मंगलवार, 30 मार्च 2010

क्यों घसीटते हो राधा-कृष्ण को

पिछले कुछ वर्षों से 'सहजीवनÓ जिसे लिव इन रिलेशनशिप भी कह लीजिए को लेकर काफी बावेला काटा जा रहा है। कभी सामाजिक ठेकेदारों द्वारा तो अभी कोर्ट द्वारा। कोर्ट ने यह कहकर इस मुद्दे को फिर तूल दे दी कि भारतीय पुरातन परंपरा में राधा-कृष्ण भी तो इसी तरह रहते थे। बस क्या था? विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों ने विरोध-प्रदर्शन का दौर शुरू कर दिया।
यदि कोर्ट की बातों पर गौर किया जाए तो यह कहने में जीभ नहीं सकुचाती कि कोर्ट को इस संबंध में और अध्ययन की जरूरत है। प्रेम की जब भी चर्चा होती है राधा-कृष्ण उद्घृत किया जाते हैं। उनके उपमा से प्रेम गौरवान्वित होती है। रही बात सहजीवन की तो उससे भला कैसे सहमत हुआ जाए। पिछले वर्ष जब महाराष्टï्र में मलिथियान कमेटी की रिपोर्ट आई तो सहजीवन पर काफी बहस छिड़ी थी। उसमें तो राधा-कृष्ण का जिक्र नहीं था। राधा-कृष्ण ने प्रेम किया था, लिव इन रिलेशनशिप में तो नहीं थे। आठो पहर में एक-दो पहर मिलना - सहजीवन नहीं कहा जा सकता। राधा-कृष्ण एक छत के नीचे भी कभी पति-पत्नी की तरह नहीं रहे। आज के तथाकथित आधुनिक सोच की महिलाएं अपना 'संवेदना पुरूषÓ बनाती हैं तो पुरूष 'संवेदना महिलाÓ को गढ़ लेते हैं। साथ रहते हैं। एक ही छत के नीचे। दिन हो या रात। लेकिन राधा के कृष्ण संवेदना पुरूष नहीं थे। हाँ, प्रेमी अवश्य थे।
हालांकि, कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि राधा-कृष्ण का प्रेम मुकाम हासिल नहीं कर पाया। बात बिलकुल सही है। प्रेम का मुकाम यदि विवाह है, तो हासिल नहीं हुआ। प्रेम तो हमें दानशीलता, सहनशीलता का पाठ पढ़ाती है। प्रेम पाने का नाम नहीं है। वह तो समर्पण है। राधा का समर्पण कृष्ण के प्रति था। इसलिए उनके प्रेम को आध्यात्मिकता से जोड़कर आज भी रूपायित किया जाता है। राधा ने जिस प्रकार का त्याग किया, वह अप्रितम था। वह नारी समाज के लिए यह भी संदेश देती हैं कि महिलाएं अपने इष्टï अथवा इच्छित से प्रेम तो कर सकती हैं, लेकिन उन्हें वरण का अधिकार आज भी उसके पास नहीं है। भला, त्याग की देवी को सहजीवन जैसे फर्में में फिट करना कहां तक उचित है।

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

बेहतरी के लिए अँधेरा ही सही ...

अंधेरे में रहना भला किसे अच्छा लगता है, लेकिन यह अंधेरा धरती की बेहतरी के लिए हो तो यह कदम सचमुच ही तारीफ़ के काबिल है. धरती को ग्लोबल वार्मिग के खतरे से बचाने की इसी मुहिम के तहत एशिया प्रशांत, मध्य पूर्व और अमेरिका समेत दुनिया के 150 से अधिक देशों के हजारों शहर 27 मार्च यानी शनिवार की रात एक घंटे के लिए अंधेरे में डूब जाएंगे. वर्ष 2007 में ऑस्ट्रेलिया के शहर सिडनी से शुरु किए गए इस व्यापक जनअभियान को अर्थ आवर 60 का नाम दिया गया है जिसमें 60 अंक 60 मिनट की उस अवधि की ओर इशारा करता है जब सारे घरों और इमारतों की बत्तियां बुझी रहेंगी. पिछले वर्ष भारत भी इस अभियान के साथ जुड़ गया और 50 लाख से अधिक भारतवासियों तथा दिल्ली और मुंबई समेत देश के 56 शहरों ने एक घंटे तक अपने घरों और ऐतिहासिक इमारतों की बत्तियां बुझाकर करीब 1000 मेगावाट बिजली की बचत की थी. प्रकृति को बचाने की दिशा में काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था विश्व वन्य जीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ़) की ओर से आयोजित इस अभियान में आज दुनिया के करीब हर छोटे बड़े देश शामिल हो गए हैं. दुनिया का हर नागरिक, व्यावसायिक प्रतिष्ठान, शिक्षण संस्थान एवं प्रत्येक समुदाय जलवायु परिवर्तन के खिलाफ़ एकजुट होने की अपील कर रहा है. शनिवार यानी 27 मार्च को एक खास संयोग यह भी है कि इस तारीख को दिन और रात की अवधि बराबर हो रही है.
इस अभियान को सफ़ल बनाने और अधिक से अधिक लोगों को इस मुहिम से जोड़ने में देश दुनिया की मशहूर हस्तियां और बड़े -बड़े उद्योग घराने भी आगे आए हैं. करोड़ों युवाओं के चहेते एवं मशहूर अभिनेता आमिर खान अर्थ आवर 2009 के ब्रांड अम्बेस्डर थे वहीं सचिन तेंदुलकर और अनिल कुंबले जैसे प्रसिद्ध क्रिकेटरों ने भी खुद को इस अभियान में शामिल किया है. इस बार युवा दिलों की धड़कन एवं बॉलीवुड अभिनेता अभिषेक बच्चन अन्य हस्तियों के साथ इस मुहिम से जुड़ गए हैं.
अर्थ आवर 2010 के मौके पर जिम्बाब्वे के सैकड़ों बच्चे विक्टोरिया जलप्रपात पर मोमबत्ती की रोशनी में पिकनिक मनाकर धरती को ग्लोबल वार्मिग से बचाने के लिए दुनिया को संदेश देंगे. वहीं गालापैगस द्वीप पर सांता क्रूज की मुख्य सड़कों पर एक घंटे तक मोमबत्तियां जलेंगी. अर्थ आवर के समय दुनिया की 812 महत्वपूर्ण इमारतों में बिजली बंद रखी जाएगी जिनमें दिल्ली का लाल किला, पेरिस का एफ़िल टावर, बैंकाक का ग्रैंड पैलेस, ऑकलैंड का स्काई टावर, लंदन का लंदन आइ और पिकाडिली सर्कस, बर्लिन का ब्रैंडेनबर्ग गेट, न्यूयार्क की एंपायर स्टेट बिल्डिंग, दुनिया की ऊंची इमारत दुबई की बुर्ज अल अरब, रियो डी जनेरो की क्राइस्ट द रिडीमर, मैक्िसको सिटी का अल एंजल, इटली का टेवी फ़ाउंटेन, जिम्बाब्वे का विक्टोरिया फ़ॉल्स, पेइचिंग की फ़ारबिडन सिटी, इटली की पीसा की झुकती मीनार और लंदन का बिग बेन शामिल हैं. पूरी दुनिया के एक अरब से अधिक लोग अर्थ आवर 2010 की तैयारी कर चुके हैं.धरती के बढते तापमान और इससे ग्लेशियरों के अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरे को देखते हुए एक साल में एक बार 60 मिनट के लिए बत्तियां बुझाकर बिजली की बचत करना ही काफ़ी नहीं है लेकिन बेहतर भविष्य के लिए कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के प्रति लोगों को जागरुक करने की दिशा में यह एक अच्छी पहल साबित होगी.



