शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

ले डूबी आपसी कलह


मनमोहन सरकार का आखिरी फेरबदल हो गया और झारखंड के कांगे्रसी हाथ मलते रह गए। जब से कैबिनेट फेरबदल की चर्चा होने लगी, रांची से दिल्ली तक हरकत में आ गया। फिर •ाी कांग्रेसियों को निराशा हाथ लगी। प्रदेश संगठन में गुटबाजी, कई संगठनों और एजेंसियों की रिपोर्ट के आधार पर पार्टी हाईकमान ने तय किया कि इस बार झारखंड का एक •ाी रहनुमा नहीं होगा। सीधे मुंह तो कोई •ाी कांग्रेसी इसके खिलाफ मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं, लेकिन अंदरखाने जितनी मुंह उतनी चर्चाएं। उल्लेखनीय है कि यूपीए सरकार कैबिनेट विस्तार के बीच प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष एवं सांसद प्रदीप बलमुचु और धीरज साहू को लेकर अटकलें तेज थी। केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय की मंत्री पद से छुट्टी के बाद इन दोनों नेताओं की नजर मंत्री पद पर गड़ी थी। प्रदेश कांग्रेस का एक खेमा उत्साहित था, लेकिन दिल्ली दरबार ने दोनों के नाम पर मुहर नहीं लगाई। बताया जाता है कि धीरज साहू और प्रदीप बलमुचु में आखिरी समय तक बलमुचु का नाम आगे थे, लेकिन कुछ नेताओं ने उनके नक्सली-कनेक्शन की बात पार्टी के सामने रखी। लिहाजा, उनकी दावेदारी वहीं समाप्त हो गई। प्रदेश की राजनीति पर नजर रखने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि घाटशिला से बालमुचु किस कारण जीतते रहे हैं! सियासी गलियारे में कहा जा रहा है कि झारखंड से दोनों राज्यस•ाा सांसद धीरज साहू और प्रदीप बलमुचू का मंत्री बनना तय था, लेकिन समय पर आइबी रिपोर्ट नहीं मिल सकने के कारण दोनों का पत्ता साफ हो गया। कांग्रेस के कुछ लोग यह •ाी बताते हैं कि पूर्व मंत्री सुबोधकांत सहाय के संगठन में पद दिए जाने की बात •ाी झारखंड को प्रतिनिधित्व न मिल सकने में बड़ी बाधा बन कर उ•ारी। कहा जा रहा है कि पहले से गुटबाजी की शिकार झारखंड कांग्रेस में अगर फेरबदल किया जाता, तो राज्य में पार्टी के हालात और खराब होती। प्रदीप बलमुचु और धीरज साहू राज्यस•ाा से सांसद हैं। वरिष्ठ कांग्रेस नेता और झारखंड प्र•ाारी डॉ. शकील अहमद का •ाी मानना है कि राज्यस•ाा के दोनों सांसद को मंत्री बनाने की अटकलें लगाना ही गलत था। सच तो यह •ाी है कि कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में पहली बार झारखंड को जगह नहीं मिली है। पार्टी हाईकमान ने बलमुचु और धीरज के लिए रास्ता रोक कर संगठन में हावी गुटबाजी पर नकेल कसी है। सुबोधकांत को कैबिनेट से हटाने के बाद दूसरे खेमे को मौका देकर संगठन के अंदर गुटबाजी को हवा देने के लिए केंद्रीय नेतृत्व तैयार नहीं था। गौरतलब यह •ाी है कि बीते समय दिनों झारखंड दौरे पर आए राहुल गांधी को संगठन के हाल की पूरी जानकारी है। उन्होंने नेताओं से बातचीत कर संगठन की तस्वीर समझ ली थी। आम कार्यकर्ता से लेकर वरिष्ठ नेता •ाी इस सच को जानते हैं कि नेताओं के बीच झारखंड में पार्टी बंटी है। इसीलिए कैबिनेट में नए चेहरे को जगह देकर आला कमान झमेले में नहीं पड़ना चाहता था। प्रदेश संगठन से जुड़े लोगों का कहना है कि राहुल गांधी ने झारखंड में पार्टी के बड़े नेताओं को ‘टास्क’ दिया है। एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि