपुर, माडल टाउन, कोंडली, पटपड़गंज, पटेल नगर, राजेंद्र नगर, राम कृष्ण पुरम, आंबेडकर नगर, बदरपुर और देवली में कांग्रेस के विधायक थे। आप का सबसे ज्यादा असर मध्यम वर्गीय कॉलोनियों और गरीब बस्तियों में हुआ। यह पहला चुनाव है कि कांग्रेस को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 12 में से केवल एक सीट ही मिल पाई और कभी भी चुनाव न हारने का रिकार्ड बनाने वाले चौधरी प्रेम सिंह और दिल्ली सरकार के मंत्री राज कुमार चौहान चुनाव हार गए। इन नतीजों से अगर कांग्रेस ने सबक न लिया और हवा में उड़ने और केवल पैसे और समीकरण के बूते चुनाव जीतने का भ्रम पाले रखा तो आगे और सफाया भी हो सकता है क्योंकि माना जा रहा है कि अल्पसंख्यकों को इसका अंदाजा न था कि आप भाजपा को पराजित कर सकती है। चुनाव नतीजों से तो यह भी जानकारी मिली कि ह्यआपह्ण के चुनाव चिन्ह झाडू से मिलते जुलते टार्च के निशान पर कई सीटों पर काफी वोट आने से आप की सीटें कम रह गईं।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

क्यों बताई आडवाणी की अहमियत?


यदि यह कहा जाए कि भारतीय जनता पार्टी और लालकृष्ण आडवाणी एक-दूसरे के अनुपूरक हैं, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भले ही पार्टी के सबसे सदार चेहरा के रूप में सर्वविदित हों, लेकिन वह आडवाणी की मेहनत रही कि भाजपा ने केंद्र में सत्तारोहण किया। लोकतांत्रिक राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता। न तो भाव और न ही सिद्धांत। इस लिहाजा से यह कहा जाए कि भाजपा ने कभी आडवाणी को हाशिए पर लाने की पुरजोर कोशिश की और फिर अचानक से संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सरेआम सबको भाजपा के ‘महारथी’ लालकृष्ण आडवाणी की अहमियत बताई, तो यह अनायास नहीं है। जो लोग भाजपा में आडवाणी को बीते जमाने की बात मान चुके हैं, उन्हें कहीं दोबारा ना सोचना पड़ा। 17 दिसंबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक के प्रमुख मोहन भागवत ने कुछ ऐसे ही संकेत दिए।
दरअसल, देश की  राजधानी नई दिल्ली में मौका था लालकृष्ण आडवाणी की तीन पुस्तकों के विमोचन का। भागवत बोलने के लिए खड़े हुए, तो आडवाणी की जिंदगी और सोच पर तो रोशनी डाली ही, आडवाणी को पार्टी में ही रहकर काम जारी रखने की नसीहत दे डाली।  उन्होंने आडवाणी को सलाह दी कि वे पार्टी से खुद को दूर न करें, वरना पार्टी बर्बाद हो सकती है। भागवत ने यह बात आडवाणी को एक कहानी के जरिए समझाई। वे नई दिल्ली में लालकृष्ण आडवाणी की किताब दृष्टिकोण के विमोचन के मौके पर समारोह को संबोधित कर रहे थे। मोहन भागवत ने इस अवसर पर एक कहानी सुनाई, जिसके मुताबिक एक गांव में एक महिला गलती से हवन कुंड में थूक देती है, लेकिन हवन कुंड की पवित्रता उसके थूक को सोने में तब्दील कर देती है। महिला का पति उस महिला को ये बात किसी को न बताने की नसीहत देता है, लेकिन महिला ये बात सहेलियों को बता देती है और पूरे गांव में यह बात फैल जाती है। धीरे-धीरे उस गांव में सारे लोग अमीर होते जाते हैं, लेकिन महिला और उसक पति गरीब ही रहते हैं। उन्हें ताने मिलते हैं, जिससे परेशान होकर दोनों गांव छोड़ देते हैं, लेकिन जैसे ही वे गांव से बाहर निकलते हैं, गांव में आग लग जाती है। तब महिला का पति उससे कहता है कि पूरे गांव के हर परिवार में पाप होता था (हवनकुंड में थूकने का) और सबको सोना मिलता था। लेकिन हमारी वजह से गांव बचा हुआ था, क्योंकि हम यह नहीं करते थे। हमारे बाहर निकलते ही गांव बर्बाद हो गया। भागवत ने इसके बाद आडवाणी की ओर मुखातिब होकर कहा कि आडवाणी जी राजनीति में हैं। कैसे रहना...वहां रहना और उन्हीं लोगों में रहना ताकि गांव को आग न लगे। भागवत ने अंत में यह भी कहा कि जो भी आपको जीवन में मिलेगा, उसका हमेशा खुशी भरा मतलब खोजना चाहिए।
