मंगलवार, 25 जनवरी 2011

बस, तुम्हारे लिए

ललाहित मन, उत्सुक नयन, करबद्घ तन और दिलों में आपका प्यार है
मनमोहिनी सी इस बेला में बस एक ही अरदास है,
जो सोचा है तुमने वो सब पा लो।

आज के दिन दुआएं तो बहुत मिली होंगी,
उसमें मेरी भी शामिल कर लो।
भूल हुई या चूक कोई हो, ध्यान सभी तज देना
अनमोल बड़ा है प्रेम आपका सानिध्य रतन रज देना।
आज भी तुम्हें भी गर याद हो
शुरू में बातचीत का क्रम एकतरफा रहा हो
तुम बोलते रहे और मैं सुनती रही
जब ये सिलसिला दोतरफा हुआ
न जाने किसकी नजर लगी...
एक जलजला आया और बिखर गई सपनों की माला
बिखर गए वो मोती, जिन्हें हमने बड़े जतन से चुने थे...
आज भी उन्हें पिरो रही हूं इस आस में
काश !
लौट आएंगे वो पल ...
क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए
एक समझौता हुआ था रोशनी से टूट जाए...
फिर भी मन में अरदास है,
जो सोचा है तुमने वो सब पा लो।

जानती हूं तुम्हारी मुझसे नफरत है अदद
शायद वजहें भी मैं ही हूं
पर जो था, जैसा था रख दिया तुम्हारे समक्ष
अपना हाल-ए-दिल, बिना किसी दुराव-छिपाव के
फिर भी कहूंगी लौटा दो वो पलछिन
रुठना-मनाना तो दुनिया की रीत है
मनुहार बड़ी नहीं, बड़ी आपकी प्रीत है।
अबके भी पधारियेगा यह दिल की पुकार है
केवल अनुग्रह की बात नहीं,
मन का अरदास है,
जो सोचा है तुमने वो सब पा लो।

आज भी अंगुलियों में जुम्बिश होती हैं, पर सहम जाती हैं
शायद, तुम्हारी नफरतों का यह आभास है
डरती हूं कि कहीं तुम ये अधिकार भी न छीन लो...
पर इस दिन स्वीकारता है हर कोई
दुश्मनों से भी दुआएं
दुश्मन ही समझ स्वीकार लो मेरी अरदास भी
आज के दिन
जो सोचा है तुमने वो सब पा लो।

तुम मानो या ना मानो
यह दिन मेरे लिए यादगार रहेगा सदा
जिसने मुझे हंसना सिखाया
उस पल संभाला जब लगता था जिंदगी थम सी गई है,
आकर मेरे जीवन को था तुमने संवारा
जिस दिन उसका इस धरती पर हुआ पादुर्भाव
वह दिन मेरे वजूद से जुड़ गया है
तभी तो मन में यह अरदास है ,
जो सोचा है तुमने वो सब पा लो।

दुआएं तो बहुत मिलीं होगी इस दिन
तुम सफलता के उच्चतम शिखर तक पहुंच जाओ,
सफलता के परचम लहराओ....
पर मैं दुआ करुंगी इतनी
जो सोचा है तुमने वो सब पा लो।

न जाने आज क्यूं दिल फिर से कहता है
अब भी हाथ में कुछ वक्त बाकी है
बस एक लम्हा जीना चाहती हूं
समय के इस शामियाने में फिर एक
नए ख्वाबों का घरौंदा बना जी लें हम
लौटा दो वो पल...लौटा दो वो पल...

- दीप्ति अंगरीश

सोमवार, 17 जनवरी 2011

तुम्हारे शहर में

- विपिन बादल
रहता हँू सहमा-सहमा, तुम्हारे शहर में।
चलता हँू संभल-संभल, तुम्हारे शहर में।।

लूटपाट और छीना-झपटी, सौंदर्य उस नगर का।
रोज शीलभंग होता कितने, तुम्हारे शहर में।।

चोर मस्त, कोतवाल पस्त, शासन पूरा भ्रष्टï है।
जंगल का कानून चलता, तुम्हारे शहर में।।

जिस प्रवासी ने रूप निखारा, उसी पर ईल्जाम है।
ईनाम में है हाथ कटता, तुम्हारे शहर में।।

किसानों के खेत बिके, कंक्रीट का जाल बिछा है।
यमुना की है धार खोई , तुम्हारे शहर में।।

सड़क बना समर भूमि, खून से लाल है।
ब्लूलाइन से सब डरा है, तुम्हारे शहर में।।

शनिवार, 8 जनवरी 2011

विश्व प्रसिद्घ कहानियों का नाट्य लेखन


वर्तमान में मौलिक हिंदी नाटकों का लेखन अपेक्षाकृत कम हो रहा है। इसकी वजह चाहे जो भी हो। इन स्थितियों में अधिकांश नाटककार प्रसिद्घ कहानियों के नाट्य रुपांतरण के महत्व को समझते हुए उसको अपने रंग-रूप में ढालकर हिंदी रंगमंच को आसन्न खतरों से बचाए हुए हंै। वैसे में जब रंगमंचीय दृष्टिï से हिंदी नाटकों में विभिन्न प्रकार के प्रयोग हो रहे हैं, तो कहानियों के नाट्यरुपांतरण को मौलिक रचना मानना भी अतिश्योक्ति नहीं कही जाएगी। कारण, यह नाटक की कमी को पूरा कर रही हैं। ये नवप्रयोग सामयिक और सनातन प्रश्नों से मुठभेड़ करते हुए अपनी सार्थकता भी सिद्घ करते हैं। वास्तव में पिछले दो दशकों में नाट्यलेखकों और नाट्य निर्देशकों ने अपनी सक्रियता से हिंदी रंगकर्म को और समृद्घ ही किया है।
इसके अलावा, सच यह भी है कि प्रसिद्घ कहानियों की श्रेणी में वे ही कहानियां आ पाती हैं, जो सनातन मूल्यों, सामाजिक सरोकारों से आबद्घ होती हंै और रचनाकार अपनी लेखनी से समाज को चिंतन पर मजबूर करता है, समाज को अक्स दिखाता है। प्रसिद्घ रंगकर्मी और निर्देशक प्रो. विद्याशंकर द्वारा 'ओवरकोट तथा अन्य नाटकÓ निकोलोई गोगोल, लु शून, प्रेमचंद और सआदत हसन मंटो की चर्चित कहानियों को केंद्र बिंदु मानकर लिखे गए नाटकों का संग्रह है। पिछले ढाई दशकों से अभिनय, नाट्य-लेखन और निर्देशन के क्षेत्र में अपनी सक्रियता का एहसास विद्याशंकर ने इस संग्रह में भी दिलाया है। कहानी (श्रव्य विधा) से नाटक (दृश्य विधा) में परिवर्तन के क्रम में रचनाकार को रंचमंचीय संयोजन और प्रस्तुति के हिसाब से कई संशोधन और परिवर्तन करने पड़ते हैं। सो, उन्होंने कथाक्रम को जोडऩे के लिए सूत्रधार की कल्पना की और उसके मुंह से उन वक्तव्यों का कहलावाया जो अपेक्षित था।
उल्लेखनीय है कि इन नाटकों का मंचन लेखक द्वारा कई बार किया जा चुका है। नाट्यरुपांतरण के बाद मंचन के दौरान निर्देशक को किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, उसका पर्याप्त विवरण इस नाटक संकलन में है। कहानी से इतर भी रंगमंच की जरूरत को देखते हुए इसमें नए पात्रों के मुख से वह कहलवाया गया है जिसका जिक्र कहानी में नहीं था। दरअसल, मंचन के दौरान दर्शकों को बंाधे रखना कलाकार के साथ लेखक-निर्देशक के कौशल पर भी निर्भर करता है। पात्रों के संवादों को जिस बखूबी के साथ लेखक ने सजाया है, वह सराहनीय है। इस लिहाज से विद्याशंकर डा. शंकर शेष, डा. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विजय तेंदुलकर, डा. धर्मवीर भारती और मोहन राकेश की न्यू क्लासिकल करेक्टर की खोज वाली दिशा में आगे बढ़ते दिखाई देते हैं। दरअसल, परिवेश में रंगमंच पर लाने की कल्पना ही रोमांच पैदा करती है।
'राग भैरवÓ,'कसाईबाड़ाÓ,'महाभोजÓ,'जमीनÓ,'सौगातÓ जैसी कहानियों का नाट्यरूपांतरण करने और आठ नाटकों के सृजनकर्म को पूरा करने के बाद लेखक ने निकालोई गोगोल का 'ओवरकोटÓ, लु शून का 'नया सालÓ, प्रेमचंद का 'मंदिर-मस्जिदÓ और सआदत हसन मंटो के 'टोबा टेक सिंहÓ कहानी का नाट्यरुपांतरण किया है। 'ओवरकोटÓ में उस शोषित वर्ग को दिखाया गया है जो अपनी एक छोटी सी इच्छा को भी पूरा करने में असमर्थ होता है। शोषक वर्ग उसका मजाक उड़ाता है। सो, वह एक भूत के माध्यम से अपना प्रतिशोध लेता हुआ दिखाई पड़ता है। 'नया सालÓ के केंद्र में एक ऐसा शख्स है जो कन्फ्यूशियसवादी साहित्य से प्रभावित है और उसका परिवार उसके साहित्य और उसके तर्कों से तंग हैं। बावजूद इसके, पारिवारिक मर्यादा को तवज्जो दी जाती है। कुंठाग्रस्त व्यक्ति किस प्रकार से सामाजिक सौहाद्र्र को बिगाडऩे की कोशिश करता है , कभी धर्म के नाम पर तो कभी संवेदनाओं की आड़ लेकर और वह आखिरकार अशांति-हिंसा का दामन थामता है, इसका चित्रण करता हुआ 'मंदिर-मस्जिदÓ समाज को एक नई दिशा देने का काम करता है। 'टोबाटेक सिंहÓ राष्टï्रीय अखण्डता के स्वर से लबरेज है। पागलखाने में ही सही, जिस प्रकार से पागलों का आपसी संवाद है, वह एक अलग चिंतन से कम नहंी है। सियासी आलंबरदारों ने जिन बिंदुओं पर बहस-मुबाहिसा नहीं की, लाहौर पागलखाने में बंद किए गए चंद पागल उन मसलों पर गौर फरमाते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद कौमी एकता किस कदर छिन्न-भिन्न हुई थी और आम जनता किस कदर उसमें पाटन की मानिंद पीस रही थी, उसका बखूबी एहसास मंटो ने अपनी कहानी में दिलाया। यकीनन, ये चारों नाटक सामाजिक सरोकारों के ताने-बाने में गुंथे हुए हैं जिसका असर विश्वव्यापी है।

