शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

शुक्ला जी की कविता

प्रियतम कौन ?

पावन अतीत का सौरभ,
भ्रम रश्मि निशा का आँचल,
उन्मुक्त शिखा की लौ पर,
मानो डाले गंगाजल,
है हृदय चुराता कौन?
मेरा प्रियतम है कौन?
यह दीपक सब विपदा सह,
उन्मुक्त ज्योति में तन्मय,
जय कीर्ति ध्वजा फहराते,
गति-रति में हो जाते लय,
उत्साह दिलाता कौन?
मेरा प्रियतम है कौन ?
मुझ नेत्रहीन को देकर,
आँखो का भोला सपना
है थकित गात मान हारा,
दे कंठ-माल भी अपना,
है मुझे फँसाता कौन?
मेरा प्रियतम है कौन?


दरस दिखा जाना

फूटे जो अंकुर बन
कोयल सा सुमधुर बदन,
पल्लव से डाल हिले
छितराये बादल सुन
दीपक का बुझ जाना।
आ दर्शन दे जाना।।

हिमगिरी से हिम गल-गल
वर्षा से मरू दल-दल,
झरने की करतल कल
सरिता का बह-बह जल,
सागर में मिल जाना।
आ दर्शन दे जाना।।

बाल वधू सा मन
चंचल कोमल चितवन
अधरों पर टिकी हुई
नौका नाविक के बिन,
मैं जानूं जग जाना।
आ दर्शन दे जाना।।

अश्रु बँूद मन का मोती
सबका सुख-दुख धोती,
विपदा जब जब रोती
करूण बीज वह बोती,
करूणा बरसा जाना।
आ दर्शन दे जाना।।

रात अमावस वाली
कर जाती अँधियारी,
पी-पी रटता चातक
कोयल मधु स्वर वाली,
मधुऋतु तुम आ जाना।
आ दर्शन दे जाना।।

पलकों में छिप जाती
अधरों पर मुसकाती
तितली सी इठलाती
कलियों सी शरमाती
सरसों का लहराना।
आ दर्शन दे जाना।।


~
सुरेश चंद्र शुक्ला
ओस्लो, नार्वे

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

कुपोषण बनता जा रहा है चुनौती

नई दिल्ली। स्वस्थ नागरिक राष्टï्र की सबसे बड़ी संपत्ति होते हैैं। यदि नागरिक स्वस्थ होंगे तो सभी राष्टï्रीय उत्पादकता में वृद्घि होगी व राष्टï्र का विकास होगा । सदियों पुरानी कहावत हैै स्वास्थ्य ही धन हैै। उत्तम स्वास्थ्य का लक्ष्य पाना, वास्तव में किसी भी व्यक्ति व राष्ट्र के लिए एक बडी उपलब्धि होती हैै। इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्र ये उठता है कि अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी क्या है ? संतुलित आहार व पौष्टिक भोजन बहुत हद तक अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी का काम करता हैै। इससे हमारे शरीर रूपी ईंजन को ईंधन मिलता हैै वह अच्छे तरीके से काम करता हैै। पूर्ण, समृद्घ व समग्र जीवन का आनंद उठाने के इच्छुक किसीभी व्यक्ति के लिए संतुलित भोजन की पर्याप्त मात्रा अत्यंत आवश्यक हैै। पिछले वर्षो में पोषण की अवधारणा में व्यापक परिवर्तन आया हैै।
18वीं सदी में माना जाता था कि सभी भोज्य पदार्थों में एक ही प्रकार के तत्व पाए जाते हंै। फिर कार्बोहाइड्रेटस, प्रोटीन और वसा जैसे ततवों की खोज हुई।इसके प्रोटीन व अमीनों एसिडस के बारे में पता चला। इसके बाद एक बडी खोज के रूस्प में सूक्ष्म पोषक तत्वों यानि विटामिनों का पता लगाया गया। पोषक तत्वों की कमी होनेवाली बीमारियों का मुकाबला करने की तकनीक का पता चलने के बाद पोषण की समूची अवधारणा बदल गई और इन तत्वों की कमी से होने वाली बीमारियों से अनेक लोगों की जान बचाने में मदद मिली।
मानव की बदलती जीवन शैली के चलते रोग विज्ञान के क्षेत्र में भी अनेक परिवर्तन हुए हैैं। आज विकासशील देशों को कुपोषण से होनेवाली बीमारियों का सामना करना पड़ रहा हैै। ये ऐसी बीमारियां हैैं जो भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों के अभाव के कारण पैदा होती है। इन देशों में भोजन की मात्रा कम होने से भी समस्याएं सामने आई। कुपोषण से अनेक राष्ट्रों का विकास अस्त व्यस्त हो गया हैै।
यूनिसेफ की रिपोर्ट मेें कहा गया है कि विकासशील देशों में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की कुल मौतों में से आधी मौतें कुपोषण के कारण होती हैै। कुपोषण जिसे पोषाहार की कमी भी कहा जाता है, का गंभीर दुष्प्रभाव लगभग उसी उम्र के लोगों पर पड़ता है। किंतु बच्चों, किशोरों और गर्भावस्था तथा बच्चे को सर्वाधिक विनाशकारी होता हैै। भारत भी उन्हीं विकासशील देशों में से एक है, जिसे कुपोषण का सामना करना पड़ रहा है। यदि मध्यप्रदेश की बात करें तो धार, झबुआ, बैतूल, बालाघाट, शिवपुरी व छिंदवाड़ा आदि जिलों में कुपोषण एक गंभीर समस्या बन चुकी हैै। इनके कई गांवों में तो यह महामारी बन चुकी हैै। आदिवासी इलाकों में कुपोषण की दर 6।4 फीसदी से 10.3 फीसदी हैै। हालांकि कुपोषण से निजात पाने के लिए बाल संजीवनी अभियान, दीनदयाल अंत्योदय योजना, जननी सुरक्षा योजना, बाल सुरक्षा जैसी कई योजनाएं चलाई जा रही है। इनसे कुुछ हद तक फायदा हुआ है। आदिवासी क्षेत्र बहुत पिछड़े व अशिक्षित हैं। इनमें अंधविश्वास कूट-कूट कर भरा होता हैै। अत: इन लोगों को कुपोषण के खतरों से अवगत कराने के लिए अभियान चलाया जाना आवश्यक हैै। साथ ही सरकार गरीबों के कल्याण के लिए जो योजनाएं चला रही है, इनका लाभ गरीबों तक पहुंच पाता है या नहीं, यह पता लगाना बहुत जरूरी है, अन्यथा बच्चे तथा महिलाएं इसी कुपोषण का शिकार होकर मौत की बलि चढ़ते रहेंगे।

