बुधवार, 17 दिसंबर 2014

आदिवासी क्षेत्र में आते ही मोदी ने बदला सुर

 झारखण्ड की राजनीति का सत्ता द्वार माने जाने वाले संथाल परगना मंे आते ही तमाम राजनीतिक दलों के सुर और प्राथमिकताएं बदल गईं। क्षेत्रीय दल तो क्षेत्रीय मुद्दों को उठाते ही रहे हैं, लेकिन विकास के पैरोकार माने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्राथमिकताएं भी संथाल में आते ही बदल गईं। अपने विरोधियों पर सीधे तौर पर हमला करने वाले मोदी ने यहां अपना चिर-परिचित रूप नहीं धरा। झामुमो के सर्वमान्य नेता षिबू सोरेन पर सीधे हमला नहीं किया। परोक्ष रूप से जनता से संवाद किया। संथाल की जनता से इन्हें सुधारने की बात की, इन्हें सीधे तौर पर मौका नहीं दी। नरेंद्र मोदी की भाजपा भी संथाल में अपने घोषणापत्र की बात नहीं करती है। भाजपा भी यहां केवल आदिवासी हित की बात करती है। क्या हुआ अगर संथाल परगमना में होने वाले 16 सीटों में से 9 सीटें आरक्षित हैं ? क्या हुआ अगर यह भाजपा की स्थिति बीते दो विधानसभा चुनाव मंे खराब हुई ? मोदी जी जीत के रथ पर सवार होने वाली भाजपा को क्या अपने एजेंडे और विकास के प्रारूप पर संथाल मंे भरोसा नहीं रहा ? क्या संथाल में वह आदिवासियों के सर्वमान्य नेता षिबू सोरेन को सीधे चुनौती देने की स्थिति में नहीं है? क्या भाजपा लोकसभा चुनाव में आदिवासियों के नेता बनने ही चाह लिए बाबूलाल मरांडी की हार से डरी हुई है ?
ऐसे एक नहीं, कई सवाल हैं। जो मन में उमड़-घुमर रहे हैं। अब पूरे झारखण्ड की नजर केवल और केवल संथाल पर टिक गई है। एक बार संथाल अपने चरित्र को और भी अधिक मजबूत कर रहा है कि सत्ता की धारा यहीं से तय होती है। अब तो भाजपा के प्रदेष अध्यक्ष रवीन्द्र राय भी कह रहे हैं कि संथाल में मुख्य मुकाबला भाजपा और झामुमो के बीच ही है। कांग्रेस और झाविमो तो वोट कटवा पार्टी हैै। मतदान से पहले यहां के तमाम राजनीतिक दल स्थानीयता की बात कर रहे हैं। जमीन कानून की बात कर रहे हैं। आदिवासियों के हित की बात कर रहे हैं। सिद्धू-कान्हू की षहादत की बात कर रहे हैं। बिरसा मुण्डा की परंपरा की बात कर रहे हैं। सिद्धू-कान्हू की धरती बरहेट से जैसे ही राज्य के मुख्यमंत्री और दिषोम गुरू षिबू सोरेन के राजनीतिक उत्तराधिकारी हेमंत सोरेन ने चुनावी पर्चा भरा, आदिवासियों में एक नई उर्जा का संचार हुआ।  
वस्तुस्थिति को समझने के लिए जरा अतीत मंे चलें। लोकसभा चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के कंधों के सहारे पूरे देष में जीत की रथ पर सवार हुई, तो अचानक यह सवाल लोगों के जेहन में उभरने लगा कि आदिवासी क्षेत्रों में भी जो वोट प्रतिषत और भाजपा के जीत का आंकड़ा बढ़ा है, उसके क्या कारण हैं? यह सच है कि भाजपा ने आदिवासी नेताओं को सत्ता और संगठन में बराबर का महत्व दिया है। बावजूद इसके उसे अभी भी करिश्माई आदिवासी नेता की तलाश है। झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेष, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों में जिस प्रकार से भाजपा के वोट और सीटों में इजाफा हुआ है, वह काफी चैंकाने वाला है। कहा जा रहा है कि इन क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों ने दषकों तक जो जन जागरण अभियान चलाया, धर्मांतरण को रोका, उसका प्रतिफल अब जाकर मिला है। यह कहने की आवष्यकता नहीं है कि आदिवासी बहुल क्षेत्रों में ईसाई मिषनरियां हिंदुओं को जबर्दस्त तरीके से धर्मांतरण कराती रही हैं। संघ और उसके संगठनों ने इसे काफी हद तक रोका है। साथ ही कई बार ईसाइयों को पुनः हिंदू बनाने के लिए संघ ने काफी काम किया है। मध्य प्रदेष में भाजपा के अध्यक्ष प्रभात झा हुआ करते थे, उस समय मंडला, झाबुआ सहित दूसरे आदिवासी इलाकों में संघ और भाजपा ने मिलकर ऐसा अभियान चलाया था। जिसके बाद कई दूसरे क्षेत्रों में भी इस योजना पर काम किया गया।
झारखंड में षुरू से ही धर्मांतरण बड़े पैमाने पर होता रहा है। रांची, खूंटी, दुमका, पाकुड, साहिबगंज, जमषेदपुर, पाकुड, लोहरदगा आदि क्षेत्रों में यह काम होता रहा है। कहा जा रहा है कि जब से भाजपा अस्तित्व में आई, तब से इस क्षेत्र की भलाई के लिए वह काम करती रही है। धर्मांतरण पर रोक और गरीबों की बेहतरी के लिए पार्टी की ओर से कई योजनाएं चलाई गई। संघ ने काफी सक्रियता से काम किया है, जिसका लाभ अब जाकर उसे मिला है। राज्य की कुल 14 लोकसभा सीटों में से 12 सीट पर उसे जीत मिली है। झारखंड में लोकसभा की 14 सीटों में मोदी की लहर में भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा की 56 सीटों पर बढ़त मिली,दुमका में भाजपा को एक और झामुमो को चार तथा झाविमो को 2 क्षेत्रों में कामयाबी मिली। गोड्डा में भाजपा को तीन, कांग्रेस को 2 व झाविमो को एक, चतरा में भाजपा को सभी पांच, कोडरमा में भाजपा को 3 व माले को 3, गिरिडीह में भाजपा को 4 व झामुमो को 2, धनबाद में भाजपा को सभी 6 सीटों में, रांची में भाजपा को 5 और आजसू को 1, जमशेदपुर में भाजपा को 5 और झाविमो को 1, सिंहभूम में भाजपा को 3 और जय भारत समानता पार्टी को 3, खूंटी में भाजपा को 4 और झारखंड पार्टी को 2, लोहरदगा में भाजपा को 4 और कांग्रेस को एक, पलामू में सभी 6 और हजारीबाग में भी भाजपा को सभी 5 सीटों पर सफलता मिली।
अब सवाल फिर वहीं आकर ठहर जाता है कि संथाल का कैसा चरित्र होगा ? बेषक लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राज्य की 12 सीटें पर परचम लहराया हो, लेकिन उसे दुमका और राजमहल में मुंह की खानी पड़ी थी। अब विधानसभा चुनाव इसी दुमका और राजमहल के इलाकों में बचा हुआ है। बीते चुनाव में षिबू सोरेन उम्मीदवार थे, तो इस बार उनके पुत्र ने पूरी कमान संभाल ली है। दिन-रात एक किए हुए हैं। अपने चैदह महीने के मुख्यमंत्रित्व काल की उपलब्धियां गिना रहे हैं। आदिवासियों में बीच में उनकी भाषा और रंग में बात करते हैं। मोदी ने भी इसी राह का अनुसरण किया। संथाली में अपने संबोधन की षुरुआत की। सियासी जानकारों का कहना है कि झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को संथाल में लाख घेराबंदी करने की कोषिष की जाए, लेकिन विरोधियों के लिए उसे मात देना कभी आसान नहीं रहा। पहले तो अकेले षिबू सोरेन थे, अब तो उनका बेटा और कुनबा रणक्षेत्र में तैयार हो गया है।

शनिवार, 8 नवंबर 2014

उमीदों की आंधी या कुछ और ?

उम्मीदों की आंधी का पांच महीने बाद भी जस का जस होना इस बात का प्रमाण है कि बाकी तमाम नेताओं और पार्टियों ने अपने आपको जन आक्रोश के भंवर में कितना बुरी तरह फंसाया हुआ है। 