पुस्तक - ओवरकोट तथा अन्य नाटक
लेखक - प्रो. विद्याशंकर
प्रकाशक - शिल्पायन
वेस्ट गोरखपार्क, शाहदरा, दिल्ली - 32
मूल्य - 150 रुपए

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

बड़े पहल की जरूरत

विकास पर क्षेत्रीयता किस कदर हावी होता है इसका मुजाहिरा झारखण्ड से बेहतर शायद ही कहीं मिले। तभी तो विकास की बात करने के बजाए प्रदेश के नेता क्षेत्रीयता की बात कर रहे हैं, वह भी गरीब और आदिवासियों के नाम पर। कभी झारखण्ड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने जिस तरह से 'डोमिसाइलÓ की नीति से यहाँ का ताना-बाना नष्ट किया और समूचे प्रदेश को हिंसा की आग में झोंक दिया था, जिसका खामियाजा यहाँ के निरीह लोग आज भी भुगत रहे हैं। तो कुछ उसी राह पर चलते हुए गठबंधन की अर्जुन मुंडा सरकार भी छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट को हवा देने की कवायद कर रही है।
वर्तमान का सच यही है कि मुंडा सरकार के एक मंत्री मथुरा महतो छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट को मुद्दा बनाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट झारखंड के ओदवासियों-मूलवासियों के लिए जीवन रेखा है। यह तो कानून बना हुआ है ही। और सरकार ने यह कभी नहीं कहा कि इस कानून में संशोधन करेंगे, तो फिर बार-बार इसी मुद्दे को उछालने के पीछे मंशा क्या है? जिस ताकत को झारखंड के विकास में लगाना चाहिए, वह कहीं और लग रही है।
सच तो यह है कि राजनीतिक अस्थिरता के साथ ही लोगों के लिए चावल-दाल, चाय-चीनी, सब्जी सब महंगी। राज्य में रोज बिगड़ रही है कानून-व्यवस्था, खुद डीजीपी स्वीकारते हैं। भ्रष्टाचार चरम पर है। सरकार दावा करती है कि वह काम करना चाहती है, लेकिन काम दिखता नहीं। नियुक्ति की घोषणा की जाती है लेकिन नियुक्तियां हो नहीं पाती। सरकार खुद स्वीकारती है कि कई महकमों में मैन पावर की कमी है। राज्य के लगभग हर दल के दिग्गज यह कहते रहे हैं कि राज्य में अफसरशाही हावी है। मगर, कोई भी राजनीतिक दल इसको मुद्दा नहीं बनाती। वह तो पीछे पड़ी है सीएनटी एक्ट की, जो क्षेत्रीयता के नाम पर उनकी राजनीतिक दुकान को चमका सके।
सूत्रों का कहना है कि एक बड़े कॉरपोरेट गुप की मदद से मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के राज्य में सीएनटी एक्ट को परिभाषित करते हुए जमीन खरीद-बिक्री को लेकर पिछले कुछ दिनों तक जो नौटंकी चला है और जिसका अभी स्थाई पटाक्षेप नहीं हुआ है, वह केवल एक माह के लिये स्थगित हुआ है। माना जा रहा है कि यह एक्ट प्रदेश को निश्चित तौर पर रसातल की ओर ले जायेगा और तीन-चौथाई आबादी के बीच आपसी भय-तनाव का माहौल जारी रखेगा। बताया जाता है कि इसी क्रम में सरकारी अधिकारी ने अचानक सभी जिला मुख्यालयों में अवस्थित भूमि निबंधन कार्यालय को यह लिखित नोटिस भेज दिया कि आदिवासीयों के साथ-साथ पिछड़े वर्ग के लोगों के किसी भी प्रकार के जमीन की खरीद-बिक्री अगड़े जाति के लोग नहीं कर सकते। इसका नतीजा यह हुआ कि राजधानी रांची से लेकर रामगढ़,हजारीबाग,धनबाद,बोकारो से लेकर जमशेदपुर कोडरमा तक निबंधन कार्य रुक गये। हर जगह धरना,प्रदर्शन,आगजनी,तोड़-फोड़ व हिंसा की घटनाएं होने लगी और 72 घंटों तक ये निर्बाध जारी रहे। गौरतलब यह है कि यह सब उस दौरान हुआ जब प्रदेश में पंचायत चुनाव हो रहा था। समूचा झाररखण्ड पेसा क़ानून के तहत हो रहे चुनाव के बीच नक्सली हिंसा की दंश झेल रहा है। तभी तो मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने उत्पन्न भीषण समस्या की नजाकत को समझते हुए अपने सचिव के आदेश को एक महीने के लिये स्थगित कर दिया है और कहा कि इसके भीतर समाधान ढूंढ लिया जायेगा।
सवाल यह भी उठता है कि वर्ष 1908 यानि 102 वर्ष पूर्व बने सीएनटी एक्ट की आज आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी क्या प्रासिंगता है ,यह समझ से परे है। यदि है भी तो आज इसका मूल्यांकन नये सिरे से करना जरूरी है। अब यहाँ के पिछडों की तो दूर आदिवासियों की हालत भी 102 वर्ष पहले जैसा नहीं है। वे सब सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टिकोण से काफी परिपक्व हो गये हैं। वे भलीभांति समझने लगे हैं कि सीएनटी एक्ट उनके सर्वांगीण विकास में बाधक हैं। मगर दुर्भाग्य कि यहाँ के लूटेरे नेता वोट की राजनीति के चक्कर में ये नहीं समझ रहे है। जानकार बताते हैं कि मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के इशारे पर ही सचिव ने जनमानस को नापने के ख्याल एक तरफ नोटिश जारी करवाये और राजनीतिक नज़रिया अपनाते हुये बाद में एक महीने का फौरी स्थगन आदेश दे दिया है।
काबिलेगौर यह भी है कि झारखंड प्रदेश कांग्रेस कमेटी के ओबीसी विभाग के अध्यक्ष वीरेंद्र कुमार जायसवाल ने सीएनटी एक्ट के प्रावधानों को कड़ाई से लागू करने की मांग राज्य सरकार से की है। श्री जायसवाल का कहना है कि पिछड़े वर्ग के हितों को देखते हुए सीएनटी एक्ट में किसी तरह की छेड़-छाड़ नहीं करनी चाहिए। राज्य सरकार का दायित्व बनता है कि सीएनटी एक्ट की रक्षा करे। सीएनटी एक्ट में पिछड़ा वर्ग भी शामिल है तो दस साल पहले अलग राज्य बनने के बाद पिछली सरकारों को इसकी जानकारी जनता को देनी चाहिए थी। जनता को जानकारी नहीं देकर पिछड़े वर्ग को अंधेरे में रखा गया। राज्य सरकार के भूमि सुधार मंत्री मधुरा प्रसाद महतो ने सीएनटी एक्ट को लागू करने की मांग की है लेकिन राज्य सरकार उनकी मांगों को अनदेखी कर रही है।

