शनिवार, 30 जनवरी 2010

अपने आप कहते हैं, वे दलित हैं

हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक चिंतक अनिल चमडिय़ा, जो कुछ ही माह पूर्व वर्धा गए थे, पत्रकारिता पढ़ाने। दो दशक से अधिक का उनका जनपक्षीय अनुभव, जिसमें जनसरोकार कूट-कूट कर भरा हुआ था, चंद महीनों में छीजता दीख रहा है। ऐसा नहीं है कि यह केवल मैं कहने की हिमाकत कर रहा हँू, बल्कि मुझ जैसे दर्जनों लोग कह रहे हैं, जो उनके लेखों के माध्यम से उनको जानता-बूझता है। 'भड़ासÓ पर स्वयं उन्होंने ही उदघोष किया है कि वर्धा से केवल और केवल इसी कारण उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया गया कि वे दलित हैं। सवर्ण लोगों ने उन्हें प्रपंच के बल पर बाहर का रास्ता दिखाया। गलत है। सरासर गलत। आखिर एक दलित को बाहर का रास्ता क्यों दिखाया गया? सवाल अहम है।
खबर तब बनती है जब किसी को बाहर का रास्ता दिखाया दिया जाता है, क्योंकि वह दलित है। उस वक्त नहीं बनती जब उसे किसी संस्थान में नौकरी पर रखी जाती है। दलित पैरोकार चूं तक नहीं करते। भला, वर्धा जैसे प्रतिष्ठित संस्थान ने ऐसा क्यों किया? वह भी एक दलित के संग?
गत दिनों मैं दिल्ली के अंबेडकर भवन में आयोजित एक संगोष्ठि में गया। गया क्या बुलाया गया। कुछेक मित्रों द्वारा। मंचासीन तमाम लोगों ने इस बात को लेकर जमकर नारेबाजी की और कराई कि वह दलित हैं, इसी कारण उनके साथ भेदभाव हो रहा है। सरकार ने पिछले छह दशकों में उनके साथ कुछ विशेष नहीं किया। न तो सामाजिक स्तर पर और न ही आर्थिक स्तर। केवल आरक्षण का झुनझुना थमा दिया गया। बजाते रहो। वह भी चुनावी मौसम में। लेकिन, जो लोग मंचासीन थे, उसमें कुछ सांसद तो कुछ वरिष्ठ नौकरशाह, जिनको भारत सरकार की ओर से लालबत्ती मिली हुई है, और वह उसी से संगोष्ठि स्थल पर आए थे, ने अपने गिरेबां में एक बार भी नहीं झांका कि उन्होंने दलित के नाम पर देश और समाज से कितना लिया और बदले में देश की तो छोडि़ए , अपने समाज को ही कितना दिया? यदि वास्तव में उन्होंने दिया होता तो डा। भीमराव अंबेडकर के गुजर जाने के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी केवल और केवल उनके नाम पर ही आयोजन नहीं कराए जाते? अंबेडकर भवन के पुस्तकालय में पुस्तकें धूल फांकती दिखी। जैसे कोई उसका सही से रखवार नहीं हो? हद तो तब हो गई जब दलित आंदोलनों की मीडिया में जमकर आवाज उठाने वाले पूर्व नौकरशाह उदित राज केवल इस कारण बैरंग लौट गए कि बैनरों और पर्चें पर उनका नाम नहीं था। क्या कहेंगे इसे आप?
दलित समाज के प्रति उनकी जबावदेही? स्वांग? प्रपंच? या कुछ और?
इसी प्रकार का व्यक्तिगत अनुभव दलित साहित्य शोध संस्थान के एक सज्जन से जुड़ा हुआ है। सिविल लाईंस इलाके में उनके कार्यालय में केवल और केवल साहित्य में दलित को ढंूढ़ा जा रहा है। जब ऐसे लोगों साहित्य में दलित और सवर्ण का अलगाव करेंगे तो उस समाज का क्या होगा? यदि साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है तो उस समाज का क्या होगा? कुछेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों की दुकान तो केवल दलित चिंतन और विमर्श के नाम पर ही चलती है। जब चिंतन और विमर्श भी दलित के फर्में में फीट होने लगे तो भगवान ही मालिक?
ेऐसा नहीं है कि सवर्ण का प्रतिनिधि ये कहता है कि अमुक व्यक्ति दलित है? अमुक साहित्य दलित साहित्य है? उसका चिंतन दलित चिंतन है? आदि-आदि... ये तमाम बातें दलित समाज के सरोकारी व्यक्ति ही कहते हैं। सरकार जब उनके बातों को नहीं मानती, तो दलित संगठन बनाकर आंदोलन करते हैं। साहित्य की पुस्तकें यदि नहीं बिकती हो तो कह देंगे कि यह दलित साहित्य है, कम से कम दलित के नाम पर दुकान चलाने वाले दुकानदार तो खरीद ही लेंगे? इन्हीं दुकानदारों की कारामात है कि हिंदी साहित्य के नक्षत्र प्रेमचंद की किताबों को सरेआम जलाते हैं।
खैर, इसी प्रकार का एहसास अनिल चमडिय़ा भी करा जाते हैं। हालंाकि व्यक्तिगत स्तर पर जब मैं उनसे पहली बार मिला था, तब ऐसा नहीं लगा था। दिल्ली के ही कॉन्सट्यूशनल क्लब में उन्होंने प्रेस वार्ता की थी, 'गोहाना कांडÓ के समय। जबरदस्त विचार दिए थे। सामाजिक सरोकार से लैस एक जीवट इनसान उस वक्त लगे थे। उसके बाद भी उनके कई लेखों ने उद्वेलित किया था, मानवीय सरोकारों के प्रति। अचानक, उनका भड़ास पर इस कदर पढऩा, अखर सा गया।
समझ में नहीं आता एक के एक चिंतक, सामाजिक आंदोलनकर्ता जब अन्यान्य कारणों से अपने को तथाकथित लक्ष्य संधान में असफल पाता है तो बड़ी सहजता से कह जाता है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वह दलित समुदाय से है। आखिर, विभिन्न धर्म-जाति वाले इस देश की यही नियति बन चुकी है? कुछ समय पूर्व सिने अभिनेता इमरान हाशमी ने भी तो यही कहा था कि मुझे मकान इसलिए नहीं मिला क्योंकि मैं मुसलमान हॅंू। कष्टï होता है यह सब सुनकर-पढ़कर। शायद इसलिए कि मैं न तो दलित हँू और न ही मुसलमान ?

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

प्रिय

तुम्हारी आँखे
वैसी नहीं
जिन्हें कह सकूं नशीली
तुम्हारी मुस्कान
भी तो सजावटी नहीं
तुम्हारे दांत नहीं हैं
मोतियों जैसे
शक्लो-सूरत से भी
परी नहीं हो तुम।
पर फिर भी
सबसे बढ़कर हैं
तुम्हारी भावनाएं

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

निगोड़े पुलिस से दूर भगोड़े

चोर-पुलिस का संबंध एक खेल की तरह ही है, जब बाजी जिसके हाथ लगा वह 'मीरÓ होता है। जैसे, बच्चे अपने दोस्तों के संग चोर-पुलिस का खेल खेलते हैं। उसी तरह अपराधी भी पुलिस को चकमा देते हैं और भाग खड़े होते हैं। हद तो तब होती है जब न्यायालय ताकीद करती है और पुलिस कुछ भी करने में खुद को असमर्थ मानती है। नतीजा, हजारों का संख्या में कैदियों जेल की चारदीवारी से दूर होते हैं। कागजों में उन्हें भगोड़ा घोषित किया जाता है और चंडीगढ़ इकाई के राजद महासचिव जोगिन्दर सिंह सरीखे भगोड़े सरेआम घूमते हैं।
देश भर में अपनी धाक जमाने वाले दिल्ली पुलिस के अधिकारी करीब 13 हजार भगोड़े अपराधियों की तलाश करने में नाकाम साबित हुए हैं। इनमें करीब 5 हजार अपराधी संगीन वारदातों को अंजाम देने के बाद पुलिस की पहुंच से बाहर हैं। दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हाईकोर्ट को बताया कि 13521 अपराधी पुलिस की चंगुल से बाहर हैं। इनमें से 4777 अपराधी हैं ऐसे हैं जो हत्या, बलात्कार, नारकोटिक्स जैसे संगीन अपराधों में शामिल रहे हैं। काफी हाथ-पांव मारने के बावजूद इन अपराधियों को पकड़ा नहीं जा सकता है, लिहाजा अदालत ने इन सभी को भगोड़ा घोषित कर दिया है।
न्यायमूर्ति ए।के. सिकरी और न्यायमूर्ति अजीत भरियोक की खंडपीठ ने भारी संख्या में फरार चल रहे अपराधियों पर चिंता जताते हुए दिल्ली पुलिस से रिपोर्ट मांगी थी।रिपोर्ट में खंडपीठ ने पाया कि विभिन्न कारणों की वजह से 1061 अपराधियों के नाम इस सूची से हटा दिए गए हैं। खंडपीठ हत्या और लूटपाट के एक मामले पर सुनवाई कर रही है। इस मामले का आरोपी जमानत मिलने के बाद से फरार है और पिछले 10 वर्षों से उसकी कोई खोज खबर नहीं है। खंडपीठ ने यह भी कहा कि ऐसा प्रतीत होता कि इन अपराधियों को खोजने के लिए दिल्ली पुलिस ने अधिक मशक्कत नहीं की है।
दिल्ली से सटे उत्तरप्रदेश में भी पुलिस की गिरफ्त से पन्द्रह हजार से अधिक आरोपी फरार हैं, जिन्हें भगोड़ा घोषित किया जा चुका है। उत्तरप्रदेश के भगोड़ों की मुश्किल यह है कि वह जब भी दिल्ली की ओर रूख करते हैं दिल्ली पुलिस उन्हें धर दबोचती है। इसलिए वह अपने प्रदेश से बिहार, नेपाल की ओर चले जाते हैं। बिहार में भी आज से करीब पांच वर्ष पूर्व भगोड़ों की संख्या बारह हजार के करीब थी, लेकिन हाल के वर्षों में न्यायालय की ताकीद और प्रशासन की सक्रियता ने उसमें काफी कमी लाई है।
सच तो यह भी है कि भारत में क्रूरता अक्सर खुलेआम नहीं होती। इसकी योजना इस तरह से बनाई जाती है कि ऊपर से ऐसा लगे कि सब कुछ अपने तरीके से हो रहा है और कानून बिना भेदभाव अपना काम कर रहा है। ठीक वैसे ही जैसे अपनी बहू के खिलाफ जहर पाले कोई सास दिन भर पूजा करती हुई नजर आती है और जब परिवार के बाकी लोग देख न रहे हों तो बहू पर अप्रत्यक्ष छुरियां चलाती रहती है। जब इस तरह का कोई (सरकारी) अभियान चलता है तो कभी भी लिखित निर्देश नहीं दिए जाते, न ही फोन पर कोई बात की जाती है। ये निर्देश आमने-सामने की मुलाकात के दौरान दिए जाते हैं जिसका कोई गवाह नहीं होता। ये स्थिति खुले तौर पर तानाशाही वाले शासन से कहीं बदतर होती है...
राजस्थान में भी भगोड़ों की संख्या काफी अधिक है। कई मामलों में न्यायालय ने भगोड़े अपराधियों की संपत्ति कुर्क करने का आदेश दिया तो कुछेक पकड़ में आए। हरियाणा -पंजाब में तो अपराधी सरेआम पुलिस को चिढ़ाते हैं। राष्ट्रीय जनता दल की चंडीगढ़ इकाई के महासचिव जोगिंदर सिंह उर्फ पहलवान एक आपराधिक मामले में वांछित हैं। उनकी गिरफ्तारी न होने के कारण अदालत दो साल पहले उन्हें भगोड़ा घोषित कर चुकी है। अपने रूटीन के दस्तावेजों में पुलिस राजद नेता को गिरफ्तार करने की पुरजोर कोशिश कर रही है। यह बात दीगर है कि राजद नेता पुलिस के सामने भाषण देते हैं। पुतला फूंकते हैं और प्रदर्शन करते हैं। पुलिस जोगिंदर की गिरफ्तारी के प्रति कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कुछ समय पूर्व भी मनीमाजरा थाने में जोगिंदर सिंह को शांति भंग की आशंका में गिरफ्तार करने के बाद तुरंत जमानत दे दी गई। अगर पुलिस चाहती तो उस संगीन मामले में भी जोगिंदर को गिरफ्तार कर सकती थी। गांव धनास निवासी सिमरजीत सिंह के मकान पर मुख्य आरोपी जोगिंदर और उसके साथी जबरन कब्जा करने के लिए बवाल कर रहे थे। इस दौरान पुलिस पहुंच गई और घटनास्थल से जोगिंदर के साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया था। लेकिन मुख्य आरोपी जोगिंदर सिंह को आज तक नहीं गिरफ्तार किया गया। पुलिस ने कोर्ट में चालान पेश किया तो अदालत ने जोगिंदर को गिरफ्तार न करने पर फटकार लगाई। तब से जोगिंदर भगोड़ा घोषित हैं। इतना ही नहीं, भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तारी से बचते फिर रहे झारखंड के दो पूर्व मंत्रियों- एनोस एक्का और हरिनारायण राय को झारखंड की अदालत ने भगोड़ा अपराधी घोषित कर दिया है। इन दोनों की गिरफ्तारी से संबंधित नोटिस उनके घरों के बाहर चिपका दिए गए हैं। विजिलेंस डिपार्टमेंट के एक अधिकारी ने बताया कि अगर दोनों पूर्व मंत्रियों ने सरेंडर नहीं किया तो उनके पैतृक घरों सहित उनकी संपत्ति की कुर्की की जाएगी। राज्य सतर्कता विभाग ने एक्का के पास 3।73 करोड़ रुपये और राय के पास 1.16 करोड़ रुपये कीमत की संपत्ति पाए जाने के बाद दोनों के खिलाफ भ्रष्टाचार और अनधिकृत तरीके से संपत्ति अर्जित करने का मामला दर्ज किया है।
ये तो राजनीतिक अपराधियों की बात, जो देश के अंदर हैं। देश के बाहर भी सैकड़ों वांछित हैं। माफिया सरगना अबू सलेम और उसकी प्रेमिका मोनिका बेदी अब कानून के शिकंजे में हैं। लेकिन भारत को आज भी इनके जैसे 132 खूंखार भगोड़े अपराधियों व आतंकवादियों की तलाश है। भारत ने यह सूची इंटरनेशनल पुलिस ऑरगेनाइजेशन (इंटरपोल) को सौंप रखी है। इनमें से दाऊद इब्राहीम समेत लगभग दो दर्जन शातिर अपराधी तो पाकिस्तान और लगभग इतने ही बांग्लादेश में हैं। पाकिस्तान समेत अरब देशों में 32 माफिया सरगना छिपे हैं, जबकि भारत की आज की स्थिति में विश्व के सिर्फ 17 देशों के साथ ही प्रत्यर्पण संधि हो पाई है।
हालांकि प्रत्यर्पण संधि होने भर से ही अपराधियों को वापस लाना आसान नहीं है। लेकिन इतना जरूर है कि इससे उन्हें वापस लाने का रास्ता खुल जाता है। विश्व में आतंकवाद के लगातार पांव पसारते रहने से आज ज्यादातर देश इस कोशिश में हैं कि उनकी ज्यादा से ज्यादा देशों के साथ प्रत्यर्पण संधि हो। लेकिन यह भी जानने लायक है कि अभी तक विश्व में एक भी देश ऐसा नहीं है, जिसकी सभी देशों के साथ प्रत्यर्पण संधि हो। जिन 17 देशों के साथ हमारी प्रत्यर्पण संधि है, उनमें नेपाल, बेल्जियम, कनाडा, नीदरलैंड, इंग्लैंड, भूटान, हांगकांग, जर्मनी, रूस , उजबेकिस्तान, टर्की, सयुंक्त अरब अमीरात, मंगोलिया, ट्यूनिशिया और स्पेन शामिल हैं। अमेरिका और स्विट्जरलैंड के साथ अभी अस्थायी संधि है। इनके साथ ही दक्षिण पूर्व के पड़ोसी देशों, सिंगापुर, श्रीलंका और थाईलैंड समेत कुल आठ देशों के साथ प्रत्यर्पण संधि के बजाय प्रत्यर्पण व्यवस्था है। खास बात यह है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ इस संधि का मामला अंतिम नतीजे तक नहीं पहुंच पाया है।