राजनीति में फिलहाल सार्थक विकल्प नहीं हंै। भाजपा अपनी सफलता के साथ लगातार कांग्रेस की तरह होती जा रही है। हरियाणा में थोक भाव से भाजपा ने कांग्रेस के नेताओं का आयात किया। मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की बात तो करते हैं पर क्या उन्हें पता है कि बीते कुछ समय से वे भाजपा का ही कांग्रेसीकरण करते जा रहे हैं। जाति-समुदाय का गणित जारी है। डेरा से किया गया भाजपा का "सच्चा सौदा" भी किसी वैकल्पिक राजनीति की नींव नहीं रखता। इसलिए, राजनीति का संकट आज पहले से कहीं ज्यादा गहरा है। राज्यों के विधानसभा चुनावों में जनता ने फिर बदलाव के लिए वोट दिया है। इस बदलाव की आकांक्षा के पीछे लोगों में कांग्रेस से निराशा की भूमिका अधिक रही या फिर मोदी का आकर्षण अधिक था इस पर बहस की जा सकती है। पर इस पर कोई बहस नहीं है कि लोग अब भ्रष्टाचार और संकीर्ण राजनीति से ऊब चुके हैं और उन्हें जिस तरफ भी कोई बेहतर विकल्प मिलता है वे उस तरफ चल देते हैं। इसलिए राजनेताओं के लिए ये चुनाव एक सबक हंै। क्या हैं इस चुनाव के निहितार्थ, 
महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भाजपा का सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आना बताता है कि लोकसभा चुनाव के करीब पांच महीने बाद भी मतदाताओं के बीच नरेंद्र मोदी का प्रभाव कमोबेश बरकरार है। हालांकि अति आत्मविश्वास के साथ शिवसेना से पच्चीस साल पुराना गठबंधन तोड़ नरेंद्र मोदी की रैलियों के सहारे महाराष्ट्र में अपने बूते सरकार बनाने का भाजपा का सपना जिस तरह टूटा है, वह देखने लायक है। पर यह नतीजा उससे भी अधिक उन उद्धव ठाकरे के अहंकार और महत्वाकांक्षा के धूल-धूसरित होने का उदाहरण है, जिन्होंने भाजपा से अलग होने के बाद इस चुनाव को महाराष्ट्र की एकता और अस्मिता का भावुक मुद्दा बना डाला था। बल्कि इसके साथ मनसे के पराभव को भी जोड़ लें, तो यह ठाकरे बंधुओं के लिए चेतावनी है कि खुले चुनाव में क्षेत्रवाद की आक्रामक राजनीति उनका नुकसान ही करेगी। एनसीपी ने हालांकि भाजपा को बाहर से समर्थन देने का ऐलान कर स्पष्ट कर दिया है कि कांग्रेस से अलग होने का फैसला उसने यों ही नहीं लिया था, पर चुनावी नतीजे बताते हैं कि उस गठजोड़ के खिलाफ महाराष्ट्र में वैसी सत्ता-विरोधी लहर भी नहीं थी, जैसी बताई जा रही थी। नरेंद्र मोदी के सघन प्रचार के बावजूद कांग्रेस और एनसीपी आखिर अस्सी से अधिक सीटें ले ही आई हैं। अलबत्ता हरियाणा में शानदार जीत जरूर भाजपा की विराट उपलब्धि है। जिस राज्य में भाजपा ने सहयोगियों के बगैर चुनाव नहीं लड़ा हो, और साथ लड़ते हुए भी जिसका प्रदर्शन बहुत उत्साहनजक नहीं रहा हो, वहां अकेले दम पर सभी सीटों पर चुनाव लड़कर सरकार बनाने के लिए पर्याप्त सीटें जीतकर आना कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है। बेशक हरियाणा में कांग्रेस की पराजय के पीछे उसकी खराब छवि और सत्ता-विरोधी लहर जिम्मेदार है, लेकिन मोदी और भाजपा के पक्ष में बने माहौल का प्रमाण यही है कि मुख्यमंत्री का चेहरा सामने न रखकर भी पार्टी ने यहां शानदार जीत हासिल कर ली है। इनेलो प्रमुख का जमानत पर बाहर आकर चुनावी रैली करना भी काम नहीं आया। हरियाणा का चुनावी नतीजा उन वंशवादी स्थानीय पार्टियों के लिए चेतावनी है, जो अपने भ्रष्टाचरण पर पर्दा डालने के लिए जातिवाद और क्षेत्रवाद का सहारा लेने सेे भी गुरेज नहीं करतीं। हरियाणा के मतदाताओं ने इस तरह की राजनीति को नकार कर बदलाव के पक्ष में वोट दिया है। लिहाजा उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए भाजपा को भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी प्रशासन पर जोर देना होगा।
दरअसल जनता में नरेंद्र मोदी ने उम्मीदों की सुनामी, आंधी पैदा की हुई है। महाराष्ट्र और हरियाणा में भी लोगों ने नरेंद्र मोदी को देख कर वोट डाला है। लोग उम्मीद में अंधे हैं, भावनाओं में बहे हुए हैं इसलिए उन्होंने अपने इलाके में नरेंद्र मोदी-अमित शाह के खड़े किए गए खंभे को भी वोट डाला है। यह बात महाराष्ट्र के संदर्भ में बहुत सटीक है। इसलिए कि महाराष्ट्र के मराठवाड़ा, पश्चिमी महाराष्ट्र जैसे इलाकों में भाजपा का कोई मतलब नहीं रहा है। प्रदेश की 288 सीटों में से भाजपा ने डेढ़ सौ सीटों पर कभी चुनाव ही नहीं लड़ा। उसके पास सभी सीटों के लिए अपने उम्मीदवार तक नहीं थे। कोई पचास उम्मीदवार दूसरी पार्टियों से तोड़ कर अमित शाह ने मैदान में उतरवाए। कई जगह भाजपा का संगठन, आरएसएस की मशीनरी कागजी रही है। इस सबके बावजूद यदि भाजपा महाराष्ट्र में जीत का रिकार्ड बनाती है तो वह उतनी ही चमत्कारित बात होगी जितनी उत्तरप्रदेश में 73 सांसदों का जीतना था।
कांग्रेस नेताओं का कहना है कि मनमोहन सिंह ने चुप रह कर कांग्रेस का भट्ठा बैठाया। उनकी वजह से यह मैसेज गया कि सरकार कुछ नहीं कर रही है। इसी तरह पृथ्वीराज चव्हाण ने मुंबई में भी बैठ कर मैसेज दिया कि सरकार काम नहीं कर रही है। बाद में जब चव्हाण ने मुंह खोला, अपनी चुप्पी तोड़ी तो ऐसी बात कही, जिससे कांग्रेस का भट्ठा बैठा। उन्होंने कहा कि कार्रवाई करते तो कांग्रेस खत्म होती। विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा कि आदर्श घोटाले में कांग्रेस के कई नेताओं के नाम थे। इस तरह उन्होंने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी। अपनी छवि पर भी दाग लगाया और पूरी कांग्रेस व एनसीपी को बदनाम किया। महाराष्ट्र कांग्रेस और एनसीपी के नेता मान रहे हैं कि मतदान से ऐन पहले दिया गया चव्हाण का बयान कांग्रेस की ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। अब वे खुद अपने चुनाव क्षेत्र में हारते दिख रहे हैं। कांग्रेस के ही नेता मान रहे हैं कि वे तीसरे नंबर पर हैं। वहां मुकाबला निर्दलीय विलासराव उंधालकर बनाम भाजपा का है। जिस तरह मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते कांग्रेस लोकसभा में 44 सीटों पर सिमटी है, वैसे ही पृथ्वीराज चव्हाण के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस दहाई में पहुंचने के लिए संघर्ष कर रही है। कांग्रेस में जितने वाले संभावित नेताओं को उंगलियों पर गिना जा रहा है।
हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की जीत बड़ी है, जीत का ढोल भी बड़ा है। इस ढोल की पोल यह कहकर खोली जा सकती है कि महाराष्ट्र में बहुकोणीय मुकाबले के कारण भाजपा की जीत बड़ी लग रही है वरना वोट के बंटवारे के हिसाब से देखें तो जीत बड़ी नहीं है। यह भी कह सकते हैं कि दोनों राज्यों में लोकसभा चुनाव के परिणामों ने खुद को दोहराया भर है। लेकिन यह छोटी बात नहीं है। अपना मानना है कि जैसे देश में मनमोहन सरकार के खिलाफ नफरत, गुस्से में लोग पके हुए थे वैसे ही महाराष्ट्र में एनसीपी-कांग्रेस के लगातार निकम्मे-भ्रष्ट राज से भी जनता गुस्से में सालों से अंदर-अंदर खदबदा रही थी। यह गुस्सा नरेंद्र मोदी के चलते उम्मीदों की आंधी में बदला। मतलब गुस्सा था इसलिए मोदी से उम्मीद जगी। जनता गुस्से से पहले अंधी हुई और फिर नरेंद्र मोदी को ले कर जज्बे में बही।
इस जज्बे, आंधी में नरेंद्र मोदी, अमित शाह की हिंदुत्व अंतरधारा याकि अंडरकरंट अंतरनिहित है। आंधी हिंदू वोटों के धुव्रीकरण की भी है। यह छत्रपति शिवाजी के सपनों को दिल्ली में साकार कराने की अमित शाह की ललकार के चलते है। ध्यान रहे अमित शाह ने हर सभा में शिवसेना को इसी बात पर काटा कि वे शिवाजी (उद्धव ठाकरे) को महाराष्ट्र में बांधते हैं और हम उन्हें दिल्ली, पूरे भारत का मानते हैं। मतलब राजनैतिक पंडित यह जो कह रहे हैं कि मोदी से उम्मीद विकास के वायदे पर बनी। हिंदू अंडरकरंट नहीं है और इन चुनावों में आदित्यनाथ ने प्रचार नहीं किया, लव जेहाद को मुद्दा नहीं बनाया गया। यानी उपचुनावों की हार से सबक सीखते हुए नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने अपने को बदला है और अपनी रणनीति भी बदली है।
एक ऎसे वक्त में जब राज्य ही राजनीति का केंद्र है, लोकसभा चुनावों की बढ़त को विधानसभा चुनावों में बनाए रखना अपने आप में महत्वपूर्ण है। गठबंधन टूटने के बावजूद बढ़त बरकरार रही, यह भी रेखांकित किए जाने योग्य है। लेकिन असल सवाल यह नहीं कि भाजपा की जीत कितनी बड़ी या कांग्रेस की हार कितनी गहरी है। असल सवाल यह है कि हरियाणा और महाराष्ट्र के जनादेश से क्या बदला? जाहिर है चंडीगढ़ और मुंबई में ही नहीं, दिल्ली में भी सत्ता का समीकरण बदलेगा। सिर्फ तात्कालिक रूप से ही नहीं बल्कि दीर्घकाल में भी। राज्यों का चुनावी मानचित्र पुनर्परिभाषित होगा। लेकिन, क्या राज और नीति का रिश्ता बदलेगा? राजनीति का व्याकरण बदलेगा? इस बदलाव से जो नया घट रहा है, वह क्या विकल्प की दिशा में ले जाएगा?
तात्कालिक तौर पर शक्ति-संतुलन में बदलाव सुनिश्चित है। इस बीच सत्ताधारी गठबंधन उपचुनावों की हार के झटकों से उबरते हुए मजबूत हुआ है। गठबंधन के भीतर भाजपा ने वर्चस्व कायम किया। गठबंधन में शामिल कोई भी दल चुनाव, संसद या फिर सरकार में भाजपा की मुखालफत करने का साहस नहीं कर सकता। शिवसेना का कद घटा है। हजकां खत्म हुई है। 
हरियाणा में विधानसभा चुनाव में आए नतीजों को देखते हुए मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने पार्टी की हार स्वीकार कर ली है। हरियाणा के कांग्रेस की करारी हार के बाद भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने अपना इस्तीफा राज्यपाल कप्तान सिंह सौलंकी को सौंपा। इससे पूर्व हुड्डा ने रोहतक में पत्रकारों से बातचीत में कहा कि देश में प्रजातंत्र है और वह जनादेश का सम्मान करते हैं. उन्होंने कहा कि राज्य की जनता ने उन्हें दस वर्ष सेवा करने का मौका दिया उसके लिए वह आभार व्यक्त करते हैं। उनकी सरकार ने राज्य में अभूतपूर्व विकास कार्य किए हैं और जो कार्य चल रहे हैं उन्हें उम्मीद है कि उन्हें राज्य में बनने वाली भारतीय जनता पार्टी की अगली सरकार जारी रखेगी। उन्होंने भाजपा को उसकी जीत पर शुभकामनाएं भी दीं और चंडीगढ़ के लिए रवाना हो गए। उधर भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के राजधानी के पंत मार्ग स्थित बंगले में स्नाता पसरा हुआ है। हालांकि आमतौर पर यहां पर भी चहल-पहल रहती है। दरअसल यह बंगला उनके सांसद पुत्र को आवंटित है। हरियाणा के 90 सीटों में से अभी तक मिले 81 नतीजों में भाजपा को 47, इनेलो को 19, कांग्रेस को 15 सीटें, हजकां को दो और अन्य को 7 सीटें मिली हैं।
भाजपा ने एनडीए की बैसाखियों को छोड़कर राष्ट्रीय फैलाव की तैयारी शुरू की। एनडीए के अंदर भाजपा सब कुछ होती जा रही है। हरियाणा में भाजपा की जीत एक स्थायी सरकार की ओर ले जा रही है जिससे लोगों में उम्मीदें जगना लाजमी है लेकिन जब हम भाजपा के घोषणापत्र पर नजर डालते हैं तो उनकी नीयत और गंभीरता पर शंका होती है। लोकसभा चुनावों में भाजपा कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा देने की बात करती है तो हरियाणा विधान सभा चुनावों में ठीक इसके उलट वादा कर देती है। उधर कांग्रेस में बेताल फिर से अपनी डाल पर जा बैठा है, उपचुनावों से जो भी थोड़ी बहुत राहत मिली थी वह क्षणभंगुर साबित हुई।
तात्कालिक बदलावों के चक्कर में यह ना भूल जायें कि इन चुनाव परिणामों के कुछ दूरगामी असर भी होने वाले हैं। इन दोनों राज्यों में राजनीतिक मुकाबले का स्वरूप बहुत गहराई तक बदल सकता है। हरियाणा में मामला त्रिकोणीय दिखा। इनेलो और कांग्रेस की स्थिति सामने है। इनेलो परिवार जेल में है और इस लिहाज से वह प्रदेश में भाजपा की दयादृष्टि पर आश्रित नजर आ रहा है। कांग्रेस अपना सामाजिक आधार खो रही है और उसे अपने को विपक्ष के रूप में बचाये रखना मुश्किल हो गया है। महाराष्ट्र में मामला बहुकोणीय रहा। भाजपा ने दांव चतुराई से खेला और वहां शिवसेना की चुनौती कम हो गई। लेकिन राकांपा सफल रही, उसने कांग्रेस को उसकी हैसियत बताने की सोची थी और बता दिया। वह क्षेत्रीय पार्टी के रूप में रहेगी। कांग्रेस अब महाराष्ट्र में सिमट गई है।
कांग्रेस पार्टी ने दोनों राज्यों में हार मान ली है। लेकिन हैरानी की बात है कि कांग्रेस के नेता अपने हिसाब में भी दोनों राज्यों में बहुत खराब प्रदर्शन की बात कर रहे हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस नेताओं का अंदाजा है कि खुद पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण अपनी कराड दक्षिण की सीट से चुनाव हार सकते हैं। पार्टी ने उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ा था और अगर वे खुद हार रहे हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि पार्टी की क्या दशा होगी! कांग्रेस के प्रदेश नेताओं का कहना है कि गिने-चुने नेता ही जीतेंगे। तभी पार्टी के नेता हुसैन दलवई ने मतदान खत्म होने के तुरंत बाद मान लिया कि कांग्रेस हार रही है। पार्टी के नेता कह रहे हैं कि कांग्रेस की अब तक की सबसे बुरी हार होगी। और इसके लिए चव्हाण को जिम्मेदार ठहरा कर कांग्रेस आलाकमान से उनकी शिकायत भी शुरू हो गई है।
यहीं हाल हरियाणा में है। कांग्रेस की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष कैप्टेन अजय यादव ने हार मान ली है। उन्होंने कहा है कि कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर थी। लेकिन साथ ही उन्होंने मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ निजी खुन्नस भी जाहिर कर दी। उन्होंने कहा कि क्षेत्रवाद का मुद्दा भी हावी रहा, इसलिए ज्यादातर क्षेत्रों में कांग्रेस को वोट नहीं मिले। उन्होंने पहले भी आरोप लगाया था कि हुड्डा ने सिर्फ रोहतक और आसपास के इलाकों में विकास किया है। नतीजे आने से पहले ही हरियाणा में हुड्डा विरोधी नेता एकजुट हो गए हैं और उनकी शिकायत लेकर कांग्रेस आलाकमान के पास पहुंच गए हैं।

मिथिला बिना विकास नहि


 मिथिलाक विकास के लेल सभ मैथिल के एकजुट होए पड़त। बिना एक भएने मिथिलाक विकास संभव नहिं अछि। नीतीष कुमार कतेक जगह बाजि चुकलाह, विकासक लेल। मिथिला कें के देश के अन्य राज्य... इलाका के संग मुख्यधारा सं जोड़य पड़त। विकास के लेल इंफ्रास्ट्रक्चर पर विशेष खर्च करय पड़त। एकरा लेल सकारात्मक सोच आओर दृढ़ इच्छाशक्ति के जरूरत अछि। नीतीषक सोचक निहितार्थ की छन्हि ?