सादर साभार : प्रभात खबर

मंगलवार, 23 मार्च 2010

दुश्मन नं. 1

दर्शन और कूटनीति कहता है कि यदि किसी देश व समाज को बर्बाद करना है, तो सबसे पहले उसका आर्थिक ताना-बाना नष्टï कर दें। उसकी उलटी गिनती शुरू हो जाएगी। चाहकर भी वह संभल नहीं पाएगा। आर्थिक उदारीकरण के बाद साम्राज्यवादी विचारधारा से ओत-प्रोत कुछ देश दूसरों को इसी तर्ज पर नस्तो-नाबूद करने पर आमादा है। चीन उसी का जीता-जागता उदाहरण है। बिना किसी मानक का ख्याल रखते हुए वह कम लागत में उत्पादन कर भारत सहित दूसरे देशों में अपने माल को खपाता है। जबकि उसके दुष्प्रभाव अनेक है।
महंगाई के इस जमाने में सस्ता माल मिले तो कौन नहीं लपकना चाहेगा। वह भी तब, जब माल औरों से टिकाऊ हो। जाहिरतौर पर हर कोई हाथों-हाथ लेगा। कुछ ऐसे ही स्थिति भारत की है। जहां विदेशी उत्पादक अपने लिए एक अच्छा बाजार और खरीददार वर्ग तैयार कर चुके हैं। आलम यह है कि चीन सस्ता और टिकाऊ माल बनाता है और भारतीय ग्राहक हाथों-हाथ उसे उठा लेते हैं। बिना सोचे-समझे। क्या इसके प्रभाव-दुष्प्रभाव होंगे।
विशेषज्ञों की रायशुमारी है कि यदि किसी देश को बर्बाद करना हो अथवा उसे अपने अधीन करना हो तो उसकी अर्थव्यवस्था को अपने कब्जे में कर लें या फिर उसे बर्बाद कर दें। जरूरत के समय वह संभल नहीं पाएगा। चीन आजकल यही कर रहा है। सामरिक स्तर पर वह सदा ही भारत के लिए परेशानी का सबब रहा है और पिछले कुछ वर्षों से वह भारतीय अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित कर रहा है।
इस सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यही है कि चीन का बढ़ता हुआ वर्चस्व आज सारे विश्व के लिए एक चुनौती बन गया है। वह न केवल एशिया में बल्कि सारे विश्व में अपना दबदबा दिखाना चाहता है। इसमें वह सफल हो रहा है। वह सम्पूर्ण विश्व को अपनी उपस्थिति का आभास कराना चाहता है। इसके लिए वह हर तरह की साजिश और चाल चल सकता है और वह यही कर भी रहा है। उसकी पास जनसंख्या के रूप मेंं मानव शक्ति अपार है। वह अपनी सम्पूर्ण मानव शक्ति का प्रयोग अपने छोटे और बड़े उद्योगों में लगाता है। पड़ोसी देशों की आर्थिक और उत्पादन क्षमता को तोडऩे का वह बहुत ही संगठित प्रयास करता है। आज हमारे देशा में अति सस्ते दामो में चीजें उपलब्ध कराता है। उस कीमत पर हमारे देश में हम कुछ भी नहीं उत्पादन कर पा रहे हैं । परिणाम - साफ़ है की हम सस्ते में मिलने वाली चीजों की ओर आकर्षित होकर चीन का ही माल खऱीदते हैं। भारतके पास इसका कोई जवाब नहीं है। भारतीय उपभोक्ता और उत्पादक भी मजबूर हो गए हैं की वे चीन की इस आर्थिक नीति को चाहे अनचाहे स्वीकार कर लें और अपना व्यापार चीन से ही करें। आज सभी विकासशील देशों की वाणिज्यिक मंजिल चीन ही है (शंघाई या बीजिंग)। भारतीय पारंपरिक आवश्यकताओं को पूरा करना भी चीन सीख गया है। चप्पल,जूते, कपड़े से लेकर इलेक्ट्रानिक उपकरणों तक सभी मेड इन चाइना - बिक रही है । और वह भी सस्ते में । भारतीय उत्पाद जब चीनी उत्पाद से महंगा हो तो उसे कौन खरीदेगा ? भारत सरकार की आर्थिक और बाज़ार की नीतियां क्या हैं ? आयात और निर्यात के नियमों में क्या संशोधनों की आवश्यकता नही है ? आज देशा के सामने चीन से निपटने की चुनौती सभी मोर्चो पर सबसे ज्यादा है । चीन हमारा प्रतिद्वंद्वी भी है और दोस्त के रूप में बहुरुपिया भी । उस पर विश्वास करना दिशा के हित को खतरे में डालना ही है।
वर्तमान का सच यही है कि हर किस्म के बाजारों पर चीनी कम्पनीयां अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए भारतीय कम्पनीयों से काफी कम कीमत पर अपने माल को बेच रही है। जिससे ग्राहक भारतीय कम्पनीयों के माल को न खरीद कर चीनी माल को ज्यादा तवज्जो देते है। जिस कारण भारतीय कम्पनीयो की बिक्री दर काफी प्रभावित हुई है। जिससे चीनी उद्योगों की पकड़ भारतीय बाजारों मजबूत होती जा रही है। भारतीय उद्योग के लिए दुविधा ये है की आज मंहगाई के कारन कच्चे माल की कीमते बढ़ गयी है जिससे उन्हें भी अपने निर्मित माल की कीमत में विरधी करनी पड़ रही है। ऐसे में चीनी उद्योग भारतीय ग्राहक को और भी सस्ती कीमत पर माल उपलब्द करा रही है। चीनी उद्योगों में निर्मित माल इतनी सस्ती दर पर मिलता है की इतनी कीमत पर तो भारतीय बाज़ार में कच्चा माल भी नही मिलता।
हालांकि इस सच तो झुठलाया नहीं जा सकता है कि चीन हमसे तेज रफ्तार से तरक्की कर रहा है। और, कई मामलों हमारे देश के नीति-नियंता भी चीन का ही उदाहरण देकर विकास की गाड़ी चीन से भी तेज रफ्तार से दौड़ाना चाहते हैं। तेज रफ्तार से विकास करते चीन का यही हल्ला आज भारत के विकास को बट्टा लगा रहा है। दरअसल, चीनी सामानों ने कुछ इस तरह से हमारे आसपास घर कर लिया है कि अब तो, मेड इन चाइना के ठप्पे पर नजर भी नहीं जाती। चीनी सामानों की घटिया क्वालिटी के बारे में जानने के बाद भी जाने-अनजाने भारत के लोग इसे खरीद रहे हैं और चीन के विकास की रफ्तार और तेज कर रहे हैं।
सच तो यही है कि भारत में कंज्यूमर नाम का प्राणी सबसे तेजी से बढ़ा है। यानी वो खर्च करने वाले जिनकी जेब में पैसा है जो, मॉल में शॉपिंग करता है, मल्टीप्लेक्स में फिल्में देखता है। कंज्यूमर नाम का ये प्राणी कंज्यूम करना जानता है, इसे इस बात की ज्यादा परवाह नहीं होती कि खरीदा हुआ सामान कितना चलेगा। कंज्यूमर के पास पैसे हैं तो, उस पैसे को खींचने के लिए हर मॉल में माल ही माल भरा पड़ा है। किस समान की बात करें। ग्रॉसरी, खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक, कपड़े, ऑटोमोबाइल सेक्टर, दवा, मोबाइल, एफएमजीसी सहित हरेक क्षेत्र में चीनी कंपनियों का दबदबा है। आंकड़े बताते हैं कि ग्रॉसरी और फर्नीचर आइटम्स का 65 प्रतिशत चीनी कंपनियों का ही माल भरा पड़ा है। फैशन-कॉस्मेटिक्स-बनावटी गहने इसके 75 प्रतिशत पर चीनी कंपनियों का ही कब्जा है। मॉल से खिलौने खरीदने वाले करीब 15 प्रतिशत बच्चे ही देसी खिलौने के साथ अपना बचपन बिता पाते हैं।
इतना ही नहीं, सड़क किनारे बिकने वाले अजीब-अजीब से खिलौने, टॉर्च, बैटरी, कॉस्मेटिक्स, कैलकुलेटर, डिजिटल डायरी- सब कुछ चाइनीज है। सामान बेचने वाला चिल्ला-चिल्लाकर पहले ही बता देता है कि सामान मेड इन चाइना है, कोई गारंटी नहीं है। फिर भी मोलभाव कर खरीदने वाले की लाइन लगी है। सड़क किनारे लगे इस बाजार में तो, 90 प्रतिशत सामान मेड इन चाइना ही है। देश के रिटेल बाजार में अनऑर्गनाइज्ड रिटेल का हिस्सा 95 प्रतिशत है। हाल तो यह है कि मेहनती जापानियों के बाजार में भी चीन ने जमकर कब्जा कर रखा है। जापान के बाजार में भी जापानी में मेड इन चाइना लिखे सामान भरे पड़े हैं।
पिछले दिनों प्राकर्तिक रबड़, कार्बन ब्लैक और कच्चे टेल की कीमते बढ़ गयी है जिससे हमारा टायरों की कीमतों को बढऩा लाजमी हो गया। परन्तु साथ ही चीनी टायरों का आयात भी पिछले दिनों कई गुना बढ़ गया है। पहले भारत चाइना से टायर आयात करने में 39 वां था, परन्तु आज ये वहां से खिसक कर तीसरे स्थान पर आ गया है। भारत में टायरों का कारोबार 1200 करोड़ का है। जिसमें 7800 करोड़ का पुराने टायरों का कारोबार है। और इसमे चाइना की 15 प्रतिशत हिस्सेदारी है। भारतीय टायर गुवात्ता में चीनी टायरों से कहीं बेहतर है परन्तु ग्राहक गुणवत्ता से ज्यादा कम कीमत को ज्यादा तरजीह देते है। और चीनी टायर भारतीय टायरों से लगभग 30 प्रतिशत कम कीमत पर मिल जाते है। इसलिए उनका रुझान चीनी टायरों की तरफ़ जयादा है। इसी प्रकार आज से 4 साल पहले ऑटो पार्ट्स का आयात मात्र 1.6 प्रतिशत था। परन्तु इन दिनों आयात 10 प्रतिशत बढ़ गया है। यहाँ भारत में ऑटो पार्ट्स की कीमते चीनी ऑटो पार्ट्स से 30 प्रतिशत ज्यादा पड़ती है। चीनी ऑटो पार्ट्स इतने सस्ते मिलते है की इतनी कीमत में तो हमारे यहाँ कच्चा माल भी नहीं मिलता।
आज हर आदमी के पास कुछ और हो न हो, लेकिन एक अदद मोबाइल सेट हाथ में जरूर होगा। इस सोच को चीनी कंपनियों ने बखूबी समझ लिया है। बेशक, एक दिसंबर से नकली ईएमआई नंबर के कारण भले ही लाखों चीनी मोबाइल खामोश हो गए हों, लेकिन इसके बाद भी लोगों को भ्रम इसके आकर्षण के प्रति नहीं टूटा है। हालांकि एक दिसंबर के देश भर में लाखों चीनी मोबाइल धारकों को हैंडसेट बंद हो गया। लेकिन इस बाद भी मोबाइल रिपेयर करने वालों ने किसी न किसी तरह का जुगाड़ अपना कर इसे फिर चालू कर दिया है। रहस्यम तकनीक के कारण देशभर के बाजार में अभी भी चाइना मोबाइल फोन के हैंडसेट धडल्ले से बगैर बिल और गारंटी के बिक रहे हैं। चीनी हैंडसेटों की ब्रिकी कानूनी है या गैर-कानूनी इस बारे में न पुलिस के पास कोई जवाब है और न ही कस्टम विभाग और चुंगी विभाग कुछ स्पष्ट कहते हैं। कस्टम विभाग का कहना है कि आयातित मोबाइल के संबंध में कोई मानक नहीं है। कोई भी उत्पादक पांच प्रतिशत की कस्टम ड्यूटी देकर हैंडसेट देश के अंदर निर्यात कर सकता है। तो वहीं चुंगी विभाग का कहना है कि जब जानकारी मिलती है, तो छापा मारने की कार्रवाई होती है। किसी भी शहर में ट्रांसपोर्ट के जरिये इलेक्ट्रॉनिक आइटम जो कुछ भी आता है, उसकी बिल्टी व बिल देखकर तीन प्रतिशत चुंगी कर लगाई जाती है। पर चीनी हैंडसेट के डिलर सारा काम चोरी-छिपे करते हैं। चोरी-छिपे होने वाले इस कारोबार से विभाग चुंगी कर कैसे वसूल सकता है? इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। वहीं बिना बिल के बिकने वाले इन हैंडसेट से सरकार को लाखों रुपये का नुकसान हो रहा है। बिक्री कर विभाग के एक अधिकारी का कहना है कि चाइनामेड हैंड सेटों के बारे में संपूर्ण जानकारी जुटा रहा है कि ये कहां से कैसे आते हैं? मजे की बात यह है कि इन हैंडसेट के आईएमआई यानी इंटरनेशन मोबाइल इक्विपमेंट आईडेटिटी नंबर प्रमाणिक हैं कि नहीं, इसकी गारंटी देने वाला कोई नहीं है। हालांकि कई चाइनिज हैंडसेटों पर ये नंबर अंकित होते हैं, वे असली होते हैं या नकली? इसका जवाब दुकानदारों के पास नहीं है? जब कोई मोबाइल बिकता है, तो दुकानदार इसी आईएमआई नंबर को बिल में लिखता है। मोबाइल खोने से इसी नंबर से यह जानने की कोशिश की जाती है कि वह हैंडसेट कहां है? विभिन्न आपराधिक घटनाओं में पुलिस दोषियों के मोबाइल के इन्हीं नंबरों से ट्रैस करने की कोशिश करती है। जानकार यह भी कहते हैं कि आईएमआई नंबर गलत होने से ऐसे हैंडसेट्स के दुरुपयोग की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। सूत्रों का कहना है कि एक दिसंबर के बाद हजारों की संख्या में चाइनिज मोबइल के बंद होने के बाद एक गिरोह ऐसा सक्रिय हो गया है जो पुराने बंद हो चुके मोबाइल के ईएमआई नंबर का इसमें उपयोग कर रहे हैं।
देश की साइकिल इंडस्ट्री भी चीन से दुखी है। देश में दिनोंदिन स्टील की कीमतें बढती जा रही हैं उधर चीन सस्ती साइकिलें देश में सप्लाई कर रहा है। वह दिन दूर नहीं जब आपके बाजारों से मेड इन इंडिया लापता होगा। हर चीज मिलेगी मगर मेड इन चाइना की। हमारे उद्योग दम तोड चुके होंगे तब चीन हमारी कमर तोडेगा। फिर हम कुछ नहीं कर पाएंगे। अभी तो थोडे सस्ते के चक्कर में हम चीन को अपने घर की चौकठ दिखा रहे हैं। वह वक्त भी आएगा जब चीन हमारे बेडरूम में होगा और हम घर के बाहर। सोचने की जरूरत है।
सच तो यही है कि विश्व व्यापार समझौते के बाद भारतीय बाजार कई देशों के लिए सबसे बड़ी मंडी साबित हुआ है। विभिन्न देश अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए धड़ाधड़ अपने उत्पाद भारतीय बाजार में उतार रहे है। भारतीय अर्थव्यवस्था को बनाए रखने में भारतीय त्योहारों की अहम भूमिका है। विविध संस्कृतियों के चलते भारत में हर मौसम व हर माह में विशेष पर्व मनाया जाता है। भारतीय त्योहारों को भुनाने में चीन पहले नंबर पर आता है। होली की पिचकारी और रंग तक 'मेड इन चाइनाÓ हो गया। गत दिनों, होली के अवसर पर जब एक दुकानदार से इस बाबत पूछा तो उसने दलील दी कि हमारे यहां तो केवल वही एक घीसी पिटी पंप वाली पिचकारी बनती है, जबकि चीन की बनी पिचकारियों पर हजारों वैराइटियां मौजूद हैं। साथ ही इनकी कीमत भी काफी कम है। एक और बात यह कि इन पिचकारियों को बच्चे होली के बाद भी खिलौनों के तौर पर खेल सकते हैं। इसके अलावा चाइना मेड रंग और चाइना के गुब्बारे इस बार हमारे बाजारों में होली खेल रहे हैं। इससे पहले दीपावली पर चाइना मेड लाइट झालर और भगवान गणेश से लेकर माता लक्ष्मी तक चीन हमें मुहैया करा रहा है। नवरात्रों में होने वाले रामलीलाओं के वस्त्र और मुकुट भी मेड इन चाइना लेबल के हो चुके हैं। गौरतलब है कि छह वर्ष पूर्व चीन ने सबसे पहले दीपावली के त्योहार को ध्यान में रख कर भारतीय बाजार में रंग-बिरंगी रोशनियों वाली लाइटे व उससे संबंधित अन्य छोटी-मोटी सामग्री उतारी थी। इसके बाद पूजा के लिए देवी-देवताओं की मूर्तियां व उससे संबंधित अन्य सजावटी उत्पाद भई बाजार में आ गए। गत वर्ष तो चीन ने पटाखें भी उतार दिए हैं। देखने में आकर्षक व सस्ती होने के कारण यह उत्पाद लोगों की पहली पसंद बने हुए है। दिल्ली के एक गिफ्ट सेंटर के मालिक रमेश आहूजा का कहना है कि उनकी दुकान में अस्सी प्रतिशत सामान मेड इन चाइना है। चाइना ने भारतीय बाजार की मंशा भांपते हुए न केवल खिलौने, इलेक्ट्रिकल सामान, इलेक्ट्रानिक्स व खाद्य पदार्थ संबंधित उत्पाद बाजार में उतारे हैं।
ऐसा नहीं है कि चीन केवल इसी महकमे में है। अब तो वह दवा उद्योग में भी अपना दबदबा कायम करने लगा है। भारत में जेनेरिक दवाओं के उत्पादन में प्रयुक्त होने वाली सामग्री और सर्जिकल उपकरणों के बाजार में चीन ने अच्छा - खासा दबदबा कायम कर लिया है। भारत में दवा निर्माण में इस्तेमाल होने वाले 75 प्रतिशत इंटरमीडिएट प्रोडक्ट का आयात चीन से होता है। इसके अलावा सिरिंज , ग्लूकोमीटर , बीपी मीटर सहित हर तरह के सर्जिकल उपकरण का आयात भी चीन से हो रहा है। दुनिया के दवा बाजारों में चीन का अभी आठवां नंबर है। ब्रांड के मामले में चीन की कंपनियों ने कोई खास झंडे नहीं गाड़े हैं , लेकिन हालत यह है कि थौक में दवा बनाने की सामग्री के निर्माण में अमेरिका तक चीन पर निर्भर है। दिल्ली के भागीरथ प्लेस सर्जिकल मार्केट में बड़े पैमाने पर चीन से सर्जिकल उपकरण खरीदे जा रहे हैं। चीन में झेजियांग , गुआंगदोंग , शंघाई , जिआंगसू और हेबेई प्रांत दवा और सर्जिकल कारोबार के मुख्य गढ़ हैं। इन पांचों प्रांतों में पिछले पांच वर्ष से दवा उद्योग 20 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा है। इनमें से दो इलाकों में जबरदस्त विकास हुआ है , जबकि बाकी तीन हिस्सों में आधारभूत सेवाओं की अपेक्षाकृत कमी है। ईस्टर्न चाइना जोन और साउथ चाइना जोन के विकसित इलाकों को चीन के दवा उद्योग का विकास धुव कहा जाता है। ईस्टर्न चाइना जोन का प्रतिनिधित्व झेजियांग प्रांत और साउथ चाइना जोन का प्रतिनिधित्व गुआंगदोंग प्रांत करता है। चीन के कुल उत्पादन में इन प्रांतों की भागीदारी 25 प्रतिशत है।
ये तो कुछ ऐसे सेक्टर हैं जो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते हैं। कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं जिनमें चीन अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय बाजार में दखल बनाए हुए हैं। 'सेक्स टॉयÓ और 'पोर्न फिल्मेंÓ कुछ इसी प्रकार के हैं। देश की राजधानी दिल्ली में जब इनकी उपलब्धता है तो और जगहों की बात ही क्या किया जाए। तथाकथित अतिआधुनिकता के लिपटे में अवसादग्रस्त पुरूष-महिला इसका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं। क़ानून के मुताबिक़ भारत में 'सेक्स-ट्वायÓ बेचने पर प्रतिबंध है। हालांकि इसमें 'सेक्स-ट्वायÓ का जि़क्र नहीं है लेकिन कहा गया है कि ऐसी कोई भी सामग्री जो समाज में अश्लीलता फ़ैलाए उसे बेचना क़ानूनन अपराध है। साथ ही कई सैक्स रेकैटों के पर्दाफाश होने से में भी चीनी बालाओं का नाम सामने आया है।
कुछ साल पहले देश के बाज़ारों में चीन में बने सामानों की बाढ़ आ गई थी। खिलौने से लेकर झालर-मालर सब चीन के बिकने लगे थे। दो रूपए में इलेक्ट्रिक टॉर्च से लेकर और जाने क्या क्या? सब कुछ ऐसा लगता था कौडिय़ों के मोल मिलने लगा हैं। जिसे देखों वहीं चीन के गुण गाता फिरता, कम दामों में अगर बढिय़ा सामान मिले तो कोई ये क्यों ले चीन वाला न ले। चारो तरफ चिंताएं दिखने लगी। ये क्या चीन ने तो हमारे बाज़ारों पर कब्जा कर लिया। लोगों को इसमें चीन की साजिश भी नजऱ आती थी। ज्ञान बांटने वालों की नजऱ में चीन चतुरायी से भारत के निचले दर्जे के की अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर रहा था। हमारे यहां का मजदूर वर्ग बेरोजगार हो जाएगा। चीन दिवाली के दीए से लेकर होली के रंग तक बना कर हमारे लघु उद्योगों को बर्बाद करने की साजिश रच रहा है। हालांकि इस प्रकार के चिंताओं के बीच हवा से भरा ये गुब्बारा जल्द ही फुस्स होकर धड़ाम बोल गया। वजह थी रिलाएबिलिटी, विश्वसनीयता और गुणवत्ता। चीनी सामान इन सभी पैमानों पर लूले नजऱ आने लगे। दस रूपए की टॉर्च दुकान से घर पहुंचते-पहुंचते कराहने लगती थी। दिवाली के झालर अगली दिवाली पर टिमटिमाना भूल जाते थे। खिलौने चलते चलते दम तोड़ देते थे। तब लोगों को इनकी असलियत का अंदाज़ा हुआ। आखिर भारतीय खरीददार ठहरा। हर चीज़ को ठोंक पीट कर उसकी मजबूती का अंदाज़ा लगा कर ही अंटी से पैसा ढीला करता है। यहां बात-बात में ये कहने का चलन तो आपको भी पता होगा कि, फलां चीज़ हमारे दादा के ज़माने की है। अब इस तरह की सामाजिक ताने बाने वाली मानसिकता में चीनी कब तक अपनी टुकटुकिया चमकाते। लिहाजा चार दिन की चांदनी के बाद आयी अंधेरी रात चीनी सामानों के लिए काल बन गई।
आज हालत यही है कि हमारी तरक्की को दिखाने वाले सारे प्रतीक चिन्हों पर चीन ने कब्जा कर रखा है। चीन की तरक्की की वजह भी साफ पता चल जाती है। दुनिया जिन सामानों को आगे इस्तेमाल करने वाली हो, उसे बनाने में आगे निकलो। दुनिया के बाजार को अपने माल से पाट दो, जब तक दुनिया को ये समझ में आएगा कि ये सामान कहां से आ रहा है तब तक दुनिया उन्हीं सामानों की आदी हो जाएगी। ये बात भारतीय कंपनियों के लिए समझने की है।