बुधवार, 5 जनवरी 2011

कलम के कौशल से खिड़कियों में तब्दील आइने

कृपाशंकर


विश्वविख्यात चित्रकार पिकासो ने एक बार कहा था, 'मैं कोई दृश्य पेंट करता हूं जो बहुत खूबसूरत है, बाद में उसे मिटा देता हूं। थोड़ी देर के बाद वह अत्यंत सुंदर हो जाता है।Ó ठीक इसी तरह लेखक को उसकी रचना केे सौंदर्य का बांध लेखन के बाद ही चलता है और कभी-कभी तो यह सुंदरता लेखक नहीं, पाठक जांचता-परखता है। शब्दों और कथानक के माध्यम से उसे कसौटी पर कसता है। सही निर्णय तो वही करता है। नासिरा शर्मा की कहानियों में यह बात स्पष्ट रूप से झलकती है कि कलम के कौशल से सारे आइने खिड़कियों में तब्दील हो गए हैं। ऐसा अन्य लेखकों में बहुत कम देखने को मिलता है। बेशक, नासिरा शर्मा ने स्त्री-विमर्श पर अपने किरदारों के माध्यम से समय-समय पर काफी कुछ कहा है। पिछले दशक से वैसे हिन्दी कथा साहित्य में, पत्र-पत्रिकाओं में काफी कहा-सुनी होती रहती है। इस प्रकार की प्रस्तुतियों से यह पता नहीं चलता है कि जिस नारी की चर्चा हो रही है वह कौन है? उसकी शिक्षा का स्तर क्या है? वह अशिक्षित है या 'कÓ 'खÓ अथवा 'अलिफÓ 'बेÓ से परिचित है। बस नारी-नारी की रट लगाकर विमर्श का ताना-बाना तैयार हो जाता है और लेखक को नारीवादी होने की सौगात मिल जाती है। और तो और, कतिपय कलम की साहित्यिक दुकानदारी नारी-विमर्श के ही बल पर चल रही है।
आमतौर पर हिंदी के लेखकों पर आरोप लगता रहा है कि वे जीवन की कड़वी सच्चाइयों और गंभीर विषयों की अनदेखी करते रहे हैं। मृगमरीचिका में पाठकों को रखने का जैसे उन्होंने अनुबंध कर रखा हो।
हालांकि, यदा-कदा इसका अपवाद भी मिलता रहा है। उसी अपवाद की एक कड़ी नासिरा शर्मा के हाथों में भी है। गद्य साहित्य के हरेक विधा में दखल रखने वाली नासिरा शर्मा हिंंदी की चर्चित लेखिका हैं। हिंदी साहित्य की उर्वर भूमि इलाहाबाद से सरोकार रखने वाली नासिरा शर्मा को साहित्य विरासत में मिला। फारसी भाषा व साहित्य में एमए. करने के साथ ही हिंदी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी और पश्तो भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ है। वह ईरानी समाज और राजनीति के अलावा साहित्य कला व सांस्कृतिक विषयों की विशेषज्ञ हैं।
हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार कमलेश्वर के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'सारिकाÓ के नवलेखन अंक, 1975 में नासिरा शर्मा की पहली कहानी 'बुतखानाÓ छपी थी। 'बुतखानाÓ एक ऐसे इनसान की कहानी है जो एक कस्बे से दिल्ली आया था। वह तनाव भरी जिंदगी में एक ताज्जुब-सा संबल था। कहानी का एक अंश देखिए , 'सुबह कब होती, धूप कब निकलती, उसे पता न चलता। आकाश का एक छोटा-सा टुकड़ा नजर आता। एक दिन गर्दन टेढ़ी करके उसने बड़े परिश्रम से आकाश की नीलाहट को देखा। देखना भी तो कितना कठिन है, चारों ओर तो एक-सी ऊंची इमारतें हैं। वह भी इतनी सटी हुई कि रमेश को सदा लगता कि वह एक-दूसरे के कान में फुसफुसा कर जाने कौन-सी कहानी कहकर, दुख बांटना चाहती है।....Ó यहां से जो इनकी लेखन यात्रा शुरू हुई, वह कभी रुकी नहीं। अव्वल तो यह कि कहानी अपने कथ्य, शिल्प और भाषा की प्रांजलता और प्रौढ़ता के द्वारा इसका तनिक भी आभास नहीं होने देती कि यह लेखिका की पहली कहानी है। रचना की परिपक्वता गजब की है। इस कहानी में महानगरीय आपाधापी, यांत्रिकता और सबसे अधिक उन स्थितियों को उकेरा गया है जिनमें मनुष्य की संवदेना समाप्त होती जाती है। कहानी में अभाव है, टूटती अपेक्षाएं हैं, कस्बे के सीधे सादे मनुष्य के संवेदनहीन बुत में तब्दील हो जाने की विवशता है।
सच तो यह है कि कथा साहित्य लिखने वाले और पढऩे वाले को जिंदगी की बारीक जानकारी होनी चाहिए। बिना जानकारी के लिखना और पढऩा दोनों अधूरा रहता है। नासिरा शर्मा के लेखकीय स्वभाव में व्यक्ति और समाज को भली प्रकार जानने-परखने की ललक है। यह ललक ही उनके लेखन को समृद्ध बनाती है। वे केवल लिखने के लिए नहीं लिखतीं। कोई एक अंदरूनी ताकत है जो उनसे लिखवा लेती है। यह सधी हुई लेखन की पहचान है। कभी-कभी तो बच्चे के माध्यम से बड़ी-बड़ी बातों की तहरीर तैयार हो जाती है। उसे देख-पढ़ कर आश्चर्य भी होता है और अच्छा भी लगता है। अपनी रचना प्रक्रिया की बात करते हुए वह कहती हैं, 'कभी-कभी गर्म चाय डालने से जैसे कांच का गिलास चटक जाता है, कुछ उसी से मिलता जुलता अनुभव मुझे तब होता है जब कोई वाक्य, किसी का कहा-सुना मुझे गहरे भेदकर मेरी पुख्ता जमीन को दरका जाता है और शब्दों का गर्म लावा फूटकर एकाएक सफेद पन्नों पर फैल जाता है।Ó नासिरा शर्मा के कहानी संकलन 'बुतखानाÓ का लब्बोलुबाब भी ऐसा ही है। सोलह दीर्घकथाओं और तेरह लघुकथाओं को समेटे इस संकलन के संवादों में चिंतन के साथ सर्वथा नये आयाम खुलते हैं। विचारों की लडिय़ाँ तैयार होती हैं। स्वाभाविक रूप से कलम की नोक से उतरे हुए वाक्य बहुत कुछ कहते हैं। वह स्वयं भी कहती हैं, 'इन कहानियों में व्यक्त परिस्थितियों का कोई ऐतिहासिक संदर्भ तलाश करना जरूरी नहीं क्योंकि ये सारे विषय ऐसे हैं जिसमें आज की नस्ल अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है। उसमें सपनों की सरसराहट, भावुकता की गुदगुदाहट, प्रेम की चाहत नहीं है बल्कि ठोस स्थितियाँ, संवेदना का निरंतर शुष्क होते जाना, प्रेम भाव का स्थायी रूप से किसी भी रिश्ते न ठहर पाने की खीज और घबराहट भरी जिजीविषा है कि कल क्या होगा?...Ó
