शुक्रवार, 26 जून 2015

हे, देवी बन जाओ महादेवी !

मैं सोचता हूं कि क्या उसे महादेवी हो जाना चाहिए ? कई बार उसकी डबडबाती आंखों ने ये सवाल किया है मुझसे ? आखिर वो कहना चाहती है कुछ। साझा करना चाहती है अपनी पीड़ा। फिर बार-बार चाहकर भी क्यों रह जाती है चुप्प। घंटों साथ बैठना। बतियाना। दुनियादारी की बातें। समाज की बातें। दूसरों की बातें। लेकिन अपना आते ही खामोशी... कब हो तोड़ेगी खामोशी ? मैं तो उससे यही करूंगा निवेदन - हे देवी, बन जाओ महादेवी।
तुमको देखकर, तुमसे मिलकर आज मुझे याद आ रही है महादेवी वर्मा की कविता - ‘अश्रु यह पानी नहीं है’। हो सकता है तुमने भी पढ़ा हो। एक बार गौर से पढ़ो। गुनो, रमो और सहेजो। 

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,
यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,
स्वाति को खोजा नहीं है औश् न सीपी को पुकारा,
मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा !
शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,
प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को
देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को,
कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले,
अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले ।
यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को
मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले,
मौन जलता दीप , धरती ने कभी क्या दान तोले?
खो रहे उच्छ्वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं,
साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं,
पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा
प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,
तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ
समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,
वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है ।
क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है ?
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,
खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,
साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,
वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं !
आज मंदिर के मुखर घडि़यालघंटों में न बोलो
अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
हे देवी तुम्हें पता है, वर्तमान में तुम्हारे जैसे निष्कपट लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। न परिवार में, न समाज में। हर ओर छल-छद्म का राज दिख रहा है। यूं तो हर सिद्धांत का अपवाद होता है, लेकिन कितने लोग उसे याद रखते हैं ? विशेष अवसरों पर ही अपवाद पर वाद-विवाद होता है। जिसके साथ वर्षों बिताएं, आज वो अपना एक पल देने को तैयार नहीं। जिनके साथ दिन साझा किया, वो चंद बोल नहीं दे सकते। जिनके साथ दुख सुख की बातें की, वो आगे नहीं आते। जिनके साथ लड़कपन थी, वो अब गलियों में नजर नहीं आते। आखिर क्यों ? क्योंकि तुम औरों जैसी नहीं हो।
तुम्हें पता है, गांव के निरक्षर, निसहाय निर्धन, विपन्न लोग हैं, जो अपने अस्तित्व के कठिन संघर्ष को झेलते हुए ही अपनी जिंदगी काट रहे हैं। लेकिनऐसे अति सामान्य लोगों के व्यक्तित्व का भी कोई सकारात्मक, कोई उज्जवल पक्ष होता जरूर है। जीवन की भयंकर यातनाएँ सहकर भी हमेशा प्रसन्न रहने वाली लछमा का अद्भुत जीवन-दर्शन, जो तीन-चार दिन तक भूखे रहने पर मिट्टी के गोले बनाकर खा लेती है और उन्हें ही लड्डू समझकर तृप्त भी हो लेती है और हँसकर कहती है, ‘‘यह सब तो सोच की बात है, जो सोच लो, वही सच।’’ अपने इसी सोच से चकित कर देती हैं वह महादेवी वर्मा को। मार्मिक कथा में लिपटी चीनी फेरीवाले की देशभक्ति को सेविका मलिन की प्रगल्भयुक्त स्वामीभक्ति। बस, ऐसे ही हँसते-रोते अनेक पात्र हैं। इन संस्मरणों के जो जीवन में चाहे जितने आम हों महादेवी जी की कलम के कौशल ने साहित्य में तो इन्हें विशेष बना ही दिया। इन संस्मरणों के संदर्भ में जहाँ तक महादेवी जी के सामाजिक सरोकार का प्रश्न है तो इतना तो स्पष्ट है कि इनमें इन्होंने कहीं भी समाज की विकृतियों पर प्रहार करना तो दूर, एक-दो अपवादों को छोड़कर उनका उल्लेख तक नहीं किया। पर समाज का जो वर्ग उनकी रचनाओं के केंद्र में रहा है, समाज के जिन बेबस, असहाय लोगों पर उन्होंने अपनी सहानुभूति उड़ेली है, क्या वही उनके गहरे सामाजिक सरोकार का प्रमाण नहीं?
मैं समझता रहा कि ईष्वर की सर्वोत्तम कृति है नारी। वेद ने भी उसकी महिमा का बखान किया है। लेकिन तुमसे मिलने के बाद जैसे-जैसे तुम्हारा निष्कपट भाव सामने आता गया, तुम्हारे ही क्षेत्र और पूर्व संपर्क के लोगों में मैंने ईष्र्या देखी। खूब। बहुत अधिक। ऐसा क्यों ? मैंने तो सुना था कि महिलाओं में रचनात्मकता का गुण जन्मजात होता है। घर-परिवार की बालिकाएं देख-सुनकर ही माता से कई गृह उपयोगी बातें सीख जाती हैं।नारी परिवार और समाज का आधार है। इसलिए इसका सम्मान आवश्यक है। संसार के सृजन से लेकर पालन पोषण तथा सजाने, संवारने तक की सारी अवस्थाओं में नारी सहनशीलता का परिचय देकर ही अपनी भूमिका को निभा सकती है इसलिए सहनशीलता नारी का दिव्य गुण है।
तुम्हार अतीत समझकर और वर्तमान देखकर तो यही कहूंगा -  हे देवी, बन जाओ महादेवी।