अपन पौराणिक आ ऐतिहासिक आख्यान मे जाहि मिथिलाक वर्णन कएल गेल अछि, ओ आइयो नजरि आबि सकैत अछि। भले ही किछु बरखक लेल मिथिलाक गौरवमयी परंपरा कें नजरि लागि गेल छल, राजनीतिक उपेक्षा सं क्षेत्र त्राहि-त्राहि कय रहल छल, मुदा आब विकास पुरूषक नाम सं विख्यात भ रहल मुख्यमंत्री नीतिश कुमार सेहो मानि रहल छथि जे जाधरि मिथिलाक विकास नहि भ सकत, बिहारक विकास संभव नहि। इ गप्प ओ एक बेर, नहि कतेको बेर कतेक ठाम बजने छथि।
पिछला महिना एक बेर फेर जहन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दरभंगा अयोलाह त कहलनि जे मिथिलाक कला आ संस्कृ तिक  बिनु देशक पिहानी अपूर्ण अछि। एहि क्षेत्रमे मिथिला बेसी समृद्ध अछि। एहि ठाम कतेको प्रकाण्ड विद्वान भेला जे समाज आ राष्ट्रकेँ नव बात देखौलनि आइ चारू भर देशमे मिथिलाक गूञ्ज अछि। जहिना देशक विकास बिहारक प्रगतिकेँ बिनु सम्भव नञि अछि तहिना मिथिलाक विकासक बिनु देशक प्रगति असम्भव अछि। मुख्यमंत्री कहलनि जे मिथिला कला आ संस्कृतिके ँ विकासक लेल सरकार प्रतिबद्ध अछि। मिथिला पेण्टिंगकेँ विकसित करबाक लेल मधुबनी जिलाक सौराठमे डिम्ड यूनिवर्सिटी खुजि रहल अछि। एहि ठामक सीकी कलाकेँ सेहो मान्यता भेटऽ जा रहल अछि। प्रदेशक विकासपर बजैत ओ कहलनि जे आइ जतबा परिवर्तन देखबामे आबि रहल अछि से राज्यमे उपलब्ध सीमित संसाधनक बलपर भेल अछि। जँ केन्द्र सरकारक ध्यान पड़ै तँ राज्यक चेहरा आरो चमकि जाएत। श्री कु मार कहलनि जे भारतक विकास दर विकसित प्रदेशक भरोसे अछि एहि चलते ई दर उपर-नीचा होइत रहैत अछि। एकरा स्थिर करबाक लेल विकासशील राज्य सभकेँ विशेष दर्जा प्रदान करब आवश्यक अछि। बिहारक साढ़े दस करोड़ जनता देश भरिमे बोझ बनि कऽ नञि रहऽ चाहैत अछि। हम सभ विकासमे सहभागी होबए चाहै छी। एखन बिहारक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 2.9 प्रतिशत अछि। देशक आबादीक आठ प्रतिशत जनसंख्या राज्यमे अछि। हम चाहैत छी जे देशक जीडीपीमे हमर सहभागिता दस प्रतिशत होबए। एहि लेल विशेष राज्यक दर्जा हमर माङ अछि। ई जाबत धरि पूर्ण नञि होएत तँ एहि लेल आवाज उठबैत रहब।
नीतीश कुमार दरभंगा आयल छलाह पूर्व विधान पार्षद आ मिथिलाक राजनीतिक धुरी बनि चुकल संजय झा कें ऐच्छिक कोष सं राज दरभंगा मे बनल जानकी भवन के उदघाटन करबाक लेल। एहि समारोह मे जहन मुख्यमंत्री एहन गप्प बजलाह, त हुनक कबीना मंत्री विजय कुमार चैधरी कहलनि जे पञ्चवर्षीय योजना (2007-12) मे देशक पैघ राज्यक विकास गतिमे सभसँ तेज बिहार गति रहल एहि लेल पछिला दिन उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी पुरस्कार सेहो ग्रहण केलनि। ई हमर विकासक प्रति प्रतिबद्धताक प्रमाण अछि। दरभंगा नगर विधायक संजय सरावगी मिथिलाक कला आ संस्कृतिक विकास लेल भऽ रहल काजक चर्चा करैत कहलनि जे पर्यटन आ कला विभागक संग एक गोट स्वायत विकास परिषद बने जे मिथिलाक विलुप्त होइत धरोहरिकेँ चिन्ता करए। पूर्व विधान पार्षद संजय झा बजलाह जे मिथिलाक विकास लेल मुख्यमंत्री हड़िदम चिन्तित रहैत छथि। चाहे रेलमंत्रीक रूपमे हो आ कि भूतल परिवहन मंत्रीक भूमिकामे। हिनक कार्यकालमे एहि क्षेत्रमे विकासक काज बेसी भेल। मिथिला धार्मिक सम्भाव आदर्श चित्र अछि। एही एकताक संग राज्यक विकास सेहो सम्भव होएत। अपन अध्यक्षीय भाषण मे पूर्व विधान पार्षद संजय झा कहलनि जे नीतीश जीक शासनकाल मे दू फाँकमे बँटल मिथिला आवागमनक दृष्टिसँ एक भेल।
इ त भेल एक समारोह गप्पक। जदि किछु पुरनका गप्प पर नजरि दौड़ाबी त ज्ञात होयत जे नीतीश कुमार अपन पहिल शासनकालक अपेक्षा दोसर शासनकाल मे मिथिलाक प्रति कनी बेसी सचेष्ट छथि। ओ अपन चुनावी यात्रा बेनीपटटी सं शुरू करैत छथि त सौराठ मे मिथिला पेंटिंग आ झंझारपुर क्षेत्र मे मखाना उद्योगक लेल जोर लगाबैत छथि। ओना इ कहल जा रहल अछि जे एकर पाछां हुनक आगू राजनीतिक सोच छन्हि। कहल त इहो जा रहल अछि जे नीतीश मिथिला मे जदयू के जनाधार बढएबाक लेल बेस कोशिश कय रहल छथि आ एकर जिम्मेदारी एक तरहें संजय झा के कान्हा पर छन्हि।
ओना संगहि इहो गप्प उठैत अछि जे बिहारक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मिथिला मे आयोजित प्रायः प्रत्येक सभा मे बेर-बेर कहैत रहलाह अछि जे ‘मिथिलाक विकासक बिना बिहार विकास संभव नहि।’ जदि हृदय सँ मुख्यमंत्री के एहि गप्प के स्वीकार करैत छी त प्रश्न इहो ठाढ होइत अछि जे मिथिलाक मातृभाषा मैथिली के प्राथमिक स्तर सँ अध्ययन अध्यापनक आदेश मे बिलंब किऐक ? अन्य विषयक प्राथमिक स्तर पर मैथिली शिक्षकक नियुक्तिक प्रावधान किऐक नहि ? उच्च शिक्षा मे मैथिलीक अध्यापनक व्यवस्था रहितहुँ प्राथमिक स्तर पर मैथिलीक अध्यापन प्रावधान नहि रहला सँ महाविद्यालय आ विश्वविद्यालय स्तर पर मैथिलीक छात्र-छात्रा सभक संख्या सोचनीय अछि। एहि दुरंगी नीति के की अर्थ ? ओना राज्य सरकार विद्यापति पर्व समारोह के राजकीय पर्व समारोह आ जानकी नवमी के दिन सार्वजनिक अवकाशक घोषणा कऽ एहि क्षेत्रक लोकनिक मुँह बन्न करबाक प्रयास अवश्य कयलक अछि। मुदा एहि सँ मातृभाषा मैथिलीक विकास कतय धरि संभव भऽ सकत ? मिथिलाक विकासक लेल ओकरा जमीनी लीडरशिप चाही। एहन एहन ग्रुप बनए जे ग्रुप मिथिलाक सुदूर देहात मे घुमि लोक सभ क’ जागृत करए, जेकर भाषा मात्र मैथिली छैक। ओ जे बजैत अछि सैह मैथिली छैक। मैथिलीक संग कतेक षड़यंत्र भ’ रहल छैक। कनेक टेढ़ बाजू त’ मैथिली ,बज्जिका , अंगिका मुंगेरिया आ आर कतेक भाषा मे परिणत भ’ जायत छैक। मुदा से गलत छैक। कोनो भाषा शुद्ध सभठाम नहि बाजल जायत छैक। जे हिंदी इलहाबादक छैक से कतौ दोसर ठामक छैक की ? जतेक प्रान्त ओतेक तरहक हिंदी। बनारस ,पटना ,कोलकोता ,भोपाल ,चंडीगढ़ ,दिल्ली आ दक्षिण भारत कतौक हिंदी मानक नहि मुदा ओ सभ हिंदी छैक। हर भाषा मे वैह गप छैक मुदा मैथिली संग सौतेला जका व्यबहार। एकर मूल कारण जे ग्रासरूट पर हम सभ मैथिल के एखन तक जागृत नहि कयल। सहरसा,पुरनिया आ कटिहार जिलाक सुदूर देहात मे जाइत छलौ त’ देखियैक मैथिली छोरि कोनो भाषा केकरो नहि बाजल होयक। पुछला पर उत्तर भेटय जे हमरा सभक मातृभाषा हिंदी अछि। ईहो गप मैथिली मे बजैत छल। एक बेर सहरसा जिलाक एकटा कालेज टीचर स गपक काल कहलनि जे हुनकर मातृभाषा हिंदी छनि।
मिथिलाक गाथा कतओक शताब्दी धरि पसरल अछि । ई कहल गेल अछि जे गौतम बुद्ध आ वर्धमान महावीर दुनू गोटे मिथिला मे रहल छलाह । ई प्रथम सहस्त्राब्दिक दौरान भारतीय इतिहासक केंद्र छल आ विभिन्न साहित्यिक आ धर्मग्रंथ संबंधी काज मे अपन योगदान देलक । मैथिली मिथिला मे बाजय जायवला भाषा थिक । भाषाविद मैथिली कें पूर्वी भारतीय भाषा मानलनि अछि आ एहि तरहें ई हिन्दी सँ भिन्न अछि । मैथिली कें पहिने हिन्दी आ बंगला दुनूक उप-भाषा मानल जाइत छल । वस्तुतरू मैथिली आब भारतीय भाषा बनि चुकल अछि । मिथिलाक सभ सँ महत्वपूर्ण संदर्भ हिन्दू ग्रंथ रामायण मे अछि, जतए एहि भूमिक राजकुमारी सीता कें रामक पत्नी कहल गेल अछि । राजा जनक सीताक पिता छलाह, जे मिथिला पर जनकपुर सँ शासन केलनि । प्राचीन समय मे मिथिलाक अन्य प्रसिद्ध राजा भानुमठ, सतघुमन्य, सुचि, उर्जनामा, सतध्वज, कृत, अनजान, अरिस्नामी, श्रुतयू, सुपाश्यु, सुटयशु, श्रृनजय, शौरमाबि, एनेना, भीमरथ, सत्यरथ, उपांगु, उपगुप्त, स्वागत, स्नानंद, शुसुरथ, जय-विजय, क्रितु, सनी, विथ हस्या, द्ववाति, बहुलाश्व आदि भेलाह ।
’मिथिला, एहि क्षेत्र मे सृजित हिन्दू कलाक एक प्रकारक नाम सेहो थिक । ई विशेष कऽ वियाह सँ पूर्व महिला द्वारा घर के सजेबाक लेल घरक देबार आ सतह पर धार्मिक, ज्यामितीय आ चिहनांकित आकृति सँ शुरु भेल आ एहि क्षेत्र सँ बाहर एकरा नहि जानल जाइत छल । जहन एहि कलाक लेल कागजक शुरुआत भेल तँ महिला लोकनि अपन कलाकृति कें बेचय लगलीह आ कलाक विषय वस्तु कें लोकप्रिय आ स्थानीय देवताक संगहि प्रतिदिनक घटनाक चित्रांकन धरि विस्तृत केलीह । गंगा देवी संभवतरू सब सँ प्रसिद्ध मिथिलाक कलाकार छथि । ओ परंपरागत धार्मिक मिथिला चित्रांकन, लोकप्रिय देवताक चित्रांकन, रामायण आ अपन जिनगीक घटना सँ दृश्यक चित्रांकन कयलनि खेती एहि क्षेत्रक मुख्य आर्थिक कार्यकलाप थिक । मुख्य फसल धान, गहूम, दालि, मकई, मुँग, उडद, राहड़ि आदि आ जूट (एकर उत्पादन मे कमी आयल अछि) अछि । आई- काल्हि देशक आन भागक तुलना मे खेती नीक नहि रहबाक कारणें, ई सब सँ अधिक पिछड़ल क्षेत्र भऽ गेल अछि । बाढि हर वर्ष फसलक पैघ भाग कें नाश कऽ दैत अछि । उद्योगक अनुपस्थिति, कमजोर शैक्षिक अवसंरचना आ राजनीतिक अपराधीकरणक कारणें अधिकांश युवक कें शिक्षा आ आमदनीक लेल स्थान परिवर्तन करय पड़ैत छनि । एहि परिवर्तनक उज्जवल पक्ष इ आछे जे ओ लोकनि भारतक प्रमुख क्षेत्र और स्थान मे महत्वपूर्ण भऽ गेलाह अछि । मिथिला पेंटिग आब बाजार मे हिस्सेदारी प्राप्त कयलक अछि । आब सरकार सेहो राष्ट्रीय धरोहरक रूप मे एकरा सहायता दऽ रहल अछि ।।