बुधवार, 27 जनवरी 2010

सोमवार, 25 जनवरी 2010

ये तो प्रभाषवाद ही है

वाल्मीकि रचित रामायाण और तुलसी के रामचरितमानस में 'राम राज्य Ó और 'मर्यादापुरूषोत्तम रामÓ का बखान किया गया। राम राज्य आएगा, लोग कहते आ रहे हैं, लेकिन कब, कोई नहीं जानता। उसी प्रकार आज की वह पीढ़ी जो पत्रकारिता में आई है, विशेषकर हिंदी पत्रकारिता में उसके लिए पत्रकारिता का स्वणर्र््िाम युग कभी था, केवल सुनने-सुनाने की बात है। आज जब हर क्रिया-कलाप बाजार से निर्धारित होता है, वैसे में भला पत्रकारिता कैसे अपने चाल-चरित्र को अक्षुण्ण रख सकती है।
ऐसे ही कई सवाल हैं, जिससे आज का हर युवा पत्रकार और इस क्षेत्र में आ रहे लोगों का वास्ता पड़ता है। कोई जबाव नहीं देना चाहता। संभवत: आज के अधिकांश संपादकों के पास इसका जबाव नहीं। संकट की इस घड़ी में प्रभाष जोशी का नाम जेहन में उभरता है। हर उस पत्रकार के जेहन में जो उनसे प्रत्यक्षरूप से मिला है और जो नहीं मिला , उसके भी जेहन में। मुझ से हजारों पत्रकार जो दिल्ली सहित देश के अन्यान्य हिस्सों में काम कर रहे हैं, शायद प्रभाष जोशी से नहीं मिल पाए हैं। सबके अपने-अपने कारण हैं। मगर, प्रभाष जी के मरने के बाद जिस प्रकार से हिंदी मीडिया में उन पर लेख छापे गए। सभा-संगोष्ठि आयोजित किए गए, काफी कुछ समझने-बूझने का मौका मिला। प्रभाष जी को जान पाया और उनके समय को भी। ।
इसके बीच जेहन में यह सवाल उठता है कि हमारी पीढ़ी जो अभी नई पौध है, या इसे नवांकुर कह लीजिए, के लिए प्रभाष जोशी के क्या मायने हैं। मैंने प्रभाष जोशी को प्रत्यक्ष रूप से कभी नहीं देखा। उनसे कभी नहीं मिला। हिंदी पत्राकारिता और उसके सरोकारों के लिए उन्होंने जो किया या नहीं किया उसके बारे में मेरी जानकारी शायद उतनी ही है जितनी एक आम इनसान की। कुछ लोग उन्हें कम्युनिस्ट विचारधारा के मानते हैं। ऐसा कई जगहों पर सुना है। मुझे कम्युनिस्टों से न प्रेम है, न घृणा। मैंने कम्युनिस्ट साहित्य ज्यादा नहीं पढ़ा, खुद कम्युनिस्ट विचारधारा का नहीं रहा। लेकिन एक मामले में मैं कम्युनिस्टों का कायल हूं और वह है सादगी, साधारण तरीके से रहने और जीने की विलक्षण क्षमता। बंगाल के मुख्यमंत्री बु्द्धदेव भट्टाचार्य अभी भी डेढ़ कमरे के घर में रहते हैं। एक दिन दिल्ली में सीपीआई के मुख्यालय अजय भवन गया जहां ए ।बी. बर्धन बैठे खाना खा रहे थे। कैंटीन में, आम लोगों की तरह दाल, चावल, सब्जी और रोटी। एक दिन अखबार में छपी तस्वीर देखी, सोमनाथ चटर्जी किसी गांव में घूम रहे थे। एक पार्टी कार्यकर्ता की मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर। इस उम्र में तमाम दूसरे नेता जेनुइन लेदर की मुलायम गद्दी वाली शानदार कार में घूमते हों, यह अचंभा ही तो है! सच में ऐसे लोग बिरले होते हैं।
अब, जबकि वह सशरीर नहीं हैं, उनके लेखों और उनके संबंध में लिखे लेखों को पढ़कर उन्हें समझने की कोशिश कर रहा है। उसी क्रम में जान पाया कि जब बाबरी मस्जिद गिराई गई, उसके बाद भाजपा और संघ परिवार पर उन्होंने जितना लिखा और खुल कर लिखा, बहुत कम लोगों ने लिखा। और, संघ पर उन्होंने काफी काम भी किया हुआ था और काफी पढ़ाई भी की हुई थी। वीर सावरकर और संघ परिवार के बीच किस तरह के वैचारिक मतभेद थे, उसपर खुल कर लिखा। उन्हें पढ़ा तो उनकी गहराइयों का पता चला। जीवन के अंतिम काल में उन्होंने इस विषय पर खूब लिखा कि चुनावों के दौरान समाचार पत्रों की किस तरह की भूमिका रही। चुनाव के दिनों में पैसा लेकर खबरों को छापा गया। हाल के दिनों में उन्होनें जो काम किया, वो एक तरह से पब्लिक इंटेलेक्चुअल की तरह उनकी भूमिका थी। वो चीज, जो लोगो के मन में आ रही है, उसे सही परिप्रेक्ष्य में रखना और अपनी बात कहना, ये उनकी खासियत थी। शायद उन जैसे कलमकारों के वश में ही।
प्रभाष जोशी को पढऩे के क्रम में ही एक लेख मिला, इंटरनेट पर। जिसमें प्रभाष जी के हवाले से कहा गया था कि सिलिकॉन वैली अमेरिका में नहीं होता, अगर दक्षिण भारत में आरक्षण नहीं लगा होता। दक्षिण के आरक्षण के कारण जितने भी ब्राह्मण लोग थे, ऊंची जातियों के, वो अमरीका गये और आज सिलिकॉन वेली की हर आईटी कंपनी का या तो प्रेसिडेंट इंडियन हंै या चेयरमेन इंडियन हैं या वाइस चेयरमेन इंडियन है या सेक्रेटरी इंडियन है। क्यों क्योंकि ब्राह्मण अपनी ट्रेनिंग से अवव्यक्त चीजों को हैंडल करना बेहतर जानता है। क्योंकि वह ब्रह्म से संवाद कर रहा है। तो जो वायवीय चीजें होती हैं, जो स्थूल, सामने शारीरिक रूप में नहीं खड़ी है, जो अमूर्तन में काम करते हैं, जो आकाश में काम करते हैं। यानी चीजों को इमेजीन करके काम करते हैं। सामने जो उपस्थित है, वो नहीं करते। ब्राह्मणों की बचपन से ट्रेनिंग वही है, इसलिए वो अव्यक्त चीजों को, अभौतिक चीजों को, अयथार्थ चीजों को यथार्थ करने की कूव्वत रखते है, कौशल रखते हैं। इसलिए आईटी वहां इतना सफल हुआ। आईटी में वो इतने सफल हुए।
जाहिरतौर पर यह ब्राह्मïणवाद माना गया। ब्राह्मण के शक्तियों को बताया गया। यह वक्तव्य प्रभाष जी की ओर से उस समय दिया गया जब राज्यसभा के लिए राष्ट्रपति की तरफ से मनोनित लोगों की सूची जारी होने वाले थी। कदाचित उस सूची में प्रभाष जोशी का नाम भी होता? लेकिन, उन्होंने ब्राह्मïण का विराट रूप दिखाया। उसके सरोकारों का स्मरण कराया। वर्तमान में कोई पत्रकार शायद यह नहीं करेगा और न ही उसके वश में होगा? कुर्सी पर सबकी नजर होती है और वह भी देश की सबसे बड़े पंचायत की तो क्या कहने...
बहुत सारे सभा-संगोष्ठी में मीडिया के चाल-चरित्र पर बहस-मुबाहिसे होते हैं। कोई मीडिया के वर्तमान को लेकर सशंकित है तो कोई मीडियाकर्मी को लेकर। कहा तो यह भी जा रहा है कि जब मानव के तमाम क्रियाकलापों पर बाजार की नजर है और बाजार ही तय कर रहा है कि हमारा अगला कदम क्या हो, तो भला उसमें मीडिया की शुचिता और सरोकार कहाँ तक टिक पाएगी। ऐसे में प्रभाष जी राह दिखाते नजर आते हैं। सच तो यही है कि आज की वर्तमान पीढ़ी महात्मा गाँधी से नहीं मिली है, लेकिन गाँधी के बारे में जानती है और मानती है कि गाँधी के बगैर हिंदुस्तान नहीं चल सकता। सबके निहितार्थ अलग-अलग हैं। प्रभाष जी के लिए भी गाँधी का अर्थ उनकी कर्मठता और जीवन दर्शन में रहा। कहीं पढ़ा था, उनका वक्तव्य जिसमें उन्होंने गाँधी जी के एक तसवीर को उद्घृत करते हुए कहा था, 'इस तस्वीर की खास बात है, गाँधीजी बाएँ हाथ से लिख रहे हैं। यह रेयर तस्वीर है। गाँधी संग्रहालय से निकलवाकर इसे बनवाया है। गाँधीजी जब दाएँ हाथ से लिखते-लिखते थक जाते थे तो वे खुद को आराम देने की बजाय बाएँ हाथ से लिखते थे और बाएँ हाथ से उसी सहजता और प्रवाह से लिखते थे जितना कि दाएँ हाथ से। तो ये होती है आदमी में काम करने की लगन।Ó प्रभाषजी ने भी कर्मठ का गाँधीजी से सीखी थी।

शनिवार, 23 जनवरी 2010

देवदारू

लंबी कतारों वाले पेड़ से
पूछना है
तुम कब से खड़े हो?
तुम इतने जवान हो
हरे-भरे
कि लगता ही नहीं
तुम मेरे दादा के जमाने से
खड़े हो
पत्तियों के तिकोने मुख
कितने ताजे लगते हैं
छाल खरोंचने पर
ताजा दूध छलक आता है
देवदारू
तुमने वे राजा लोग देखे थे
उनके बर्बर कारिंदे
आजादी के नारे लगाते वे
जवान शहीद हो गए।
तो देवदारू तुम जरूर देखोगे
क्रान्ति
और वे मामूली लोग
स्वयं अपना निर्णय करेंगे
तुम खड़े हो देवदारू
भविष्य की प्रतीक्षा में
इसलिए व्यर्थ नहीं लगते।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