बुधवार, 29 जुलाई 2009

चीन की चालबाजियां

अंतर्राष्टï्रीय मंच पर और कूटनीतिक स्तर पर भले ही कहा जाता हो कि भारत, चीन शत्रु नहीं वरन मित्र हैं, पर जमीनी हकीकत अलग ही दास्तां बयां करती है। भारत-चीन सीमा विवाद दशकों पुराना मसला है और आज भी कायम है। विदेश मंत्री स्तर पर कई बार बातें हो चुकी हैं लेकिन जमीनी हकीकत में किसी प्रकार की कोई तब्दीली नहीं आई है।
बताया जाता है कि भारतीय सीमा पर चीनी फौज की तादाद बढ़ती जा रही है। चीनी सेनाओं द्वारा बारूंदी सुरंगे और बंकरों का निर्माण किया जा रहा है। कई बार सुरक्षा एजेंसियों ने भी भारतीय प्रशासन को आगाह किया है कि अपनी सीमा को चाक-चौबंद रखा जाए कारण चीन की हरकत संदेहास्पद लग रही है। तिब्बत और अरूणाचल प्रदेश से सटे सीमाई इलाके तो हमेशा ही चीन की आंखों की किरकरी है। हाल ही में खबरें आईं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बातचीत में चीनी प्रधानमंत्री जिआबाओ ने दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को जटिल बताया था। जिआबाओ ने कहा कि सीमा विवाद के समाधान में समय लग सकता है और इसके लिए विश्वास, धैर्य और राजनीतिक इच्छा शक्ति की दरकार है। इसके चंद दिनों बाद ही जब भारतीय विदेशमंत्री एस।एम. कृष्णा ने चीन के विदेशमंत्री यांग जेइची से थाईलैंड के फुकेट द्वीप में पहली बार मुलाकात की तो जोर देते हुए कहा कि भारत और चीन शत्रु नहीं, बल्कि उभरते हुए एशिया में सहयोगी हैं। बकौल कृष्णा, 'भारत और चीन आर्थिक और व्यापार क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी हो सकते हैं लेकिन वे शत्रु नहीं हैं। भारत और चीन दोनों को विकास करने के लिए पर्याप्त स्थान है।Ó
भारतीय राजनयिकों द्वारा लाख कहे जाने के बाद भी चीन अरूणाचल प्रदेश पर भारत की स्थिति को खारिज करते हुए स्पष्ट कर दिया कि वह सीमा निर्धारण के मसले पर अपनी शर्तो के अलावा कोई आपसी समझौता करने के लिए तैयार नहीं है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता किन गेंग ने कहा , 'ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए की गई भारत की टिप्पणी पर हमें खेद है। चीन और भारत ने कभी भी आधिकारिक तौर पर सीमा का निर्धारण नहीं किया है और भारत-चीन सीमा के पूर्वी हिस्से पर चीन का दृष्टिकोण स्पष्ट और संगत है।Ó इतना ही नहीं, भारत के उत्तरी छोर पर सिक्किम में फिंगर एरिया के नाम से जाने जाने वाले 2।1 वर्ग किलोमीटर के हिस्से पर चीन ने आपत्ति उठा कर नया मोर्चा खोल दिया है। इससे दोनो देशों के बीच सीमा विवाद पर तनाव की स्थिति और बदतर हो रही है। चीन ने नाथुला दर्रे से व्यापार खोल कर और बाद में सिक्किम को भारत के नक्शे में शामिल कर अपने आधिकारिक नक्शे में संशोधन करते हुए 1975 में सिक्किम के भारत में विलय को स्वीकार किया था। भारत-चीन सीमा विवाद के मामले में इसे सकारात्मक कदम माना गया था, हालांकि चीन सरकार ने सिक्किम को भारत का हिस्सा मानने के संबंध में कभी कोई औपचारिक बयान जारी नहीं किया। इससे पहले चीन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अरूणाचल प्रदेश यात्रा और अपने भाषण में राज्य को भारत के उगते सूरज की भूमि कहने का विरोध किया था। यूं तो चीन अरूणाचल प्रदेश के समूचे भू-भाग पर बहुधा दावे करता रहा है, पर अरूणाचल प्रदेश और सिक्किम में वास्तविक नियंत्रण रेखा के बारे में अक्सर दिए जा रहे कड़े बयान भारत के लिए चेतावनी की तरह हैं।
चीन का मत भारतीय अधिकारियों के नजरिए के सर्वथा विपरीत है। भारतीय अधिकारी पूरी अरूणाचल प्रदेश सीमा की तो बात ही क्या, तवांग के मुद्दे पर भी किसी तरह की बातचीत स्वीकार्य नहीं मानते। पूर्ववर्ती सरकार में अरूणाचल मामले पर विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी के बयान का चीन सरकार के विरोध करने से यह तो स्पष्ट है कि सीमा विवाद को हल करने के सालों से प्रयत्न विफल हो गए हैं। वहीं किन ने कहा कि पूर्व और वर्तमान चीन सरकारों ने कभी भी 'गैर-कानूनीÓ मैकमोहन रेखा को मान्यता नहीं दी और यह बात भारत अच्छी तरह जानता है। चीन ने छठे दलाई लामा की जन्म स्थली बताते हुए तवांग पर दावा किया, पर बाद में पूरे अरूणाचल प्रदेश पर ही हक जतलाने लग। इसके अलावा, चीन अब भी जिद पर अड़ा है और हमारी 90,000 वर्ग किलोमीटर जमीन पर दावा जतलाते हुए अरूणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा मानने से इनकार कर रहा है। 4,057 किलोमीटर की पूरी चीन-भारत सीमा पर विवाद है। भारत और चीन ही ऐसा अभिज्ञात पड़ोसी हैं जिनके बीच परस्पर स्वीकार्य सीमा नहीं है।
अमूमन कहा जाता रहा है कि भारत को सबसे अधिक खतरा अपने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से है जो आए दिन आतंकी गतिविधियों से जुड़ा रहता है। लेकिन भारतीय सेना के आला अधिकारी इससे इत्तेफाक नहीं रखते। तभी तो भारत के वायु सेनाध्यक्ष एयर चीफ़ मार्शल फाली होमी मेजर कहते हैं कि भारत को पाकिस्तान के मुक़ाबले ज़्यादा ख़तरा चीन से है। उनके मुताबिक भारत चीन की लड़ाई की क्षमताओं के बारे में बहुत कम जानता है। चीन की सेना की संख्या पाकिस्तान से तीन गुना है। लेकिन एयर चीफ मार्शल के मुताबिक सिर्फ संख्या से उसकी कार्यप्रणाली और उसकी क्षमता का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। होमी मेजर का कहना है कि चीन की वास्तविक क्षमताओं के बारे में, लड़ाई के हुनर के बारे में और उसकी सेना कितनी पेशेवर है, इस बारे में हम बहुत कम जानते हैं। चीन निश्चित रूप से ज़्यादा बड़ा ख़तरा है।
सच तो यह है कि शांतिपूर्ण वार्ता का दिखावा जारी है लेकिन सीमा विवाद जल्द हल होने के आसार नजर नहीं आते। सीमा पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) का अतिक्रमण नए खतरे का आयाम जोड़ रहा है। सीमा पर पर्याप्त निवारक क्षमताओं के अभाव के अलावा भारत अभी सैन्य संचालन संबंधी तैयारियों और बुनियादी सुविधाओं के मामले में भी चीन से काफी पीछे है। तिब्बत में चीन के सैन्य विस्तार पर लगाम लगाने में भारत असमर्थ रहा और अब उसने सीमा पर अपनी सैन्य क्षमताओं में सुधार किया है जिससे भारत के खिलाफ अपनी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन कर सके। इतना ही नहीं, चीन ने सभी सीमांत इलाकों में सड़क, रेल मार्ग, हवाईअड्डे और जल विद्युत व भूतापीय स्टेशनों जैसी बुनियादी सुविधाओं पर निवेश बढ़ाया है। साथ ही वह पूर्व और पश्चिम के सैन्य बलों की तैनातगी क्षमताओं में भी तेजी से बढ़ोतरी कर रहा है। सीमा के आस-पास भारत की प्रहारक दूरी पर लगभग ढाई लाख सैनिक तैनात हैं। नए रेल व सड़क संपर्को और राजमार्गो ने किसी भी सेक्टर में सैन्य टुकडिय़ों की तुरंत पुनर्तैनातगी की चीन की क्षमताओं में तेजी से इजाफा हुआ है।

सोमवार, 27 जुलाई 2009

घर का जनेऊ बाजारू हुआ


कभी मिथिलांचल के घर-घर में बनने वाला जनेऊ अब बाजारों में बिकने लगा है। पहले वृद्घ महिलाएं जनेऊ बनाकर घर में रखती थीं, जिसका विशेष अवसरो पर उपयोग होता था। पर बदलते सामाजिक आर्थिक परिवेश में जनेऊ बनाने की यह सहज प्रवृत्ति लुप्त हो गयी है। अब महत्वपूर्ण अवसरों पर भी बाजार से ही जनेऊ खरीदे जाते हैं। मिथिलांचल के बाजार में अब बनारसी जनेऊ का बोलबाला हैै जबकि धार्मिक मामलों में मिथिलांचल और बनारस में 36 का आंकड़ा है। दोनों के पंचाग तक अलग हैं। मधुबनी के निवासी विघ्रेश झा कहते हैं कि पूर्व में महिलाएं जनेऊ बनाने में गौरव महसूस करती थीं। वे काफी उत्कृष्ट जनेऊ बनाती थी। पर अब सिर्र्फ गरीब परिवार की महिलाएं ही जनेऊ बनाकर आर्थिक उपार्जन करती हैैं। पूजापाठ में प्रयुक्त होने वाले जनेऊ जहां 50 पैसे प्रति जोड़ा मिलता हैै, वहीं पहनने वाला जनेऊ दो रूपए। मंगरौनी निवासी जनेऊ बनाने वाली श्यामा देवी कहती हैं कि बाजार में जनेऊ की कीमत इतनी कम है कि इसे बनाने में लगने वाले श्रम, समय के कारण उनका धीेरे-धीरे मोहभंग होता जा रहा हैै। ग्रामीण क्षेत्र में कुछ महिलाएं जनेऊ बनाती भी हैं पर उनकी संख्या इतनी कम है कि उसका उपयोग उनने घर तक ही सीमित रहता है। लिहाजा मशीनों से तैयार होने वाले धागों से बने जनेऊ की आपूत्र्ति और खपत अधिक होने लगी हैै।

स्थानीय निवासी 80 वर्षीय कालीचरण मिश्रा का मानना है कि अगर इसे विधिपूर्वक और निष्ठा के साथ पहना जाए तो लोग दीर्घायु होते हैं। यों ही हमारे संस्कारों में उपनयन संस्कर को समाहित नहीं किया गया हैै, कुछ तो पौराणिक मान्यता और वैज्ञानिक कारण रहा होगा जिसे जानकर ही हमारे पूर्वजों ने इसे कुलाचार के रूप में स्वीकार किया। जनेऊ पर उन्होंने वैज्ञानिक शोध की आवश्यकता पर बल दिया। कई जातियों में तो शादी के समय जनेऊ पहनने का रिवाज है। जनेऊ पूरी तरह हस्तकला है और चरखे पर इसका धागा बनता है। जनेऊ छह तानी का होता है। एक तानी में कम से कम सात या फिर नौ धागा होता है। विभिन्न गोत्र और मूल के अनुसार जनेऊ को अलग-अलग परवल के नाम से जाना जाता हैै। परवल जनेऊ में दिए गए गांठ को कहते हैैं। कुछ जनेऊ में तीन और कुछ पांच परवल के होते हैं।

अब जनेऊ बनाने वालों की कमी के कारण लोग बाजार से खरीदने लगे हैं। बाजार में दो तरह के जनेऊ हैं। एक जो स्थनीय महिलाओं द्वारा तैयार है और दूसरा बनारस का होता है। आबादी बढऩे के साथ ही जनेऊ की मांग में भी काफी इजाफा हुआ हैै। स्थानीय बाजार में जनेऊ का व्यवसाय करने वाला श्यामसुंदर पटवा कहता हैै कि बनारसी जनेऊ की बिक्री भी बढ़ी है। पर वह स्थानीय जनेऊ की अपेक्षा काफी मोटा होता है। दोनों तरह के जनेऊ की कीमत एक जैसी है। उपनयन के अवसर पर आचार्य (गुरू) बरूआ (बालक) को जनेऊ पहनाते है। धारण करने से पूर्व इसे गंगाजल से सिंचित कर मंत्रोच्चार के साथ पवित्र बनाया जाता है। मंत्रयुक्त जनेऊ भी बाजार में उपलब्ध है पर कई लोग पंडितों से मंत्रोच्चारण कराके ही जनेऊ पहनते हैं। अधिकांश लोग तो स्वयं मंत्र का उच्चारण कर जनेऊ पहनते हैं। जनेऊ धारण करने का खास मंत्र होता हैै।