गप्प त इहो अछि जे मिथिलाक विकास लेल जनप्रतिनिधि आ अधिकारीक सक्रियता आ इच्छा एक बेर फेर सवालक दायरा मे आबि गेल अछि। कहल जा रहल अछि जे मिथिलाक जनप्रतिनिधि लग क्षेत्रक विकास लेल कोनो योजना नहि अछि। एहि क्षेत्र मे पदस्थापित अधिकारी सेहो विकास लेल कोनो ब्लू प्रिंट तखन धरि तैयार नहि करैत छथि जखन धरि हुनका एकर निर्देश नहि भेटैत अछि। कुल मिला कए मिथिला क विकास क गप त बहुत होइत अछि मुदा योजना तकबा काल सब अगल बगल झंकैत भेट जाएत। जहन सहरसा मे अपन विकास यात्रा क चारिम चरण क दोसर दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मत्स्यगंधा झील क निरीक्षण करबा लेल पहुंचलाह। झीलक स्थिति देख मुख्यमंत्री सबस पहिने जनप्रतिनिधि स झील क विकास लेल गप केलथि। जनप्रतिनिधि झील क इतिहास छोडि भविष्य लेल किछु नहि कहि सकलाह। मुख्यमंत्री झीलक विकास लेल पदाधिकारी स योजना क संदर्भ मे जानकारी चाहलथि। पदाधिकारी लग कोनो योजना तैयार नहि छल। मुख्यमंत्री क्षेत्रक विकास पर एहि उदासीनता स स्तब्ध भ गेलाह। ओ तत्काल अधिकारी कए झील क सफाई आ सौंदर्यीकरण क निर्देश देलथि संगहि झीलक विकास लेल एकटा वृहत योजना तैयार करबाक आदेश देलथि। स्थानीय लोक क कहब अछि जे मुख्यमंत्रीक आदेशक बादो अगर स्थानीय जनप्रतिनिधि या अधिकारी एहि झील विकास लेल प्रयास करथि त खुशी होएत। ओना स्थानीय लोक इ सवाल सेहो करैत छथि जे आइ देश मे पंचायत राजक गप भ रहल अछि मुदा बिहार मे प्रमंडल स्तर पर योजना तखन तैयार भ रहल अछि जखन राज्यक मुखिया आदेश या निर्देशदैत छथि। स्थानीय जनप्रतिनिधि आ अधिकारी कहिया धरि मुख्यमंत्रीक आदेश आ निर्देश क बाद विकस लेल कार्ययोजना तैयार करतथि। आखिर मुख्यमंत्री तक कहिया पहुंचत मिथिलाक विकासक कोनो योजना।
ध्यान मे इहो रखबाक चाही जे मिथिलाक जनप्रतिनिधिक चुप्पी क बीच मुख्यमंत्री नीतीश कुमार केंद्र स यथाशीघ्र दरभंगा आ पूर्णिया स हवाई सेवा शुरू करबाक मांग कयने छलाह। मुख्यमंत्री एहि संबंध मे नागरिक उड्डयन मंत्री अजीत सिंह स गप केलथि अछि। मुख्यमंत्री अजीत सिंह स अनुरोध केलथि अछि जे ‘गया मे इंटरनेशनल फ्लाइट क नियमित संचालन कैल जाए, जखन कि पूर्णिया आ दरभंगा स घरेलू उड़ान आरंभ कैल जाए। हालांकि मुख्यमंत्री साफ केलथि जे एहि प्रकारक रोक संबंधी कोनो जानकारी राज्य सरकार लग नहि अछि आ दरभंगा आ पूर्णिया मे पटनाक एयरपोर्ट चालू रहबाक बावजूद पैघ विमान उतरत।
आखिर मिथिलाक विकास कोना भ सकत ? यदि मुद्दा पर लोक सभ सं गप्प कएल गेल, त सभ लोकनि के कहनाय छलन्हि जे मिथिलाक विकास के राह मे सभ सं बड़का बाधा बाढ़ि अछि। साल भर मे विकासक जतेक काज होएत अछि बाढ़ि सभटा के अपना संग बहा के ले जाएत अछि। एकरा लेल बड़का- बड़का बांध बनयबाक जरूरत अछि। बिना बाढ़िक समस्या के स्थायी समाधान कएने विकासक बात सोचनाय नीक नहिं होएत। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र जीक कहनाय छलन्हि जे कोसी नदी विवाद के हल निकालय लेल नेपाल के संग समझदारी विकसित करय पड़त। जरूरत पड़ला पर भारत के एहि मुद्दा के अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सेहो उठयबाक चाही। एहि मामला के बेसि दिन तक टालल नहिं जा सकैत अछि. लोक के गुस्सा फुटत त फेर सरकार के लेल मुश्किल भे सकैत अछि। पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. संजय पासवान के कहब छन्हि जे लोक के मिथिलाक... बिहारक विकास के लेल सभ के एकजुट होए पड़त। खैनी...तम्बाकू खाय के पड़य रहय वाला प्रवृति के त्यागे पड़त। बाहरी दिल्ली के सांसद महाबल मिश्रा जी कहलाह जे लोक के फुस्सि बाजय के आदत छोड़य पड़तन्हि. ओ अपन मैथिली मे शपथ लेबय के जिक्र सेहो कएलाह। हुनकर कहनाय छलन्हि जे विकास के लेल शिक्षा ... पढ़ाई लिखाई पर जोर देबय के जरूरत अछि। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. डी. एन. झा सोशल ऑडिटिंग पर जोर दैत छथि आ हुनक कहब छन्हि जे आगां के बात करय सं पहिने हमरा ई देखय पड़त जे आजादी के एतेक दिन भेलाह के बादो हम एतेक किएक पिछड़ल छी। हमरा ई ध्यान राखय पड़त जे पिछला 60 साल मे कतेक विकास भेल आ विकास नहिं भेल त एकरा लेल के जिम्मेदार छथि। लेखिका मृदुला सिन्हा जीक कहब छन्हि जे गुजरात के एकटा छोट छिन गाम मे जे विकास भेल अछि ओ हमर शहर मे नहिं अछि। विकास के लेल काज करय के जरूरत अछि।
नीतीश कुमार कहैत छथि  जे मिथिलाक विकास बिना बिहाकर विकास नहि, त सवाल उठैत अछि, जो आखिर विकास कोना होएत ? किछु लोकक नजरि मे एकर समाधान अलग मिथिला राज्यक रूप मे अछि ? एहि लय एक मैथिलकेर भ्रम स्थिति छन्हि। मिथिला राज्य के माँग जल्दी सभक समझमें सहीमें नहि अबैत छैक, एहि मर्म के हमहुँ बहुत देरी सऽ बुझलहुँ। जेना एखनहु कतेको युवा जाहिमें विशेषरूपसँ अपन पैर पर ठाड्ह आत्मविश्वास सऽ भरल लोक मिथिला राज्यक माँगके विरोध करैत अछि। ओहि युवा के संसार में कतहु राखि देबैक तऽ फिट भऽ जायत ओ अपन मैथिलत्वके जोतिके खाइत अछि मुदा मिथिलाक अस्मिता लेल ओकरामें कोनो खास सोच नहि छैक। जस्टीफिकेशन लाख उपलब्ध करा देत, लेकिन कहियो इहो सोचैत जे आखिर हमरा में कोन माटि-पानिक शक्ति प्रवेश केलक जेकर कमाइ हम खा रहल छी, से सभटा बिसैर उलटे पढौनाइ चालू करत आ छोटकृ -पैघ सभटा बिसैर बस बुद्धि बघारब शुरु कय देत! देखलियैक नऽ जखन बिहार गीत बनेलक तऽ २००-२५० वर्षक ध्यान रहलैक आ लाखों-करोडों वर्षक इतिहासके धनी मिथिलाके दरकिनार कय देलक बिहार सरकार! नेपाल में देख लियौक जे मधेस चाही मुदा मिथिलाक पहचान लेल कोनो विचार नहि! बस ढूइस लडयवाला बलजोरी थोपयवाला कहानी सभ गढल जा रहल अछि। मैथिलकेँ विकास के चिन्ता छन्हि आ विकास लेल कि हेबाक चाही, कि भेल तेकर सभक कोनो लेखा-जोखा नहि छन्हि। कियो कोनो दलील तऽ कियो कोनो! किनको ई कहाँ जे वास्तवमें मंथन करी कि हम कि छलहुँ कि छी आ अहिना रहत तऽ कि होयब। पहचान बनैत छैक विशिष्टता सँ, अहाँके समस्त विशिष्टताके तऽ दाउ पर लगा देलक, घर सऽ बैला देलक, खेत जे उर्वर छल तेकरा बाउल सऽ भैर देलक३. बरु पहिले प्रकृतिक अपनहि रूप छलैक जे नदी सभ खुजल छलैक तऽ आइ जेना नहि कि टाका कमाइ लेल चमचा-लोभी ठीकेदार द्वारा बान्ह कटबाय बस भसियाबैत-बलुआबैत रहत! कहाँ गेल मिल सभ? पेपर, सुगर, राइस-फ्लोर-आयल मिल? माछ-मखान-पान खाली किताबे में रहि गेल? पाकिस्तानी मीठा पान खूब प्रसिद्ध अछि, लेकिन मिथिला के कथी भेटैत अछि हिन्दुस्तानके हर कोण में, बताउ तऽ? चैका-बर्तन साफ करनिहार? मजदूरी करैत रैयत में बसनिहार? सारा देश लेल सोचैत अपन घर के लोकविहीन रखनिहार? दोसरक खेतमें काज करब मुदा अपन गाममें निकम्मापनी देखेनिहार? ऊफ! मिथिलाके एहेन दुर्दशा लेल आखिर हम सभ किऐक नहि आत्ममंथन करी? देख लियौक जे स्वतंत्र भारतमें राज्य निर्माणके बुनियाद कि रहलैक? मिथिलाक दुर्भाग्य जे १८१६ के सुगौली समझौता सऽ दू दिस बँटि गेल आ तहिये सऽ मिथिला अपन कोनो अस्मिता नहि कायम राखि सकल? तऽ अंग्रेज या ताहि समयक राजाके कमजोरी सऽ मिथिला कि आइ दू सौ वर्ष तक कनिते रहय? हाँ! बाहरी आ भितरी दुनू दुष्ट तेहेन जोगार लगा देलक जे मैथिल आपसे में लडैत रहय आ बहरीके शासनमें पडल रहय! जी! पहिले जमीन्दारी दऽ के, फेर आरक्छण दऽ के, फेर जातीयताके दंगा पसारि, फेर मिथिलाके पैघ तवकामें सनक पसारि जे तोहर भाषा मैथिली नहि मगही थिकौक३. आ अनेको भ्रान्ति पसारिके आपसमें ततेक टुकडा बनौने अछि जे घर सम्हारैत-सम्हारैत अहाँके करोडों डिबिया तेल जरि जायत! न राधा के नौ मन घी हेतैन आ ने राधा नचती!कतेक अफसोस जताउ! नेतो सभ केहेन तऽ कनाह कुकूर समान! बुझू जे कोनो विधान नहि, मुँहें पाछू कानून! मन भेल बहि गेलौं, मन भेल कहि गेलौं! मने पर सभटा! मिथिला के दिन सही में लदल बुझैछ! जखनहि घरवारी के चिन्ता खतम तखनहि अनवारी घर के लूटत! कृष्ण के संग तऽ अर्जुन के छलन्हि जे बूडित्व प्रवेश करिते गीताक पाठ पढेलापर घरहि के दुश्मन सभके लेल पुनरू गांडीव उठाय हर बल सँ पाण्डव राज कायम कैल गेल, मुदा मिथिलाक अर्जुन सभ आपसे में भिडल छथि। कृष्णे केर क्लास लगाबैत छथि। गांडीव उठायब तऽ दूर, उल्टे कृष्णेके खेहारैत छथि। कृष्णो सोचैत छथि जे आखिर हस्तिनापुर तऽ थिकैक नहि, मिथिला थिकैक, एतय तऽ सभ पाहुन कहिके फाडयके मालिक बनल अछि३. हारि के बेचारे ओहो साइड लागि जाइत छथि। सियाजी गेली आ नवकी सिया सभ पर भूलवश दहेजक चाप चढि गेल। जनकजी जे केला सैह हमहुँ करब सोचि किछु सम्पन्न वर्ग शुरु केला आ धीरे-धीरे ई समाजके हर वर्ग के कैन्सर जकाँ जकैड लेलक! बेचारी आजुक मैथिलानी न घर के न घाटके! धोबीके कुकूर! लाज लगैत अछि मुदा लिखय पडत! जे बाहर गेली से बाहरे, मे घर पर छथि ओ घरे! तखन लैंगिक विभेद के अन्त कोना हेतैक मिथिलामें? एकीसम शदीमें विकास तखनहि संभव जखन जीवनरूपी पहिया समान अधिकार के बुनियाद पर चलत। अहु तरहें हम सभ पिछडल छी, सुधार लेल कोनो खास मजबूत प्रयास केम्हरौ सऽ नहि होइछ। कि कहू!
तखन एक बेर जोर लगाउ, एक बेर मिलियौ सभ एक ठाम आ देखियौक जे परिवर्तन कोना नहि होइत छैक! अगिला बेर जे दिल्लीमें मिथिला राज्य लेल धरना हेतैक ताहिमें अपन-अपन लगरपन (असगरे पहाड तोडयवाला अहं) के परित्याग कय तेना समन्वय करियौक जे समूचा ब्रह्माण्डमें मिथिला के विदेह सभ जागि गेलौक से सूचना जाय!