सोमवार, 15 मार्च 2010

कैसे भला होगा हिंदी का

सरकार का राजभाषा विभाग और उसके माध्यम से अधिकांश सरकारी विभागों-निकायों यहां तक कि बैंकों में भी सूचना पट्टï टंगे दिखाई पड़ते हैं कि यदि आप हिंदी में कार्य करेंगे तो हमें प्रसन्नता होगी। हिंदी में काम करने और करवाने के लिए प्रेरणा। शब्दों और शब्द पट्टिïयों के सहारे। जबकि वास्तविकता इससे कोसों दूर है। तमाम नौकरशाह सरकारी कामकाज अंग्रेजी में ही करते हैं। बैंकों में भी उसके कर्मचारी अंग्रेजी में भी कागजी कार्रवाई कराते हैं जिससे कंप्यूटर में डाटा संग्रहण के दौरान उन्हें अतिरिक्त मेहनत नहीं करना पड़े।
इसके उलट पहलू और भी हैं। एक तरफ जहां सरकार राजभाषा हिंदी के व्यापक प्रचार प्रसार पर जोर देने की बात कहती है वहीं वित्त वर्ष 2010-11 के बजट में इस मद में आवंटित राशि में पिछले वर्ष की तुलना में दो करोड़ रुपए की कटौती की गई है। हिंदी के साहित्यकारों का कहना है कि बजट में इस मद में घटाई गई राशि बताती है कि सरकार की राजभाषा को उचित दर्जा देने की मंशा ही नहीं है।
वित्त वर्ष 2010-11 के आम बजट में राजभाषा के मद में 34.17 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है जबकि चालू वित्त वर्ष 2009-10 के बजट में इस खंड में 36.22 करोड़ रुपए दिए गए थे। सो, ज्ञानपीठ के निदेशक और जानेमाने साहित्यकार रवीन्द्र कालिया का कहना है कि सही मायने में यह हिंदी के साथ अन्याय है। जहां एक तरफ इस मद में बजट बढ़ाए जाने की जरूरत थी वहीं सरकार राशि को घटा रही है। जाने माने कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी भी मानते हैं कि यह राजभाषा के नाम पर पाखंड है। दरअसल, सरकार राजभाषा के नाम पर जो भी करती है वह शुद्ध आलंकारिक है। हिंदी के विकास की उसकी मंशा ही नहीं है। देश की आजादी के 62 वर्ष से अधिक हो गए हैं लेकिन किसी भी सरकार ने हिंदी को राजभाषा के विकास की दिशा में ठोस काम नहीं किया। हिंदी को जो प्रचार प्रसार हुआ भी वह फिल्मों, टेलीविजन चैनल या अन्य साधनों के जरिए हुआ है।
उल्लेखनीय है कि सरकार राजभाषा के विकास के अंतर्गत केंद्रीय कर्मचारियों को हिंदी सिखाने, केंर्द्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो के परिचालन और गैर-हिंदी राज्यों में क्षेत्रीय क्रियान्वयन कार्यालय का संचालन करती है। अप्रैल, मार्च 2010-11 के बजट प्रस्तावों में राजभाषा के लिए आवंटित 34.17 करोड़ रुपए में 5.50 करोड़ रुपए योजनागत व्यय और 28.67 करोड़ रुपए गैर-योजनागत व्यय के लिए रखे गए हैं। चालू वित्त वर्ष के राजभाषा बजट में योजनागत और गैर-योजनागत व्यय के लिए 5.50 करोड़ रुपए और 30.72 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। रवींद्र कालिया कहते हैं, अगर सचमुच में हम राजभाषा को उचित दर्जा देने चाहते हैं तो सरकार को अपना रवैया बदलना होगा। वहीं वाजपेयी ने कहा कि राजभाषा विभाग का गठन या उसका बजट महज रस्म अदायगी है और अगर रस्म अदायगी पर आवंटित राशि कम हो जाए तो यह चिंता का कारण नहीं होना चाहिए।