सियासी हलकों में बीते कुछ समय से कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने पर लालकृष्ण आडवाणी नाराज हैं और वे कई बार इसे खुलकर जाहिर भी कर चुके हैं। कहा गया कि भाजपा में समय-समय पर युग परिवर्तन होते रहे हैं। एक था अटल युग, फिर आया आडवाणी युग और अब नमो (नरेंद्र मोदी) युग। अटल युग को अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्थक किया और देश के प्रधानमंत्री बने। उनके प्रधानमंत्री बनने में किसकी क्या भूमिका रही यह एक अलग बहस का विषय है। एनडीए की सरकार 2004 में सत्ता से बाहर हुई और इसके साथ ही अटल युग खात्म हो गया। फिर आया आडवाणी युग। 2009 का आम चुनाव आडवाणी के नेतृत्व में लड़ा गया। भाजपा की तरफ से आडवाणी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार बनाए गए थे, लेकिन किस्मत ने आडवाणी का साथ नहीं दिया और भाजपा नीत एनडीए सत्ता के जादुई आंकड़े को नहीं छू सकी। फिर भी पार्टी में आडवाणी की अहमियत बनी रही और उनकी अंतिम इच्छा यही थी कि भाजपा 2014 का चुनाव भी उनकी लीडरशिप में लड़े। लेकिन यह हो न सका। इसमें भी दो राय नहीं कि जब-जब नरेंद्र मोदी के ऊपर संकट के बादल गहराए, आडवाणी ने उनकी नैय्या पार लगाई। लेकिन आज उसी नरेंद्र मोदी ने उनके प्रभुत्व को चुनौती दे दी और आडवाणी के पीएम इन वेटिंग की कुर्सी को हथिया लिया। उसके बाद तमाम मंचों से कहा जाने लगा कि भाजपा में आडवाणी युग खत्म हो गया और मोदी युग का शुभारंभ। यहां यह भी याद रखना होगा कि वर्ष 2005 में दिए अपने एक साक्षात्कार में संघ प्रमुख के.एस. सुदर्शन ने वृद्ध हो चले अटल और आडवाणी से मुक्त भाजपा की बात की थी, जिसके लिए उन्हें काफी आलोचना झेलनी पड़ी थी।
गौर करने योग्य यह भी है कि भाजपा में संघ के आशीर्वाद से हुई मोदी की ‘ताजपोशी’ के बाद पार्टी के भविष्य को लेकर आडवाणी ने दिल्ली में संघ प्रमुख से भी मुलाकात की थी। उस समय मोहन भागवत से न उन्हें कोई आश्वासन मिला, न संघ की तरफ से भाजपा के मामलों को देख रहे प्रचारकों को बदलने की उनकी बात मानी गई। इसके निहितार्थ के रूप में कहा जाने लगा कि भाजपा और उसकी पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ की सियासत पर कई दशकों से हावी रही वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी अब अतीत के विवरण तक सिमट जाएगी। स्वास्थ्य के चलते वाजपेयी तो पहले से ही रिटायर्ड हैं, अब आडवाणी भी उसी गति को प्राप्त हो जाएंगे, भले वह पूरी तरह स्वस्थ हों। इसमें दो राय नहीं कि मोदी को आधिकारिक चेहरा बनाते वक्त संघ के शीर्षस्थ नेतृत्व ने किसी भी किस्म की असहमति न झेलने की उनकी प्रवृत्ति- जिसके चलते गुजरात में संघ-भाजपा के तमाम वरिष्ठ लोग हाशिये पर चले गए, जैसे तमाम पहलुओं पर सोचा होगा। उन्हें इस बात का भी गुुमान रहा होगा कि मोदी के चलते राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पुराने साथी छिटक सकते हैं और नए साथियों के जुड़ने में दिक्कत आ सकती है।
