सोमवार, 28 दिसंबर 2009

कब्र में खड़े रहेंगे मुर्दे

समय बदल रहा है। मान्यताएं बदल रही है। समस्या का निराकरण प्राथमिकता है। सो, अब मुर्दों को लेकर भी समाधान ढूंढ़ा जा रहा है। एक तरफ ग्लोवल वार्मिंग को लेकर पृथ्वी को बचाने की जद्दोजहद तो दूसरी ओर जनसंख्या विस्फोट। भारत-चीन सरीखें देश तो पहले ही परेशान हैं जनसंख्या से, अब यूरोप सहित दूसरे देश भी इस समस्या का समाधान तलाश रहे हैं। घटती जमीन और बढ़ते लोग। समस्या जटिल है। जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी।
सच तो यह भी है कि समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और दुनिया की जमीन सिकुड़ रही है। कई छोटे देशों, तटीय इलाकों और टापुओं के अस्तित्व पर संकट आन पड़ा है। ऐसे में बची हुई जमीन का सही और पूरी तरह इस्तेमाल करना एक मूलभूत सवाल है। इसके लिए आस्ट्रेलिया की एक फ्यूनरल कंपनी ने नायाब नुस्खा पेश किया है। कंपनी की योजना है कि कब्र में मुर्दे को सीधे खड़े करके दफनाया जाए। इससे काफी जगह बचाई जा सकेगी और देश में तेजी से फैल रहे कब्रिस्तान के दायरे की रफ्तार कम हो जाएगी। यह योजना जल्द ही मेलबर्न में अमल में लाई जाने लगेगी। कंपनी ने इसे आसान, कम जमीन और कम लागत वाला नुस्खा बताया है।
आस्ट्रेलियाई कंपनी अपराइट बरियल्स शव को सबसे पहले एक बयोडिग्रेबल बैग में रखेगी और फिर इसे तीस इंच चौड़े और साढ़े नौ फीट गहरे गड्ढे में दफना दिया जाएगा। इस फ्यूनरल कंपनी का दावा है कि दुनिया में वह पहली बार ऐसी स्कीम पेश कर रही है। इसका एक फायदा यह भी है कि इसके पारंपरिक तरीके से शव दफनाने के मुकाबले कार्बनडाइ ऑक्साइड का कम उत्सर्जन होगा।
कंपनी के प्रबंध निदेशक टोनी डुप्लीक्स ने कहा, 'दरअसल, पारंपरिक तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले ताबूत लकड़ी या फाइबर के होते हैं। इन पर प्लास्टिक की एक ट्रे भी होती है। यह काफी जगह घेरता है। लेकिन हमारे प्रस्ताव में ऐसा कुछ भी नहीं है। इसमें जब कब्रिस्तान की जगह भर जाएगी इसे एक चारागाह की तरह छोड़ दिया जाएगा। कब्र पर स्मारक पत्थर भी नहीं होगा। इसके बदले सभी मृतकों के नाम एक जगह क्रम से होंगे। बाद में यहां आने वाले परिजनों को यह बताया जाएगा कि उनके प्रियजन को कहां दफनाया गया है।
क्षेत्रफल के लिहाज से ऑस्ट्रिेलिय को बेशक छोटा देश माना जाए लेकिन वैश्विक संकट में जिस प्रकार से वहां की कंपनी ने उदाहरण पेश किया है, वह अप्रतिम है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो जाने-माने पत्रकार-संपादक-स्तंभकार खुशवंत सिंह ने भी बीते दिनों इसी प्रकार की अपनी रायशुमारी दी थी।

आर्थिक आत्मनिर्भरता

अठारह साल की उम्र में विधवा हो चुकी विभा अपने परिजनों के साथ ही समाज के ठेकेदारों से पूछती है, "आखिर सफेद कपड़ों में पूरी जिंदगी कैसे कटेगी? कब तक कुलक्षणी होने का लांछन लगता रहेगा ?' लेकिन समाज के पास इसका कोई जवाब नहीं है। विभा, पटना जिले के मदारपुर (पुनपुन) गांव की रहने वाली हैं। 15 वर्ष की आयु में उसकी शादी हुई थी और मात्र तीन साल के बाद ही वह विधवा हो गयी। उसके पति को अपराधियों ने गोलियों से भून दिया था। भरी जवानी में विधवा होने का दर्द क्या होता है, यह कोई विभा से पूछे। आगे की जिंदगी उसके सामने डरावने सवाल की तरह खड़ी थी और विभा के पास कोई जवाब नहीं था। ससुराल के साथ-साथ मैके से भी आये दिन ताने सुनने पड़ रहे थे। ऐसी विकट परिस्थितयों का सामना करने के लिए उसने पुनर्विवाह का निर्णय ले लिया। हालांकि उसके इस क्रांतिकारी फैसले से परिवार में कोहराम मचा हुआ है। कमोवेश ऐसी ही पीड़ा गया जिले के बाराचट्टी गांव की कमला की है। नक्सलियों ने कुछ वर्ष पहले उसके पति को पुलिस का मुखबिर बताकर गोली मार दी थी तो दूसरी ओर, पुलिस मुठभेड़ में मारे गये नक्सली लालमोहन यादव उर्फ नटवर की पत्नी हेमलता (काल्पनिक नाम), समस्तीपुर की पूजा, मुजफ्फरपुर की अर्चना, नालंदा जिले की सुनीता, बेगूसराय की रमावती आदि की कहानी भी एक जैसी है। समाज में विधवाओं की लंबी सूची है जो पति की गैरमौजूदगी में कुंठित जिंदगी जी रही हैं और इस सामाजिक अभिशाप से मुक्ति चाहती हैं।
महिला सशक्तिकरण के नाम पर भले ही देश में हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हों, लेकिन विधवा और परित्यक्ता महिलाओं का कल्याण और सशक्तिकरण शायद सरकारी दायरे से बाहर ही हैं। अकेली जिंदगी गुजार रहीं विधवा और परित्यक्तता महिलाओं की घुटनभरी जिंदगी की दास्तान किसी से छिपी हुई नहीं है। घर के भीतर कुलक्षणी, तो बाहर उन्हें अपशकून माना जाता है। सामाजिक ताने-बाने और पारिवारिक मर्यादा का ऐसा ढोंग सामाजिक और धार्मिक ठेकेदारों ने रच रखा है कि उससे आजीज आकर विधवाओं ने रूढि़वादी परंपराओं को तिलांजलि देते हुए सधवा (सुहागन) बनने की मुहिम ही छेड़ दी है। विचारों की शान पर विधवाओं की आवाज कितनी तेज होती है और कितनी दूर तक पहुंचती है, इस बारे में तत्काल कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन राजधानी पटना में विधवा और परित्यक्ता महिलाओं ने विधवा पुनर्विवाह की वकालत करके सामाजिक तौर पर एक नया विवाद तो छेड़ ही दिया है।
इतिहास बताता है कि लोकतंत्र की जननी रहा बिहार राष्ट्रीय स्तर पर हमेशा क्रांतिकारी प्रतीक खड़ा करता रहा है और देश की सामाजिक-राजनीतिक हलचलों में अहम भूमिका निभाते आ रहा है । बात चाहे अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की हो या फिर आजाद भारत में इंदिरा गांधी की तानाशाही और सामंती जुर्म के खिलाफ बगावत की हो, बिहार ने सदा ही अग्रणी भूमिका निभायी है। एक बार फिर सामाजिक ठेकेदारों और रूढि़वादी परंपराओं को चुनौती देते हुए कनाडाई मूल की राजस्थानी महिला डॉ। जिन्नी श्रीवास्तव की पहल और मुस्लिम महिला अख्तरी बेगम के आह्वान पर बिहार की करीब 225 विधवाओं ने सधवा बनने की सामूहिक इच्छा व्यक्त करके सबको चौंका दिया है। एकल नारी संघर्ष समिति के बैनर तले एकजुट हुई एकल महिलाओं ने एक स्वर में समाज के दकियानूसी चेहरे को उतार फेंकने का संकल्प लिया है। गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित बेगम कहती हैं, " बात चाहे हिन्दू की हो या फिर मुस्लिम की, एकल महिलाओं की जिंदगी एक जैसी है। दोनों समुदाय की महिलाएं पति की गैरमौजूदगी में नारकीय जिंदगी जी रही हैं। इससे निजात पाने का एक ही तरीका है और वह है ,आर्थिक आत्मनिर्भरता।'
देश में विधवाओं के मुकाबले विधुर पुरुषों की संख्या केवल एक तिहाई है। आंकड़े गवाह हैं कि केवल नौ प्रतिशत विधवाएं ही दोबारा विवाह कर पाती हैं। इसका कारण अंधी सामाजिक परंपरा है, जो पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष को दूसरे विवाह की अनुमति तो सहज दे देती है, किन्तु विधवा को अकेले जीने को विवश करती है। परिवार की संपत्ति बाहर जने का डर भी विधवा-विवाह के मार्ग में एक बड़ी अड़चन है। अकेली महिला के चरित्र को लेकर तरह-तरह के लांछन लगाना तो आम बात है ही।
एकल महिलाओं के अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे राष्ट्रीय फोरम के अध्ययन से कुछ और चौंकाने वाले सच सामने आए हैं। फोरम ने देश के सात राज्यों- केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में व्यापक सव्रेक्षण में यह पाया कि दक्षिण के मुकाबले उत्तर भारत के राज्यों में एकल महिलाओं की स्थिति ज्यादा खराब है। अक्सर यह माना जता है कि पति की मृत्यु, तलाक या छोड़ दिए जने के बाद स्त्री को उसके पिता या भाई के घर में सहारा मिल जाता है। अध्ययन ने इस मिथ्या धारणा की पोल खोल दी है। अधिकांश अकेली महिलाओं को अपने दम-खम पर जीवन गुजरना पड़ता है।

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

फतह को तैयार ममता

यूं तो भदेस माने जाते हैं पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्घदेव भटटाचार्य और उनमें धीरज भी गजब की है। लेकिन माँ, माटी और मानुष के नारे के पंख लगाए तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने गत वर्ष से ऐसा कारनामा कर दिखाया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। उन्होंने पश्चिम बंगाल में तीन दशक पुराना वाम का लाल गढ़ ध्वस्त कर दिया। लिहाजा, स्वयं मुख्यमंत्री ने मोर्चा खोलते हुए कई बार कहा कि तृणमूल से करीबी रिश्ता है माओवादियों का।
सच तो यह भी है कि एक समय पर अभेद्य माने जा रहे वाम के किले में ममता द्वारा लगाई गई इस सेंध से प्रदेश की फिजाओं में यह सवाल उमड़ रहा है कि क्या राज्य में माकपा के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार का सूर्य अस्ताचल की ओर है और 2011 के विधानसभा चुनाव में इसके डूबने के आसार हैं। तृणमूल के तीरों से भीतर तक आहत वाम मोर्चे को इस वर्ष हुए आम चुनाव में राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से मात्र 15 पर ही जीत हासिल हो सकी और माकपा तो 9 पर ही सिमटकर रह गई। तृणमूल कांग्रेस ने उपचुनाव में जीत के साथ इस वर्ष का आगाज किया जब उसने नंदीग्राम में वाम मोर्चे के सहयोगी दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को शिकस्त दी। इसके बाद ममता ने वाम मोर्चे को चुनौती देने के लिए कांग्रेस और वाम विपक्षी दल सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर आफ इंडिया का दामन थाम लिया। वाम की पराजय का सिलसिला लोकसभा चुनाव में हार से ही नहीं थमा और उसके बाद 16 नगर पालिकाओं और 10 विधानसभा उपचुनावों में मिली पराजय उसके गम को और बढ़ा गई। विधानसभा के उपचुनाव में तो माकपा की हालत और भी खराब रही। नार्थ बंगाल के गोलपोखार चुनाव क्षेत्र में फारवर्ड ब्लाक के उम्मीदवार को मिली जीत के अलावा उसे कुछ और नसीब नहीं हुआ।
दरअसल, राज्य कांग्रेस प्रमुख प्रणव मुखर्जी ने इस राजनीतिक परिदृश्य को वाम मोर्चे का पत्ता साफ करने के लिए तृणमूल, कांग्रेस गठबंधन के लिए सुनहरा अवसर करार दिया। चुनाव परिणामों के विश्लेषण से पता चलता है कि ममता बनर्जी का मां माटी और मानुष का नारा काम कर गया है और मुसलमानों सहित तमाम ग्रामीण तथा शहरी मतदाताओं ने तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। इन चुनावों ने चुनावी पंडितों की इस राय को गलत साबित कर दिया कि सिंगूर और नंदीग्राम में तृणमूल कांग्रेस ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जो आंदोलन चलाया था उसका शहरी इलाकों में कोई असर नहीं होगा।
ऐसे हालात में लोकसभा चुनाव के परिणामों को विधानसभा क्षेत्रों के आधार पर आकलन करें तो वाम मोर्चे के लिए अंधेरे के अलावा और कुछ नजर नहीं आता। ममता ने वाम मोर्चे की हार को मोर्चे के प्रति जनता का अविश्वास बताया। मोर्चे की लगातार हार के कारण राज्य में विधानसभा चुनाव भी समय पूर्व कराने की मांग उठने लगी है। यह मांग विपक्षी खेमे से ही नहीं वाम मोर्चे के भीतर से भी उठी है। राज्य के राजनीतिक परिदृश्य में आए इस बदलाव की वजह तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के बीच हुए गठबंधन को माना जा रहा है। वाम मोर्चा हाल के वर्षों में इन दोनों पार्टियों की दूरी से जो फायदा उठा रहा था, इस गठबंधन ने उसे उस फायदे से महरूम कर दिया और नतीजा सबके सामने है।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

इंतजार में भूखा बचपन

जरूरी मुददों की लगातार उपेक्षा वास्तविकताओं से आंख मूंदकर बनाई अनुचित नीतियां और उचित नीतियों का भी गलत तथा भ्रष्टï क्रियान्वयन सरकार विरोधी लहर को जन्म देता है, पालता -पोसता है। इस लहर के बनने में सबसे बड़ा हिस्सा बुनियादी जरूरतों की आपराधिक उपेक्षा का है। दुर्भाग्य से हमार देश में यह उपेक्षा कदम-कदम पर दिख रही हैै।इसका एक ज्वलंत उदाहरण बीमार बचपन है। कुपोषण से लेकर बाल मृत्यु दर की बढ़ती दरों की हकीकत जीवन के उस अधिकार का लगातार मुंह चिढा रही है, जो हमारे संविधान ने देश के बच्चे को दिया है।
जिस तरह बढ़ती विकास दर की घोषणाओं से महंगाई की मार कम नहीं हुई,उसी तरह देश में बाल कुपोषण की स्थिति में कोई उल्लेखनीय प्रयोग नहीं दीख रही , उल्टे स्थिति बिगड़ती ही जा रही है। यह विकास के समूचे दावों के बावजूद एक त्रासद सच्चाई है कि आज बाल कुपोषण के मामले में हमारे भारत की गणना विश्व के उन देश में होती है, जहां स्थिति सबसे बुरी है। कुुछ ही अरसा पहले सरकार ने राïïष्टï्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी की थी। इस सर्वेक्षण के अनुसार देश की लगभग 46 प्रतिशत तीन वर्ष से कम उम्र के बच्चे अपेक्षित वजह से कम वजन के हैं। लगभग तीन चौथाई बच्चों में खून की कमी पाई गई है। इससे पहले ऐसा सर्वेक्षण 1998-99 में हुआ था। तब और अब के आंकड़ों को देखें तो सुधार नगण्य ही हुआ है। तब बाल कुपोषण 46।7 प्रशित था और अपेक्षा से कम वजन वाले बच्चों का प्रतिशत 79 था। सात साल की यह प्रगति जिस तथ्य को रेखांकित करती है, वह यही है कि बीमार बचपन का ईलाज हमारी सरकारों की प्राथमिकता की सूची में कहीं बहुत नीचे आता हैै।
इस संदर्भ में दिसंबर माह में जारी एक और रिपोर्र्ट काफी महत्वपूर्ण है । छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों की स्थिति के बारे में जारी रिपोर्र्ट फोकस हमारी समुचित बाल विकास सेवाओं की कलई खोल देती है। आइसीडी एस।के. नाम से पहचानी जानेवाली यह योजना अखिल भारतीय स्तर पर छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए चलाई जा रही अकेली योजना है, अत: इसका महत्व स्पष्टï है और उतना ही महत्वपूर्ण यह तथ्य भी है कि इस योजना की ओर अपेक्षित ध्यान देने की आवश्यकता हमारी सरकार महसूस नहीं कर रही है। बाकी बहुत से महत्वपूर्ण मुददों की तरह इस मुददों पर भी न्यायालय ने सरकार को आडे हाथों लिया हैै। लगभग सात साल पहले यानि 2001 में उच्चतम न्यायालय ने संविधान की धारा 21 के अंतर्गत भोजन के अधिकार को जीवन के अधिकार का हिस्सा बताया था। तब न्यायालय ने इसके लिए समुचित बाल विकास योजनाओं को सारे देश में समान स्तर पर लागू करने की बात कही थी और यह भी समझाया था कि उन्हें बच्चो ंकी भोजन और स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी जरूरतें पूरी न होने का मतलब उनके जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। पर समझाया तो उसे जा सकता है, जो समझना चाहे। जहां विकास की हर घोषणा का रिश्ता सत्ता में बने रहने से हो, वहां राष्टï्र के भविष्य के प्रति जिम्मेदारी और ईमानदारी के लिए जगह कहां बचती है?
न्यायपालिका ने तो और भी बहुत कुछ कहा, किया है इस संदर्भ में। लगभग तीन साल पहले उच्चतम न्यायालय ने गर्भवती महिलाओं और छह साल तक की उम्र के बच्चों को समेकित बाल विकास कार्यक्रमों के अंतर्गत लाने की बात कही थी। आंगनबाडिय़ों की संख्या बढाकर परिगणित एंव अनुसूचित जातियों की बस्तियों एंव सभी झोपड़पटटी तक उन्हें पहुंचाने का निर्देश दिए थे। साथ ही यहभी कहा था कि बच्चों को दिए जाने वाले पौष्टिक पदार्थो पर व्यय एक रूपये से बढकार दो रूपए कर दिया जाए । न्यायालय ने दिसंबर 2008 की समय सीमा भी निर्धारित की थी जब तक ये सारी योजनाएं लागू हो जानाी चाहिए। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्र्ट इस बात का स्पष्ट संकेत है कि बच्चों के स्वास्थ्य के बारे में सरकार अपना दायित्व निभाने में असफल रही है।
सवाल उठता है कि इस बुरी स्थिति के लिए जिम्मेदार नीतियों, तत्वों को रेखांकित करने की आवश्यकता कब महसूस की जाएगी? सत्ता कामना की पूत्र्ति में लगे राजनीतिक दलों को यह अहसास कब होगा कि भूख, महंगाई, गरीबी, अशिक्षा, असमानता जैसे मुददे किसी भी राष्टï्र की जीवन रेख को परिभाषित करते हैैं? लोक लुभावन नारों, घोषणाओं का असर पड़ता होगा चुनावों के परिणामों पर, लेकिन असली सवाल राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूत्र्ति का है। बीमार बचपन को स्वस्थ्य बनाने का कार्यक्रम किसी भी राष्ट्र की वरीयताओं में सबसे उपर होना चाहिए। हमारी राजनीति के सरोकारों तथा हमारी राजनीतिक ईमानदारी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण एंव बहुत ही गंभीर टिप्पणी है कि राष्टï्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्र्ट संसद में या सड़क पर मुददा उठाने के लायक नहीं समझी जाती। बच्चों को स्वस्थ्य जीवन का अधिकार न देना भी उसी आपराधिक अनैतिकता के अंतर्गत आता है , जिसमें आर्थिक भ्रष्टïाचार की गणना होती है। यह भ्रष्टïाचार हमारी राजनीति का मुददा क्यों नहीं बनता ? आखिर कब तक ......?