रविवार, 14 मार्च 2010

आओ मनाएं नया साल

- विनोद बंसल
पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण व अंग्रेजियत के बढते प्रभाव के बावजूद भी आज चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो या जन्म कीे, नामकरण की बात हो या शादी की, गृह प्रवेश की हो या व्यापार प्रारम्भ करने कीे, सभी में हम एक कुशल पंडित के पास जाकर शुभ लग्न व मुहूर्त पूछते हैं। और तो और, देश के बडे से बड़े राजनेता भी सत्तासीन होने के लिए सबसे पहले एक अच्छे मुहूर्त का इंतजार करते हैं जो कि विशुद्ध रूप से विक्रमी संवत् के पंचांग पर आधारित होता है। भारतीय मान्यतानुसार कोई भी काम यदि शुभ मुहूर्त में प्रारम्भ किया जाये तो उसकी सफलता में चार चांद लग जाते हैं। वैसे भी भारतीय संस्कृति श्रेष्ठता की उपासक है। जो प्रसंग समाज में हर्ष व उल्लास जगाते हुए एक सही दिशा प्रदान करते हैं। उन सभी को हम उत्सव के रूप में मनाते हैं। राष्ट्र के स्वाभिमान व देश प्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुड़े हुए हैं। यह वह दिन है जिस दिन से भारतीय नव वर्ष प्रारम्भ होता है।
आज से एक अरब 97 करोड़, 39 लाख 49 हजार 108 वर्ष पूर्व इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना इसी दिन की थी। साथ ही प्रभु श्रीराम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या आने के बाद राज्याभिषेक के लिये चुना। शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात्, नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन। इसी के साथ कई और प्रसंग हैं। दूसरी तरफ पतझड की समाप्ति के बाद वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है। शरद ऋतु के प्रस्थान व ग्रीष्म के आगमन से पूर्व वसंत अपने चरम पर होता है। फसल पकने का प्रारंभ यानी किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।
यदि इसके वैज्ञानिक दृष्किोण की बात की जाए तो विश्व में सौर मण्डल के ग्रहों व नक्षत्रों की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं। इसमें खगोलीय पिण्डों की गति को आधार बनाया गया है। हमारे मनीषियों ने पूरे भचक्र अर्थात 360 डिग्री को 12 बराबर भागों में बांटा जिसे रााशि कहा गया। प्रत्येक राशि तीस डिग्री की होती है जिनमें पहली का नाम मेष है। एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। पूरे भचक्र को 27 नक्षत्रों में बांटा गया। एक नक्षत्र 13 डिग्री 20 मिनिट का होता है तथा प्रत्येक नक्षत्र को पुन: 4 चरणों में बांटा गया है जिसका एक चरण 3 डिग्री 20 मिनिट का होता है। जन्म के समय जो राशि पूर्व दिशा में होती है उसे लग्न कहा जाता है। इसी वैज्ञानिक और गणितीय आधार पर विश्व की प्राचीनतम कालगणना की स्थापना हुई।
एक जनवरी से प्रारम्भ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैंं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया। भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने 1752 में किया। अधिकांश राथ्ट्रो के ईसाई होने और अग्रेंजों के विभवव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विभव के अनेक देशों ने अपनाया। १७५२ से पहले ईस्वी सन् २५ मार्च से भाुरू होता था किन्तु १८वीं सदी से इसकी भाुरूआत एक जनवरी से होने लगी। ईस्वी कलेण्डर के महीनों के नामों में प्रथम छ: माह यानि जनवरी से जून रोमन देवताओं (जोनस, मार्स व मया इत्यादि) के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासों के आधार पर रखे गये। जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों केे माने गये आखिर क्या आधार है इस काल गणना का? यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए।
ग्रेगेरियन कलेण्डर की काल गणना मात्र दो हजार वर्थों के अति अल्प समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना ३५७९ वर्थ, रोम की २७५६ वर्थ यहूदी ५७६७ वर्थ, मिश्र की २८६७० वर्थ, पारसी १८९९७४ वर्थ तथा चीन की ९६००२३०४ वर्थ पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिथ के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब ९७ करोड़, ३९ लाख ४९ हजार १०८ वर्थ है। हमारे प्रचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गयी है।
जिस प्रकार ईस्वी सम्वत् का सम्बन्ध ईसा जगत से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत और हजरत मुहम्मद साहब से है। किन्तु विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृथ्टि की रचना व राथ्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है। इतना ही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नव संवत् यानि संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के २७वें व ३०वें अध्याय के मंत्र क्रमांक क्रमश: ४५ व १५ में विस्तार से दिया गया है। क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम जाग सके, स्वाभिमान जाग सके या श्रेष्ठ होने का भाव जाग सके ?
नव वर्थ की पूर्व संध्या पर दीप दान करें। घरों में सायंकाल ७ बजे घंटा घडियाल व शंख बजा कर मंगल ध्वनि करके इसका जोरदार स्वागत करें। भवनों व व्यावसायिक स्थलों पर भगवा पताका फहराऐं तथा द्वारों पर विक्रमी संवत २०६७ की शुभ कामना सूचक वाक्य लिखें। होर्डिंग, बैनरों, बधाई पत्रों, ई-मेल व एस एम एस के द्वारा नव वर्थ की बधाई व शुभ कामनाऐं प्रेषित करें। नव वर्थ की प्रात: सूर्योदय से पूर्व उठकर मंगलाचरण कर सूर्य देव को प्रणाम करें, प्रभात फेरियां निकालें, हवन करें तथा एक पवित्र संकल्प लें। भारत में अनेक स्थानों पर इस दिन से नौ दिन का श्री राम महोत्सव भी मनाते हैं जिसका समापन श्री राम नवमी के दिन होता है।
तो, आइये! विदेशी को फैंक स्वदेशी अपनाऐं और गर्व के साथ भारतीय नव वर्ष यानि विक्रमी संवत् को ही मनायें तथा इसका अधिक से अधिक प्रचार करें।
पता : ३२९, द्वितीय तल, संत नगर, ईस्ट ऑफ कैलाश, नई दिल्ली।

शनिवार, 13 मार्च 2010

आईपीएल का मतलब

आईपीएल यानी क्रिकेट का वह फार्मेट जिसमें खेल और बाजार पूरी तरह एक-दूृसरे से गु्रंथा हुआ है। जैसे एक के बिना दूसरा अपंग। आईपीएल रनों की बरसात के कारण जहां दर्शकों को आकर्षित करती है, वहीं प्रायोजक भी करोड़ों रुपये लुटाने को तैयार बैठे रहते हैं। बाजार का नया दस्तूर बनता जा रहा है पहले लुटाओ फिर कमाओ। तभी तो अगले यानी आईपीएल का जब चौथा संस्करण के लिए आनलाइन मैच प्रसारण के अधिकार यू ट्यूब को देने की बात हो रही है। जाहिरतौर पर आईपीएल के जरिए भारतीय क्रिकेट बोर्ड भी धनवर्षा मेंं ताबरतोड़ भीग रहा है। मंदी थल्ले-थल्ले, बोर्ड-क्रिकेटर बल्ले-बल्ले ।
यह अनायास नहीं है कि पीटरसन, फ्लिंटाफ और धोनी जैसे क्रिकेटर एक एक सत्र के छह-छह करोड़ झटक रहे हैैं तो नवोदित क्रिकेटरों की भी चांद कट रही है। आंकडों के लिहाज से देखा जाए तो आईसीसी की कुल आय का लगभग सत्तर फीसदी भारतीय कोटे से मिलता है। आईपीएल की आमदनी का मुख्य जरिया इसकी टीमों की बिक्री, स्टेडियम में लगने वाले विज्ञापनों के होर्डिंग एवं इसके मैचों का प्रसारण करने वाले टेलीविजन चैनल से मिलने वाली राशि से होता है। आईपीएल की शुरुआत में ही उसके अधीकृत चैनल सेटमैक्स से नौ साल के प्रसारण के लिए उसका 9000 करोड़ रुपयों का भारी भरकम करार हो चुका है। अब सेटमैक्स को इस करार की अदायगी के साथ-साथ अपने लिए लाभ भी अर्जित करना है। इसके लिए इस बार उसने अपनी विज्ञापन दरें बढ़ा दी हैं। आईपीेल-1 में जहां 10 सेकेंड के विज्ञापन स्लाट की कीमत तीन लाख एवं आईपीएल-2 में चार लाख थी। इस बार 10 सेकेंड के विज्ञापन स्लाट की सामान्य कीमत पांच लाख रुपये है। इसके बावजूद विज्ञापन के 90 प्रतिशत स्लाट बिक चुके हैं। शेष बचे 10 प्रतिशत स्लाट के लिए मैक्सप्रति 10 सेकेंड के लिए 10 लाख रुपये तक वसूलने की तैयारी कर चुका है।
जब देश की राजनीति महंगाई और महिला आरक्षण को लेकर गर्मा रही हो तो देशवासियों के रग-रग में समा चुका क्रिकेट भला कैसे अछूता रह सकता। हर धमनियों में बहने वाले इस 'रक्तÓ को धमकना ही था। अपने उपिस्थिति का एहसास भी। तभी तो आईपीएल में पाकिस्तानी क्रिकेटरों का न खिलाना आफत का सबब बना था ललित मोदी एंड कंपनी के लिए। आईपीएल पर हायतौबा मची । देश का गृह मंत्री सार्वजनिक तौर पर कहता है कि वह आईपीएल में पाकिस्तानी क्रिकेटरों को देखना पसंद करते हैं लेकिन जैसे ही बंगाल टाइगर्स के मालिक शाहरुख खान यह बात दोहराते हैैं तो पूरी मुंबई में बवाल काटा जाता है। विरोध करने के लिए पोस्टर फाड़े जाते हैैं किंग खान के और सीधे-सीधे केंद्र सरकार की इस मसले पर दोहरे मानंदडों की कलई खुलती है।
यह तो रही विदेशी टीमों के नखरेबाजी की कहानी। आईपीएल को लेकर घर में महाभारत मचा हुआ है। आंध्रप्रदेश में हर रोज विरोध प्रदर्शन हो रहे हैैं। दरअसल ललित मोदी ने हैदराबाद में होने वाले मैैच अन्यत्र शिफ्ट कर दिए हैैं। ललित मोदी के मनमाने रवैये का इसी से पता चलता है कि उन्होंने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रोसैया की वह अपील भी अनेदेखी कर दी, जिसके तहत उन्होंने मैच शिफ्ट न करने का अनुरोध किया था और आईपीएल मुकाबलों के लिए समुचित व्यवस्था कराने की जिम्मेदारी लेने की बात की थी। यही हाल मुंबई में भी है। उत्तर भारतीयों के खिलाफ विष वमन रहे बाल साहेब ठाकरे धमकी दे रहे हैैं कि वह आस्ट्रेलियाई टीम को मुंबई में नहीं खेलने देंगे।
नफरत की राजनीति में पारंगत इस बुजुर्ग सियासतदां का तर्क है कि चूंकि आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले हो रहे हैैं, ऐसे में वह आस्ट्रेलिया को आईपीएल में नहीं खेलने देंगे। साथ में सवाल यह भी उठता है कि आईपीएल पर उस समय केंद्र ने खामोशी की पारी क्यूं खेली जब बीसीसीआई के धुरंधर और टीम प्रायोजक आईपीएल थ्री के लिए बोली लगा रहे थे। वह शाहरुख खान हो या फिर विजय माल्या या प्रिटी जिंटा, किसी ने भी पाकिस्तानी क्रिकेटरों को ख्ररीदने की हिम्मत नहीं दिखाई। देश में लेकिन सवाल फिर वही उठता है कि क्या आईपीएल के मुखिया ललित मोदी केंद्र से बड़े हो गए हैैं और यदि वह पाकिस्तान के साथ रिश्तों को आधार बना कर पाक क्रिकेटरों को न चुनने का तर्क दे रहे हैैं तो फिर चिदंबरम साहब किस आधार पर पाकिस्तानी क्रिकेटरों के हुनर के मुरीद होते दिख गए चंद दिन पहले। दरअसल, अब वक्त आ गया है कि बीसीसीआई धन दोहन के इस सरपट दौड़ में खुद को आईने के समक्ष रख कर देखे।