सच तो यह भी है कि अगर कांग्रेस में प्रधानमंत्री बनने के लिए सोनिया गांधी का आशीर्वाद चाहिए, तो भाजपा में संघ परिवार का। संघ परिवार आडवाणी को त्याग चुका है। आडवाणी इस बात को भूल गए कि अटल बिहारी वाजपेयी में तमाम गुणों के साथ एक गुण और था। यह गुण उन्हें उतर भारत से लेकर मध्य भारत और पूर्व भारत तक मजबूत करता था। ये गुण उन्हें जन्मजात मिला था। वह ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। इस जाति की मजबूती आडवाणी जी अभी तक महसूस नहीं कर पा रहे हैं। अगर इस जाति की अहमियत को वे अभी भी समझना चाहते है तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के ब्राहमण सम्मेलनों को गौर से देखे, लेकिन आडवाणी के साथ  ब्राहमण तो क्या होंगे उनके अपने ही नहीं है। आज अडानी से लेकर अंबानी तक नरेंद्र मोदी के साथ हो गए है। आडवाणी भाजपा संस्कृति में पले बढ़े जरूर है। लेकिन वे वो नेता है जो सत्ता प्राप्त करने के लिए हर तरह के खेल करते है। अगर उन्होंने सत्ता प्राप्त करने के लिए रथयात्रा का नेतृत्व किया तो भारत विभाजन के जिम्मेदार मोह्ममद अली जिन्ना को सेक्यूलर भी बता दिया। यानि की सत्ता प्राप्त करने के लिए आडवाणी ने हर खेल को खेला। इसके बावजूद उन्हें पीएम की कुर्सी नहीं मिली। 2009 में एक बार पार्टी ने उन्हें दाव पर लगाया लेकिन पार्टी पहले से भी ज्यादा नुकसान में रही। सीटें कम हो गई। यानि की जनता के बीच उनकी लोकप्रियता वो नहीं थी जो  अटल बिहारी वाजपेयी की थी
फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि उसी मोहन भागवत को सार्वजनिक रूप से लालकृष्ण आडवाणी की अहमियत बताने की जरूरत आन पड़ी? सच तो यही है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करने के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पितृपुरुष लालकृष्ण आडवाणी को तो भाजपा नेताओं ने मना जरूर लिया, लेकिन भाजपा से आडवाणी भी भाजपा से और राजनीति से दूरी की बात करने लगे। संघ आज भी भाजपा के लौह पुरुष की अहमियत को समझता है।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

हम देश को बंटने नहीं देंगे



रांची की जेल से जमानत पर रिहा हुए राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव ने बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए कहा कि हम देश को बंटने नहीं देंगे। सत्ता में आने की कोशिश कर रही सांप्रदायिक ताकतों को हम सत्ता से दूर रखेंगे। रांची के बिरसा मुंडा जेल से लालू यादव जमानत पर रिहा हो गए। रिहा होने के बाद लालू यादव ने कहा कि हमें न्यायपालिका पर पूरा भरोसा था। ऐसा नहीं है कि आज हमारा बेल हुआ है, इसलिए मैं ऐसा कह रहा हूं बल्कि शुरू से ही मुझे और मेरे परिवार को न्याय व्यवस्था पर पूरा भरोसा था।
चारा घोटाला मामले में 5 साल की सजा मिलने के बाद वो यहां बंद थे। गौरतलब है कि 30 सितंबर को विशेष सीबीआई अदालत ने लालू को दोषी करार दिया था। लालू को चारा घोटाले के चार दूसरे मामलों में पहले ही जमानत मिल चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने 13 दिसंबर को लालू प्रसाद को चारा घोटाला मामले में राहत देते हुए जमानत पर छोड़ने का आदेश दिया था। अदालत ने हालांकि छह वर्षो तक उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया है। चारा घोटाला के इस मामले के 44 आरोपियों में से 37 को पहले ही जमानत मिल चुकी है और छह अन्य की अर्जी निचली अदालत में विचाराधीन है।  