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

नारी की टूटती वर्जनाएं

औरतों को लक्षित करके किसी मशहरोमारुफशायर ने कहा है कि- मैं कभी हारी गई, पत्थर बनी, गई बनवास भी, क्या मिला द्रोपदी, अहिल्या,जानकी बनकर मुझे। इस पंक्ति को आधुनिकता के चादर में लपेट कर आज की नारी तमाम वर्जनाओंको तोडऩा चाहती और उन्मुक्त आकाश में विचरण करना चाहती है। इक्कीसवीं सदी को भी न जाने किन-किन उपाधियों से सम्मानित किया जा रहा है। उपभोक्तावाद की सदी, स्त्रियों की सदी, सूचना क्रांति की सदी, और न जाने क्या-क्या...? देखा जाए तो उपभोक्तावाद और स्त्री, जब दोनों का संगम हुआ तो इक्कीसवीं सदी के खुले बाजार ने उसे हाथों-हाथ लिया। इस सदी की स्त्रियों ने मांग की, कि हमें वर्जनओंसे मुक्ति दो। बाजार ने कहा कि सबसे बड़ी वर्जना तुम्हारी लाज और वस्त्र हैं। तुम उससे मुक्ति पा जाओ। वर्जनाओंके टूटते ही बाजार ने स्त्री को माल बनाया और इस माल को बाजार में उतार दिया। पुरुष की आदम मानसिकता ने इस उत्पाद को हाथों-हाथ लेना शुरू कर दिया और चल निकली बाजार की वह गाड़ी, जो स्त्री की देहयष्टिïपर केंद्रित थी। फिर उसे आवरण के रूप में नाम मिले- मॉडल, तारिका, एस्कार्ट, ब्यूटीकांटेस्ट,पार्लर और मसाज। पुरुषों की असली बातचीत में इसका असली नामकरण हुआ 'काल गर्लÓ।
आज नहीं तो कल, हर वह चीज मुश्किलों की वजह बनी है, जिसे खास बना दिया गया। खास तौर पर वैसी हालत में, जबकि वह खास बनाया जाना अपनी सुविधाओं के लिए हो, अपने मनमाफिक हो और उस चीज पर अपना कब्जा जाहिर करने के लिए किया गया हो। मर्दों की दुनिया में 'औरतÓ एक ऐसी ही चीज है। इस चीज (कालगर्ल) का बाजार आज विश्वव्यापी हो गया है। पूरब और पश्चिम की मान्यताएं टूट चुकी हैं। स्त्री शो-पीस बनकर बाजार में खड़ी है। आओ और ले जाओ। पूरे समाज में खलबली मच गयी है कि दुहाई देनेवाले हाय-तौबा मचाए हुए हैं। सती प्रथा को महिमामंडित करने वाले इस देश की स्त्रियों ने भी इस बाजार में उतरने में कोई कोताही नहीं बरती है। अमीर-गरीब सभी परिवारों की स्त्रियां इस धंधे में है। लिहाजा, भारतीय समाज आंखें, फाड़-फाड़ कर रोज देह-व्यापार के पर्दाफाश की खबरें अखबार में पढ़ रहा है, टेलीविजन पर देख रहा है। विडंबना यह है कि जिस अखबार के एक पन्ने पर इस व्यापार को 'गंदाÓ बताकर उसका भंडाफोड़ किया जाता है, उसी अखबार के किसी और पन्ने पर इस व्यापार में उतरने या स्त्री देह को 'भोगनेÓ के ढेर सारे निमंत्रण आपके सामने मौजूद होते हैं। मीडिया की भूमिका इस मामले में कैसी है, इस पर विचार करने की जरूरत है। खासकर तब, जब एक अखबार-देह व्यापार के जरिये हानेवालीकमाई से देश के आर्थिक विकास का आंकलन करने लगे, जब वह यह हिसाब बिठाने लगे कि भारत की लड़कियों के देह-व्यापार में उतरने से देश के सकल घरेलू उत्पाद में कितना विकास होगा। अब देह व्यापार का धंधा बनारस या कोलकाता की किसी बदनाम रेड लाइट एरिया में रहने वाली औरतें ही नहीं करती हैं। तथाकथित कुलीन घरानों कॉन्वेंट एजूकेटेड लड़कियां, जिनके पास कैरियर के अच्छे विकल्प भी हैं, वो भी देह व्यापार के इस धंधे में लिप्त हैं और यह किसी भय या दबाव में नहीं, बल्कि एक ऐशो-आराम भरी जिंदगी जीने की ललक के कारण। पैसे और सुख-सुविधाओं की यह आकांक्षा बाजार में ले आ रही है।
देश की राजधानी दिल्ली अब देह-व्यापार की राजधानी हो गयी है- कहना अतिश्योक्ति न होगी। राजनीति के साथ-साथ सेक्स का बाजार भी यहां काफी तेजी से फल-फूल रहा है। पहले यहां विदेशी आते थे गौतम-बुद्ध और महात्मागांधी के दर्शन करने को और अब यहां विदेशी बालाएं आती हैं 'धंधेÓ की तलाश में। सचमुच, कितना बदल गया है जमाना। देह व्यापार के लिए विदेशी लड़कियों द्वारा भारत के बाजार को सहूलियत की नजर से देखना न सिर्फ हमारे समाज को गर्त में धकेल रहा है, बल्कि पूरब और पश्चिम की संस्कृति के समागम को ऊहापोह की स्थिति में अधिकतर उच्च-मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की लड़कियों को अपने जिस्म की नुमाइश और इनके व्यापार को एडवांस समाज में अपने आपको एडजस्ट करने के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण शार्ट कट मानने के लिए भी उकसा रहा है।
गौरतलब है कि विदेशी लड़कियों को भारत आने में ज्यादा मुश्किलों का सामना भी नहीं करना पड़ता है। टूरिस्ट वीजा के नाम पर आने वाली इन लड़कियों का भारत आना-जाना लगा रहता है और भारतीय दलाल इन लड़कियों से निरंतर संपर्क बनाए रहते हैं। कॉरपोरेट जगत के बादशाहों, नेताओं की पहली पसंद आजकल विदेशी लड़कियां अधिक होती हैं। पिछले कुछ महीनों में खासकर दिल्ली में एक के बाद एक हुए कॉल गर्ल रैकेट के पर्दाफाश पर यदि नजर दौड़ाएं तो यह बात खासतौर पर सामने आती है कि अधिकतर ऐसे रैकटोंका पर्दाफाश न सिर्फ पॉश इलाकों में हुआ है, बल्कि बड़े-बड़े नेताओं और उद्योगपतियों के फार्म हाउसों में भी। अलबत्ता अपनी पहुंच के बूते ऐसे लोगों के नाम सामने नहीं आ पाए हैं।
तेजी से पांव पसारते कॉलगर्ल के मौजूदा बाजार में गोरी-चमड़ी वाली लड़कियों की काफी मांग है, उजबेकिस्तान, अजरवैजान,नेपाल, बंाग्लादेश और मोरक्को सरीखे देशों से आने वाली अत्याधुनिक कपड़े पहनने वाली, शराब-सिगरेट की आदी, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलनेवाली इन विदेशी लड़कियों को भारतीय सेक्स बाजार में सेक्स के मामले में ज्यादा खुला समझा जाता है। यही कारण है कि कुछ ग्राहक इन्हें हाइजेनिक माल भी कहते हैं। दरअसल, इन लड़कियों के साथ सेक्स सुख भोगने में इन्हें ज्यादा सामाजिक खतरा नहीं होता, क्योंकि अधिकतर विदेशी लड़कियां धंधा कर अपने देश वापस चली जाती हैं। इस कारण ग्राहकों के साथ किसी भी तरह का उन्हें भावनात्मक जुड़ाव भी नहीं होता है। लिहाजा, भारतीय पुरुष विदेशी लड़कियों पर पैसा लगाना अधिक फायदे का सौदा समझते हैं। पिछले कुछ दिनों में उजागर हुई घटनाओं पर गौर फरमाने पर यह बात खासतौर पर सामने आई है कि कॉलगर्लके इस बाजार में उपभोक्ता जहां अधिकतर उच्च वर्ग का है, वहीं मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग इस बाजार का 'मालÓ बन गया है। इन घटनाओं के अध्ययन से यह बात भी खास तौर से जाहिर होता है कि अधिकतर खाते-पीते घरों की लड़कियां ही ऐसा कदम उठाने में क्यों बाजी मार रही हैं? कारण सामने आता है कि उच्च मध्यमवर्गीय लड़कियों के कदम इस धंधे में जानबूझकर पड़ रहे हैं। दरअसल, किसी के साथ एक रात गुजारो और 15-20 हजार पा लो, इससे हसीन दुनिया और भला क्या हो सकती है। उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ ने इन लड़कियों की आस्था और मूल्यों को काफी पीछे छोड़ दिया है। महंगे मोबाइल, गाड़ी, कपड़े, अच्छे रेस्तरां में भोजन- ये सभी चीजें एक हाई-फाई जिंदगी जीने के लिए आवश्यक है।
सवाल कई हैं। जैसे-जैसे दुनिया आधुनिक होती जाएगी, पुरानी मानदण्डों का टूटना लाजिमी है। हर वह मंदिर लूटा गया, जो हीरे-जवाहरात की खान जैसा बन गया था। जायदाद के रूप में देखी गयी औरत आज अपनी उस ताकत का इस्तेमाल कर रही है, तो मुश्किल सवालों का खड़ा होना लाजिमी है। लेकिन एक सवाल यह भी है कि बहुत तेज रफ्तार से भागते हुए इस देह के धंधे को वह समाज कितना और कैसे पचा पाएगा, जिस समाज में बलात्कार के बाद खुद लड़की भी अपना जीवन खत्म हुआ मान बैठती है? यकीनन, अभी हमें और बहुत सारे सवालों से रू-ब-रू होना बाकी है। आधुनिकता की आंधी में पुराने महलों का ढहना लाजिमी है, लेकिन देखना होगा कि इस आंधी में टिकने के लिए जो रास्ते अख्तियार किए जाएंगे, वे नयी पैदा होनेवाली आंधियों का सामना कैसे कर पाते हैं। जाहिर है कि समाज अपने सामने पैदा होने वाले नए हालात से तालमेल बिठा ही लेता है। लगता है, आज का हमारा समाज इस नए सवाल से तालमेल बिठाने की कोशिश में है।
इन्हीं कोशिशों को आत्मसात करने, वज्रमूल्यों को चकनाचूर करने आदि पुरानी औरत को 'सतीÓ या 'वृंदावन-बनारस की गंजी विधवाÓ के द्वार तक पहुंचने से रोकने की प्रक्रिया को ब्यूटी कांटेस्ट, ग्लैमर, महिला आजादी, उनकी नौकरी, गायन, रैंपमॉडल, स्वागतकर्मीया एस्कार्ट के छद्ïम नाम और आवरण में लपेटना समाज की मजबूरी तो है, पर यह औरत को गंदे शब्दों और गंदी परिभाषाओं से निजात भी दिलाता है।

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

ये केवल झारखण्ड में ही संभव है

झारखंड राज्य की जनता ने अपनी परंपरा को बरकरार रखते हुए एक बार फिर किसी भी राजनीतिक दल में अपना विश्वास नहीं दिखाया है। विधानसभा चुनाव के परिणाम अप्रत्याशित नहीं आए। पिछले कुछ वर्षों से प्रदेश का जो चाल-चरित्र बन गया है, उसके अनुरूप ही जनादेश आया। किसी प्रकार की कोई बदलाव की बयार नहीं। जबकि, इसके उलट बात होने लगी थी प्रदेश के पुनरूद्घार की। प्रदेश के बाहर के लोगों की अपेक्षा थी कि जो राज्य, जो फ़ेल्ड स्टेट या कोलैपस्ड स्टेट (विफ़ल-ध्वस्त राज्य) का विशेषण अर्जित कर चुका है, किसी चमत्कारी सरकार की प्रतीक्षा में है। सच तो यही है न कि चुनाव में काफ़ी श्रम हुआ, पीड़ा भी। पांच फ़ेज में चुनाव संपन्न हुए।
लेकिन नतीजा। वही गठबंधन, वही बंदरवाट। सवाल मौजू था कि दो माह के प्रसव पीड़ा के बाद एक असरदार सरकार अस्तित्व में आएगी? लेकिन नहीं आया। भाजपा-कांग्रेस बेशक संख्या में आगे रहे हों लेकिन जादुई चाबी गुरूजी के पास रही। उस पर गुरूजी का बयान, ''मुझे सीएम बनाओ, तो मैं समर्थन दूँगा।ÓÓ
ध्यान से देखें। बयान को। अमूमन परिपाटी यह रही है कि मुख्यमंत्री बनने वाला व्यक्ति अपने लिए और दलों से समर्थन माँगता है। लेकिन नहीं, अपने दसोम गुरू की बात ही निराली है। जुझारू हैं। प्रदेश के गठन में उनकी भूमिका को इतिहास हमेशा याद रहेगा। लेकिन लोकतांत्रिक प्रणाली में जिस प्रकार से पिछले शासनकाल में उन्होंने सत्तारोहण किया और अपने लिए एक अदद सीट भी नहीं जीत पाए, वह भी भुलाया नहीं जा सकता।
अब, एक बार फिर, मुख्यमंत्री पद की लालसा? कहाँ जाएगा प्रदेश? कौन करेगा विकास? आंदोलन करनी एक बात है और सरकार चलाना दूसरी। कौन देगा जबाव। माजशास्त्र का एक बुनियादी सिद्धांत है, अगर सोसाइटी फ्रैक्चर्ड (समाज बंटा) है, तो उसके बीच के परिणाम या जनमत भी फ्रैक्चर्ड ही निकलेंगे.

मनु की संतान

मनु ने किया था वर्ण विभाजन
'स्मृतिÓ में किया जाति विचार
ब्राह्मïण को पुरस्कार
शूद्र को तिरस्कार
वैश्य को धन भंडार
तो क्षत्रिय को दिया तलवार।
कालांतर में
मनुवाद का विरोध
बना आधुनिकता का औजार
अब जातियों के अंदर
दर्जनों उप-जातियाँ बनी
और उच्च ब्राह्मïण से लेकर
शूद्र की अंतिम सीढ़ी
तक का हुआ पड़ताल
राजनीति ने दिया संरक्षण
और प्रजातंत्र ने दिया आधार
वर्णवाद का खेल
कलमकारों को भी खूब भाया
सवर्ण, स्त्री और दलित विमर्श
ने साहित्य में खूब रंग जमाया
क्षेत्र, भाषा और संस्कृति
कुछ भी इनकी नजर से बच नहीं पाया
आधुनिकता के पुजारी
मनु की संतानों की
क्या खूब है माया।
- बिपिन बादल