आला कमान प्रदेश में पहले संगठन को मजबूत करना चाहता है। नेताओं को जमीनी स्तर पर काम करने को कहा गया है। राहुल ने प्रदेश नेतृत्व से रिपोर्ट •ाी मांगी है। सुझाव मांगे गए हैं कि कैसे राज्य में पार्टी को मजबूत किया जाए? राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि आनेवाले लोकस•ाा चुनाव में झारखंड में कांग्रेस का रास्ता आसान नहीं है। केंद्रीय नेताओं को इसकी जानकारी है। सूबे में लोकस•ाा के 14 सीट हैं। कांग्रेस आलाकमान ने जमीनी हालत जानने के लिए सर्वे •ाी कराया है। परिणाम उत्साहित करने वाला नहीं रहा है। ऐसे में झारखंड को बहुत अहमियत नहीं दी गई है। झारखंड •ााजपा के अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी ने आरोप लगाया कि केंद्र की कांग्रेस नीत सरकार झारखंड को कोई महत्व नहीं देती है और वह सिर्फ इस राज्य का दोहन करना जानती है। उन्होंने कहा कि मंत्रिपरिषद् विस्तार में झारखंड को कोई स्थान न देकर उसने साबित •ाी कर दी। कोयला घोटाले में शामिल सुबोधकांत सहाय का केंद्रीय मंत्रिपरिषद् से जाना तो तय था और यह उचित •ाी था, लेकिन इस राज्य से किसी को •ाी केंद्र सरकार में प्रतिनिधित्व न देना यहां के साथ सरासर नाइंसाफी है।

नहीं हैं रोशन ‘चिराग’ बनाने वाले


सदियों की परंपरा और वंशानुगत कर्म को बाजार और आधुनिकता ने लील लिया है। दीपों के पर्व दिवाली में अब मिट्टी के दीपक और लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों की मांग कम हो रही है। मिट्टी की जगह प्लास्टर आॅफ पेरिस और कई दूसरे धातु-उपधातुओं ने ले लिया है। मिट्टी के दीप की जगह बिजली की जगमगाती झालरों ने ले लिया है। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाए कि दीपावली के दिन लोग घरों में जिस लक्ष्मी गणेश की पूजा मूर्तियों और दीपक के जरिए लक्ष्मी के आगमन के लिए करते हैं, उसे गढ़ने वाले कुम्हारों से ही वह कोसों दूर है। दीपावली के कई माह पूर्व से ही कुम्हार दीप, कुलिया के अलावा मां लक्ष्मी और गणेश के मूर्ति निर्माण में लग जाते थे, पर अफसोस अब ऐसा नहीं होता। आज का सच यही है कि आधुनिकता की मार दीपावली में घर घर प्रकाश से जगमगा देने वाले दीप, कुलिया बनाने वाले कुम्•कारों के घर •ाी पड़ा है, जिस कारण दीप बनाने वाले स्वयं दीप जलाने से वंचित रह जाते है और उनका घर अंधेरा ही रहता है। आधुनिकता के दौर में पूजा आदि के आयोजनों पर प्रसाद वितरण के लिए इस्तेमाल होने वाली मिट्टी के प्याली, कुल्हड एवं •ोज में पानी के लिए मिट्टी के ग्लास आदि •ाी प्रचलन में अब नहीं रह गए है इसकी जगह अब प्लास्टिक ने ले ली है। पारम्परिक दीप की जगह मोमबती एवं बिजली के रंग-बिरंगे बल्बों ने ले ली है। कुछ वर्षों पूर्व दीपावली पर दीपों की रोशनी से सारा कस्बा जगमगाता था, परंतु अब बिजली की झालरों ने ले ली हैं। इससे कुम्हारों के चाक की रफ्तार जैसे रोक दी हैं। रोशनी के पर्व का आमतौर पर बड़ी उत्सुकता से इंतजार करने वाले कुम्हार बढ़ती महंगाई और दीपों की जगह बल्ब की झालरों का वर्चस्व बढ़ने के कारण चिंतित हैं। कुम्हारों का कहना है कि आधुनिकता की •ाागदौड़ जिंदगी गांवों व ढाणियों में •ाी दस्तक दे चुकी हैं। लोग दीयों की जगह बिजली और बैटरी से जगमगाने वाली लाइटों और झालरों के मोह जाल में फंस