लालू प्रसाद को रांची स्थित केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की अदालत ने चारा घोटाला मामले में पांच वर्ष कैद की सजा सुनाई है। उन पर 25 लाख रुपये का जुर्माना भी किया गया है। निचली अदालत ने उनके अलावा बिहार के एक और पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र और 42 अन्य को चाइबासा कोषागार से 37.7 करोड़ रुपये की अवैध निकासी के मामले में सजा दी है। यह मामला अविभाजित बिहार का है और निकासी मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल में की गई थी।
तमाम विवाद और आरोप के बीच आरजेडी प्रमुख लालू यादव इस देश का वो चेहरा भी हैं जो सालों पुरानी व्यवस्था को कुचलकर आगे बढ़ता है। जो हमारे देश के ताकतवर सिस्टम को आंखें दिखाकर आगे बढ़ा। गोपालगंज के बेहद ही गरीब परिवार में पैदा हुए लालू सिर्फ अपने दम पर बिहार के मुख्यमंत्री बने और बाद में देश के रेल मंत्री भी बने।
आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव राजनीति में एक ऐसा नाम जिसे कुछ सियासत का मसखरा कहते हैं। लेकिन बहुत बड़ा तबका ऐसा भी है जो उन्हें गरीबों का नेता मानता है। भोली सूरत, आंखों में दुश्मनों को धूल चटाने की जजबा, जुबान ऐसी कि विरोधी कि बोलती बंद हो जाए। लेकिन अब हो सकता है कि बिहार ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति से भी एक बड़ा चेहरा शायद हमेशा के लिए पर्दे के पीछे चला जाए।
गोपालगंज जिले के फुलवरियां गांव में 11 जून 1948 को पैदा हुए लालू ने राजनीति की शुरुआत पटना के बीएन कॉलेज से की थी। तब लालू 1970 में पटना यूनिवर्सिटी में स्टूडेंट यूनियन के महासचिव चुने गए थे। इसके बाद छात्र आंदोलन के दौरान लालू की सियासत में दिलचस्पी और बढ़ती गई। माहौल को भांपने में माहिर लालू ने राम मनोहर लोहिया और इमरजेंसी के नायक जय प्रकाश नारायण का समर्थक बनकर पिछड़ी जातियों में अपनी छवि बनानी शुरू कर दी। नतीजा ये कि महज 29 साल की उम्र में 1977 में वो पहली बार संसद पहुंच गए। अपनी जन सभाओं में लालू 1974 की संपुर्ण क्रांति का नारा दोहराते रहे। लोगों को सपने दिखाते रहे। जनता की नब्ज पकड़ते हुए लालू ने 90 के दशक में मंडल कमीशन की लहर पर सवार होकर बिहार की सत्ता पर कब्जा कर लिया।
सुरेंद्र किशोर (पत्रकार) का कहना है कि बिहार में लालू यादव को जितना समर्थन मिला था शायद उतना समर्थन राजनीति में अभी तक किसी को नही मिला होगा ना मिलेगा। राजनीतिक विशलेष्क शैवाल गुप्ता ने बताया कि लालू को उस वक्त अति पिछड़े और बाकी लोगों का काफी वोट मिला था।
लेकिन सत्ता में रहते हुए लालू अपने मकसद से भटक गए। पहले से ही पिछड़ा बिहार अब और बर्बाद होने लगा। घोटाले, अपराध लालू की सरकार का दूसरा नाम बन गए। 1997 में लालू यादव पर चारा घोटाले का आरोप लगा। साल 2000 में आय से ज्यादा संपत्ति का आरोप लगा। इन आरोपों के बीच जब लालू ने जेल जाते वक्त सत्ता राबड़ी को सौंपी तो भी कई सवाल उठे। लेकिन लालू ने कभी उसकी परवाह नहीं की। राज्य में विकास पर ब्रेक लगा और तरक्की सिर्फ लूट, हत्या के मामलों में अपहरण उद्योग की हुई। नतीजा ये कि 2005 में बिहार की जनता ने लालू को सत्ता से बाहर कर दिया। हालांकि इस बीच 2004 से 2009 तक लालू ने रेल मंत्रालय की कमान संभाली। विदेश तक में नाम कमाया। लेकिन अब उनका करिश्मा फीका पड़ता जा रहा है।

राहुल के नाम पर मुहर?