वास्तविकता यह है कि लेखक चुनाव करने में माहिर होता है। इस चुनाव में रुचि, अभिरुचि और परिवेश सभी काम करते हैं। नासिरा शर्मा के जीवन का अधिकांश हिस्सा शहरों में बीता है पर गाँव से भी वह अपरिचित नहीं हैं। उनकी अनुभूतियों की परिधि दूर-दूर तक फैली हुई है। असल बात यह है कि अपनी सारी रचनाओं में वे इनसान की तकलीफों की साक्षी बनती प्रतीत होती हैं। उनकी कहानियों में उभरी घटनाएँ उनकी फस्र्ट हैंड नॉलेज पर आधारित हैं। वह अपनी रचनाओं की इमारत दोयम दर्जे की सहायक सामग्री से नहीं तैयार करतीं। यही वजह है कि उनमें प्रतीति और विश्वास की भरपूर चमक है। पाठक जैसे-जैसे रचना की अंतर्यात्रा करता है, यह चमक और चटख होती जाती है। बीच में पाठक को कहानी के अंत का अहसास नहीं होता। इसे नासिरा शर्मा के शिल्प-विधान की खूबी कहा जा सकता है। बंबइया सिनेमा में कहानी के परिणाम का पता पर्दे के दृश्यों से काफी पहले चल जाता है लेकिन नासिरा शर्मा की कहानियों के साथ ऐसा नहीं है। चूंकि, वह मूलत: और अन्तत: साहित्यकार हैं इसलिए नतीजे तक धीरे-धीरे पहुँचती हैं। एक झटके से सारा दृश्य चाक्षुष नहीं होता। लेखिका को हमेशा, हर क्षण यह ध्यान रहता है कि यह मजमून किसके लिए लिखा जा रहा है। यही वजह है कि उनका कलाम हमेशा 'अलर्टÓ रहता है। उन्हें इस बात का पक्का पता होता है कि कोई भी नक्शा जिंदगी का सफर नहीं है। सफर में तो तलवे घिसने पड़ते हैं। तब कहीं जाकर मंजिल मिल पाती है। नारी-विमर्श के सिलसिले में अपने साक्षात्कारों में, छोटे-मोटे लेखों में जो कुछ और जितना कहा है, उसके संदर्भ में कुछ द्रष्टव्य हैं। नासिरा शर्मा स्वयं एक नारी हैं। उनका लालन-पालन संभ्रांत परिवार में हुआ है। जन्मना मुस्लिम होने के साथ उन्होंने हिन्दू (ब्राह्म्ïाण) के साथ प्रेम विवाह किया । इस क्रांतिकारी कदम का लाभ उन्हें जीवन जीने में कितना मिला है, यह तो वही जानें पर दोहरे अनुभव और जानकारी से लेखन में एक सुथरापन आया है, साथ ही उनका दायरा भी विस्तृत हुआ है।
वर्तमान समाज पुरातनता, परंपरा और आधुनिकता के झंझावतों से दो-चार हो रहा है। उसका चित्रण इसी संकलन की कहानी 'नमकदानÓ में हुआ है। कहानी का अंश देखिए,
''रेशमा ! जिंदगी उसूल की किताब नहीं है।ÓÓ जफर ने कहा।
''मान लेती हूं मगर उसूल के बिना जिंदगी, जिंदगी नहीं होती।ÓÓ... (पृष्ठ संख्या 5 )
'अपनी कोखÓ का अंश देखिए, 'कितने पौधे धरती में जड़ पकड़ लेते हैं और लहलहा उठते हैं। कुछ सूख जाते हैं। खेती को अनाज में बदलने के लिए कुछ तो कुर्बानी देनी पड़ती है। कभी माल की कभी जान की, कभी इच्छा की...?Ó
'क्या मैं अपनी इस इच्छा की कुर्बानी दे दूं... इच्छाएं तो बनती बिगड़ती लहरें हैं। उनका वजूद ही क्या, मगर तालाब का, नदी का, समुद्र का, यहाँ तक कि कुएँ तक का एक यथार्थ है और यथार्थ ही जीवन है। मुझे इच्छापूर्ति के भंवर से निकलना होगा और यही मेरी परीक्षा होगी, यही मेरी साधना होगी, यही मेरा यथार्थ होगा।Ó साधना अपने को मन मस्तिष्क के ऊहापोह से निकालने में कामयाब हो गई और संवेदना एक बिंदु पर जाकर अटक गई कि लड़के-लड़कियों में भेद करने वाला यह समाज तब तक बलवान बना रहेगा जब तक नारी उसके इशारे पर चलती रहेगी। कोख उसकी है, वह चाहे तो बच्चा पैदा करे और न चाहे तो न पैदा करे। चयनकर्ता वही है।... (पृष्ठ संख्या - 27)
इन संवादों और प्रसंगों को देखने के बाद निश्चित तौर पर कहा जाएगा कि नासिरा शर्मा ने अपनी रचनाओं को मानवीय संवदेनाओं विशेषकर नारी मन को जबदरस्त तरीके से उकेरा है। पिछले कुछ वर्षों से स्त्री विमर्श चर्चा में है लेकिन हिंदी कथा साहित्य में यह कोई नया विषय नहीं है। प्रेमचंद की निर्मला हो या जैनेंद्र की सुनीता, यशपाल की शैल हो या अज्ञेय की रेखा, नारी अस्मिता का सवाल अपनी संपूर्णता एवं विविधता में कथा साहित्य के केंद्र में रहा है लेकिन आज की वरिष्ठ एवं नई पीढ़ी की लेखिकाओं ने स्त्री की इस पुरुषरचित छवि पर सवाल खड़े किए हैं। आजादी के बाद हिंदी कथा साहित्य में उभरते नई कहानी आंदोलन में स्त्री जीवन से जुड़े सवाल उठाए गए। उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, नासिरा शर्मा, मृणाल पांडे, मंजुल भगत, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया और प्रभा खेतान जैसी दर्जनों महिला कथाकारों ने पुरुष वर्चस्ववादी चौहद्दियों को तोडऩे का साहस किया। इस दौर में लिखे साहित्य में एक तरफ सामाजिक परंपराओं एवं आर्थिक शिकंजे में कैद स्त्री की छटपटाहट दर्ज है तो दूसरी तरफ है आधुनिकता की सीढ़ी लांघती स्त्री की उड़ान। बेशक, समाज बदल रहा है तो यथार्थ की जटिलताएं भी बढ़ी हैं और उसी हिसाब से स्त्री जीवन की चुनौतियां भी। स्त्री की जटिलताओं को समझने की जागरूकता बढ़ी है और बहुतेरी दिशाएं भी खुल रही हैं। सो, आधुनिक कथा साहित्य में परंपरागत पुरुषवादी फ्रेम को तोड़कर स्त्री के भीतरी व्यक्तित्व को पूरी निधड़कता से खोला जाने लगा है।
बुद्धिजीवियों का कहना है कि स्त्री या नारी मात्र कह देने से बात स्पष्ट नहीं होती। वस्तुत: इसमें कई परतें हैं। एक नारी वह है जो वंश वल्लरी को आगे बढ़ा रही है। एक वह है जो भाई के हाथ में राखी बांध रही है। एक नारी वह भी है जो आगे परिजनों की समृद्धि और सुख के लिए दुआएँ माँग रही है। कभी-कभी तो दुखियारी नारी की आँखों में गंगा-यमुना उमड़ती देख कर लगता है कि प्रकृति ही अपने कीमती मोती लुटाने को विवश है। अशिक्षा के अंधेरे में डूबी हुई नारी, स्वजनों से प्रताडि़त और तिरस्कृत नारी भी इसी धरती पर समाज में है। इस परिस्थिति में नारी विमर्श के पहले इस बात का खुलासा होना चाहिए कि किस नारी पर बात हो रही है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम उजाले में और उजाला फेंक रहे हैं। उन अंधी गलियों की ओर किसी कलम या विचार का ध्यान नहीं जा रहा जो सदियों से गाढ़ी कालिमा से ओत-प्रोत हैं। वहाँ तरक्की की किरणें नहीं पहुंच पातीं। लेखक यदि जहालत और पिछड़ेपन के घुप्प अंधेरे को अपने विचारों की रोशनी से नहीं भेद सकता तो उसका सारा प्रयास बेमतलब और बेमानी हैं। कभी-कभी तो अंधेरे और उजाले का कंट्रास्ट भी आकर्षण का कारण बनता है और लेखक तो समय का पारखी और द्रष्टा होता है। वह अंधेरा, उजाला, ज्ञान-अज्ञान को और इनके फर्क को भली भांति जानता है। नासिरा शर्मा इन तथ्यों से भी परिचित है।