दलाईलामा और तवांग यात्रा

प्रकृति अनन्त शक्तियों का भण्डार है । वैज्ञानिकों ने वायुयान, रेडियो, विद्युत, वाष्प आदि के अनेक आश्चर्य जनक आविष्कार किये हैं और नित्यप्रति होते जा रहे हैं पर प्रकृति का शक्ति भण्डार अनन्त और अपार है कि धुरधंर वैज्ञानिक अब तक यही कह रहे हैं कि हमने उस महासागर में से अभी कुछ सीपें और घोघें ही ढूंढ पाये हैं । उस अनन्त तत्व के शक्ति परिमाणुओं की महान् शक्ति का उल्लेख करते हुए सर्वमान्य वैज्ञानिक डॉक्टर टामसन कहते हैं कि एक 'शक्ति-परिमाणुÓ (इलैक्ट्रान) की ताकत से लन्दन जैसे तीन नगरों को भस्म किया जा सकता है । ऐसे अरबों-खरबों परिमाणु एक एक इंच जगह में घूम रहे हैं फिर समस्त ब्रह्माण्ड की शक्ति की तुलना ही क्या हो सकती है । हमारी आत्मा भी इसी चेतन्य तत्व का अंश है हमारे शरीर में भी असंख्य इलैक्ट्रान व्याप्त हैं इसलिए मानवीय शरीर और आत्मा भी अनन्य शक्ति सम्पन्न है उसे हाड़-माँस का पुतला मात्र न समझना चाहिए । काल चक्र सदैव घूमता रहता है उसी के अनुसार संसार की अनन्त विद्याओं में से समय पाकर कोई लुप्त हो जाती है तो कोई प्रकाश में आती है । अब तक कितनी ही विद्यायें लुप्त और प्रकट हो चुकीं हैं और आगे कितनी लुप्त और प्रकट होने वाली हैं इसे हम नहीं जानते । आज जिस प्रकार भौतिक तत्वों के अन्वेषण से योरोप में नित्य नये वैज्ञानिक यंत्रों का आविष्कार हो रहा है उसी प्रकार अब से कुछ सहास्रब्दियों पूर्व भारत वर्ष में आध्यात्म विद्या और ब्रह्मविद्या का बोलवाला था । उस समय योग के ऐसे साधनों का आविष्कार हुआ था जिनके द्वारा नाना प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करके साधक लोग ईश्वर का साक्षात्कार करते थे और जीवन मुक्त हो जाते थे ।
इसी ईश्वीर साक्षात्कार से ओतप्रोत हैं दलाईलामा। चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो (6 जुलाई, 1935 - वर्तमान) तिब्बत के राष्टï्राध्यक्ष और आध्यात्मिक गुरू हैं। उनका जन्म 6 जुलाई, 1935 को उत्तर-पूर्वी तिब्बत के ताकस्तेर क्षेत्र में रहने वाले येओमान परिवार में हुआ था। दो वर्ष की अवस्था में बालक ल्हामो धोण्डुप की पहचान 13 वें दलाई लामा थुबटेन ग्यात्सो के अवतार के रूप में की गई। दलाई लामा एक मंगोलियाई पदवी है जिसका मतलब होता है ज्ञान का महासागर और दलाई लामा के वंशज करूणा, अवलोकेतेश्वर के बुद्ध के गुणों के साक्षात रूप माने जाते हैं। बोधिसत्व ऐसे ज्ञानी लोग होते हैं जिन्होंने अपने निर्वाण को टाल दिया हो और मानवता की रक्षा के लिए पुनर्जन्म लेने का निर्णय लिया हो। उन्हें सम्मान से परमपावन की कहा जाता है। वर्ष 1949 में तिब्बत पर चीन के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा से कहा गया कि वह पूर्ण राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में ले लें। 1954 में वह माओ जेडांग, डेंग जियोपिंग जैसे कई चीनी नेताओं से बातचीत करने के लिए बीजिंग भी गए। लेकिन आखिरकार वर्ष 1959 में ल्हासा में चीनी सेनाओं द्वारा तिब्बती राष्ट्रीय आंदोलन को बेरहमी से कुचले जाने के बाद वह निर्वासन में जाने को मजबूर हो गए। इसके बाद से ही वह उत्तर भारत के शहर धर्मशाला में रह रहे हैं जो केंद्रीय तिब्बती प्रशासन का मुख्यालय है। तिब्बत पर चीन के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा ने संयुक्त राष्ट्र से तिब्बत मुद्दे को सुलझाने की अपील की है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इस संबंध में 1959, 1961 और 1965 में तीन प्रस्ताव पारित किए जा चुके हैं। 1963 में दलाई लामा ने तिब्बत के लिए एक लोकतांत्रिक संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया। इसके बाद परमपावन ने इसमें कई सुधार किए। हालांकि, मई 1990 में तक ही दलाई लामा द्वारा किए गए मूलभूत सुधारों को एक वास्तविक लोकतांत्रिक सरकार के रूप में वास्तविक स्वरूप प्रदान किया जा सका। इस वर्ष अब तक परमपावन द्वारा नियुक्त होने वाले तिब्बती मंत्रिमंडल; काशग और दसवीं संसद को भंग कर दिया गया और नए चुनाव करवाए गए। निर्वासित ग्यारहवीं तिब्बती संसद के सदस्यों का चुनाव भारत व दुनिया के 33 देशों में रहने वाले तिब्बतियों के एक व्यक्ति एक मत के आधार पर हुआ। धर्मशाला में केंद्रीय निर्वासित तिब्बती संसद मे अध्यक्ष व उपाध्यक्ष सहित कुल 46 सदस्य हैं। 1992 में दलाई लामा ने यह घोषणा की कि जब तिब्बत स्वतंत्र हो जाएगा तो उसके बाद सबसे पहला लक्ष्य होगा कि एक अंतरिम सरकार की स्थापना करना जिसकी पहली प्राथमिकता यह होगी तिब्बत के लोकतांत्रिसंविधान के प्रारूप तैयार करने और उसे स्वीकार करने के लिए एक संविधान सभा का चुनाव करना। इसके बाद तिब्बती लोग अपनी सरकार का चुनाव करेंगे और परमपावन दलाई लामा अपनी सभी राजनीतिक शक्तियां नवनिर्वाचित अंतरिम राष्ट्रपति को सौंप देंगे। वर्ष 2001 में दलाई लामा के परामर्श पर तिब्बती संसद ने निर्वासित तिब्बती संविधान में संशोधन किया और तिब्बत के कार्यकारी प्रमुख के प्रत्यक्ष निर्वाचन का प्रावधान किया। निर्वाचित कार्यकारी प्रमुख अपने कैबिनेट के सहयोगियों का नामांकन करता है और उनकी नियुक्ति के लिए संसद से स्वीकृति लेता है। पहले प्रत्यक्ष निर्वाचित कार्यकारी प्रमुख ने सितम्बर 2001 में कार्यभार ग्रहण किया।
हर तिब्बती दलाई लामा के साथ गहरा व अकथनीय जुड़ाव रखता है। तिब्बतियों के लिए परमपावन समूचे तिब्बत के प्रतीक हैं: भूमि के सौंदर्य, उसकी नदियों व झीलों की पवित्रता, उसके आकाश की पुनीतता, उसके पर्वतों की दृढ़ता और उसके लोगों की ताकत का। तिब्बत की मुक्ति के लिए अहिंसक संघर्ष जारी रखने हेतु परमपावन दलाई लामा को वर्ष 1989 का नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्होंने लगातार अहिंसा की नीति का समर्थन करना जारी रखा है, यहां तक कि अत्यधिक दमन की परिस्थिति में भी। शांति, अहिंसा और हर सचेतन प्राणी की खुशी के लिए काम करना परमपावन दलाई लामा के जीवन का बुनियादी सिधांत है। वह वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं पर भी चिंता प्रकट करते रहते हैं। परमपावन दलाई लामा ने 52 से अधिक देशों का दौरा किया है और कई प्रमुख देशों के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और शासकों से मिले हैं। उन्होंने कई धर्म के प्रमुखों और कई प्रमुख वैज्ञानिकों से मुलाकात की है। परमपावन के शांति संदेश, अहिंसा, अंतर धार्मिक मेलमिलाप, सार्वभौमिक उत्तरदायित्व और करूणा के विचारों को मान्यता के रूप में 1959 से अब तक उनको 60 मानद डॉक्टरेट, पुरस्कार, सम्मान आदि प्राप्त हुए हैं। परमपावन ने 50 से अधिक पुस्तकें लिखीं हैं। परमपावन अपने को एक साधारण बौध भिक्षु ही मानते हैं। दुनियाभर में अपनी यात्राओं और व्याख्यान के दौरान उनका साधारण व करूणामय स्वभाव उनसे मिलने वाले हर व्यक्ति को गहराई तक प्रभावित करता है। उनका संदेश है प्यार, करूणा और क्षमाशीलता।
गत दिनों अरुणाचल प्रदेश का तवांग इलाका तिब्बती आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा के भव्य स्वागत को तैयार किया गया। तवांग यात्रा के दौरान उन्होंने कई धार्मिक समारोहों में शिरकत किया। चीन के ऐतराज के बावजूद भारत और विशेषकर अरूणाचल के लोगों ने दलाई लामा का जोरदार स्वागत कर किया। हर जगह लहराते तिरंगे और तिब्बती ध्वज चीन के जख्मों पर नमक छिड़कते रहे। बर्फ से अटे पहाड़ों के बीच 10 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित तवांग में जगह-जगह दलाई लामा की तस्वीरें और झंडे लगे रहे। 'भारत-तिब्बत संबंध जिंदाबादÓ के बैनरों से रास्ते अटे हुए रहे। कई लोगों का कहना है कि चीन को चिढ़ाने के लिए ही यहां तिरंगे लगाए गए हैं। स्थानीय लोगों में दलाई लामा की यात्रा को लेकर जबर्दस्त उत्साह है। इस बार सिक्यूरिटी ज्यादा कड़ी है। लेकिन सेना की मदद नहीं ली गई है।
दलाई लामा की फेवरिट डिश बनाने के लिए खानसामों को एक महीने से ट्रेनिंग दी गई। दलाई लामा को दिए जाने वाले गिफ्ट एक साल से इक_ा किए जा रहे थे। इनमें धार्मिक पुस्तकें, स्तूपों के नन्हे रेप्लिका, मूर्तियां और फूल आदि प्रमुख हैं। नेपाल और भूटान से भी सैकड़ों भक्त आए हुए हैं। ऐसा नहीं है कि इस बार दलाई लामा की पहली तवांग यात्रा हो। दलाई लामा पहले भी पांच बार तवांग आ चुके हैं। उनकी यात्रा से भारत का मेसिज स्पष्ट है कि तवांग हमारा अभिन्न हिस्सा है। यहां के लोग भी खुद को भारतीय मानते हैं। भारत दलाई लामा को सम्माननीय अतिथि का दर्जा देता है। चीन के विरोध के कारण दलाई लामा की यात्रा पर दुनिया भर की नजरें हैं। चीन ने मांग की थी कि भारत दलाई लामा को अरुणाचल दौरे की इजाजत न दे। लेकिन भारत ने स्पष्ट कह दिया कि हम दलाई लामा को कहीं भी आने-जाने से नहीं रोकेंगे। दलाई लामा की यात्रा की कवरेज के लिए विदेशी मीडिया को आने की इजाजत नहीं दी गई । कई विदेशी पत्रकारों के परमिट कैंसल कर दिए गए। तमाम विदेशी पत्रकारों की अजिर्यों पर कोई फैसला नहीं लिया गया है। भारत का कहना है कि दलाई लामा की यात्रा के दौरान विदेशी पत्रकारों को जाने की इजाजत नहीं मिली।
राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय बहसों से बेपरवाह तवांग विहार अपने आध्यात्मिक गुरू की अगवानी के लिए पलक पांवड़े बिछा रहा है। यहां 188 भिक्षुणियां दलाई लामा को भेंट किए जाने वाले पीतल के कटोरे को तैयार करने में लगी हुई हैं। तैयारियों का पर्यवेक्षण का रहे विहार के लामा लोपोंन ने बताया कि राज्य के विभिन्न विहारों से 775 भिक्षु और 188 भिक्षुणियां तवांग पहुंच रही हैं सभी दलाई लामा की बाधा रहित यात्ना के लिए प्रार्थनाएं कर रहे हैं।
दलाई लामा के तवांग आगमन पर विशेष समारोह कुसुग्तुग्तेन का आयोजन किया जाएगा। श्री लोपोन ने कहा कि पिछले साल दलाई लामा राजनीतिक कारणों से यहां नहीं आ सके थे। उन्होंने उम्मीद जतायी कि इस बार ऐसा नहीं होगा। काबिलेगौर है कि राज्य के मुख्यमंत्नी दोरजी खांडू तवांग क्षेत्न से हैं और उन्होंने निजी तौर पर तैयारियों की समीक्षा की । दलाई लामा की अगवानी में वह तवांग में वह स्वयं मौजूद रहे। लुमला क्षेत्न के पूर्व विधायक टी जी रिम्पोछे बोमडिला के विहार से आने वाले 256 भिक्षुओं के दल का नेतृत्व किया। दलाई लामा के सबसे बड़े अभियान के समर्थन में स्थानीय लोग सहायता रूवरूप धन और सोन-चांदी के सिक्के जमा कर रहे थे।
अरुणाचल प्रदेश का यह इलाका चीन बॉर्डर से सटा हुआ है। चीन यहां के कुछ इलाके पर अपना दावा जताता रहा है। लेकिन भारत इसका कड़ा विरोध करता है। तवांग मठ 300 साल पुरानी मॉनेस्ट्री है। दलाई लामा 1959 में ल्हासा से भागकर जब भारत आए थे, तब इसी मठ में ठहरे थे। भारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध में चीनी फौजें अरुणाचल प्रदेश में काफी अंदर तक घुस आई थीं। चीन ने 1914 में खींची गई मैकमहन रेखा को कभी मान्यता नहीं दी और 90 हजार वर्ग किलोमीटर के इलाके पर अपना दावा करता रहा। इसमें से ज्यादातर इलाका अरुणाचल में आता है। भारत चीन पर कश्मीर में 8000 वर्ग किमी का इलाका कब्जाने का आरोप लगाता रहा है।
अपनी यात्रा के दौरान धार्मिक गुरु दलाई लामा ने चीन के उन दावों को ग़लत बताया है जिनमें कहा गया है कि वो एक अलगाववादी आंदोलन चला रहे हैं। दलाई लामा ने अपनी यात्रा को ग़ैर-राजनीतिक बताते हुए कहा, 'ये चीन के लिए आम बात है कि मैं कहीं भी जाऊं वो मेरे ख़िलाफ़ अभियान तेज़ कर देते है। Ó तवांग में पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा कि उनकी यात्रा का उद्देश्य विश्व भाईचारा बढ़ाना है। तवांग में 400 साल पुराना तिब्बती बौद्ध मठ है और दलाई लामा यहां से जुड़े रहे हैं। वर्ष 1959 में जब तिब्बत में चीनियों के ख़िलाफ़ विद्रोह विफल हो गया था तब दलाई लामा अपने साथियों के साथ भारत की ओर भागे थे। उन्होंने पहला क़दम अरुणाचल में रखा और तवांग उनका पहला पड़ाव बना। दलाई लामा की एक झलक पाने के लिए लोग ट्रक पर लद कर और कई मील की पैदल यात्रा करके तवांग पहुँचे ताकि वे अपने धार्मिक गुरु की एक झलक पा सकें।
इस सबके बीच प्राकृतिक रूप से अपनी समृद्धता तथा चीन और भारत के रिश्तों की गर्माहट को लेकर चर्चा में रहने वाले तवांग के लोगों को इस बात को लेकर संशय है कि अपनी बढ़ती उम्र व व्यस्त कार्यक्रम के चलते फिर तिब्बती आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा दोबारा यहाँ आएँगे अथवा नहीं। उल्लेखनीय है कि तमाम विवादों के बीच तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा पिछले हफ्ते अरुणाचलप्रदेश के तवांग के दौर पर गए थे। ग्रैमी पुरस्कार के लिए नामांकित हो चुके लामा ताशी ने कहा कि वे इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि 74 वर्षीय दलाई लामा फिर कभी यहाँ आएँगे। ताशी ने कहा उनका अंतरराष्ट्रीय महत्व है और वे बहुत व्यस्त रहते हैं। कोई नहीं कह सकता कि उनके दोबारा दौरे को हर स्तर पर स्वीकार्यता मिल पाएगी या नहीं। स्थानीय लोगों को आशंका है कि बढ़ती उम्र और तवांग की दस हजार फुट की ऊँचाई उन्हें फिर कभी इस ठंडे स्थान पर आने देगी या नहीं। दलाई लामा के पिछले दो दौरों के प्रत्यक्षदर्शी रहे तोरजी खाण्डू ने कहा दलाई लामा वृद्ध होते जा रहे हैं। उनके हर दौरे पर पर पडऩे वाले राजनीतिक प्रभाव की वजह से शायद उनका यह दौरा अंतिम हो। दलाई लामा के दौरे पर 87 वर्षीय रेंपा सेरिंग का कहना है चीन शायद अगले दलाई लामा का राज्याभिषेक न होने दे। उनके प्रत्येक दौरे पर चीन आपत्ति जताता है और अरुणाचल के इस भाग को अपना बताने का दावा करता है। इसलिए वह पंद्रहवें दलाई लामा के राज्याभिषेक को रोकने की पूरी कोशिश करूँगा।
करीब पाँच सौ साल पुराने मठ के प्रमुख रिनपोछे ने कहा वे पूरी तरह से चुस्त-दुरुस्त हैं और उन्हें कोई स्वास्थ्य संबंधी समस्या भी नहीं है, इसलिए मुझे लगता है कि वे दोबारा जरूर यहाँ आएँगे। रिनपोछे ने कहा कि दलाई लामा को लोगों से मिलना बहुत पसंद है और रात के भोजन में चावल और सब्जी लेते हैं। उल्लेखनीय है कि दलाई लामा तवांग में चार दिनों तक रहे और वहाँ के लगभग हर इलाके का उन्होंने दौरा किया। इस दौरान वे अपनी स्कॉर्पियो गाड़ी से घूम रहे थे और उनका स्वागत करने के लिए इलाके के लोग सड़क के दोनों ओर रंग-बिरंगे झंडे लेकर कतारबद्ध नजर आए।

शनिवार, 16 जनवरी 2010

आयोग क्यूँ !

