गुरुवार, 28 नवंबर 2013

सभ्यता का सबसे बड़ा धोखा

भारत जैसे देश में एड्स की बीमारी का बड़ा कारण है झिझक, जबकि इस बीमारी से बचने का सबसे आसान रास्ता है एहतियात। यहां तो लोग कंडोम खरीदने में भी शर्म महसूस करते हैं। अभी तक इस बीमारी का कोई प्रामाणिक इलाज सामने नहीं आया है, ऐसे में यह जरूरी है कि लोग सावधानी बरतें... 

20वीं सदी के अंतिम दशक को प्रसिद्घ इतिहासकार एरिक हाब्सबाम ने विश्वव्यापी संकट का दशक कहा था। इस दशक में मानव-समाज के सामने जो संकट आए, उनमें से एक एड्स के दुनिया-भर में फैलने की भयावह आशंका और चिंता का संकट ही था। जैसे इस दशक के अन्य अनेक संकटों का जनक अमेरिका रहा है, वैसे ही एड्स की खतरनाक खबर भी अमेरिका ही में पैदा हुई और फिर सारी दुनिया में फै लाई गई। इतिहास के पन्नों को टटोला जाए, तो पिछली सदी के साठ-सत्तर के दशकों में अमेरिकी समाज में युवा समुदाय नशीले पदार्थों के सेवन और अनेक प्रकार के मुक्त यौन-व्यवहारों का शिकार था, जिसके परिणामस्वरूप वहां अनेक प्रकार की बीमारियां फै ल रही थीं, उससे अमेरिकी समाज और सरकार में गहरी चिंता पैदा हुई, लेकिन अमेरिकी समाज यह कैसे स्वीकार करता कि यह एक बीमार समाज है और उस समाज में फैलने वाली बीमारी की दवा की खोज किसी अन्य देश के वैज्ञानिक करें। सो, आनन-फानन में अमेरिका ने डॉक्टर गैलो नाम के एक वैज्ञानिक के  झूठे दावे के आधार पर एडस नामक की बीमारी और उसकी खोज का दावा किया और फिर बड़े पैमाने पर सारी दुनिया में उसका प्रचार-प्रसार हुआ। यह कहने की जरूरत नहीं कि अमेरिकी मानसिकता तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों और समाजों को असभ्य, गंदा और बीमार मानती है। एड्स संबंधी अमेरिकी प्रचार-प्रसार के पीछे भी वही मानसिकता दिखाई पड़ती है, साथ ही इसका हौआ खड़ा करके कंडोम के लिए एक विस्तृत बाजार बनाने की साजिश भी?
हाल के दिनों में जिस प्रकार से भारत-अमेरिकी संबंधों में गर्माहट आई है और अमेरिका भारत की ओर दोस्ताना हाथ बढ़ा रहे हैं, उसके पीछे उनकी नजर में भारत का व्यापक बाजार है। तभी तो वह भारत को एड्स से ग्रस्त समाज साबित करके एक हाथ से आर्थिक अनुदान देकर स्वयं को उदार और मानवीय सिद्घ करने का प्रयत्न कर रहा है, तो दूसरे हाथ से अमेरिकी दवाइयों क ी बिक्री के माध्यम से भारत के गरीबों को लूटने की कोशिश भी कर रहा है। एड्स के बारे में अमेरिकी प्रचार की मानें, तो यह जाहिर होता है कि दुनिया में जो गरीब है और पिछड़ेपन तथा बदहाली के शिकार हैं, वे ही एड्स के कारण भी हैं। भारत में एड्स की खोज करने वालों ने सबसे पहले मणिपुर राज्य को बड़े पैमाने पर एड्स-ग्रस्त माना था। एड्स की खोज करने वालों की नजर सबसे अधिक आदिवासी समुदायों पर है। मध्य प्रदेश के मानवाधिकार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बंछारा और बोदिया आदिवासी समुदाय की सभी लड़कियां वेश्यावृत्ति में लगी रहती हैं, इसीलिए वे एड्स के लिए अति संवेदनशील हैं।
हालांकि इस सबके पीछे कहीं न कहीं अमेरिकी नीति काम कर रही है। वह चाहती है कि पूरी दुनिया में उसकी बादशाहत हो। अगस्त 2002 में रामबहादुर राय ने अपने लेख के जरिये एड्स के प्रसंंग में अमेरिकी दादागीरी के अनेक उदाहरण देकर लोगों को समझाने की कोशिश की थी कि यह एक अमेरिकी साजिश है। एड्स का तो सिर्फ हौआ खड़ा किया जाता है। इस लेख के माध्यम से कहा गया था कि एड्स के प्रसंग में अमेरिकी दादागीरी के अनेक उदाहरण हैं। दुनिया के विभिन्न देशों को लोकतंत्र और मानवाधिकारों की शिक्षा देने की अमेरिक ी आदत और अमेरिकी हितों की सेवा करने वाली दूसरे देशों में क्रियाशील संस्थाओं के बचाव के लिए अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया जाता है। यद्यपि भारत में एड्स का प्रभाव घट रहा है, लेकिन अमेरिकी दवा कंपनियां यह नहीं चाहतीं कि भारत में एड्स में कमी आए? इसीलिए ये कंपनियां, उनसे जुड़े बुद्घिजीवी और उनके इशारों पर काम करने वाले गैरसरकारी संगठन आंकड़ों की कलाबाजी के सहारे एड्स का आतंक बढ़ा रहे हैं। यह प्रयास असल में बड़ी चाल का हिस्सा है, जिसका मकसद भारत के आत्मविश्वास को तोड़ना है। दुनिया के किसी भी आत्मविश्वासी समाज और व्यवस्था को अमेरिका अपना दुश्मन समझता है और उसके आत्मविश्वास को तोड़ने की कोशिश करता है।