किसी भी लेखक के पास जीवन का जितना अधिक अनुभव होता है, उसके कहानी का फलक उतना ही बड़ा होता है। कई देशों की यात्रा कर चुकीं नासिरा शर्मा के पास विभिन्न देशों और वहां के समाजों की गहरी समझ है। कई समाजों को करीब से देखने के कारण उनका रचना संसार कभी समद्ध हुआ है। सो, लेखिका के सोच का दायरा बड़ा है जिसमें राष्ट्रीय और अंतर्राष्टï्रीय वस्तु-विधान झलक मारता है। इस संकलन से अलग 'संगसारÓ कहानी ईरान की प्रथा या कुप्रथा पर सवालिया निशान लगाते हुए जन्म लेती है। इसकी कहानियों से लेखकीय प्रस्तुति का दायरा बढ़ता है और पाठक के लिए कलम एक सनातन बात रेखांकित करती है-'तो फिर भेजने दो उन्हें लानत उस सूरज पर जो जमीन को जिंदगी देता है, उस मिट्टी पर जो बीज को अपने आगोश में लेकर अंकुर फोडऩे के लिए मजबूर करती है और इस कायनात पर जिसका दारोमदार इन्हीं रिश्तों पर कायम है जिसमें हर वजूद दूसरे के बिना अधूरा है।Ó यह कथन कल भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल भी सत्य रहेगा। जब अनुभव करते-करते समय राहगीर को आवाज देने लगता है तब ऐसे कथन कलम से झरने शुरू हो जाते हैं। यही वह उपलब्धि है जो रचनाकार की दृष्टि को शाश्वतता प्रदान करती है।
नासिरा शर्मा की कहानियों को पढ़कर अहसास होता है कि सफर शुरू करने से पहले उन्हें पक्का पता होता है कि जाना कहां है। यही वजह है कि उनके किरदार अपने ठीक गंतव्य की ओर हमेशा आगे बढ़ते दिखते हैं। पाठक विचारों के घालमेल झेलने से बच जाता है। यह बात 'मरियमÓ, 'दूसरा चेहराÓ, 'सिक्काÓ, 'घुटनÓ और 'बिलाबÓ कहानियों में देखी जा सकती है। 'बुतखानाÓ में लेखिका ने जिन तेरह लघुकथाओं का समावेश किया है, वह अप्रतिम है। कोई यह कह सकता है कि नासिरा शर्मा की कहानियों में अतीत ज्यादा है। सच तो यह भी है कि हिंदुस्तान का कोई भी साहित्य अतीत से अलग नहीं हो सकता । प्रो. शमीम हनफी ने अपने एक लेख में कहा था, 'सबके सब हाल को अपने-अपने माजी या अपनी तारीखी बसीरत की रौशनी में बनने वाली जरूरतों के मुताबिक मनचाही शक्ल देना चाहते हैं।Ó इसी प्रकार यूनिस डिसोजा ने कहा था कि तारीख की जिस रूदाद से हम वाकिफ हैं उसका बड़ा हिस्सा छापे जाने के लायक नहीं है वह तो अंधेरे में एक लंबी चीख जैसा है। अमूमन यही चीख साहित्य में सिसकियों की शक्ल ले लेती है। सिसकियों की तो फिर भी आवाज होती है लेकिन आह व आँसू की आवाज नहीं हेाती है। उसके प्रकट होने के अनेक रूप होते हैं बस जरा नजदीक से देखने व समझने की जरूरत होती है। इसकी पारखी नजर व मार्मिक समझ नासिरा शर्मा में बखूबी है। नासिरा के कहानी संसार में स्त्री की भावनाओं और संवदेनाओं का इतना मार्मिक चित्रण है कि पाठक उनकी कहानियों में स्वयं की झलक देखता है, नारी की भावनाओं की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति से नासिरा ने मुस्लिम समाज में उत्पन्न नारी के अस्तित्व की अस्मिता प्रदान की और जीवन की तमाम जटिलताओं के चर्चित वर्ण ने उनकी लेखनी को भाषा का संस्कार दिया। उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि में स्त्री की न केवल छाया रही बल्कि उनके लेखन में स्त्री मुख्यत : मुस्लिम नारी एक प्रतिबिंब के रूप में नजर आती है। कहानियों में घटनाओं को साथ लेकर, किरदारों के भीतरी और बाहरी जीवन को दर्शाती हुई जीवन के निहित पहलुओं को उजागर करती नासिरा की कहानियों का दायरा इतना विस्तृत, असीम और इतना अधिक आयाम वाला है कि साहित्य की कोई भी विधा इससे अछूती नहीं रह सकती। बुतखाना कहानी संग्रह की कहानी 'गुमशुदा लड़कीÓ में तक्कन द्वारा परंपरावादी दूल्हन की अधूतरी तलाश है। जाने कितनी लड़कियों की तलाश के बाद उसे अपनी सपनों की हसीना के खो जाने को अनकहा गम है। 'बिलावÓ की सोनामाटी की बेटी मैना की इज्जत उसके पति बलवीर द्वारा लूटने के साथ यही हादसा सोनामाटी के चेहरे पर दूसरी मौत का हार स्थायी भाव बनकर ठहर जाती है। उसकी दृष्टिï में ये सब बलवीर हैं, जिन्हें वह किसी कीमत पर जीतने नहीं देगी। दरअसल, यह आक्रोश पूरी तरह स्त्री जाति के शोषण के विरोध में उठा हाथ है। 'शर्तÓ में पार्वती की पढ़ाई इसलिए नहीं कराई जाती है कि उसके भावी ससुराल वाले ऐसा नहीं चाहते। लेकिन ससुराल में प्रताडि़त पार्वती अपने स्तर से शिक्षा के अर्थ को व्यापकता प्रदान करती है। अपनी मालकिन से खाना बनाना सीखकर वह ढाबा खोलती है। कहानी में शिक्षा के प्रचलित अर्थ से हटकर स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता का महत्व दिखाया गया है जबकि 'मरियमÓ यौन कुण्ठाओं से ग्रसित पात्र के अकेलेपन और उदासी की मनोवैज्ञानिक स्तर की रचनाएं है।
नासिरा शर्मा ने अपनी कहानियों के माध्यम से खान-पान तथा आचार-व्यवहार की जिन पुरानी मान्यताओं को प्रस्तुत किया है वे धार्मिक आवरण के रूप में भी अपनी जड़े जमाए रखती हैं। यह पवित्रतावाद भी तत्वाद और फएडामेंटलिज्म का ही एक रूप है, जो समाज को बांटने का कार्य करता है और मानवीयता भी तार-तार होती है। इसी संग्रह में अलग-अलग कलेवर और तेवरों के संग होते हुए भी तेरह लघुकथाओं का आत्मा कमोबेश इसी सोच की है। 'नजरियाÓ, 'खौफÓ, 'उलझनÓ और 'अभ्यासÓ को पढऩे के बाद पाठक के मन में किसी प्रकार का कोई शक-सुबहा नहीं रह जाता। संकलन की अंतिम लघुकथा 'पनाहÓ का अंश देखिए, 'अकाल, बाढ़, आंधी, तूफान और भूकंप से बचते-बचाते जब वे घर पहुंचे तो दूसरे दिन सांप्रदायिक दंगे में मार डाले गए!