शुक्रवार, 19 जून 2015

क्यों असहज करते हैं आडवाणी ?

लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल की आशंका खत्म न होने की बात कहकर नई बहस छेड़ दी है। अब विपक्ष इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ हथियार बनाकर इस्तेमाल कर रहा है। यह पहला मौका नहीं है, जब आडवाणी ने अपने बयान से पार्टी को असहज स्थिति में डाला हो, इससे पहले भी कई मौकों पर आडवाणी ने पार्टी को मुश्किल में डाला। खास तौर पर मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद। 



भारतीय जनता पार्टी के लौह पुरूष कहे जाने वाले वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी बार-बार अपनी ही पार्टी को असहज कर रहे हैं। ऐसा एक बार नहीं, बीते एक साल में प्रमुख रूप से वे कई बार पार्टी को बैकफुट पर ला चुके हैं। पार्टी के रणनीतिकारों के लिए न तो इसे स्वीकरते हुए बनता है और न ही वे इसे सार्वजनिक रूप से खारिज कर सकते हैं। 
एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था अब भी आपातकाल के हालात से निपटने के लिए तैयार नहीं है। भविष्य में भी नागरिक अधिकारों के निलंबन की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है। वर्तमान समय में ताकतें संवैधानिक और कानूनी कवच होने के बावजूद लोकतंत्र को कुचल सकती हैं। आडवाणी ने कहा कि 1975-77 में आपातकाल के बाद के वर्षों में मैं नहीं सोचता कि ऐसा कुछ भी किया गया है, जिससे मैं आश्वस्त रहूं कि नागरिक अधिकार फिर से निलंबित या नष्ट नहीं किए जाएंगे। यह पूछे जाने पर कि ऐसा क्या नहीं दिख रहा है, जिससे हम समझें कि भारत में फिर आपातकाल थोपने की स्थिति आ सकती है? उन्होंने कहा कि अपनी राज्य व्यवस्था में मैं ऐसा कोई संकेत नहीं देख रहा, जिससे आश्वस्त रहूं। नेतृत्व से भी वैसा कोई उत्कृष्ट संकेत नहीं मिल रहा। इंदिरा गांधी और उनकी सरकार ने इसे बढ़ावा दिया था। उन्होंने कहा कि ऐसा संवैधानिक कवच होने के बावजूद देश में हुआ था।  2015 के भारत में पर्याप्त सुरक्षा कवच नहीं हैं।
आम आदमी पार्टी नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट कर कहा कि आडवाणी जी की आशंका सही है। भविष्य में इमरजेंसी की आशंका नकार नहीं सकते। क्या दिल्ली इसका पहला प्रयोग है? वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि भाजपा की हालत खराब है, अब ये चला नहीं पा रहे हैं। जनता सब देख रही है कि कैसे अपने चहेतों की मदद कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के सांसद नरेश अग्रवाल कहते हैं कि अगर आडवाणी जी ने चिंता व्यक्त की है, तो चिंता की बात है। भाजपा को भी चिंता करनी चाहिए कि पार्टी में क्या हो रहा है?
हालांकि, लालकृष्ण आडवाणी के आपातकाल की आशंका को संघ ने नकारा है। संघ ने कहा है कि इस समय भारत में आपातकाल जैसी स्थिति नहीं है। राष्ट्रीय स्वंय संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ मनमोहन वैद्य ने ट्वीट कर देश में इमरजेंसी जैसी हालात को नकारते हुए लिखा है कि वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए आपातकाल लागू करने जैसी स्थिति भारत में है, ऐसा नही लगता है। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 25-26 जून 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल लगाया गया था। यह आपातकाल 19 महीनों तक जारी रहा था।
असल में, आडवानी जी हर साल 25 जून के आसपास आपातकाल के बारे में कुछ लिखते हैं। आपातकाल उनका भोगा हुआ यथार्थ है, इसलिए उनकी बातें आमतौर पर विश्वसनीय होती हैं। उनके राजनीतिक जीवन में आपातकाल ऐसा मंच है जिसके बाद उनको राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली, आपातकाल के दौरान वे अपनी पार्टी, भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने और उसके खिलाफ जब जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में संघर्ष हुआ तो उसमें एक घटक के नेता के रूप में शामिल हुए। 1977 में जनता पार्टी बनी और वे सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने। इस तरह से आपातकाल के पहले लालकृष्ण आडवानी अपनी पार्टी के अध्यक्ष तो बन चुके थे, लेकिन तब तक पार्टी की पहचान शहरी वर्ग की पार्टी के रूप में ही होती थी। लालकृष्ण आडवानी की अपनी पहचान भी उन दिनों दिल्ली के नेता की ही थी। ऐसा इसलिए था कि राजस्थान में पार्टी का काम करते हुए जब उनका तबादला दिल्ली हुआ तो उनका परिचय सुन्दर सिंह भंडारी के निजी सचिव, केआर मलकानी के सहायक, दिल्ली नगर की मेट्रोपोलिटन काउन्सिल के सदस्य, भारतीय जनसंघ की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष और दिल्ली के कोटे से 1970 में चुने गए राज्यसभा के सदस्य के रूप में ही दिया जाता था। 1973 में वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और उसके बाद उनका राजनीतिक जन्म राष्ट्रीय मंच पर हुआ। उन दिनों जनसंघ पार्टी में भारी बिखराव था। पार्टी के संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष रह चुके बलराज मधोक और पार्टी के अन्य बड़े नेताओं के बीच भारी मतभेद था। बलराज मधोक को लालकृष्ण आडवानी ने ही पार्टी से निकाला था। मधोक के जाने के बाद जनसंघ के तीन बड़े नेता नानाजी देशमुख, अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी माने जाते थे। इमरजेंसी में बहुत सारे नेताओं ने माफी आदि मांगी, लम्बे-लम्बे समय के लिए पैरोल की याचना करते रहे, लेकिन आडवानी जेल में ही रहे और कुछ लिखते-पढ़ते रहे। आपातकाल के बाद जेल से बाहर आने के बाद वे सूचना प्रसारण मंत्री बने और अपनी पार्टी की राजनीति में हमेशा ही महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में बने रहे, आज भी पार्टी के शीर्ष संगठन, मार्गदर्शक मंडल के सदस्य हैं।