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

सरकार मानती अपराध है रूकावट

बिहार सरकार पूरी तन्मया के संग प्रदेश से अपराध को समाप्त करना चाहती है। इसके लिए अपराध निरोधी अभियान को सफल बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं, साथ ही बिहार विशेष अदालत विधेयक, 2009 को राष्टï्रपति से मंजृूरी के लिए भेजा जा चुका है। माना जा रहा है कि बिहार में अपराधमुक्त समाज का निर्माण करने की दिशा में किए गए राज्य सरकार के प्रयासों के नतीजे अब सामने आने लगे हैं। गृह विभाग के आधिकारिक सूत्रों के अनुसार फिरौती के लिए अपहरण की घटनाओं पर प्रभावी अंकुश लगाना राज्य सरकार की प्राथमिकता है। इसी का नतीजा है कि 2004 में जहां फिरौती के लिए अपहरण के 411 मामले दर्ज हुए वहां 2005 में यह मामले घटकर 251 रह गए गए। इसके बाद से हर साल फिरौती के लिए अपहरण की घटनाओं में निरन्तर कमी आती गई। वर्ष 2006 में 194, 2007 में 89, 2008 में 66 और इस साल मई माह तक केवल 30 मामले सामने आए।
इसी तरह गंभीर अपराध की अन्य घटनाओं में भी स्पष्ट रूप से कमी आई है। वर्ष 2004 में हत्या की 3861 घटनाएं हुई जो कम होकर 2005 में 3423, 2006 में 3225, 2007 में 2963 और 2008 में 3029 रह गई। 1 इस वर्ष मई माह तक हत्या की मात्र 1236 घटनाएं ही हुई हैं। डकैती की घटनाओं में भी निरन्तर कमी आई है। वर्ष 2004 में डकैती की 1297, 2005 में 1191, 2006 में 967, 2007 में 646 और 2008 में 640 घटनाएं हुई जबकि इस वर्ष मई माह तक डकैती की केवल 280 घटनाएं सामने आई हैं। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2004 में लूट की 2909, 2005 में 2379, 2006 में 2138 और 2007 में 1729 घटनाएं हुईं जो इस वर्ष मई तक 704 रह गई। सड़क डकैती की घटनाओं में भी उल्लेखनीय कमी आई है। इन सरकारी आंकड़ों के तुलनात्मक विश्लेषण से पता चला है कि राज्य में डकैती, लूट और फिरौती के लिए अपहरण की घटनाओं समेत अन्य मामलों में प्रभावी सफलता मिली है। फिरौती के लिए अपहरण के कई मामलों की तहकीकात से यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है कि इनमें कई मामले विवाह के लिए युवतियों को भगाने से जुड़े थे।
बताया जाता है कि बिहार में आपराधिक घटनाओं में कमी लाने के लिए चलाए गए 'अपराध निरोधी अभियानÓ के तहत इस वर्ष सितम्बर तक पुलिस ने 81,470 लोगों को गिरफ्तार किया है, जिनमें 2,541 नक्सली शामिल हैं। राज्य के अपर पुलिस महानिदेशक नीलमणि के अनुसार, 'जनवरी 2009 से लेकर सितम्बर तक 81,470 लोगों को राज्य में 'अपराध निरोधी अभियानÓ के तहत गिरफ्तार किया गया। इस अवधि में 35 बार पुलिस और अपराधियों के बीच मुठभेड़ हुई। राज्य के विभिन्न जिलों से पुलिस ने इस वर्ष पिछले महीने तक 1,730 अवैध हथियार भी बरामद किए हैं। इसके अलावा पुलिस ने अभियान के तहत 18,064 डेटोनेटर तथा 3,678 किलोग्राम विस्फोटक बरामद करने में सफलता पाई। इस वर्ष अब तक 66 मिनी गन कारखानों का भी भंडाफोड़ किया गया, जिनमें बडी़ मात्रा में हथियार बनाने के सामान बरामद हुआ।Ó
गौर करने योग्य है कि गत मार्च में ही बिहार विधान मंडल ने बिहार विशेष अदालत विधेयक, 2009 पास करके राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए केंद्र सरकार को भेज दिया था। उस पर अभी तक केंद्र की सहमति नहीं मिल पाई है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यह लगता है कि यदि राज्य सरकार में विभिन्न छोटे-बड़े पदों पर बैठे अफसरों व कर्मचारियों के बीच के भ्रष्ट तत्वों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान हो जाए तो सरकारी धन का अधिकांश जनता के काम में ही लगेगा। अभी स्थिति वैसी नहीं है। विकास बजट का आकार काफी बढ़ गया है, इसलिए बिचौलियों द्वारा लूट के बावजूद विकासात्मक काम पूरे राज्य में दिखाई पड़ रहे हैं। कड़े कानून के अभाव में नीतीश कुमार अपने ही भ्रष्ट अफसरों, कर्मचारियों व दूसरे तत्वों के सामने लाचार हैं। नीतीश कुमार मानते हैं कि बिहार विशेष अदालत विधेयक 2009 पर राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद इस समस्या पर काफी हद तक काबू पाया जा सकेगा। दरअसल, नब्बे के दशक में पटना के हाई कोर्ट ने कई बार यह कहा कि बिहार में जंगल राज है। एक बार तो हाई कोर्ट ने यह भी कहा था कि जंगल के भी कुछ नियम होते हैं, यहां तो वह भी नहीं है। अदालत पूरे राज्य को लेकर अब ऐसी टिप्पणियां नहीं कर रही है। बिहार राजनीतिक संरक्षण प्राप्त माफियाओं के अपराध से वर्षो तक पीडि़त रहा था। नीतीश सरकार ने त्वरित अदालतों के जरिए वर्षो से लंबित आपराधिक मामलों की सुनवाई करवा कर करीब 38 हजार छोटे बड़े अपराधियों को सजा दिलवा दी। इससे आतंक का माहौल समाप्त हो गया है।
बिहार में हाल के वर्षो में जिन 38 हजार अपराधियों को निचली अदालतों ने सजा दी है उनमें आम अपराधियों के साथ साथ जातीय व सांप्रदायिक दंगे और नक्सली हिंसा के आरोपित भी शामिल हैं। यह अकारण नहीं है कि गत चार साल में बिहार में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। साथ ही नक्सली हिंसा भी घटी है, पर आम अपराध, जातीय व सांप्रदायिक दंगों और नक्सली हिंसा पर स्थायी तौर पर काबू तभी पाया जा सकेगा जब राज्य की गरीबी दूर हो।
दरअसल, राज्य सरकार की प्राथमिकता सूची में अपराध मुक्त समाज का निर्माण सबसे ऊपर है। उसके अथक प्रयासों का ही यह परिणाम है कि लोग बेखौफ़ होकर सपरिवार अपने घरों से निकलकर आवश्यकतानुसार अपना काम कर रहे हैं। कहीं भी अब भय का माहौल नहीं रह गया है। राज्य सरकार की अपराधों पर नियंत्रण करने की पहल का ही नतीजा है कि अब पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के तेवर भी बदल गए हैं। दुर्दात या नये अपराधियों, सभी के खिलाफ़ बिना भेदभाव के सख्त कार्रवाई की जा रही है।

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

ठण्ड है भाई






















खर्चा 1500 करोड़ और तैयारी कितनी

अगले साल अक्टूबर में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के लिए अब तक विभिन्न स्टेडियमों के निर्माण में 1493 करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए हैं लेकिन अभी तक आधा काम भी नहीं हो पाया और इस बीच अनुमानित बजट भी कई अरब बढ़ गया है। राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी पिछले एक साल से जोरों से चल रही है लेकिन स्वयं खेल मंत्री ने संसद में स्वीकार किया कि अधिकतर स्टेडियमों में अभी आधा काम ही हो पाया है। वैसे खेल मंत्रालय के अनुसार इस काम में ही लगभग 1493 करोड़ रुपये खर्च हो गए हैं। यही नहीं जब इन स्टेडियमों का निर्माण कार्य शुरू हुआ था तो इसके लिए 3792 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे लेकिन अब यह खर्च बढ़कर 4644 करोड़ हो गया है यानि अब अनुमानित लागत में 852 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हो गई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार दिल्ली विकास प्राधिकरण के साथ मिलकर बनाए जा रहे खेल गांव पर अनुमान से करीब दो गुणा ज्यादा खर्च होने उम्मीद है। खेल गांव बनाने के लिए 325 करोड़ का अनुमान लगा कर धन आवंटित किया गया था जिसमें से 276 करोड़ रुपये खर्च किया जा चुका है और इस पर 1034 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है यानि अनुमान से 709 करोड़ रुपये ज्यादा खर्च होगा। खेल गांव में राश्त्रमंडलखेलों में भाग लेने लिए आने वाले करीब 70 देशों के पांच हजार से ज्यादा खिलाड़ी और अधिकारी ठहरेंगे। खेलों कआयोजन के बाद इन फ्लैट को बेच दिया जाएगा। इस आवासीय स्थल का एक छोटा और अत्याधुनिक फ्लैट भी एक करोड़ रुपये से भी ज्यादा की कीमत का होगा। खेल गांव के अलावा अनुमान से ज्यादा खर्च होने वाले स्टेडियमों में दिल्ली विश्वविद्यालय पर बनाए जाने वाले प्रतियोगिता और ट्रेनिंग सेंटर पर 222 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का अनुमान था जिसमें अभी केवल 97 करोड़ ही खर्च हुआ है और अब इस पर 306 करोड़ खर्च होने अनुमान लगाया जा रहा है। इसी तरह टेनिस के लिए आरके खन्ना स्टेडियम पर 30 करोड़ खर्च होने का अनुमान था और जो अब बढ़कर 66 करोड़ रुपये पहुंच गया है। गुडग़ांव के खादरपुर शूटिंग रेंज पर 15 करोड़ खर्च अनुमान लगाया गया था जबकि अब पांच करोड़ खर्च हुआ है और 29 करोड़ रुपये खर्च होने का अंदाजा है।
सच तो यह भी है कि कॉमनवेल्थ गेम्स सर पर हैं। हमारी, आपकी, सबकी आ?र उससे भी ज्यादा देश की इज्जत दांव पर लगी है। पर हालात ऐसे हैं कि बारात घर से निकल चुकी है और हम अभी जनवासे (बारातियों के ठहरने की जगह)का इंतजाम ही नहीं कर पाये हैं। दुनियाभर को न्यौता जा चुका है और मेहमानों ने आने की हामी भी भर दी है। लेकिन उन्हें सुलाएंगे कहां....! फुटपाथ पर? जी हां, कॉमनवेल्थ गेम्स में आने वाले मेहमानों को जितने कमरे चाहिए उसके एक चौथाई कमरों का ही हम अभी तक इंतजाम कर पाये हैं। दिल्ली में दो से लेकर चार सितारा होटलों का निर्माण कार्य कछुआ चाल से चल रहा है। जुम्मा-जुम्मा आठ दिन। अगले साल अक्टूबर में दिल्ली में राष्ट्रकुल खेल होने हैं। सरकार इस आयोजन के लिए होने वाले खर्च 700 करोड़ रूपये को बढ़कर 1780 करोड़ और अब 8000 करोड़ रूपये कर चुकी है। और भी बढ़ा सकता है खर्च। लेकिन अफसरों की ढीलमढाल देश की नाक कटाने की भयावह आशंका पैदा कर रही है। खौफजदा तो अब ये जिम्मेदार अफसर भी हैं। लेकिन उपर से 'हो जाएगा, हो जाएगाÓ की रट लगाये हुए हैं। कहीं इस 'हो जायेगाÓ के चक्कर में गुणवत्ता से समझौता तो नहीं हो जाएगा! इसकी चिंता फिलहाल किसी को नहीं है। मेहमानों को ठहराने की अब जरा इनकी प्लानिंग भी सुन लें। कुल 40 हजार कमरों की जरूरत है। ये कहते हैं दस हजार मौजूद हैं। बाकी बचे 30 हजार। इनका इंतजाम कुछ इस तरीके से होगा। 11 हजार मकान एनसीआर में उपलब्ध हो जाएंगे। अब बचे 19 हजार। इनका कहना है कि डीडीए के वसंतकुंज और जसोला के एचआईजी/ एमआईजी और एलआई फ्लैटों के 5500 कमरों को तीन सितारा श्रेणी में तब्दील कर देंगे। फिर भी 13500 कमरों की और आवश्यकता होगी। तब सरकार की नजर दिल्ली में चल रहे दोयम दर्जे के गेस्ट हाउसों के 11000 कमरों पर है। सरकार की योजना यह भी है कि बेड एंड ब्रेक फास्ट स्कीम के तहत तीन हजार कमरे उपलब्ध हो जाएंगे। लेकिन यह सब योजना ही है। सच्चाई यह है कि अभी तक वास्तव में दस हजार कमरे ही उपलब्ध हैं। बाकी की योजना पर अमल हो पाता है या नहीं। इस पर सवालिया निशान है। अगले साल अक्टूबर में होने वाले राष्ट्रकुल खेलों के आयोजन पर पूरे देश की इज्जत दांव पर लगी है। राष्ट्रकुल खेलों का सफल आयोजन न केवल दुनिया भर की निगाह में हमारी इज्जत और बढ़ाएगा बल्कि आ?लंपिक खेलों की मेजबानी के लिए हमारा दावा भी पुख्ता करेगा। लेकिन तैयारियों पर निगाह डालें तो दिल बैठने लगता है। खेल स्थल और स्टेडियमों का निर्माण कार्य अपने लक्ष्य से पीछे चल रहा हैं। खेल स्थलों का निर्माण कार्य पूरा करने के लिए केंद्र सरकार जी तोड़ कोशिश कर भी रही है। लेकिन बात अटक रही है उन होटलों के निर्माण कार्य पर जो विदेशी मेहमानों के ठहराने के लिए बन रहे हैं। होटल बनाने की जिम्मेदारी निजी कंपनियों पर थी। लेकिन किफायती दर पर जमीन मिलने का मौका देखते हुए होटल मालिकों ने जमीन तो हथिया ली लेकिन जब उन्होंने नफा-नुकसान का हिसाब लगाया तो उन्हें केवल कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए होटल बनाना नुकसान का सौदा लगा। इसलिए कुछ ने तो कछुवा चाल से ही सही लेकिन निर्माण कार्य शुरू कर दिया है तो दूसरे यह सोचने में ही व्यस्त हैं कि निर्माण कार्य शुरू भी करना है। इस संवाददाता ने स्वयं दर्जन भर होटल निर्माण स्थलों का दौरा किया। कुछेक को छोड़कर लगभग सबकी स्थिति ऐसी है कि वे अगले 13 महीनों में सितारा होटल नहीं बना सकते। उनके होटल बनेंगे जरूर लेकिन तब किसी और प्रायोजन के लिए। कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान दिल्ली में एक लाख अतिरिक्त लोगों के आने संभावना है। इस हिसाब से पर्यटन मंत्रालय ने अंदाजा लगाया है कि दिल्ली में 40 हजार अतिरिक्त कमरों की आवश्यकता होगी। इन कमरों को उपलब्ध कराने के लिए 33 दो, तीन और चार स्टार होटल बनाने के लिए निविदाएं आमंत्रित की गयी थी। तब कम दाम में जमीन मिलने और पांच साल तक टैक्स में छूट मिलने के लालच में इन होटल मालिकों ने जमीन ले ली। लेकिन 33 में से केवल 10 ही होटल खेलों के आयोजन तक बन कर तैयार होंगे। बाकी 23 की प्रगति चिंताजनक है। किसी ने पांच प्रतिशत काम किया है तो किसी ने 10 प्रतिशत। कोई तो अभी नींव ही खोद रहा है। खेलगांव के निकट पूर्वी दिल्ली इलाके में बनने वाले ज्यादातर निर्माणाधीन होटलों का मुआयना करके बाद तो यही सच्चाई सामने आयी है। मयूर विहार फेज-1 में चार होटलों का निर्माण हो रहा है। इनमें एक होटल के निर्माण की दशा यह है कि उसकी अभी नींव ही खोदी जा रही है, जबकि अन्य कुछ में होटलों का ढांचा तैयार हो रहा है तो कुछ में ईंट ढांचों के बीच-बीच में दीवारों की चुनाई हो रही है। कमोवेश यही दशा अन्य निर्माणाधीन होटलों की है, जो चाहे कोंडली घड़ौली, मंडावली फाजलपुर, विवेक विहार में बन रहे हैं अथवा अन्य इलाकों में। कुल मिलाकर यह नहीं कहा जा सकता है कि कंक्रीट के ढांचों और ईंट की दीवारों के सरीखे खड़े आधे-अधूरे निर्माण समय से अपनी मंजिल को पा सकेंगे। भवन निर्माण कार्र्यों से जुड़े लोगों का कहना है कि कम से कम समय में भी ढांचे (स्ट्रक्चर) को ही तैयार होने में डेढ़ साल से अधिक का समय लगता है। इसके बाद कम से कम एक साल का समय उनके फिनिशिंग के लिए चाहिए। और स्थिति यह है कि अभी तमाम होटलों का ढांचा ही पूरी तरह से पूर्ण नहीं हुआ है, तो उन्हें फिनिश करने के लिए कब समय मिलेगा। इस तरह से यह कहना ज्यादा मुनासिब लगता है कि राष्ट्रकुल खेल के आयोजन से पहले ये होटल नहीं तैयार हो पाएंगे। हालांकि इस संबंध में डीडीए के एक आला अधिकारी का कहना है कि सभी होटल भले ही न तैयार हो पाएं, लेकिन इनमें करीब दो दर्जन होटल जरूर तैयार हो जाएंगे। सबसे खास बात यह है कि डीडीए ने होटल व्यवसायियों को भूखंड तो दिया है, लेकिन उनकी निर्माण की निगरानी कौन कर रहा है यह जानकारी किसी को नहीं है। केवल राष्ट्रकुल खेल के आयोजनों को लेकर होने वाली बैठकों में इन होटलों की मौजूदा स्थिति रिपोर्ट दे दी जाती है और तब उनके निर्माण न होने की दशा में उसके विकल्पों पर विचार होने लगता है। इस संवादाता ने होटल एसोसिएशन और डीडीए से संपर्क साधा लेकिन दोनों ही रिकार्ड पर नहीं आना चाहते। लेकिन आफ द रिकार्ड स्वीकार करते हैं कि होटलों का निर्माण समय होने की संभावना कम दिखती है।
दरअसल, शुरूआत में कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के लिए सिर्र्फ 700 करोड़ रूपए का बजट निर्धारित किया गया था। देरी होती गई, बजट बढ़ता गया। एक साल पहले की चिंता थी कि खर्चा होगा 1780 करोड़ और इंतजाम सिर्फ 212 करोड़ का हुआ है लेकिन जैसे जैसे देरी होती गई सरकारी खजाने का मुंह खुलता गया। खुले खर्च का अंदाजा सिर्फ इसी से लगाया जा सकता है कि सरकार ने 100 करोड़ रूपए तो सिर्फ आ?पनिंग व क्लोजिंग समारोह के लिए निकालकर अलग रख दिए हैं और कहा कि कम पड़े तो और ले लेना। विलंब के कारण कदाचित खर्चों और निश्चित अवधि में काम पूरा होने के दबाव के चलते ही मौजूदा बजट में 3472 करोड़ का और आवंटन किया गया है। कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन को लेकर भले ही पूरे देश की इज्जत दांव पर लगी हो और दिन ब दिन सरकार की चिंता बढ़ रही हों लेकिन लालफीताशाही और अफसरों की लापरवाही में फिलहाल कोई कमी नहीं आई है। सरकार की सबसे बड़ी चिंता निर्माण कार्यों की गुणवत्ता को लेकर है। जानकारों के मुताबिक डर इस बात का है कि जल्दबाजी में अफसरशाही निर्माण इत्यादि में वो सब न कर बैठे जिसकी कि वह अभ्यस्त है। इसीलिए देश की इज्जत की खातिर खुले खर्च की रणनीति अपनाई गई है। मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की कहावत की जगह यहां खर्च बढ़ता गया ज्यों ज्यों देरी का फार्मूला लागू हो गया दीखता है। अफसरों को यह फार्मूला रास आ रहा है और यह बात सरकार की समझ में आ रही है। खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी पहले दावा करते थे कि हम न खेल पर आने वाला खर्च जुटा लेंगे बल्कि बचत भी करेंगे। लेकिन दावों का दम निकलते देख अब कमाई की बात भुलाई जा चुकी है। वर्ष 2003 में जब भारत ने जमैका के खाड़ी शहर मोंटीगो बे में कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजमानी के लिए दावा ठोका था तो 72 राष्ट्रकुल देशों ने कनाडा के हेमिल्टन के मुकाबले नयी दिल्ली को 22 के मुकाबले 46 वोट से तरजीह दी थी थी। उस वक्त दावेदारी में हिस्सा लेने आए तमाम खेल प्रेमियों ने तालियों की गड़ागड़ाहट से भारत को मेजबानी मिलने का जोरदार स्वागत किया था। उन्हें उम्मीद थी कि भारत जैसा देश यह आयोजन बखूबी निभा सकता है, लेकिन करीब साढ़े चार साल से ज्यादा समय बीतने के बाद आज जब हम खेल आयोजन की तिथि के मुहाने पर खड़े हैं, तब न केवल पूरा देश बल्कि राष्ट्रकुल देशों के चेहरों पर भी चिंता की लकीरें खिंच रही है कि नयी दिल्ली अभी तक खेलों के लिए तैयार क्यों नहीं है। वर्ष 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इन खेलों की मेजबानी मिलने पर खुशी जाहिर करते हुए घोषणा की थी कि खेलों के आयोजन में कोई कमी नहीं रखी जाएगी। सरकार इसके लिए धन की कमी महसूस नहीं होने देगी। खेल आयोजन की शुरूआती तैयारी के लिए सरकार ने 700 करोड़ रूपये का बजट तय किया था, लेकिन लालफीताशाही, लापरवाही और खेलों की नकारात्मक राजनीति के कारण पहले तो काम के अवार्ड में देरी हुई और फिर स्थानीय निकायों और दूसरे विभागों की तरफ से क्लीयरेंस मिलने में देरी हुई। जब सभी विभागों से एनआ?सी मिली तो ठेकेदार आसानी से नहीं मिले, मिले तो उन्होंने काम शुरू करने में देरी की और आज यह हालत हो गई है कि 700 करोड़ रूपये का बजट बढ़कर 8000 करोड़ तक पहुंच गया है और एक अनुमान के अनुसार इसमें अभी एक हजार करोड़ रूपए और बढ़ेंगे। बजट में साल दर साल लगातार बढ़ोत्तरी होने के बावजूद आयोजकों ने धन हाथ में आने के बाद भी खर्च करने में हाथ नहीं खोला। यदि हाथ खोला होता तो निर्माण कार्य विलंब से शुरू होने के बाद भी अपने नियत समय पर पूरे हो चुके होते। उदाहरण के लिए जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम के पुनर्निमाण के लिए 961 करोड़ रूपए मंजूर किए गए थे जबकि अभी केवल 346 करोड़ रूपए ही खर्च किए गए हैं। मेजर ध्यानचंद स्टेडियम पर 262 करोड़ रूपए खर्च होने हैं। लेकिन अभी 104 करोड़ ही खर्च हुए हैं। इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम के लिए 669 करोड़ मंजूर हैं जबकि अभी खर्च हुए हैं सिर्फ 224 करोड़। डा। श्यामा प्रसाद मुखर्जी जल क्रीड़ा स्थल पर 377 करोड़ रूपए खर्च होने हैं लेकिन खर्च हुए हैं 112 करोड़। डा. कर्णी सिंह स्टेडियम पर 149 करोड़ रूपए खर्च होने हैं और अभी खर्च हुए हैं 48 करोड़ रूपए। दिल्ली विश्वविघालय के मुख्य ग्राउंड पर 222 करोड़ रूपए खर्च होने हैं लेकिन अभी इसमें से केवल 97 करोड़ रूपए खर्च किए गए हैं। दिल्ली सरकार के लिए 417 करोड़ मंजूर किए गए हैं, जिसमें से केवल 179 करोड़ ही खर्च हुए है। दिल्ली सरकार को यह राशि केवल खेल स्थलों का विकास करने के लिए दी गई है। (इसमें ढांचागत विकास शामिल नहीं है।) एनडीएमसी का बजट भी 330 करोड़ रूपए का है लेकिन वह मात्र 76 करोड़ रूपए खर्च कर पाया है। अब देखना यह है कि अफसर अब भी काहिली छोड़ते हैं या देश को शर्मनाक स्थिति में पहुंचाते हैं।