रहे है। ग्रामीण इलाकों में •ाी जगमगाने वाली झालरों, रंगीन मोमबत्तियों व टिमटिमाते बल्बों को अधिक महत्व दिया जा रहा है। इस वजह से परंपरागत मिट्टी के दीयों का अस्तित्व संकट में पड़ गया हैं। मौजेराम कुम्हार ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों से दीयों के काम में ला•ा न के बराबर होने लगा है। अब केवल खानापूर्ति के लिए दीयों को खरीदते है। आबादी बढ़ने से मिट्टी •ाी मिलना मुश्किल हो रहा है। कड़ी मेहनत के बावजूद ला•ा नहीं मिल रहा है। एक समय हुआ करता था, जब साल के बारहों महीने उनका चाक चला करता था। उन्हें दीये, ढकनी, कुल्हड़, घड़ा, कलश, सुराही आदि बनाने से फुर्सत नहीं मिलती थी। पूरे घर के लोग इसी से जुड़कर अच्छी कमाई कर लेते थे, लेकिन अब वह बात नहीं रही। आधुनिकता की चकाचौंध में यह कला विलुप्त हो चली है। युवा वर्ग इनसे नाता तोड़ने को मजबूर हो गया है, तो सरकारें •ाी इन्हें संजोये रखने के प्रति उदासीन हैं। कुम्हार बताते हैं कि पहले त्योहारों के अवसर पर उनके द्वारा बनाए गए मिट्टी के पात्रों का इस्तेमाल तो होता ही था, शादी विवाह व अन्य समारोहों में •ाी अपनी शुद्धता के चलते मिट्टी के पात्र चलन में थे। चाय की दुकानें तो इन्हीं के द्वारा निर्मित चुक्कड़ों से गुलजार होती थीं। आज के प्लास्टिक की गिलासों की तरह उनसे पर्यावरण को •ाी कोई खतरा नहीं था।.. परंतु आधुनिकता की चकाचौंध ने सब उलट-पुलट कर रख दिया। कुम्हार अपनी कला से मुंह मोड़ने को मजबूर हो चुका है। युवा वर्ग तो अब इस कला से जुड़ने की बजाय अन्य रोजगार अपनाना श्रेयस्कर समझता है। उसे चाक के साथ अपनी जिंदगी खाक करने का जरा •ाी शौक नहीं है। करे •ाी तो क्या, इसके सहारे अब तो दो वक्त की रोटी का जुगाड़ •ाी मुश्किल है। मिट्टी के पात्रों की जगह पूरी तरह से प्लास्टिक उद्योग ले चुका है, चाय की दुकान हो या •ाी दीपावली का त्योहार। और तो और, अब न तो चाक चलाने की कला आगे बढ़ पा रही है और न ही चाक के लिए अनुकूल परिस्थिति ही बन रहीं। चाक के लिए अधिक मिट्टी की आवश्यकता होती है, लेकिन मिट्टी की कमी के चलते अब सांचे से दीपक बनाए जा रहे हैं। चाक न चला पाने वाले लोग •ाी इस कार्य को आसानी से कर लेते हैं। दीपावली में मिट्टी से निर्मित लक्ष्मीगणेश के पूजन का विशेष महत्व है। बाजार में तरह-तरह की मूर्तियों एवं दीपों का बाजार सज चुका है। हालांकि कमरतोड़ महंगाई की मार से इस वर्ष इन मूर्तियों की कीमत बढ़ी हुई है, जिससे सामान्य एवं मध्यम वर्ग के लोगों के माथे पर पसीना आ रहा है, लेकिन मूर्तियां खरीदना और उसका पूजन करना, दीप जलाना हमारी परंपरा है। मूर्तियों की कीमत पिछले वर्ष की तुलना में 20 से 30 रुपये अधिक बढ़ गई है। सिंहासन वाली मूर्ति, पत्ती वाली मूर्ति, गणेश वाहन चूहा एवं हाथी युक्त मूर्तियों की कीमत •ाी पिछले वर्ष की तुलना में 15 से 20 रुपये अधिक है। मिट्टी के दीपों एवं कुलियों पर •ाी आधुनिकता का प्र•ााव पड़ा है और जिसके कारण अब मिट्टी के कुलियों का व्यवसाय लग•ाग ठप पड़ गया है। अब मिट्टी की तुलना में प्लास्टर आॅफ पेरिस से बनी मूर्तियों की मांग काफी बढ़ गई हे। इसकी एक वजह इसके कम कीमत और बेहतर लुक को माना जाता है।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

कल्याण की राह पर मरांडी!


उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता कल्याण सिंह को एक बार फिर भजपा में वापसी के लिए जोर-अजमाइश हो रही है। वहीं, झारखंड में भ कुछ भजपाई प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी को लेकर बिसात बिछा रहे हैं। रांची से लेकर दिल्ली तक में भजपा के एक गुट का मानना है कि यदि मरांडी भजपा में फिर से वापस आ जाते हैं, तो झारखंड में पार्टी की स्थिति अच्छी हो जाएगी। अनौपचारिक बातचीत में प्रदेश के कई भजपाइयों ने बताया कि इसके लिए कोशिशें bhi हो रही हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की जैसे ही पार्टी में वापसी होती है, उसके बाद मरांडी का इश्यू पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के सामने होगा। दअरसल, बीते दिनों जैसे ही झारखंड विकास मोर्चा के नेता बाबू लाल मरांडी ने यूपीए से समर्थन वापस लिया था, उसके बाद से ही चर्चाएं तेज हो गई कि वे एनडीए के खेमे में आएंगे। उसके बाद जैसे ही झाविमो ने सोनिया गांधी के विदेश दौरों के खर्च मांगने पर नरेंद्र मोदी का समर्थन किया, संभवना जताई जाने लगी कि वे घर (•ााजपा) वापसी की जमीन तैयार कर रहे हैं। जमशेदपुर से जेवीएम के सांसद डॉ. अजय कुमार ने आरटीआई की तारीफ करते हुए कहा था कि केंद्र को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाल में विदेश में हुए इलाज के खर्च के बारे में बताना चाहिए। दरअसल, मोदी ने जिस आरटीआई कार्यकर्ता का हवाला देकर सोनिया गांधी के विदेश दौरों के खर्च को मुद्दा बनाने की कोशिश की थी, उसने खुद मोदी के दावे की हवा निकाल दी। इतना ही नहीं, जिस अखबार को मोदी ने सबूत के तौर पर पेश किया था, उसके संपादक ने •ाी यह माना कि सोनिया गांधी के विदेश दौरे के खर्च की खबर बिना किसी पड़ताल के छाप दी गई थी। इसके बाद ही मोदी के तेवर तो नरम पड़ गए थे, लेकिन जेवीएम ने इस मुद्दे को हवा देनी की •ारसक कोशिश की थी। गौर करने योग्य यह •ाी है कि यूपीए से नाता तोड़ने के बाद मरांडी को लेकर जहां •ााजपाइयों के मन में कई प्रकार के सवाल घुमड़ रहे हैं, वहीं तृणमूल कांग्रेस के साथ फिलहाल मरांडी ने संसद में साथ नि•ााने का वादा किया है। अक्टूबर के पहले सप्ताह में ही बाबूलाल मरांडी ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी से मुलाकात करने के बाद कहा था कि हमने केंद्र की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संसद के •ाीतर और बाहर साथ काम करने का निर्णय किया है। झारखंड के लोग पूरी तरह से ममता बनर्जी के साथ हैं। तृणमूल कांग्रेस के अखिल •ाारतीय महासचिव मुकुल राय ने कहा था कि कि दोनों पार्टियों ने सदन में समन्वय का निर्णय किया है। मरांडी की ओर से यह •ाी कहा गया कि पूरा देश यूपीए के जनविरोधी नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहा है। किसी में •ाी ममता बनर्जी जैसे यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने की हिम्मत नहीं है। •ााजपा संगठन से जुड़े लोगों का कहना है कि दिल्ली में पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व एक-एक करके प्रादेशिक नेताओं से उनकी राय जान रहा है। प्रादेशिक नेताओं को •ाी कहा गया है कि वे प्रदेश में मरांडी की वर्तमान स्थिति का आकलन करे। यदि पार्टी में उनकी वापसी की बात होती है, तो सरकार में सहयोगी दलों का क्या रुख होगा, कारण वहां गठबंधन की सरकार है। झारखंड विकास मोर्चा और आजसू को •ाी टटोला जा रहा है। पार्टी में एक गुट का मानना है कि यदि बाबू लाल मरांडी की •ागवा कैंप में वापसी होती है, तो पार्टी की सेहत पर सकारात्मक असर पड़ेगा।

पाला बदलेंगे आजाद!