शनिवार, 25 जुलाई 2009

कैंसर का ज्योतिषीय सरोकार

वर्तमान समय में किसी भयानक से भयानक रोग का नाम लिया जाए, जिसका शरीर में होना ही मृत्यु का पर्याय माना जाता हो तो ऐसे रोग अंगुलियों पर गिने जा सकते हैैं इनमेें से एक हैै- कैंसर। ज्योंहि किसी व्यक्ति को कैंसर होने की घोषणा चिकित्सक करता है तो उस व्यक्ति एवं उसके परिजनों पर कहर टूट पड़ता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति दवा की ओर कम और पराशक्ति की ओर अधिक झुक जाता है। यदि धैर्यपूर्वक कैंसर का ज्योतिषीय अध्ययन किया जाए तो और ग्रहों की स्थिति के अनुसार उपाय किया जाये तो कैैंसर से मुक्ति भी संभव है।
संस्कृत में कैंसर राशि को कर्क और कैैंसर रोग को कर्काबर्द कहते हैं। उपयुक्त लक्षणों मेें कर्क राशि के स्वामी चन्द्रमा और उनके विभिन्न संयोगों को कैंसर रोग में योगदान का विशेष महत्व है।
विभिन्न ज्योतिषीय योग प्राचीन ग्रंथ में विद्यमान है। शरीर में कैैंसर इस रोग के होने और विकसित होने से कई वर्ष पूर्व ही जन्म कुंडली के आधार पर कैंसर होने की भविष्यवाणी की जा सकती हैै। प्रश्र यह नहीं कि ज्योतिष, हस्तरेखा सही या नहीं - उत्तर यह है कि हमारी पकड़ ज्योतिष, हस्तरेखा के उपर कितनी गहरी हैै। जबकि विज्ञान ने इतनी तरक्की की है इसके द्वारा भी जब भूल संभव है तब एक ज्योतिष के द्वारा गणना एवं विचार में भूल होनो कौन से बड़ी बात है। आवश्यकता इस बात की है कि किसी भी विषय पर पहुंचने से पहले सभी बातों का अच्छी तरह से विचार कर निर्णय किया जाए।
जन्म कुंंडली का छठा भाव रोग का होता है। कैंसर जैसे रोग के संबंध में इस भाव के स्वामी, इसकी राशि और पाप ग्रहों की दृष्टिï आदि के संबं में विचार किया जाना परम आवश्यक हैै। किसी भी जन्म कुंडली में चंद्र, केतु, राहु, शनि एंव मंगल की युति या दृष्टिï कैंसर का मूल कारण है। जन्म कुंडली में भावों के अनुसार शरीर से संबंधित ग्रहों के रत्नों का धारण करने से रोग-मुक्ति संभव होती है। लेकिन कभी-कभी जिसके द्वारा रोग उत्पन्न हुआ है, उसके शत्रु ग्र्रह का रत्न धारण करना भी लाभप्रद होता हैै।
अब सवाल उठता है कि कौन सा ग्रहों की युति इसका मार्ग प्रशस्त करती है, तो -
यदि छठे भाव का स्वामी पाप ग्रह हो और लग्नेश आठवें या दसवें घर में बैठा हो तो कैंसर रोग की आशंका रहती हैै।
छठे भाव में कर्क राशि में चंद्रमा हो, तब भी कैंसर का द्योतक है।
छठे भाव में कर्क या मकर का मंगल स्तर कैंसर का द्योतक है।
मकर राशि का बृहस्पति भी कैैंसर का परिचायक है।
छठे भाव में कर्र्कअथवा मकर राशि का शनि स्तन कैंसर का संकेत देता हैै।
छठे भाव के स्वामी का आठवें भाव में स्थित होना भी कैंसर होने का संकेत देता हैै।
छठे भाव में कर्क का सूर्य अथ्वा वृश्चिक मौन का चंद्रमा होने पर भी कैंसर का संकेत माना जाात है।
यदि शुक्र या मंगल या गुरू छठे या चंद्र-शनि के योग भी कैंसर के संकेत देते हैं।
किसी योग में अगर चंद्रमा पर शनि की दृष्टिï हो तब कंैसर की संभावना जन्म लेती है।
शनि असाध्य एवं भयानक लंबे समय तक चलने वाले रोगों का परिचालक है। इसके संयोग से अधिक इसकी दृष्टि पीड़ादायक है।
शरीर में किसी भी प्रकार की रसौली जल से होता है। अत: जल राशियों कर्क, वृश्चिक और मीन। ये जल राशियां हैं। इनके पाप ग्रस्त होने पर कैंसर की संभावना प्रबल होती है।
चंद्रमा से शनि का सप्तम होना कैंसर की संभावना को प्रबल बनाता है।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि यदि सूक्ष्मता से ग्रहों के व्यावहारिक गुण-दोष के आधार पर दशा, अंर्तदशा आदि का ज्ञान कर किसी रोग का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है एवं समय पर उसके उचित निवारण करने का प्रयास किया जा सकता है।
एक बात बहुत स्पष्टï रूप से समझ लेना चाहिए कि मात्र ज्योतिषीय मंत्र-तंत्र-यंत्र से ही किसी रोग का निवारण नहीं किया जा सकता है। इन सभी के साथ-साथ औषधि सेवन, चिकित्सकों के द्वारा दी गई सलाह आदि का पालन किया जाना उतना ही आवश्यक है। तभी इसका पूर्ण लाभ उठाया जा सकता हैै। अगर समय से पूर्व किसी भी घटना या दुर्घटना के बारे में जानकारी हो जाये तो उससे बचने का हर संभव प्रयास किया जा सकता हैै।

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

चीन आगे और भारत पीछे क्यों?

चीन व भारत विश्व के दो बड़े विकासशील देश हैं। दोनों ने विश्व की शांति व विकास के लिए अनेक काम किये हैं। चीन और उसके सब से बड़े पड़ोसी देश भारत के बीच लंबी सीमा रेखा है। इस समय चीन व भारत अपने-अपने शांतिपूर्ण विकास में लगे हैं। 21वीं शताब्दी के चीन व भारत प्रतिद्वंदी हैं और मित्र भी। अंतरराष्ट्रीय मामलों में दोनों में व्यापक सहमति है। आंकड़े बताते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ में विभिन्न सवालों पर हुए मतदान में अधिकांश समय, भारत और चीन का पक्ष समान रहा। अब दोनों देशों के सामने आर्थिक विकास और जनता के जीवन स्तर को सुधारने का समान लक्ष्य है। इसलिए, दोनों को आपसी सहयोग की आवश्यकता है। अनेक क्षेत्रों में दोनों देश एक-दूसरे से सीख सकते हैं।
कुछ समय पूर्व जयराम रमेश ने चीन और भारत को मिलाकर एक नई ताकत की कल्पना गढ़ते हुए 'चिंडियाÓ शब्द का प्रयोग किया था। इससे पहले प्रकाशित ब्रिक की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि चीन और भारत तेजी से उभरते दो ताकतवर देश हैं जो एक दिन मिलकर अमेरिकी जीडीपी को टक्कर देने की हालत में आ सकते हैं। 1990 तक चीन दुनिया में निर्माण क्षेत्र में चैंपियन के रूप में स्थापित हो चुका था। बाद में भारत कंप्यूटर सॉफ्टवेयर से लेकर बैक ऑफिस जॉब, कॉल सेंटर एवं आरएंडडी के मामले में चैंपियन बनकर उभरा। गौर करने योग्य तथ्य है कि चीन हमेशा से संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद का सदस्य रहा है और 1990 के बाद से वह इकनॉमिक पावरहाउस के रूप में सामने आया है। लेकिन इस दौरान अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मदद के साझे इतिहास और बहुपक्षीय मंचों पर एक-दूसरे के प्रतिरोध की वजह से भारत को पाकिस्तान के साथ जोड़कर देखा जाने लगा। 1990 के दशक में भारत और पाकिस्तान ने आईएमएफ और विश्व बैंक से काफी मदद हासिल की। इतना ही नहीं, सूचना तकनीक जगत में आई क्रांति के बाद इसमें काफी बदलाव आया। 2003-08 में भारतीय अर्थव्यवस्था ने करीब 9 फीसदी की दर से विकास किया। यह चीन के बाद सबसे अधिक वृद्धि दर थी। भारत के तेज आर्थिक विकास की वजह से अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने पुराने परमाणु संरचना को तोड़कर भारत के साथ परमाणु करार करने में रुचि दिखाई। पाकिस्तान के साथ इसी तरह की डील से अमेरिका ने इनकार कर दिया था, जिसके कारण भारतीयों ने इसका स्वागत किया क्योंकि इसके जरिए पाकिस्तान के साथ एक ही तराजू पर उसे तोलने की परंपरागत अमेरिकी नीति खत्म हुई।
बेशक, भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले पांच साल में काफी तेज विकास किया है, लेकिन यह चीन से अब भी बहुत पीछे है। भारत की आबादी के हिसाब से इसका जीडीपी बड़ा नजर आता है, लेकिन सच यह भी है कि देश में गरीबों की संख्या काफी है, नवजात शिशुओं की मौत की दर अधिक है, जन्म के समय जच्चा-बच्चा की मौत के मामले काफी अधिक हैं और बच्चों में कुपोषण की समस्या दुनिया भर में सबसे ज्यादा है। बताया जाता है कि चीन के उत्पाद 10 प्रतिशत से लेकर 70 प्रतिशत तक सस्ते हैं। इसकी एक वजह चीन द्वारा अपनाई गई एक स्थिर विनिमय दर नीति है, जबकि इसके ठीक विपरीत भारत ने बेहद उलझन भरी नीति अपनाई है। हाल की आर्थिक समीक्षा में विनिमय दर नीति के बारे में कहा गया है, 'हाल के वर्षों के दौरान विदेशी मुद्रा विनिमय दर नीति किसी पूर्व निर्धारित या घोषित लक्ष्य या दायरे के बिना, लचीलेपन के साथ विनिमय दर की सतर्कतापूर्वक निगरानी और प्रबंधन के व्यापक सिद्धांतों द्वारा निर्देशित थी। एक सुव्यवस्थित ढंग से मांग और आपूर्ति की अंतर्निहित दशाओं को विनिमय दर का निर्धारण करने की अनुमति दी गई। इस पूर्वनिर्धारित उद्देश्य के साथ, विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार में भारतीय रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप इस उद्देश्य से प्रेरित था कि अतिरिक्त उतार-चढ़ाव को कम किया जाए, मुद्रा भंडार के पर्याप्त स्तर को बनाए रखा जाए और एक व्यवस्थित विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार का विकास किया जाए।Ó
वर्तमान माहौल में चीन और भारत की बात की जाए तो दोनों के बीच का अंतर और गहरा गया है। चीन अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा खिलाड़ी बन गया है, जबकि भारत राडार के इस स्क्रीन पर कहीं नजर नहीं आता। वर्तमान संकट के लिए लोग अमेरिका को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, लेकिन अमेरिका का मानना है कि चीन की तरफ से बढ़ते कारोबारी दबाव की वजह से खतरा उत्पन्न हुआ है। चीन ने अपने विदेशी मुदा भंडार में दो ट्रिलियन डॉलर जमा कर लिया है। यह भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का आठ गुना है। इसकी वजह से अमेरिका चीन को अपने ट्रेजरी बॉन्ड बेचने पर मजबूर हो गया। इससे चीन का सरप्लस डॉलर अमेरिकी बाजार में दोबारा पहुंच गया। अमेरिका का कहना है कि इस वजह से अमेरिका को ब्याज दरों में कटौती करनी पड़ी और लोगों ने मनमाना कर्ज ले लिया। हो सकता है कि इस विश्लेषण में कुछ चीजें बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई हों, लेकिन यह सच है कि मैक्रोइकनॉमिक असंतुलन की वजह से मंदी की यह समस्या पैदा हुई है। जी-20 देशों ने समस्या का समाधान निकालने के प्रयास शुरू कर दिए हैं, लेकिन कई विश्लेषकों का मानना है कि इसे दूर करने के लिए जी-2 (चीन एवं अमेरिका) देशों का प्रयास ही काफी है। इतिहासकार नील फगुर्सन ने अब इसे चिमेरिका (चीन-अमेरिका) नाम दिया है। उनका कहना है कि 21वीं सदी में अमेरिका और चीन का प्रभुत्व कायम रहने वाला है। काबिलेगौर है कि चीन अब देने वाला बन चुका है। आईएमएफ के कर्ज देने की प्रस्तावित बढ़ी राशि में चीन से 40 अरब डॉलर का योगदान देने का फैसला किया है, जबकि इसमें जापान और शायद अमेरिका का योगदान 100 अरब डॉलर है। भारत इस सूची में कहीं नहीं है, बल्कि यह कर्ज लेने वाले देशों में शामिल है।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