रविवार, 20 दिसंबर 2009

समर्पण, समग्र समर्पण

आज मैं वो करने जा रहा हँू, जो काफी पहले करना चाहिए। मन में कोई बात दबी रह जाए तो अच्छा नहीं होता। आज मैं अपनी भावनाओं को कोरे का$गज़ पर उकेरने जा रहा हूॅँ, जिसको मैंने भोगा, महसूस किया और जिया और जिसकी पे्ररणा भी तुम ही रही हो। तो शुरुआत कर दी जाए न ... शायद तुम सामने होतीं तब भी मुझे मना नहीं करतीं, आखिर इतना विश्वास तो तुम पर आज भी है। चाहे आज तुम किसी और की हो गई हो... क्या हुआ अगर मुझे मनचाहा मुकाम नहीं मिल पाया, इस बात की खुशी और भी ज्य़ादा है कि तुम्हारी मुराद पूरी हो गई।
मुझे आज भी याद है, वो पहला दिन जब तुम मेरे पास आई थीं। हाथों में खनकती चूडिय़ाँ, माथे पर बड़ी-सी बिंदी, कानों में इठलाती झुमकियाँ और होठों पर आया हुआ हल्का-सा तब्बसुम। मेरे आस-पास का हर कण तो उस समय इनके मिति प्रभाव से जैसे खिल ही उठा था। मैं नहीं जानता था वो एक पल मेरे मानसपटल पर इतनी गहरी छाप छोड़ जाएगा। न जाने कितनी ही युवतियों और महिलाओं से रोज़ वास्ता पड़ता था, सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक दर्जनों से मुलाकात होती और कुछेक-से हंसी-ठिठोली भी। लेकिन तुममें न जाने क्या बात थी? आज भी नहीं समझ पा रहा हूं कि किस तरह तुमसे एक पल की मुलाकात काफिला बनकर मेरे वजूद से जुड़ गया। तुम्हारा अस्तित्व मुझसे, मेरे जीवन से, मेरे हर पल से, मेरे होने न होने से, हर एक वस्तु से जो मुझसे जुड़ी है, इस तरह से जुड़ जाएगा कि मुझे उसमें स्वयं को ढूढने में उम्र निकल जाएगी। मैं आज भी तुम्हारी एक झलक को अपनी आँखों में बसाकर पूरा दिन गुज़ार लेता हॅंू, अपनी रातों को समझाता हंू और सुबह तुम्हारे दीदार क ा इंतज़ार करता रहता हंू। यदि इस तरह भी उम्र गुज़र जाए तब भी रंज न होगा। तुम तो जानती हो कि इतने पर भी कभी तुम्हें स्पर्श करने क ो मन लालायित न हुआ। आज भी लगता है कि तुम्हेंं छू लूूंगा तो सारा सपना टूट जाएगा। क्या हुआ मैं तुम्हारे अपने सपनों मेंं नहीं आता, आजादी के वल इतनी चाहिए कि मैं जब चाहूं तुम्हें सपने में बुला सकूं। और इस पर केवल और के वल मेरा अधिकार है।
मुझे इससे कोई वास्ता नहीं कि आज तुम मेरे बारेे में क्या सोचती हो तथा अन्य लोग क्या सोचते और बोलते हैं। मैं यह भी नहीं जानता कि तुम मुझे कितना जान पाई। मैं तुमसे कुछ नहीं मांगता। प्रेम कुछ पाने क ा नाम नहीं, मेरे लिए पे्रम का अर्थ है समर्पण। ओशो ने भी कहा है - प्रेम: एक ही मंत्र है समर्पण, समग्र समर्पण। जरा-सी भी बचाया खुद को कि खोया सबकुछ। बस, खो दो ख़्ाुद को। पूरा का पूरा, बिना शर्त। और फिर, पा लोगे वह सबकुछ, जिसे पाये बिना जीवन एक लंबी मृत्यु के अलावा और कुछ भी नहीं है। और समझकर करने के लिए मत रूके रहना क्योंकि किए बिना समझने का क ोई उपाय नहीं है।
आज मैं तुमसे बिना कुछ मांगे अपना सब कुछ समर्पित करता हूं। वैसे भी मेरे पास स्वयं का कुछ बचा ही क्या है? जो कुछ भी है उस पर अब केवल तुम्हारा हक है, सो तुम्हें अर्पित कर रहा हूँ। मन में कोई दुराव मत रखना। तुम को तुम्हारा ही सब कु छ दे रहा हंू। जीवन में जितने पल शेष हंै, उनमें तुम्हें महसूस करता रहूंगा, कोई हर्ज तो नहीं...
तुम ही कहा करती थी, हम चाहे कितने भी मॉडर्न हो जाएं लेकिन हमारा मांजी हमेशा अपनी ओर खींंचता है। शायद यही वजह है कि तमाम मॉउर्न हिट हॉप इंस्ट्रूमेंट से सजे गानों पर हमारा जिस्म चाहे कितना ही थिरक ले, पर मन थिरकता है आज भी पुराने सिनेमाई गीतों की धुन पर। इसी के चलते हर दूसरे दिन नए रिमिक्स एलबम बाजार मे आ रहे हैं, यानी पुरानी मिठाई नई चाशनीके तड़के के संग। तुम्हारा यही अंदाज संभवत: मुझे भा गया और मैं आज तक तुम्हारे इंतजार में हॅंू, उसी जगह आज भी तुमको ताक रहा हूं, जहां हम दोनों पहली बार एकनजर हुए थे। अधिकतर लोगों का मानना है कि फनकार को किसी खास मौजूं की जरूरत नहीं होती, वह अपने आस-पास की चीजों से ही तरगीब हासिल कर लेता हैै। हम दोनों ही जिस फन में थे, उसकी नियति भी तो यही थी। तभी तो खूब से खूबतर की तलाश में हम सरगर्दा रहते थे। नहीं तो क्या ज़रूरत है लोगों को महानगर की सड़कों की धूल और गलियों की खाक छानने की?
अनुकूल वस्तु अथवा विषम को प्राप्त करने की ललक मानव का जन्मजात स्वभाव है। यह ललक सामान्यत: दो प्रकार की होती है, प्रत्येक वस्तु के प्रति तथा किसी विशेष वस्तु के प्रति। इनको क्रमश: लोभ और प्रेम कह सकते हैं। लोभ में वस्तु की मात्रा को प्राप्त करने की ललक होती है और प्रेम में वस्तु की विशेषता के प्रति ललक होती है। प्रेम अपनी इष्ट वस्तु के लिए अन्य वस्तु का त्याग करता है और केवल उसी को प्राप्त करने की इच्छा रखता है तथा लोभी प्रत्येक वस्तु को प्राप्त करना चाहता है। मैं आजतक अपनी उस $गलती को नहीं भूला, जिसका परिमार्जन तुमने किया था। और कहा था - अपनी $गलतियों को पूरी विनम्रता के साथ स्वीकार करना चाहिए , तब आप कभी $गलत नहीं रह जायेंगे। गलतियां ही सबसे अच्छा गुरुहोती है। इसलिए हर उस $गलती से सबक लें, जिससे आपको दु:ख पहुंचा हो। यह जानने की कोशिश करें कि फलां समय में उस दु:ख का कारण क्या था। इस बात की पूरी संभावना है कि वह ज़रूर कोई छोटी-सी बात ही होगी।
जिस प्रकार से हम मिले थे और हमारा लगाव एक-दूसरे के प्रति हुआ था, उसक ो सामाजिकता के आधार पर प्रेम की संज्ञा दी जा सकती थी। लेकिन हमने नहीं दी... आखिर क्यों? इसमें तुम्हारी $गलती रही या मेरी? प्रेम शब्द से यौवनोचित्त यौन-चित्र जिनके मन में उदय पाता हो, उनसे मुझे कुछ नहीं कहना है। मेरे निकट प्रेम उस परस्पराकर्षक तत्व के लिए सगुण संज्ञा है, जिस पर चराचर समस्त सृष्टि टिकी है। निर्गुण भाषा में उसी को ईश-तत्व कहा जा सकता हैै। जीवन के यौवन काल में जिस काम और कामना का प्राबल्य देखा जाता है, वह अभिव्यक्ति में वैयक्तिक है। 'प्रेेमी-प्रेमिकाÓ शब्दों के उपयोग में खतरा है कि हम व्यक्तिगत संदर्भ में सिमट आते हैं। पर जो महाशक्ति तमाम जगत और जीवन के व्यापार को चला रही है, उसके सही इंगित के लिए हमारे पास एक संवेद्य संज्ञा तो यही है - प्रेेम। इसे राधा-कृष्ण का प्रेम कह सकते हैं, जिसे केंद्र में रखकर ही भक्ति-युग का सारा ताना-बाना बुना गया।
तुम भी तो कहा करती थीं कि आज के आधुनिक युग में प्रेम का अर्थ अमूमन काम-वासना से लगाया जाता है। प्रेम के नाम पर युवक-युवतियां वासना का गंदा खेल खेलते हैें और प्रेम जैसे सात्विक तत्व को बदनाम करने की कोशिश करते हैं। यदि प्रेम से तात्पर्य वासना से होता और प्रेमिका से पत्नी का तो भारतीय संस्कृति में राधा-कृष्ण का अमर प्रेम नहीं होता। त्रेता में लीलाधर कृष्ण ने राधा के संग प्रेम करके प्रेम को महिमामंडित किया और जनता के सामने एक मॉडल प्रस्तुत किया। यह जरूरी नहीं कि जिससे हम प्रेम करते हैं वहीं पति अथवा पत्नी बने। कृष्ण ने राधा के संग प्रेम किया और विवाह रुकमिणी के संग। प्रेम न जात-पात देखता है और न ही संबंध। वह तो बस प्रेम की मंदाकिनी में बह जाना जानता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब कृष्ण ने राधा से प्रेम किया तो राधा किसी की ब्याहता थी, लेकिन उन्होंने प्रेम को कलंकित नहीं होने दिया। विवाह कितना भी प्रेम-विवाह हो, पत्नी यथार्थ पर आकर निरी स्त्री हो आती हैै। उसी तरह पुरुष पति होने पर देवरूप से नीचे आता है और मनुष्य बनता है। प्रेम की ही खूबी है कि वह सामान्यत: से उठाकर उसे सुंदरता, दिव्यता आदि से मण्डित कर जाता है। इस गुण को प्रेम से छीलकर अलग नहीं किया जा सकता हैै। इसी की प्रगाढ़ता की महिमा है कि भक्ति और भगवना की सृष्टि हो आती है। जो लोग औरत शब्द पर ही टिके रहना चाहते हैैं और देवी अथवा अप्सरा को निष्कासन दिये रहना चाहते हैं, वे अपनी जानें। मेरेे विचार में वह संभव नहीं हैै, इïष्ट तो है ही नहीं। कोई विज्ञान या यथार्थ या वैराग्य का वाद प्राणी को परस्पर रोमांचित हो आने की क्षमता से विहीन नहीं बना सकेगा। कठिनाई बनती है, बीच में दैहिकता के आने से। मुख्य बाधा का कारण यह है कि हमने विवाह-संस्था को भोग-आधिपत्य की धारणा पर खड़ा किया है, इसलिए विवाह को सदा ही प्रेम की खरोंच में आना पड़ता हैै। प्रेम-विवाहों को तो और भी अधिक।
आज मुझे अपार खुशी है कि हमने विवाह जैसी संस्था में बंधने के बजाय उन्मुक्त जीवन जीने की सोची। हो सकता हैै तुम इसे मेरी भीरुता क हो, क्योंकि कुुछ लोग कहते हैं कि मनुष्य को शादी करनी चाहिए, अपना पेट तो कुत्ता भी पाल लेता है और अपनी वासना की पूत्तर््िा कर लेता हैै। लेकिन इतिहास के कई प्रसंग ऐसे हैं, जहां हमारे महानायकों ने विवाह नामक संस्था को स्वीकार नहीं किया, तो क्या मैं उनकी राह का अनुसरण नहीं कर सकता? जब कभी मुझे विचार आता है कि मेरे आज यहां होने के कारणों में से एक कारण यह भी हो सकता हैै- यह अविश्वास की प्रतिक्रिया। उस दिन के बाद सोते-जागते, चैतन्य में और सुषुप्ति में, संग्राम और पलायन में, जितनी अधिक बार अविश्वास के उस भयंकर आकस्मिक ज्ञान का चित्र मेरे सामने आया हैै, उतनी बार कोई अन्य चित्र नहीं आया। ऐसा नहीं है कि मैं सदा आनंदित रहता हॅॅंू। जीवन की पुरवा-पछुवा मुझे भी भिंडझोड कर रख देती हैै और यहंा की शीतलहर का अंदाजा तो तुमको है ही... कभी-कभी मैं पीड़ा से इतना घिर जाता हूँ कि आनंद मेरा अपिरिचित हो जाता हैै। लेकिन कल्पना की ऑंखों से जब अंधियारे आकाश के पेट पर दो उलझे हुए शरीरों का चित्र देखता हॅॅंू, तब मेरे अंतरतम में भी कोई शब्दहीन स्वर मानो चौंककर अपने आपको पा लेता हैै।
आज जब तुमको पत्र लिख रहा हँू तो पुराने दिनों की कुछ घटनाएं बेतरतीब आंखों के सामने आ रही है और मुझे हंसी आती हँ। तुमसे दो-चार बातें क्या कर लेता, अपने को तीसमारखां समझता। और कभी मन ही मन खुश होता कि शायद प्रेम हो गया है। तुम पर अपना अधिकार भी समझता, तभी तो कई बातें तुमको कह देता। तुम किसी $गैर से बात करती तो मन मेें खुंदक होती, क्योंकि तुम्हें अपना जो मानता था... आज समझ रहा हूं कि बहुत सारे लोगों की प्यार में यही हालत हो जाती है। मेरा प्यारके वल मेरा है, किसी से उसने हंसकर बात कर ली तो बस कयामत ही आएगी... जब किसी से प्यार हो जाता है तो यह स्वभाविक है कि एक-दूसरे के ऊपर अधिकार जमाया जाता है। परंतु यह अधिकार एक सीमा में रहे तभी अच्छा लगता है। यदि यह प्यार और यह अधिकार किसी की स्वतंत्रता पर रोक लगाता है तो समझिए कि गïïड्डी विच हिंड्रेस। मनोवैज्ञानिकों का भी मानना है कि रिश्तों को बनाए रखने हेतु स्वतंत्रता और अधिकार भावना का एक अच्छा संतुलन जरूरी होता हैै। जैसे ही यह संतुलन बिगड़ता हैै रिश्ते भी टूट जाते हैं। वैसे पजेसिवनेस हमेशा रिश्ते नहीं तोड़ती, जोड़ती भी हैै। पजेसिवनेस की भावना एक तरह से किसी के प्रति हमारे अटेंशन को व्यक्त करती हैै एवं प्रत्येक व्यक्ति को अटेंशन की जरूरत होती हैै। बस, हमें यह पहचानना आना चाहिए कि दूसरे व्यक्ति को किस समय अटेंशन की ज़रूरत है। यदि हम प्यार के रिश्ते की विशेष तौर पर बात करें तो इसमें पजेसिवनेस होना स्वभाविक हैै क्योंकि यह वह रिश्ता होता है, जिसमें व्यक्ति उम्मीद करता हैै कि सामने वाला केवल उसका होकर रहे। क्यों सही है न?
लेकिन हम भूल गए कि रिश्ता प्यार को हो अथवा कोई दूसरा, मुट्ïठी में बंद रेत की तरह होता है। रेत को यदि खुले हाथों से हल्के से पकड़े तो वह हाथ में रहती हैै। जोर से मुट्ïठी बंद करके पकडऩे की कोशिश की जाए तो वह फिसलकर निकल जाती हैै। आज की तारीख में यही हाल मेरा है है, सो मैं भी कोरे का$गज़ को काली रोशनाई से स्याह करता जा रहा हूँ और अपनी भावनाओं को चस्पा करने की कवायद कर रहे हैैं। तो क्या यह कवायद की जाए... तुम्हीं बताओ? यह सिलसिला जारी रखूं कि इसे भी अल्पविराम के बाद पूर्णविराम तक जाने दँू?