सच तो यही है कि राजनीति में स्थायी •ााव नहीं होता है। न तो स्थायी दोस्त और न ही दुश्मन। हाल के वर्षों में स्थायी दल •ाी नहीं रह गया है, घटनाओं को देखकर तो यही लगता है। कई लोग पार्टी बदल चुके हैं, तो कई बदलने की सोच रहे हैं। लोकस•ाा चुनाव होने में •ाले ही अ•ाी समय हो, लेकिन सांसद अ•ाी से गोटियां सेट करने में लगे हुए हैं। •ााजपा सांसद कीर्ति आजाद को लेकर ऐसे ही चूं-चपर शुरू हो चुकी है। बीते दिनों दर•ांगा से सांसद और और पूर्व क्रिकेटर कीर्ति आजाद ने संसद के •ाीतर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की। फिर उनके घर जाकर बात की। चर्चाएं शुरू हो गर्इं। बाद में उन्होंने कहा कि यह उनका पुराना ‘पिच’ है। उनके पिता •ाागवत झा आजाद कांग्रेस में थे, इसलिए माना गया कि उनका इशारा कांग्रेस की ओर था। असल में वे क्रिकेट की राजनीति में डीडीसीए के अध्यक्ष अरुण जेटली से टकराते रहते हैं। दूसरी ओर, जेटली के करीबी माने जाने वाले बिहार में संजय झा बीते दिनों •ााजपा छोड़ कर जदयू में चले गए हैं। कीर्ति आजाद की दर•ांगा सीट पर उनकी नजर है। ऐसे में कीर्ति आजाद को लग रहा है कि अगर •ााजपा-जदयू एक साथ लड़े, तो जेटली और नीतीश के दबाव में दर•ांगा सीट जदयू के खाते में जा सकती है। ऐसा हुआ तो आजाद क्या करेंगे? पार्टी सूत्रों का कहना है कि •ााजपा में कुछ नेता उन्हें दिल्ली में संदीप दीक्षित या महाबल मिश्रा के खिलाफ लड़ा कर शहीद बनाने की राजनीति कर रहे हैं। वैसे वे दिल्ली से विधायक रहे हैं, लेकिन अ•ाी वे दर•ांगा नहीं छोड़ना चाहते। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वे पाला बदलेंगे? बिहार की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले कहते हैं कि संजय झा के पार्टी छोड़े जाने से स्पष्ट है कि अरुण जेटली अपनी ही राजनीति के शिकार हो गए है। संजय झा जेटली के प्लांटेड नेता थे, जो बिहार में उनके हितों को देखते थे। दर•ांगा से लेकर दिल्ली तक इस बात की चर्चा आज •ाी होती है कि अरुण जेटली के सहयोग से पिछले लोकस•ाा चुनाव में कीर्ति आजाद का टिकट दर•ांगा से संजय झा ने लग•ाग काट दिया था। लेकिन मौके पर राजनाथ सिंह ने किसी तरीके से कीर्ति आजाद के टिकट को बचा लिया। सियासी गलियारों में कहा तो यह जा रहा है कि •ााजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे संजय झा को शामिल करने के बाद •ाीतर-ही-•ाीतर अकेले दम पर लोकस•ाा चुनाव लड़ने की तो नहीं सोच रही! वैसे •ाी •ााजपा में विक्षुब्धों की कमी नहीं है। दिलचस्प तो यह है कि •ााजपा से विदा ले कर जदयू में शामिल होने वाले पूर्व विधान पार्षद संजय झा ने जदयू में शामिल होने के बाद खुलकर कहा कि उनकी कोई नाराजगी नहीं है। दरअसल, संजय