गुम हो रही चिटठी


अपनों की खैरियत का सुखद इंतजार चिटठी मिलने पर, अपनों से आधी मुलाकात हो जाने का अहसास तकिए के नीचे चिटठी रखना और घरवालों की याद आते ही उसे निकाल कर पढऩा - अब यह सब कुुछ मानों किस्से-कहानियें की बातें हो चुकी है क्योंकि सूचना क्रांति ने डाक सेवा बुरी तरह प्रभावित हुई है और पिछले कुुछ वर्षो के दौरान डाक की कुल मात्रा में काफी गिरावट आई है।

संचार और सूचना प्रोैद्योगिकी मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि पिछले कुुछ वर्षो में जहां साधारण डाक की मात्रा में काफी तेजी से कमी आइ्र है, वहीं स्पीड पोस्ट बिजनेस पोस्ट और एक्सप्रेस पार्सल का इस्तेमाल तेजी से बढा हैै। सूत्रों का यह भी कहना हे कि अब ज्यादातर लोग चिटठी लिखने के बजाय ईमेल जैसी सुविधा का फ ायदा उठाते हैैं। फोन की दरों में कमी और मोबाइल फोन के बढते चलन ने भी चिटठी को अप्रासंगिक कर दिया है क्योंकि लोग फोन से कुछ ही पलों में अपनों की खैरियत पूछ लेते हैं और उस पर उनकी आवाज सुनने का अलग ही एहसास होता है। अब तो राखी और शुभकामनाओं के आदान प्रदान के लिए भी लोग ई-मेल का इस्तेमाल करते हैैँं। पहले जैसी बात अब नहीं है कि पानी बरसने के कारण कच्ची सड़क वाले गांवों में कई दिनों तक डाक नहीं जा पाती थी। अब साइबर कैफे का संजाल बढ़ता ही जा रहा है औरदेखते देखते काम हो जाता है।

मंत्रालय सूत्रों के अनुसार पहले पढने-लिखने के शौकीन व्यक्ति संपादक के नाम पत्र लिखते थे लेकिन अब अखबारों और पत्रिकाओं के अलग ईमेल आईडी होते हैैं, इसलिए वहां भी चिटठी की गुंजाइश नहीं के बराबर रह गई हैै॥

संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार , भारत में 31 मार्च 2006 की स्थिति के अनुसार कुल 155333 डाकघर हैं। यह विश्व का सबसे बड़ा डाक नेटवर्क है, जिसमें से 89 फीसदी डाकघर ग्रामीण क्षेत्रों में है। एक डाकघर औसतन 21।16 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र तथा 6623 व्यक्तियों की आबादी की सेवा करता है जो अन्य देशों के समतुल्य है॥ वर्ष 2002-03 में स्पीड पोस्ट का राजस्व 243.01 करोड़ रूपये था जो 2003-04 में 298.35 करोड़ रूपये और 2004-05 में बढकर 354.16 करोड़ रूपये हो गया। इसी अवधि में बिजनेस पोस्ट का राजस्व क्रमश: 276.89 करोड़ रूपए, 365.11 करोड़ रूपये और 473.06 क रोड़ रूपये दर्ज किया गया।

सूत्रों के अनुसार इसके बिलकुल विपरीत परंपरागत डाक की मात्रा में गिरावट आई है। वर्ष 2000-01 में अपंजीकृत डाक की मात्रा 1395।80 करोड़ थी जो 2004-05 में घटकर 714.62 करोड़ रह गई जबकि पंजीकृत डाक की मात्रा दर्ज की गई। सूत्रों ने बताया कि डाक वित्त सेवाओं के परिवेश में सुधार के लिए डाक वित्त मार्टो की स्थापना की जा रही है ताकि ग्राहकों को एक ही स्थान पर बचत बैंक डाक जीवन बीमा ओरियंटल लाइफ इंश्योरेंस अंतर्राष्ट्रीय धनांतरण म्युच्यूलफ ंड एवं बांड सरकारी प्रतिभूति घरेलू धन पारेषण जैसी सभी डाक वित्त सेवाएं सुलभ हो सकें। सूत्रों के अनुसार डाक विभाग ने अपनी सेवाओं के विस्तार और उन्हें स्तरीय बनाने क लिए स्पीड पोस्ट एक्सप्रेस पार्सल सेवा बिजनेस पोस्ट बिल, मेल सेवा ई पोस्ट डायरेक्ट पोस्ट ई बिल पोस्ट आदि की शुरूआत की है। मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि स्पीड पोस्ट सेवा के लिए ही वन इंडिया वन रेट नामक योजना शुरू की गई है, जिसमें 50 ग्राम वजन वाली डाक के लिए 25रूपए की लागत तय की गई है। यह सेवा अंतर्राज्यीय दस्तावेज सेवाओं का लाभ उठाने और ग्राहकों को लाभ पहुंचाने के लिए शुरू की गई है।