लोकतांत्रिक प्रणाली में 'लोगÓ की प्राथमिकता होती है। सो, लोगों की मनोदशा का अंदाजा लगाकर किसी भी अप्रिय घटना के बाद शासनपक्ष द्वारा फौरन जांच आयोग का गठन किया जाना रस्मअदायगी बन चुकी है। जिसका हश्र जनता को पहले से ही पता होता है। आखिर क्यों? अहम सवाल है। न्याय के बारे में एक कहावत है हमारी परम्परा में कि न्याय तो त्वरित होना चाहिए और मुफ्त होना चाहिए। आज जहां किसी मामले के निपटारे में कोर्ट 20 वर्ष भी लगा देता है तो त्वरित होने की बात स्वत: ही खत्म हो जाती है और मुफ्त न्याय की बात तो मजाक ही लगती है, क्योंकि न्यायलयों पर बाजार बुरी तरह से हावी है। न्यायलय परिसर में घुसते ही वकीलों और दलालों की जो लूट-खसोट मचती है, उसकी अपेक्षा तो कभी-कभी चोर और डाकू भी ज्यादा मानवीय लगते हैं।
भारतीय कार्यपद्घति अंग्रेजों की देन, कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। शासन-प्रशासन की कार्यप्रणाली, बोल-चाल सब में अंग्रेजियत। यही कारण है कि इक्कीसवीं सदी में आवाज उठने लगी है कि आमूलचूल परिवर्तन की। वह भी हर कदम पर। चाहे कार्यपालिका हो, विधायिका हो अथवा न्यायपालिका। तभी तो उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति के।जी. बालाकृष्णन को भी कहना पड़ता है कि न्याय में देरी होने से बगावत हो सकती है । जानकारों की रायशुमारी में न्याय में देरी होने का मुख्य कारण अभियोजन पक्ष होता है जिसके ऊपर पूरा नियंत्रण राज्य का होता है । राज्य की ही अगर दुर्दशा है तो न्याय और अन्याय में कोई अंतर नहीं रह जाता है । आज अधिकांश थानों का सामान्य खर्चा व उनका सरकारी कामकाज अपराधियों के पैसों से चलता है । उत्तर प्रदेश में पुलिस अधिकारियों व करमचारियों का भी एक लम्बा अपराधिक इतिहास है कैसे निष्पक्ष विवेचना हो सकती है और लोगो को इन अपराधिक इतिहास रखने वाले अपराधियों से न्याय कैसे न्याय मिल सकता है ?
हालिया घटनाक्रम में छेड़छाड़ के दोषी हरियाणा के पूर्व पुलिस प्रमुख एसपीएस राठौर को मिले अभूतपूर्व संरक्षण का सच उजागर होने के बाद केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार भी सक्रियता दिखा रही है तो सिर्फ इस कारण कि इस शर्मनाक मामले में मीडिया देश को उद्वेलित करने में सफल रहा। यह लगभग तय है कि यदि टेनिस खिलाड़ी रुचिका के साथ छेडख़ानी करने और फिर उसके परिवार का जीना हराम कर देने वाले राठौर को सजा के नाम पर एक तरह का पुरस्कार मिलने पर चारों ओर से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जाती तो कहीं कुछ होने वाला नहीं था। हालांकि यह कहना कठिन है कि आखिर इसके पहले हरियाणा के प्रशासनिक अथवा न्यायिक तंत्र ने इसकी सुधि क्यों नहीं ली कि एक परिवार 19 साल से न्याय के लिए भटक रहा है? हरियाणा की एक के बाद एक सरकारों ने जिस तरह राठौर की सहायता की उससे इस आम धारणा की पुष्टि ही होती है कि मौजूदा व्यवस्था में भ्रष्टाचार और अनैतिकता को कदम-कदम पर संरक्षण मिलता है।
गौर किया जाए तो यह केवल एक रूचिका प्रकरण में ही नहीं हुआ है। स्वतंत्र भारत में कई ऐसे मामले हुए हैं जिनकी न्यायिक और जांच आयोगों की कार्रवाइयां वर्षों हुई हैं। और जब बात परिणाम की आती है तो वही ढाक के तीन पात। चर्चित बोफोर्स कांड जिसमें तथाकथित रूप से 64 करोड़ रुपए की दलाली की बात उठी थी, उस पर वर्षों जांच होती रही और जांच के नाम पर 250 करोड़ रुपए से अधिक की राशि बर्बाद कर दी गई। लेकिन, नतीजा रहा सिफर। ऐसे में आम जनता के मन में यही सवाल उठता है कि इससे अच्छा होता कि इस मामले को लेकर जांच ही नहीं की जाती है। बोफोर्स कांड ने नेता, सरकार और भ्रष्टाचारियों को साहस दिया है कि तुम दलाली खाते-फैलाते रहो, हम तुम्हारे साथ हैं। इसी का परिणाम है कि कभी एस।पी.एस. राठौर तो कभी आर.के. शर्मा, नागराजन सरीखें नौकरशाहों का नाम चर्चा में आता है। इनके साथ अमरमणि त्रिपाठी, मनु शर्मा, संतोष यादव जैसे भी आते हैं। तो न्यायपालिका के नुमाइंदे सौमित्र सेन और दिनाकरन भी सामने आते हैं। देश में न जाने कितने राठौर ऐसे हैं जिन्हें अपने दुष्कृत्यों के लिए छह माह तो क्या छह मिनट की भी सजा नहीं मिली। इसी प्रकार रुचिका की तरह न जाने कितनी युवतियां और परिवार ऐसे हैं जिनकी पीड़ा से कोई अवगत तक नहीं हो सका।
ये तो हुई कुछ व्यक्तिगत मामले, जिनमें व्यक्ति विशेष के खिलाफ ही कार्रवाई की बात है। सामूहिक मामले, भोपाल गैस त्रासदी को हुए 25 वर्ष हुए, जांच आयोगों बैठी, और नतीजा? इसी प्रकार 17 वर्ष व्यतीत करने के बाद भी अयोघ्या की सरजमीं पर जांच आयोग के मुखिया न्यायधीश लिब्राहन ने कदम तक नहीं रखा और सैकड़ों पृष्ठ की रिपोर्ट तैयार कर दी। आखिर रिपोर्ट का नतीजा क्या आया? कुछ तो नहीं। महज खानपूर्ति ही तो हुई । इसलिए यह सवाल एक बार फिर से उठ खड़ा हुआ है कि ऐसे आयोगों का क्या उपयोग है? इस सवाल को और ज्यादा गंभीरता से उठाया जाना चाहिए क्योंकि वर्तमान समय में और भी कई महत्वपूर्ण आयोग और उनकी रिपोर्टे अधर में लटकी हुई हैं। उन पर या तो कोई कार्रवाई हो ही नहीं रही और अगर हो रही है तो उसकी गति बहुत धीमी है। गोपाल सिंह आयोग, रंगनाथ मिश्र आयोग और बेशक सच्चर आयोग की बात करें तो इनमें से बहुत से आयोगों ने ऐसी गंभीर समस्याओं की ओर हमारा ध्यान खींचा, जो देश को पतन की ओर ले जा रही हैं। एक ओर जहां गोपाल सिंह और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टो को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है, वहीं सच्चर कमेटी पर प्रधानमंत्री के पंद्रह सूत्रीय कार्यक्रम की अभी शुरुआत भी नहीं हो पाई है। इसलिए स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठ खड़ा होता है कि जांच आयोग क्यों होने चाहिए? हमने अनगिनत मुद्दों के लिए ढेर सारे आयोगों को बनते देखा है।
दिल्ली में सरकारी विद्यालय में शिक्षक डा। राकेश कुमार कहते हैं कि इस देश में आयोगों के गठन का कोई औचित्य ही नहीं है। देश में जब भी कोई हादसा होता है, जांच आयोग बिठा दिया जाता है। जांच आयोग के निहितार्थ यही हैं, एक सरकारी संस्था जो शक्ति-अधिकार विहीन है, यह किसी अपराधी को पेशी के लिए मजबूर नहीं कर सकता। इसकी रिपोर्ट और इसके समक्ष दिए बयानों का कोई महत्व नहीं होता। यह आयोग सजा नहीं दे सकता। तब खुद ही निर्णय करें इसका औचित्य क्या है? इसकी प्रभावहीनता पर प्रश्नचिह्न् लगे हैं। वह सवालिया लहजे में यह भी कहते हैं कि आखिर आखिर कब तक ऐसा चलता रहेगा। मेजर उन्नीकृष्णन के पिता का आक्रोश करना उचित है, क्योंकि यह आक्रोश चरमराई व्यवस्था की ओर था। क्योंकि हर कोई सोचता है कि हमारे शहीद बेटे ने तो देश के लिए लड़ाई लड़ी। अब उसके जाने के बाद अब उनको लड़ाई लडऩी पड़ रही है वो भी व्यवस्था के प्रति। आखिर कब तक हमको इस तरह की व्यवस्थाओं से जूझना पड़ेगा। कब इस देश के लिए कुर्बानी देने वाले के माता-पिता गर्व करना महसूस करेंगे।
भारतीय शासन की परंपरा रही है कि राजकीय हिंसा का विरोध करने वाली शक्तियों की सबसे प्रमुख मांग जांच के लिए समितियां अथवा आयोग का गठन करने की रही है। सरकार किसी भी प्रकार के हिंसा अथवा भ्रष्टïाचार के विरूद्घ खड़ी शक्तियों की व्यापकता को भंग करने तथा प्रतिमरोध में बिखराव डालने के लिए इस मांग को हथियार के रूप में इस्तेमाल करती रही है। अमूमन कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट नंबर साठ ऑफ 1952 के तहत कुछेक बड़ी घटनाओं को लेकर आयोगों का गठन किया जाता है। आयोगों के लिए नियुक्त किए जाने वाले न्यायधीशों के लिए कोई मापदण्ड नहीं है। प्रतिरोध झेल रही है सरकारें ही स्वयं तय करती हैं और न्यायधीशों की नियुक्ति हो जाती है। दिलचस्प बात यह भी है कि सरकारें आयोग के गठन की पहली सूचना जब प्रकाशित करती है तभी हिंसा के शिकार लोगों को 'उपद्रवीÓ 'हिंसा पर उतारूÓ जैसे शब्दों से विभूषित कर देती है। यह भी ध्यान रहे कि राज्य ढांचे की एक महत्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका के ही न्यायाधीश नुमांइदेे होते हैं, जिन्हें राज्य ढंाचे की सुरक्षा का प्रशिक्षण प्राप्त होता है। इतना ही नहीं, राज्य ढांचे के दूसरे महत्वपूर्ण स्तंभ कार्यपालिकों के नुमाइंदे की कार्रवाई की जांच करनी होती है। यह भी बात है कि न्यायापालिका की जांच एजेंसी भी कार्यपालिका ही है।
इतिहास साक्षी है कि कालेलकर आयोग (1955) ने दलित समुदाय की जरूरतों के मद्देनजर बहुत ऐतिहासिक काम किया, लेकिन उसका क्रियान्वयन ढेर सारे पैबंदों से भरा और निष्प्रभावी था। 1977 में जनता सरकार ने मंडल आयोग का गठन किया था। 1990 तक इस आयोग की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में पड़ी रही। फिर वीपी सिंह ने इस आयोग की रिपोर्ट पर कार्रवाई की और इसने हिंदुस्तानी सियासत की शतरंज की बिसात ही बदल दी। इन जांच आयोगों के परिणाम दलितों और निचली जातियों के लिए बहुत सकारात्मक रहे। इसके अलावा जगमोहन रेड्डी (1969, अहमदाबाद), जस्टिस मेडोन आयोग (भिवंडी, मालेगांव 1970), नानावटी आयोग (1984 के सिख विरोधी दंगों के संबंध में), जस्टिस श्रीकृष्ण आयोग (1992-93 के मुंबई दंगे) और बनर्जी आयोग (2002, गोधरा ट्रेन कांड)। नानावटी शाह आयोग को गुजरात दंगों के संबंधी रिपोर्ट को लेकर भी मामला निपटा नहीं है। इनमें एक समानता यह भी है कि उन सभी की संस्तुतियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई और अमूमन दोषियों को कोई सजा नहीं दी गई।
दरअसल, जांच आयोग गठित करने की परंपरा खासी पुरानी है। 1952 में लोकसभा ने बाकायदा जांच आयोग अआिँानियम को पारित कर इसे कानूनी जामा पहनाने का काम किया था। सबसे पहला आयोग कांग्रेसी नेता और तंत्कालीन वित्तमंत्री कृष्णमचारी की राजनीतिक बलि का कारण बना। कृष्णमचारी की गिनती नेहरू के प्रिय सहयोगियों में की जाती थी। हरीदास मूंदड़ा नाम के एक उद्योगपति के साथ कृष्णमचारी की निकटता के चलते सरकार को 166 करोड़ की चपत लगी। भारी हंगामा मचा तो सरकार ने 1957 में एक जांच आयोग गठित कर डाला। चूंकि तब तक भारतीय राजनीति में नैतिकता का पूरी तरह ह्वास नहीं हुआ था और राजनेताओं ने भी लोकलाज का सार्वजनिक रूप से त्याग नहीं किया था इसलिए इस जांच आयोग की रिपोर्ट को आधार बना मूंदड़ा पर कानूनी कार्रवाई हुई और कृष्णमचारी को पद त्यागना पड़ा। लेकिन यह शुरुआती दौर की बात थी। धीरे-धीरे इन आयोगों का गठन अपराधियों को बचाने के लिए किया जाने लगा।
आईआईटी मुंबई के प्रोफेसर रह चुके राम पुनियानी भी कहते हैं कि इंदिरा गांधी के शासनकाल में लगाई इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच के लिए बने शाह कमीशन, मुंबई दंगों की जांच के लिए बनाए गए श्रीकृष्ण कमीशन, गुजरात के नानावती कमीशन, महात्मा गांधी की याद में बनी संस्थाओं की जांच के लिए बने कुदाल कमीशन, सिखों पर हुए अत्याचार के लिए बने रंगनाथ मिश्र आयोग आदि कुछ ऐसे आयोग हैं, जो 1952 के एक्ट के आधार पर बने थे और उनसे कोई फायदा नहीं हुआ। सभी जानकार मानते हैं कि कमीशन ऑफ इंक्वायरी एक्ट 1952 के आधार पर बने आयोग के नतीजों पर कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर।सी. लाहोटी ने तो यहां तक कह दिया था कि इस तरह के कमीशन का कोई महत्त्व नहीं होता। किसी भी जज को 1952 के इस एक्ट के तहत बनाए जाने वाले कमीशन की अध्यक्षता का काम स्वीकार ही नहीं करना चाहिए। न्यायमूर्ति लाहोटी ने कहा है कि इस एक्ट के हिसाब से जांच आयोग बैठाकर सरकारें बहुत ही कूटनीतिक तरीके से मामले को टाल देती हैं। उनका कहना है कि अगर इन आयोगों की जांच को प्रभावकारी बनाना है, तो संविधान में संशोधन करके उस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए। कुदाल कमीशन के आला जांच अधिकारी रह चुके और पुलिस महानिदेशक पद से अवकाश ग्रहण कर चुके जनार्दन सिंह का कहना है कि किसी ज्वलंत मसले पर शुरू हुई बहस की गर्मी से बचने के लिए सरकारें इसका बार-बार इस्तेमाल कर चुकी हैं।
काबिलेगौर है कि 1984 में इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के बाद सिख विरोधी दंगों ने अकेले दिल्ली में सैकड़ों निर्दोषों की जान ले ली। सभी जानते हैं कि कांग्रेसी नेताओं के इशारे पर यह दंगा आयोजित किया गया और दिल्ली पुलिस मूकदर्शक बनी देखती रही। इस प्रकरण को लेकर लंबे अर्से तक जमकर राजनीति हुई, आज भी होती है। कई जांच आयोग बनाए गए लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। यहां तक कि नरसंहार के लिए खुले तौर पर आरोपी ठहराए गए कांग्रेसी नेताओं को पार्टी का टिकट दिया जाता रहा और वह चुनाव जीत कर सांसद और मंत्री भी बने। लेकिन सजा किसी को नहीं हुई। पच्चीस साल बीत गए हैं लेकिन सिख विरोधी दंगों के आरोपियों पर ठोस कार्रवाई नहीं हो सकी। इन दंगों में दिल्ली पुलिस की सवालिया भूमिका को लेकर जब मामला गरमाने लगा तो एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया था। कपूर-मित्तल कमेटी ने दिल्ली पुलिस के 72 पुलिसकर्मियों को दंगों में सीधे लिप्त होने का दोषी माना था और उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की अनुशंसा की थी, पर हुआ कुछ नहीं। राजीव गांधी की सरकार ने न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र आयोग बनाया। बाद में एनडीए सरकार ने नानावती आयोग गठित किया। दोनों ही आयोगों ने इन दंगों की जांच की, रिपोर्ट भी दी लेकिन नतीजा सिफर। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं की भूमिका को लेकर सवाल उठे थे। इन सवालों के जवाब तलाशने का काम एक जांच आयोग को सौंपा गया। जैन आयोग ने क्या किया यह कोई नहीं जानता।
बहरहाल, शासक आयोग के अलावा राजकीय हिंसा की बहुतेरी घटनाओं की अन्य माध्यमों से भी जांच कराने का ढोंग करता है। एक माध्यम में उच्चाधिकारी की एक सदस्यीय अथवा एक से ज्यादा सदस्यीय टीम को घटनास्थल पर भेजा जाता है। अपने मातहत रहने वाले अधिकारियों की कार्रवाईयों के बारे में जांच करने के लिए जाने वाली ये टीमें स्वभावत: अधिकांश घटनाओं को न्यायोचित ठहराती है।जांच की इस पद्घति में जब किसी विरोधाभास के कारण कोई प्रतिकूल निष्कर्ष आ जाता है तब उसकी फाइलें धूल चाटने के लिए छोड़ दी जाती है। गोपनीयता जैसे गूढ़ शब्दों के जाल में फंसाकार ऐसी रपटों पर सख्त पहरा बैठा दिया जाता है। कभी-कभार प्रतिकूल रिपोर्ट आने पर सरकारें कार्रवाई भी करती है। वह भी महज एक औपचारिकता पूरी करने की कार्रवाई।
इसे राजनीतिक विद्रूपता कहा जाए अथवा लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विडंबना कि देश की राजधानी नई दिल्ली हो अथवा उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र, केरल और तमिलनाडु तक यही हालात हैं। राज्यों में अपने प्रतिद्वंद्वियों को ठिकाने लगाने के उद्देश्य से आयोगों का गठन एक चलन सा बन गया है। इन आयोगों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। कई बार तात्कालिक आक्रोश को दबाने के लिए भी आयोग बना पूरे मामले की निष्पक्ष जांच कराने का आश्वासन दे सरकारें अपने दायित्व से मुक्ति पा लेती हैं।