गुरुवार, 11 मार्च 2010

कट्टïरता के चंगुल में अफ्रीका

अपेक्षाकृत अशिक्षित और अविकसित अफ्रीकी देशों में कभी संस्कृति और परंपरा के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर कट्टरता का फैलाव हो रहा है। नतीजतन अलग-अलग कबिलाई इलाकों और अलग अलग मान्यताओं में विश्वास रखने वाले लोगों के बीच संघर्ष की घटनाएँ भी तेजी से बढ रही है। इसका भोग बन रही हैं वहाँ की महिलाएँ और बच्चे। नाइजीरिया सहित अफ्रीका महाद्विप के अनेक देशों में महिलाओं के साथ बलात्कार किए जाने और उनकी हत्या किए जाने की घटनाएँ चिंताजनक रूप से बढ रही है।
और तो और, धर्म और संस्कृति के नाम पर बच्चियों के शरीर के साथ खिलवाड़ किया जाता है और उनके प्रजनन अंगों का बेरहमी से ऑप्रेशन कर दिया जाता है। अफ्रीकी महाद्वीप में कई ऐसे देश हैं, जहां मासूम बच्चियों को इस क्रूर रिवाज का सामना करना पड़ता है। चार से बारह साल की उम्र में उनके जननांगों के कुछ हिस्से को आपरेशन करके हटा दिया जाता है।
हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने इस खतरनाक परंपरा के खिलाफ मुहिम चलाई है और हर साल छह फरवरी का दिन इसके खिलाफ संघर्ष के प्रति समर्पित किया है। फिर भी इस पर अंकुश लगाना संभव नहीं दिख रहा है। मान्यताओं के अनुसार करीब दो हजार साल पहले अफ्रीका के कुछ देशों में इस बर्बर परंपरा की शुरुआत हुई, जिसे बाद में धार्मिक रूप देने की भी कोशिश की गई। स्थानीय लोगों की मानें तो यहां यह ऑपरेशन आम बात है। सब करते हैं। एक अच्छी मुसलमान लड़की को ऐसा करना है क्योंकि अगर हम अपनी बेटियों का ऑपरेशन नहीं करवाया तो कोई उनसे शादी नहीं करेगा। खतरे तो इसमें कोई नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की वेबसाइट बताती है कि दुनिया भर में इस वक्त दस से चौदह करोड़ महिलाएं इस कुप्रथा के साथ जीने को विवश हैं। अफ्रीका में तो हर साल कऱीब तीस लाख बच्चियों को इस सदमे से गुजऱना पड़ता है। बताया जाता है कि इस ऑप्रेशन के लिए माहिर डॉक्टरों की मदद नहीं ली जाती, बल्कि गांव देहात की दाई या नीम हकीम ही ऑप्रेशन कर देते है। कांच के टुकड़े से, रेजऱ से, या चाकू से। कई मौक़ों पर बच्चियों को बेहोशी की दवा भी नहीं दी जाती और तड़पते हुए उन्हें इस डरावने एहसास से गुजऱना पड़ता है। हालांकि कुछ मौक़ों पर डॉक्टरों की भी मदद ली जाती है।
सच तो यह भी है कि विगत वर्षों में इस्लामिक कट्टरता का प्रभाव अफ्रीका के विभिन्न देशों में बढा है। नाइजीरिया भी इससे अछूता नहीं रहा है। नाइजीरिया में 50 फीसदी मुस्लिम आबादी है। बाकी कि 50 फीसदी आबादी में से 40 फीसदी ईसाई हैं और 10 फीसदी विभिन्न मतों को मानने वाले कबिलाई लोग हैं। नाइजीरिया में 50 फीसदी लोग इस्लाम धर्म का पालन करते हैं और देश के लगभग आधे भूभाग पर शरिया कानून लागू है। इन इलाकों में इस्लामिक समूहों के द्वारा ईसाईयों पर हमले किए जाने की घटनाएँ बढ रही है। नाइजीरिया में पिछले दिनों मिसाटे विल्डिंग गैंग के द्वारा एक ईसाई गाँव पर हमला किया गया। इस हमले में करीब 500 लोग मारे गए थे। इस हमले से सकते में आई नाइजीरिया की सरकार ने वहाँ सेना भेजी और उसके बाद स्थिति काबू में आई। इस हमले से कुछ ही दिन पहले मुस्लिम-ईसाई दंगे में सैंकड़ो लोग मारे गए थे। हमलावरों ने अल्लसुबह बजे यह हमला किया और हमले से पहले हवा में फाइरिंग की। इसके बाद जो भी व्यक्ति घर से बाहर निकला उसे गोली मार दी गई। हमलावरों ने लोगों को पकडऩे के लिए मछली पकडऩे वाले जाल और जानवरों को पकडऩे वाले सीकंजे का भी इस्तेमाल किया था।
दरअसल, नाइजीरिया में विभिन्न कबीले अब धार्मिक आधार पर बँटने लगे हैं। इन कबीलों के बीच आपसी संघर्ष होता रहता है। कबीलों के पुरूष दूसरे कबीले के महिलाओं को अगुवा कर बलात्कार करते हैं। इसके अलावा दूसरे कबीले के जानवरों की चोरी भी की जाती है। लेकिन विगत वर्षों में आपसी संघर्ष की वजहों में एक वजह धार्मिक कट्टरता भी हो गई है। धार्मिक कट्टरता और शत्रुता का यह माहौल पुरूषों के द्वारा तैयार किया गया है लेकिन इन सबका भोग बनती हैं महिलाएँ और मासूम बच्चे।

सोमवार, 8 मार्च 2010

बाजार तो हद पार कर रहा

आज हमारे-आपके हर क्रिया-कलाप बाजार से संबद्घ है। हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, क्या करते हैं - सब बाजार तय करने लगा है। महानगरों से शहर और शहर से गांव - हर जगह यही हाल है। और बाजार है कि सुरसा की भांति अपना दायरा बढ़ाता ही जा रहा है। न कोई नैतिकता, न कोई संवेदना। केवल है तो बस बाजार। माल और ग्राहक का रिश्ता। और जब ये बनता है तो किसी भी हद की बात करनी ही बेमानी है।
तभी तो आजकल कण्डोम, जिसका उच्चारण भी सार्वजनिक जगहों पर करने से कई लोग कतराते हैं, उसका इस्तेमाल रोजमर्रा की चीजों में हो रहा है। कोई आश्चर्य नहीं। पुरूष कण्डोम से महिलाओं के लिए बालों में लगाने वाले रबर बनाए जा रहे हैं तो महिला कण्डोम से चूडिय़ाँ। ऐसा नहीं है कि इसके लिए फ्रेश कण्डोम का इस्तेमाल हो रहा है। बल्कि प्रयोग के बाद परित्यक्त कण्डोम का प्रयोग होता है।
सच तो यही है कि चीन में हेयर बेंड उपयोग में लाए गए कंडोम और धागो से बनाई जाने लगी है। तभी तो वह दूसरे देशों में अपने उत्पदों को इतना सस्ता करके बेच रहा है। मालूम है यह पढकर आप को खिन्न महसूस हो रहीं होगी... .लेकिन दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि यह सत्य है...
कुछ समय पूर्व बीजिंग के एक अखबार में समाचार एजेंसी एएफपी के हवाले से तो यही कहा गया था कि दक्षिणी चाईना में उपयोग में लाए गए कंडोम से बनी हेयर बेंड यहाँ के लोगो के बीच में यौन संबंधित बिमारियों को बढ़ाने का काम कर रही है। चाईना के स्थानीय अखबारों के अनुसार यहाँ के दक्षिणी गुएन्गडोंग प्रांत के डोनगुएन और गुएन्गजोउ शहर की स्थानिय बाजार से प्राप्त यह रबर बेन्ड को जब खोला गया तो उसमे सें उपयोग किए गए कंडोम मिल आए... अखबार ने कहा कि 'सस्ती कीमतमें बिकने वाले यह रंगबिरंगी हेयर बेंड की यहाँ सेलिंग बहुत बढिय़ा है.. चूँ कि यह हेर बेन्ड उपयोग में लाए गए कंडोम से बनाई जाती है जिस के कारण उसमें अभी भी बेक्टेरिया और वाईरस रहते हैं। यहाँ कि महिलाएं यह भी नहीं जानती कि जब वह अपनी चूँटिया बनाने के लिए जब यह हेयर बेंड एक हाथ और मुह से खोलकर जब अपने बाल पर लगाती है तो न चाँहते हुए भी उनके मुह में बिमारी के वायरस दाखिल हो जाते हैं। सच तो यह भी है कि 10 हेयर बेन्ड की कीमत 25 फेन ( तीन सेन्ट) है जो अन्य बाजार कि तुलना में बहुत सस्ती है। यहाँ के प्रशासनिक अधिकारी भी कह रहे है कि रबर के बदले हेयर बेन्ड में उपयोग में लाए गए कंडोम का ईस्तेमाल गैरकानूनी है।
ये तो हुई चीन की बात। जरा दूरी तय करें तो जिम्बावे में महिला कण्डोम से चूडिय़ां बनाने की खबर आई है। जि़म्बाब्वे में कुछ व्यापारियों ने मुनाफ़ा कमाने एक ऐसा अनोखा तरीक़ा निकाला है जिसके बारे में कुछ लोगों का कहना है कि इससे उनकी रचनात्मकता भी झलकती है। ये रचनात्मक तरीक़ा है महिला कंडोम के छल्लों को चूडिय़ों की शक्ल देकर ग्राहकों को आकर्षित करना। दरअसल, कुछ व्यापारियों ने महिलाओं द्वारा प्रयोग किए जाने वाले कंडोम के रंग-बिरंगे रबर के छल्लों से चूडिय़ाँ बनानी शुरू कर दी हैं और इनकी बिक्री में ख़ासी कमाई हो रही है.
दुकानदारों के लिए तो यह धंधा ख़ूब फल-फूल रहा है लेकिन जो लोग अनुदान का सहारा लेकर बनाए गए इन कंडोम को बाँटने का काम करते हैं, उनका कहना है कि इस धंधे पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए। राजधानी हरारे में एक दुकानदार का कहना था, ये छल्ले बहुत ख़ूबसूरत हैं। उन्हें पहनना मुझे बहुत अच्छा लगता था लेकिन जब मुझे पता चला कि उन्हें कंडोम से बनाया गया तो मैंने उन्हें तुरंत फेंक दिया। हमें ये कंडोम अस्पतालों और क्लीनिक से मुफ़्त मिलते हैं। हम उनका प्लास्टिक काटकर फेंक देते हैं और छल्ला निकाल लेते हैं। इन छल्लों को हम तरह-तरह के रंगों जैसे कि- गुलाबी, पीले और लाल रंगों में रंग लेते हैं।
दरसअल, सरकार एचआईवी-एड्स के ख़िलाफ़ अभियान के तहत कंडोम लोगों को मुफ़्त बाँटती है। एक अनुमान के मुताबिक़ जि़म्बाब्वे के कऱीब 25 प्रतिशत वयस्क एचआईवी से संक्रमित हैं। जि़म्बाब्वे दक्षिण अफ्रीका में एक ऐसा देश है जहाँ महिला कंडोम बड़ी मात्रा में इस्तेमाल किए जाते हैं और हर साल कऱीब दस लाख कंडोम इस्तेमाल होते हैं। एक सहायता एजेंसी पॉपुलेशन सर्सिसेज़ इंटरनेशनल (पीएसआई) महिला कंडोम दवाई की दुकानों और ब्यूटी सैलूनों में बाँटती है। पीएसआई की एक कार्यकर्ता का कहना है कि महिला कंडोम पुरुष कंडोम के मुक़ाबले ज़्यादा महंगे बनते हैं इसलिए दानकर्ता देशों का दबाव है कि महिला कंडोम का इस्तेमाल सही तरीक़े से होना चाहिए।