Ó एक पंक्ति में पूरी एक कथा। बेजोड़। साथ ही, इन कहानियों के शिल्प कौशल की बात न की करें तो ही बेहतर। कारण, शिल्प कौशल तो रचना का साधन होता है, साध्य नहीं। जब और जहां कोई लेखक शिल्प-कौशल को साध्य मानने पर उतारू हो जाता है तो रचना का ताना-बाना ढीला पडऩे लगता है। नासिरा शर्मा जीवन की मार्मिक अनुभूतियों की कथा लेखिका हैं। जहां आदमी और उसकी आदमीयत है वहां जिंदगी और उसका मर्म है। मर्म का आलेखन ही रचना को मार्मिक और जीवंत बनाता है। लेखन में सजगता और सतर्कता ही उसे सर्वप्रिय बनाती है। नासिरा शर्मा की रचनाओं का पहला ड्राफ्ट अंतिम नहीं होता। अनेक सोच-विचार, चिंतन-अनुचिंतन के बाद ही वह प्रकाशन योग्य बनता है और पाठकों के सामने आता है। इस शैली पर किसी पूर्ववर्ती और समकालीन लेखक की छाप या छाया की प्रतीति नहीं होती। उनका आत्मचिंतन ही उनके लेखन का आधार बनता है और बनता आया है। यह विशेषता उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है। अपना घर, परिवार, व्यक्ति, समाज और देश जटिल समस्याओं का पुंज है। इन समस्याओं पर नासिरा शर्मा ने बड़ी बारीकी से सोचा है, विचार किया है। इन्हीं समस्याओं को आधार बनाकर कहानियों की इमारत खड़ी की गयी है। इसीलिए यह इमारत अपनी लगती है। यूं तो लेखिका के तमाम कहानी संग्रह, उपन्यास और अन्य रचनाएं हैं लेकिन बुतखाना विशेष है। इसके माकूल कारण हैं। दरअसल, इस कहानी संग्रह में लेखिका की पहली कहानी से लेकर पच्चीस वर्षों के रचना प्रक्रिया का अक्स मिलता है। बानगी है। मानवीय जीवन में क्षरित होते मूल्य और संवेदनाएं, मनुष्य की दुश्चिंताएं, अभाव, टूटन, वेदना, और जिंदगी की कड़वाहटे भी हैं। यूं कहें कि इस संग्रह में मानवीय जीवन रूपी कैनवस पर निजी अनूभूतियों के सहारे तमाम सरोकारों को उकेरने का भरसक प्रयास किया गया है।
अब तक दस कहानी संकलन, छह उपन्यास, तीन लेख-संकलन, सात पुस्तकों के फारसी से अनुवाद, 'सारिकाÓ, 'पुनश्चÓ का ईरानी क्रांति विशेषांक, 'वर्तमान साहित्यÓ के महिला लेखन अंक तथा 'क्षितिजपारÓ के नाम से राजस्थानी लेखकों की कहानियों का संपादन नासिरा शर्मा ने किया है। इनकी कहानियों पर अब तक 'वापसीÓ, 'सरजमीनÓ और 'शाल्मलीÓ के नाम से तीन टीवी सीरियल और 'मांÓ, 'तड़पÓ, 'आया बसंत सखिÓ,'काली मोहिनीÓ, 'सेमल का दरख्तÓ तथा 'बावलीÓ नामक छह फिल्मों का दूरदर्शन के लिए निर्माण भी किया जा चुका है। 2008 में उपन्यास 'कुइयांजानÓ की लेखिका को इंदु शर्मा कथा सम्मान दिया गया और साथ में यू.के. कथा सम्मान से सम्मानित किया गया। कुइयां, अर्थात वह जलस्रोत जो मनुष्य की प्यास आदिम युग से ही बुझाता आया है। आमतौर पर हिंदी के लेखकों पर आरोप लगता रहा है कि वे जीवन की कड़वी सच्चाइयों और गंभीर विषयों की अनदेखी करते रहे हैं लेकिन नासिरा शर्मा की पुस्तक 'कुइयांजानÓ इन आरोपों का जवाब देने की कोशिश के रूप में सामने आती है। पानी इस समय हमारे जीवन की एक बड़ी समस्या है और उससे बड़ी समस्या है हमारा पानी को लेकर अपने पारंपरिक ज्ञान को भूल जाना। फिर इस बीच सरकारों ने पानी को लेकर कई नए प्रयोग शुरू किए हैं जिसमें नदियों को जोडऩा प्रमुख है। बाढ़ की समस्या है और सूखे का राक्षस हर साल मुंह बाए खड़ा रहता है। इन सब समस्याओं को एक कथा में पिरोकर शायद पहली बार किसी लेखक ने गंभीर पुस्तक लिखने का प्रयास किया है। यह तकनीकी पुस्तक नहीं है, बाकायदा एक उपन्यास है लेकिन इसमें पानी और उसकी समस्या को लेकर एक गंभीर विमर्श चलता रहता है।
नासिरा शर्मा अपने समय की सर्वाधिक चर्चित और सशक्त रचनाकार हैं। उन्होंने देश-विदेश के जनमानस से विचारपूर्ण साक्षात्कार किया है। उसकी पीड़ा और दु:ख-दर्द को केवल देखा और महसूस ही नहीं किया, उस पर अपनी कलम भी चलाई है। उनकी निष्ठा संवेदनाओं के साथ है। मानव द्वारा मानव को दी गई पीड़ा की बर्बरता के खिलाफ आवाज उठायी है। यह आवाज किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं है। जहां अवसाद है, उत्पीड़पन है, प्रताडऩा है वहां आप नासिरा शर्मा को खड़ी पायेंगे। इतना ही नहीं, उनकी लेखनी दर्द और समस्या को अपने लेखन में रूप दे रही होगी। वे प्रकृत्या एक दबंग और सहिष्णु महिला हैं जो जाति और मजहब के कठघरे से बाहर निकल आयी हैं। साहित्य उनका जीवन है, रचना उनकी सांस है।
नासिरा शर्मा अपनी किसी रचना को मील का पत्थर नहीं मानती। उनके अनुसार, 'मैं सोच नहीं सकती क्योंकि मैंने कुछ ज्यादा नहीं लिखा है।Ó वह कहती हैं, 'देखिए, अभी तक जो लिखा है उससे मैं मुतमईन तो हुई हूं पर यह नहीं कहूंगी कि यहीं अंत नहीं है। मैं नये तरीके से लिखना चाहती हूं, जिसमें नये अनुभव हों और नयी बातें हों। अक्सर कुछ चीजें मुझे परेशान करती हैं कि ये रोने वाली कहानियां कब तक लिखी जायेंगी? ठीक है किसी ने कहा है कि हमारे दु:ख के गीत हैं वे बड़े मीठे गीत हैं। मैं सोचती हूं, जो मेरा समाज है वह एक अजीब तरह से करवट ले रहा है। अब मुझे किरदार उठाने में थोड़ी गहरी नजरों से देखना पड़ेगा, या मेरा अपना सिटी है इलाहाबाद, वहां की जिंदगी हो। जैसे जो गुंडे हैं वे किन हालात में ऐसा करने पर मजबूर हुए उनको बाहर उठाने में मैं कुछ कर सकूं।Ó
जिंदगी फूलों की नरम और खुशबूदार सेज नहीं है। हालांकि, ऐसा हो नहीं पाता पर आदमी को, मानव मात्र को दूसरों की करुण कथाएं सुनने का अवकाश निकालना चाहिए। लेखक का काम केवल इतना ही नहीं है कि वह यथार्थ का हृदय-विदारक चित्रण करे बल्कि उसे ऐसा परिवेश रचना चाहिए जिससे किसी भी आहत को देखकर उससे मिलकर आंखें नम हो सकें। यही परस्परावलंब की भावना ही साहित्य के उद्देश्य को पूरा करती है।
नासिरा शर्मा की रचनाओं में एक ओर तो इन्द्रधनुषी रंगत है, दूसरी ओर पाठकों के मन को अपनी ओर खींचने की ऊर्जा है। उनके लेखन में शब्दों का अपव्यय नहीं होता। वाक्यों की बनावट और बुनावट उनकी अपनी है। वह उर्दू की आवश्यक शब्दावली से संवलित है। शब्द प्रयोगों की चातुरी से उनकी भाषा जानदार और धारदार बन गयी है। यह विशिष्टता उन्हें अपने समकालीनों से एकान्तत: अलग करती है। रवींद्र्रनाथ टैगोर ने कहा था कि शब्दों के एक नहीं अनेक 'शेड्सÓ होते हैं। लेखक को उन 'शेड्सÓ की सही पहचान होनी चाहिए। यकीनी तौर पर नासिरा शर्मा इस सच से सौ फीसदी बावस्ता रखती हैं।