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

आँसुओं का न कहें...

पहले आंसुओं को संभालने-संजोने की बात होती रही है लेकिन अब आप जल्दी ही आंसुओं को गहनों की तरह पहने लोगों को भी देख सकते हैं। युवतियों में आजकल जिस तरह फैशनेबल कपड़ों का क्रेज बढ़ रहा है, उसी तरह डिजाइनर ज्वेलरी भी उन्हें लुभा रही हैं। कुछ ऐसा ही शगल आज के हुनरमंद प्रोफेशनल्स का भी है। आभूषण के डिजाइन बनाने का काम अब सिर्फ सुनारों का नहीं रह गया है। यह काम सुनारों की दुकानों से निकलकर अब डिग्रीघारी प्रोफेशनल्स के पास आ गया है। तभी तो हर दिन नए प्रयोग किए जा रहे हैं।
इसका ताजा उदाहरण है 'आँसू की ज्वैलरीÓ यानी टियर ज्वैलरी। आंसुओं को संभालने-संजोने की बात तो जाने कितने कवियों और शायरों ने की है, लेकिन अब आप जल्दी ही आंसुओं को गहनों की तरह पहने लोगों को भी देख सकते हैं। जी हां, टैटू और शरीर छिदवाने के बाद ये है अनूठे अलंकारों का नया ट्रेंड, टियर ज्वैलरी। लोगों को सहज विश्वास नहीं हो रहा है। लेकिन सच्चाई तो यही है। एक जमाना था जब लोग निवेश के तौर पर ज्वेलरी खरीदते थे, लेकिन आज यह निवेश नहीं बल्कि लाइफ स्टाइल तथा स्टेटस सिंबल हो गया है। रही सही कसर सास—बहू के सीरियलों ने पूरी कर दी है। अब लोग डिजाइनर ज्वेलरी न सिर्फ पहनते हैं, बल्कि अपने घर को भी सजाने में कसर नहीं छोड़ रहे हैं। इस प्रकार बदलते ट्रेंड के चलते ज्वेलरी डिजाइनिंग एक बढिय़ा करियर के रूप में युवाओं को अकर्षित कर रहा है। इतना ही नहीं आकर्षण के साथ दिनों दिन इस क्षेत्र में करियर की संभावनाएं भी बढ़ रही हैं।
तभी तो ज्वैलरी डिजाइनिंग में नित्य नवीन अनुसंधान हो रहे हैं। कुछ समय पूर्व डेली वियर और फैशन को देखते हुए ज्वेलरी के क्षेत्र में नई पहल शुरु हो गई है। सस्ती और फैशनेबल ज्वेलरी को मार्केट में उतारा जा रहा है। यही वजह है कि बीडेड और ग्लास ज्वेलरी का क्रेज बढ़ा है, जो बेहद सस्ती होने के साथ-साथ स्टाइलिश भी है। वजन और डिजाइन में तो यह नंबर वन है। बच्चों से लेकर बुजुर्गो की पसंद को देखते हुए ज्वेलरी उपलब्ध है, जिसमें नेकलेस सेट, ब्रेसलेट, पायल, झुमके, बेल्ट, बैग, रिंग, हेयर बैंड, बिछिया आदि हैं। बीडेड और ग्लास की बनी ये ज्वेलरी डिफरेंट कलर्स में है। टीनएजर्स के लिए ज्यादातर ब्राइट कलर अपनाए गए हैं। वैसे बीडेड और ग्लास ज्वेलरी सौ अलग-अलग रंगों में उपलब्ध है।
तो हालिया घटनाक्रम में लोगों को बेसब्री से 'आँसू के गहनेÓ की लालसा जग गइ्र्र है। ये सचमुच के आंसू नहीं, बल्कि आंसू से दिखने वाले ऐसे गहने हैं जिन्हें आंखों में पहना जा सकता है। क्रिस्टल और फूलों जैसे अलग-अलग आकार वाले यह आंसू महीन तार की मदद से कांटैक्ट लैंस से जुड़े होते हैं, जिन्हें आप आंखों में पहन सकते हैं। धूप में यह ऐसे चमकते जैसे इसे पहनने वाला वाकई रो रहा हो। इसे डिजाइन करने वाले एरिक क्लेरेनबीक कहते हैं कि यह इतनी आरामदायक हैं कि पहनने वाले को पता ही नहीं चलता कि कुछ पहना हुआ है। इससे आपकी आंखों को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचता। आपकी पुतलियों के हिलने के साथ ही यह ज्वैलरी भी हिलती है। बकौल एरिक, ' मैंने इसे प्रायोगिक तौर पर उतारा था लेकिन लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रिया देखते हुए मैं इसे बड़े पैमाने पर बेचने की सोच रहा हूं। फिलहाल तो यह ज्वैलरी एरिक के आनलाइन स्टोर से 200 पौंड में खरीदी जा सकती है।Ó मगर लोगों को उम्मीद है कि जल्द ही यह सामान्य बाजारों में उपलब्ध होगी और चाहने वाले अपनों के सामने आँसू के साथ होंगे। है न नया शगल।
दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस की छात्रा सृष्टिï कहती है कि अभी तक ज्वेलरी पहनने का क्रेज एक उम्र के बाद ही माना जाता है। छोटी उम्र में ज्वेलरी पहनने का शौक कम हो रहा है, लेकिन बीडेउ और ग्लास ज्वेलरी का नया टें्रड इस मान्यता को बदल रहा है। कुछ लोग ज्वेलरी सिर्फ इसलिए नहीं पहनते , क्योंकि महंगे होने के साथ इनके खो जाने का खतरा बना रहता है। लेकिन बीडेड और ग्लास ज्वेलरी के साथ ऐसा नहीं है, क्योंकि यह सस्ती और स्टाइलिश है। बेहद सस्ती होने के कारण वर्किंग वूमेन को भी ये ज्वेलरी खूब भा रही है। जबसे हमने सुना है कि टियर ज्वैलरी भी बाजार में आने वाली है तो हमारा दिल तो उस पर ही लगा है। कब यहां क्े बाजारों में मिले और हम देेखें।
इसका कारण जहां इस क्षेत्र में प्रोफेशनल्स का आना और टीनएजर्स के च्वाईस में वेरायटी आना है वहीं दूसरी ओर यह बाजार के कारण भी हो रहा है। विशेषकर, पिछले दिनों जिस प्रकार से पारंपरिक धातु सोने के दामों में वृद्घि हुई उसके कारण भी लोग आर्टिफिशिलय ज्वैलरी की ओर मुड़े। एमजीएफ माल स्थित गिफ्ट शाप आर्चीज के संचालक धीरज के मुताबिक इन दिनों आर्टीफिशियल ज्वेलरी की डिमांड बढ़ गई है। वह बताते हैं कि पहले तो सिर्फ युवतियां ही इस तरह की ज्वलेरी के प्रति आकर्षित थी लेकिन अब बड़े-बुजुर्ग भी आर्टीफिशियल ज्वेलरी लेना पसंद कर रहे हैं। वह बताते हैं कि जो ब्रांडेड ज्वेलरी होती है वह अपनी डिजाइन तथा पालिशिंग के चलते महंगी आती है तथा लोग उसे लेने में कोई गुरेज नहीं करते क्योंकि सोना अब लोगों की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। सोने के दाम हो या फिर झपटमारी की घटनाएं इन कारणों से आर्टीफिशियल व डिजाइनर ज्वलेरी की न सिर्फ मांग बढ़ी दी है बल्कि उनके भाव भी बढ़ा दिए हैं।

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

स्वागत महाकुंभ

विश्व प्रसिद्ध कुंभ मेला शुरू हो चुका है। भारी संख्या में श्रद्धांलु पहुंचने लगे हैं। मेले में किसी को किसी तरह की परेशानी न हो, इसके लिए मेला प्रशासन पूरी तरह चौकस है। सुरक्षा के संबंध में करीब छह हजार पुलिस जवानों की तैनाती के साथ-साथ 60 कंपनी अद्र्ध सैनिक बल, 20 कंपनी पीएसी की तैनाती की गई है
नए वर्ष के दस्तक देने के साथ ही विश्व प्रसिद्ध महाकुंभ मेला भी शुरू हो गया है। नया राज्य बनने के बाद पहली बार आयोजित हो रहे मेले के लिए सरकार ने एक जनवरी से 30 अप्रैल तक की अवधि के लिए कुंभ के लिए मेला क्षेत्र से संबंधित अधिसूचना जारी कर दी है। मेला क्षेत्र में जनपद हरिद्वार, देहरादून, टिहरी और पौड़ी शामिल किए गए हैं। संपूर्ण कुंभ मेला क्षेत्र करीब 130 वर्ग किमी। में फैला हुआ है। इस बार मेले में आने वाले अधिकांश श्रद्धालुओं के लिए नीलकंठ महादेव मंदिर को भी मेला क्षेत्र में शामिल किया गया है। सचिव शहरी विकास श्री वधावन ने मेला क्षेत्र से संबंधित अधिसूचना जारी की है। यह अधिसूचना एक जनवरी से 30 अप्रैल तक लागू रहेगी।
एक जनवरी से शुरू हुए इस मेले में अखाड़ा परिषद ने तेरह अखाड़ों के संबंध में मेला प्रशासन से भूमि आवंटन के बाद सभी अखाड़ों ने अपनी तैयारी शुरू कर दी है। मेले के संबंध में कराए जाने वाले निर्माण कार्यों को पूरा कर लेने का प्रशासन दावा कर रहा है। दुनिया भर से आने वाले श्रद्धालुओं की सुरक्षा व व्यवस्था के पुख्ता इंतजाम किए गए हैं। सरकार ने गंभीरता दिखाते हुए स्थायी व अस्थायी निर्माण कार्यों को अमलीजामा पहनाया है।
पहला मकर संक्रांति स्नान 14 जनवरी को होने के मद्देनजर राज्य के प्रमुख सचिव और उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव के बीच बीते दिन हुई समीक्षा बैठक को मेले के संबंध में अंतिम रूप देते हुए अन्य जिम्मेदारियों को भी अमलीजामा पहनाने का भरोसा दिलाया है। प्रमुख समस्या यातायात व्यवस्था के साथ-साथ पार्किंग की व्यवस्था के संबंध में दोनों राज्यों ने आपसी तालमेल बैठाते हुए कार्य करने की रणनीति बनाई है ताकि बाहर से आने वाले छोटे-बड़े वाहनों को व्यवस्थित किया जा सके। वाहनों को पार्क करने व जाम की स्थिति से निपटने के लिए पड़ोसी राज्यों के जनपदों में भी अस्थायी पार्किंग की व्यवस्था की गई है। इस संबंध में प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री ने भी नहर किनारे कांवड़ मेले पटरी को दुरुस्त करते हुए उसका इस्तेमाल हल्के वाहनों के लिए की बात कही है। यह भी निर्देश दिया गया है कि इस कांवड़ पटरी का इस्तेमाल भारी वाहनों के लिए न किया जाए। मेला प्रशासन द्वारा 13 अखाड़ों के महामंडलेश्वरों के लिए अलग से स्थान उपलब्ध कराते हुए उनकी व्यवस्था की गई है। इसके अलावा अखाड़ों को उनके मुताबिक भूमि भी उपलब्ध कराई गई है। मेले में श्रद्धालुओं की सुरक्षा के संबंध में करीब छह हजार पुलिस जवानों की तैनाती के साथ-साथ 60 कंपनी अद्र्ध सैनिक बल, 20 कंपनी पीएसी की तैनाती की गई है। इसके साथ ही 31 थाने मेला क्षेत्र में सक्रिय होकर काम करेंगे। डीआईजी का कहना है कि सुरक्षा के लिहाज से महाकुंभ मेला अति संवेदनशील है। मेले में किसी भी प्रकार की कोई भी लापरवाही सुरक्षा के लिए घातक हो सकती है, इसलिए सुरक्षा व्यवस्था काफी पुख्ता है। उनका यह भी कहना है कि मेला प्रशासन को सहयोग करने के लिए स्थानीय नागरिकों के साथ-साथ तीर्थ यात्रियों को भी जागरूक किया जाएगा। मेले में हरकी पौड़ी सहित गंगा में समुचित जलापूर्ति बनी रह इसके लिए भी उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव से अनुरोध किया गया है, जिस पर उन्होंने राज्य को इस ओर विशेष ध्यान रखते हुए जलापूर्ति रखने का भरोसा दिलाया है।