जाहिर सी बात है कि लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल को लेकर जिस प्रकार की टिप्पणी की है, उसका विपक्षी दल माइलेज लेना चाहते हैं। विपक्ष इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ हथियार बनाकर इस्तेमाल कर रहा है। हालांकि, यह पहला मौका नहीं है, जब आडवाणी ने अपने बयान से पार्टी को असहज स्थिति में डाला हो, इससे पहले भी कई मौकों पर आडवाणी ने पार्टी को मुश्किल में डाला। खास तौर पर मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद। 
इससे पूर्व लालकृष्ण आडवाणी ने मध्य प्रदेश के ग्वालियर में सभी भाजपा मुख्यमंत्रियों की तुलना करते हुए शिवराज सिंह चैहान को नरेंद्र मोदी से बेहतर बता दिया। आडवाणी ने कहा था कि गुजरात तो पहले ही स्वस्थ था, उसको आपने (नरेंद्र मोदी ने) उत्कृष्ट बना दिया है। उसके लिए आपका अभिनंदन। लेकिन छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश तो बीमारू प्रदेश थे, उनको स्वस्थ बनाना...ये उपलब्धि है। आडवाणी के इस बयान को उस वक्त के पीएम पद के उम्मीदवार मोदी को डिसमिस करने के बराबर माना गया।
लालकृष्ण आडवाणी ने चुनाव प्रचार समिति की कमान पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को सौंपने की वकालत की थी। हालांकि नितिन गडकरी ने यह पद संभालने से इंकार कर दिया था। गडकरी ने कहा था कि पार्टी ने पहले ही इसके लिए मोदी का नाम तय कर दिया है। राजनीतिक हलकों में इस पूरे मामले को लालकृष्ण आडवाणी और मोदी के बीच बढ़ती दूरियों के तौर पर देखा गया। इस मामले पर भी भारतीय जनता पार्टी को सफाई देनी पड़ी थी।
याद कीजिए, अगस्त 2013 का समय। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान 15 अगस्त 2013 को नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर जमकर हमला बोला था। तब मोदी के बयान की परोक्ष तौर पर आडवाणी ने आलोचना की थी। आडवाणी ने कहा था कि स्वतंत्रता दिवस जैसे मौके पर नेताओं को एक-दूसरे की आलोचना नहीं करनी चाहिए। इसके बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बगैर किसी का नाम लिए कहा था कि मैं प्रधानमंत्री और उनके पूरे मंत्रिमंडल को इस अवसर पर शुभकामनाएं देता हूं। मैं चाहता हूं कि ये भावना विकसित हो। एक-दूसरे की आलोचना किए बगैर लोगों को इस दिन यह याद रखना चाहिए कि भारत में असीम संभावनाएं हैं। 15 अगस्त के मौके पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के लालकिले से दिए भाषण की तीखी आलोचना की थी। इसे लेकर भाजपा असहज स्थिति में आ गई और सफाई का दौर चल पड़ा।
डसके बाद मई 2014 का वक्त। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जबरदस्त जीत हासिल करते हुए अपने दम पर बहुमत हासिल किया। हर किसी ने इसका श्रेय मोदी को दिया। लेकिन आडवाणी ने कहा कि जीत का श्रेय सिर्फ नरेंद्र मोदी को ही नहीं, कांग्रेस को भी जाता है। जिसके शासन में जनता के बीच असंतोष फैला और जनता ने उसे सबक सिखाया। आडवाणी का ये बयान मोदी से श्रेय छीनने की कोशिश माना गया। 27 फरवरी 2014 को हुई पार्टी की बैठक में आडवाणी ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की बात से सहमति जताई। आडवाणी ने मोदी के चुनाव अभियान की आलोचना करते हुए कहा कि इससे भाजपा ‘वन मैन पार्टी’ बन गई है। आडवाणी ने भाजपा नेताओं को अपनी शिकायत दर्ज कराते हुए कहा कि वह कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के भाजपा को एक आदमी द्वारा संचालित पार्टी कहने के बयान से सहमत हैं। बैठक में नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी और राजनाथ सिंह मौजूद थे। राहुल गांधी ने हरियाणा में 24 फरवरी,2014 को मोदी पर निशाना साधते हुए बयान दिया था कि भाजपा वन मैन पार्टी बन गई है।
अब सवाल उठता है कि आखिर लालकृष्ण आडवाणी ऐसा क्यों करते हैं ? सार्वजनिक रूप से भाजपा का कोई भी नेता-रणनीतिकार या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कोई भी पदाधिकारी इसका जवाब नहीं देता है। हां, आपसी बातचीत में पार्टी के कई नेता इतना कह देते हैं कि लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा के लिए अपनी पूरी जीवन लगा दी। फिर भी वह प्रधानमंत्री पद तक नहीं पहुंच सके। उनकी प्रबल राजनीतिक इच्छा यही थी कि वे भारत के प्रधानमंत्री बने। गाहे-बगाहे दिल की कसक जुबां तक आ ही जाती है।