एड्स के प्रचार-प्रसर में सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ असंख्य गैरसरकारी संगठन भी लगे हुए हैं। हाल के वर्षों में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सेवा के नाम पर कमार्ई करने वाले बहुत सारे गैरसरकारी संगठन कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं। इनमें से कुछ राष्टÑीय हैं, तो कुछ अंतर्राष्टÑीय भी। जो गैर सरकारी संगठन एड्स के काम में लगे हैं, उनके बारे में यह कहना ज्यादा सही है कि एड्स से जितने लोग मरते नहीं, उससे कहीं ज्यादा लोग एड्स के नाम पर जिंदा है। वैसे तो ये संगठन गैरसरकारी हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश को देशी एवं विदेशी सरकारों की सहायता और सुरक्षा प्राप्त है।
वैसे सुनने में यह कोई सामाजिक कार्य की ओर बढ़ाया गया कदम लगता है, लेकिन इससे वाकई में एड्स पीड़ित बच्चों को राहत मिली है या नहीं यह खबर में पता चल जाएगा। नागपुर नगर निगम द्वारा एचआईवी एड्स पीड़ित बच्चों के लिए खोला गया एक विद्यालय इन दिनों विवादों के घेरे में है। वर्तमान में इस विद्यालय का विरोध कुछ गैरसरकारी संगठन कर रहे हैं। खास बात यह है कि हाल ही में विश्व एड्स दिवस के मौके पर गैरसरकारी संगठन ‘सहारा’ के निवेदन पर ही एनएमसी ने इस विद्यालय को खोलने का फैसला लिया था।
एनएमसी के इस कदम से नाखुश विरोधी संगठन हो-हल्ला मचा रहे हैं। विरोधियों का तर्क है कि हाल ही में समूचे विश्व में एचआईवी एड्स पीड़ित बच्चों के प्रति भेदभाव की भावना का प्रचार होगा। वहीं दूसरी ओर एनएमसी के एक अधिकारी और शिशु रोग विशेषज्ञ मिलिंद माने ने कहा कि इस विद्यालय में 28 बच्चों के नाम दर्ज किए गए हैं, जिनके साथ पूर्व में विद्यालयों में अच्छा बर्ताव नहीं किया जा रहा था।
निगम के आयुक्त संजय सेठी का कहना है कि एचआईवी एड्स पीड़ित बच्चों से जुडेÞ तमाम तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया गया है। इस विद्यालय के विरोध में शामिल गैरसरकारी संगठन ‘सजीवन’ की कार्यकर्ता शशिकला का आरोप है कि एनएमसी के अधिकारी साधारण विद्यालयों से एचआईवी/एड्स विद्यार्थियों को निकाल कर इस विशेष विद्यालय में भेज रहे हैं। शशिकला ने बताया कि इस संबंध में गैरसरकारी संगठनों की एक बैठक भी हुई थी। यही नहीं, यह संगठन गैरसरकारी संगठन ‘सहारा’ के खिलाफ बगावत करने को तैयार हो गए हैं। पेड़ के नीचे बैठकर गुफ्तगू करने की पुरानी आदत को इस देश में एड्स विरोधी अभियान का हथियार बना दिया गया है। एक स्वयं सेवी संस्था ने एड्स के खिलाफ जागरूकता अभियान को सफल बनाने के लिए यह उपाय आजमाया है। कॉन्गो शहर की 48 वर्षीय आसिया किका, जो छह बच्चों की मां है, इस अभियान से प्रभावित हैं। वे बताती हैं कि मुझे पहले महिला कंडोम के बारे में कुछ भी पता नहीं था, लेकिन अब मैं इसके बारे में जान गई हूं। किका के हाथ में पर्चे और कुछ कंडोम हैं और वह इनकी उपयोगिता से वाकिफ हैं। इससे पहले किका को यह मालूम नहीं था कि महिला कंडोम का उपयोग कैसे किया जाता है। उसे इसकी भी जानकारी नहीं थी कि यह कंडोम स्त्री-पुरुष को एक दूसरे से होने वाली बीमारियों से बचाता है।
जर्मनी की संस्था जीटीजेड अपने इस अभियान के तहत पिछडेÞ और युद्घ प्रभावित इलाकों के लोगों के बीच एड्स के प्रति जागरूकता फैलाने में लगी है। इसके लिए संस्था ने लोगों को इक्ट्ठा करने का यह परम्परागत तरीका खोज निकाला है। समाचार एजेंसी डीपीए को जीटीजेड के एक प्रबंधक अचिम कोच ने बताया यह तरीका बेहद कारगर साबित हो रहा है।
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एड्स पर चर्चा से कतराते हैं भारतीय
तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद भारत में आज भी लोग एचआईवी/एड्स के प्रति रुढ़िवादी रवैया अपनाए हुए हैं। इस बात का खुलासा दो महीने पहले मैक एड्स फंड नामक अंतर्राष्टÑीय संस्था द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण से हुआ है। मैक के अध्यक्ष जॉन डेमेसी कहते हैं कि एड्स को लेकर भारतीयों के बीच फैली तमाम भ्रांतियों को दूर करना बेहद जरूरी है। सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि 79 फीसदी भारतीय एड्स को बेहद ही घातक बीमारी समझते हैं, जबकि 59 लोग मानते हैं कि एड्स का उपचार हो सकता है।
कंडोम खरीदने से शर्माते हैं भारतीय?