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

मील का पत्थर

पनपा भी मैं तो रेगिस्तान में
बालुओं की ठहरी जिंदगी ने
मेरी सीमाएँ बांध दी है
एक माली है, जो चाहता है
मैं बढ़ँू, फूलूँ और फ लूँ
और काट देता है
जीवन की चाह लिए
मेरे कपोल शाखाओं को
जिनकी थी तमन्ना कि
वे विकसित होकर
अपना जहाँ बनाए
बाधाओं से लड़कर
रेगिस्तान में फूल खिलाएं
लेकिन, शायद मेरा माली डरता है
कहीं सत्य ही में बालूखण्ड पर
कल्पतरू बन न उभर जाऊँ
इसलिए उसने मेरे चारों ओर
फैला दिया है अपने बरगदी साए को
और ठँूट कर दिया है मेरे व्यक्तित्व को
दिया है तोहफा हमें
अपनेपन के नागफनी फूल का
आज ठूँठ होकर रह गया हँू में
यही सत्य है।
मैं ठूँठ हँू, लेकिन स्पन्दहीन नहीं
अभी तक धड़कने,
मेरे अस्तित्व को
कंपायमान किए हुए हैं
सूखने नहीं दे रही है
मेरी जीर्ण-शीर्ण पड़ी काया को
फिर मुझे है तलाश
ऐसे बहार की जो
मेरे कुण्ठित शिराओं को सहलाए
कराए एहसास, मैं ठूँठ नहीं हँू
ऐसे सींचे मुझे कि
जीवन में हरियाणा बिखेर सकूँ
और मृगतृष्णा से दूर
ठहरी हुई जिंदगी के लिए
मील का पत्थर बन सकूँ।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

जब चाहे लाओ प्रलय

पुरातन काल में 'तंत्रÓ और वर्तमान में 'विज्ञानÓ मनुष्य को यह शक्ति दे देता है कि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरों को तबाह कर सकता है। बेशक, यह अमानवीय हो, प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप हो। बावजूद इसके, ऐसे कार्य किए जा रहे हैं। 'कृत्रिम वर्षाÓ आधुनिक समय का ऐसा ही अस्त्र है, जिसके सहारे जब चाहे प्रलय ला सकते हैं। जबकि इसका खोज मानवीय सहायता के लिए की गई थी।
द्वितीय विश्वयुद्घ के कुछ समय बाद एक अमेरिकी वैज्ञानिक डॉक्टर फैंक ने 16 नवम्बर, 1946 ईसवी को अमेरिकी रसायनशास्त्री लांग सेर की सहायता से संसार में पहली बार कृत्रिम वर्ष कराने में सफलता हासिल की। वायु में कारबोनिक गैस के तत्व छोड़कर कृत्रिम वर्षा कराने की यह अप्रतिम घटना थी। चूंकि, यह प्रक्रिया काफी खर्चीली थी जिसके कारण जरूरतमंद शुष्क क्षेत्रों में यह प्रचलन में नहीं आ पाया। हां, विकसित देश लगातार इस प्रक्रिया पर काम करते रहे और अपने सुविधा के संग इसमें अधिक सफलता प्राप्त करते गए। अब तो आलम यह है कि कुछ देश दूसरे देशों में जल के माध्यम से प्रलय लाने की जुगत में भी कृत्रिम वर्षा का सहायता लेने की योजना पर काम कर रहे हैं। एक ओर 'ग्लोबल वार्मिंगÓ से पूरा विश्व त्रस्त है, वहीं दूसरी ओर भारत के पड़ोसी देश चीन लगातार कृत्रिम वर्षा जिसे 'क्लाउड सीडींगÓ कहा जाता है, पर कार्य कर रहा है। हैरत तो यह कि वह सूखे से छुटकारा पाने के लिए नहीं बल्कि 'दूसरोंÓ को तबाह करने के लिए यह कार्य कर रहा है। कहा जा रहा है कि चीन ने कई बार लद्दाख से सटे सीमावर्ती इलाकों में इसका परीक्षण भी किया है। जानकार मानते हैं कि यदि इसी प्रकार चीन की नियत रही तो भारत में वह कभी भी प्रलय ला सकता है। वैसे भी हर वर्ष भारत में बाढ़ भारी तबाही मचाती है, और यदि उस पर चीन क्लाउड सीडिंग करता है, तो खुदा ही खैर करें? काबिलेगौर है कि परमाणु अप्रसार संधि की तरह क्लाउड सीडिंग को लेकर भी कई विकसित देशों ने इसके अनाधिकार प्रयोग को लेकर एक संधि कर रखी है। मगर, चीन ने इस संधि को मानना जरूरी नहीं समझा और न ही संधि करने वाले देश उसे बाध्य कर सके। वैसे हालात में चीन की मंशा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
कुछ समय पूर्व भारत में भी क्लाउड सीडिंग को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ था। बुंदेलखण्ड सरीखे सूखाग्रस्त क्षेत्र इसकी जद में लाने की बात हो रही थी तो महानगर मुंबई में भी इसके प्रयोग की बात की जाने लगी थी। कई खबरिया चैनलों में तो चीख-चीख कर एकतरफा 'क्लाउड सीडींगÓ के पक्ष में बातें की जा रही थी। बिना इसके दूसरे पहलू को जाने। संभवत: तस्वीर के दूसरे पहलू को देखने को कोई तैयार नहीं है। इस संबंध में कई मौसम विज्ञानियों का कहना है कि यह तकनीक तो पूरी दुनिया में अपनायी जा रही है। इस बात की बहुत सम्भावना है कि इस प्रक्रिया से वर्षा होगी। पर इस वर्षा की कीमत किसी न किसी को चुकानी ही पड़ेगी। कहीं आस-पास पड़ रहा सूखा और तीव्र हो जायेगा। फिर सिल्वर आयोडाइड के प्रयोग से भी पर्यावरण विशेषकर वनस्पतियों पर असर पड़ेगा। सच तो यह भी है कि कृत्रिम वर्षा की बात और प्रक्रिया उतना सीधा-सीधा नहीं है। दुनिया के बहुत से देशों में इस पर प्रतिबन्ध भी लगता रहा है। वैज्ञानिक दस्तावेज बताते हैं कि थाईलैंड में इस तकनीक के लम्बे समय तक प्रयोग ने सूखे की बुरी स्थिति को जन्म दिया है। तकनीकी विषय होने के कारण मीडिया में इसके नकारात्मक पहलुओ के विषय में कम ही कहा जाता है। यह देशी नहीं बल्कि विदेशी मीडिया के साथ भी समस्या है। सच्चाई तो यह भी है कि 'क्लाउड सीडींगÓ के लिये कोई सरकार करोड़ो - अरबों रुपए पानी की तरह बहायेगी, इस बात की परवाह किये बिना कि यह तकनीक असफल भी हो सकती है। विदर्भ में ऐसे प्रयोग पहले किये गए हंै।
काबिलेगौर है कि कुछ समय पूर्व डिस्कवरी चैनल पर एक कार्यक्रम में बताया जा रहा था कि एक समय जब तेजी से बढते हुए एक समुदी तूफान को खत्म करने के लिए बादलों पर रसायनो का छिड़काव किया गया तो तूफान वहाँ तो टल गया पर उसने दिशा बदलकर दूसरे स्थानों पर जबरदस्त कहर बरसाया। प्रकृति की व्यवस्था की नकल इतनी सरल नहीं है।
बहरहाल, कुछ समय पूर्व चीनी समाचार एजेंसी सिन्हुआ के मुताबिक सीएमए की वेबसाइट पर उपलब्ध एक बयान में कहा गया है कि मौसम नियंत्रक अधिकारियों ने बादल निर्माण की कुल 127 कार्रवाइयों के दौरान रात में 2,392 तोप के गोले और 409 रॉकेट दागे। कहा गया कि बारिश कराने वाली ये कार्रवाइयां हेनान, गांसु, निंगसिया, शांसी, शैंसी, हुबेई व अंहुई जैसे सूखाग्रस्त प्रांतों में की गईं। नेशनल मेट्रोलॉजिकल सेंटर (एनएमसी) की रिपोर्ट के मुताबिक इन प्रांतों में व उत्तरी चीन के हेबेई प्रांत में इससे कुछ ही घंटों में एक से पांच मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई। हालंाकि, अकाल की समस्या से जूझते चीन को उबारने के लिए वैज्ञानिकों ने विश्व का सबसे बडा क्लाउड सीडिंग सिस्टम तैयार किया है। इस सिस्टम के जरिए चीन के कई शहरों में बारिश करवाई जा चुकी है। पहली बार बीजिंग वेदर मॉडिफिकेशन ऑफिस ने चीन के कई शहरों को अकाल से मुक्ति दिलाने और जंगल की आग से बचाने के लिए कृत्रिम बारिश कराई। बारिश कराने के लिए रॉकेट शेल्स का सहारा लिया गया, जिसमें आकाश में 7 रॉकेट शेल्स छोडे गए। इन रॉकेट्स में 163 सिल्वर आयोडाइड के सिगरेट साइज स्टिक्स थे जिसे बीजिंग के आकाश में छोड़ा गया। परिणामस्वरूप भारी वर्षा हुई, जो हर वर्ष होने वाली वर्षा से कहीं अधिक थी। इसी प्रकार
सूखे के हालात से निपटने के लिए मोरक्को को भी कृत्रिम वर्षा की तकनीक का उपयोग करना पड़ा। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था लगातार कई सालों से सूखे की मार झेल रही थी। इससे निजात पाने के लिए मोरक्को सरकार ने कृत्रिम बारिश करवाने की तकनीक इस्तेमाल की। मोरक्को रॉयल एयर फोर्स की मदद से एक योजना तैयार की गई जिसमें एसीटोन बर्नर जनरेटर से लैस एयरक्राफ्ट के माध्यम से बादलों में सिल्वर, सोडियम व एसीटोन का छिडकाव कराया गया। जिसकी वजह से 10 फीसदी वर्षा अधिक हुई। इससे स्थानीय सिंचाई व हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर को काफी फायदा हुआ। इस तकनीक को अफ्रीका के दूसरे देशों ने भी अपनाया।
हाल ही में कोपेनहेगेन में हुई बैठक में यूं तो मसौदे पहले से ही तैयार थे लेकिन हाल ही में चीन कृत्रिम तरीके से की गई बर्फबारी ने इसमें एक नया आयाम जोड़ दिया है। सवाल यह है कि क्या कृत्रिम रुप से मौसम बदलने का प्रयास पर्यावरण पर दुष्प्रभाव डाल सकता है। और भारत की चिंता तो यहां तक है कि कहीं चीन इसका इस्तेमाल हमारे खिलाफ तो नहीं करेगा? गौर करने योग्य यह भी है कि चीन के वैज्ञानिकों का दावा है कि उन्होंने मौसम पर नियंत्रण कर लिया है। वैज्ञानिकों द्वारा कराई गई बर्फबारी ने चीन की राजधानी बीजिंग को पाट दिया था। पिछले कुछ महीनों से चीन सूखे से परेशान था। इससे निजात पाने के लिए चीन के मौसम वैज्ञानिकों ने सिल्वर आयोडाइड के 186 राकेट दागे जिससे खासी बर्फबारी हुई। बीजिंग के मौसम विभाग के मुताबिक 'चीन सूखे की मार झेल रहा है। ऐसे में हम कृत्रिम वर्षा से मौसम बदलने का कोई मौका चूकना नहीं चाहते थे।Ó हालांकि चीन में मौसम बदलने का यह कोई नया प्रयास नहीं है। अक्टूबर में चीन की 60वीं सालगिरह की परेड में बारिश न होने के लिए 18 क्लाउड-सीडिंग जेट व 432 विस्फोटक राकेट छोड़े गए। यही नहीं बीजिंग ओलंपिक के उद्घाटन समारोह में आसमान साफ रखने के लिए एक हजार राकेट छोड़े गए थे।
कृत्रिम बारिश कैसे होती है?
कृत्रिम वर्षा तकनीक के तीन चरण हैं। पहले में रसायनों का इस्तेमाल करके उस इलाक़े के ऊपर वायु के द्रव्यमान को ऊपर की तरफ़ भेजा जाता है जिससे वे वर्षा के बादल बना सकें। इस प्रक्रिया में कैल्शियम क्लोराइड, कैल्शियम कार्बाइड, कैल्शियम ऑक्साइड, नमक और यूरिया के यौगिक, और यूरिया और अमोनियम नाइट्रेट के यौगिक का प्रयोग किया जाता है। ये यौगिक हवा से जल वाष्प को सोख लेते हैं और संघनन की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं। दूसरे चरण में बादलों के द्रव्यमान को नमक, यूरिया, अमोनियम नाइट्रेट, सूखी बफऱ् और कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग करके बढ़ाया जाता है और तीसरे चरण में सिल्वर आयोडाइड और सूखी बफऱ् जैसे ठंठा करने वाले रसायनों की बादलों में बम्बारी की जाती है जिससे बारिश होने लगे। इस तकनीक को 1945 में विकसित किया गया था और आज कोई 40 देशों में इसका प्रयोग हो रहा है। अमरीका में एक टन वर्षा का पानी बनाने में 1।3 सैंट का ख़र्च आता है जबकि ऑस्ट्रेलिया में यह मात्र दशमलव तीन सैंट है जो काफ़ी सस्ता हुआ। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि इस तकनीक में प्रयोग होने वाले रसायन पानी और मिट्टी को प्रदूषित कर सकते हैं।

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

भगवान क्या करेंगे धन का ?