उद्देश्य किछु आ परिणाम उल्टा

बिहार बनल कारण आधुनिकताके वयार आ बुद्ध सऽ जुडल लोकप्रियता के मोल संग अलग-अलग संस्कृतिके एक संग जोडि रखबाक प्रेरणा तत्त्व हावी छल। लेकिन बड पैघ परिवार बनला सऽ विकास तऽ दूर लोक-संस्कृतिके संरक्षण तक नहि कैल जा सकल। अन्य राज्यक तुलना बिहार अति पिछड़ल राज्य बनल रहल। बादमें उड़ीस टूटल, फेर झारखंड टूटि गेल आ अपन मौलिकताक संरक्षण लेल पूरजोर प्रयासमें लागल अछि। अंग्रेजे द्वारा बनायल गेल मूल राज्य बंगाल सऽ निकलल बिहार, बिहार सऽ निकल उड़ीसा आ झारखंडय आ आब जे बिहार बचल अछि ताहिमें तीन अलग-अलग संस्कृति मिथिला, मगध आ भोजपुर संयुक्त रूपमें अछि। लेकिन तिनू के विकास गति बिहार-बिहारी के नाम तर धँसल अछि। बुद्धक विहार क्षेत्र सऽ बनल बिहार जाहि परिकल्पना पर बनायल गेल आखिर एतेक पिछड़ल किऐक रहल, मंथन योग्य विषय बुझैछ। कहबी छैक जे ढेर जोगी मठ उजाड़! कहीं बिहारक हाल यैह कारण सऽ तऽ एहेन नहि बनि गेल? आइयो केन्द्रमें बिहारक मूर्ति द्वारा मुख्य कार्यक जिम्मेवारी वहन कैल जाइछ, लेकिन अग्र पंक्तिमें कियो बिना चमचागिरीके प्रवेश नहि पाबि सकैत अछि। कतबो शक्तिशाली नेता हो लेकिन राष्ट्रीय नेताक छवि पाबयवाला बिहारी नेता के? किछु-किछु रहल ललित बाबुमें तऽ आब किछु-किछु देखाय पड़ैछ नितीश कुमारमें दृ लेकिन मूल संस्कार के रक्षा करय लेल हिनकहु सभमें दमवाली बात देखय लेल नहि भेटैछ। इतिहास गवाह छैक जे यदि अपन मूल डीह आ मूल संस्कृतिके कोनो परिवार त्याग केलक तऽ संसारक भीडमें कतय हेरा गेल से कियो नहि बुझि सकल। उदाहरण लऽ लियऽ! गामक फल्लाँ बाबु कलेक्टर बनलाह आ शहरे रहि गेला, एगो बेटा अहमदाबाद, दोसर जहानाबाद आ तेसर मुर्शिदाबाद! बेटी सेहो लखनउके नबाबे संग! तिनकर सभक संतान होशंगाबाद, जम्मू आ मथुरा-वृन्दावन! अपन सहोदरके कि हालत सेहो दोसर के पता नहि। बिखैर गेला पूरा परिवार! छैथ कतहु, हमरा कि पता! बिहार बनि गेल बिखरल परिवार समान कारण ढकोसला विकास के नाम पर सेहो आब जखन एक प्रखर पुत्र नितीश अपन लगन सऽ किछु कार्य करबाक पैंतरा करैत छथि तखन, अवश्य बिहारी एक सम्मानजनक पहचान बनि गेल अछि। लेकिन समेटल परिवार, विकासशील परिवार के ई लक्षण कदापि नहि जे फल्लाँ बाबु कलेक्टर साहेबक परिवारके कहलहुँ। भगवती घरमें बादूड़ घरवास करैत छन्हि एखन!
मिथिला राज्य यदि आजुक बिहारके अस्मिताक विरुद्ध अछि तऽ विकास लेल कि सोचलहुँ? ओ जे पेपर मिल आ सुगल मिल सभ छल तेकरा पुनर्स्थापित करबाक लेल कि प्रगति अछि? साक्षरताके दर बढाबय लेल आ शिक्षाक नीक प्रसार लेल अनिवार्य मातृभाषामें शिक्षा पद्धति अनुरूप मैथिली संग दुर्व्यवहार कहिया रूकत? सामरिक रूपमें मिथिलाक अधिकांश भूमिके बाढमुक्त करबाक लेल नदीके जोड़बाक परियोजना, नहर निर्माण, झील संवरण, एहि सभपर कोनो योजना एखन धरि कार्यान्वयन किऐक नहि भेल? मिथिलाक विशेष कृषि उत्पाद जेना पान, मखान, माछ दृ एकर व्यवसायीकरण-वैज्ञानिकीकरण कहिया होयत? कोनो अनुसंधानो भेल एहि सभ तरफ? सरकार या सरकारके नुमाईंदाकेर कोनो ध्यान अछि एहि तरफ? एतेक रास पोखैर छैक, एतेक रास भूमि छैक, एहेन मीठ मोडरेट क्लाइमेट छैक३. तऽ ध्यान केकर जेतैक एहि सभ के समुचित संवरण-संवर्धन दिस? शिक्षाक केन्द्र रहल मिथिला, आइ मैथिलकेँ कोटा आ बेंगलुरु के संग पुद्दुचेरी जाय के बाध्यता किऐक? सरकारी रोजगार नहि उपलब्ध रहलाके कारण, सभ रोजगारोन्मुख बनैत उच्च स्तरीय पढाइ सऽ विमूख अपन भूमिके बंजर छोडि पलायन करय लेल बाध्य, समाधान लेल सोच कि? उलटे यशगान जे अच्छा है, चाँदपर भी बिहारी जाकर रोजगार कर सकता है कहि फूला देनाय आ एम्हर कंबल ओढि घी पिबय लेल बस मंत्री, ठीकेदार, दलाल, आदि बेहाल? एहेन भरुवागिरी सोच बिहारमें किया? आ तखन यदि मिथिला राज्य लेल माँग अलग होयत तऽ अपने में चैत-चैत खेलाइत जाँघपर थाप मारयके प्रवृत्ति कियैक?

शनिवार, 24 मई 2014

मांझी बने नीतीष के मनमोहन !