सर्वेक्षण से पता चला है कि 65 फीसदी भारतीय एड्स के बारे में बातचीत तक करने में हिचकिचाते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि 44 फीसदी भारतीय इस बीमारी के बारे में डॉक्टर से बात करने में शर्माते हैं। सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक, 18 फीसदी भारतीय एचआईवी/एड्स से पीडित लोगों के साथ काम करने से डरते हैं, जबकि कुछ लोग उस कमरे में रहना पसंद नहीं करते हैं जिसमें एचआईवी/एड्स से पीडित लोग निवास करते हैं। भारत में सबसे उन्मुक्त विचार वाले संस्थानों में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक कंडोम वेंडिंग मशीन लगाई गई है। यह दिल्ली के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय में लगाई गई पहली कंडोम मशीन है। इस मशीन पर ग्राहक सीधे आकर कंडोम ले सकते हैं। लेकिन यह बात जितनी आसान लगती है, उतनी शायद है नहीं। इस मशीन पर अधिकतर लोग रात के अंधेरे में आते हैं। वे रात में 11 बजे के बाद आते हैं। दिन के वक्त केवल एक या दो व्यक्ति आते हैं और जो दिन में आते भी हैं, वे सीधे-सीधे पूछते भी नहीं है। अक्सर ‘बिस्किट’ या ‘चिप्स’ कंडोम मांगने का बहाना बनाते हैं। वे बताते हैं कि वे सामने से बिस्किट मांगते हैं, लेकिन मुझे कोने में ले जाकर कंडोम मांगते हैं। आम तौर पर मशीन एक दिन में 30 पैकेट बेचता है। फिलहाल ‘क्रेर्जडों’ कंडोम की सबसे ज्यादा मांग है और मध्य प्रदेश में इस कंडोम को खरीदने की लहर-सी चल पड़ी है। प्रबंधक बताते हैं कि भले ही यह महंगा हो, लेकिन इसकी मांग सबसे ज्यादा है। भले ही युवक इस मशीन को लगाने के कदम से खुश हैं, लेकिन वयस्क अब भी इस मशीन की जरूरत होने के बावजूद सबसके सामने नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं।
कॉमिक्स पढ़कर एड्स की समझ बढ़ाएंगे पुरुष
भारत के अलावा आठ अन्य देशों में भी इस संस्था द्वारा सर्वेक्षण कराया गया। कॉमिक्स केवल बच्चों के मनोरंजन का साधन नहीं हैं। देश में कार्यरत कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने मिलकर पुरुषों में यौनता और इसे जुड़ी समस्याओं की समझ बढ़ाने के लिए कॉमिक्स का सहारा लेने का निर्णय लिया है। ‘दि पॉपुलेशन काउंसिल’और अन्य गैर-सरकारी संगठनों ने मिलकर ऐसे कॉमिक्स का सेट तैयार किया है, जिसमें एचआईवी/एड्स से संबंधित जानकारी दी गई हैं। यह सेट बंगाली, अंग्रेजी, हिन्दी औैर तेलुगु में में उपलब्ध है।
जनसंख्या परिषद के संचार विभाग के प्रमुख विजया निदादावोलू का कहना है किइस तरह के कॉमिक्स तैयार करने का उद्देश्य समाज में मौजूदा समझ को बदलना है। वेश्याओं से यौन संबंध बनाने के दौरान कंडोम के प्रयोग के लिए प्रेरित करना भी इसका उद्देश्य है।
कॉमिक्स के एक सेट में ‘होश में जोश’,‘खून का खतरा’, ‘सावधान सीनियर’ और ‘प्यार का पॉकेट’ नामक शीर्षक से कॉमिक्स तैयार किए गए हैं। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और हैदराबाद की शहरी झोपड़पट्टियों में उक्त कॉमिक्स की 25 हजार प्रतियां वितरित करने के लिए भेजी गई हैं। पे्ररणा(दिल्ली), अपनालय (मुंबई), सिनी आश (कोलकाता) और दिव्य दिशा (हैदराबाद) ने मिलकर कॉमिक्स तैयार किया है। विजया का कहना है कि 2006 में इस तरह के कॉमिक्स तैयार करना अति आवश्यक था। देश में 30 प्रतिशत एड्स रोग 15 से 20 साल के हैं। उन्होंने कहा कि इस कॉमिक्स के माध्यम से युवा भारतीय पुरुषों को उस पारंपरिक पुरुषत्व को बदलने के लिए कहा गया है, जिसमें वे जोखिम भरा यौन व्यवहार अपनाते हैं। इसके अलावा देश के चार शहरों में युवाओं से कॉमिक्स में बताए गए मुद्दों पर बातचीत भी की गई, ताकि उनकी समझ बढ़ाई जा सके।
संवेदना का मरहम जरूरी
करीब बीस वर्ष पहले पहचान में आई बीमारी एचआईवी/एड्स से इंसानों की जितनी मौतें हुई, उतनी आज तक के ज्ञात मानव इतिहास में किसी भी बीमारी से समूचे विश्व में एक साथ मौतें नहीं हुई हैं। पांच करोड़ 30 लाख से अधिक लोग इस भयावह बीमारी से संक्रमित हो चुके हैं और अभी तक इस बीमारी से एक करोड़ 88 लाख लोग मौत के मुंह में समा चुके हैं। आज तक 130 लाख बच्चे इस बीमारी के चलते अनाथ हो चुके हैं, क्योंकि उनके माता-पिता दोनों ही इसी बीमारी के चलते मर चुके हैं। दुर्भाग्य से ये सभी आंकड़े हर दिन तेजी से बढ़ रहे हैं। विश्व भर के नेता इस बीमारी का जल्दी पता लगाने, प्रभावी व अचूक उपचार करने, इससे बचने और पीड़ितों की देखभाल करने जैसी बातों को सभी के लिए मानव अधिकारों की सूची में शामिल करने की अपील कर रहे हैं।
