रविवार, 12 जुलाई 2009
'बहादुर नहीं मांगता
समय बदलता है, चीजें बदलती है, मान्यताएं बदलती हैं। तभी तो परिवर्तन को प्रकृति का शाश्वत नियम बताया गया। पहले 'बहादुरÓ इतना भरोसेमंद होता था कि उसके भरोसे पूरा घर छोड़कर पूरा परिवार कहीं भी चला जाता था लेकिन राजधानी दिल्ली में एक के बाद एक हो रही है वारदातों ने इन 'बहादुरोंÓ की बहादुरी पर सवाल लगने लगे हैं। और अब गृहिणियां स्वयं मोर्चा संभालने को तैयार हो गई हैं। नौकरों द्वारा मालिकों की हत्याएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन हाल ही में राजधानी के जनकपुरी इलाके में जब नेपाली नौकर ने नशीला पदार्थ खिलाकर मकान मालिक को लूट लिया तो 'बहादुरÓ के नाम से मशहूर इन नौकरों पर लोगों ने भरोसा करना छोड़ दिया। इसके कई कारण भी हैं। मसलन, बहादुरों की आपूर्ति करने वाले कई प्लेसमेंट एजेंसियों का कहना है कि नेपाली नौकरों की पहचान में काफी दिक्कत होती है, पुलिस वाले मामला नेपाल का होने के कारण जांच से इनकार कर देते हैं। पहले नेपाली नौकरों में इतना विश्वास होता था कि जांच की जरूरत ही नहीं पड़ती। लेकिन हाल के दिनों में कुछेक नौकरों की कारस्तानी ने पहचान की जरूरत खड़ी कर दी है। हालात इस कदर हो गए हैं कि गेहूं के साथ घुन पिसने वाली कहावत याद आती है। नेपाल से यहां काम के लिए आ रहे नेपालियों को अब काम नहीं मिल रहा है। इस बाबत भारत में रह रहे नेपाली समाज के प्रमुख संगठन मूल प्रवाह अखिल भारतीय नेपाली एकता समाज के अध्यक्ष गिरधारी लाल का कहना है, 'यह सही है कि पिछले कुछ सालों में नेपाली नौकरों की छवि धूमिल हुई है और अपराधों में संलिप्त नेपाली नौकरों को बख्शा भी नहीं जाना चाहिए। लेकिन यह भी सही है कि कई बार गरीब और बेसहारा होने के कारण अपराधों में नेपाली नौकरों को फंसाया भी जाता है।Ó वास्तविकता भले ही कुछ और हो, लेकिन दिल्लीवाले कहने लगे हैं, '... बहादुर नहीं चाहिए।Ó सच तो यह भी है कि जब से नेपाल में माओवादी ने सत्तारोहण किया है, तब से भारत में रह रहे नेपालियों के जेहन में भी कुलांचे भरने लगी है। वे सरकार तो हासिल नहीं सकते मगर घरों के 'गृहमंत्रीÓको तो निशाना बना ही सकते।
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1 टिप्पणी:
सत्य कहा आपने विडम्बना है
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