सुभाष चंद्र 

लोकसभा चुनाव परिणा के बाद दिल्ली में सत्ता परिवर्तन तय था, लेकिन जिस प्रकार से बिहार की राजनीति ने करवट बदला, वह कई मायने में अलग है। प्रदेष में जो सियासी स्यापा रचा गया और नेपथ्य में जदयू के अध्यक्ष षरद यादव और पूर्व मुख्यमंत्री नीतीष कुमार ने दांव खेला, उसके अलग-अलग मायने निकाले जा रहे हैं। तीन दिन की ड्रामेबाजी और उसके बाद जो पटाक्षेप जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी थमाकर हुई, उसके बाद कहा जा रहा है कि जीतन राम मांझी नीतीष कुमार के मनमोहन ही साबित होंगे। यूपीए सरकार में जिस प्रकार से सोनिया गांधी ने अपने रिमोट से मनमोहन सिंह को चलाया, उसी राह पर अब नीतीष कुमार निकल पड़े हैं। सत्ता में दखल रहेगा, लेकिन जिम्मेदारी नहीं। जाहिरतौर पर ऐसे में यदि विधानसभा चुनाव में नीतीष कुमार का खूंटा-पगहा लोकसभा चुनाव की तरह ही उखड़ेगा, तो कोई भी उनसे इस्तीफे की मांग भी नहीं कर सकता है। इसे कहते हैं कि सियासत में सयानापन।
ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि आखिर कौन हैं जीतन राम मांझी ? जदयू में यह कोई हाईप्रोफाइल चेहरा तो नहीं रहा ? आपको ये बता दें कि जीतन राम मांझी को नीतीश कुमार का करीबी माना जाता है। मांझी महादलित हैं और काफी अर्से बाद कोई महादलित बिहार के मुख्यमंत्री पद पर बैठेगा। जब नीतीश कुमार पहली बार राज्य में सरकार बना रहे थे, तब भी जीतन राम मांझी का नाम मंत्रियों की सूची में शामिल था, लेकिन उन पर एक शिक्षा घोटाले के आरोप लगे थे, जिस कारण उनका नाम कट गया और उन्हें रातोरात इस्तीफा देना पड़ा। बाद में वह घोटाले के आरोपों से बरी हो गए और राज्य में मंत्री बने।
हम आपको यह भी बता दें कि बिहार के नए मुख्यमंत्री बने जीतन राम मांझी बाल मजदूरी से जीवन की शुरुआत की, फिर दफ्तारों में क्लर्की करते-करते विधायक और मंत्री बने। अब वही मांझी बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं। महादलित मुसहर समुदाय से आने वाले जीतन राम मांझी का जन्म बिहार के गया जिले के महकार गांव में एक मजदूर परिवार में 6 अक्टूबर 1944 को हुआ। पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण खेतिहर मजदूर पिता ने उन्हें जमीन मालिक के यहां काम पर लगा दिया। वहां मालिक के बच्चों के शिक्षक के प्रोत्साहन एवं पिता के सहयोग से सामाजिक विरोध के बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू की। उन्होंने सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई बिना स्कूल गए पूरी की। बाद में उन्होंने हाई स्कूल में दाखिला लिया और सन् 1962 में सेकेंड डिवीजन से मैट्रिक पास किया। 1966 में गया कॉलेज से इतिहास विषय में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। परिवार को आर्थिक सहायता देने के लिए आगे की पढ़ाई रोक कर उन्होंने एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क की नौकरी शुरू कर दी और 1980 तक वहां काम किया। उसी वर्ष नौकरी से इस्तीफा देने के बाद वह राजनीति से जुड़ गए। बिहार में दलितों के लिए उन्होंने विशेष तौर पर काम किया। उनके प्रयास से दलितों के लिए बजट में खासा इजाफा हुआ। वर्ष 2005 में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए बिहार सरकार का बजट 48 से 50 करोड़ रुपये का होता था, जो कि 2013 में 1200 करोड़ रुपये का हो गया। वर्ष 2005 में बिहार का जितना संपूर्ण बजट हुआ करता था, आज उतना सिर्फ दलित समुदाय के लिए होता है। नीतीश कुमार को उम्मीद है कि महादलित समुदाय से आने वाले मांझी के मुख्यमंत्री बनने से इस समुदाय का फिर से उन्हें समर्थन मिलेगा।
दरअसल, बिहार में सियासी दांव-पेंच को एक लाइन में कहें, तो यह नैतिकता के आवरण में अहंकार की लड़ाई रही। आखिर, अचानक उन्हें नैतिकता की याद कैसे आ गई ? कई मौके सात-आठ साल में आया, लेकिन एक बार भी नैतिकता की बात नहीं आई। लोकसभा चुनाव परिणाम आया और सटक सीता राम... याद कीजिए, पटना में बम धमाका, राजगीर और बौद्ध गया में धमाका। छपरा में मिड डे मिल हादसा। बिहार के सैनिकों का पाकिस्तानियों द्वारा जघन्य हत्या और पटना में सम्मान देने के लिए नीतीष का क्या उनके कुनबे का एक भी मंत्री का न जाना। एक गया, तो कैसे बोल बोल गया था ? उनकी नैतिकता तब कहां गई, जब सरेआम ब्रहमेष्वर मुखिया की हत्या कर दी गई ? क्या तब नीतीष में नैतिकता नहीं थी ? दरअसल, अब प्रोटोकोल के तहत नीतीष कुमार के भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने झुकना पड़ता, तो वे वहां क्या करते ? कैसे अपने कथित वोट बैंक और टोपी की सुरक्षा करते ? सही मायने में यह नीतीष की नैतिकता नहीं, बल्कि अहंकार है कि उन्होंने इस्तीफा के माध्यम से सियासी स्यापा किया है।
16 मई को लोकसभा चुनाव का परिणाम आता है। 17 मई को नीतीश कुमार इस्तीफा देते हैं, विधानसभा भंग करने की मांग नहीं करते हैं। 18 मई को करीब ढाई घंटे तक चली जदयू बैठक का नतीजा यही निकला कि अगले दिन दोबारा जदयू विधायक बैठेंगे। आखिर क्यों ? जब इस्तीफा दे दिया, तो मंथन क्यों ? नैतिकता के आवरण में खुद को महान साबित करने की कोषिष है या कुछ और ? अब जरा, जदयू के अंदर की स्थितियों की पड़ताल करें, तो पता चलता है कि अध्यक्ष भले ही शरद यादव हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में उनकी एक नहीं चली थी। खुद मधेपुरा से हार भी चुके हैं और पार्टी पर कोई खास पकड़ भी नहीं है। ऐसे में इनकी कितनी सुनी जाएगी, कहा नहीं जा सकता। ये नैतिकता की दुहाई थी या सियासी शतरंज पर खुद को मजबूत करने की चाल। 2005 से नीतीश लगातार बिहार के मुख्यमंत्री थे। लोकसभा चुनाव में पार्टी बीस से सीधे दो सीट पर पहुंच गई, तो नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठने से पहले ही नीतीश ने इस्तीफा दे दिया। जिस सेक्युलरिज्म की चादर ओढकर नीतीश इस चुनाव की नैया पार करना चाह रहे थे, वही दांव उन पर उल्टा पड़ गया। कहां तो नीतीश भाजपा का साथ छोड़ने के बाद पीएम पद के दावेदार तक बने हुए थे। लेकिन नतीजों ने नीतीश की राजनीति का रुख ही मोड़ दिया और वह पार्टी के भीतर अपना रास्ता दोबारा तलाश रहे हैं। उल्ललेखनीय है कि 20 साल पहले 1994 में जनता दल छोड़कर नीतीश ने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ समता पार्टी का गठन किया था। 1996 में नीतीश ने भाजपा से समझौता किया और तब से पिछले साल तक बिहार में दोनों का गठबंधन था, लेकिन धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पर जैसे ही भाजपा ने पिछले साल नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव प्रचार का जिम्मा सौंपा नीतीश ने 17 साल पुराना नाता तोड़ लिया। नीतीश तब से लेकर चुनाव नतीजों तक सेक्युलरिज्म की दुहाई देते ,रहे लेकिन आखिरकार उनको मुंह की खानी पड़ी। गौर करने योग्य तो यह भी है कि जिस गुजरात दंगे को लेकर नीतीश ने नरेंद्र मोदी से दूरी बनाई उन दंगों के वक्त नीतीश केंद्र में मंत्री रह चुके हैं। तब गुजरात जाकर नीतीश ने एक कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी की तारीफ तक की थी, जिसका वीडियो दोनों के अलग होने पर पिछले साल भाजपा ने जारी किया था। लेकिन जब नीतीश 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने धर्मनिरपेक्ष का कार्ड खेला और 2010 के बिहार चुनाव में नरेंद्र मोदी को प्रचार तक नहीं करने दिया। इससे पहले 2008 में कोसी नदी में आए बाढ़ के बाद नीतीश कुमार ने बाढ़ राहत के लिए गुजरात सरकार का भेजा पैसा लौटा दिया था। 2009 में लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए की महारैली में नीतीश और मोदी गले मिले थे, लेकिन उसके बाद यही तस्वीर 2010 चुनाव से ठीक पहले जब पटना में अखबारों में छपे थे, तो नीतीश ने मोदी के साथ होने वाले भोज को रद्द कर दिया था और जब रिश्ते तल्ख हुए तो हमले पर हमले होते चले गए। 

मांझी बने नीतीष के मनमोहन !


सुभाष चंद्र 

लोकसभा चुनाव परिणा के बाद दिल्ली में सत्ता परिवर्तन तय था, लेकिन जिस प्रकार से बिहार की राजनीति ने करवट बदला, वह कई मायने में अलग है। प्रदेष में जो सियासी स्यापा रचा गया और नेपथ्य में जदयू के अध्यक्ष षरद यादव और पूर्व मुख्यमंत्री नीतीष कुमार ने दांव खेला, उसके अलग-अलग मायने निकाले जा रहे हैं। तीन दिन की ड्रामेबाजी और उसके बाद जो पटाक्षेप जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी थमाकर हुई, उसके बाद कहा जा रहा है कि जीतन राम मांझी नीतीष कुमार के मनमोहन ही साबित होंगे। यूपीए सरकार में जिस प्रकार से सोनिया गांधी ने अपने रिमोट से मनमोहन सिंह को चलाया, उसी राह पर अब नीतीष कुमार निकल पड़े हैं। सत्ता में दखल रहेगा, लेकिन जिम्मेदारी नहीं। जाहिरतौर पर ऐसे में यदि विधानसभा चुनाव में नीतीष कुमार का खूंटा-पगहा लोकसभा चुनाव की तरह ही उखड़ेगा, तो कोई भी उनसे इस्तीफे की मांग भी नहीं कर सकता है। इसे कहते हैं कि सियासत में सयानापन।
ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि आखिर कौन हैं जीतन राम मांझी ? जदयू में यह कोई हाईप्रोफाइल चेहरा तो नहीं रहा ? आपको ये बता दें कि जीतन राम मांझी को नीतीश कुमार का करीबी माना जाता है। मांझी महादलित हैं और काफी अर्से बाद कोई महादलित बिहार के मुख्यमंत्री पद पर बैठेगा। जब नीतीश कुमार पहली बार राज्य में सरकार बना रहे थे, तब भी जीतन राम मांझी का नाम मंत्रियों की सूची में शामिल था, लेकिन उन पर एक शिक्षा घोटाले के आरोप लगे थे, जिस कारण उनका नाम कट गया और उन्हें रातोरात इस्तीफा देना पड़ा। बाद में वह घोटाले के आरोपों से बरी हो गए और राज्य में मंत्री बने।
हम आपको यह भी बता दें कि बिहार के नए मुख्यमंत्री बने जीतन राम मांझी बाल मजदूरी से जीवन की शुरुआत की, फिर दफ्तारों में क्लर्की करते-करते विधायक और मंत्री बने। अब वही मांझी बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं। महादलित मुसहर समुदाय से आने वाले जीतन राम मांझी का जन्म बिहार के गया जिले के महकार गांव में एक मजदूर परिवार में 6 अक्टूबर 1944 को हुआ। पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण खेतिहर मजदूर पिता ने उन्हें जमीन मालिक के यहां काम पर लगा दिया। वहां मालिक के बच्चों के शिक्षक के प्रोत्साहन एवं पिता के सहयोग से सामाजिक विरोध के बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू की। उन्होंने सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई बिना स्कूल गए पूरी की। बाद में उन्होंने हाई स्कूल में दाखिला लिया और सन् 1962 में सेकेंड डिवीजन से मैट्रिक पास किया। 1966 में गया कॉलेज से इतिहास विषय में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। परिवार को आर्थिक सहायता देने के लिए आगे की पढ़ाई रोक कर उन्होंने एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क की नौकरी शुरू कर दी और 1980 तक वहां काम किया। उसी वर्ष नौकरी से इस्तीफा देने के बाद वह राजनीति से जुड़ गए। बिहार में दलितों के लिए उन्होंने विशेष तौर पर काम किया। उनके प्रयास से दलितों के लिए बजट में खासा इजाफा हुआ। वर्ष 2005 में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए बिहार सरकार का बजट 48 से 50 करोड़ रुपये का होता था, जो कि 2013 में 1200 करोड़ रुपये का हो गया। वर्ष 2005 में बिहार का जितना संपूर्ण बजट हुआ करता था, आज उतना सिर्फ दलित समुदाय के लिए होता है। नीतीश कुमार को उम्मीद है कि महादलित समुदाय से आने वाले मांझी के मुख्यमंत्री बनने से इस समुदाय का फिर से उन्हें समर्थन मिलेगा।
दरअसल, बिहार में सियासी दांव-पेंच को एक लाइन में कहें, तो यह नैतिकता के आवरण में अहंकार की लड़ाई रही। आखिर, अचानक उन्हें नैतिकता की याद कैसे आ गई ? कई मौके सात-आठ साल में आया, लेकिन एक बार भी नैतिकता की बात नहीं आई। लोकसभा चुनाव परिणाम आया और सटक सीता राम... याद कीजिए, पटना में बम धमाका, राजगीर और बौद्ध गया में धमाका। छपरा में मिड डे मिल हादसा। बिहार के सैनिकों का पाकिस्तानियों द्वारा जघन्य हत्या और पटना में सम्मान देने के लिए नीतीष का क्या उनके कुनबे का एक भी मंत्री का न जाना। एक गया, तो कैसे बोल बोल गया था ? उनकी नैतिकता तब कहां गई, जब सरेआम ब्रहमेष्वर मुखिया की हत्या कर दी गई ? क्या तब नीतीष में नैतिकता नहीं थी ? दरअसल, अब प्रोटोकोल के तहत नीतीष कुमार के भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने झुकना पड़ता, तो वे वहां क्या करते ? कैसे अपने कथित वोट बैंक और टोपी की सुरक्षा करते ? सही मायने में यह नीतीष की नैतिकता नहीं, बल्कि अहंकार है कि उन्होंने इस्तीफा के माध्यम से सियासी स्यापा किया है।
16 मई को लोकसभा चुनाव का परिणाम आता है। 17 मई को नीतीश कुमार इस्तीफा देते हैं, विधानसभा भंग करने की मांग नहीं करते हैं। 18 मई को करीब ढाई घंटे तक चली जदयू बैठक का नतीजा यही निकला कि अगले दिन दोबारा जदयू विधायक बैठेंगे। आखिर क्यों ? जब इस्तीफा दे दिया, तो मंथन क्यों ? नैतिकता के आवरण में खुद को महान साबित करने की कोषिष है या कुछ और ? अब जरा, जदयू के अंदर की स्थितियों की पड़ताल करें, तो पता चलता है कि अध्यक्ष भले ही शरद यादव हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में उनकी एक नहीं चली थी। खुद मधेपुरा से हार भी चुके हैं और पार्टी पर कोई खास पकड़ भी नहीं है। ऐसे में इनकी कितनी सुनी जाएगी, कहा नहीं जा सकता। ये नैतिकता की दुहाई थी या सियासी शतरंज पर खुद को मजबूत करने की चाल। 2005 से नीतीश लगातार बिहार के मुख्यमंत्री थे। लोकसभा चुनाव में पार्टी बीस से सीधे दो सीट पर पहुंच गई, तो नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठने से पहले ही नीतीश ने इस्तीफा दे दिया। जिस सेक्युलरिज्म की चादर ओढकर नीतीश इस चुनाव की नैया पार करना चाह रहे थे, वही दांव उन पर उल्टा पड़ गया। कहां तो नीतीश भाजपा का साथ छोड़ने के बाद पीएम पद के दावेदार तक बने हुए थे। लेकिन नतीजों ने नीतीश की राजनीति का रुख ही मोड़ दिया और वह पार्टी के भीतर अपना रास्ता दोबारा तलाश रहे हैं। उल्ललेखनीय है कि 20 साल पहले 1994 में जनता दल छोड़कर नीतीश ने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ समता पार्टी का गठन किया था। 1996 में नीतीश ने भाजपा से समझौता किया और तब से पिछले साल तक बिहार में दोनों का गठबंधन था, लेकिन धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पर जैसे ही भाजपा ने पिछले साल नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव प्रचार का जिम्मा सौंपा नीतीश ने 17 साल पुराना नाता तोड़ लिया। नीतीश तब से लेकर चुनाव नतीजों तक सेक्युलरिज्म की दुहाई देते ,रहे लेकिन आखिरकार उनको मुंह की खानी पड़ी। गौर करने योग्य तो यह भी है कि जिस गुजरात दंगे को लेकर नीतीश ने नरेंद्र मोदी से दूरी बनाई उन दंगों के वक्त नीतीश केंद्र में मंत्री रह चुके हैं। तब गुजरात जाकर नीतीश ने एक कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी की तारीफ तक की थी, जिसका वीडियो दोनों के अलग होने पर पिछले साल भाजपा ने जारी किया था। लेकिन जब नीतीश 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने धर्मनिरपेक्ष का कार्ड खेला और 2010 के बिहार चुनाव में नरेंद्र मोदी को प्रचार तक नहीं करने दिया। इससे पहले 2008 में कोसी नदी में आए बाढ़ के बाद नीतीश कुमार ने बाढ़ राहत के लिए गुजरात सरकार का भेजा पैसा लौटा दिया था। 2009 में लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए की महारैली में नीतीश और मोदी गले मिले थे, लेकिन उसके बाद यही तस्वीर 2010 चुनाव से ठीक पहले जब पटना में अखबारों में छपे थे, तो नीतीश ने मोदी के साथ होने वाले भोज को रद्द कर दिया था और जब रिश्ते तल्ख हुए तो हमले पर हमले होते चले गए। 