दुनिया अब जान चुकी है कि एड्स जैसी महामारी से लड़ने के लिए मानव अधिकारों की सुरक्षा करना मूलभूत अधिकारों के तहत बेहद जरूरी है। मानव अधिकारों की अवहेलना से सेक्स वर्करों और नशेड़ियों के बीच यह बीमारी बेहद गंभीर खतरा बनकर मौजूद रहती है। वैसे इस दिशा में एचआईवी और एड्स नियंत्रण के प्रशंसनीय कार्य हुए हैं और हो भी रहे हैं, लेकिन एचआईवी और एड्स के नियंत्रण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए और प्रयत्न करने की जरूरत है। अन्यथा, हर वर्ष लाखों लोग इसी तरह एचआईवी बीमारी से संक्रमित होते रहेंगे और यह पूरी दुनिया में तेजी से फैलती रहेगी। लांछन और कलंक एचआईवी एड्स ने मानव जाति को समानांतर रूप से विभाजित कर दिया है। वैज्ञानिक जगत इस बीमारी की रोकथाम और इलाज की खोज करने में अपना सिर खपा रह है।
पूरी दुनिया में सभी स्थानीय सरकारें एचआईवी एड्स से बचे रहने के बारे में जागरूकता अभियान छेड़े हुए है। सभी सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाएं, सामाजिक कार्यकर्ता और स्वयंसेवक आम लोगों को यह बताने में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं कि यह बीमारी छुआछूत से नहीं फैलती और इससे पीड़ितों के साथ सद्भावना से पेश आना चाहिए, लेकिन इसके ठीक उलट लोग एड्स से पीड़ित व्यक्ति को घृणा से देखते हैं और उससे दूरी बना लेते हैं। एचआईवी से संक्रमित व्यक्ति का राज खुलने पर उसके माथे पर कलंक का टीका लग जाता है। यह कलंक इस बीमारी से भी बड़ा होता है और पीड़ित को घोर निराशा का जीवन जीते हुए अपने मूलभूत अधिकारों और मौत के अंतिम क्षण तक एक अच्छी जिंदगी जीने से वंचित होना पड़ता है। दि कोलीशन फॉर इलिमिनेसन आॅफ एड्स रिलेटेड स्टिग्मा (सीईएएस) का कहना है कि अब वक्त आ गया है कि हम सभी एचआईवी एड्स को कलंक के रूप में प्रचारित करने की अपनी सोच और आचरण में बदलाव लाने के लिए चर्चा सत्र शुरू करें। हमें एचआईवी एड्स से जुड़ी हर चर्चा, प्रतिबंधात्मक उपाय और शोध का कार्य करते रहने के दौरान इससे जुड़े कलंक को खत्म करने के मुद्दे को भी शामिल करना चाहिए।
आज हमें एचआईवी एड्स पर कुछ अलग चर्चा करने की जरूरत महसूस होने लगी है और पूरी दुनिया के शोधार्थी, समुदाय, नेतागण और अन्य सभी इस विषय को प्रमुखता दें। विश्व एड्स दिवस सभी लोगों, समूहों, नेताओं समेत सभी को यह सुनहरा मौका दे रहा है कि वे एड्स पीड़ितों पर लगे कलंक के टीके को पोंछने और उनके मानव अधिकारों की रक्षा के लिए निर्णायक कार्य करें। कलंक की यह आंधी बड़ी तेजी से फैल रही है और समाज को दो भागों में बांट रही है। अत: विश्व एड्स दिवस के अवसर पर एड्स पीड़ितों के साथ हो रहे भेदभाव को जड़ से मिटाने के लिए बहुत ही बड़े स्तर पर कार्य करने का वक्त आ गया है। जीने का अधिकार इस वर्ष के लिए ह्यूमन राइट्स एंड एक्सेस टू ट्रीटमेंट यानी मानव अधिकार और इलाज तक की पहुंच के नाम से स्लोगन बनाया गया है। इसके तहत सभी पीड़ितों को इलाज की सुविधा देने, उनकी सुरक्षा और देखभाल करने जैसे लक्ष्यों को पूरा करने की योजनाएं बनी हैं। इस स्लोगन के माध्यम से पूरी दुनिया के सभी देशों को बताया जाएगा कि वे इस रोग से पीड़ितों के इलाज और सामान्य जीवन जीने में बाधक बने कानूनों को सुधारें और नए कानून बनाएं।
मानव अधिकार सभी के लिए मूलभूत अधिकार के रूप में है। एड्स से पीड़ित लोगों के साथ हो रहे भेदभाव, उन्हें परेशान करने और सताने जैसी प्रथाओं को रोकना होगा। पूरी दुनिया में यह एक कड़वा सच है कि इससे पीड़ित लोगों को कलंकित घोषित कर दिया जाता है, जो नौकरी पर हैं, उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ती है। स्कूलों से बच्चों को निकाल दिया जाता है। यहां तक कि इससे पीड़ित लोगों को इलाज कराने तक के मूलभूत अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। कई बार अस्पताल और डॉक्टर-नर्स आदि एड्स पीड़ितों का इलाज करने से मना कर देते हैं। भारत में भयावहता अपने देश में वर्ष 1986 में एड्स के पहले मरीज का पता चला था। तब से अब तक देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एचआईवी संक्रमित लोगों का फैलाव हो चुका है। वैसे एचआईवी संक्रमित मरीजों का अनुपात अपने देश में कम ही रहा है। हां, दक्षिण भारत और सुदूर उत्तर-पूर्व के राज्यों में इन मरीजों की संख्या कुछ अधिक है। एचआईवी से ग्रस्त मरीजों की अधिकता महाराष्टÑ, आंध्र प्रदेश व कर्नाटक और उत्तर-पूर्व में मणिपुर व नागालैंड में है। अगस्त 2006 में राष्टÑीय स्तर पर जारी एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, एड्स से पीड़ित कुल मरीजों में से 90 फीसदी मरीज देश के सभी 38 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में पाए गए थे। भारत में एड्स बीमारी को किसी और की समस्या के रूप में देखा जाता है। इससे पीड़ित लोगों की जीवनशैली व उनके चरित्र को संदेह की नजर से देखा जाता है।