नाम भगवान का काम इनसान का। हिंदू संस्कृति में भगवान तो ऐश्वर्य से ओत-प्रोत हैं ही, लेकिन आधुनिक समय में भगवान के नाम पर धर्म के ठेेकेदार धनवान होते जा रहे हैं। उसके लिए कोई भी छल-प्रपंच करने से नहीं हिचकते। लिहाजा, भगवान के नाम पर 'खास इनसानÓ धनवान होते जा रहे हैं। इस खेल में कहीं सरकारी नियमों को ताक पर रखा जाता है तो कहीं गरीबों का निवाला छीना जाता है। कहीं पुजारी की जीभ काट ली जाती है तो कहीं करोड़ों की संपत्ति हड़प ली जाती है। और कहा जाता है कि सब कुछ भगवान के लिए भगवान के लोगों द्वारा भगवत इच्छा से हो रहा है।
सदियों से कहा जाता है कि भारत अमीर है भारतीय गरीब। इसके पीछे अपने-अपने तर्क दिए और गढ़े जाते हैं। वर्तमान में भी कुछ बदला नहीं है। इसी देश में कोई एक वक्त की रोटी के लिए तरसता है तो किसी के पास इतना धन है कि वह उसे संभाल नहीं पाता। तो कुछेक जगहों पर धन की इतनी अधिक उपलब्धता है कि धन की उपादेयता नहीं रह जाती है। मसलन, भगवान जो सर्वशक्तिशाली, सर्वऐश्वर्य संपन्न हैं, कलयुग में प्रत्यक्ष रूप से उन्हें धन की कोई आवश्यकता नहीं हेाती, फिर भी उनके दर्जनों से अधिक मंदिर में अतुल धन-संपदा अर्पित की जाती है। जो भगवान के काम का नहीं होता। हां, इतना जरूर है कि भगवान के नाम पर पुजारी और जहां बड़े मंदिर आदि हैं, वहां के ट्रस्टी करोड़ों का वारा -न्यारा करते हैं। अव्व्ल तो यह कि सारा कुछ भगवान के नाम पर होता है। लिहाजा, कोई चूं तक नहीं करता।
परंपरा और श्रद्घा के नाम पर लोगों के मन में आता है तो धार्मिक स्थलों पर जाकर गाढ़ी कमाई का हिस्सा दान कर आता है। यह बात अक्सर सुनने में आती है कि हमारे देश में अमीर और भी अमीर होता जा रहा है और गरीब और भी गरीब। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि अब हमारे भगवान् लोगों से भी ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं। आलम यह है कि अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और वेल्लूर के श्रीपुरम मंदिर में जड़े करोड़ों रूपए के सोने के बाद अब तिरुपति बालाजी भगवान् मंदिर को भी स्वर्ण युग में शामिल किया जा रहा है। तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम के कार्यकारी अधिकारी के। वी. रमणाचारी के अनुसार, तिरुपति बालाजी भगवन मंदिर को स्वर्णिम रूप देने में लगभग 12.71 करोड़ रूपए के सोने का इस्तेमाल होगा। वर्ष 2009-10 में मन्दिर के कार्यों के लिए ट्रस्ट बजट 1363 करोड़ रुपये है। जबकि प्रतिवर्ष लगभग 520 करोड़ रुपये का चढावा तिरुपति बालाजी भगवन मन्दिर में चढ़ता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या करेंगे भगवान इतने रुपये कमा कर, जहाँ हमारे देश की आधी से ज्यादा जनसँख्या गरीबी रेखा से नीचे रहती है और उन्हें भरपेट खाना भी नहीं मिलता हो। आंकड़ों के लिहाज से बात की जाए तो 12.71 करोड़ रुपये का सोना से लगभग 31.77 लाख लोगों के लिए एक दिन का भरपेट खाना होता है। तो 520 करोड़ का सालाना चढावा का यदि उपयोग किया जाए तो लगभग 4 करोड़ लोगों को एक महीने तक भरपेट खाना मिल सकता है। ट्रस्ट ने वर्ष 2009-10 के लिए 1363 करोड़ रुपये का बजट रखा है, इसका उपयोग किया जाए तो लगभग 11 करोड़ लोगों के लिए एक महीने तक भरपेट खाना मुहैया कराई जा सकती है। मगर, अफसोस भगवान के नाम पर इक_ïा किए गए इस धन का ऐसा किसी भी कार्य में प्रयोग नहीं किया जाएगा। गौरतलब यह भी है कि आंध्रप्रदेश के प्रसिद्ध वेंकटेश्वर मंदिर में 05 अक्टूबर, 2009 को पहली बार एक ही दिन में तीन करोड़ रुपये का रिकार्ड चढावा चढा। मंदिर में करीब एक लाख श्रद्धालुओं ने भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन किए और उनसे तीन करोड़ रुपये का हुंडी संग्रह हुआ। अमूमन इस मंंदिर में प्रतिदिन करीब एक लाख श्रद्धालु पहुंचते हैैं। बताया गया कि इस दरम्यान मात्र चार दिनों में सात करोड रुपये का हुंडी संग्रह हुआ है।
इसी प्रकार प्रसिद्घ शिर्डी मंदिर में 60 करोड़ रुपए से अधिक का वार्षिक दान मिलता रहा है। मंदिर ट्रस्ट के एक सदस्य के अनुसार पिछले वर्ष इसके अलावा 14 किलो सोना और 235 किलो चांदी का चढावा भी चढ़ा। इससे पिछले वर्ष में 35।25 करोड़ रूपये नकद और 9.326 किलो सोना तथा 136 किलो चांदी दान में मिली थी। दिसबंर 2007 में 7 करोड़ नकद, 250 ग्राम सोना और 21 किलो चांदी दान में मिला था। कहा जा रहा है कि ट्रस्ट इस धन का उपयोग लोगों की भलाई के लिए विभिन्न परियोजनाओं में कर रहा है। ट्रस्ट जन कल्याण के लिए सड़क, धर्मशाला, अस्पताल, शिक्षा संस्थानों के लिए 300 करोड़ रूपये खर्च करने की योजना बनाई है। वहीं, वाराणसी के विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर को भक्तों के चढावे और अन्य संसाधनों से इस वर्ष अब तक तीन करोड रुपये से अधिक की प्राप्ति हुई है जो पिछले वर्ष की इसी अवधि से लगभग एक करोड रुपये अधिक है। इस आमदनी से भक्तों के लिए मुफ्त भोग की व्यवस्था किए जाने की योजना है। श्री काशी विश्वनाथ मंदिर न्यास के अध्यक्ष नितिन रमेश गोकर्ण के अनुसार, मंदिर को इस वित्त वर्ष में पहली अप्रैल से अब तक की अवधि में भक्तों से लगभग तीन करोड़ रुपये का राजस्व चढावे और अन्य संसाधनों से प्राप्त हुआ है जो पिछले वर्ष की इसी अवधि में प्राप्त राजस्व की तुलना में लगभग एक करोड़ रुपया अधिक है। भक्तों के लिए मुफ्त भोग की व्यवस्था तत्काल प्रारंभ करने में धन कोई बाधा नहीं है, लेकिन मंदिर न्यास के पास स्थान की कमी है। जैसे ही इस पुण्य कार्य के लिए स्थान की उपलब्धता होगी, न्यास मुफ्त भोग की व्यवस्था करने में तनिक भी विलंब नहीं करेगा। स्थान की उपलब्धता के लिए किए जा रहे प्रयासों की चर्चा करते हुए गोकर्ण बताते हैं कि सबसे पहले लगभग 2600वर्गफीटमें स्थित अ_ारहवीं सदी के मंदिर परिसर का विस्तार किया जा रहा है। इसे तीन गुना बढा कर लगभग साढे आठ हजार वर्ग फीट में इसका विस्तार किया जा रहा है। कुछ समय पूर्व एक समारोह के दौरन मंडफिया के प्रमुख तीर्थ स्थल भगवान श्री सांवलियाजी का विशाल भंडार चौदस को खोला गया तो उसमें से जिसमें 93 लाख 31 हजार 404 रूपए नकद प्राप्त हुए। इसके अलावा भारत के अंदर जितने भी तीर्थ स्थल हैं, वहां चढ़ावे के रूप में अनगनित धन चढ़ाए जाते हैं। धन समस्या की जड़ है। आम इनसान के लिए और धर्माम्बलंबी के लिए भी।
काबिलेगौर है कि हिंदू संस्कृति में धन का देवता कुबेर को माना गया है, बावजूद इसके कुबेर नहीं पूजे जाते । कहा जाता है कि पूर्व जन्म में कुबेर चोर थे- चोर भी ऐसे कि देव मंदिरों में भी चोरी करने से बाज नहीं आते थे। एक बार चोरी करने के लिए वे एक शिव मंदिर में घुसे। तब मंदिरों में बहुत माल-खजाना रहता था। उसे ढूंढने के लिए कुबेर ने दीपक जलाया, लेकिन हवा के झोंके से दीपक बुझ गया। कुबेर ने फिर दीपक जलाया, फिर बुझ गया। जब यह क्रम कई बार चला तो भोले-भाले और औढरदानी शंकर ने इसे अपनी दीप आराधना समझ लिया और प्रसन्न होकर अगले जन्म में कुबेर को धनपति होने का आशीष दिया। कुबेर के संबंध में प्रचलित है कि उनके तीन पैर और आठ दांत हैं। अपनी कुरूपता के लिए वे अति प्रसिद्ध हैं। उनकी जो मूर्तियां पाई जाती हैं वे भी अधिकतर स्थूल और बेडौल हैं। शतपथ ब्राह्मण में तो इन्हें राक्षस ही कहा गया है। वहां ये चोरों, लुटेरों और ठगों के सरदार के रूप में वर्णित हैं। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि धनपति होने पर भी कुबेर का व्यक्तित्व और चरित्र वैसा नहीं था, जैसा विष्णु की पत्नी, धन की देवी लक्ष्मी का है। शुरू में अनार्य देवता कुबेर, बाद में आर्य देव भी मान लिए गए। यह संभवत: उनके धन के प्रभाव के कारण ही हुआ होगा। बाद में पुजारी और ब्राह्मण भी कुबेर के प्रभाव में आ गए और आर्य देवों की भांति उनकी पूजा का विधान प्रचलित हो गया। न को शुचिता के साथ जोड़कर देखने की जो आर्य परम्परा रही, संभवत: उसमें कुबेर का अनगढ़ व्यक्तित्व नहीं खपा होगा। बाद के शास्त्रकारों पर कुबेर का यह प्रभाव बिल्कुल नहीं रहा, इसलिए वे देवताओं के धनपति होकर भी दूसरे स्थान पर ही रहे, लक्ष्मी के समकक्ष न ठहर सके।
आमतौर पर माओवादी विचारधारा के लोग हिंदू धार्मिक कर्मकाण्ड में विश्वास नहीं रखते। मगर, कुछ समय पूर्व अचानक नेपाल नेपाली माओवादियों की आसक्ति मंदिरों में होने लगी। ऐसे में सवाल उठना स्वभाविक है कि नेपाली माओवादियों को मंदिर की राजनीति क्यों रास आने लगी है? दरअसल, मध्य नेपाल की दुर्गम पहाडिय़ों पर बसे गोरखा में गोरखनाथ का प्राचीन मंदिर है, और यहीं पर राष्ट्र निर्माता पृथ्वी नारायण शाह का गोरखा दरबार भी। माओवादियों के दूसरे नंबर के नेता बाबूराम भट्टराई यहीं से सांसद हैं। गोरखा दरबार और मंदिर के रख-रखाव पर माओवादी शासन से पहले 15 करोड़ रुपये सरकार ने आवंटित किया था। गोरखा मंदिर के नाम पर 23 गांवों में सात हजार रोपनी जमीन पर माओवादियों की निगाहें लंबे समय से थीं। मार्च 2008 में इस मंदिर पर माओवादियों ने हल्ला बोला। पुजारी प्रदीपनाथ जोगी, जो कभी बाबूराम भट्टराई को टीका लगाकर गौरवान्वित होते थे, उसी पुजारी के मुंह पर कामरेडों ने कालिख पोती, राजावादी कहकर पीटा; और जूते की माला पहनाकर शहर भर में घुमाया। आज गोरखा मंदिर की हजारों एकड़ जमीन माओवादियों के कब्जे में है।
सच तो यह है कि पशुपतिनाथ मंदिर में भी माओवादियों की दिलचस्पी धर्म को लेकर नहीं, धन को लेकर है। पशुपतिनाथ में पांच सौ से लेकर 11 लाख रुपये तक की स्पेशल पूजा होती है। इस मंदिर के नाम कितनी जमीनें, सोना-चांदी, जवाहरात हैं, और दान-चढ़ावे से कितनी आमदनी होती रही है, यह भी एक रहस्य है। मंदिर के महंत, भट्ट और भंडारी ब्राöणों से पशुपति क्षेत्र विकास प्राधिकार (पीएडीटी) ने 25 प्रतिशत राशि की हिस्सेदारी मांगी थी। महंत लोग हिस्से के प्रतिशत को लेकर सहमत नहीं थे।
इसके उलट बात की जाए तो योजना आयोग के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 28।3 प्रतिशत लोग और शहरी क्षेत्रों में 27.5 प्रतिशत लोग अभी भी गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यदि पूरे परिवार की एक दिन की आय ( 45-50 रुपयेप्रतिदिन) से कम है तो उसे गरीबी रेखा से नीचे मन जाता है, और यदि किसी परिवार की एक दिन की आय (90-100 रुपये प्रतिदिन) है तो वह परिवार गरीब कहलाता है जबकि भारत में 80 प्रतिशत परिवार इस श्रेणी में आते हैं। हालांकि, यह आंकड़ा सरकारी सर्वेक्षण के हैं और सरकारी सर्वेक्षण कैसे होते हैं यह कहने की आवश्यकता नहीं।
सवाल यह भी है कि जो धन मंदिरों में चढ़ावे के रूप में चढ़ता है, वह समाज कल्याण के कार्यों में भी तो खर्च किया जा सकता है? इस पर अलग-अलग लोगों की रायशुमारी अलग है। सिविल सेवा का अभ्यर्थी शीतल चंदन का कहना है कि चढ़ावा या दान का अर्थ है पुण्य प्राप्ति के लिए प्रभु के चरणों में अपनी क्षमता के अनुसार यथासंभव अर्पण करना। हमारी आस्था और विश्वास का केंद्र है। कहने को तो आदिकालीन ग्रंथों में पढ़ा और ज्ञानियों से सुना है कि कण-कण में प्रभु का वास है। आजकल धार्मिक स्थलों पर भक्तगण खूब चढ़ावा चढ़ा रहे हैं। कोई शिरडी में सोने का सिंहासन अर्पित कर रहा है तो कोई तिरूपति में दस करोड़ रुपए के आभूषण दान कर रहा है। क्या यह आस्था है या धन का दुरूपयोग?

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

यहां आना मना है

देश के अंदर ही जब सुरक्षा बलों को आने-जाने में सोचना पड़ा, तो स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। आजकल, ऐसे ही हालातों से गुजर रहा है छत्तीसगढ़। नक्सलियों को खोजने के लिए ऐसा लग रहा है कि सारी रणनीतियां फिर से बनानी होंगी। देश आजाद होने के बाद अभी तक इन क्षेत्रों में रेवेन्यू सर्वे नहीं हुआ इसके पीछे कारण यह है कि सर्वे करने वालों के लिए यह जंगल ब्लैक होल जैसी बन गई थी।
एक ओर प्रदेश के मुख्यमंत्री पूरे जोर-शोर से छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद के सफाए की बात दोहराते हैं तो दूसरी ओर नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र में उन्हें मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं। आम आदमी की बात कौन करें, सुरक्षा बलों को भी नक्सल प्रभावित इलाकों में जाने से पहले कई बार सोचना पड़ता है। जैसे उन्हें विदेशी धरती पर जाना हो।
सच तो यही है कि छत्तीसगढ़ में तैनात सुरक्षाबलों के लिए मौजूदा समय में 4000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला नक्सलियों का अभेद्य गढ़ जंगल अब अबूझ पहली बन गया है। नक्सलियों का सामना कर रहे अलग-अलग सुरक्षाबलों जैसे सीआरपीएफ, कोब्रा, बीएसएफ, आईटीबीपी के पास नक्लियों के इस गढ़ राज्य सरकार द्वारा दिया गया कोई अधिकृत नक्शा मौजूद नहीं है। सुरक्षाबलों के सूत्रों के अनुसार, नक्सलियों को खोजने के लिए ऐसा लग रहा है कि सारी रणनीतियां फिर से बनानी होंगी। देश आजाद होने के बाद अभी तक इन क्षेत्रों में रेवेन्यू सर्वे नहीं हुआ इसके पीछे कारण यह है कि सर्वे करने वालों के लिए यह जंगल ब्लैक होल जैसी बन गई थी। बस्तर के पास आने वाली इंद्रावती नदी की खाड़ी में बने नक्सिलयों के गढ़ तक पहुंचने का साहस कोई पुलिस कर्मचारी आज तक नहीं कर सका है। इस क्षेत्र को यहां के लोग और पुलिस पाकिस्तान जैसे देखते हैं। यहां पर प्रवेश के लिए नक्सिलयों के पास से वीजा लेना जरूरी है। एक पुलिस अधिकारी के अनुसार इन जंगलों में प्रवेश के लिए किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। साग, शीशम के वृक्षों के साथ-साथ यहां महुआ के काफी सारे पेड़ हैं। महुआ से यहां देशी दारू बनाई जाती है।
दूसरी ओर, अपने दूसरे शासनकाल में एक वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में मुख्यमंत्री रमन सिंह कहते हैं कि छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद का सफाया होकर रहेगा। छत् तीसगढ़ की धरती में नक्सलवाद और आतंकवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। छथीसगढ़ राज्य का निर्माण जनता के त्याग एवं बलिदानों का परिणाम है। राज्य को विकास के पथ पर आगे बढ़ाने के लिए सभी को एक साथ मिलकर प्रयास करना होगा। छत्तीसगढ़ का विकास राज्य के सभी नागरिकों को साथ मिलकर एकता, सहयोग के साथ करना होगा। अपनी बात को दोहराते हुए कहते हैं कि मुझे विश्वास है कि छत्तीसगढ़ की संपदा और युवा, राज्य को विकसित राज्य बनाने में अहम भूमिका निभाऐंगे तथा राज्य में नक्सलवाद, हिंसा और आतंकवाद का स्थान नहीं रहेगा।
इसके उलट कहा यह जा रहा है कि नेपाल, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडि़सा, आंध्रप्रदेश, महाराष्टï्र और मध्यप्रदेश से होकर छत्तीसगढ़ तक एक गलियारा बन गया है जिससे नक्सली तत्व आ जा रहे होंगे। नक्सलवाद का रिश्ता सघन वनों से होता है। यह अलग बात है कि जंगलों में आदिवासी संस्कृति विकसित हुई है। इसलिए नक्सलवाद का आदिवासी जीवन से रिश्ता ढूंढ़ लिया जाता है। भारत में अकूत वन संपदा आज भी है। यह उसका अर्थशास्त्र है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यह उसका राजनीतिशास्त्र है। जब किसी को दीवार तक धकेल दिया जाएगा तब हमला करके ही बचाव किया जा सकता है-साम्यवाद का यह मानक पाठ बस्तर के आदिवासियों को भी पढ़ाया गया।
छत्तीसगढ़ सघन नक्सली हिंसा का प्रदेश हो गया है। अनुमानत: केवल बस्तर संभाग में एक लाख से अधिक नक्सली हो गए हैं। सरगुजा क्षेत्र में भी नक्सली घुसपैठ की स्थितियां जस की तस हैं, यद्यपि वहां स्थिति अपेक्षाकृत नियंत्रण में है। नक्सल समस्या का लगभग तीन दशकों का चिन्तनीय इतिहास हो गया है। प्रशासनिक उपेक्षाओं और पूंजीपतियों, ठेकेदारों और उद्योगपतियों (जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र भी शामिल है) के द्वारा किए गए उत्तरोत्तर प्रकृति और परिमाण के शोषण ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में प्रतिक्रिया के रूप में नक्सलवाद को सक्रिय होने का अवसर जुटाया है।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

संवेदनहीनता

सूर्य की उनींदी किरणों में देखी
काल की भयावहता
खेत पड़े हैं सूने सपाट वैधव्य की
माँग रेखा से, पड़ रही है उजाड़
पृथ्वी में दरारें, फेरती है अपने
पपड़ाये होठों पर सूखी