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

नागार्जुन की कविता

भूल जाओ पुराने सपने

सियासत में
न अड़ाओ
अपनी ये काँपती टाँगें
हाँ, मह्राज,
राजनीतिक फतवेवाजी से
अलग ही रक्खो अपने को
माला तो है ही तुम्हारे पास
नाम-वाम जपने को
भूल जाओ पुराने सपने को
न रह जाए, तो-
राजघाट पहुँच जाओ
बापू की समाधि से जरा दूर
हरी दूब पर बैठ जाओ
अपना वो लाल गमछा बिछाकर
आहिस्ते से गुन-गुनाना :
‘‘बैस्नो जन तो तेणे कहिए
जे पीर पराई जाणे रे’’
देखना, 2 अक्टूबर के
दिनों में उधर मत झाँकना
-जी, हाँ, महाराज !
2 अक्टूबर वाले सप्ताह में
राजघाट भूलकर भी न जाना
उन दिनों तो वहाँ
तुम्हारी पिटाई भी हो सकती है
कुर्ता भी फट सकता है
हां, बाबा, अर्जुन नागा !

शिक्षा पर जोर

विधाकय फंड को समाप्त कर एक नई इबारत लिखने वाले नीतिश सरकार अब शिक्षा पर खासा जोर दे रही है। बिहार के समाज को सुसंस्कृत और शिक्षित बनाए विकास के मनमाफिक उँचाईयों को नहीं हासिल किया जा सकता है, यह मुख्यमंत्री नीतिश सरकार बेहतर तरीके से जानते हैं। नतीजन, कैबिनेट से उन्होंने सूबे में एक हजार नए हाईस्कूल खोलने के प्रस्ताव को मंजूरी दिला दी।
दरअसल, बिहार सरकार ने अब नौवीं कक्षा के छात्र-छात्राओं को मुख्यमंत्री साइकिल योजना के तहत साइकिल खरीदने के लिए दी जाने वाली 2,000 रुपए की राशि को बढ़ाकर 2,500 रुपये करने का निर्णय लिया है। इसके अलावा सरकार ने एक हजार हाई स्कूल भी खोलने का फैसला किया है। राज्य के मानव संसाधन विभाग (शिक्षा) मंत्री पी. के. शाही का कहना है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ विभाग के आला अधिकारियों की बैठक में नौवीं कक्षा के छात्र-छात्राओं को मुख्यमंत्री साइकिल योजना के तहत साइकिल खरीदने के लिए दी जाने वाली 2,000 रुपए की राशि को बढ़ाकर 2,500 रुपये करने का निर्णय लिया गया है और नौवीं से 12 वीं तक की छात्राओं को भी वर्दी के लिए दी जाने वाली राशि 700 रुपए से बढाकर 1,000 रुपए करने का निर्णय लिया गया है। इतना ही नहीं, एक हजार हाई स्कूल खोलने का भी निर्णय लिया है। अब, राज्य में आगे होने वाली सभी शिक्षकों की नियुक्ति 'टीचर एलिजिबिलिटी टेस्टÓ (टीईटी) के आधार पर होगी। सरकार की ओर से यह निर्णय लिया गया है कि राज्य में सभी तरह की छात्रवृत्तियों का वितरण, सभी प्रकार के विद्यालयों का संचालन और सभी विभागों के छात्रावास का संचालन मानव संसाधन विकास विभाग द्वारा किया जायेगा। गरीब बच्चों के लिये प्रमंडलीय मुख्यालयों में बाल भवन खोले जायेंगे। प्रत्येक वर्ष माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राओं को मुख्यमंत्री मेघा पुरस्कार दिया जायेगा। राज्य स्तरीय माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक परीक्षाओं में सर्वाधिक अंक पाने वाले छात्र-छात्राओं को मुख्यमंत्री मेधा पुरस्कार के तहत 25 हजार रुपये तथा पहले नौ बच्चों को 15 हजार रुपये दिये जायेंगे। जिलों में सर्वाधिक अंक पाने वाले छात्र-छात्राओं को दस हजार रुपये दिये जायेंगे।
ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के निर्णय पहली बार किए गए हों। इससे पहले भी शिक्षा के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण फैसले लिए जा चुके हैं। कुछ समय पूर्व ही तय किया गया था कि हर सरकारी हाई स्कूल में अब इंटर स्तर तक की पढ़ाई होगी। इसके लिए सारी सुविधाएँ मुहैया की जायेंगी। साथ ही अनुमंडल स्तर पर 39 नए सरकारी कॉलेज खोले जायेंगें। पहल का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। आँकड़ों के आधार पर वास्तविक स्थिति को समझा जा सकता है। बिहार की वर्तमान जनसंख्या 9-10 करोड़ के बीच है। जानकार कहते हैं की इस आबादी का तकऱीबन पंद्रह से बीस फीसदी हिस्सा प्रवासी हो गया है। यानी सात से आठ करोड़ बिहार राज्य के भौगोलिक सीमा रहते है। हाई स्कूल में पढने लायक छात्र-छात्राएं कम से कम पचीस से पचास लाख के करीब लेकिन सरकारी हाई स्कूलों की संख्या मात्र 1662।
वर्तमान का स्याह सच तो यह भी है कि कॉलेज शिक्षा और कॉलेजों की बात की जाय तो लगता है की किसी साजिश के तहत अब तक ज्ञान पर पारंपरिक सामंती एकाधिकार और शैक्षणिक पिछडेपन के पीछे निहित स्वार्थ की व्यवस्था को जारी रखा गया है। 39 अनुमंडलों में कोई कॉलेज नहीं। बताया जाता है कि शिक्षा को बरबाद करने की साजिश और उसको अमली जामा आठवें दशक में पहनाया गया। बेशक, नीतिश सरकार ने इस ओर संख्यात्मक पहल की है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता का ध्यान कौन रखेगा? सवाल सबसे बड़ा यह भी है। नए खोले जाने वाले हाई स्कूलों में क्या पढ़ाई का जिम्मा शिक्षा मित्रों के भरोसे रहेगा? वो शिक्षा मित्र जिन्हें 5000 मासिक दरमाहे पर रखा गया है। और जिन पर पंचायत पर हावी सामंती और माफिया टाइप के लोगों का दबदबा बना रहता है।

सोमवार, 3 जनवरी 2011

कालजयी रचनाओं की दुर्दशा

मैथिली साहित्य काफी समृद्ध रही है। पर आज मैथिली की बहुमूल्य कालजयी रचनायें पटना के मैथिली अकादमी में कबाड़ बन रही हैं। लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों-शिक्षाविदों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर और गौरवशाली इतिहास को करोड़ो लोगों तक पहुंचाकर काफी ख्याति अर्जित की है। वह अब मलिन पड़ने लगा है।
दरअसल साहित्य अकादमी एवं विद्यापति पुरस्कार से सम्मानित-मार्कण्डेय प्रवासी का ‘अगस्त्यायनी’, आरसी प्रसाद का ‘सूर्यमुखी’ (काव्य संग्रह), प्रो. तंत्रनाथ झा का ‘कृष्णचरित’ (महाकाव्य), सुधांशु शेखर चौधारी की ‘ई बतहा संसार’ (गद्य), लिली रे की ‘मरीचिका’, प्रो. उमानाथ झा की ‘अतीत’ (कथा), प्रो. हरिमोहन झा की जीवन यात्रा और डा. सुभद्रा झा की ‘नातिक पत्राक उत्तार’ (गद्य) समेत दर्जनों चर्चित पुस्तके मैथिली अकादमी के ‘बाथरूम’ और ‘स्टोर’ में पड़ी हैं, जिन्हें दीमक चाट रहे हैं। यह अकादमी की संवेदनहीनता को दर्शाता है।
इस अकादमी के कार्यालय में साहित्यकारों की रचनाओं की पड़ताल करने पर कुछ कर्मचारियों ने सिर्फ इतना कहा-’बिक्री की व्यवस्था नहीं होने से लाखों की प्रकाशित प्रसिद्ध रचनाएं गोदाम में पड़ी हैं…’। पर दफ्तर के कई कोनों में झांकने पर माजरा कुछ और ही नजर आया।
ऐसे मौके पर यदि संबंधित रचनाओं के रचयिता मौजूद होते तो उनके दिलों पर क्या गुजरती? इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। राज्य सरकार की उपेक्षा से तबाही के कगार पर जा पहुंची मैथिली अकादमी सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। पैसे-पैसे को मोहताज हो चुके कर्मचारियों के पास काम नहीं है और इन्हें साल में सात-आठ माह का ही वेतन मिल पाता है।
‘बिन माझी की किश्ती’ बन चुकी मैथिली अकादमी की स्थापना 1976 में हुई थी। इसे 29 वर्षों से एक अपना भवन तक नसीब नहीं हुआ। अकादमी किराए के मकान में चल रही है। यहां दो वर्षों से अध्यक्ष व निदेशक का पद रिक्त है। सरकार से सृजित कुल 21 पदों पर सिर्फ 13 कर्मचारी कार्यरत हैं।
अनुवाद और प्रकाशन, लोक मंच व लोक संगीत, अनुसंधान और आयोजन मैथिली अकादमी की चार शाखाएं हैं। कोष की किल्लत की वजह से दो महत्वपूर्ण शाखाएं बंद हैं। मैथिली अकादमी में वर्षों से अनुसंधान नहीं हुआ है। समृद्ध अतीत को संजोने वाली मैथिली अकादमी की प्रकाशन सूची में कुल 177 पुस्तके दर्ज हैं।
महाकवि विद्यापति से लेकर मैथिली के तमाम उम्दा रचनाकारों की कृतियां तथा बंगला और अन्य भाषाओं के अनुवाद भी अकादमी के प्रकाशन सूची में दर्ज हैं। यहां से प्रकाशित करीब एक दर्जन किताबों को साहित्य अकादमी समेत कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ‘अवार्ड’ मिल चुके हैं

--- सादर साभार - भारतीय पक्ष

रविवार, 2 जनवरी 2011

भविष्य की आशा

हवा दो
उन गोलों को
जो धधकना चाहते हैं
मत रोको उन्हें
जो राख करना चाहते हैं
समाज विकृतियों को
राष्टï्र की विदू्रपताओं को
मत सींचों पानी
उन अंगारों पर
जो लहकना चाहते हैं

उड़ेलना चाहते हैं आग
सियासी शतंरजबाजों के मंसूबों पर
जो अपने निर्माताओं को
मोहरा से अधिक
कुछ भी नहीं समझते
पर्दाफाश
मत करो उनका
जो दिल जोडऩे की
साजिश कर रहे हैं
घृणित है
जो बेनकाब हैं
बे-आबरू हैं
अश्लील इतने की
शब्द की पकड़ से बाहर
जो पर्दें में है
कुछ तो सकुमन देते हैं
बढऩे दो
इन नाखूनों को
जो भविष्य की तलवार हैं
सोचो सिर्फ इतना
जाति और धर्म के व्यूह को
कैसे तोड़ पाओगे
राष्टï्र की जड़ता पर
कहाँ करोगे पहला चोट
मत काटो
इन नाखूनों को
इनमें भविष्य की
आाशाएं बँधी हैं।