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि कई बार इस बीमारी से मरने वाले व्यक्ति का अंतिम संस्कार तक करने से इंकार कर दिया गया है।

बुधवार, 6 नवंबर 2013

राजा-रानी भी लाइन में

मध्य प्रदेश की सियासत में रियासतों का दखल अब भी कायम है। यहां रियासतों के वारिसों के बगैर किसी दल की सियासत नहीं चलती। सत्ता में कोई आए, मगर उन्हें नकारना किसी के लिए आसान नहीं है। लिहाजा, इस बार भी इनकी धमक का एहसास हो रहा है।

राजा और रजवाड़े भले ही खत्म हो गए हों, मगर मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा का टिकट पाकर विधायक बनने की आस में बुंदेलखंड में नाम के ‘राजा’ और ‘रानी’ प्रजा के साथ कतार में लगे हैं। विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस और भाजपा में टिकट वितरण की कवायद तेज हो चली है। अन्य लोगों के साथ नाम के राजा भी उम्मीदवार बनने के लिए जोड़-तोड़ लगाए हुए हंै।
बेशक, बुंदेलखंड?में रियासतें गिनती की रही हैं। आजादी के बाद रियासतें भले ही खत्म हो गई हों, मगर इस इलाके में क्षत्रिय परिवार में जन्मे बालक के नाम के साथ आज भी राजा या जू लगाने के परंपरा बरकरार है। यही कारण है कि क्षत्रिय परिवार का शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जिसको राजा या जू कहकर न बुलाया जाता हो। इस इलाके की  विभिन्न रियासतों के वारिस अथवा क्षत्रिय परिवारों से नाता रखने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों की चौखट पर दस्तक देने में लगे हंै। कोई पाला बदल रहा है तो कोई अपनी  निष्ठा का हवाला देकर चुनाव में टिकट मांग रहा है। इनमें से कई तो अभी विधायक है और कई अपने लिए नई जमीन तलाश रहे हैं।?बुंदेलखंड में वैसे तो मध्य प्रदेश में छह जिले छतरपुर, टीकमगढ़, सागर, दमोह, पन्ना और दतिया आते हंै। इस इलाके के छतरपुर, टीकमगढ़ और पन्ना में नाम के साथ राजा, रानी या जू लिखने की परंपरा अन्य क्षेत्रों की तुलना में कहीं ज्यादा है। छतरपुर जिले के छतरपुर विधानसभा से कांग्रेस का टिकट पाने डीलमणी सिंह उर्फ बब्बू राजा, राजनगर क्षेत्र से वर्तमान विधायक विक्रम सिंह उर्फ नाती राजा व पूर्व विधायक शंकर प्रताप सिंह उर्फ मुन्ना राजा, महाराजपुर से भाजपा के विधायक मानवेंद्र सिंह उर्फ भंवर राजा, बिजावर से विधायक आशा रानी, भाजपा सांसद जितेंद्र सिंह बुंदेला उर्फ अन्नू राजा, टीकमगढ़ से कांग्रेस विधायक यादवेंद्र सिंह उर्फ जग्गू राजा, खरगापुर से भाजपा के पूर्व विधायक सुरेंद्र प्रताप सिंह उर्फ बेबी राजा टिकट पाने के लिए ताल ठोंक रहे हंै। इसी तरह पन्ना राजघराने की जीतेश्वरी देवी उर्फ युवरानी भाजपा से टिकट की दावेदार हैं।?एक तरफ जहां प्रजा के साथ राजा टिकट मांग रहे हैं, वहीं एक राजा दूसरे राजा की टिकट कटवाने में भी पूरी तरह सक्रिय है। इन राजाओं की दोनों ही दलों में मजबूत पकड़ है, यही कारण है कि अधिकांश दावेदारों को मैदान में जोरआजमाइश करने का मौका मिल जाएगा। ?बुंदेलखंड के वरिष्ठ पत्रकार रवींद्र व्यास कहते हैं कि इस इलाके की राजनीति ब्राह्मण और क्षत्रिय के बीच घूमती है। खासकर छतरपुर, टीकमगढ़ और पन्ना जिलों में आरक्षित विधानसभा क्षेत्रों को छोड़कर शेष स्थानों से इन्हीं दो वर्गों के प्रतिनिधि जीतकर आते हंै। ऐसा इसलिए क्योंकि यह दोनों वर्ग धन और बाहुबल में अन्य से कहीं आगे हंै। राज्य में विधानसभा चुनाव को लेकर बुंदेलखंड क्षेत्र में टिकट के लिए कतार में खड़े कितने राजा और रानी टिकट पाने में सफल होते हैं, यह कयास से आगे कुछ भी नहीं है।