गुरुवार, 4 मार्च 2010

अनुभा का खत

अनुभा मकान के दूसरे तल्ले में अपनी सहेलियों से घिरी बैठी है। नीचे उसके विवाह की तैयारियां हो रही थीं पर वह इससे बेपरवाह खामोश बैठी सामने दीवार की ओर देख रही थी जिस पर बकरी को ले जाते हुए एक कसाई का चित्र उभर-उभर कर आता था।
तब वह लगभग आठ साल की थी। एक बकरी ने बच्चा जना था। बर्फ-सा सफेद और रेशम सा नर्म। वह बच्चा उसे बहुत प्यारा लगता था। उसे वह हमेशा गोद में उठाए रहती। रात को साथ ही सुलाती। जब बड़ी हुई तो उसे मैदान में चराने ले जाने लगी। तभी एक दिन लाल आंखें और लंबी मूंछों वाला एक भयानक आदमी देखा। बापू से मोल-भाव किया। जेब से निकाल कर कुछ नोट बापू को दिए और उसे लेकर चलता बना। रोटी रह गई थी वह। उस दृश्य से बचने के लिए उसने अपना ध्यान उधर से हटा लिया और दरवाजे में से सामने पहाड़ों की ओर देखने लगी।
इन पहाड़ों के पीछे दूर कहीं दिल्ली है और उसके मानसपटल पर उस महानगरी में बिताए दिनों की याद उभर आई। सर्दियों की एक उदास शाम थी। बहन-बहनोई बच्चों सहित डिस्पेंसरी गए थे। क्वार्टर का दरवाजा अंदर से बंद किए अंगीठी के पास बैठी वह स्वेटर बुन रही थी। अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। उठकर उसने दरवाजा खोला। सामने चौबीस-पचीस साल का एक गोरा स्वस्थ 'स्मार्टÓ नौजवान खड़ा था।
पंडित मुंशीराम जी हैं घर पर?
नौजवान की बोली में पहाड़ी बोली का पुट था जिससे अनुभा जान गई थी कि वह भी उन्हीं के ही इलाके का है।
जी...नहीं... डिस्पेंसरी गए हैं, उसने उत्तर दिया।
आएं तो कहना... कल मिश्रटोला सुधार सभा की बैठक है। जरूर बोल देना...
मिश्रटोला सामुदायिक भवन में 'मिश्रटोला सुधार सभाÓ की बैठक हो रही थी। प्रांगण में तीस-चालीस आदमी दरी पर बैठे थे। अनुभा भी बहन के साथ बाहर धूप में बैठी देख रही थी। एक के बाद दूसरा आदमी उठकर बोल रहा था। किसी ने कहा, हमारे मुहल्ले में एक अच्छा स्कूल होना चाहिए। किसी ने कहा यहां सबसे जरूरत पक्की सड़क एवं नाला की व्यवस्था होनी चाहिए। किसी ने कहा यहां एक अस्पताल होना चाहिए। अनुभा कुछ ऊब सी गई थी। तभी वह नौजवान जो पिछले दिन घर आया था बोलने के लिए खड़ा हुआ। अनुभा के कान अकस्मात उधर लग गए।
वह कह रहा था- हमने बहुत-सी समस्याओं पर विचार किया लेकिन एक समस्या है जिस पर हममें से किसी का भी ध्यान नहीं गया है। वह है हमारे इलाके में औरतों की बेहद बुरी दशा। उनसे गुलामों की तरह काम लिया जाता है। उच्च शिक्षा की बात ही क्या, अधिकतर लड़कियों को प्राइमरी तक की शिक्षा भी नसीब नहीं हेाती। यही नहीं, बहुत से गरीब घरों में अभी भी आजादी के इतने वर्ष बाद भी लड़कियों को भेड़-बकरियों की तरह खरीदा बेचा जाता है। लगभग दस मिनट तक वह बोलता रहा और जब उसने बोलना बंद किया तो लोगों ने तालियां पीटीं। इसके बाद सबने प्रण लिया कि वे इस समस्या को हल करने में सभी की हर प्रकार की सहायता करेंगे।
अनुभा को संजू की बातें बहुत अच्छी लगीं। वह उसे बधाई देने के अवसर खोज रही थी। आखिर एक दिन उसे अवसर मिल ही गया। उसकी बहन को लड़का हुआ था और इसी सिलसिले में वह बधाई देने आया था।
बधाई हो... दरवाजा पार करते हुए चेहरे पर मधुर मुस्कान लाते हुए उसने कहा
आपको भी ... अनुभा ने कुर्सी सरकाते हुए उत्तर दिया। बैठिए... वह कुर्सी पर बैठ गया था। कई क्षणों तक कोई कुछ बोला नहीं। फिर अनुभा ने झिझकते हुए कहा- आपने उस दिन बहुत अच्छी बातें कहीं... बहुत ही अच्छी...
तुम्हें पसंद आईं?
बहुत। अनुभा की झिझक अब कुछ कम हो गई थी। आप सोलह आने सच बोलेे। औरतों की दशा तो हमारे यहां जानवरों से भी बदतर है। काम की बात नहीं, काम तो करना चाहिए लेकिन आज के जमाने में जो भी भेड़-बकरियों की तरह...
बहन को ही देखिए... यह कहते हुए उसका गला भर आया।
संजू भी उदास हो उठा। उसने कहा- बिलकुल ठीक लेकिन अगर अधिक देर तक यह जुल्म नहीं चल सकता। जैसे-जैसे स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार होता जाएगा, वैसे-वैसे उनमें जागृति आती जाएगी और औरतें अपनी दशा सुधारने के लिए आगे आएंगी।
तुम पढ़ी हो अनुभा...?
जी नहीं... हमारे गांव में स्कूल ही कहां है?
तुम्हें पढऩा चाहिए। पढ़-लिखकर ही कोई इनसान बनता है। अच्छा अब चलूं। फिर कभी मिलूंगा...
और दूसरे ही दिन वह बाजार से हिंदी बोध किताब खरीद लाई थी। महीने भर की कठिन मेहनत के बाद वह एक-एक शब्द जोड़कर किताब पढऩे लायक हो गई थी। संजू को उसकी प्रगति देखकर आश्चर्य होता था। वह कहता- तुम्हारा दिमाग बहुत तेज है अनुभा। एक साल में ही तुम रत्न और भूषण क्या प्रभाकर तक पास कर सकती हो।
लेकिन प्रभाकर पास करना अनुभा के भाग्य में कहां लिखा था। चार माह में ही वह दिल्ली में अनचाही हो गई और उसका बहनोई उसे गांव छोडऩे चल दिया। जाते समय संजू ने कहा था- भूल मत जाना अनु... याद रखना कि दिल्ली में भी तुम्हारा कोई है। अनुभा के मुंह से एक सर्द आह फूट पड़ी थी।
सहसा नीचे शोर मचा। बारात आ गई थी। सब लोग अपना-अपना काम छोड़कर बारात देखने भाग खड़े हुए। अनुभा के पास बैठी सहेलियां भी उठकर चल दी। अनुभा अकेली रह गई।
बाजे बजने का स्वर क्रमश: तेज होता जा रहा था। अनुभा की छाती में एक अजीब सी हलचल उठी मानो भीतर बहुत भीतर कोई तेज आरी से चीर रहा हो। बाजे-गाजे... खुशियां किसलिए...?
जिस दिन कसाई उस बकरी को ले गया था, उस दिन तो कोई खुशियां नहीं मनाई गईं थीं? कोई बाजे नहीं बजे थे। तो क्या वह वास्तव में ही बकरी है? उसने खुद से सवाल किया और उसकी नजरों के सामने कुछ दिन पहले का एक दृश्य घूम गया।
दिल्ली से लौटने के कोई एक महीने भर बाद की बात है। उस दिन घर में कुछ मेहमान आए थे। उसे नए कपड़े पहन कर उनके लिए चाय लेकर जाना पड़ा था। चाय देते समय उसने महसूस किया था कि एक जो कि उम्र में उसके बापू से कोई आठ-दस वर्ष ही कम होगा, उसकी ओर विशेष ध्यान से देख रहा है। बिलकुल उसी तरह जिस तरह उस कसाई ने बकरी के उस बच्चे को देखा था। चाय देकर लौटते समय बातें सुनने के लिए वह दरवाजे से सटकर खड़ी हो गई थी। एक मेहमान कह रहा था- बहुत सुंदर है और स्वस्थ भी। पांच हजार और विवाह के खर्चे अलग...ठीक...।
वह तिलमिला उठी थी। वह बकरी नहीं है कि उसका मूल्य डाला जाए। यह जुल्म वह कभी बर्दाश्त नहीं करेगी। उसका विरोध करेगी। कई दिन तक खाना न खाने के कारण वह सूख कर कांटा हुआ यह शरीर माथे पर का यह जख्म संजू को केवल एक पत्र लिखने के अपराध में पीठ पर छडिय़ों के निशान क्या जाहिर करते थे सब? लेकिन वह कुछ नहीं कर सकी और अब तो कुछ करने का समय ही कहां था। बारात दरवाजे पर आ चुकी थी।
बारात खाना खाने बैठी थी। अचानक अंदर से उड़ती-उड़ती एक खबर आई कि लड़की का कुछ अता-पता नहीं है। तलाश शुरू हो गई। नदी, नाले, बेडिय़ां जहां कहीं भी ऐसी दशा में एक गरीब बेसहारा लड़की शरण ले सकती थी, सभी देखे जाने लगे लेकिन अनुभा कहीं भी नहीं मिली। तीसरे दिन डाक से अनुभा के बापू को उसका एक बैरंग खत मिला। टूटी-फूटी हिंदी में उसमें जो कुछ लिखा था, वह इस प्रकार था -
प्यारे बापू। मैं जा रही हूं क्योंकि मैं भेड़-बकरी नहीं हूं। जिसे खरीदा बेचा जाए। मैं स्त्री हूं और स्त्री की तरह रहना चाहती हंू। बापू घबराना नहीं। तुम्हारी अनुभा कोई ऐसा काम नहीं करेगी जिससे खानदान की इज्जत बिगड़ जाए। ऐसा काम करने से पहले वह मर जाएगी। एक तेज चाकू उसने अपने पास रख लिया है। बापू कहीं जाकर मैं नौकरी कर लंूगी। पढ़ूंगी और अपनी जिंदगी को अच्छा बनाने की कोशिश करूंगी। तुम चिंता न करना....
तुम्हारी अनु।