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

मैं और मेरा मुर्गा

ओ हो ... आप और आपका मुर्गा। यही तो बोला था उसने। कल ही। आॅफिस में। यूं तो मुर्गा कल खाया नहीं था, लेकिन उसका स्वााद ओ हो... पूरे दिन में कई बार याद आ ही जाता है। आपसी बातचीत में। क्या करूं ? आदत से लाचार। खाने के प्रति अधिक आसक्ति। तभी तो शायद उसने बोला कि आप और आपका मुर्गा।
तभी जेहन में आया कि मैं और मेरा मुर्गा, आखिर क्या है बला ? कितनी है आसक्ति ? लिख ही डालूं। याद तो रहेगा। कल हो न हो। समयगति को कौन जानता है भला! हालांकि, दो-तीन सप्ताह ही हुए होंगे, जब पहली बार मेरे सामने मुर्गे का लजीज व्यंजन परोसा हुआ था और मैंने नहीं खाया था। दुख भी था और सुकून भी। दुख इसलिए कि परोसे गए मुर्गे का लजीज व्यंजन नहीं खा सका। और, सुकून इसलिए कि सामने वाला खुश था। मैंने उसकी भावनाओं का सम्मान किया था। गोया उसने खाने के लिए बोला जरूर था। उसे भी थोड़ी हैरत हुई थी कि मैं और मेरा मुर्गा ? आखिर मिलन कैसे नहीं हुआ!
जब यह लिख रहा था, तो अचानक याद आए दीन दयाल शर्मा। जिन्होंने लिखा था,
मुर्गा बोला नहीं जगाता
अब तुम जागो
अपने आप
कितनी
घड़ियाँ और मोबाइल
रखते हो तुम अनाप-शनाप
मैं भी जगता मोबाइल से
तुम्हें जगाना
 मुश्किल है
कब से
जगा रहा हूँ तुमको
तू क्या मेरा मुवक्किल है
समय पे सोना, समय पे जगना
जो भी करेगा
समय पे काम
समय बड़ा
बलवान जगत में
समय करेगा उसका नाम ।

हालांकि, मैं मुर्गे के इस गुण के कारण नहीं,  बल्कि उसके लजीज व्यंजनों के कारण कायल हूं।
यह बात तो अधिकतम लोग जानते हैं कि मुर्गा एक ऐसा पक्षी है जो हमारी संस्कृति में रचा-बसा हुआ है। ऐसे साक्ष्य मिलते हैं कि मुर्गे की उत्पत्ति भारत भूमि पर हुई और यहां से ही पूरी दुनिया में मुर्गे को इंसान ले गया। यह भी माना जाता है कि आज मुर्गे की जितनी भी नस्लें सारे जहां में हैं वे सब लाल जंगली मुर्गे गैलस गैलस की वंशज हैं। यह दीगर बात है कि आज लाल जंगली मुर्गा खत्म होने के कगार पर हैं। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि मुर्गे और मानव जीवन में काफी समानताएं हैं। मानव और मुर्गे के जीनोम में से 50 फीसदी जीन आपस में मेल खाते हैं। दरअसल उन जीनों की डीएनए पर जमावट में फर्क ही उनको स्तनधारी और पक्षी में स्थापित करते हैं। मानव जीनोम के बाद मुर्गा पहला पक्षी है जिसके जीनोम का खुलासा किया जा सका है। मुर्गे के जीनोम के खुलासे से जीव जगत में और खासकर इंसान और अन्य जंतुओं से अनुवांशिकी रिश्तों के राज खुलने की संभावनाएं हैं। नेशनल ह्यूमन जीनोम रिसर्च इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर फ्रांसिस एस कोलिन का कहना है कि जुतओं में जीने के तुलनात्मक अध्ययन से हम मानव के जीन की रचना और कार्य को समझकर मानव के बेहतर स्वास्थ्य की रणनीतियां तैयार कर पाएंगे। मुर्गे के जीनोम के खुलासे से जंतुओं में अनुवांशिकी कड़ियां और वंशवेल को समझने में मदद मिल सकेगी। इसी क्रम में पफर मछली के जीनोम भी पढ़ लिए गए हैं। यह देखने में आया है कि मछलियों में भी इन जीन के प्रतिरूप पाए जाते हैं। मुर्गे के जीनोम के अध्ययन से यह बात सामने आई है कि कैरेटीन नामक प्रोटीन का जीन चमड़ी के पर, पंजे आदि को बनाने में अहम भूमिका अदा करते हैं। इंसानों में यही केरेटीन बालों को बनाता है। वैसे मुर्गे में दूध के प्रोटीन को बनाने वाले, दांत बनाने वाले जीन मौजूद नहीं है। एक मजेदार बात यह है कि मुर्गे में गंध क्षमता कम होती है इसी प्रकार से पक्षियों को स्वाद का भी भान नहीं होता है। जीनों की खोज से कई बीमारियों ओर उनके उपचार के रास्ते खुल सकते हैं।
जंच-पड़ताल में तो यह भी सामने आई है कि मुर्गे में जो जीन अंडे के खोल के निर्धारण के लिए होता है वहीं इसका प्रतिरूप स्तनधारी में हड्डियों में कैल्सिफिकेशन के लिए होता है। पक्षियों के अलावा यह जीन औरों में नहीं देखा गया है। एक और दिलचस्प बात यह है कि मानव में वे जीन मौजूद नहीं है जो अंडे में अलब्यूमिन बनाने के लिए होता है। यानी वे जीन केवल मुर्गे में ही मौजूद हैं। मुर्गे में इंटरल्यूकिन-26 भी होता है जो कि प्रतिरोधक  क्षमता के लिए जिम्मेदार जीन होता है। यह जीन मानव में देखा गया है। मुर्गे को पालतू बनाने के कारणों में से प्रमुख है इनकी दिलचस्प लड़ाई। ऐसा माना जाता है कि मुर्गा काफी साहसी होता है। और इस साहसी गुण के कारण ही इसको पालतू बनाया गया। आचार्य भाव प्रकाश द्वारा लिखी आयुर्वेदिक पुस्तक में बताया गया है कि इंसान में बहादुरी के कोई 20 लक्षणों की यदि फेहरिस्त बनाई जाए तो उसमें से चार गुण उसने मुर्गे से पाए हैं। ईसा के जन्म के पहले मुर्गे को नीली घाटी में नहीं देखा गया था। तब न तो मिस्र के दरबार में ही इसका कभी जिक्र हुआ और न ही इस सुन्दर पक्षी पर किसी चित्रकार ने कोई बढिया चित्र बनाया है। इजिप्टवासियों ने भी ऐसा कोई पक्षी नहीं देखा था जो एक बार में काफी अंडे देता हो। जब मुर्गे को पालतू बनाया गया तो इसके बारे में काफी कुछ लिखा गया। एक ऐसा पक्षी जिसके माथे पर चटक लाल रंगी कलगी और   शरीर खूबसूरत लाल-काले हरे किंतु चमकदार पंखों से ढका हुआ जब चलता है तो उसकी शान में उसको रास्ता दे दे तो हर कोई अपना काम छोड़कर उसकी बांग की ओर ध्यान दे। जब वह मिस्र के राज दरबार में पहली दफा पहुंचा तो उसे देखने वालों की खासी भीड़ जुटी। ऐसा माना जाता है कि लाल जंगली मुर्गे को सबसे पहले मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में 2500-2100 ईसा पूर्व पालतू बनाया। इस दौर के बनाए चित्रों में मुर्गा दिखाई देता है। और अनेक मिट्टी के खिलौनों में भी नर और मादा मुर्गे को दिखाया गया है।



अब बात जरा, मुर्गे का लजीज व्यंजन की। पंजाबी चिकन करी का तो कहना ही क्या। यह चिकन की ऐसी डिश है जिसको देखते ही आपके मुंह में पानी आ जाएगा और आप सोचेगें की इसको झट से बना डाला जाए। पंजाबी चिकन करी को धीमी आंच पर बनाने पर एक अलग ही टेस्ट आता है; आइए पंजाबी चिकन करी डिश बनाते हैं। चार प्याज, दो चम्मच करी पाउडर, आधा कप तेल, एक कप टमैटो सॉस, एक फ्राई चिकन, तीन चैथाई कप गरम पानी। एक पैन में घी डालें। उसमें कटे प्याज और करी पाउडर डालकर 10-15 मिनट तक भूने। उसमें टमैटो सॉस और नमक मिलाएं। अब चिकन डालें। अच्छी तरह मसाले डालकर बिना ढके हुए इसे भूने। जब तक उसमें सॉस पूरी तरह से समा न जाए तब तक इसे भूनते रहें. पकने के बाद चैक करें कि चिकन हुआ या नहीं। अब मिक्सचर में गरम पानी डाल कर पैन को ऊपर से ढंक दें। धीमी आंच पर पांच मिनट तक पकाएं। रोटी के साथ सर्व करें।
क्या आप चिकन की वही रेसिपी खा-खा कर बोर हो चुके हैं ? तो अब समय है कि आप कुछ यूनीक और टेस्टी चिकन रेसिपी ट्राई करें। यहां पर एक बिल्कुल ही अलग और मसालेदार मस्टर्ड चिकन करी बनाने कि विधि बातएंगे। यह चिकन रेसिपी एक बंगाली डिश है, जहां पर हर खाना सरसों के उपयोग से बनता है। इस चिकन रेसिपी में सरसों की महक और स्वाद समाया हुआ है। इस रेसिपी को बनाने के लिये आपको बहुत सारे सफेद राई का उपयोग करना होगा क्योंकि इससे हम पेस्ट बना कर चिकन को मैरीनेट करेंगे और थेाड़ी सी राई ग्रेवी में भी डालेंगे।
सबसे पहले राई के दानों को हरी र्चि के साथ्ज्ञ एक चम्मच पानी डाल कर गाढा पेस्ट पीस लें। इसके बाद चिकन के पीस को धो कर मध्यम आकार में काट कर इस पेस्ट से और मैरीनेड के नीचे दी हुई सामग्रियों से मैरीनेट कर लें। मैरीनेट किये हुए चिकन को फ्रिज में 1 घंटे के लिये रखें। पैन में तेल गरम करें, उसमें चीनी डालें और मध्यम आंच पर उसे भूरा होने दें। फिर कटी हुई प्याज डाल कर 6 मिनट तक भूनें। अब अदरक-लहसुन पेस्ट डाल कर 3 मिनट तक पकाएं। उसके बाद मैरीनेट किया चिकन पीस डाल कर 10 मिनट तक पकाएं। बीच-बीच में चलाती रहें। फिर हल्दी, लाल मिर्च पाउडर, 2 चम्मच सफेद राई का पेस्ट और नमक डाल कर पकाएं। अब गरम पानी डाल कर मिक्स करें पैन में ढक्कन लगा दें और 20 मिनट तक मध्यम आंच पर पकने दें। चिकन पक जाने पर आंच बंद कर के उसे सर्व करें।
पता है हाल ही में दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए हैं। अब लोकसभा की तैयारी जोरो पर है। चुनावी मौसम में मुर्गों की जान पर बन आई है। हर दिन बेहिसाब मुर्गे हलाल किए जा रहे हैं। अपने अजीज मुर्ग दोस्तों को हलाल होते देख सभी मुर्गों में मातम और दहशत का माहौल है। मन में सवाल भी है कि जनता का गला दबाने वाले नेता इस कदर उनकी जान के दुश्मन क्यों बन पड़े हैं। मुर्गों पर नेताओं का जुल्म इस कदर बरपा है कि चूजों ने अंडों से बाहर निकलने से मना कर दिया है। लेकिन दड़बों में बंद मुर्गे जाएं भी तो कहां जाएं। मुर्ग और चूजे जल्द से जल्द चुनाव खत्म होने का इतंजार कर रहे हैं। साथ ही, मुर्गा समुदाय ने चेतावनी दी है कि चुनाव जारी रहे या भाड़ में जाए लेकिन हमारी जान को इतने हल्के में ना लिया जाए। मुर्गा समुदाय का आरोप है कि दिनभर कैंपेनिंग के बाद रात के वक्त नेता अपनी और कार्यकर्ताओं की भूख मिटाने के लिए बेहिसाब मुर्गों की जिंदगी से खेल रहे हैं।

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

हर एक बहन जरूरी है...