देश की आजादी के बाद रियासतों का अस्तित्व मिट गया। उसके बाद सभी पूर्व रियासतों के मुखियाओं ने राजनीतिक दलों से नाता जोड़ा, क्योंकि वे सत्ता का हिस्सेदार बने रहना चाहते थे। आगे चलकर 1956 में मध्य प्रदेश का गठन हुआ तो रियासत से जुड़े यही लोग राज्य की राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए। राज्य में दर्जनों रियासतें और जागीरें थीं, जिनका अपने क्षेत्र में प्रभाव था और वे वहां के राजनीतिक मुखिया बन गए। राज्य गठन के बाद से रियासतों व राज परिवारों के वारिसों की राजनीतिक हैसियत व रसूख पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि राज्य के 57 वर्षो में से 18 वर्षो तक रियासतों से जुड़े प्रतिनिधि मुख्यमंत्री रहे हैं। सबसे ज्यादा समय तक राघौगढ़ रियासत के प्रतिनिधि दिग्विजय सिंह 10 वर्ष राज्य के मुखिया रहे, वहीं चुरहट रियासत के स्वर्गीय अर्जुन सिंह लगभग छह वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे। इसके अलावा गोविंद नारायण सिंह व राजा नरेशचंद्र सिंह भी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। इन सभी का कांग्रेस से नाता रहा है। वहीं, राज्य में जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जड़ें मजबूत करने में सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया का अहम योगदान रहा है। राज्य की सियासत में रियासतों के दखल पर गौर किया जाए तो सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया, उनके पुत्र माधवराव सिंधिया व पुत्री यशोधरा राजे और माधव राव के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक हैसियत किसी से छुपी नहीं है। इसी तरह रीवा राजघराने के मरतड सिंह व उनकी पत्नी प्रवीण कुमारी और अब पुष्पराज सिंह राजनीति में सक्रिय हैं। आगे बढ़ें तो पता चलता है कि देवास राजघराने के तुकोजीराव पंवार, मकड़ई राजघराने के विजय शाह भाजपा सरकार में मंत्री हैं। पूर्व मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह के बेटे ध्रुव नारायण सिंह विधायक हैं। चुरहट रियासत के अजय सिंह विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं, छतरपुर राजघराने के विक्रम सिंह, अलीपुरा सियासत के मानवेंद्र सिंह, कालूखेड़ा राजघराने के महेंद्र सिंह कालूखेड़ा से विधायक हैं।
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार, देश की आजादी के बाद राजनीतिक दलों का कोई वोट बैंक नहीं था, इसलिए उन्हें रियासतों के विलीनीकरण के बाद चुनाव में उनका सहयोग लेना पड़ा। आज राज परिवारों का अस्तित्व कम भले हो गया, मगर उनका वोट बैंक आज भी है, लिहाजा कांग्रेस और भाजपा के लिए उन्हें साथ लेकर चलना मजबूरी है। वहीं दूसरी ओर, राजपरिवारों को भी राजनीतिक पार्टियों के संरक्षण की जरूरत है। इस तरह दोनों एक-दूसरे की जरूरत है। राज्य में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में एक बार फिर राजघरानों से नाता रखने वाले वारिसों ने टिकट हासिल करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। राजघरानों के कुछ वारिस भाजपा का तो कुछ कांग्रेस का टिकट पाना चाह रहे हैं। दोनों दल एक दर्जन से ज्यादा स्थानों पर इन वारिसों को मैदान में उतारने की तैयारी में हैं। विधानसभा चुनाव के बाद राज्य की सत्ता चाहे किसी भी के हाथ आए, मगर इतना तो तय है कि पुरानी रियासतों से नाता रखने वालों का असर नई सरकार में भी बरकरार रहेगा।

छठ पर गरमाई सियासत


छठ के अवसर पर राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ी है। छठ के नाम पर राजनीतिक आयोजनों की संख्या में भी इजाफा होता जा रहा है। पूर्वांचल के लोगों कि बढ़ती ताकत का ही नतीजा है कि पूरब के प्रमुख सांस्कृतिक पर्व छठ में शरीक होने के लिए नेताओं की होड़ लगी रहती है। विधानसभा चुनाव के मद्देनजर पूर्वांचल का लोकपर्व ‘छठ’ धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक मुद्दा बन गया है। दिल्ली में सत्ता की दावेदार कांग्रेस और भाजपा में पूर्वांचल के प्रवासियों को अपने पक्ष में करने की होड़ शुरू हो गई है। दिल्ली में बड़ी संख्या में रह रहे पूर्वांचल के मतदाताओें को भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव से पहले लुभाने के प्रयास में जुटी हुई है। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी के प्रभारी बनाए गए नितिन गडकरी कहते हैं कि पूर्वांचल के लोगों को बराबर के अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे। मैं आपको आश्वासन देता हूं कि दिल्ली में भाजपा के सत्ता में आने पर छठ पूजा को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया जाएगा। गडकरी ने कहा कि यहां रहने वाले पूर्वांचल के अधिकतर लोग मजदूर, रिक्शा चालक और इस तरह के मेहनत के काम करने में लगे हैं। भाजपा के दिल्ली की सत्ता में आने पर यहां रह रहे 40 लाख गरीब लोगों को नि:शुल्क स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत मेडिकल लाभ दिए जाएंगे। दिल्ली के गरीबों में अधिकतर पूर्वांचल यानी बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग हैं। पूर्वांचल के गरीब लोगों को उन्होंने आश्वासन दिया कि राष्ट्रीय राजधानी में भाजपा की सरकार बनने पर सरकार कम लागत वाले 10 लाख मकान बनवाएगी और उनमें से अधिकतर पूर्वांचल के लोगों को दिए जाएंगे। वहीं, कांग्रेस में पूर्वांचल का चेहरा कहे जाने वाले पश्चिमी दिल्ली के सांसद महाबल मिश्रा दिल्ली विधानसभा के सदस्य भी रह चुके हैं। वे लंबे समय से दिल्ली की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। क्षेत्र में विशेषकर पूर्वांचल के लोगों में इनकी बेहतर छवि है। जब उनसे पूछा गया कि क्या आप मानते हैं कि प्रवासी दिल्ली पर बोझ हैं? उन्होंने कहा कि ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है। दरअसल, दिल्ली के उत्थान में प्रवासी लोगों का अहम रोल है। प्रवासी दिल्ली के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक उत्थान में काफी मदद दे रहे हैं। महाबल मिश्रा ने कहा कि कांग्रेस भी प्रवासियों की उन्नति में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है। छठ पर्व पर सरकारी छुंट्टी घोषित की गई और 40 छठ घाटों पर सरकार तमाम व्यवस्था कराती है। भोजपुरी-मैथिली अकादमी का गठन भी किया गया है। प्रवासी मजदूरों के लिए दिल्ली में न्यूनतम मजदूरी देश भर में सबसे ज्यादा तय की गई है। एक अन्य सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि राजनीति के लिए जगह दी नहीं जाती, बनाई जाती है। चूंकि 1990 से पहले दिल्ली में प्रवासियों की संख्या काफी कम थी। पहले दिल्ली में रहने वाले प्रवासी रुपये कमा गांव भेज देते थे। धीरे-धीरे समय बदला और बाहर से आए लोग यहां बसने लगे। वे अपनी कमाई यहीं खर्च करने लगे। इससे दिल्ली का आर्थिक ढांचा मजबूत होने लगा। बावजूद इसके 1993 में कांग्रेस ने संगम विहार, जनकपुरी और यमुनापार की एक सीट पर पूर्वांचल प्रत्याशी को उतारा। वर्ष 1997 में मुझे पार्षद का टिकट दिया गया। 1998 में भी कांग्रेस ने भरोसा कर मुझ जैसे प्रवासी को विधानसभा में उतारा। वर्तमान में दिल्ली में पूर्वांचल के सात प्रतिनिधि हैं। हालांकि, जनसंख्या के अनुपात में प्रवासियों को अधिक टिकट दिए जाने की जरूरत महसूस की जा रही है। उल्लेखनीय है कि परिसीमन के बाद दिल्ली की दो तिहाई विधानसभा सीटें और नगर निगम की सीटें ऐसी बन गई हैं जहां पूर्वांचल के प्रवासी 20 फीसद से 60 फीसद तक हैं। परिसीमन से पहले बाहरी दिल्ली और पूर्वी दिल्ली में प्रवासियों का असर था लेकिन परिसीमन के बाद लोकसभा की सातों सीटों, विधान सभा की 70 में से 50 सीटें और नगर निगम के 272 में से करीब दो वार्ड ऐसे बन गए हैं, जहां प्रवासियों के वोट निर्णायक हैं। पूर्वांचल के प्रवासियों के साथ उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ के प्रवासी भी जुड़ कर ज्यादा प्रभावी हो जाते हैं। प्रवासियों के बूते पहले विधायक और निगम पार्षद चुनाव जीतते रहे, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में बिहार मूल के महाबल मिश्र ने पश्चिमी दिल्ली लोकसभा सीट से जीत हासिल करके दिल्ली के रणनीतिकारों की नींद उड़ा दी। अब तो माहौल प्रवासियों के अनुकूल पहले से ज्यादा हो गया है। सच तो यह भी है कि पूर्वांचल, खासकर बिहार का लोक पर्व छठ अब बिहार से भी ज्यादा धूमधाम से दिल्ली में मनाया जाता है। छठ के मुख्य पर्व में दोनों दिन यमुना के घाटों पर तिल रखने की भी जगह नहीं रहती है। दिल्ली और आसपास के उपनगरों में हर नदी-नालों पर छठ करने वालों की भीड़ उमड़ पड़ती है। सालों से प्रवासियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। इसी के चलते दिल्ली सरकार ने बिजली, पानी, साफ-सफाई का इंतजाम शुरू करवाया। विभिन्न स्वयंसेवी संगठन और राजनीतिक दल भी अपने स्तर पर घाटों की साफ-सफाई करते हैं। 2001 में दिल्ली सरकार ने छठ के दिन एच्छिक अवकाश घोषित करके दिल्ली के प्रवासियों को मान्यता दी। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित खुद तो रहने वाली पंजाब की हैं, लेकिन दिग्गज गांधीवादी नेता पंडित उमाशंकर दीक्षित की बहू होने के चलते वे अपने को पूरब का प्रवासी बताती रही हैं। उनके पुत्र संदीप दीक्षित ऐसे इलाके (पूर्वी दिल्ली) से लगातार दो बार सांसद बन गए जो प्रवासी और ब्राह्मण बहुल सीट मानी जाती है। शीला दीक्षित से पहले भी प्रवासी कांग्रेस के ही साथ थे बल्कि 1993 में विधानसभा चुनाव में कई इलाकों में उन्होंने जनता दल को वोट किया था और तब जनता दल के नेता रामवीर सिंह विधूड़ी की उनमें जो अच्छी पैठ बनी वह अब तक बनी हुई है। पूर्व सांसद सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर को भी इस वर्ग का समर्थन मिलता रहा है। भाजपा नेता शुरू से इनसे अछूत जैसा व्यवहार करते रहे। 1993 के विधानसभा चुनाव में मदन लाल खुराना ने मेवाराम आर्य आदि की सलाह पर पहली बार इस वर्ग के लोगों में पैठ बनाई जिसका परिणाम हुआ कि भाजपा सत्ता में आई लेकिन मूलत: वैश्य व पंजाबी नेतृत्व वाली भाजपा प्रवासियों को ढंग से जोड़ नहीं पाई। दो बार प्रदेश अध्यक्ष रहे मांगेराम गर्ग या डॉ. हर्षवर्धन की कोशिशों का भी ज्यादा लाभ नहीं हुआ। इस बार प्रदेश अध्यक्ष विजय गोयल और भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी डॉ. हर्षवर्धन ने इसे मुख्य एजंडा बनाया है। उन्होंने बिहार में कई नेताओं को इस अभियान में सहयोगी बनाया है। दरअसल, चुनाव आते ही राजनीतिक दल दिल्ली में रहने वाले पूर्वांचल, यानी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश, के मतदाताओं को लुभाने में लग जाते हैं। पिछले कुछ सालों में जिस तरह से दिल्ली की तस्वीर बदली है, उसमें पूर्वांचल के लोग वोट बैंक के रूप में एक मजबूत ताकत बन कर उभरे हैं। दिल्ली में मतदाताओं की संख्या करीब 1.10 करोड़ है। इसमें से करीब 35 लाख मतदाता पूर्वांचल के हैं। विशाल वोट बैंक की वजह से ही पूर्वांचली-दिल्ली की राजनीतिक तस्वीर बनाने और बिगाड़ने का माद्दा रखते हैं। वैसे तो पूर्वांचली लोगों की उपस्थिति दिल्ली के कोने-कोने में है, लेकिन सात में से चार लोकसभा और दो दर्जन से ज्यादा विधानसभा सीटों पर वे निर्णायक भूमिका में होते हैं। दिल्ली की पूर्वी, उत्तर-पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी दिल्ली लोकसभा क्षेत्र में पूर्वांचली मतदाताओं की संख्या 20 से 25 फीसदी के करीब है। बाकी तीनों सीटों पर पूर्वांचली मतदाताओं की तादाद करीब 10 फीसदी है। पूर्वांचल के लोगों कि बढ़ती ताकत का ही नतीजा है कि पूरब के प्रमुख सांस्कृतिक पर्व छठ में शरीक होने के लिए नेताओं की होड़ लगी रहती है। गौर करने योग्य यह भी है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के सीएम इन वेटिंग विजय कुमार मल्होत्रा ने पूर्वांचलियों को रिझाने के लिए सूर्य को अर्घ्य दिया था। दूसरी ओर दिल्ली की मुख्यमंत्री और अपने को पूर्वांचल की बेटी कहने वाली शीला दीक्षित भी छठ घाटों का निरीक्षण करती नजर आई थीं। पूर्वांचली मतदाताओं को लुभाने की इसी कवायद का नतीजा है कि बिहार जागरण मंच की ओर से पूर्वी दिल्ली में यमुना के तट पर कराए जाने वाली छठ पूजा के आयोजन में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, ए के वालिया, मदन लाल खुराना, महाबल मिश्रा, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नेता-अभिनेता पहुंचते रहे हैं। बिहार जागरण मंच के अध्यक्ष दिनेश प्रताप सिंह भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि छठ के माध्यम से राजनीतिक लाभ उठाने का भरसक प्रयास होता रहा है। इस बार छठ पूजा के दौरान भाजपा दिल्ली में रहने वाले पूर्वांचली लोगों को खुश करने के लिए एक नई कोशिश करने वाली है। दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में बने छठ पूजा के घाटों पर भाजपा के कार्यकर्ता अपना बैनर लिए लोगों की मदद करते और चाय पिलाते नजर आएंगे। प्रदेश भाजपा ने तय किया है कि इस बार पार्टी सभी छठ घाटों पर अपने बैनर तले छठ व्रतियों की सुविधा के लिए टेंट और कैंप लगाएगी। भाजपा नेताओं ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि शीला सरकार पुरबियों को फुसलाने के लिए घोषणाएं तो कर देती हैं, लेकिन उन घोषणाओं पर अमल नहीं किया जाता। न तो छठ घाटों की सफाई का ख्याल रखा जाता है और न ही छठ पूजा के लिए नदी-तालाब में साफ पानी की कोई व्यवस्था की जाती है।