सरकार और परिवार दोनों को प्याज की रूलाई

महंगाई को लेकर चिंता प्रकट करने में केंद्र सरकार ने कभी कोताही नहीं की। कांग्रेस महाधिवेशन में प्रधानमंत्री ने कहा कि महंगाई मार्च से कम होने लगेगी। अगले ही दिन प्याज ने तगड़ा झटका दिया। खुले बाजारों में दाम 70-75 रुपए किलो तक पहुंच गए। गृहिणियों का बजट गड़बड़ा गया। गरीबों की दाल पहले ही ऊंची कीमतों की भेंट चढ़ चुकी है। अब वे प्याज से रोटी खाने की हालत में भी नहीं रह गए। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने फौरन संबंधित मंत्रालयों को चि_ी लिखी। हुक्म दिया कि प्याज की कीमतें नीचे लाई जाएं। सवाल यह है कि कीमतों के अचानक छलांग लगाने तक सरकार सोती क्यों रही?
एक ओर केंद्र और राज्य सरकार प्याज की आसमान छूती कीमतों से आम लोगों को राहत दिलाने का दावा कर रही हैं तो वहीं उनकी नाक के नीचे ही मदर डेरी, केंद्रीय भंडार और नैफेड के बूथों पर प्याज होलसेल से कहीं अधिक कीमतों पर बेचा जा रहा है। इन बूथों पर जो प्याज बेचा जा रहा है उसकी क्वॉलिटी भी अच्छी नहीं है। इसके बावजूद राज्य सरकार इस ओर कतई ध्यान नहीं दे रही है। शनिवार को आजादपुर होलसेल सब्जी मंडी में प्याज की होलसेल कीमतें 10 से 32 रुपये प्रति किलो रहीं। केवल 25 टन प्याज ऐसा था जोकि 37.50 रुपये प्रति किलो में बिका। आजादपुर मंडी में होलसेल में प्याज बेचने वाले कुछ व्यापारियों का कहना है कि दिल्ली सरकार ने इन तीनों संस्थानों को सस्ती दरों पर प्याज उपलब्ध कराने का काम किया है। सरकार सीधे तौर पर प्याज बूथों पर नहीं बेच रही है। मगर, प्याज के नाम पर असली खेल यह हो रहा है कि मदर डेरी, नैफेड और केंद्रीय भंडार के बूथों पर जो प्याज 40 रुपये प्रति किलो में बेचा जा रहा है वही प्याज मंडियों से 20 से 25 रुपये प्रति किलो में खरीदा जा रहा है, जबकि मंडी से बूथों तक प्याज के पहुंचने में एक से दो रुपये प्रति किलो का ही खर्चा आता है। सूत्रों का कहना है कि जब होलसेल में प्याज की कीमतें इतनी कम हो गई हैं तो फिर बूथों पर महंगी दरों से प्याज क्यों बेचा जा रहा है?
सूत्रों का कहना है कि इससे तो यही लग रहा है कि सरकार प्याज के नाम पर आम आदमियों को चूना लगवाने में इन संस्थानों की मदद कर रही है क्योंकि केंद्र और राज्य सरकार की ओर से बूथों पर बिक रही प्याज की गुणवत्ता और कीमत की कोई निगरानी नहीं की जा रही है। सूत्रों का यह भी कहना है कि बूथों के लिए होलसेल मंडियों से खरीदे जाने वाले प्याज की भी मॉनिटरिंग होनी चाहिए, क्योंकि इसमें भी सस्ता प्याज खरीदकर महंगा बिल बनवाने जैसी गड़बड़ हो सकती है।
ऐसे में होना यह चाहिए था कि यदि होलसेल में प्याज की कीमतें कम हो रही है तो बूथों पर बिकने वाले प्याज की कीमतें भी कम होतीं, जिससे आम आदमी को राहत मिले। मगर हो उलटा रहा है खराब प्याज के उपभोक्ताओं को अधिक रुपये देने पड़ रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि अभी तक सरकार रिटेलरों पर भी अंकुश लगाने में कामयाब नहीं हो पाई है।
इस मामले में दिल्ली सरकार के मंत्री राजकुमार चौहान का कहना है कि होलसेल में प्याज की कीमतें कम हो रही हैं तो बूथों पर बिकने वाले प्याज की कीमतें भी कम होनी चाहिए। हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि क्रिसमस और 31 दिसंबर होने की वजह से प्याज की मांग अधिक हो जाती है। इसलिए भी कीमत बढ़ जाती हैं। मगर होलसेल और बूथों पर बिकने वाले प्याज की कीमतों में अधिक अंतर है तो सोमवार को रिव्यू किया जाएगा
सच तो यह भी है कि सरकार इस बार अच्छी बारिश से खुश थी। कह रही थी कि कीमतें कम होंगी और आर्थिक विकास दर ऊंची। अचानक प्याज की कीमतों में उछाल का दोष कृषि मंत्री शरद पवार ने ज्यादा बारिश के मत्थे मढ़ दिया। कहा कि प्याज उगाने वाले राज्यों में बेमौसम अतिरिक्त बारिश से प्याज की फसल खराब हो गई है, इससे कीमतें बढ़ गईं। विशेषज्ञों ने कहा कि बारिश का फसलों पर असर पड़ा हो सकता है, पर थोड़ा। इतना नहीं कि कीमतें अचानक आसमान छूने लगें। सरकार की ही संस्था नाफेड के प्रमुख ने कहा कि निर्यात में तेजी से प्याज के दाम बढ़े हैं। सरकार के लिए प्याज न हुआ मानो अंधों का हाथी हो गया। हरेक सफाई में अर्धसत्य है। पर सरकार का दोष सभी में समान और पूरा है। प्याज की फसलों को खराब करने वाली बारिश पिछली रात नहीं हुई। अक्टूबर-नवंबर के महीनों में जब बारिश हुई, सरकार इसके प्रभावों का अनुमान क्यों नहीं लगा सकी? खबर है कि निर्यात के लिए 'नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेटÓ के रूप में जो परमिट दिए जाते हैं, वे नवंबर में अक्टूबर की तुलना में 35 फीसदी और पिछले साल नवंबर की तुलना में 60 फीसदी ज्यादा दिए गए। ये आंकड़े अब बाहर आ रहे हैं। सरकार के भीतर समय रहते किसी ने इनकी सुध क्यों नहीं ली?
व्यापारिक लॉबी आयात-निर्यात के जरिये ऊंची कीमतों और मोटे मुनाफे का खेल पहले भी खेलती रही है। समर्थ सरकारें अपने को उनके इस खेल का खिलौना नहीं बनने देतीं। अब सरकार ने प्याज के निर्यात पर रोक लगा दी और आयात पर शुल्क खत्म कर दिए। इस बीच जो वारे-न्यारे होने थे, हो गए। कृषि मंत्री कह रहे हैं कि कीमतें नीचे आने में अभी तीन हफ्ते लगेंगे। मुहावरा प्याज के आंसुओं का है, पर दरअसल ये सरकार की नींद और अकर्मण्यता या शायद साठगांठ के आंसू हैं।
गौर करने योग्य तथ्य यह भी है कि बाजार में प्याज की कमी का फायदा सबसे ज्यादा ट्रेडर्स उठा रहे हैं। दिल्ली में थोक व्यापारियों ने मंगलवार को 34 रुपये प्रति किलो के हिसाब से प्याज खरीदा और उसे खुदरा बाजार में 80 रुपये किलो बेचा। व्यापारियों का मुनाफा प्रति किलो 46 रुपये यानी 135 फीसदी रहा। कुछ दिन पहले दिल्ली में थोक व्यापारियों ने 11,445 क्विंटल प्याज खरीदा। इस तरफ से सिर्फ एक दिन में व्यापारियों ने 4 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया। यह मान लिया जाए कि थोक बाजार से खुदरा बाजार में ले जाने के लिए ट्रांसपोर्ट कॉस्ट लगता है और कुछ नुकसान की भी गुंजाइश रहती है। फिर भी क्या यह मार्जिन 135फीसदी बनता है? ध्यान रहे प्याज जल्दी खराब होने वाली चीज नहीं है। गौरतलब है कि थोक कीमतों से जुड़े आंकड़े नैशनल हॉर्टिकल्चर ऐंड डिवेलपमेंट फाउंडेशन द्वारा रोजाना इक्_ा किया जाता है। इसकी स्थापना नैफेड द्वारा की गई है। यह कहानी सिर्फ दिल्ली की नहीं है। देश भर के 44 बड़े प्याज बाजारों में यही स्थिति रही।