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

मिथिला की गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतीक पाग

मिथिला की खास पहचान पाग, जिसे पहनकर लोग स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं, अपने अतिथियों को सम्मान देने के लिए उन्हें पाग पहनाते हैं, वह पाग मिथिला की संस्कृति का ही प्रतीक नहीं बल्कि मिथिला की गंगा-जमुनी तहजीब एवं यहां के सांप्रदायिक सौहार्र्द्र का भी प्रतीक है। कवि कोकील विद्यापति से लेकर आज के महानुभावों के बीच सम्मान के रूप में प्रचलित पाग की अपनी विशिष्टï महत्ता है। लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता हैै कि जिस पाग को मिथिला के हिंदू श्रद्घा से अपने सिर पर धारण करते हैैं उस पाग को बनाते हैैं यहां के मुसलमान भाई। लेकिन दूसरों को पाग पहनाने वाले इस पुश्तैनी कारीगरों ंको भी अपनी कला के सम्मान के लिए कोई उन्हें पाग पहनाता - यह इच्छा उनकी आज तक पूरी नहीं हुई। दरभंगा-मधुबनी का पाग मिथिला ही नहीं पूरे देश एवं विदेशों में भी प्रसिद्घ रहा है।
दरभंगा में पाग बनाने का कार्य पिछली पांच पीढिय़ों से कर रहा है शहर के महराजगंज का एक अंसारी परिवार। पिछड़ी जाति से आनेवाले इस अंसारी परिवार का मुखिया मो। मोआज अंसारी का गुजर-बसर इसी पाग के सहारे चल रहा हैै। बेलबागंज में उसकी अपनी दुकान है जहां पर उसे बैठकर पाग बंाधते हुए कभी भी देखा जा सकता हैै। मोआज बताता है कि वह अपने धंधे से काफी खुश है क्योंकि इस पुश्तैनी पेशे से उसे अच्छी खासी आमदनी हो जाता हैै। मोआज का कहना है कि पहले केवल शादी-लगन के मौके पर ही उसे पागों के आर्डर मिलते थे, लेकिन अब तो सालों भर उसे इतने आर्डर मिलते हैं कि उतना वह बना नहीं पाता हैै। उसका कहना है कि जब से राजनीतिक दलों ने मिथिला के इस पाग को सम्मान देना शुरू किया है तबसे पाग का मार्र्केट काफी बढ़ गया हैै।
मोआज की बातों से ही इत्तफाक रखते हुए स्थानीय मोहल्ला मिश्रटोला निवासी शुभचंद्र झा बताते हैं कि अब तो पाग का फैशन हो गया हैै। पहले शादी-ब्याह, उपनयन संस्कार आदि विशेष मौके पर ही पाग का चलन देखा जाता था लेकिन अब तो कोई भी राजनीतिक नेता क्षेत्र में आते हैं उन्हें मिथिला की संस्कृति के रूप में पाग पहनाया जाता है। श्री झा कहते हैं कि पाग पहनाने का मतलब सामने वाले को आदर देना होता हैै, जिसकी लाज अतिथि को रखनी चाहिए। पाग को कुछ जाति विशेष या फिर सामंती व्यवस्था या धर्म विशेष से जोडऩेवालों को आड़े हाथों लेते हुए मोआज कहता हैै कि ऐसे लोगों को पाग के बारे में जानकारी नहीं हैै। यदि उन्हें सही मायने में इसकी पूरी जानकारी हो तो इस प्रकार की बातें नहीं करेंगे। वह कहता हैै कि अगर उन्हें पता हो कि हिंदुओं के पाग बनाने से एक मुस्लिम की रोजी रोटी चलती हैै तो फिर वे कभी पाग का विरोध नहीं करेंगे। पाग बनाने के हुनर को अपनी अगली पीढ़ी तक सुरक्षित रखने को इच्छुक मोआज का कहना है कि उसके परदादा हाजी नुरूल हसन ने सबसे पहले पाग बनाना शुरू किया। साठा पाग का प्रचलन खत्म होने के बाद दरभंगा के महराज भी उसी परिवार क ा बना पाग पहना करते थे। यह कहते हुए मानो गर्व से उन्नत हो उठता हैै कि मो। मोआज अंसारी का सर। लेकिन मोआज को इस बात का दुख जरूर है कि आज तक किसी ने उसके कला का सम्मान नहीं किया, किसी ने उसे आज तक कलाकार कहकर नहीं पुकारा जबकि उसके हाथ का बना पाग देश के शीर्षस्थ नेताओं के माथे पर चढ़ता रहा है।
पाग की ऐतिहासिकता के बारे में बताते हुए बिहार में शिक्षा विभाग के उच्च पद से सेवानिवृत्त डा। रामचंद्र चौधरी कहते हैं कि यों तो शास्त्र में ऐसा कोई विशेष समय का उल्लेख नहीं मिलता है कि कहा जाए कि फलां समय में फलां व्यक्ति ने इसकी शुरूआत की। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि समय के बदलते चक्र के साथ पाग का वर्तमान स्वरूप हमारे सामने आया। डा. चौधरी क ा कहना है कि आज का पाग बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की देन है, जिसे कुलाचार और लोकाचार के साथ फैशन के रूप में भी अंगीकार कर लिया गया। भले ही चित्रकारों ने अपनी कल्पना के आधार पर कवि कोकिल विद्यापति के माथे पर भी इसी पाग को दिखाया हो। वे बताते हैं कि मिथिला संस्कृति में गर्भाधान से लेकर श्राद्घकर्म तक सोलह संस्कार को समायोजित किया गया है। इन संस्कार में सर्वप्रथम उपनयन संस्कार और उसके बाद विवाह संस्कार में पाग का प्रचलन हैै। पहले साठा पाग का चलन था, जिसे अमूमन साठ हाथ के कपड़े से बनाया जाता था और इसे पहनने वाले स्वयं ही इसे अपने सिर पर बांधते थे। लेकिन समय बदला और लोगों का सोच भी। सो पाग अपने प्रारंभिक अवस्था से आधुनिक अवस्था में पहुंच चुका है। लेकिन इतना तो जरूर तो कहा जा सकता है कि पाग आज भी हमारी संस्कृति की पहचान है।
पाग निर्माण के संबंध में बताया जाता है कि पहले कोढि़ला से पाग बनता था, लेकिन अब उसके उपलब्ध नहीं हो पाने के कारण बत्तीस औंस के कूट से पाग का ढ़ांचा तैयार किया जाता है, फिर मलमल के कपड़े से उसे छाड़ा सजाया जाता हैै। पाग के उपरी भाग को चनवा कहते हैैं जिस पर तिक ोना कूट लगाया जाता हैै, जिसे त्रिफला कहते हैं। पाग के आगे के भाग को आगूक चूनन उसके नीचे के मुड़े हुए भाग को पेशानी एवं पीछे के हिस्से को पिछुआ कहा जाता है। पाग निर्माता मोआज बताता है कि जरूरत के हिसाब से वह लाल, उजला, पीला, कोकटी और केसरिया रंग का कपड़ा पाग पर लगाता है। वैसे कभी-कभी उसे हरे रंग का पाग बनाने का भी आर्र्डर मिल जाता हैै। वह बताता है कि सूती पाग की कीमत प्रति पाग बीस रूपये होती है। साटन कपड़े वाले स्पेशल पाग की कीमत साठ रूपये। वह कहता हैै कि एक दिन में वह एक दर्जन पाग तैयार कर पाता है।