पांच राज्यों में हुए हालिया विधानसभा चुनाव में करारी हार से सदमे में आई कांग्रेस अब पीएम उम्मीदवार के नाम पर और ज्यादा सस्पेंस नहीं बनाना चाहती और जल्दी से जल्दी पार्टी कैंडिडेट का नाम सामने लाना चाहती है। क्या मिशन 2014 में कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी पीएम कैंडिडेट होंगे? सवाल इसलिए क्योंकि अगले साल जनवरी में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की एक अहम बैठक होने जा रही है और ऐसा माना जा रहा है कि इस बैठक के बाद कांग्रेस के पीएम प्रत्याशी की तस्वीर साफ हो जाएगी। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस के ज्यादातर नेता राहुल गांधी के नाम पर एकमत हैं और वे चाहते हैं कि जितनी जल्दी हो सके राहुल गांधी का नाम आगे कर देना चाहिए। अगले साल 17 जनवरी को बैठक होने वाली है और उम्मीद जताई जा रही है कि बैठक में राहुल के नाम पर मुहर लगा दी जाएगी।
एआईसीसी का कामकाज देखने वाले महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने आज बताया कि यह बैठक दिल्ली में होगी। एक साल पहले ‘गुलाबी नगरी’ जयपुर में हुई एआईसीसी की बैठक में राहुल गांधी को कांग्रेस उपाध्यक्ष बनाया गया था। चार राज्यों में पार्टी की शर्मनाक पराजय के बाद देश भर के कांग्रेस के पदाधिकारी पहली बार 17 जनवरी को एक जगह जमा होंगे। पार्टी के अंदर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की मांग भी जोर पकड़ चुकी है। ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि इस जयपुर में हुई बैठक की तर्ज पर ही इस बैठक में राहुल को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाए। यह बैठक ऐसे समय में बुलायी जा रही है जब कांग्रेस को नरेन्द्र मोदी के उभार और संप्रग के सिकुड़ने से उपजे हालात का सामना करना पड़ रहा है। एआईसीसी की पिछली बैठक चिंतन शिविर के साथ इस साल जनवरी में जयपुर में हुई थी जिसमें राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया था। एआईसीसी की बैठक की घोषणा ऐसे समय में की गई है जब एक ही दिन पहले द्रमुक के नेता एम करूणानिधि ने अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करने का ऐलान किया है। द्रमुक ने कुछ ही महीने पहले कांग्रेस नेतृत्व वाले संप्रग गठबंधन से नाता तोड़ा था। संप्रग गठबंधन के दूसरे सबसे बड़े घटक तृणमूल कांग्रेस ने खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के मुद्दे पर पिछले साल ही गठबंधन को अलविदा कह दिया था। इसके अलावा बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाला झारखंड विकास मोर्चा और एआईएमआईएम भी संप्रग से अलग हो चुका है। दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनवों में मिली भारी पराजय के बाद पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इन चुनाव परिणामों पर गहरे आत्ममंथन किये जाने की बात की थी।
क्या मिशन 2014 में नरेन्द्र मोदी का मुकाबला राहुल गांधी से होगा। कयास तो ऐसे ही लग रहे हैं कि अगले आम चुनाव में मोदी की टक्कर राहुल से होगी। बीजेपी काफी पहले ही मोदी को अपना पीएम कैंडिडेट घोषित कर चुकी है लेकिन कांग्रेस ने इस बाबत अभी तक अपना पत्ता नहीं खोला है। हालांकि शुरू से ही ये कयास लग रहे थे कि कांग्रेस की ओर से ये जिम्मेदारी राहुल गांधी को सौंपी जा सकती है लेकिन अब बात काफी जोर शोर से उठने लगी है। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस के भीतर इस बात का दबाव बढ़ता जा रही है कि राहुल को ही पार्टी की ओर से पीएम पद का प्रत्याशी घोषित किया जाए। कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी के नाम पर चर्चा जोर पकड़ती जा रही है लेकिन फिलहाल पार्टी के नेता इस बारे में साफ साफ कुछ भी कहने से बच रहे हैं। उधऱ कांग्रेस नेता विरेन्द्र सिंह ने संकेत दिए हैं कि 17 जनवरी को पीएम पद के उम्मीदवार के लिए राहुल  गांधी के नाम का एलान किया जा सकता है।