शनिवार, 13 जून 2015

... तो सफल रही मोदी की कूटनीति

नरेंद्र मोदी दुनिया को यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि मुद्दा चाहे कितना भी पेंचिदा हो, यदि नेक इरादे से समाधान ढूंढा जाए, तो रास्ता निकल सकता है और आपसी बातचीत एवं सहमति से जटिल से जटिल मुद्दों पर आगे बढ़ा जा सकता है।


जब हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति के निर्धारण की बात करते हैं तो हमें पंडित जवाहर लाल नेहरू की संसद में कही इस बात पर गौर कर लेना चाहिए। उनका कहना था- श्अंततरू विदेश नीति आर्थिक नीति का परिणाम होती है। हमने अब तक कोई रचनात्मक आर्थिक योजना अथवा आर्थिक नीति नहीं बनाई है....जब हम ऐसा कर लेंगे....तब ही हम इस सदन में होने वाले सभी भाषणों से ज्यादा अपनी विदेश नीति को निर्धारित कर पाएंगे।श् इससे एक महत्वपूर्ण बिंदु का संकेत मिलता है कि भारत की विदेश नीति, हमारे देश की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है। इसकी विशेषता एक निरंतरता है और इसमें किसी भी समय पर आमूलचूल परिवर्तन (रैडिकल चेंजेस) देखने को नहीं मिलते हैं। अमूमन लोग अपने से छोटों से प्रगाढ़ संबंध बनाना जरूरी नहीं समझते हैं। पड़ोसी हो, तब भी नहीं। हर कोई अपने समकक्ष या अपने से बड़े और ताकतवर से दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहता है। लेकिन भारतीय सत्ता की राजनीति में जब से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का पर्दापण हुआ है, आमतौर पर सोची-समझी जाने वाली बातों को बड़े फलक पर देखा गया है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह से लेकर बीते एक साल में नरेंद्र मोदी ने अपने पड़ोस के तमाम छोटे देशों का दौरा किया। संबंधों में नई ऊष्मा लाने के लिए खुद आगे आए। भूटान हो, तिब्बत हो, म्यांमार हो या बांग्लादेश। हमारा हर पड़ोसी देश हमारे लिए किसी भी सुदूर बड़े देश से अधिक महत्वपूर्ण है। गौर करें, भूटान से शुरू करते हुए नरेंद्र मोदी अब तक पाकिस्तान छोड़कर अपने सभी निकट पड़ोसी देशों में जा चुके हैं और सभी जगहों पर रिश्तों की नई संभावना उन्होंने जगाई है। हालांकि उन्हें कहीं कोई निश्चित सफलता मिली नहीं है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनय के अपने पहले वर्ष में उनका रिपोर्ट कार्ड बुरा भी नहीं है।
छले दो दशक के दौरान भारत की बढ़ती आर्थिक और सैन्य ताकत के चलते देश की सरकारों ने विदेश नीति को नया आकार देने के लिए ठोस कदम उठाए हैं। पर इसके साथ यह भी देखा गया है कि पूर्ववर्ती यूपीए शासन के दौरान विदेश नीति को अप्रभावी रूप में भी पाया गया है और बाहरी सुरक्षा चुनौतियों का माकूल जवाब नहीं दिया गया है। वर्ष 2014 के आम चुनावों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और इसके नेता नरेन्द्र मोदी ने देश की सत्ता संभाली। भारत की समूची विदेश नीति में जहां कुछ बदलावों की उम्मीद की जा सकती है तो भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कहा था कि देश की सरकार सदियों पुरानी अपनी श्वसुधैव कुटुम्बकमश् की परम्परा के जरिए कुछ बदलावों को लाने की कोशिश करेगी।
भाजपा के घोषणा पत्र में कहा गया था कि भारत को अपने सहयोगियों का एक संजाल (नेटवर्क) विकसित करना चाहिए। आतंकवाद को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति होगी और क्षेत्र में नए भू-सामरिक खतरों का सामना करने के लिए श्नो फर्स्ट यूजश् (पहले हमला न करने की) परमाणु नीति की समीक्षा होगी। मोदी को जितना बहुमत मिला है, लोगों की उनसे उतनी ही ज्यादा उम्मीदें हैं। भाजपा का पिछला रिकॉर्ड और मोदी के आर्थिक मोर्चे पर काम करने वाले नेता और एक कट्टरपंथी राष्ट्रवादी छवि के चलते देश के लोग अधिक सक्रिय विदेश नीति की लोग उम्मीद करते हैं। पर मोदी के नेतृत्व में भारत को पता है कि केवल स्थायी और ऊंची आर्थिक वृद्धि दर के बल पर भारत, चीन के साथ एशिया के पॉवर गैप को भर सकता है। इस अर्थ यह भी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था से भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और घटिया बुनियादी सुविधाओं को समाप्त करना ही होगा। इस बात की संभावना है कि भारत, रूस के साथ मजबूत संबंध बनाए रखना चाहेगा। नई दिल्ली और मॉस्को के बीच सहयोग का एक लम्बा इतिहास रहा