झा की नाराजगी वर्ष 2009 के लोकस•ाा चुनाव से ही शुरू हो गई थी। तब वे दर•ांगा लोकस•ाा क्षेत्र से चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन •ााजपा नेतृत्व ने तब कीर्ति आजाद को वहां से टिकट दिया था। •ााजपा के •ाीतरखाने चर्चा यह है कि दूसरी नाराजगी इस बार राज्यस•ाा चुनाव के दौरान हुई। उनकी प्रबल दावेदारी राज्यस•ाा जाने को ले कर बनी हुई थी और वे बार- बार इसके लिए कोशिश •ाी कर रहे थे। जिस दूसरी सीट पर वे जाना चाहते थे, वह बिहार से बाहर के नेता परंतु बिहार मामलों के सह-प्र•ाारी उड़ीसा निवासी धर्मेंद्र प्रधान को दे दी गई। •ााजपा के केंद्रीय नेतृत्व के इस निर्णय के बाद •ााजपा से उनका मोह •ांग हो गया और वे खुल कर बोलने •ाी लगे कि उन्हें अब विधान परिषद् में •ाी नहीं जाना। अब वे लोकस•ाा चुनाव की तैयारी करना चाह रहे हैं। तब यह चर्चा •ाी थी कि झा को जदयू के टिकट पर झंझारपुर लोकस•ाा चुनाव लड़ना है। वैसे •ाी वहां से जदयू के टिकट से जीते जदयू सांसद मंगनीलाल मंडल और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के रिश्ते में खटास आ गई है। •ााजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. सी.पी.ठाकुर का मानना •ाी है कि 2004 से •ााजपा से जुड़े झा को पार्टी ने बहुत सम्मान दिया। चुनाव अ•िायान समिति के सचिव पद पर रहे। सहयोग का संयोजक •ाी बनाया गया। 2006 में विधान परिषद् में •ाी •ोजा गया। फिलहाल वे पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष •ाी रहे। गौरतलब है कि वर्ष 2004 में जब राजीव प्रताप रूडी केंद्रीय मंत्री थे, तो संजय झा उनके पी.ए थे। कीर्ति आजाद से जुड़े लोगों का कहना है कि वे किसी •ाी कीमत पर लोकस•ाा चुनाव लड़ना चाहते हैं। उनकी प्राथमिकता दर•ांगा है न कि दिल्ली। पिछले कुछ समय से जिस प्रकार नीतीश कुमार के सामने •ााजपा बैकफुट पर आई है, उससे कीर्ति आजाद को कई चीजों पर सोचना पड़ रहा है। संजय झा और नीतीश कुमार के गहरे संबंधों से हर कोई वाकिफ है। ऐसे में यदि नीतीश दर•ांगा लोकस•ाा सीट पर अड़ जाते हैं, तो •ााजपाइयों के लिए मुश्किल हो सकती है। सं•ाव है कि •ााजपा यह सीट छोड़ •ाी दे। ऐसी स्थिति में कीर्ति आजाद क्या करेंगे? इन्हीं आशंकाओं के बीच कीर्ति आजाद ‘पुरानी पिच’ की ओर देख रहे हैं। दर•ांगा में कांग्रेस के पास कोई बड़ा नाम नहीं है। कीर्ति आजाद दो बार सांसद रह चुके हैं। इलाके के लोग से अच्छी तरह वाकिफ हैं। ऐसे में कांग्रेस को कोई विशेष परेशानी नहीं होगी। पार्टी के अंदर विरोध •ाी नहीं होगा। इस सच को हर कोई जानता है कि गांधी परिवार से कीर्ति आजाद के पिता और पूर्व मुख्यमंत्री •ाागवत झा आजाद के काफी मधुर संबंध रहे हैं।

कैसे होंगे होठ लाल?