यह कविता डा. वाजदा खान की पुस्तक 'जिस तरह घुलती है काया' में संग्रहित है।


जिह्वा, कंठ हो चला काँटे -सा
चुभ रहा है देह में तीखेपन के साथ
भीग रही है धरती
रक्त-रक्त से हो रही है लाल
नहीं दिखाई पड़ता कहीं हरापन
आकाश मौन सपाट
नहीं गूँज रही है कहीं कोयल की
कूक, नहीं कर रहा है नृत्य
कहीं किसी वन में मोर
हो रहे हैं यज्ञ, पड़ रही है आहुति
चला रही हैं हल स्त्रियाँ
होकर निर्वस्त्र, गीत गाती इन्द्रलोक
के द्वार तक, पर खुलते नहीं
देवताओं के सूने कपाट
पड़ती नहीं माथे पर उनके
करूणा की शिकन
क्या बन गए हैं अनश्वर लोक के
देवता नश्वर लोक के प्राणी की भाँति
संवेदनहीन।

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

क्या करेगी कांग्रेसी सरकार

केंद्र सरकार ने तेलंगााना राज्य के गठन के लिए हरी झंडी दिखाकर एक ओर जहां क्षेत्र के लोगों के चेहरों पर खुशी बिखेरी है, वहीं देश के बाकी हिस्सों में भी अलग राज्य की मांग कर रहे लोगों की उम्मीदें जगा दी हैं। हालांकि बाकी मांगों पर केंद्र का रुख क्या रहता है यह वक्त बताएगा पर उसके सामने अभी कम से कम नौ अन्य नए राज्यों के गठन की मांग पेंडिंग है।
केंद्रीय गृहमंत्रालय का कहना है कि बिहार से मिथिलांचल, गुजरात से सौराष्ट्र और कर्नाटक से कूर्ग राज्य अलग बनाने सहित कम से कम दस नए प्रदेशों के गठन की मांग की गई है। मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि ये मांगें तेलंगाना राष्ट्र समिति और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा जैसे अन्य संगठनों और व्यक्तिगत लोगों से मिली हैं। अधिक मुखर संगठन टीआरएस ने आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र को मिलाकर तेलंगाना राज्य बनाने की मांग कुछ वर्ष पहले रखी थी। वहीं जीजेएम पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग और आसपास के क्षेत्रों को मिलाकर गोरखालैंड बनाने को दबाव डाल रहा है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बांदा चित्रकूट झांसी ललितपुर और सागर जिले को मिलाकर बुंदेलखंड राज्य बनाने की मांग लंबे समय से मंत्रालय के पास लंबित है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों को मिलाकर हरित प्रदेश या किसान प्रदेश के गठन को लेकर भी मांगें की गई हैं। पश्चिम बंगाल और असम के क्षेत्रों को मिलाकर वृहद कूच बिहार राज्य, महाराष्ट्र से विदर्भ राज्य, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों को मिलाकर भोजपुर राज्य बनाने की मांग भी की गई है। एक और मांग सबसे खुशहाल प्रदेश गुजरात से सौराष्ट्र राज्य अलग बनाने की है जो पिछले कई वर्ष से मंत्रालय के समक्ष लंबित है।
छोटे प्रदेशों के पैराकारों का मानना है कि जनसंख्या एवं क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत के प्रदेशों के आकारों में बड़ी विषमता है। एक तरफ़ बीस करोड़ से भी अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश जैसे भारी भरकम रा'य तो वहीं सिक्किम जैसे छोटे प्रदेश जिसकी जनसंख्या मात्र छ: लाख है। इसी तरह एक ओर राजस्थान जैसा लंबा चौडा राज्य जिसका क्षेत्रफल साढे तीन लाख वर्ग किमी है वहीं लक्षद्वीप मात्र 32 वर्ग किमी ही है । किंतु तथ्य बताते हैं कि छोटे प्रदेशों में विकास की दर कई गुना अधिक है। उदाहरण के लिए बिहार की प्रति व्यक्ति आय आज मात्र 3835 रु है जबकि हिमाचल जैसे छोटे राज्य में यही 18750 रु है । छोटी इकाइयों में कार्य क्षमता अधिक होती है । सिर्फ आर्थिक मामले में ही नहीं बल्कि शिक्षा,स्वास्थ्य जैसे विभिन्न मामलो में भी छोटे प्रदेश आगे हैं। जैसे कि शिक्षा के क्षेत्र में यूपी का देश में 31 वां स्थान है (साक्षरता दर -57 फीसदी) जबकि इसी से अलग होकर नवगठित हुआ उत्तराँचल प्रान्त शिक्षा के हिसाब से भारत में 14 वां स्थान रखता है (साक्षरता दर -72 फीसदी)।
बताया जाता है कि 1956 में, भारत में जिस तर्क पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया था उसका मुख्य आधार भाषा था। भाषा रा'यों के गठन का एक आधार तो हो सकती है लेकिन पूर्ण और तार्किक आधार नहीं। इसको हम इस तरह से समझ सकते हैं कि क्या सभी हिन्दी भाषी राज्यों को मिलाकर एक राज्य बना देना उचित होगा और क्या भाषा के आधार पर राज्य का विकास किया जा सकेगा? इसका जवाब कोई भी दे सकता है कि भाषा के आधार पर बनाए गए राज्यों का विकास समान योजनाओं के आधार पर नहीं किया जा सकता क्योंकि क्षेत्र विशेष की आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न होती हैं। बड़ा राज्य होने पर प्रशासनिक नियंत्रण भी चुस्त-दुरूस्त नहीं रह पाता और आम लोगों को यदि राजधानी पहुंचना हो या फिर हाईकोर्ट में गुहार लगानी हो तो यह काफीखर्चीला और लम्बी दूरी तय करने वाला साबित होता है।
सच तो यह भी है कि राजनीतिक दुर्घटनाओं का साया शासन में निर्णय लेने की प्रक्रिया पर हमेशा रहता है। आंध्र प्रदेश में वाईएसआर रेड्डी के निधन के बाद राजनीतिक विस्फोट की जो स्थिति पैदा हुई वह गंभीर ही होती जा रही है। पहले उत्तराधिकार के मसले पर राजनीतिक गहमागहमी रही, क्योंकि उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी और उनके समर्थकों ने सत्ता पर अपनी दावेदारी के संकेत दिए। मामला इसलिए जटिल हो गया, क्योंकि कतिपय मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के आर्थिक हित भारी पड़ते नजर आए। दिल्ली में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को स्थितियों पर नियंत्रण कायम करने के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ा। इस संकट से कांग्रेस उबरी ही थी कि अब तेलंगाना का मामला उसके गले की फांस बन गया है। पूर्व केंद्रीय मंत्री के- चंद्रशेखर राव के अनशन ने इस मामले को एक आंदोलन का रूप दे दिया। संप्रग सरकार के पास अलग तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया आरंभ करने के अतिरिक्त अब कोई विकल्प शेष नहीं रह गया। समस्या यह है कि इसके साथ ही कुछ जटिलताएं भी उत्पन्न हो गई हैं। यह आश्चर्यजनक है कि तेलंगाना के मामले ने कांग्रेस के एक सुरक्षित ठिकाने को राजनीतिक संघर्ष की भूमि बना दिया है। आंध्र प्रदेश के विभाजन और हैदराबाद की स्थिति को लेकर संभावित प्रतिरोध से इस राज्य में राजनीतिक शक्तियों के बीच नए समीकरण उभर सकते हैं। आश्चर्य तो यह कि यदि तेलंगाना के मुद्दे के चलते आंध्र प्रदेश में विपक्ष एकजुट नहीं होता। तेलंगाना के मसले पर 2004 और 2009 के चुनावों में भी वायदे किए गए थे। इस मसले पर निर्णय लेने में जानबूझकर देरी करने की रणनीति अपनाई गई। अब यह रणनीति काम नहीं कर रही।
जहां तक छोटे या बड़े राज्यों का प्रश्न है, तो छोटे राज्य के प्रशासन पर मुख्यमंत्री का पूरा नियन्त्रण रहता है। हरियाणा से लेकर हिमाचल और गुजरात तक इसके सटीक उदाहरण हैं। कुछ लोग तीनों नवनिर्मित राज्यों के उदाहरण देकर कहते हैं कि ये तीनों अपने खर्च के लिए केन्द्र पर निर्भर हैं; पर वे यह भूल जाते हैं कि इन तीनों की आर्थिक, भौगोलिक और शैक्षिक स्थिति क्या रही है? शासन पहले इनकी ओर कितना ध्यान देता था? उत्तरांचल के निर्माण से पूर्व कोई सरकारी कर्मचारी वहां जाना पसंद नहीं करता था। आम धारणा यह थी कि सजा के तौर पर उन्हें वहां भेजा जा रहा है। इसलिए वहां पहुंचते ही वह वापसी की जुगाड़ में लग जाता था। यही स्थिति झारखंड और छत्तीसगढ़ की भी थी। इन राज्यों में शिक्षा की स्थिति क्या थी, यह इस बात से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि 1997-98 तक सम्पूर्ण उत्तरकाशी जिले का एकमात्र डिग्री कालिज जिला केन्द्र पर ही था। लगभग ऐसी ही स्थिति चिकित्सालय की भी थी। यह सब तब हुआ, जब 50 साल तक तो यह क्षेत्र अपने मूल राज्य में ही थे। तब इनका विकास क्यों नहीं हुआ? वस्तुत: जब तक शासन-प्रशासन में समर्पित और सही सोच वाले लोग नहीं होंगे; तब तक विकास नहीं हो सकता। ऐसे लोग हों, तो भी छोटे राज्य में विकास तीव्रता से हो सकता है।
राजनीतिक हलकों में कहा जाता रहा है कि कांग्रेस भी छोटे राज्यों के गठन की समर्थक रही है। यह अलग बात है कि इस सैद्धांतिक सहमति के बावजूद कांग्रेस कभी भी किसी भी क्षेत्र को अलग से राज्य बनाने को लेकर आंदोलन वगैरह चलाने से परहेज ही करती रही है, बल्कि तेलंगाना और विदर्भ के मसले पर उसे ठंडा रुख अख्तियार करते भी देखा गया है।
उपेक्षा की शिकायत लेकर अलग राज्य या स्वायत्तता की मांग कर रहे देश के ये कौन-कौन से इलाके हैं :
पूर्वांचल : उत्तरी-मध्य भारत का यह हिस्सा यूपी के पूर्वी छोर पर बसा है। यह उत्तर में नेपाल, पूर्व में बिहार, दक्षिण में मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड 12 और विधायकों ने दिया इस्तीफा पश्चिम में यूपी के अवध क्षेत्र से सटा है। पूर्वांचल के भी तीन भाग हैं- पश्चिम में अवधी क्षेत्र, पूर्व में भोजपुरी और दक्षिण में बुंदेलखंडी क्षेत्र। लोकसभा में इस क्षेत्र के प्रतिनिधित्व के लिए 23 सीटें हैं।
विदर्भ : पूर्वी महाराष्ट्र का यह इलाका अमरावती और नागपुर डिविजन से बना है। यहां अलग राज्य की मांग के पीछे राज्य सरकार द्वारा क्षेत्र की उपेक्षा बड़ा कारण है। एन। के. पी. साल्वे और वसंत साठे अलग राज्य के गठन का प्रस्ताव लाने की कोशिश करते रहे हैं। हालांकि क्षेत्र की जनता अलग राज्य की मांग के हक में है पर राजनीतिक हलकों ने इसमें खास रुचि नहीं दिखाई है।
बोडोलैंड : असम में अलग राज्य बोडोलैंड के गठन की मांग 60 के दशक से चली आ रही है। बोडोलैंड की सीमाएं ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी छोर से लेकर भूटान और अरुणाचल से सटे तराई वाले इलाके तक हैं। इलाके की ज्यादातर जनता बोडो भाषी है।
हरित प्रदेश : पश्चिमी यूपी के जिलों को मिलाकर अलग हरित प्रदेश या पश्चिमांचल बनाने की मांग उठती रही है। हालांकि 1955 में बी। आर. अंबेडकर ने यूपी को पश्चिमी, मध्य और पूर्वी आधार पर तीन हिस्सों में बांटने की वकालत की थी पर ऐसा न हो सका। पर अलग राज्य की मांग आज भी जिंदा है और इसे अजीत सिंह का राष्ट्रीय लोकदल पुरजोर ढंग से उठाए हुए है।
बुंदेलखंड : बीते 50 साल से अलग बुंदेलखंड बनाने को लेकर आंदोलन चल रहा है। इसमें कुछ हिस्सा यूपी का तो कुछ मध्य प्रदेश का है। इलाके की आबादी करीबन 5 करोड़ है। अपार खनिज संपदा होने के बावजूद यह इलाका काफी पिछड़ा और गरीब रहा है। यहां विकास के नाम पर अलग राज्य की मांग उठती रही है।
रायलसीमा : आंध्र प्रदेश के इस इलाके में कुरनूल, कड़पा, अनंतपुर, चित्तूर, नेल्लोर और प्रकाशम जिले का कुछ क्षेत्र आता है। इस इलाके से राज्य के कई सीएम रह चुके हैं। इनमें वाई। एस. आर. रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू भी शामिल हैं।
सौराष्ट्र : गुजरात के इस अंदरूनी हिस्से की अलग राज्य के गठन की मांग ज्यादा बुलंद नहीं रही। इसकी वजह गुजराती लोगों की एकजुटता और लोगों की संपन्नता भी रही है। साथ ही सौराष्ट्र में आम गुजराती बोली जाती है और संस्कृति व परंपरा भी बाकी गुजरात की तरह ही है।
मिथिलांचल : नेपाल से सटे कुछ इलाकों के अलावा बिहार का आधा से ज्यादा इलाका मिथिलांचल क्षेत्र में आता है। इसके बड़े शहरों में जनकपुर, दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, मधेपुरा, बेगूसराय, सीतामढ़ी, वैशाली, मुंगेर शामिल हैं। मिथिलांचल मूलरूप से मैथिली भाषी इलाका है। अलग पारंपरिक लिपि होने के अलावा मैथिली बोलने वालों की तादाद 4।5 करोड़ है।
गोरखालैंड : हालांकि दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल के तहत गोरखालैंड को कुछ स्वायत्तता मिली है। पर दार्जिलिंग और आसपास के क्षेत्र के लोगों की आकांक्षाएं पूरी नहीं की जा सकी हैं। यही वजह है कि एक अलग पूर्ण राज्य की मांग यहां जोर पकड़ रही है। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा इस मांग का झंडा बुलंद किए है।
कुर्ग : कर्नाटक में अलग कुर्ग राज्य बनाने की मांग मूलत: इस प्रदेश की सांस्कृतिक विशिष्टता के कारण है। बाकी जगह की तरह यहां अलग राज्य की मांग के लिए भेदभाव या उपेक्षा कारण नहीं है। हालांकि 50 के दशक से इसके गठन की मांग उठती रही है पर इसने कभी मुखर रूप नहीं लिया। शायद इसकी वजह इस क्षेत्र का अधिक संपन्न होना भी रहा है।
तुलु नाडू : यह कर्नाटक और केरल का वह इलाका है जो अपनी अलग सांस्कृतिक और भाषायी (तुलु) पहचान रखता है। तुलु भाषी लोगों की संस्कृति कर्नाटक से काफी भिन्न है। क्षेत्र के वासियों की पहचान को बचाने और उपेक्षा की भावना को खत्म करने के लिए कर्नाटक और केरल सरकार ने तुलु साहित्य अकादमी भी बनाई है।

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

किसान और विकास का गणित

जब विकास का पहिया घूमता है तो वह अपने संग कई अच्छाई और बुराई को लेकर साथ चलता है। अच्छाई का अर्थ यह कि विकास होनेवाला है और बुराई का तात्पर्य उस सच से है जो प्रथम दृष्टया दिखता नहीं है। जहां विकास होने हैं, वह के मूल निवासी को विस्थापितों की जिंदगी जीनी होगी और उनको आश्वासनों का एक पुलिंदा थमा दिया जाता है। इसे भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का अभिशाप कह लीजिए। कुछ समय पूर्व देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के लिए खेती योग्य जमीन के जबरन अधिग्रहण पर प्रतिबंध को लागू होने से रोकने के प्रयासों को अधिसूचित इलाकों में विकास एजेंसियों को सेज के लिए जमीन अर्जित की इजाजत के प्रस्ताव से बल मिला था। यह योजना सरकार के एजेंडे में है, जबकि हाल ही में सेज लॉबी किसानों को अपनी जमीन उनके साथ बांटने के लिए मनाने में नाकाम रही। हो सकता है यह भी इसकी एक वजह हो।

मौजूदा दौर में सेज के लिए जमीन के ‘अनिवार्य अधिग्रहण’ से राज्य सरकारों को रोक दिया गया है। केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय का तर्क है कि अपने न्ययाधिकरण क्षेत्र में जमीनों को अधिसूचित और अर्जित कर उन्हें प्रयोक्ताओं को लीज पर देने वाली विकास एजेंसियों(जैसे कि डीडीए, एनओआईडीए और एपीआईडीसी) को सेज के लिए जमीन अधिग्रहण की इजाजत दी जानी चाहिए। मंत्रियों के समूह को अपने नोट में वाणिज्य मंत्रालय कहता है- ‘ऐसे निर्देश जारी करने का प्रस्ताव है कि विकास एजेंसियों द्वारा सेज के इस्तेमाल के उद्देश्य से जमीन का अधिग्रहण ‘अनिवार्य अधिग्रहण’ की श्रेणी में नहीं आएगा। इन मामलों में कोई व्यक्तिगत रूप से ऐसी गतिविधियों के लिए जमीन नहीं खरीद सकता।’ यह सांकेतिक रूप से जमीन के इस्तेमाल को खेतिहर से गैर-खेतिहर में बदलकर जमीन के जबरन अधिग्रहण के समान ही है। प्रतिबंध को कमजोर करने वाले इस प्रस्ताव और अन्य ऐसे प्रस्तावों को सेज के संदर्भ में लोगों की प्रतिक्रिया की रोशनी में जांचने की जरूरत है, खासकर रायगढ़ की जनता की राय को। रिलायंस के प्रस्तावित सेज को किसानों द्वारा सिरे से नामंजूर कर देना जमीन से उन्हें बेदखल करने के प्रति विरोध को रेखांकित करता है। किसानों और उद्योग जगत के बीच जमीन के लिए संघर्ष राज्य की ओर से जबरदस्त प्रतिक्रिया की मांग करता है, जो खुद से जुड़े सभी पक्षों के अधिकारों का सम्मान करता है। वैसे अब तक राज्य सरकारें उद्योग के पक्ष में और किसानों के खिलाफ ही नजर आई हैं। राजस्थान का बाड़मेर इसकी बेहतरीन मिसाल है। जहां वसुंधरा राजे सरकार जिंदल समूह की ओर से एक बिजली व उत्खनन परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण करना चाहती थी। किसानों ने उनके इस कदम का जमकर विरोध किया। जहां तक किसानों की बात है तो उनके लिए रायगढ़ और बाड़मेर के सबक बिलकुल साफ हैं, ‘यदि किसान एक संयुक्त मोर्चा गठित कर अपने अधिकारों की मांग करें तो सरकार को भी बातचीत की टेबल तक लाया जा सकता है।’