-सतीश चंद्र झा

बुधवार, 3 मार्च 2010

विकास का वितंडा

राजनीतिक सत्ता सामाजिक बदलाव का एक औजार जरूर है, लेकिन क्या यह व्यक्तियों को सत्ता में बदल देने का भी औजार है? इसे हमारे देश के तमाम राजनेताओं ने साबित किया है कि सत्तातंत्र की लगाम हाथ लगते ही उनकी दिशा अपने स्वार्थों और नफे-नुकसान के हिसाब से तय होने लगती है। बिहार में लालू प्रसाद के 'ध्वंस-युगÓ के बाद संपूर्ण क्रांति की ही जमीन पर उगे नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार के बीते चार साल में सामाजिक विकास या शैक्षिक सुधार के सवाल पर बने तमाम आयोगों का जिस तरह इस्तेमाल हुआ या उनका जो हश्र हुआ, उसे देखते हुए भुमि सुधार आयोग की सिफारिशों के खारिज किये जाने पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सत्ता में आते ही अमीरदास आयोग को भंग करने के बाद यह दूसरी बार है जब नीतीश कुमार ने खुले तौर पर यह बताने की कोश्शि की है कि उनकी सामाजिक विकास दृष्टि और राजनीति असल में क्या है?
नीतीश कुमार ने 'बदल गया बिहारÓ के सुर वाले नारे को 'सूचनाÓ के रूप में पेश किया और महज सूचक बनकर समूचे मीडिया जगत ने इसे देश-समाज के सामने परोस दिया। 'विकास वोट के लिए कोई मुद्दा नहीं हैÓ - यह वह शिगूफा है, जो शायद कभी लालू प्रसाद की जुबान से फिसला था। तो बिहार में मौजूदा विकास-राग के दौर में क्या लालू प्रसाद के उस जुमले को अपने असर के साथ लौटने में महज तीन महीने लगे? क्या कारण है कि 'शाइनिंग इंडियाÓ और 'फील गुडÓ की तर्ज पर 'बदल गया बिहारÓ का प्रचार उपचुनावों में कारगर नहीं रहा? तो भला नीतिश सरकार कैसे आश्वस्त हो सकती है कि आगामी विधानसभा चुनाव में उसका झंडा बुलंद होगा? कुछ विश्लेषकों की निगाह में भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट और उसे लागू करने की अफवाह से नीतीश सरकार ने मतदाताओं को डरा दिया कि वह जमीन पर जोतदारों को हक देने जा रही है! इस निष्कर्ष को सामने रखने वाले लोग दरअसल नीतीश कुमार को यह बताना चाहते थे कि अगर राज्य के भूपतियों यानी जमींदारों को छेड़ा गया तो उसके नतीजे ऐसे ही होंगे। सच तो यह भी है कि अमीरदास आयोग या बंद्योपाध्याय समिति की सिफारिशों का हश्र तो महज कुछ नमूने हैं.। भौतिक विकास के पर्याय के रूप में सड़क, अपराध-भ्रष्टाचार से मुक्ति, सामाजिक विकास के लिए अति पिछड़ों और महादलितों के लिए विशेष घोषणाएं और परिवारवाद से कथित 'लड़ाईÓ - ये ऐसे मुद्दे रहे हैं, जो पिछले तीन-चार साल से कुछ लोगों को रिझाते रहे हैं। मगर थोड़ा करीब जाते ही यह साफ हो जाता है कि इन कुछ प्रचार-सूत्रों को किस तरह हकीकत को ढकने या उसे दफन कर देने का औजार बनाया गया है! इसी दौर में एक और महत्वपूर्ण 'मिशनÓ जारी है, जिसमें सामाजिक यथास्थितिवाद पर हमला करने वाले किसी भी सोच को बड़े करीने से किनारे लगाया जा रहा है। कुछ समय पूर्व पटना में बिहार की ब्रांडिंग में मीडिया की भूमिका विषय पर गोष्ठी हुई थी। यह प्रसंग दिलचस्प इसलिए है कि क्या मीडिया का काम किसी राज्य की 'ब्रांडिंगÓ करना है, या फिर उसकी प्राथमिकताओं में जनता की जगह राज्य आ गया है। यों बिहार में नीतीश कुमार के सत्ता संभालने और तीन महीने में सब कुछ ठीक कर देने की मुनादी के कुछ ही समय बाद से मीडिया को सब कुछ गुडी-गुडी दिखायी देने लगा था। ऐसे में सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या यह सचमुच सब कुछ ठीक हो जाने का संकेत था, या खुली आंखों पर एक ऐसा चश्मा चढ़ जाना था जिसके पार वही दिखायी देता है जो हम देखना चाहते हैं?
इसके उलट यह जरूर हुआ है कि बिहार में अपनी मांगों को लेकर पिछले तीन-चार सालों में आंदोलन करने वाले किसी भी वर्ग या समूह की शामत आ गयी है। विरोध प्रदर्शनों को लाठियों, पानी के फव्वारों या गोली के सहारे कुचल देना नीतीश सरकार की खासियत बन चुकी है। पुलिस शिक्षकों से लेकर 'आशाÓ की महिला कार्यकर्ताओं तक पर पूरी ताकत से लाठियां बरसाती है। लेकिन यह सुशासनी लाठी 'विकासÓ की नयी ऊंचाइयों की ओर अग्रसर भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं चलती।
तमाम दावों के उलट व्यवहार में भ्रष्टाचार की कितनी नयी परतें तैयार हुईं हैं, इस सच का अंदाजा पंचायत से लेकर प्रखंड और जिला स्तरीय कार्यालयों और पुलिस थानों की गतिविधियों को देख कर ही लगाया जा सकता है। स्कूलों से लेकर आंगनवाड़ी केंद्रों तक का जिला अधिकारी या वरिष्ठ अधिकारियों के औचक निरीक्षण का मतलब कितना ड्यूटी सुनिश्चित करना है और कितना कमाई करना, इसे नजदीक से देखे बिना समझना मुद्गिकल है।
यों भी, अगर सरकार सड़कें बनवाने पर खास जोर दे रही है तो यह राज्य के नागरिकों पर मेहरबानी किस तरह है? दूसरे, राज्य उच्च पथों जैसे राज्य के अधीन कुछ को छोड़ कर बाकी सड़कों के मामले में राज्य सरकार की भूमिका महज कार्य कराने तक सीमित है। जबकि राष्ट्रीय उच्च पथों और ग्रामीण इलाकों की सड़कों के निर्माण और विकास के लिए केंद्र सरकार सीधे तौर पर वित्तीय सहायता देती है। इसके अलावा घोषित और प्रचारित दावों के विपरीत राज्य में काफी कम सड़कें बनीं हैं, और जो बनी भी हैं वे काफी घटिया स्तर की हैं। ज्यादातर सड़कों पर कोलतार की परत चढ़ा कर उन्हें देखने में सुहाने लायक बना दिया गया, जिसकी उम्र दो से चार महीने से ज्यादा की नहीं होती।
इतिहास के कुछ पन्नों को शायद इसलिए नहीं भूला जा सकता क्योंकि न्याय सुनिश्चित होने तक उन्हें भूलना भी नहीं चाहिए. राजनीति की अपनी मजबूरियां हो सकती हैं। लेकिन सवाल है कि इसकी कीमत क्या हो।