बुधवार, 13 जनवरी 2010

ऑटोबायोग्राफी


सन् 1940 से 1950 तक

इसी दौरान मैं इस नश्वर संसार में अवतरित हुआ था। बुद्धिजीवी लोग मेरे अवतरित शब्द पर कुछ प्रश्न खड़े सकते हैं और मुझ पर देवत्व का भ्रम पाले रखने का इल्जाम भी लगा सकते हैं जबकि मैं एक सामान्य जन से बढ़कर कुछ भी नहीं हूं। मेरा बचपन किसी भी मायने में विशिष्ट नहीं था... एक सीधी-सादी जिंदगी, बिना किसी अलंकार के कटता बचपन। एक साधारण किसान का साधारण बेटा। मां विशुद्ध ग्रामीण घरेलू महिला जिसका कार्य पति की सेवा करना, घरेलू कार्यों को संपन्न करने में निरंतरता रखना एवं मेरी देखभाल करने तक ही सीमित थी। मां मुझे अकसर गोद में लेती और बड़े सुर में कोई धार्मिक गीत-गाना शुरू कर देती जिसमें मुझे अवतार स्थापित करती और खुद राजसी भाव का भ्रम पालने का प्रयास करती।


सन् 1951 से 1960 तक

भारत के अधिकांश लड़कों की तरह मेरी पढ़ाई-लिखाई हुई। एक टिपिकल हिंदुस्तानी छात्र जो आज की तरह अंग्रेज बनकर स्कूल नहीं जाता था, जिसे संस्कृत में अच्छे अंक मिलने पर शाबाशी मिलती थी, जो अच्छा पत्र या निबंध लिखता तो श्रेष्ठ छात्रों की श्रेणी में स्थान पाता। पढ़ाई में मैं हमेशा अव्वल रहा लेकिन मेरे माता-पिता ने कभी मेरे प्रथम आने पर अपने दोस्तों को 'कॉकटेलÓ पार्टी पर नहीं बुलाया। हां, मेरे रिजल्ट आने पर मैंने अपनी मां को दोवताओं के फोटो के सामने कुछ बुदबुदाते हुए अवश्य देखा था।


सन् 1961 से 1970 तक

मैं पढ़-लिखकर सरकारी सेवा में आ गया। मां-पिताजी से दूर चला गया मैं। हफ्ते में एक बार पिताजी की चिट्ठी मिलती थी जिसका जवाब मैं तुरंत दे देता था। तनख्वाह मिलते ही मैं उसमें से अच्छी खासी रकम घर मनीऑर्डर कर देता था। पिताजी ने उन रुपयों को बचाकर गांव में कुछ जमीन खरीद ली थी। एक गाय भी दरवाजे पर आ खड़ी हुई थी। इसी दौरान मेरी शादी भी हो गई। सरकारी नौकरीवाला लड़का सबकी पहली पसंद बन जाता है। मेरी शादी भी एक अच्छे परिवार में हो गई थी।


सन् 1971 से 1980 तक

पत्नी जब ससुराल अर्थात मेरे घर आई तो मेरे साथ शहर जाने की जिद करन लगी। मेरी इच्छा थी कि कुछ दिन वह गांव में मेरे माता-पिता के साथ रहे लेकिन उसकी वाणी की उग्रता देखकर माता-पिता ने अपने दिल की बात दिल में ही दफन कर उसे मेरे साथ शहर भेज दिया था। फिर फरमाइशों का एक लंबा सफर शुरू हुआ... मिस्टर सिन्हा के यहां जो पलंग है, मैं भी बस वैसा ही लूंगी... इस घर में बहुत गर्मी लगती है, एक टेबुल फैन चाहिए। प्रोविडेंट फंड के कीमती पैसे बाजार में बिखरने लगे थे और मैं इन भौतिक प्रपंचों में उलझता चला गया था।


सन् 19८१ से 1990 तक

मां और पिताजी दोनों का देहांत इसी दौरान हुआ था। वैसे मृत्यु तो पृथ्वी का एकमात्र सत्य है लेकिन पुत्र के फर्ज को मैं भी निभा न सका। बाजार में गए पैसे को मैं वापस कैसे लाता? मेरे पास पैसे नहीं थे और गंभीर बीमारियों के शिकार वे दोनों एक के बाद एक परलोक सिधार गए। फिर पत्नी की फरमाइस हुई कि गांव की जमीन बेचकर शहर में ही कुछ जमीन खरीदी जाए और एक मकान बना लिया जाए। मैंने कठपुतली की तरह वैसा ही किया और जिस दिन मैंने गांव की जमीन बेची, उस रात मैं बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोया। आंगन में पड़े मां के चूल्हे को मैं घंटों निहारता रहा था।


सन् 1991 से 2000 तक

बच्चे... नहीं.... बच्चा... एक जवान बेटे का बाप था मैं। इसी दौरान मेरा बेटा नौकरी में गया और मैं नौकरी से सेवनिवृत्त हो गया। बेटे की शादी भी हुई और पत्नी के साथ वह भी शहर में जाकर बस गया। गाहे-बगाहे कभी अपनी मां और मुझसे मिलने आ जाता था लेकिन उससे न तो मेरी प्यास बुझ पाती थी और न ही मां की ममता को शीतलता प्राप्त हो पाती थी। मेरी बहू तो दो-दो साल तक हमारे पास नहीं आती। हां, अपने मायके वह नियमित जाया करती। अब हम मात्र दो जनों का परिवार बनकर रह गए थे। एक बार बहू जब हमारे यहां आई थी तो आने के दूसरे ही दिन रसोईघर से मेरी पत्नी के रोने की आवाज सुनाई दी। मैंने कारण जानना उचित नहीं समझा लेकिन मेरी समझ में सारी बातें आ गई थीं। मेरी बहू मेरी पत्नी का सारा जेवर बंधक रखकर शहर में जमीन खरीदना चाहती थी जिसके लिए मेरी पत्नी तैयार नहीं थी। फिर तो बहू ने एलान-ए-जंग कर दिया और बूढ़ी हड्डी इस जंग के लिए तैयार नहीं हो पाई थी और रोकर इस नाटक का पटाक्षेप कर दिया।


सन् 2001 से २००८

संघर्ष, अपमान और विद्रोह... इन सबके बीच अपन जीवन का सायंकाल व्यतीत हो रहा था। भौतिकता और सांसारिकता आत्मीयता और भावुकता पर हावी हो गया था। अपनों का विद्रोह निरंतरता बनाए रखा था। दुनिया के सब कुछ अनजान-सा लग रहा था। इतने दिनों का संघर्ष घाव के मवाद की तरह बह रहा था। शेष शून्य बनकर रह गया था। जिजीविषा और आत्मबल साथ छोडऩे पर आमादा हो गए थे। बाजारवाद के इस दौर में दोस्त और दुश्मन के बीच फर्क खत्म होने लगा था। चारों ओर अंधेरे का सम्राज्य कायम था और अखबारों-पत्रिकाओं में विकास दर में बढ़ोतरी के जश्न मनाए जा रहे थे। दोस्त... पत्नी... बेटा... बहू और मां-पिताजी के बीच जिंदगी बसर करने वाला मैं आज बिलकुल तन्हा हो गया हूं। पत्नी दिनभर पूजापाठ और व्रत में समय गुजार रही है लेकिन उसका पूजापाठ मुझे किसी पाखंड से कम नहीं लग रहा है। आज बहू जो कुछ भी करती है, उसका प्रेरणाबीज कहीं न कहीं मेरी पत्नी ही है। यह अलग बात है कि पत्नी को मेरी बहू ने बहू के रूप में नहीं देखा, बल्कि सास के रूप में ही देखा है। आज मैं बाप होकर भी बेटे के दीदार से विमुख हो गया हूं। पता नहीं, पिता के कॉलम में भी मेरा बेटा मेरा नाम लिखता होगा या नहीं? जिस दिन बहू ने मेरी पत्नी के सारे जेवर मांगे उसी दिन से मेरा बेटा भी अपनी मां से नाराज हो गया था। बाजार पूरे शबाब पर था।


सन् २००९

आज मेरी मृत्यु हो गई है। मैं अपनी लाश के करीब खड़ा हूं। लोगों की भीड़ जुट गई है... मैं एक-एक चेहरे को पहचानने की कोशिश कर रहा हूं... अरे यह तो रामधन है... वही रामधन जिसकी बुरी नजर जवानी में मेरी पत्नी पर थी। लंपटों की जमात मुझे मोक्ष दिलाने के लिए खड़ी है। पास ही मेरी पत्नी, मेरा बेटा और मेरी बहू भी खड़ी है। मेरी लाश उठकर भागना चाहती है लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद भी मेरी लाश ज्यों की त्यों पड़ी है। अब मैं अपनों का चेहरा पढऩे की कोशिश करने लगता हूं... लेकिन पढ़ नहीं पाता... जिंदा लोगों ने अपने चेहरे के ऊपपर कई चेहरे लगाए दिखने लगे हैं। मेरी अर्थी सजने लगी है। अब मेरा शरीर जलने ही वाला है... अरे, अब तो अर्थी की आग जोर पकडऩे लगी है... मैं जल रहा हूं तभी भीड़ में से एक व्यक्ति चिल्लाया- आज सेन्सेक्स काफी उछाल पर है... मैं तो यहां से सीधे बाजार जाकर अपने सारे शेयर बेच दूंगा।




संपर्क :सत्येंद्र कुमार झा

आकाशवाणी केंद्र, दरभंगा- 846004 बिहार,

मो। 09709773853

सोमवार, 11 जनवरी 2010

कितने सफल साबित होंगे गडकरी

वर्तमान में भाजपा का किला दरका हुआ है और ऐसे में कमान सौंप दी गई है युवा नेता नितिन गडकरी को। गडकरी का अर्थ होता है 'किले की रक्षा करने वाला।Ó तो सवाल उठता है कि गडकरी अपने नाम को कितना सार्थक कर पाएंगे? प्रश्न यह है कि आडवाणी या राजनाथ सिंह के जाने के बाद भाजपा में कोई खास परिवर्तन आ पाएगा? क्या पार्टी के भीतर गहरे तक पैठ जमा चुकी कलह पर विराम लग सकेगा? क्या पार्टी व्यक्ति में बदलाव के साथ-साथ अपने विचारों को भी बदल पाएगी? वैसे तो ऐसा कुछ होगा नहीं, हां, अगर होता है, तो इसे महज चमत्कार ही मानिएगा।
देश की राजधानी नई दिल्ली में भाजपा के नवनियुक्त राष्टï्रीय अध्यक्ष निनित गडकरी ने पार्टी मुख्यालय में अपने पहले ही औपचारिक संबोधन में कहा कि अल्पसंख्यकों और दलितों तक पहुंचकर पार्टी का संगठनात्मक विस्तार करना उनकी पहली प्राथमिकता होगी। पार्टी की विचारधारा का आधार राष्ट्रवाद था, है और रहेगा। अनुशासन, दृढ़ संकल्प, परस्पर विश्वास एवं सम्मान यह हमारी कार्यपद्धति की आधारशिला होगी। साथ में ही उन्होंने कह डाला कि अगले तीन वर्षो में मुझे पार्टी का संगठनात्मक विस्तार करना है। हमें पार्टी का वोट बैंक बढ़ाना है। हम अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों, असंगठित श्रमिकों तक पहुंच बनाएंगे और अल्पसंख्कों के लिए और अधिक काम करेंगे।
साथ ही संकेत मिलने लगा है कि गडकरी विपक्ष को एकजुट करने में अभी से ही जुट गए हैं। झारखण्ड को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। साथ ही पार्टी के अंदर भी जिन नेताओं को हाशिए पर डाल दिया गया था, उनकी भी अब पूछ होने के संकेत मिले हैं। ऐसे हालात में सत्तारूढ़ कांग्रेसियों के लिए परेशानी खड़ी हो सकती है।
देखा जाए तो किसी राजनीतिक दल के मुखिया होने के लिहाज से उनका वक्तव्य जरूरी भी था और उचित भी। लेकिन सियासी गलियारों सहित तमाम राजनीतिक प्रेक्षकों के जेहन में एक सवाल यह भी है कि क्या विभिन्न कुनबों में हो रहे घात-प्रतिघात से क्या गडकरी पार्टी को 'पार्टी विद ए डिफरेंसÓ के तहत आगे बढ़ा पाएंगे? नाम के निहितार्थ जो कि एक किले की रक्षा करने वाला होता है, क्या पार्टी को तमाम झंझावातों से निकालते हुए मुकाम तक ले जाने में समर्थ होंगे।
सवाल यह भी अहम है कि क्या नितिन गडकरी दिल्ली की कथित भाजपा चौकड़ी की मौजूदगी में पार्टी को प्रभावी नेतृत्व दे पाएंगे? क्या दिल्ली का समर्थन-सहयोग गडकरी को मिल पाएगा? ये सवाल हवा में उछाले जा रहे हैं। कुछ लोग अचंभित है कि 'दिल्ली संस्कृतिÓ से दूर 'झुनका भाकरÓ संस्कृति वाले गडकरी राजधानी की चिकनी सड़कों पर पैर जमाएंगे तो कैसे? मगर, गडकरी को जानने वाले कहते हैं कि गडकरी जरूरत पडऩे पर कारपोरेट संस्कृति और आवश्यकतानुसार गली-कूचों की संस्कृति को न केवल सरलतापूर्वक अपना लेते हैं बल्कि इनकी वेश-भूषा में सफल नेतृत्व भी भली-भांति कर लेते हैं। गडकरी राजनीति के लिए नहीं, बल्कि विकास के लिए राजनीति करने वाले राजनीतिक हैं।
राजनीति में व्यक्ति नेता तभी तक रहता है, जब तक समय उसका साथ देता है। कुछ ऐसे ही हालात भारतीय जनता पार्टी के हैं, जहां आखिरकार लालकृष्ण आडवाणी युग का अंत हो गया है। आडवाणी अब से भाजपा के लिए कुछ नहीं हैं; ठीक अटल बिहारी वाजपेयी की तरह। पार्टी के भीतर-बाहर अब लालकृष्ण आडवाणी का नाम कम ही सुना-बोला जाएगा। गडकरी को भाजपा के कार्यकर्ताओं को संगठन की सर्वोच्चता और महिमा के प्रति आश्वस्त करते हुए नए मुहावरे और यौवन की संघर्षगामी दिशा देनी होगी। वे उन राज्यों व क्षेत्रों में जहां पहले जनसंघ और अब भाजपा का गहरा प्रभाव रहा है, पार्टी के राजनीतिक-सांगठनिक क्षरण को भी रोकना चाहेंगे और कर्नाटक यदि दक्षिण विजय के लिए भाजपा का पहला पड़ाव बना है, तो नए कदम आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल की ओर कितना बढ़ पाएंगे, यह देखना होगा।
सियासी हलकों में तो यह भी कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव में हार के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा की खामियां दूर करने का जो 'भागवत एजेंडाÓ बनाया था, नए अध्यक्ष नितिन गडकरी उसे लागू करने में जुट गए हैं। संघ की जन्म स्थली नागपुर में संघ के अनुशासन में पले बढ़े गडकरी ने पार्टी में नई 'कार्य संस्कृतिÓ लागू करने का संकेत दे दिया है । इस कार्य संस्कृति में चाटुकार को जगह नहीं मिलेगी। नई टीम में उन्हें जगह मिलेगी जो ड्राइंग रूम से राजनीति करने के बजाय आम आदमी के बीच जाएंगे।