बात राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की करें तो भारतीय इतिहास में संभवतः अपने आप में यह पहली घटना रही कि आंदोलनकारियों ने किसी उपायुक्त कार्यालय को एक महीने से अधिक समय तक तालाबंदी की हो। आंदोलनकारी कोई अन्य नहीं, बल्कि अन्नदाता थे। जो अपने जमीन के अधिग्रहण को लेकर आंदोलित थे। असल में दिल्ली सरकार ने कंझावला और उसके निकटवर्ती गांवों की जमीन पर औद्योगिक परिसर के निर्माण का निर्णय राजधानी दिल्ली में छोटे और मझौले उद्योगों की निरंतर बढ़ती मांग के आधार पर लिया। उल्लेखनीय है कि 1981 के बाद दिल्ली में छोटे और मझौले उद्योगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। देखा जाए तो जमीन खाद्यान्न उत्पादन का प्रमुख निर्धारक घटक है। वर्ष 1982 में जहां प्रति व्यक्ति के हिसाब से कृषि योग्य जमीन की उपलब्धता 0।27 हेक्टेयर थी, वहीं वर्ष 2003 में यह घटकर 0.18 हेक्टेयर रह गई। भारत दालों और तेलों का आयातक तो पहले से है और हाल ही में इसे विदेशों से गेंहू भी खरीदना पड़ा। जानकार यह भी कहते हैं कि हरित क्रांति अनाज उगाने की क्रांति नहीं बल्कि रासायन बेचने की क्रांति थी। रासायनिक उत्पादों के बाजार बनाने के चक्कर में आपने अपनी फसलों को गायब कर दिया। इस देश में कमी किस चीज की है? इस देश में प्रोटीन की कमी है। इस देश में तेल की कमी है। जबकि हरित क्रांति के नाम पर तिलहन और दलहन ही गायब कर दिए गए। जो बदलाव हुआ उसमें यह तय हो गया कि आप मिश्रित खेती की जगह पर अकेला गेहूं और चावल उगाओगे। जबकि यदि आप उतना जमीन और पानी गेंहू और चावल के उत्पादन पर लगा देते तो यहां के किसान बिना किसी नए बीज के उतना गेंहू चावल उगा लेते। हमारे पुराने बीजों इतने क्षमता वाले थे। फिर उसी हरित क्रांति और रासायनिक खेती की वजह से किसानों के खर्च बढ़ गए। पर पहले उस खर्च को सब्सिडी के नाम पर छिपाया गया। जब धीरे-धीरे सब्सिडी हटायी जाने लगी तब किसानों को इसकी असलियत का पता चला। पंजाब के किसानों को यह लगने लगा है कि वह खर्च ज्यादा करते हैं और तुलना में मिलता कम है। यह तो किसानों को खत्म करने का रास्ता है। यह सच है कि मूलभत नागरिक सुविधाओं की आपूर्ति और विकास योजनाओं के लिए जमीन का अधिग्रहण अवश्यंभावी है। स्कूलों, अस्पतालों, सड़कों, नहरों, पेयजल और बिजली परियोजनाओं के निर्माण और प्रशासनिक भवनों व सेना के लिए जमीन के अधिग्रहण को रोका नहीं जा सकता। इन उद्देश्यों से जब सरकार कृषि योग्य या सार्वजनिक भूमि का अधिग्रहण करती है और इससे किसी गांव या बस्ती का विस्थापन होता है तो सरकार कथित रूप में जमीन का मुआवजा देने और विस्थापितों के पुनर्वास की व्यवस्था करती है। लेकिन इधर सरकार द्वारा सस्ते दामों पर या मनमाने ढंग से किसानों की निजी अथवा सार्वजनिक जमीन का अधिग्रहण कर उद्योगपतियों और व्यवसाइयों को सौंपे जाने सेे भूमि अधिग्रहण एक जटिल समस्या बन गई है। इससे कई पीढ़ियों से कृषि, पशुपालन और जल-जंगल-जमीन पर निर्भर लोगों के समक्ष आजीविका संकट का खतरा बढ़ ही गया है तो दूसरी ओर लेकिन जिन उद्यमियों और व्यवसाइयों को सरकार जमीन सौंप या बेच जा रही है उनकी संपत्ति और आमदनी में आश्चर्यजनक ढंग से वृद्धि हो रही है। यही स्थिति कम या ज्यादा कमोवेश पूरे देश की है।

भारतीय किसान आन्दोलन के इतिहास को देखें तो आज देश का किसान पहली बार अपनी जमीन बचाने के नाम पर अपने अस्तित्व का संघर्ष कर रहा है। यह संकट निश्चित ही नई अर्थ व्यवस्था- 1991 में आरंभ उदारीकरण एवं निजीकरण, के कारण पैदा हुआ है, जो आज शहरी विस्तार, आद्योगिकीकरण, मूलभूत संरचना के विकास, पनबिजली योजनाओं आदि के नाम हो रहे अधिग्रहण और इन तमाम क्षेत्रों को निजी हाथों में सौंपे जाने से कृषि भूमि के बढ़ते संकट का पर्याय बन चुका है। अब तक तमाम किसान आन्दोलनों की अपेक्षा अधिक मुखर हैं। कृषि उपजों की वजिब कीमत और कृषि सुविधाओं की मांग पर चलने वाले आंदोलनों में बड़े किसानों के हितों की अधिक पैरवी करते मालूम होते हैं, यही वजह है कि उनमें छोटे व सीमांत किसानों, खेतीहर मजदूरों और कृषि आधारित अन्य व्यवासायों पर नर्भर लोगों के आन्दोलन नहीं बन पाए। लेकिन भूमि को बचाने की चुनौती छोटे-बड़े सभी किसानों और जल, जंगल एवं जमीन पर निर्भर सभी तरह के लोगों से इनका सीधा संबंध है। मुखर किसान आंदोलनों और किसानों की छोटी-मोटी जीत के बावजूद कृषियोग्य जमीन के अधिग्रहण की समस्या हल होने वाली नहीं है। कारण, एक तो सरकार शहरी विस्तार और औद्योगिक विकास का ऐसा ताना-बान बना चुकी है कि किसान अधिक समय तक अपनी जमीन नहीं बचा सकते। सरकार ने किसानों को कृषि योग्य जमीन का अधिकतम मूल्य देने का दावा करने के साथ-साथ पूंजीपतियों को बाजारभाव पर जमीन लेने के निर्देश दिए हैं। यह व्यवस्था एक किस्म से पूंजीपतियों को किसानों से उनकी जमीन हड़पने की खुली छूट देने के समान है। दूसरी बात यह है कि देश की बहुसंख्य आबादी ( लगभग 70 प्रतिशत) के कृषि पर निर्भर होने के बावजूद सराकर द्वारा उद्योग, व्यापार और सेवा क्षेत्रों को अधिक महत्व दिए जाने और कृषि क्षेत्रा की निरंतर उपेक्षा के कारण कृषि निरंतर घाटे का सौदा साबित हो रही है, जिसे अक्सर देश के किसानों और ग्रामीण आबादी के विरुद्ध सरकार की सुनियोजित नीति भी कहा जाता है। इसी नीति के चलते पंजाब, महाराष्ट, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल आदि राज्यों के किसानों द्वारा आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुए हैं। इस दिशा में दिल्ली के कंझावला किसान आंदोलन ने कृषि योग्य जमीन के अधिग्रहण को बचाने और शहरी विस्तार के चलते किसानों और ग्रामीण आबादी की परेशानियों को कम करने के लिए एक बड़ी लाइन खींचने की पहल की है।

मार्च 2008 में सरकार द्वारा भूमि का अधिग्रहण किए जाने पर बेहतर कीमत और मुआवजे की मांग से आरंभ इस आंदोलन की अगुवाई कर रही जन संघर्ष वाहिनी ने भूमि अधिग्रहण के बदले किसान-सरकार साझेदारी की अवधारणा पेश की है। हालांकि देश के विभन्न हिस्सों में चल रहे किसान आंदोलनों की तुलना में कंझावला किसान आंदोलन अपने विस्तार और प्रभाव की दृष्टि से अधिक बड़ा नहीं कहा जा सकता। यहां न तो कोई एसईजेड परियोजना है न ही सरकार कृषि भूमि का अधिग्रहण कर किसी एक उद्योगपति को दे रही है। बल्कि सरकार की योजना के मुताबिक कंझावला, कराला, सुल्तानपुर डबास, पूठ खुर्द, टिकरी खुर्द, टिकरी कलां आदि 6 गांवों की 1400 एकड़ जमीन का अधिग्रहणकर उस भूभाग पर औद्योगिक और आवासीय परिसरों का निर्माण कर उसे उद्यमियों और जरूरतमंदों को दिया जाना तय है। लेकिन जिस तरह दिल्ली महानगर का विस्तार पिछले सौ वर्षों के दौरान एक-एककर दिल्ली के गांवों को निगलता जा रहा है, दिल्ली के हरे-भरे गांवों के स्थान पर कंक्रीट के जंगज और धुंआ उगलते या फिर अत्याधुनिक पूंजी आधारित कारखाने उग आए हैं और आने वाले समय में इसके बृहत्तर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रा के रूप में दिल्ली सहित हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की उपजाउ$ कृषियोग्य भूमि में फैलना तय है, उसे देखते हुए कंझावला किसान आंदोलन की उपज ‘किसान-सराकर साझेदारी’ की अवधारणा ने देशभर में जल, जंगल और जमीन के सवाल पर आंदोलित जनता और बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित किया है।

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

एम्स बना ब्रांड तो कहां जाएंगे आम

अपने चुनावी वादों से लेकर यूपीए सरकार के मंत्री-प्रधानमंत्री सहित कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी कहती नहीं थकतीं कि कांग्रेस सदा से आम आदमी के साथ हैं। लेकिन सरकार की मंशा कुछ और ही बयां करती है। महंगाई ने तो आम आदमी की चूलेें हिलाकर रख दी हैं, फिर भी सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। अब हालिया घटनाक्रम में प्रधानमंत्री डा। मनमोहन सिंह की ईच्छा पर केंद्र सरकार अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (एम्स) को ब्रांड बनाने पर काम कर रही है। अव्वल तो यह कि तत्संबंधी 'ब्रांडÓ बनाने का मंत्र देने वाली वेलियाथन कमेटी की रिपोर्ट पर एम्स की कार्यकारिणी समिति में चर्चा भी हो चुकी है। हालांकि, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद की अध्यक्षता में गत दिनों संपन्न हुई बैठक में शासी निकाय के अधिकत्तर सदस्यों ने रिपोर्ट पढऩे का समय मांगा है। लेकिन इतना तय है कि एम्स एक ब्रांड के रूप में स्थापित होने जा रहा है।
दरअसल, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पिछले शासनकाल में खुद की गठित इस वेलियाथन समिति की अनुशंसाओं को जल्द से जल्द लागू कराना चाहते हैं। कुछ दिन पूर्व प्रधानमंत्री कार्यालय से स्वास्थ्य मंत्री को संबंधित पत्र भी भेजा जा चुका है। कहा जा रहा है कि पिछले महीने ही यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपी गई, जिसकी सिफारिशें लागू होने पर एम्स के क्रिया कलापों में आमूलचूल परिर्वन की संभावना है। रिपोर्ट में कहा गया है कि एम्स में संसाधनों के प्रयोग, शिक्षकों का पलायन रोकने व उनका विकास करने सहित इसके आधुनिकीकरण के कई तरीके सुझाए गए हैं। सिफारिशों के लागू होने की स्थिति में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री का एम्स पर पकड़ ढीली होगी और वे सीधे एम्स के अध्यक्ष नहीं रह सकेंगे। गौर करने योग्य तथ्य यह भी हकि यूपीए के पिछले कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एम्स के तत्कालीन निदेशक डा। पी. वेणुगोपाल व तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. अंबुमणि रामदास में झगड़े की इंतिहा के बीच इस कमेटी का गठन किया था। इसका अध्यक्ष केरल के श्री चित्रा तिरूनल इंस्टीच्यूट आफ मेडिकल साइंसेज के पूर्व अध्यक्ष डा. एम.एस. वेलियाथन बनाए गए थे। अन्य सदस्यों में जैव प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव एम.के. भान, पूर्व स्वास्थ्य सचिव पी.के. होता और स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशक डा. आर.के. श्रीवास्तव शामिल थे। एम्स की कार्यकारिणी समिति में पूर्व स्वास्थ्य मंत्री सुषमा स्वराज भी शामिल हैं। कहा तो यहां तक जा रहा है कि वेलियाथन कमेटी की सिफारिशों को यदि पूरी तरह मान लिया जाता है तो एम्स में आम आदमी का दाखिला मुश्किल हो जाएगा। आधुनिक संसाधन और डॉक्टरों को बेहतर सुविधा आदि मुहैया कराने के नाम पर ईलाज महंगे हो जाएंगे। हालंाकि, देखा यह भी गया है कि अधिसंख्य लोग मामूली सर्दी-जुकाम-बुखार होने पर भी एम्स चले जाते हैं, विशेषकर हिंदी प्रदेशों के लोग। जबकि एम्स की परिकल्पना और अवधारणा यह नहीं है।
बहरहाल, केंद्रीय सरकार लोगों की सुविधाओं को ध्यान में रखकर जल्द ही घोषित 6 अन्य एम्स स्थापना की बात कर रही है। तभी तो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की तर्ज पर देश में बनाए जाने वाले छह संस्थानों के निर्माण कार्यों को समय पर पूरा करने के लिए सरकार ने 10 करोड़ रुपए की इनामी राशि घोषित की है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने इस संदर्भ में घोषणा की है कि दो साल की अवधि में इन संस्थानों का निर्माण कार्य पूरा करने वाले ठेकेदार को 10 करोड़ रुपए की राशि नकद दी जाएगी। वैसे ढाई साल की अवधि में निर्माण पूरा न करने वाले को जुर्माना देना होगा और उसका ठेका रद्द किया जा सकता है। प्रस्तावित छह नए एम्स संस्थानों के टेंडर का कार्य गत 2 नवंबर से शुरू हो चुका है। पटना, रायपुर, भोपाल, भुवनेश्वर, जोधपुर और ऋषिकेश में एम्स जैसे छह संस्थान बनाए जा रहे हैं, जिससे उन राज्यों में एम्स जैसी बेहतर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जा सके और वहां के रोगियों को दिल्ली भागना न पड़े। इससे दिल्ली में एम्स और सफदरजंग में रोगियों के बोझ को कम किया जा सकेगा। केंद्रीय मंत्री गुलाब नबी आजाद का कहना है कि निर्माण ठेके की शर्त के अनुसार, निर्माण कार्य ढाई साल में पूरा न कर पाने वाले ठेकेदार का ठेका रद्द कर दिया जाएगा और उस ठेकेदार पर जुर्माना भी किया जाएगा। एम्स अनुसंधान कार्यों और रेफरल अस्पताल के रूप में बनाया गया था, लेकिन दिल्ली के बाहर से बड़ी संख्या में रोगियों के आने के कारण इसकी अनुसंधान गतिविधियां प्रभावित हो रही हैं।
बहरहाल, एम्स के वरिष्ठ शिक्षकों के संगठन प्रोग्रेसिव मेडिकोस एंड साइंटिस्ट्स फोरम (पीएमएसएफ) ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया है कि वह वेलियनाथन समिति की सिफारिशों को लागू करने की योजना बनाकर संस्थान के व्यवसायीकरण का प्रयास कर रही है। फोरम ने कहा है कि यह संस्थान जनता को स्वास्य सुविधा मुहैया कराने और देश में मेडिकल शिक्षा तथा स्वास्य संबंधी अनुसंधान कार्यों को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया था और वेलियनाथन समिति की सिफारिशें एम्स के इस मूल चरित्र को ही बदल कर रख देंगी। एम्स का गठन संसद ने कानून बनाकर किया था और इसके मूल चरित्र में किसी भी तरह का परिवर्तन करने का अधिकार केवल संसद को ही है न कि किसी समिति को। ज्ञातव्य है कि प्रो। एम एस वेलियाथन की अध्यक्षता वाली एक सदस्यीय समिति ने एम्स के संचालन में पारदर्शिता लाने तथा उसकी आय के स्रोतों को बढ़ाने के लिए कुछ सिफारिशें की थी जिन पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। फोरम के प्रतिनिधियों ने यूनी(एजेंसी) से कहा कि एम्स को वित्तीय स्वायत्ता से ज्यादा आवश्यकता शैक्षिक स्वायत्ता की है क्योंकि इतिहास गवाह है कि सरकारी सहायता प्राप्त संगठन अधिक लोकतांत्रिक होते हैं। फोरम ने जनता तक स्वास्य सुविधाएं पहुंचाने को सरकार की जिम्मेदारी बताते हुये कहा कि देश के कोने.कोने से लोग यहां इलाज के लिए आते हैं1 इन सिफारिशों के लागू होने से उनके लिए यहां इलाज कराना नामुमकिन हो जाएगा साथ ही गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए मुफ्त बिस्तरों की संख्या भी कम हो जाएगी। भारतीय उद्योग जगत को परामर्श देने के लिए मेडिकल शिक्षकों को प्रोत्साहित करने के बारे में फोरम ने कहा कि इससे शिक्षक अपना ज्यादा समय परामर्श देने में ही लगाएंगे न.न. कि पढ़ाने में। उसने कहा कि एम्स की परामर्शदाता समिति में नैसकाम और अंतरिक्ष विभाग के प्रतिनिधियों को शामिल करने की जो सिफारिश की गई है उससे इसकी शैक्षिक स्वायत्तता पर खतरा उत्पन्न होगा।