मंगलवार, 2 मार्च 2010

एफ.एम. का मिर्ची बम

देश को बजट मिल गया। सत्ता में बैठे नेताजी सब खुश हैं, उनके दोनों मंत्रियोंं ने एकदम धांसू बजट पेश किया है, तो विपक्षी नेताओं की परेशानी यह है कि बजट का पोस्टमार्टम कर वह जनता को जो उसका सड़ा-गला पार्ट दिखा रहे हैं, उसको देखकर जनता को हार्ट अटैक नहीं हो रहा। सदन की परंपरा को ताक पर रखकर पहली बार 'वाकऑउटÓ भी किया, लेकिन कुछ नहीं हुआ। विपक्ष की मानें तो 'पब्लिक निकम्मी हो गई है। पहले लालू ने सब्जबाग दिखा दिया, वह खुश हो गई... इस दफा ममता ने दिखाया तब भी खुश। अब प्रणव दा ने भी खूब छकाया, कई ख्वाब दिखाया, वह चुप रही। जबकि आम आदमी के नाम पर पेश बजट में आम कुछ भी नहीं है।
दो दिन पहले ममता दी का दिन था...अब प्रणब दा का । प्रणब दा को फिक्र रही ..फिस्कल घाटे की...जीडीपी की...रुपया आएगा कहां से...रुपया जाएगा कहां...लेकिन आंकड़ों की बाज़ीगरी के इस वार्षिक अनुष्ठान से हमारा-आपका सिर्फ इतना वास्ता होता है कि क्या सस्ता और क्या महंगा...इनकम टैक्स में छूट की लिमिट बढ़ी या नहीं...होम लोन सस्ता होगा या नहीं...लेकिन इस देश में 77 करोड़ लोग ऐसे भी हैं जिनका प्रणब दा से एक ही सवाल है...रोटी मिलेगी या नहीं...?
बजट से एक दिन पूर्व आर्थिक सर्वे में सुनहरी तस्वीर दिखाई गई कि भारत ने आर्थिक मंदी पर फतेह हासिल कर ली है...अगले दो साल में नौ फीसदी की दर से विकास का घोड़ा फिर सरपट दौडऩे लगेगा...लेकिन आम आदमी को इस घोड़े की सवारी से कोई मतलब नहीं...उसे सीधे खांटी शब्दों में एक ही बात समझ आती है कि दो जून की रोटी के जुगाड़ के लिए भी उसकी जेब में पैसे होंगे या नहीं...? दाल, चावल, आटे के दाम यूं ही बढ़ते रहे तो कहीं एक वक्त फ़ाके की ही नौबत न आ जाए...ये उसी आम आदमी का दर्द है जिसके दम पर यूपीए सरकार सत्ता में आने की दुहाई देते-देते नहीं थकती थी...चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस नारा लगाती थी...आम आदमी के बढ़ते कदम, हर कदम पर भारत बुलंद...लेकिन आठ महीने में ही आम आदमी की सबसे बुनियादी ज़रूरतों पर ही सरकार लाचार नजऱ आने लगी...।
सच तो यही है कि यूपीए सरकार की ओर से वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की ओर से पेश किए 2010-11 का बजट सरसरी तौर पर देखा जाए तो बजट कम और राहत पैकेज ज्यादा लग रहा है। प्रत्यक्ष तौर पर एक ओर तो वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सरकार की आमदनी बढऩे के लिए कारगर कदम उठाए हैं वहीं आम लोगों को आयकर में छूट का लॉलीपॉप भी पकड़ा दिया है। खाने पीने की चीजों के बढ़ते दामों पर चिंता जताते हुए इसपर लगाम लगाए जाने की बात कही है। सरकार महंगाई पर लगाम लगाने की पूरी कोशिश कर रही है। सरकार मौजूदा वित्त वर्ष में सरकारी विनिवेश के जरिए 25 हजार करोड़ रुपये जुटाएगी और इसे सोशल सेक्टर में खर्च किया जाएगा। हालंाकि, बजट प्रावधानों में पेट्रोल और डीजल पर सीमा शुल्क को मौजूदा 2.5 फीसदी से बढ़ाकर 7.5 फीसदी कर दिया गया, जबकि उत्पाद शुल्क एक रुपए प्रति लीटर बढ़ाया गया। सीधे तौर पर आम आदमी की जेब पर धावा है यह। पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढऩी से रोमजर्रा की तमाम चीजें महंगी होंगी, कारण माल ढ़ुलाई का खर्च बढ़ जाएगा। इस संदर्भ में सरकार का कहना है कि अगर सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क में की कईग बढोत्तरी के प्रभाव को उपभोक्ता पर नहीं डाला जाता तो इससे सावर्जनिक क्षेत्र की खुदरा तेल विपणन कंपनियों को करीब 17,240 करोड़ रुपए का नुक सान होता। सो, सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनी ओएनजीसी के सीमएडी आर.एस.शर्मा ने बजट के इस प्रावधान को सराहा है। बकौल शर्मा, सार्वजनिक क्षेत्र की तेल एवं गैस उत्खनन व उत्पादन कंपनी ओएनजीसी के लिए बजट काफी बढिय़ा है। कस्टम डयूटी बढाए जाने से कंपनी की आय में 370 करोड़ रुपए सालाना की बढोतरी होगी। बजट कंसोलिडेशन का है इसलिए वित्त मंत्री के लिए ज्यादा रैडिकल होने की गुंजाइश नहीं थी।
टैक्स सिस्टम को आसान बनाने की बात भी वित्त मंत्री ने कही और कहा कि इस बारे में काम चल रहा है। इसके लिए नया टैक्स कोड 1 अप्रैल 2011 से लागू कर दिया जाएगा और अप्रैल 2011 से ही जीएसटी को भी लागू कर दिया जाएगा। गौर फरमाया जाए तो अधिकत्तर मध्यमवर्गीय और निम्न मध्यमवर्गीय लोगों को इस टैक्स सिस्टम की नई स्लैब का असर पड़ेगा। शालीमार बाग में रहने वाली गृहिणी सीमा मिश्रा की बेबाक रायशुमारी है कि परोक्ष रूप में यह बजट मंहगाई में इजाफा करने वाला ही है। वित्त मंत्री ने व्यक्तिगत आयकर सीमा बढ़ाकर जहां नौकरी पेशा तबके से लेकर मध्य आयवर्ग को बड़ी राहत दी वहीं उन्होंने उत्पाद एवं सीमा शुल्क जैसे अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाकर महंगाई से त्रस्त आम जनता की चिंता और बढ़ा दी। साथ ही पेट्रोल और डीजल के बढ़े हुए दामों का असर भी आम जन जीवन की दैनिक उपयोग की चीजों में पड़ेगा। हमें क्या मतलब की जीडीपी का क्या हाल है और राजकोषीय घाटा को कैसे पूरा किया जाए। आम आदमी और विशेषकर गृहिणियों की चिंता तो यही है कि उनके किचन का बजट कितना सुधरेगा या फिर बिगड़ेगा। इस बजट ने तो पूरे घर के बजट को बिगाड़ दिया।
यथार्थ के धरातल पर यही सच्चाई है कि बजट का हौआ खड़ा किया जाता है। जबकि आम जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता। संसद से लेकर केवल टीवी चैनलों और मीडिया के दूसरे कार्यालयों में बहस-मुहाबिसे होते रहते हैं, पक्ष-विपक्ष के तर्क-कुतर्क होते हैं, लेकिन इससे आम सरोकारों पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। आम आदमी तो इसी चिंता में दुबला होता जाता है कि उसके घर का चूल्हा और रोजमर्रा की चीजें कितनी सस्ती हुईं? जो कि होती नहीं है। बजट पेश होने से पूर्व यही कयास लगाए जा रहे थे कि यह बजट आम आदमी और बाजार के लिए कुछ सख्त होगा। हुआ भी यही।
यूपीए सरकार के वित्तमंत्री के बतौर अपना पहला बजट प्रस्तुत करते हुए समाजवादी अर्थव्यवस्था के पक्षधर प्रणव मुखर्जी ने कारपोरेट और आम आदमी के बीच संतुलन साधने की भरसक कोशिश की है। वित्त मंत्री के मुताबिक सरकार को ग्रामीण इलाकों में साद्य सुरक्षा पर खास ध्यान देना है। सरकार का काम समाज के कमजोर तबके की मदद करना है। सबसे पहली प्राथमिकता बेहतर सरकार चलाना है। अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री ने माना कि भारत एक विकासशील और जटिल अर्थव्यवस्था है और इसका प्रबंधन कठिन कार्य है।
इससे पूर्व बाजार के लिए कुछ सख्त कदम उठाए जाने की भी संभावना जताई जा रही थी। कहा गया था कि स्लोडाउन के दौरान दिए गए राहत पैकेजों की वापसी की प्रक्रिया भी शुरू हो सकती है। इन सब अटकलों के बावजूद महंगाई की मार से दबे आम आदमी और ग्रोथ रेट में तेजी की उम्मीद पाले बाजार को प्रणव दादा से कुछ दरियादिली की उम्मीद रही। बजट से एक दिन पहले गुरुवार को आर्थिक समीक्षा को संसद में पेश करने के बाद प्रणव ने जिस तरह नई परंपरा बनाते हुए पत्रकारों से बातचीत की, उससे लग रहा था कि दादा देश की विकास और आम आदमी के बीच बजट में बैलेंसिव अप्रोच बनाने के मूड में हैं। बेशक बजट में कुछ सख्त कदम उठाएं, लेकिन महंगाई से तपते आम आदमी पर राहत के कुछ छींटे डालने में परहेज नहीं करेंगे। दादा ने यूं तो आर्थिक समीक्षा में सरकार के आर्थिक सेक्टर को लेकर रणनीति और वित्त आयोग की सिफारिशों के बारे में बात की। मगर वह बार-बार कहते रहे कि बढ़ती महंगाई से हम बहुत चिंतित हैं और चाहते हैं कि आम आदमी को इससे जल्द निजात मिले।
आर्थिक समीक्षा के आंकड़ों से स्पष्ट है कि बाजार में डिमांड बढ़ रही है। कंपनियों के कारोबार में इजाफा हो रहा है। ऐसे में सरकार की आमदनी बढऩा तय है। मगर प्रणव के सामने महंगाई के बाद सबसे बड़ी चिंता है बढ़ता राजस्व घाटा। पिछले बजट में सरकारी खर्च 10 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया था। इसे पूरा करने के लिए सरकार को तीन लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त कर्ज लेना पड़ा था। दादा की प्राथमिकता है कि इस घाटे को घटाकर 5 पर्सेंट तक लाना, जो अभी जीडीपी के परिप्रेक्ष्य में 6.5 पर्सेंट पर पहुंच गया है। यह तभी मुमकिन है कि जब खर्च कम हो और आमदनी ज्यादा। इस लक्ष्य को पाने के लिए दो काम करने होंगे। पहला, आमदनी के नए रास्ते खोजना और दूसरा, राहत और छूट खत्म करना, जिसमें बढ़ती सब्सिडी भी शामिल है। दोनों हालातों में वित्त मंत्री के पास कुछ करने का स्कोप न के बराबर है। नॉर्थ ब्लॉक स्थित वित्त मंत्रालय के सूत्रों से मिल रहे संकेतों के अनुसार मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने प्रणव से साफ कहा है कि बेशक मौजूदा आर्थिक परिस्थिति विकट है, फिर भी बजट को इतना सख्त न बनाया जाए कि आम आदमी और बाजार दोनों के मुंह से आह निकल जाए। इस बजट में आने वाले समय के लिए आथिर्क मोर्चे का रोड मैप साफ कर दिया जाए ताकि आम आदमी और बाजार दोनों इन ठोस कदमों के लिएखुद को तैयार कर सकें।
राजनीतिक हलकों में 'प्रणब दाÓ के नाम से पुकारे जाने वाले वित्त मंत्री कर प्रस्तावों की बात करते हुए कौटिल्य के एक कथन हवाला दिया। उन्होंने कहा, ''राजस्व एकत्र करने वाले अधिकारी को इस तरीके से अपने काम को अंजाम देना चाहिए कि उत्पादन और उपभोग पर इसका बुरा असर न पड़े। वित्तीय समृद्धि जनता की संपन्नता, कृषि में प्रचुरता और विभिन्न क्षेत्रों में वाणिज्यिक संपन्नता पर निर्भर करती है।ÓÓ यह पहली बार नहीं है कि उन्होंने अपनी बात कहते हुए कौटिल्य का जिक्र किया हो। बीते साल जुलाई में बजट भाषण के दौरान मुखर्जी ने कौटिल्य के कथन का उल्लेख करते हुए कहा था, ''जिस तरह से पके हुए फलों को बागीचे से तोड़ लिया जाता है उसी तरह एक राजा को भी बकाया राजस्व को एकत्र करना होगा। जिस तरह से कच्चे फलों को नहीं तोड़ा जाता, उसी तरह राजा को भी वह धन नहीं लेना चाहिए जो बकाया न हो क्योंकि इससे जनता में क्रोध आएगा और राजस्व के स्रोत भी खत्म हो सकते हैं।ÓÓ हर कोई जानता है कि कौटिल्य कड़े फैसले के लिए जाने जाते रहे हैं। एक लक्ष्य के लिए पूरी तरह समर्पित।
कृषि क्षेत्र और कृषकों के लिए सरकार ने बजट में खासा ध्यान देने की बात की है। एक ओर तो किसानों के लिए खाद में पोषण आधारित सब्सिडी 1 अप्रैल से लागू करने का एलान किया गया है और किसानों को मिलने वाली ऋण की सीमा बढ़ाने की भी बात की है। साथ ही किसानों के लिए कर्ज चुकाने की अवधि को उन्होंने छह महीने बढ़ाकर जून 2010 तक कर दिया है वहीं समय पर कर्ज चुकाने वालों को ब्याज में दो प्रतिशत की छूट मिले"ी। हरित क्रांति के विस्तार के लिए 400 करोड़ देने का प्रस्ताव है। खराब मॉनसून के चलते महं"ाई बढ़ी है। सरकार की कोशिश होगी कि किसानों को सीधे सब्सिडी दी जाए। सरकार खाद पर किसानों को राहत देने की कोशिश कर रही है वहीं दूसरी ओर पर पेट्रोल-डीजल का दाम बढ़ाकर किसानों की मुसीबतें और बोझ बढ़ाया ही है। इसके अलावा दादा ने बाढ़ व सूखा प्रभावित क्षेत्रों के किसानों के लिए कोई भी अतिरिक्त राहत की घोषणा नहीं की है। बजट भाषण में प्रणव ने ग्रामीण इलाकों में फूड सिक्युरिटी मुहैया कराने पर जोर दिया है। इकॉनमी को गति देने के लिए कई कदम उठाने की बात की है। महं"ाई का जिक्र करते हुए कहा कि खाने के सामान की बढ़ती हुई कीमतें चिंता का विषय हैं और महंगाई पर काबू पाना सरकार का बड़ा मकसद होगा। महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार हरसंभव कदम उठाएगी। यहां यह भी गौर करना होगा कि दादा ने सदन में बजट पेश करने से पहले ही यह स्पष्ट कह दिया था चूंकि विकास दर 9 फीसदी हो गई है तो मंहगाई तो और भी बढ़ेगी। अब ऐसे विरोधाभासी बयानों में से किसपर भरोसा करें।
ज़ाहिर है कि खाद्यान्न की कीमतें काबू से बाहर हुईं तो लोगों को राहत पहुंचाना भी तो सरकार की जि़म्मेदारी बनती है...सौ दिन में तस्वीर बदलने के दावे करने वाली सरकार ने वादा तो पूरा किया...लेकिन नई तस्वीर आम आदमी को और बदहाल करने वाली रही...विरोधी दल महंगाई पर सरकार को घेरती है तो सरकार इसे राजनीति कह कर खारिज कर सकती है...लेकिन अगर सरकार का आर्थिक सर्वे ही सरकार पर उंगली उठाता है तो स्थिति वाकई ही गंभीर है...आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि सरकार ने सूखे और मानसून फेल होने पर खरीफ़ ( मुख्यतया चावल) की फसल बर्बाद होने का ढिंढोरा पीटा, जिससे जमाखोरियों को बढ़ावा मिला। सरकार ने स्टॉक में मौजूद खाद्यान्न को नजऱअंदाज किया नतीजन सही तस्वीर प्रचारित न होने से आपदा जैसी स्थिति महसूस की जाने लगी। सरकार ने रबी (मुख्यता गेहूं) की फसल अच्छी रहने का सही अनुमान नहीं लगाया। आयातित चीनी को बाज़ार में लाने में देर की गई, जिससे अनिश्चितता का माहौल बना और महंगाई को पर लग गए। ऐसे में स्पष्ट है मानसून फेल होने से स्थिति इतनी नहीं बिगड़ी जितनी कि बाज़ार शक्तियों ने मोटे मुनाफे के चक्कर में बंटाधार किया...सरकार इन शक्तियों पर काबू पाने की जगह अपने ही विरोधाभासों में उलझी रही...कभी कांग्रेस शरद पवार को महंगाई के लिए कटघरे में खड़ा करती तो कभी पवार पूरी कैबिनेट को ही नीतियों और फैसलों के लिए जि़म्मेदार ठहरा देते...सरकार के इसी ढुलमुल रवैये के बीच आर्थिक सर्वे जो इशारे दे रहा है, वो आम आदमी की और नींद उड़़ाने वाले हैं। वाम दलों ने प्रणव मुखर्जी के आम आदमी के बजट पर पलट वार करते हुए कहा है कि यह बजट सही मायने में 'आम आदमी विरोधीÓ बजट है। वामदलों ने चेतावनी दी है कि सरकार के इस आम आदमी विरोधी बजट के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन चलाया जाएगा। अगले महीने संसद के सामने विशाल प्रदर्शन किया जाएगा। सीपीएम ने परोक्ष रूप से लगाए जाने वाले कर प्रावधानों को भी सरकार से वापस लेने की मांग करते हुए कहा है कि इससे मुद्रास्फीति बढ़े। आम आदमी पर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। सीपीएम के वरिष्ठ नेता व राज्यसभा सांसद सीताराम येचुरी ने कहा कि आम आदमी विरोधी बजट प्रस्तावों के खिलाफ प्रभावी ढंग से आंदोलन चलाने के लिए आरजेडी , एसपी , बीएसपी , टीडीपी , बीजेडी , एआईएडीएमके के नेताओं से बातचीत चल रही है। सीपीआई के नैशनल सेक्रेटरी डी. राजा का कहना है कि बजट प्रस्तावों से मुदास्फीति बढ़ेगी। सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतें और बढ़ जाएंगी। पेट्रोलियम उत्पादों के दाम बढऩे से दूरगामी दुष्प्रभाव होगा। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती ने कहा कि यह बजट गरीब विरोधी है। सरकार ने जिस तरह पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ाने की घोषणा की है, उससे आने वाले वक्त में महंगाई आसमान पर पहुंच जाएगी। इससे जमाखोरी को बढ़ावा मिलेगा। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कहा कि इससे विकास को बढ़ावा मिलेगा। बजट में समाज के हर वर्ग का वित्त मंत्री ने ध्यान रखा है।
सच तो यही है कि राशन के खाने, खाद और डीजल पर से सब्सिडी वापसी की तलवार और वार करने के लिए तैयार है...आर्थिक सर्वे में विकास दर में बढ़ोतरी के अनुमान के साथ आने वाला कल बेशक सुनहरा नजऱ आए, लेकिन आम आदमी की फिक्र आज की है...और इस आज को सुधारने में सरकार भी हाथ खड़े करती नजऱ आती है...और शायद यही सबसे बड़ा संकट है। एक दम तीखा, लाल मिर्ची की मानिंद।