है, जो कि शीत युद्ध के शुरूआती वर्षों से शुरू हुआ था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया बांग्लादेश दौरा यूं तो कई मायनों में महत्वपूर्ण है। हालांकि, इस दौरे की सबसे अहम बात यह रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया को यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि मुद्दा चाहे कितना भी पेंचिदा हो, यदि नेक इरादे से समाधान ढूंढा जाए, तो रास्ता निकल सकता है और आपसी बातचीत एवं सहमति से जटिल से जटिल मुद्दों पर आगे बढ़ा जा सकता है। पाकिस्तान और चीन के लिए भी बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा करार एक सपष्ट संकेत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छह और सात जून को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ बांग्लादेश के दौरे पर रहे। मोदी-ममता की यह जोड़ी दोनों देशों के बीच संबंधों की संभावना का एक सर्वथा नया पन्ना खोलने की कोशिश करती दिखी, जिसमें ये दोनों काफी हद तक सफल भी रहे। वैसे, ऐसी एक संभावना तब भी बनी थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2011 में बांग्लादेश पहुंचे थे, लेकिन तब ममता बनर्जी ने उनके साथ बांग्लादेश जाने से इन्कार कर, सारी संभावनाओं पर पानी फेर दिया था। इस बार हालात कुछ अलग थे। मोदी और ममता, दोनों यह जान रहे हैं कि उनकी स्थानीय राजनीति की मांग है कि वे इस अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक पहल में साथ रहें। तभी तो तमाम विश्लेषकों ने इस सच को स्वीकार किया कि मोदी-ममता के साथ ने भारत-बांग्लादेश के बीच संबंधों के बीच नया पन्ना खुलवाया, जिससेएशियाई राजनीति को नए सिरे से आकार देने का ऐतिहासिक अवसर भारत को मिला।
पिछले वर्षों में भारत सरकार ने अपने इन छोटे पड़ोसियों के बारे में एक ही नीति बना रखी थी-जितना मिले, उसमें खुश रहो जितना न मिले, उस बारे में तुम जानो, तुम्हारी किस्मत जाने! इस अंधनीति का परिणाम यह हुआ कि बांग्लादेश हो या नेपाल या म्यांमार या श्रीलंका, सभी जगहों पर चीन ने पैठ बना ली। हमारे लिए यह समझना जरूरी है कि पड़ोस में किया गया हर निवेश क्या नकद वापस लाता है, इससे ज्यादा जरूरी है यह देखना कि वह भविष्य के कितने दरवाजे खोलता है। बांग्लादेश-भारत सड़क संधि का एक नया मौका हमारे सामने है। आज कोलकाता और अगरतला के बीच की हर व्यापारिक गतिविधि को 1,650 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। यह सड़क बन जाएगी, तो यह दूरी मात्र 350 किलोमीटर की होगी। न सिर्फ भारत के विभिन्न इलाकों में माल पहुंचाने में सहूलियत हो जाएगी, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया तक माल पहुंचाना सरल हो जाएगा। इसका दूसरा फायदा यह होगा कि इस पूरे क्षेत्र की गतिविधियों पर भारत सीधी नजर रख सकेगा और उसे किसी हद तक नियंत्रित भी कर सकेगा। आतंकवादियों की घुसपैठ, तस्करी आदि पर नजर रखने के साथ-साथ पाकिस्तान और चीन को किसी हद तक इस चतुर्भुज से अलग-थलग करने में भी भारत कामयाब हो जाएगा और उनकी फौजी गतिविधियों की टोह भी ले सकेगा। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना हमारे प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में नहीं आई थीं, उन्होंने अपना प्रतिनिधि भेजा था। इसके और जो भी कारण रहे हैं, एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि नेपाल की तरह बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति की मांग है कि वहां के नेता भारत का पिछलग्गू नजर न आएं। हालांकि, कई मौकों पर शेख हसीना ने यह जताया है कि भारत उसका स्वाभाविक मित्र है।
बांग्लादेश दौरे में पड़ोसी देशों को साथ लेकर चलने की नरेंद्र मोदी की मंशा साफ झलकी है। ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा केवल देश में ही नहीं, मोदी की विदेश नीति में भी झलका है। ढाका में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत और बांग्लादेश एक साथ मिलकर आगे बढ़ सकते हैं। कोई छोटा और बड़ा नहीं है। भारत और बांग्लादेश दोनों बराबर हैं। मोदी यह संदेश देने में भी सफल हुए हैं कि एक उद्देश्यपूर्ण और समस्या-निराकरण की नीति अपनाकर दक्षिण एशिया की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में व्यापक परिवर्तन लाया जा सकता है। सार्क देशों को एकजुट करने और समस्याओं से मिलकर लड़ने की नरेंद्र मोदी की इच्छाशक्ति यह दर्शाती है कि वह इस पूरे क्षेत्र में एक बदलाव लाने का माद्दा रखते हैं।