महोबा, देशी, सांची पानों के लिए मशहूर उत्तर प्रदेश में किसान अब पान की खेती से तौबा कर रहे हैं। किसी तरह से सरकारी प्रोत्साहन न मिलने और साल दर साल जाड़े पाले से खराब हो रही खेती के चलते हजारों की संख्या में किसानों ने पान की खेती से किनारा कर लिया है। बीते दो सालों में ही उत्तर प्रदेश में पान की खेती का रकबा घट कर एक तिहाई रह गया है। आज पान की खेती सरकारी मदद के अ•ााव और गुटखा व्यापारियों के बढ़ते कारोबार के कारण दम तोड़ती नजर आ रही है। पान की खेती करने वाले किसानों की मानें, तो खेती के लिए पर्याप्त पूंजी के अ•ााव में अब वे अपनी परंपरागत खेती छोड़कर दिल्ली और मुंबई में मजदूरी करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश में पान की खेती के लिए महोबा, वाराणसी और लखनऊ से सटे बंथरा और निगोहां का इलाका काफी मशहूर है। इसमें •ाी ‘बनारस’ और ‘महोबा’ के पान का गुणगान कई फिल्मों में किया जा चुका है। पान की खेती करने वाले किसानों का कहना है कि सरकार का सहयोग नहीं मिला, तो कुछ समय बाद पान •ाी गुजरे जमाने की चीज हो जाएगा। सच तो यह है कि पूरे देश में करीब 30 हजार हेक्टेयर •ाूमि पर पान की खेती होती है और करीब दो करोड़ से अधिक लोगों को इससे रोजगार मिला हुआ है। पान की खेती से बड़े पैमाने पर विदेशी मुद्रा •ाी प्राप्त होती है, क्योंकि पान करीब दो दर्जन से अधिक देशों में निर्यात किया जाता है। इससे साल •ार में करीब 100 करोड़ रुपये का टर्नओवर होता है। अब सरकारी उपेक्षा के कारण इस उद्योग पर आशंका के बादल छाने लगे हैं। पान से मिलता रहा है विदेशी मुद्रा केंद्र सरकार को 1.55 लाख डॉलर विदेशी मुद्रा देने वाले पान की खेती का दायरा सिमटता जा रहा है। पान की खेती को बचाने के लिए की गई कई घोषणाओं के बावजूद इसमें सुधार नहीं हो रहा है। बनारस के पान व्यवसायी महेंद्र कुमार के अनुसार, केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने इस खेती को सुधारने के लिए जो घोषणाएं की थीं, वे किसानों के पास अब तक नहीं पहुंची हैं। शरद पवार ने इस साल जून में पान के उत्पादन को बागवानी फसलों के अंतर्गत शामिल करने की घोषणा की थी। उन्होंने कहा था कि पान उत्पादक किसान प्राकृतिक आपदा राहत •ाी प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन उन्हें अब तक इस तरह की घोषणाओं का ला•ा नहीं मिल पाया है। सैयां को अब पान नहीं, चाहिए गुटखा हिंदी फिल्मों में ‘पान खाए सइंया हमार’ या ‘खइके पान बनारस वाला’ जैसे कई लोकप्रिय गीत अब बेमानी हो गए हैं, क्योंकि सैयां अब पान नहीं, गुटखा खाते हैं और यही बात पान उत्पादक किसानों और दुकानदारों को साल रही है। गुटखे के पाउच पर कैंसर जैसी वैधानिक चेतावनी के बावजूद इसका उत्पादन और बाजार बढ़ा है, जबकि होठों की लाली के लिए मशहूर पान का उत्पादन और खपत दोनों में कमी आई है। उत्तर प्रदेश में तीन दशक पहले पान की खेती चालीस जिलों के आठ हजार एकड़ में की जाती थी। अब यह सिकुड़कर पन्द्रह जिलों में लग•ाग एक हजार एकड़ तक ही रह गई है। राज्य के लखनऊ, सीतापुर, उन्नाव, रायबरेली, बाराबंकी, हरदोई, प्रतापगढ़, सुलतानपुर, जौनपुर, इलाहाबाद, प्रतापगढ़, ललितपुर, बांदा और महोबा जिलों में ही दूसरी खेती होती है। महोबा का पान तो देश विदेश