सोमवार, 20 जुलाई 2009

जगजाहिर है राहुल और वरुण का फर्क

एक ही खानदान के दो चिराग। गाॅधी - नेहरु के राजनीतिक विरासत केेेे दो वारिस। परंतु राजनीति के धरातल पर खड़े, उत्तर - दक्षिण। घोर विरोधी खेमे में अपने - अपने राजनीतिक वजूद की तलाश। एक की उग्र छवि दूसरे का सौम्य। अपने - अपने पिता की छवि के अनुरुप। पर माॅं से मिली प्रतिद्वन्द्विता भी विरासत का हिस्सा। मीडिया और जन मानस में संजय गाॅंधी जहाॅ खलनायक के रुप में प्रतिबिम्बित किये गये वहीं राजीव को मिली ‘मिस्टर क्लीन‘ की पहचान। उनके बेटों के लिए भी मीडिया मेें कमोवेश यही तस्वीर। पर राहुल को मिली फूलों के सेज की सौगात तो काॅंटों भरा वरुण का राजनीतिक सफर।
समान पारिवारिक पृष्ठभूमी के बाद भी अलग राजनीतिक मंच और विरासत से जुड़े होने का भी अपना ही अलग नफा नुकसान है जो गाॅधी परिवार के इन वारिसो को अनायास ही मिला है। अगर कालखंड को पीछे मुड़कर देखें तो महाभारत काल का कौरव - पांडव प्रकरण प्रासांगिक प्रतीत होता है। धृतराष्ट्र को सिर्फ लिए इस सत्ता से विमुख होना पड़ा क्योंकि जन्म से अंधे थे। विकल्प के तौर पर उनके अनुज पांडु को सत्ता की बागडोर सौंपी गई। बाद में सत्ता के ये तात्कालिक उत्तराधिकारी वैकल्पिक से आधिकारिक वारिस हो गये और सत्ता की विरासत पर उनके पुत्रों ने अपना दावा पेश कर दिया। चुॅंकि स्थितियाॅं बदल गई थी इसलिए न सिर्फ सत्ता का केन्द्र बदल गया बल्कि उत्तराधिकार का सवाल भी भाई - भाई के बीच असंतोष और विवाद का कारण बन गया। नतीजा रहा कि जोे कुछ कौरवों को नैसर्गिक रुप से मिलना था उससे वे वंचित कर दिये गये। कमोवेश यही स्थिति संजय और राजीव गाॅंधी के राजनीतिक सफर और उनके विरासत का रहा।
संजय गाॅंधी का राजनीतिक सफर अपनी माॅं और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाॅंधी के छत्रछाया में शुरु हुआ था। ईमरजेंसी के बाद 1977 में हुए चुनाव में काॅंग्रेस की करारी हार के बाद संजय के नेतृत्व में युवा काॅंग्रेस ने ढ़ाई साल के बाद ही काॅंग्रेस के दुबारा सत्ता में वापसी का मार्ग प्रशस्त किया था। भले ही उनका जीवन विवादों से घिरा रहा हो किन्तु पार्टी और देश की राजनीति में उनके असर और प्रभाव को स्पष्ट महसूस किया जा सकता था। आपातकाल के खलनायक माने गये संजय 1980 के चुनाव में पार्टी में नायक के तौर पर उभर कर सामने आये थे। यह अकारण नहीं था कि एक विमान दुर्घटना में उनके आकस्मिक मृत्यु के बाद इंदिरा गाॅंधी अपने राजनीतिक उत्तराधिकार को लेकर इतनी अधिक चिंतित हो गई थी कि वह राजनीति से दूर रहने वाले अपने पाइलट पुत्र राजीव को राजनीति में उतार ही लाई। राजनीति के ‘पप्पू‘ राजीव जल्दी ही ‘मिस्टर क्लीन‘ के नाम से जाने गये। इंदिरा गाॅंधी की हत्या के बाद राजीव प्रधानमंत्री बनाये गये। प्रधानमंत्री के रुप में काॅंग्रेस के बम्बई अधिवेशन में उन्होने सरकारी तंत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार और सरकारी मद का केवल 15 प्रतिशत आम जनता तक पहुॅंचने की स्वीकारोक्ति से देश में हलचल मचा दिया था। 1991 में उनकी हत्या के बाद पार्टी और नेहरु - गाॅंधी परिवार के वंश परम्परा के अनुसार सोनिया और उनकी संतान काॅंग्रेस के स्वाभाविक उत्तराधिकारी घोषित कर दिये गये और यहीं से राहुल और वरुण का फर्क देश के सामने आया।
सत्ता का केन्द्र बदलने से न सिर्फ राजनीतिक आस्था बदल जाता है बल्कि विरासत भी बदल जाता है। कई बार तो विरासत पर दावेदारी का अधिकार भी विवाद और राजनीतिक संघर्ष का रुप ले लेता है। महाभारत काल में भी यही हुआ था। आधुनिक राजनीति मेें भी ऐसे कई उदाहरण मिल जाते हैं जब तात्कालिक कारणों से सत्ता में हुए कथित अल्पकालिक परिवर्तन ने वैकल्पिक प्रधान को ही बाद में वैधानिक और स्थायी घोषित कर पार्टी मे विवाद, गुटबाजी और संघर्ष की स्थिति बना दी। दिल्ली में मदनलाल खुराना और मध्य प्रदेश में उमा भारती इस तरह की स्थिति का बेहतरीन उदाहरण हैं। राजीव गाॅंधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संजय के सिपहसलारों की निष्ठा और स्वामी भक्ति बदल गई। जब काॅंग्रेस से उपेक्षित मेनका गाॅंधी ने ‘संजय विचार मंच‘ के नाम से अपना अलग राजनीतिक संगठन खड़ा किया तो अकबर अहमद डम्पी के अलावा संजय का एक भी वफादार चेहरा उनके साथ नहीं दिखा। 1977 में काॅंग्रेस पार्टी की करारी हार के बाद संजय के आभा मंडल के साथ जिन युवा शक्तियों ने अपने जीवटता भरे संघर्ष और आन्दोलन के बदौलत ढ़ाई साल में ही पार्टी को पुनः सत्ता में स्थापित कर दिया था वही अपने उर्जा और जुझारुपन को भूल राहुल और प्रियंका में ही देश और पार्टी का भविष्य देखने के आदी हो गये हैं।
इंदिरा गाॅंधी और सोनिया का मेनका से पारिवारिक विवाद इस हद तक बढ़ गया कि मेनका के लिए काॅंग्रेस में जगह की गुजाॅंइश ही खत्म कर दी गई। आज जहाॅं सोनिया और राहुल काॅंग्रेस के सर्वेसर्वा बन सरकार की कमान अपने हाथ में थामे हैं वहीं मेनका और वरुण प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के सांसद हैं। गाॅंधी - नेहरु परिवार की असली वारिस बन सोनिया ने वंश परम्परा को आगे बढ़ाते हुए अपनी संतानो को न सिर्फ देश के भावी मुखिया के रुप में प्रस्तुत कर दिया बल्कि प्रियंका बढ़ेरा तो पार्टी में बिना किसी पद और प्रतिनिधित्व के भी पार्टी के दिग्गज नेताओं और मंत्रियों से ज्यादा अहमियत रखती हैं। यह सोनिया और मेनका के ‘परिवार‘ का अंतर है जो राहुल और वरुण तक लगातार बढ़ता ही गया है।
गत लोक सभा चुनाव में भाजपा के पीलीभीत से सांसद वरुण गाॅधी के कथित भड़काऊ भाषण पर काफी हंगामा मचा था। चुनाव का दौर था और भाषण में देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी पर कथित रुप से आपत्तिजनक टिप्पणी की गई थी इसलिए सियासी बवंडर उठना लाजिमी ही था। आखिर सबसे बड़े थोक वोट बैंक को अपने पक्ष में लाने के इस सुनहरे मौके से सेकुलर पार्टियाॅ कैसे चूक सकती थी ? केन्द्र और राज्य सरकार में ‘वोट बटोरने‘ की ऐसी होड़ लगी कि आनन फानन में वरुण पर रासुका लगा दिया गया। स्वघोषित सेकुलर दलों के अलावा अपने वैचारिक और आर्थिक हित पोषकों को खुश करने के मुहिम में कथित सेकुलर मीडिया भी जोर शोर से शामिल था। लगभग उसी समय कुछ अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी कथित ‘अल्पसंख्यक‘ मुसलमानों को खुश करने के लिए समान रुप से भड़काऊ भाषण दिया था किन्तु सेकुलर कुनबे के लिए न तो वह खास खबर थी न ही ऐतराज करने वाला प्रमुख एजेंडा। इसी मामले मेें एक हास्य प्रसंग तब जुड़ गया जब विदूषी प्रियंका गाॅंधी ने वरुण को गीता पढ़ने की सलाह दे डाली। देश की जनता को याद ही है कि प्रियंका के दादा फिरोज गाॅधी पारसी थे और पति राबर्ट और माॅं सोनिया ईसाई हैं। देश के इस सर्वोच्च राजनीतिक परिवार में धर्म कर्म और अध्यात्म की कितनी चर्चा होती होगी, यह सर्वविदित है। इसलिए भले ही वह गीता के किसी सांदर्भिक श्लोक या अध्याय को याद नहीं कर पाई हो पर देश के बुद्धिजीवियों को उस वैचारिक संकट के समय में भी मुस्कुराने का मौका जरुर दे दिया था। एक तरफ जहाॅं राजनीतिक दलो और मीडिया के अलावा समस्त सेकुलर समुदाय वरुण गाॅंधी को खलनायक के रुप में निरुपित करती रही वहीं भाजपा इस मुद्दे पर अन्तरद्वन्द की शिकार ही दिखी। न तो इसे जनता के बीच ले सकी न ही वरुण के साथ एकजुट खड़ी हो सकी। प्रतिपक्षी के तौर पर कार्य कर रहे सेकुलर मीडिया के बनाये छद्म दवाब में जहाॅं भाजपा वरुण को अकेले ही मंझधार में छोड़ अप्राप्य वोट बैंक में अपनी छवि सुधार के निरर्थक प्रयास में जुट गई वहीं काॅंग्रेस और मीडिया इस दौरान राहुलमय बनी रही। यह न सिर्फ दो पार्टियों की संस्कृति का अंतर है बल्कि राहुल और वरुण का अंतर भी है।