जब चीन की बात आती है तो हमें सोचना होगा कि आर्थिक और सैन्य दृष्टि से भारत कमजोर है और मोदी कितने ही बड़े राष्ट्रवादी क्यों ना हों और उन्होंने दूसरे दलों के नेताओं की इस बात को लेकर कितनी ही आलोचना की हो कि वे चीन के दुस्साहस को अनदेखा कर रहे हैं, लेकिन खुद मोदी भी पेइचिंग से लड़ाई मोल लेना नहीं चाहेंगे। चीन को एक वैश्विक शक्ति उसकी आर्थिक ताकत के कारण माना जाता है और इस कारण से मोदी चाहेंगे कि भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत हो। अर्थव्यवस्था उनका टॉप एजेंडा इसलिए भी रहेगी क्योंकि ज्यादातर भारतीयों ने उन्हें इसलिए चुना है कि वे गरीबों की हालत में सकारात्मक परिवर्तन लाएंगे। इसलिए वे चाहेंगे कि देश के गरीब वर्ग की माली हालत में सुधार हो। मोदी की विदेश नीति की सबसे महत्वपूर्ण चिंता पाकिस्तान होगा लेकिन वह भी इस्लामाबाद के साथ नाटकीय रूप से सख्त रुख अपनाने के पक्ष में नहीं होंगे। वे पहले ही लोगों को अपने शपथग्रहण में पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित कर चैंका चुके हैं, लेकिन वे यह बात भलीभांति समझते हैं कि पाकिस्तान के साथ लगातार होने वाले टकरावों के कारण वे देश की अर्थव्यवस्था पर अधिक ध्यान नहीं दे सकेंगे। अगर पाकिस्तान के साथ लड़ाई होती है तो यह परमाणु युद्ध में भी बदल सकती है, लेकिन आतंकवादी हमले ऐसा विषय हैं जिनके कारण उन पर बहु्त ज्यादा दबाव होगा। उन्हें निर्णयात्मक होना होगा क्योंकि उन्हें आतंकवादियों को संदेश भी देना होगा कि वे भारत में गड़बड़ी फैलाने से बाज आएं। यह बात उनकी अपील का प्रमुख हिस्सा होगी।
नई दिल्ली चाहता है कि चीन के पूर्वी हिस्से में उसका एक मजबूत साथी हो और वह इस भूमिका के लिए जापान को सभी तरह से उचित पाता है। अपनी आर्थिक और तकनीकी ताकत के चलते जापान समुचित भी है क्योंकि टोक्यो और नई दिल्ली चीन को एक बड़ी सुरक्षा समस्या समझते हैं। भारत एक और एशियाई देश, ताइवान, के साथ अपने संबंध मजबूत रखना चाहेगा क्योंकि यह चीन के क्षेत्रीय दावों और मंशा को लेकर सशंकित रहता है। विदित हो कि कुछ समय पहले ही दक्षिण चीन महासागर में दोनों देशों के बीच झड़पें हुई हैं। लेकिन, विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी से और भी बड़े परिवर्तनों की इच्छा रखने वालों को निराशा हाथ लगेगी। हालांकि मोदी मानते हैं कि भारत एक वैश्विक ताकत है लेकिन देश यह दर्जा तब तक हासिल नहीं कर सकेगा जबतक कि वह आर्थिक मोर्चे पर अपनी मजबूती नहीं दर्शाता है। इसलिए अगर मोदी कोई बड़े परिवर्तन करते हैं तो वे देश के घरेलू मोर्चे पर करने होंगे, विदेशी मोर्चे पर नहीं।
भले ही कांग्रेस पार्टी पंडित नेहरू की विरासत पर दावा कर रही हो लेकिन नरेंद्र मोदी अपने तरीके से देश की इस पुरानी पार्टी को चुनौती देने में व्यस्त हैं। उनको भले ही पंडित नेहरू की 125वीं जयंती के आयोजन पर कांग्रेस ने आमंत्रित नहीं किया हो लेकिन बाकियों की तुलना में वह नेहरू की विरासत को अधिक पुख्ता तौर पर निर्धारित करने की कोशिश कर रहे हैं। और जिस विरासत को सत्ता में आने के बाद वह धीरे-धीरे समाप्त कर रहे हैं वह है विदेशनीति की गुटनिरपेक्ष विचारधारा। विचाराधारात्मक नारों से इतर वह बिना किसी अवरोध के सभी वैश्विक शक्तियों के साथ संबंध बनाने में मशगूल हैं। राष्ट्रों की विदेश नीतियों में सरकारें बदलने के साथ आमूलचूल परिवर्तन नहीं आता लेकिन आम चुनाव में प्रचंड बहुमत मिलने के बाद मोदी को विदेश नीति की प्राथमिकताओं और लक्ष्यों को पुनर्निर्धारित करने का अवसर मिला है। विदेश नीति के मोर्चे पर वह पहले से ही सक्रिय दिखे हैं। पड़ोसियों के साथ द्विपक्षीय संबंधों में नई गति के स्पष्ट संकेत दिखे हैं और नई दिल्ली अपनी क्षेत्रीय प्रोफाइल का पुनरुद्धार करने के लिए नए सिरे से बल दे रही है। पाकिस्तान को छोड़कर सभी पड़ोसी नई आशा के साथ भारत को देख रहे हैं। क्रियान्वयन के मसले पर भारतीय विश्वसनीयता की समस्या को पहचानते हुए मोदी सरकार ने पड़ोसियों के साथ नए प्रोजेक्टों की घोषणा करने के बजाय लंबित परियोजनाओं को पूरा करने पर ध्यान केंद्रित किया है।