शनिवार, 9 जनवरी 2010

जिन्दगी

संघर्ष में तब्दील करो जिन्दगी को
देखना तुम्हारी ख्वाहिशें कितनी
पारदर्शी हो जाएँगी
धवल चाँदनी-सी
ले जाएँगी तुम्हें
आसमान की उन ऊँचाइयों पर
जो कभी तुम्हारे वजूद की
परछाइयों में ढला करती थीं।
वाजदा खान

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

अगले महीने घूमेगा महामशीन

प्रकृति के गहरे राज आज भी वैज्ञानिकों के लिए राज ही बने हुए हैं। ज्योतिष के सहारे लोग अपना भविष्य जानने को उत्सुक होते हैं तो हाईड्रोन कोलाइडर (एलएचसी) के सहारे वैज्ञानिक सृष्टिï के सृजनात्मक तत्व का ज्ञान हासिल करना चाहते हैं। शुरूआती सफलता मशीन के निर्माण का तो हो गया, लेकिन तकनीकी खराबियों के कारण मशील फिलहाल बंद है। कहा जा रहा है कि वैज्ञानिक फरवरी में इसे फिर से शुरू करेंगे और शायद सृष्टिï के राजों का पर्दाफाश हो जाए।
यूरोपीयन ऑर्गनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च (सीईआरएन)ने कहा कि हाईड्रोन कोलाइडर(एलएचसी)के काम को फिर से फरवरी में शुरु किया जाएगा। एलएचसी ने कहा कि उच्च उर्जा स्तर पर प्रक्रिया को अंजाम देने की तैयारी के लिए काम रोका गया है। इसे फरवरी में दोबारा शुरू किया जाएगा। भौतिकशास्त्री का मानना है कि बिग बैंग के तुरंत बाद केवल एक ही ताकत थी। समय गुजरने के बाद यह चार ताकतों में बँट गई। उम्मीद की जा रही है कि आईएलसी के माध्यम से इस शुरुआती ताकत को पैदा करके देखा जा सकेगा कि यह किस तरह चार ताकतों में विभक्त होती है। इसके अलावा यह ब्रह्मांड में मौजूद डार्क मैटर पर भी नई जानकारी मुहैया कराएगी। दो दर्जन से अधिक देशों के 300 विश्वविद्यालयों तथा प्रयोगशालाओं के 2000 से अधिक लोग इस प्रयोग से जुड़े है। तीन साल पहले शुरू हुए लगभग 32 अरब रुपए के इस प्रोजेक्ट पर अभी तक 12 अरब रुपए खर्च हो चुके हैं। उम्मीद है कि इसका फाइनल डिजाइन 2012 तक आ जाएगा। हालाँकि इसे किस देश में स्थापित किया जाएगा, इसका फैसला अभी बाकी है। पर अंदाजा लगाया जा रहा है कि इसे भी स्विट्जरलैंड में लगाया जाएगा।
काबिलेगौर है कि सितंबर, 2008 में तकनीकी खराबी आ जाने के कारण शुरू होने के सात दिन बाद ही बंद हो गई महाविस्फोट मशीन यानी लार्ज हैड्रोन कोलाइडर (एलएचसी) सितंबर, 2009 में दोबारा चालू हुई थी। फ्रांस और स्विट्जरलैंड बॉर्डर के पास जमीन से 175 मीटर नीचे 27 किलोमीटर लंबी सुरंग में बनी इस मशीन में हीलियम के रिसाव के कारण गड़बड़ी पैदा हो गई थी, जिसके बाद इसे पिछले साल 10 सितंबर को बंद कर दिया गया था। सर्न के वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रयोग के दौरान वही परिस्थितियां पैदा होंगी जो ब्राह्मांड के निर्माण की थीं, जिसे बिग बैंग भी कहा जाता है। प्रयोग के लिए प्रोटॉनों को इस गोलाकार सुरंगों में दो विपरित दिशाओं से भेजा जाएगा। इनकी गति प्रकाश की गति के लगभग बराबर होगी और जैसा कि वैज्ञानिक बता रहे हैं प्रोटॉन एक सेकेंड में 11,000 से भी अधिक परिक्रमा पूरी करेंगे। इस प्रॉसेस के दौरान प्रोटॉन कुछ विशेष स्थानों पर आपस में टकराएंगे। इसके बाद एक चोंचदार पक्षी का ब्रेड का टुकड़ा गिरने से ब्रहमांड के रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए काम कर रही दुनिया की सबसे बड़ी मशीन को कुछ समय के लिए रोक दिया। माना गया कि यह पक्षी एक उल्लू था। संबंधित एजेंसी सीईआरएन ने कहा कि बाहरी विद्युत आपूर्ति लाइन पर गिरे रोटी के टुकड़े के कारण शार्ट सर्किट हो गया था, जिसके चलते ब्रहमांड का खुलासा करने के लिए किये जा रहे महाप्रयोग की शीतलन प्रणाली बंद हो गयी। सितंबर 2008 में शुरू हुई यह मशीन समस्याओं से घिरी रही है। हालांकि सीईआरएन का कहना है कि नयी घटना मामूली थी और इसने मरम्मत के बाद मशीन को फिर से शुरू करने के प्रयासों को प्रभावित नहीं किया।
दूसरी ओर, सापेक्षता के सिद्घांतों का जवाब ढूढंने के लिए एक और नई महामशीन बनाई गई है। जिनेवा में लार्ज हैडरन कोलाइडर (एलएचसी) के महापरीक्षण के कुछ समय बाद से ही वैज्ञानिक इससे भी बड़ी मशीन बनाने की तैयारी कर रहे हैं। इस मशीन का नाम रखा गया है 'इंटरनेशनल लीनियर कोलाइडरÓ (आईएलसी)। यह एक अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट है। इसका मकसद भी विज्ञान के अनसुलझे सवालों को खोजना होगा। प्रोजेक्ट के यूरोपियन डायरेक्टर और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ब्रायन फोस्टर बताते हैं कि आईएलसी भी एलएचसी के ढाँचे पर ही काम करेगी। इसके बावजूद यह उससे काफी अलग और एडवांस होगी। यह उससे ज्यादा लंबी यानी करीब 30-50 किलोमीटर की होगी। आईएलसी की तरह उसकी सुरंग गोल नहीं, बल्कि लंबी होगी। इसीलिए इसका नाम लीनियर कोलाइडर है। एलएचसी में तो प्रोटॉन बीम की आपसी टक्कर होना है, जबकि आईएलसी में मैटर (इलेक्ट्रॉन) और एंटी मैटर (पॉजिट्रॉन) की टक्कर होगी। इन दोनों पार्टिकलों को फायर करने के लिए इसमें दो 'गनÓ होंगी, जो आमने-सामने लगी होंगी। मैटर और एंटी मैटर के कणों को तेज गति से चलने वाली रेडियो तरंगों पर सवार कर एक-दूसरे से टकराया जाएगा। कहा तो यह भी जा रहा है कि पर्यावरणविद् हमेशा एलएचसी का विरोध करते रहे हैं क्योंकि इसकी एक बड़ी समस्या है कि इसमें प्रयोग के दौरान काफी 'कचराÓ निकलेगा, पर वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि आईएलसी पर्यावरण के लिहाज से एकदम क्लीन प्रोजेक्ट है। इसके अलावा आइंस्टीन ने अपनी थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी या सापेक्षता के सिद्धांत में कई सवाल उठाए थे जिनके जवाब आज तक नहीं ढूँढे जा सके हैं। उनके हिसाब से बहुत बड़ी और बहुत छोटी चीजों पर एक जैसे नियम नहीं लागू होने चाहिए। मसलन, परमाणुओं और सूक्ष्म कणों पर तीन तरह के इलेक्ट्रोमैग्नेटिक बल लगते हैं। इसके अलावा उन पर उनके नाभिकों की ताकतें भी लगती हैं। दूसरी ओर, चाँद-तारों पर एक चौथी ताकत ग्रेविटेशनल फोर्स भी काम करती है। आइंस्टीन के सिद्धांत की समस्या यह है कि उसके जरिये गुरुत्वाकर्षण और बाकी तीन बलों में तालमेल नहीं बैठाया जा सकता।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