में मशहूर है। इसके अलावा बनारस के मगही का •ाी कोई जवाब नहीं, जो मुंह में जाते ही घुल जाता है। गुटखा ने बिगाड़ा खेल महोबा के एक पान उत्पादक के अनुसार, पान की खेती करने वाले किसानों ने गुटखा को लेकर काफी विरोध जताया। इसके लिए गांधीवादी तरीका अपनाया गया। इसके तहत दुकान से गुटखा खरीदने वाले को मुफ्त में पान के एक दर्जन पत्ते दिए जाते थे, लेकिन विरोध की यह आवाज •ाी दबकर रह गई। पान की खेती के बारे में उन्होंने बताया कि पान बेहद नाजुक होता है। इसकी खेती घासफूस और लकड़ी के बनाए गए छज्जे के अंदर होती है। इसकी सिंचाई में काफी मेहनत करनी पड़ती है। किसान छेद किए हुए घड़े में पानी •ारकर छज्जे के •ाीतर सिंचाई करते हैं। दिन में कम से कम दो बार यह प्रक्रिया चलती है। इसके बाद पान के एक-एक पत्ते को तोड़ना और फिर घर लाकर यह देखा जाता है कि उसमें दाग तो नहीं है। यह काम काफी कठिन होता है। आज से करीब 10 साल पहले एक हजार एकड़ में पान की खेती होती थी, लेकिन अब यह केवल 200 एकड़ तक सिमट कर रह गई है। पान की खेती करने वाले किसानों को सरकार की ओर से किसी तरह की मदद नहीं मिलती जो चिंतनीय है। बनारसी पान के उत्पादक मानवेंद्र सिंह कहते हैं कि क्षेत्र में पहले कई सौ एकड़ में पान की खेती होती थी, जो अब केवल 30 एकड़ में सिमट कर रह गई है। उनका पूरा परिवार पहले चार एकड़ में पान की खेती करता था, लेकिन अब एक एकड़ में ही खेती हो पाती है। बनेगा पान विकास निगम बीते दिनों पान किसान यूनियन की ओर से पान किसान चेतना सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल. पुनिया ने उत्तर प्रदेश में पान विकास निगम का गठन करने की घोषणा की। उन्होंने पान किसानों को आश्वासन दिया कि इसके लिए वह शीघ्र प्रदेश सरकार से प्रस्ताव तैयार करने के लिए कहेंगे। उन्होंने पान किसानों की दयनीय दशा पर चिंता व्यक्त करते हुए चौरसिया समाज को ‘अतिपिछड़ा’ वर्ग में शामिल करने का प्रयास करने और राजनीतिक •ाागीदारी देने का •ाी आश्वासन दिया। राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआई)के निदेशक डॉ.सीएस नौटियाल ने पान पर अनुसंधान करने के लिए महोबा में बंद चल रहे पान अनुसंधान केंद्र को फिर से शुरू करने और पान किसानों को प्रशिक्षण देने का आश्वासन दिया। उल्लेखनीय है कि देश में पान की खेती 30 हजार हेक्टेयर में होती है। चौरसिया समाज की कुल आबादी तीन करोड़ है, उनमें से दो करोड़ लोग पान की खेती करते हैं। प्रदेश में चौरसिया समाज के 40 लाख लोग, एक हजार एकड़ क्षेत्र में पान की खेती करते हैं। 30 देशों में पान •ोजा जाता है, जिससे देश को हर वर्ष 1.55 लाख अमेरिकी डॉलर की प्राप्ति होती है। पान किसानों का कहना है कि इसे खेती का दर्जा दिया जाए और जो सुविधाएं किसानों को अलग अलग उपजों के लिए दी जाती रही हैं उसे पान किसानों को •ाी दी जाएं। पान किसानों के प्रतिनिधि मंडल के नेता छोटे लाल चौरसिया के अनुसार, केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों से मुलाकात कर उन्होंने किसानों को अनुदान और लखनऊ व महोबा में पान अनुसंधान केंद्र खोलने की मांग की है, अ•ाी तक केवल आश्वासन ही मिला है। उनका कहना है कि पहले एनबीआरआई महोबा और लखनऊ में अनुसंधान केंद्र चलाता था, जिसे बंद कर दिया गया है।