न्यायालय ने वरुण के कथित भाषण को भले ही रासुका लगाने लायक आपत्तिजनक नहीं माना हो पर सेकुलर जमात इसे सबसे घृणित अपराध के रुप में ही निरुपित करती आई है। इस पर जबरन मचाये गये हो हल्ले की वजह से वरुण गाॅंधी की जान को खतरा बढ़ गया है, इसमें कोई दो राय नहीं है। देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त संगठन से जुड़े लोग जो वरुण गाॅंधी को मारना चाहते थे, बेंगलुरु में पकड़े गये। उसके बाद दिल्ली में भी छह शूटर पकड़े गये जो कथित तौर पर वरुण गाॅंधी के वकील को मारने आये थे। वरुण की जान के खतरे की संवेदनशीलता को देखते हुए सरकार और पुलिस के बयान पर यकीन करना मुश्किल लगता है कि उन शूटरों के असली निशाने पर वरुण नहीं बल्कि उनके वकील थे। वैसे भी इस मामले मेें केन्द्र सरकार का रवैया बहुत ही गैर जिम्मेदाराना रहा है। अगर यह बात सही भी है तो यह और भी खतरनाक है क्योंकि हाल ही में मुम्बई पुलिस ने छोटा शकील गिरोह के ही चार शूटर को गिरफ्तार किया है जो साध्वी प्रज्ञा के वकील को मारना चाहते थे। यह आतंकियों की नई और खतरनाक रणनीति है जिसमें वकीलों के मन में भय व्याप्त कराया जा रहा है ताकि वे किसी हिन्दूवादी नेता का केेेेस अपने हाथ में ले ही न सके।
सम्भव है इतिहास पी. चिदम्बरम को देश के सबसे नकारा गृहमंत्री के रुप में शुमार करेगा। एक गृहमंत्री पर सरेआम जूता उछाला जाता है और वह उसे कानून को दरकिनार कर सिर्फ इसलिए क्षमा कर देते हैं कि जूता फेंकने वाला अल्पसंख्यक समुदाय का था और चुनावी चरमोत्कर्ष में उनकी पार्टी के वोट बैंक पर इसका विपरीत असर पड़ सकता था साथ ही अन्य अल्पसंख्यको को भी गलत संदेश जा सकता था। कहा भी जाता है कि काॅंग्रेस देश हित से जुड़े मुद्दे को तो नजरअंदाज कर सकती है किन्तु खास वोट बैंक को नहीं। चिदम्बरम के अक्षम गृहमंत्री के रुप में याद किए जाने की और भी ठोस वजह यह है कि अपने इस नकारेपन को स्वयम् स्वीकार करते उन्होने पिछले ही दिनो कहा है कि प्रत्येक भारतीय की रक्षा नहीं की जा सकती है। यह शायद दुनिया के सभ्य इतिहास का पहला उदाहरण होगा जिसमें किसी स्वयंप्रभु देश का गृहमंत्री यह ऐलान करता हो कि वह अपने ही देशवासी के सुरक्षा करने में असमर्थ हैं। संयोग से गृहमंत्री के इस अक्षमता के उजागर होने के केेेेन्द्र में एक बार फिर वरुण गाॅधी ही हैं। वरुण और उनके वकील की हत्या के संदर्भ में जब बेगलुरु और दिल्ली में छोटा शकील के शूटरों की गिरफ्तारी की गई तो स्वयम् वरुण सहित भाजपा सांसदों मेनका और सुषमा स्वराज ने गृहमंत्री चिदम्बरम से उनकीु सुरक्षा बढ़ाने की माॅंग की थी। कथित तौर पर उन्होने उसी वक्त अपनी इस असमर्थता का इजहार किया था। अब इसे पिछले संदर्भ से जोड़कर देखेेें तो अमेरिकी सरकार की वह चिन्ता बहुत जायज दिखेगी जिसमें उन्होने अपने नागरिकोें को भारत जाने के प्रति चेताया था। आखिर जो देश अपने नागरिकों की सुरक्षा नहीं कर सकता है वह विदेशी नागरिकों और पर्यटकों की सुरक्षा कैसे कर सकता है ? क्या हम अमेरिका, ब्रिटेन या किसी अन्य देशों के गृह मंत्री से ऐसे बयान की उम्मीद कर सकते है ? शायद राहुल और वरुण के बीच के अंतर ने ही सख्त माने जाने वाले गृहमंत्री की कलई खोलकर रख दी है।
राहुल और वरुण के बीच का अंतर उन्हें सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई सुरक्षा व्यवस्था में भी स्पष्ट दिखता है। कहने को तो एक ही परिवार के चार सदस्य सोनिया, मेनका, राहुल और व्ररुण एक ही राज्य उत्तर प्रदेश से लोक सभा सांसद हैं पर उनके सुरक्षा इंतजामों में जमीन आसमान का अंतर है। मेनका गाॅधी ममता बनर्जी की तरह उन नेताओं में शामिल हैं जो अपनी सुरक्षा के लिए कभी भी चिंतित नहीं रही न ही सुरक्षा का भारी भरकम लाव लश्कर उन्हें ज्यादा रास आता है। वरुण गाॅंधी को वाई श्रेणी की सुरक्षा व्यवस्था प्राप्त है परन्तु उनकी जान पर बढ़ते खतरे को देखते हुए उनकी सुरक्षा और बढ़ाये जाने की माॅंग भाजपा ने किया जिसे ठुकराते हुए गुह मंत्री पी। चिदम्बरम ने कहा था कि सरकार प्रत्येक भारतीय को सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती है। सोनिया और राहुल भी वरुण की तरह सामान्य सांसद ही हैं फिर भी उन्हें एस. पी. जी. (स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप) सुरक्षा प्राप्त है जिसका गठन नियमतः केवल प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए किया गया था। इतना ही नहीं एसपीजी सुरक्षा प्रियंका बढ़ेरा को भी प्राप्त है जो किसी सदन की सदस्य तक नहीं है। सोनिया गाॅंधी यूपीए की अध्यक्ष जरुर हैं किन्तु यह कोई संवैधानिक पद नहीं है और प्रियंका की एकमात्र किन्तु सर्वापरि पहचान उनका सोनिया पुत्री होना भर है। सवाल उठता है कि जब इन्हें विशिष्टतम और प्रधानमंत्री के बराबर का सुरक्षा दिया जा सकता है तो इसी वंश बेल की शाखा हत्या की आशंकाओं से लगातार जूझ रहे वरुण को यह सुरक्षा क्यों नहीं प्रदान की जा सकती है ?
एक तरफ प्रियंका और राहुल को बिना किसी प्रत्यक्ष खतरे के भी प्रधानमंत्री के समकक्ष सुरक्षा प्रदान किया जा रहा है तो दूसरी तरफ वरुण के जान पर प्रत्यक्ष खतरे के बावजूद उनकी सुरक्षा बढ़ाने के लिए सरकार तैयार नहीं है।ं क्या यह भी एक कारण हो सकता है कि वरुण मेनका के पुत्र हैं जिन्हें सोनिया पसंद नहीं करती है ? या फिर गाॅंधी नेहरु परिवार की आधिकारिक वारिस सोनिया नहीं चाहती कि उनके ही खानदान या परिवार को कोई सदस्य राजनीति में इस हद तक उभरे कि उनकी संतानो को भविष्य मेें चुनौती दिया जा सके ? तो क्या राहुल की राजनीतिक राह निष्कंटक बनाने के लिए ही वरुण की जिन्दगी से खिलवाड़ किया जा रहा है ? इतना तो देश का हर ‘आम आदमी‘ जानता है कि सोनिया की ईच्छा के बगैर काॅंग्रेस या काॅंग्रेस की नेतृत्व वाली सरकार पत्ते भी हिला नहीं सकती। वरना क्या कारण हो सकता है कि देश का प्रधानमंत्री अपनी ही पार्टी के एक ‘सांसद‘ को मंत्रीमंडल में शामिल करने का आग्रह करता दिखे और वह सांसद सरकार के मुखिया को उपकृत करने के मूड में नहीं दिखे। आखिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जिस शख्स का नैसर्गिक अधिकार माना जाता हो वह किसी और की प्रधानी में मंत्री बनने से तो हिचकेगा ही। इससेे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की विवशता झलकती है या गाॅंधी परिवार के सामने सरकार की बेबसी यह तो इतिहास तय करेगा पर यह सवाल अपनी जगह अभी भी कायम है कि जब क्र्रिकेटर महेन्द्र सिंह धोनी को जेड श्रेणी की सुरक्षा मिल सकती है तो वरुण गाॅधी की सुरक्षा क्यों नहीं बढ़ायी जा सकती है ?