वैधव्य की त्रासदी

कहा जाता है अभी भी पूर्णिमा की रात को वृन्दावन के जंगल में कृष्ण का महारास होता है। जो उसे देखने की कोशिश करता है वह जिंदा वापस नहीं आता है ...संभव है यह लक्षणा हो। कदाचित वृन्दावन की विधवाओं के संदर्भ में। यहां के विधवाश्रम में भी जो एक बार आ जाए, उसे किसी रूप में अपना अस्तित्व नहीं मिलता।
लीलाधरी श्रीकृष्ण की लीला नगरी वृंदावन के रास्ते आज भी बिल्कुल कुञ्ज गली कहलाने के लायक ही है । संकरी गलियों में से होकर गुजरने से जेहन में सवाल आता है कि यहाँ पर बांसुरी की धुन पर गोपियाँ कैसे दौड़ी होगी ! कैसे रासलीला करते होंगे कृष्ण !!! कहा जाता है अभी भी पूर्णिमा की रात को वृन्दावन के जंगल में कृष्ण का महारास होता है। जो उसे देखने की कोशिश करता है वह जिंदा वापस नहीं आता है ...संभव है यह लक्षणा हो। कदाचित वृन्दावन की विधवाओं के संदर्भ में। यहां के विधवाश्रम में भी जो एक बार आ जाए, उसे किसी रूप में अपना अस्तित्व नहीं मिलता।
रस्ते में एक विधवा आश्रम भी आया । यहाँ निराधार 2000 विधवाओं का पालन पोषण किया जाता है। उन्हें प्रात: थोड़ा काम करके पूरे दिन भक्ति में बिताना होता है । इसे विधवाओं की मजबूरी अथवा नित्यक्रिया का नाम दिया जा सकता है।
वृन्दावन और मथुरा में 8 गौशाला हैं मन्दिर की आय से जिन्हें चलाया जाता है और जहाँ तकऱीबन 5000 गाय रहती हैं । ये गाय वो हैं जिनको उनके 'मालिकोंÓ ने घरों से इसलिए निकल दिया क्योंकि या तो इन गायों का दूध सुख गया था या फिर किसी वजह से ये अपंग हो गयी थी । इन्हें कसाई को नहीं बेचा जाता हैं और मरने का बाद इनको जमीन में 1 किलो नमक के साथ गाड़ दिया जाता हैं । वृन्दावन और मथुरा में जहाँ तकऱीबन 5000 विधवा और अपंग स्त्रियाँ मंदिरों में रहती हैं । मन्दिर की आय से इनको 10 रुपए रोज और आधा किलो चावल मिलते हैं । ये कथन हैं एक गाइड का जो मथुरा-वृन्दावन में मिला ।
सच तो यही है कि मंदिरों के भीतर भगवान की प्रतिमाओं का सौन्दर्य, पंडों की सुविधानुसार टुकड़े-टुकड़े विभाजित सिकुड़ते दृश्यों में बंधा दर्शन मन में किसी भक्ति भावना को नहीं उकसाता। कोई आनन्द फलित नहीं होता वहां की धरती पर, कुछ भी नहीं। उत्साह के स्थान पर सहस्र आँखों का रुदन, दु:खी सताई हुई विधवाओं का हृदयविदारक क्रन्दन तीर्थों के भक्ति संगीत को लील गया है। वहाँ के विधवा-आश्रमों में जो बड़े-बड़े शहरों के रईसों, साहूकारों ने बनवाये हैं बारह घंटे जाप चलता है। नरकंकाल जैसी भूखी बीमार, बेसहारा वह विधवाएं जैसे अपने जन्म लेने की एक सजा भुगत रही हैं। कालकोठरी जैसे अंधेरे में डूबे उन आश्रमों में उनकी चेतना का रुपान्तरण यांत्रिक या मैकेनिकल ढंग से किया जाता है, उन विधवाओं का जाप जैसे कील पर पड़ता हथौड़ा-जिसे आश्रम के नियम ठोंक-ठोंक कर बैठाना चाह रहे हैं। यह आश्रम विधवाओं को मनुष्यत्व की योनि, उसके प्राकृतिक स्वरुप से निकाल कर उन्हें एक परतन्त्र ईकाई में बदल रहे हैं। जहाँ वह अपनी सभी क्षमताएं, संवेदनाएं खोकर एक अपाहिज की तरह कोई भी काम करने के लिए मजबूर है। उन्हें कुछ भी करना पड़ता है। बताया तो यह भी गया कि छ: घंटों के जाप के अतिरिक्त वेश्यावृत्ति भीख या उससे भी गिरे हुए कार्य जो आश्रम की अध्यक्षा की इच्छा या घृणा पर आधारित होते हैं। लेकिन, इन घृणित कार्यों का प्रमाण कौन देगा? सवाल अहम है।
वृन्दावन की गलियों, सड़कों मंदिरों और आश्रमों के गलियारों में पैदल चल-चल कर वहाँ की वास्तविकता से धीरे-धीरे साक्षात्कार होता गया। बहुत सी स्त्रियों से जो मंदिर में जाप कर रही थीं या सड़क के किनारे बैठी भीख माँग रही थीं बातचीत की, जानना चाहा उनकी अपनी सत्ता और स्वायत्तता, उनके जीवन का सच क्या था ? क्या हो गया है ? उनके दु:ख शारीरिक कष्ट उनकी व्याकुल प्रश्नाकुलता ने भीतर तक सिहरा दिया है।
अठारह साल की उम्र में विधवा हो चुकी सरिता अपने परिजनों के साथ ही समाज के ठेकेदारों से पूछती है, 'आखिर सफेद कपड़ों में पूरी जिंदगी कैसे कटेगी? कब तक कुलक्षणी होने का लांछन लगता रहेगा ?Ó लेकिन समाज के पास इसका कोई जवाब नहीं है। सरिता बक्सर जिले के रहने वाली हैं। 16 वर्ष की आयु में उसकी शादी हुई थी और मात्र दो साल के बाद ही वह विधवा हो गयी। उसके पति को अपराधियों ने गोलियों से भून दिया था। भरी जवानी में विधवा होने का दर्द क्या होता है, यह कोई सरिता से पूछे। आगे की जिंदगी उसके सामने डरावने सवाल की तरह खड़ी थी और सरिता के पास कोई जवाब नहीं था। ससुराल के साथ-साथ मायके से भी आये दिन ताने सुनने पड़ रहे थे। और, वर्तमान में वह वृन्दावन में वैधव्य की त्रासदी झेल रही है। कोटा से वृदांवन घूमने आई विधवा, जिसका नाम राधिका था, ने बताया कि रोजी-रोटी के लिए घर से बाहर निकलो तो लोग फब्तियाँ कसते हैं। कई बार मरने की इच्छा होती लेकिन छोटे बच्चे की तरफ देखती हूँ तो कदम थम जाते हैं। सवाल यह भी है कि इस जिम्मेदारी की बोझ को कैसे उठाये ? कोई उपाय नहीं सूझ रहा। इन महिलाओं के सामने एक जैसी समस्याएं हैं। पारिवारिक दायित्वों के अलावा एक बड़ी जिम्मेदारी यह भी कि बाल-बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा कैसे हो। चौखट से बाहर आते ही तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदार चिल्ला उठते हैं कि बिना मरद (मर्द) के बाहर कैसे जाओगी ? इज्जत बची रहेगी तो किसी न किसी तरह गुजारा हो ही जाएगा। यह है सभ्य समाज का साफ-सुथरा चेहरा, जहां महिलाओं पर चौखट से बाहर आते ही चरित्रहीनता का आरोप मढ़ दिया जाता है।
समाज में विधवाओं की लंबी सूची है जो पति की गैरमौजूदगी में कुंठित जिंदगी जी रही हैं और इस सामाजिक अभिशाप से मुक्ति चाहती हैं। महिला सशक्तिकरण के नाम पर भले ही देश में हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हों, लेकिन विधवा और परित्यक्ता महिलाओं का कल्याण और सशक्तिकरण शायद सरकारी दायरे से बाहर ही हैं। अकेली जिंदगी गुजार रहीं विधवा और परित्यक्तता महिलाओं की घुटनभरी जिंदगी की दास्तान किसी से छिपी हुई नहीं है। घर के भीतर कुलक्षणी, तो बाहर उन्हें अपशकून माना जाता है।
ऐसा नहीं है कि यह हाल केवल और केवल वृंदावन की ही है। अमूमन देश के भीतर जितने भी तीर्थ स्थान हैं, जहाँ लोगों की आवाजाही अधिक है, वहां विधवाश्रमों का अस्तित्व है। सच तो यह भी है कि भारत और चीन विश्व के उन देशों में शामिल हैं, जहां बहुत से लोग यह मानते हैं कि उनके देश में विधवाओं के साथ भेदभाव और तलाकशुदा महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार किया जाता है। गत दिनों वल्र्ड पब्लिक ओपिनियन डाट ओआरजी द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत और चीन सहित दुनिया के 17 देश ऐसे हैं, जहां के लोग इसी तरह का विचार रखते हैं। इन देशों के 28 प्रतिशत लोगों ने यह कहा कि उनके देशों में विधवाओं से कोई भेदभाव नहीं किया जाता है, जबकि 20 प्रतिशत लोगों ने यह कहा कि उनके देशों में विधवाओं के साथ थोड़ा बहुत भेदभाव किया जाता है। सर्वेक्षण में शामिल 18 प्रतिशत लोगों ने कहा कि विधवा महिलाओं के शोषण का स्तर काफी बढ़ रहा है। तलाकशुदा महिलाओं के बारे में 28 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनके खिलाफ कोई भेदभाव नहीं होता, जबकि 21 प्रतिशत ने कहा कि तलाकशुदा महिलाएं कहीं न कहीं थोड़ी बहुत भेदभाव की शिकार होती हैं। 18 प्रतिशत लोगों ने कहा कि तलाकशुदा महिलाएं बड़े पैमाने पर शोषण की शिकार हो रही हैं। सिर्फ दो देशों में अधिकतर लोगों ने कहा कि विधवाओं से कोई भेदभाव नहीं किया जाता है, जबकि एक देश के अधिकतर लोगों के अनुसार तलाकशुदा महिलाएं किसी भेदभाव की शिकार नहीं हैं। छह देशों में लोगों के एक बड़े तबके का यह मानना है कि विधवाओं के साथ किसी न किसी रूप में थोड़ा बहुत भेदभाव किया जाता है। इस तरह की राय रखने वालों में दक्षिण कोरिया 81 प्रतिशत, तुर्की 70 प्रतिशत, फलस्तीनी 61 प्रतिशत, नाइजीरिया 58 प्रतिशत और चीन 54 प्रतिशत शामिल हैं। भारत में 35 से 42 प्रतिशत लोगों का यह मानना है कि विधवाओं के साथ बुरा बर्ताव किया जाता है। चीन में 54 प्रतिशत लोग विधवाओं के साथ दुव्र्ययवहार की बात मानते हैं, जबकि वहां के 46 प्रतिशत लोगों का कहना है कि तलाकशुदा महिलाएं बुरे बर्ताव की शिकार होती हैं। इन आंकड़ों से यह तो समझ जा सकता है कि देश में करोड़ों औरतें अकेले जी रही हैं, किन्तु उनकी मुसीबतों का अंदाज अकेले आंकड़ों के आईने से लगाना असंभव है। एकल महिला अमीर हो या गरीब, मुसीबत मरते दम तक उसका पीछा नहीं छोड़ती। विधवा होना तो हमारे समाज में अभिशाप है ही, किन्तु पति या ससुराल के अत्याचारों से तंग आकर अलग रह रही स्त्री को भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। घर चाहे पति का हो या पिता का, अकेली औरत को आसरा देने का इच्छुक कोई नहीं होता। सामाजिक और धार्मिक बंधनों की बेडिय़ां डालकर उसे काबू में रखने की कोशिश की जती है। अकेली महिलाओं की संपत्ति, बच्चों और यौन इच्छा को घर-बाहर के पुरुष अपने नियंत्रण में रखने का प्रयास करते हैं। ऐसी महिलाओं को कानून का भी पर्याप्त सहारा नहीं मिल पाता। नतीज यह होता है कि उन्हें ताउम्र किसी न किसी के इशारों पर नाचना पड़ता है।
सवाल उठता है कि आखिर विधवा और परित्यक्ता महिलाओं के साथ समाज में दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों हो रहा है ? इस बाबत मानवाधिकार कार्यकर्ता जस्टिस एसएन झा बताते हैं कि जब तक महिलाएं अपने पैरों पर खुद खड़ी नहीं होंगी तबतक इनके प्रति समाज का दकिनयानूसी व्यवहारों में कोई खास कमी नहीं होगी। आंकड़ों पर गौर करें तो देश भर में विधवा महिलाओं की संख्या जहां आठ फीसद है वहीं विदुर पुरुष मात्र 2।5 फीसदी हैं। जबकि 67 फीसद महिलाएं ससुराल में रहती हैं । इनमें से अधिकतर ससुराल वालों की प्रताडऩा से परेशान हैं। ऐसी परिस्थितियों में विधवा पुनर्विवाह के इस अभियान का महत्व काफी बढ़ जाता है। लेकिन यह अभियान तब ही अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होगा जब इसमें अशिक्षित और गरीब महिलाओं के साथ-साथ शिक्षित और आर्थिक रूप से संपन्न महिलाएं भी हिस्सा लेंगी।

शनिवार, 2 जनवरी 2010

सुशासन में सूचना नहीं

सूचना का अधिकार कानून को स्वतंत्र भारत में एक क्रांतिकारी वदलाव के तौर पर देखा गया था लेकिन लगता है कि सरकार साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करते हुए किसी भी तरह से इससे मुक्ति चाहती है। हाल में कई ऐसे मामले आए हैं, जिसमें बिहार में सूचना मांगने वालों को प्रताडि़त करने की काफी शिकायतें आ रही हैं। अब बिहार सरकार ने सूचना पाने के नियमों में अवैध संशोधन करके एक आवेदन पर महज एक सूचना देने का नियम बनाया है। अब गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को सिर्फ दस पेज की सूचना निशुल्क मिलेगी, इससे अधिक पेज के लिए राशि जमा करनी होगी। ऐसे नियम पूरे देश के किसी राज्य में नहीं हैं।
जमीनी हकीकत यही है कि पंचायत स्तर से लेकर सरकारी विभागों के स्तर तक इस मामले में प्रताडऩा के कई मामले सामने आ चुके हैं। सरकारी योजनाओं में बरती गई अनियमितताओं को दबाने-छिपाने वाला अधिकारी या कर्मचारी वर्ग यहाँ लोगों के सूचना-अधिकार के खिलाफ हमलावर रुख़ अपना चुका है। बिहार में तीन साल पहले इस अधिनियम को लागू करते समय दिखने वाली सरकारी तत्परता की देश भर में सराहना हुई थी। आज स्थिति उलट गई लगती है। कारण है कि अब इसी राज्य में नागरिकों के सूचना-अधिकार का हनन सबसे ज़्यादा हो रहा है। हालत यहाँ तक बिगड़ चुकी है कि भ्रष्टाचार साबित कर देने जैसी सूचना मांगने वालों को झूठे मुक़दमों में फँसाया जा रहा है। ऐसे लोगों को जेल भेज देने की भी धमकी दी जा रही है। सूचना अधिकार क्षेत्र के जाने माने सामजिक कार्यकर्ता और मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त कर चुके अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में इस बाबत पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाक़ात की और उन्होंने हालात में सुधार का अनुरोध किया।
हालांकि नीतिश सरकार ने इस अधिकार के प्रचार व प्रसार में काफी पैसे बहाए हैं। सूचना के अधिकार के तहत काफी मेहनत व मुशक्कत के बाद 18 नवंबर 2008 को मिली सूचना के अनुसार इस अधिकार के व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु सूचना एवं जन सम्पर्क विभागए बिहार द्वारा मेघदूत पोस्टकार्ड योजना के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने के लिए 1।25 लाख पोस्टकार्ड का मुद्रण किया गयाए जिस पर कुल लागत 2.50 लाख रुपए है। पोस्टर मुद्रण पर 22,500. (बाइस हज़ार पांच सौ) रुपये तथा फ्लैक्स संस्थापन के कार्य पर 52,763 (बावन हज़ार सात सौ तिरसठ) रुपये खर्च किया गया। इसके अतिरिक्त प्रखंडों के आधार पर इसके प्रचारार्थ होर्डिंगए फ्लैक्स एंव पम्पलेट निर्माण हेतु कुल 21,48,000(इक्कीस लाख अड़तालीस हज़ार) रुपये खर्च किया गया है। केन्द्रीय प्रायोजित योजना के तहत भी राज्य को कार्यशाला एंव सेमिनार के माध्यम से प्रचार.प्रसार हेतु 50,000 (पचास हज़ार) रुपये जि़लाधिकारी पटना को मिला। लालू के लालटेन युग के बाद बिहार की जनता में यह उम्मीद जगी थी कि शायद अब भ्रष्टाचार पर लगाम लग जाएगी, लेकिन सुशासन के दौर में भी भ्रष्टाचार बेलगाम बढ़ता ही जा रहा है। खैर बिहार सुधर सकता है, गरीबी का पहाड़ समतल हो सकता है, पर शर्त है कि पुराना ढब बदला जाए। पर यहां के सरकारी अधिकारी ऐसा हरगिज़ नहीं होने देंगे।
सूचना के अधिकार के तहत मिली एक अन्य सूचना के अनुसार बिहार स्टेट इलेक्ट्रॉनिक डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड के ज़रिए आउटसोर्सिंग व्यवस्था से चलने वाली छह सीटर कॉल सेंटर को कार्मिक व प्रशासनिक सुधार विभागए बिहार से दिनांक 25 सितम्बर 2007 को 33,26,000। (तैतीस लाख छब्बीस हज़ार) रुपये प्राप्त हुए जबकि इसने खर्च किया 34,40,586.00 (चौतीस लाख चालीस हज़ार पांच सौ छियासी) रुपये। वहीं बिहार राज्य सूचना आयोग में वर्ष 2008.09 तक 2,75,43,072 (दो करोड़ पचहत्तर लाख तिरालीस हज़ार बहत्तर) रुपये की राशि खर्च की गई। पर अफसोस! इतने खर्च के बावजूद ये राज्य सूचना आयोग दो ही आयुक्तों के सहारे चल रहा हैए जबकि एक मुख्य सूचना आयुक्त सहित 10 आयुक्त यहां होने चाहिए। दिलचस्प बात तो यह है कि यहां मुख्य सूचना आयुक्त का पद ही खाली हैए क्योंकि अक्टूबर 2008 में मुख्य सूचना आयुक्त न्यायमूर्ति शशांक कुमार सिंह सेवानिवृत हो गए और राज्य सरकार ने पटना हाईकोर्ट के सेवानिवृत मुख्य न्यायधीश जे.एन.भट्ट को मुख्य सूचना आयुक्त बनाया गया लेकिन उन्होंने मुख्य सूचना आयुक्त का पदभार ग्रहण नहीं किया।
इसी संदर्भ में बिहार सूचना अधिकार मंच के संयोजक परवीन अमानुल्लाह ने कहा कि बिहार सरकार द्वारा सूचना के अधिकार में किया गया संशोधन अलोकतांत्रिक ही नहीं बल्कि लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन है। मैंने 45 ऐसे मामलों की जानकारी राज्य सरकार को बहुत पहले दी थी, लेकिन उस पर अब तक कुछ भी नहीं हुआ। उन्होंने बताया कि बिहार सरकार द्वारा अब सूचना मांगने के लिए 10 रुपये चुकाने का नियम गरीबों को इस अधिकार से वंचित करना है। कहा जा रहा है कि अगर सूचना पाने के नियमों में संशोधन हुआ तो नागरिकों को सूचना पाने के इस महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित होना पड़ेगा। एक समय बिहार को आंदोलन का प्रतीक माना जाता था। आज सूचना कानून के मामले में बिहार पूरे देश में सबसे लाचार और बेबस राज्य नजर आ रहा है। वहां सुशासन की बात करने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दुशासन की भूमिका निभाते हुए कुशासन को बढ़ाना देने के लिए सूचना कानून को कमजोर किया है।
दूसरी ओर शिकायतों की भरमार से घबराए मुख्यमंत्री ने कुछ फौरी कार्रवाई के निर्देश दिए हैं। इसी सिलसिले में उन्होंने एक हेल्पलाइन नंबर- 2219435 जारी करते हुए ख़ुद टेलिफ़ोन पर पहली शिकायत (संख्या 001) दर्ज कराई। टेलिफ़ोन पर मुख्यमंत्री ने लिखाया- मुख्यमंत्री सचिवालय को सूचना मिली है कि वीरेंद्र महतो, ग्राम- कसियोना, पंचायत- करैया पूर्वी, प्रखंड- राजनगर, जि़ला- मधुबनी द्वारा करैया के प्रखंड आपूर्ति पदाधिकारी से जन वितरण प्रणाली की दुकानों में राशन- किरासन आपूर्ति का ब्यौरा माँगा गया था। इस पर उनको धमकी दी गई, जो राजनगर पुलिस थाना में केस संख्या 181/09 दिनांक 10-08-09 दर्ज किया गया है। इस मामले की पूरी जांच करके मुख्यमंत्री सचिवालय को सूचना दी जाए।
समझा जा सकता है कि मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर एक नरम किस्म की ही शिकायत दर्ज कराई। गंभीर किस्म की शिकायतें तो आम लोगों के बीच जाने पर मिलती हैं।