शुक्रवार, 12 जून 2015

दलितों के भरोसे भाजपा ?

भाजपा के साथ रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, नंदकिशोर यादव जैसे पिछड़े और दलित नेता या पार्टियां भी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

सुभाष चन्द्र 

बिहार में अभी चुनाव का ऐलान भी नहीं हुआ है, लेकिन सियासी घमासान चरम पर है। इस घमासान में सबकी नजरें बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राज मांझी पर है। पहले भी कहा गया कि इस चुनाव में मांझी के पास कई विकल्प हैं, लेकिन आखिरकार उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का साथ लेना बेहतर समझा। पहले रामबिलास पासवान, फिर उपेंन्द्र कुशवाहा और अब जीतन राम मांझी - भाजपा को लगता है कि दलित की ये तिकड़ी उसे चुनावी वैतरणी पार करा देगी। 
असल में, लालू यादव और नीतीश कुमार के गठजोड़ को धूल चटाने के लिए भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है। इसी कड़ी में दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और नीतीश के धुर विरोध और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी मांझी की मुलाकात 11 जून, 2015 को हुई। लालू और नीतीश के विरोधी गुट को मात देने की उम्मीद में भाजपा को जीतनराम मांझी के तौर पर नया साथी मिल गया है। इसके अलावा सरकार में मंत्री उपेंद्र सिंह कुशवाहा ने भी अमित शाह से मुलाकात की, यानी भाजपा बेहद संजीदा होकर अपने प्लान बिहार को परवान चढ़ाने में में जुट गई है।
दरअसल, फिलहाल चुनावी वैतरणी पार करने के लिए हर किसी को एक ही शख्स पतवार नजर आ रहा है, और वो है - जीतन राम मांझी। सियासी गलियारों में सवाल भी उठा था कि आखिर ऐसा क्यों है? जवाब मिला, चूंकि मांझी के साथ बहुत सारे प्लस प्वाइंट हैं। मांझी ऐसे नेता हैं जो कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू तीनों ही पार्टियों में रह चुके हैं। इतना ही नहीं, वो इन तीनों पार्टियों की सरकारों में मंत्री भी रह चुके हैं। उसके बाद मुख्यमंत्री बने। वैसे मांझी के ताकतवर होने की तात्कालिक वजह उनका दलितों के नेता के रूप में उभरना है। ऐसे में हर पार्टी को लगता है कि जिस किसी को भी मांझी का समर्थन मिलेगा वो बीस तो पड़ेगा ही। अब ये मांझी पर ही निर्भर करता है कि वो किसे अपना दामन देते हैं या किसका दामन थामते हैं? पहले कहा गया था कि चाहें तो लालू के साथ हो लें। लालू का कहना था कि सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए सेक्युलर दलों को एकजुट होना चाहिए और इसी वजह से वो मांझी को साथ लेना चाहते हैं। उसके बाद आरजेडी से निकाले गए मधेपुरा सांसद राजेश रंजन यानी पप्पू यादव ने बिहार में तीसरे मोर्चे का प्रस्ताव रखा था। पप्पू यादव चाहते थे कि उनका जनक्रांति अधिकार मोर्चा, मांझी का हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा और कांग्रेस मिलकर तीसरा मोर्चा खड़ा करें और जनता को एक मजबूत विकल्प दें। पप्पू शुरू से ही मांझी के हिमायती रहे हैं। लालू से पहले ये पप्पू यादव ही थे, जो मांझी को जनता परिवार में भी शामिल किए जाने की वकालत कर रहे थे। 