कुछ रिश्ते विरासत में मिलते हैं, जो जन्म से निर्रधारित होते हैं। कुछ रिश्ते बनाए जाते हैं, पर अटूट हो जाते हैं। भाई -बहन के रिश्ते जो कभी जन्म से बनते हैं, उन पर भी भारी पड़ जाते है धर्म के रिश्ते। अनमोल होते हैं ये भाई-बहन के रिश्ते। प्रसिद्ध विचारक एमी ली भी कहती हैं कि बहन एक ऐसी मि?त्र है, जि?ससे आप बच नहीं सकते। आप जो करते हैं, वो सब बहनों को पता रहता है।
जी हां, आज जब कंप्यूटर के की-बोर्ड पर टिपिर-टिपिर करना शुरू किया, तो अतीत के गलियारों में से आवाजें आने लगी बचपन की शरारतों की। हमारी स्मृति में धुंधली-सी, पर यादगार तस्वीरें आने लगी अपने बचपन की। भाई-बहन की उन शरारतों की, जिसे याद करते ही चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है और खुल जाती है दास्तां भाई-बहन के प्यार की। वाकई, भाई-बहन का नाता प्रेम व स्नेह का होता है। इस रिश्ते में हमारा बचपन कैद होता है, जिसे हमने बे?फिक्र होकर पूरे आनंद से जिया है।
हालांकि, आज हम रिश्तों के कई पायदानों पर चढ़ गए हैं, परंतु हम अपना सुनहरा बचपन नहीं भूले हैं। आधुनिकता की आंधी की मार झेलकर भी यह रिश्ता आज भी उतना ही पाक है। आज भी भाई-बहन में उतनी आत्मीयता और अपनापन है कि एक का दर्द दूसरे को महसूस होता है। दोनों एक-दूसरे के दु:ख-दर्द व खुशियों में शरीक होकर उन्हें सहारा देते हैं। महानगरों का अपना मिजाज होता है। हरेक क्रिया-कलाप का अपना स्वभाव। हमारे कार्यों से हमारे संबंध तय होते हैं। घर से हजारों किलोमीटर दूर जब जीवनयापन के लिए हम निकल पड़ते हैं, तो कई संबंधों पर धुंधलका छाने लगता है। व्यक्तिगत जीवन से निकल कर जब हम व्यावसायिक जीवन में प्रवेश करते हैं, तो पुराने मानदंड छीजने लगते हैं। नए बनते चले जाते हैं। संबंधों के साथ भी कमोबेश यही होता है। अधिकतर गांव में रह गए, कुछ शहरों में। बाकी को लेकर महानगर आ पहुंचा। यहां की आबोहवा इतना समय नहीं देती कि अतीत में गोते लगाया जाए। इसका मतलब यह नहीं कि संबंधों को बिसरा दिया जाए।
मेरा तो यही मानना है कि जीवन में, रिश्तों में आत्मीयता का होना लाजिमी है। यदि यह नहीं है, तो सब बेकार। ऐसा ही सबसे पवित्र रिश्ता है बहन से। यह ?रिश्ता आत्मीयता का रिश्ता होता है, जिसे दिल से जिया जाता है। बचपन तो भाई-बहन की नोक-झोंक व शरारतों में गुजर जाता है। भाई-बहन के रिश्ते की अहमियत तो हमें तब पता लगती है, जब हम युवा होते हैं। जब हमारे बच्चे होते हैं। उनकी शरारतें हमें फिर से अपने बचपन में ले जाती हैं। हर रक्षाबंधन पर बहन, भाई का बेसब्री से इंतजार करती है और भाई भी मीलों के फासले तय करके अपनी बहन को लेने जाता है। यही नहीं हर त्योहार पर बधाइयां देकर एक-दूजे के सुखी जीवन की कामना करते हैं। मां-बाप की डांट-फटकार से अपने प्यारे भाई को बचाना हो या चुपके-चुपके बहन को कहीं घुमाने ले जाना हो... यह सब भाई-बहन को बखूबी आता है।
आधुनिकता की आंधी की मार झेलकर भी यह रिश्ता आज भी उतना ही पाक है। आज भी भाई-बहन में उतनी आत्मीयता और अपनापन है कि एक का दर्द दूसरे को महसूस होता है। दोनों एक-दूसरे के दु:ख-दर्द व खुशियों में शरीक होकर उन्हें सहारा देते हैं और ऐसा होना भी चाहिए।
दिल्ली जैसे शहरों में कई रिश्ते बनते तो हैं प्रोफेशनली, मगर बन जाते हैं आत्मीय। प्रेम से परिपूर्ण। बेलौस। नाम चाहे कुछ भी रख लीजिए। धर्म का। समाज का। अपना। जो आपका मन करे। ऐसा मेरे साथ भी है उसका। बहन-भाई का। न तो क्षेत्र आड़े आई। न प्रांत। न ही बोली और न जात। न खान-पान और न संस्कृति। सबकुछ पारदर्शी। मेरी भी ऐसी ही बहन है। (यहां उसका नाम देकर उसकी ‘महत्ता’ को कम नहीं करना चाहता)
मुझे आज भी याद है एक कविता, जो मैंने पहले पढ़ी थी।
मां की कोख से
पैदा हुई लड़की का ही नाम नहीं है
उस रिश्?ते का भी नाम है
जो पुरुष को मां के बाद
पहली बार
नारी का सामीप्?य और स्?नेह देता है
बहन
कलाई पर राखी बांधने वाली
लड़की का ही नाम नहीं है
उस रिश्ते का भी नाम है
जो पीले धागे को पावन बनाता है
एक नया अर्थ देता है
मां
पुरुष की जननी है
और पत्नी जीवन-संगिनी
पुरुष के नारी-संबंधों के
इन दो छोरों के बीच
पावन गंगा की तरह बहती
नदी का नाम है
बहन।
जी हां, कवि ने कम शब्दों में पूरे मर्म को उकेर कर रख दिया है। मेरी तो बस यही कामना है कि यह प्यार, यह स्नेह ताउम्र बना रहे। भाई-बहन एक-दूसरे का साथ जीवनभर निभाएं। रिश्ते की इस डोर को प्यार व समझदारी से थामें रखें। ताकि रिश्तों में मधुरता सदैव बरकरार रहे। आज भी याद है एक वाकया... क्या पैसे मिलना जरूरी है राखी पर? भाई बहन के सिर पर हाथ रख रख देता है, तो बहन को सब मिल जाता है। बहन जब भाई को एक टिका लगाती है माथे पर, भाई की किस्मत ऊंचे मुकाम को चूमे, बस यही दुआ करती है।
समय के साथ सब कुछ बदल रहा है। जब हमारी जीवन पद्धति बदलेगी तो त्योहार के रंग-ढंग भी बदलेंगे। वैसे कई बार लगता है कि त्योहार का असली उत्साह बचपन में ही होता है। जब हम छोटे थे तो रक्षाबंधन मनाने का एक अलग ही जोश रहा करता था। बड़े होने के बाद वह बात नहीं रह जाती क्योंकि हम सब का जीवन बदल जाता है। दिनचर्या बदल जाती है। जिम्मेदरियों का बोझ किसी त्योहार के रस को कम कर देता है। लेकिन बात त्योहार मनाने की ही नहीं है। क्या रिश्तों में वही अहसास बचा हुआ है? आजकल अखबारों में जो खबरें पढ़ने को मिलती हैं या आसपास की बातों से जो पता चलता है, उससे यही लगता है कि बड़े होने के बाद भाई-बहनों के बीच आत्मीयता की मिठास कम हो जाती है। भाई बहनों के रिश्ते में भी स्वार्थ आ जाता है। कई बार सुनने को मिला कि भाई ने संपत्ति हासिल करने के लिए बहनों के खिलाफ तरह-तरह के षडयंत्र किए या उन पर अनुचित तरीके से दबाव डाला। हालांकि बहनें हमेशा भाई के प्रति स्नेह का वही भाव रखती हैं जो बचपन में उनमें रहता है। बहनें तो भाइयों की सलामती की, तरक्की की दुआ करती रहती है पर कई भाई ही अपना वचन भुला देते हैं।
बीता वर्ष उससे विक्षोभ का था। न तो कोई कुशलक्षेम और न ही कोई सूचना। सन्नाटा। बिलकुल सन्नाटा। वाकई, तेरह शुभ नहीं होता क्या! लेकिन जैसे ही 2014 की पहली किरण आई, ईश्वर की कृपा से सबकुछ सामान्य हो गया। विश्वास पहले से अधिक। भरोसा पहले से कई गुना अधिक। उसका मुझपर, मेरा उस पर। जिस जीवन गति को कहीं भूल गया था, फिर से उसी गति का संचार हो गया।
ओशो भी कहते हैं कि  पत्नी का प्रेम, पति का प्रेम; भाई का, बहन का, पिता का, मां का, इस जगत के सारे प्रेम बस प्रेम की शिक्षणशाला हैं। यहां से प्रेम का सूत्र सीख लो। लेकिन यहां का प्रेम सफल होने वाला नहीं है, टूटेगा ही। टूटना ही चाहिए। वही सौभाग्य है! और जब इस जगत का प्रेम टूट जाएगा, और इस जगत का प्रेम तुमने मुक्त कर लिया, इस जगत के विषय से तुम बाहर हो गए, तो वही प्रेम परमात्मा की तरफ बहना शुरू होता है। वही प्रेम भक्ति बनता है। वही प्रेम प्रार्थना बनता है।
हमारी इच्छा होती है कि कभी टूटे न।
कभी तिलिस्म न टूटे मेरी उम्मीदों का...
कोई हमसे पूछे, भाई-बहन का प्यार। मैं उससे जी जान से प्यार करता हूं। वह भी मुझे उतना ही चाहती है। छोटी-छोटी बातों को भी हम आपस में शेयर करते हैं। उससे जो आत्मसंतुष्टि होती है, वह अवर्णनीय है।  न तो समय की पाबंदी और न ही साधन का टोटा। मोबाइल ने फासले मिटा दिए हैं। एक-दूसरे को हम अच्छी तरह समझते हैं। हमारी अंडरस्टेंडिंग बहुत अच्छी है। प्रेम में आपकी उपस्थिति जरूरी है, वही सुख-दुख में साथ देता है। न कि लेन-देन। हमने कभी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। कई बातें हम बिना कहे समझ जाते हैं। मैं सुखी तो वह सुखी। वह दुखी तो मैं दुखी। क्या इसी को टेलीपैथी कहते हैं। झूठ नहीं। मुझे स्वयं बहुत आश्चर्य होता है कि हमारी सोच इतनी कैसे मिलती है? भाई-बहन का जो प्रेम का बंधन है, वह बड़ा ही अटूट बंधन होता है। लोग कहते हैं कि प्रेम में स्वार्थ छुपा होता है, पर हमारा प्रेम तो पवित्र और निस्वार्थ है। मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं कि हमारा रिश्ता ऐसा ही बना रहे। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जा रही है, प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। हम मोबाइल और कंप्यूटर के जरिए मिलते हैं। हम दोनों को एक-दूसरे से कोई शिकायत नहीं। रक्षाबंधन के दिन सिर्फ राखी बांधना, उस दिन याद करना प्रेम नहीं। सच्चा स्नेह आंतरिक होता है। ये किसी चीज का मोहताज नहीं। बस, उसके लिए केवल इतना ही कहना चाहूंगा, ‘ हर एक बहन जरूरी है...’