उसके बाद हवा चली, जिसका तासीर यह बता रही थी कि मांझी चाहें तो भाजपा के साथ गठबंधन कर लें। मांझी को यह विकल्प सबसे मुफीद लगा। जिस तरह उपेंद्र कुशवाहा और राम विलास पासवान भाजपा के साथ हैं, उसी तरह मांझी भी एक पॉलिटिकल एक्सटेंशन हो सकते हैं। आखिरकार हुआ भी यही। 
वर्तमान की हकीकत यही है कि साल भर पहले समाज के फर्श पर बैठे मांझी आज राजनीति के अर्श पर पहुंच चुके हैं। कहने का मतलब ये कि जिस मांझी के पास 2014 में लोक सभा चुनाव लड़ते वक्त कदम कदम पर फंड की कमी आड़े आ रही थी - उनकी ओर अब हर तरफ से मदद के हाथ बढ़े चले आ रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा और मांझी दोनों बिहार की सियासत में भाजपा के भविष्य की उजली तस्वीर की आस हैं। एक तरफ हैं एनडीए के सहयोगी और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा तो दूसरी ओर नीतीश के धुर विरोधी में तब्दील हो चुके जीतन राम मांझी। अब तो जीतन राम मांझी ने भी साफ कर दिया कि बिहार की चुनावी वैतरणी में वो एनडीए की नैया में सवार रहेंगे। बहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन ने नीतीश कुमार पर जमकर जुबानी हमले किए। उन्होंने कहा है कि नीतीश भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। अमित शाह से मुलाकात में मांझी ने कहा कि बिहार में आगामी चुनाव में एनडीए के पार्ट बनेंगे, हर हाल में नीतीश हारेंगे। हालांकि भाजपा ने सीटों का बंटवारा हुए बिना सूबे की 178 सीटों पर प्रचार शुरू कर दिया है, लेकिन उनकी सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वो किसी नेता को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करे या नहीं।
माना जा रहा हैकि बिहार में छह फैक्टर भाजपा के पक्ष में हैं। भाजपा के पक्ष में पहला सबसे बड़ा फैक्टर है, नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता। दूसरा, केंद्र में भाजपा की सरकार होना। वो कहेगी कि विकास के लिए बिहार में भी भाजपा सरकार की जरूरत है। तीसरा , भाजपा का सांगठनिक ढांचा, जो बाकी सभी पार्टियों से मजबूत स्थिति में है। चैथा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जो बिहार के कई इलाकों में काफी मजबूत है, वो चुनाव में भाजपा के पक्ष में काम करेगा। पांचवां कारण है, आर्थिक संसाधन के मामले में भी भाजपा दूसरी पार्टियों से काफी आगे रहेगी।  छठवाँ है, भाजपा के साथ रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, नंदकिशोर यादव जैसे पिछड़े और दलित नेता या पार्टियां भी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भाजपा को भी इसका अंदाजा रहा होगा कि लालू-नीतीश का गठबंधन होगा। दोनों चाहे कितनी भी बयानबाजी करें, लेकिन दोनों को कहीं न कहीं पता था कि ये गठबंधन होने वाला था। नीतीश कुमार, लालू यादव और सुशील मोदी सभी के लिए ये निर्णायक लड़ाई है। इस चुनाव की जीत-हार से इन सबके राजनीतिक भविष्य की दिशा तय होगी।