- बिपिन बादल
9810054378

शनिवार, 18 जुलाई 2009

बाजारवाद की आंधी में नारी की टूटती वर्जनाएं

औरतों को लक्षित करके किसी मशहरोमारुफशायर ने कहा है कि- मैं कभी हारी गई, पत्थर बनी, गई बनवास भी, क्या मिला द्रोपदी, अहिल्या,जानकी बनकर मुझे। इस पंक्ति को आधुनिकता के चादर में लपेट कर आज की नारी तमाम वर्जनाओंको तोडऩा चाहती और उन्मुक्त आकाश में विचरण करना चाहती है। इक्कीसवीं सदी को भी न जाने किन-किन उपाधियों से सम्मानित किया जा रहा है। उपभोक्तावाद की सदी, स्त्रियों की सदी, सूचना क्रांति की सदी, और न जाने क्या-क्या...? देखा जाए तो उपभोक्तावाद और स्त्री, जब दोनों का संगम हुआ तो इक्कीसवीं सदी के खुले बाजार ने उसे हाथों-हाथ लिया। इस सदी की स्त्रियों ने मांग की, कि हमें वर्जनओंसे मुक्ति दो। बाजार ने कहा कि सबसे बड़ी वर्जना तुम्हारी लाज और वस्त्र हैं। तुम उससे मुक्ति पा जाओ। वर्जनाओंके टूटते ही बाजार ने स्त्री को माल बनाया और इस माल को बाजार में उतार दिया। पुरुष की आदम मानसिकता ने इस उत्पाद को हाथों-हाथ लेना शुरू कर दिया और चल निकली बाजार की वह गाड़ी, जो स्त्री की देहयष्टिïपर केंद्रित थी। फिर उसे आवरण के रूप में नाम मिले- मॉडल, तारिका, एस्कार्ट, ब्यूटीकांटेस्ट,पार्लर और मसाज। पुरुषों की असली बातचीत में इसका असली नामकरण हुआ 'काल गर्लÓ।
आज नहीं तो कल, हर वह चीज मुश्किलों की वजह बनी है, जिसे खास बना दिया गया। खास तौर पर वैसी हालत में, जबकि वह खास बनाया जाना अपनी सुविधाओं के लिए हो, अपने मनमाफिक हो और उस चीज पर अपना कब्जा जाहिर करने के लिए किया गया हो। मर्दों की दुनिया में 'औरतÓ एक ऐसी ही चीज है। इस चीज (कालगर्ल) का बाजार आज विश्वव्यापी हो गया है। पूरब और पश्चिम की मान्यताएं टूट चुकी हैं। स्त्री शो-पीस बनकर बाजार में खड़ी है। आओ और ले जाओ। पूरे समाज में खलबली मच गयी है कि दुहाई देनेवाले हाय-तौबा मचाए हुए हैं। सती प्रथा को महिमामंडित करने वाले इस देश की स्त्रियों ने भी इस बाजार में उतरने में कोई कोताही नहीं बरती है। अमीर-गरीब सभी परिवारों की स्त्रियां इस धंधे में है। लिहाजा, भारतीय समाज आंखें, फाड़-फाड़ कर रोज देह-व्यापार के पर्दाफाश की खबरें अखबार में पढ़ रहा है, टेलीविजन पर देख रहा है। विडंबना यह है कि जिस अखबार के एक पन्ने पर इस व्यापार को 'गंदाÓ बताकर उसका भंडाफोड़ किया जाता है, उसी अखबार के किसी और पन्ने पर इस व्यापार में उतरने या स्त्री देह को 'भोगनेÓ के ढेर सारे निमंत्रण आपके सामने मौजूद होते हैं। मीडिया की भूमिका इस मामले में कैसी है, इस पर विचार करने की जरूरत है। खासकर तब, जब एक अखबार-देह व्यापार के जरिये हानेवालीकमाई से देश के आर्थिक विकास का आंकलन करने लगे, जब वह यह हिसाब बिठाने लगे कि भारत की लड़कियों के देह-व्यापार में उतरने से देश के सकल घरेलू उत्पाद में कितना विकास होगा। अब देह व्यापार का धंधा बनारस या कोलकाता की किसी बदनाम रेड लाइट एरिया में रहने वाली औरतें ही नहीं करती हैं। तथाकथित कुलीन घरानों कॉन्वेंट एजूकेटेड लड़कियां, जिनके पास कैरियर के अच्छे विकल्प भी हैं, वो भी देह व्यापार के इस धंधे में लिप्त हैं और यह किसी भय या दबाव में नहीं, बल्कि एक ऐशो-आराम भरी जिंदगी जीने की ललक के कारण। पैसे और सुख-सुविधाओं की यह आकांक्षा बाजार में ले आ रही है।
देश की राजधानी दिल्ली अब देह-व्यापार की राजधानी हो गयी है- कहना अतिश्योक्ति न होगी। राजनीति के साथ-साथ सेक्स का बाजार भी यहां काफी तेजी से फल-फूल रहा है। पहले यहां विदेशी आते थे गौतम-बुद्ध और महात्मागांधी के दर्शन करने को और अब यहां विदेशी बालाएं आती हैं 'धंधेÓ की तलाश में। सचमुच, कितना बदल गया है जमाना। देह व्यापार के लिए विदेशी लड़कियों द्वारा भारत के बाजार को सहूलियत की नजर से देखना न सिर्फ हमारे समाज को गर्त में धकेल रहा है, बल्कि पूरब और पश्चिम की संस्कृति के समागम को ऊहापोह की स्थिति में अधिकतर उच्च-मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की लड़कियों को अपने जिस्म की नुमाइश और इनके व्यापार को एडवांस समाज में अपने आपको एडजस्ट करने के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण शार्ट कट मानने के लिए भी उकसा रहा है।
गौरतलब है कि विदेशी लड़कियों को भारत आने में ज्यादा मुश्किलों का सामना भी नहीं करना पड़ता है। टूरिस्ट वीजा के नाम पर आने वाली इन लड़कियों का भारत आना-जाना लगा रहता है और भारतीय दलाल इन लड़कियों से निरंतर संपर्क बनाए रहते हैं। कॉरपोरेट जगत के बादशाहों, नेताओं की पहली पसंद आजकल विदेशी लड़कियां अधिक होती हैं। पिछले कुछ महीनों में खासकर दिल्ली में एक के बाद एक हुए कॉल गर्ल रैकेट के पर्दाफाश पर यदि नजर दौड़ाएं तो यह बात खासतौर पर सामने आती है कि अधिकतर ऐसे रैकटोंका पर्दाफाश न सिर्फ पॉश इलाकों में हुआ है, बल्कि बड़े-बड़े नेताओं और उद्योगपतियों के फार्म हाउसों में भी। अलबत्ता अपनी पहुंच के बूते ऐसे लोगों के नाम सामने नहीं आ पाए हैं।
तेजी से पांव पसारते कॉलगर्ल के मौजूदा बाजार में गोरी-चमड़ी वाली लड़कियों की काफी मांग है, उजबेकिस्तान, अजरवैजान,नेपाल, बंाग्लादेश और मोरक्को सरीखे देशों से आने वाली अत्याधुनिक कपड़े पहनने वाली, शराब-सिगरेट की आदी, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलनेवाली इन विदेशी लड़कियों को भारतीय सेक्स बाजार में सेक्स के मामले में ज्यादा खुला समझा जाता है। यही कारण है कि कुछ ग्राहक इन्हें हाइजेनिक माल भी कहते हैं। दरअसल, इन लड़कियों के साथ सेक्स सुख भोगने में इन्हें ज्यादा सामाजिक खतरा नहीं होता, क्योंकि अधिकतर विदेशी लड़कियां धंधा कर अपने देश वापस चली जाती हैं। इस कारण ग्राहकों के साथ किसी भी तरह का उन्हें भावनात्मक जुड़ाव भी नहीं होता है। लिहाजा, भारतीय पुरुष विदेशी लड़कियों पर पैसा लगाना अधिक फायदे का सौदा समझते हैं। पिछले कुछ दिनों में उजागर हुई घटनाओं पर गौर फरमाने पर यह बात खासतौर पर सामने आई है कि कॉलगर्लके इस बाजार में उपभोक्ता जहां अधिकतर उच्च वर्ग का है, वहीं मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग इस बाजार का 'मालÓ बन गया है। इन घटनाओं के अध्ययन से यह बात भी खास तौर से जाहिर होता है कि अधिकतर खाते-पीते घरों की लड़कियां ही ऐसा कदम उठाने में क्यों बाजी मार रही हैं? कारण सामने आता है कि उच्च मध्यमवर्गीय लड़कियों के कदम इस धंधे में जानबूझकर पड़ रहे हैं। दरअसल, किसी के साथ एक रात गुजारो और 15-20 हजार पा लो, इससे हसीन दुनिया और भला क्या हो सकती है। उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ ने इन लड़कियों की आस्था और मूल्यों को काफी पीछे छोड़ दिया है। महंगे मोबाइल, गाड़ी, कपड़े, अच्छे रेस्तरां में भोजन- ये सभी चीजें एक हाई-फाई जिंदगी जीने के लिए आवश्यक है।
सवाल कई हैं। जैसे-जैसे दुनिया आधुनिक होती जाएगी, पुरानी मानदण्डों का टूटना लाजिमी है। हर वह मंदिर लूटा गया, जो हीरे-जवाहरात की खान जैसा बन गया था। जायदाद के रूप में देखी गयी औरत आज अपनी उस ताकत का इस्तेमाल कर रही है, तो मुश्किल सवालों का खड़ा होना लाजिमी है। लेकिन एक सवाल यह भी है कि बहुत तेज रफ्तार से भागते हुए इस देह के धंधे को वह समाज कितना और कैसे पचा पाएगा, जिस समाज में बलात्कार के बाद खुद लड़की भी अपना जीवन खत्म हुआ मान बैठती है? यकीनन, अभी हमें और बहुत सारे सवालों से रू-ब-रू होना बाकी है। आधुनिकता की आंधी में पुराने महलों का ढहना लाजिमी है, लेकिन देखना होगा कि इस आंधी में टिकने के लिए जो रास्ते अख्तियार किए जाएंगे, वे नयी पैदा होनेवाली आंधियों का सामना कैसे कर पाते हैं। जाहिर है कि समाज अपने सामने पैदा होने वाले नए हालात से तालमेल बिठा ही लेता है। लगता है, आज का हमारा समाज इस नए सवाल से तालमेल बिठाने की कोशिश में है।
इन्हीं कोशिशों को आत्मसात करने, वज्रमूल्यों को चकनाचूर करने आदि पुरानी औरत को 'सतीÓ या 'वृंदावन-बनारस की गंजी विधवाÓ के द्वार तक पहुंचने से रोकने की प्रक्रिया को ब्यूटी कांटेस्ट, ग्लैमर, महिला आजादी, उनकी नौकरी, गायन, रैंपमॉडल, स्वागतकर्मीया एस्कार्ट के छद्ïम नाम और आवरण में लपेटना समाज की मजबूरी तो है, पर यह औरत को गंदे शब्दों और गंदी परिभाषाओं से निजात भी दिलाता है।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

इन्द्रप्रस्थ के दो प्रहरी

राष्ट्रीय राजनधानी दिल्ली में प्रगति मैदान के पीछे स्थित बस टर्मिनल से आगे छोटे-मोटे पेड़ों और झाडिय़ों के झुरमुट के पार एक पुरातन की भग्र होती प्राचीरें और जर्जर हो रही बुर्जिया सिर उठाये दिखाई पड़ती है। ये बुर्जियां उस अति प्राचीन किले की चारदीवारियों पर खड़ी हैं, जो एक अत्यंत प्राचीन नगरी का शाश्वत साक्षी रह चुका हैै। यह किला कभी ध्वस्त हुआ तो कभी बना, लेकिन इसका स्वरूप कभी नहीं बदला। इस किले को पुराना किला, पांडवों का किला, इंद्रप्रस्थ का किला और हुमायूं का दीन पनाह नामों से जाना जाता हैै। समय के तमाम थपेड़ों ने इसके स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन करनी चाही, लेकिन कोई विशेष परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता हैै।
उल्लेखनीय बात यह है कि इतिहासकारों और पुरातत्वविदों की रूचि इस किले में काफी रही हैै। इस रूचि की वजह महाभारत की अधिकाधिक सच्चाई जानने के साथ-साथ हुमायंू, शेरशाह सूरी और अंतिम मुगल बादशाह बहाुदर शाह जफर के बारे में प्रमाणिक जानकारियां उपलब्ध करना भी था, लेकिन अपनी लाख कोशिशों के बावजूद वे इस किले का निर्माण समय नहीं बता पाये। फिर भी अनुमान है कि इस किले का निर्माण 5000 साल पूर्व हुआ था और इसे पांडवों ने बनवाया था। बात उस समय की है कि जब दुर्योधन की जिद के कारण हस्तिनापुर राज्य का विभाजन हुआ था। विभाजन के समय पुत्रमोह में अंधे धृतराïष्ट्र ने दुर्योधन को तो राज्य के उपजाऊ भाग दिए जबकि उसने पांडवों को सुविशाल, दुर्गम और अनुपजाऊ खांडव वन तथा इसके आसपास के क्षेत्र दिए। खांडव वन खंड में पांच प्रसिद्घ पत (गांव) के क्षेत्र दिए। ये गांव बदले हुए नामों के साथ आज भी मौजूद हैैं। ये गांव थे - इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) , पानीप्रस्थ (पानीपत), सोनप्रस्थ (सोनीपत), तिलप्रस्थ (तिलपत) और वकृप्रस्थ (बागपत)।
बंटवारे के बाद श्रीकृष्ण की सलाह पर अर्जुन ने खांडव बन को जमाकर इसे रहने और साथ-साथ कृषि योग्य बनाया। इसके साथ-साथ पांडवों ने यमुना नदी के किनारे एक भव्य एवं सुदृढ़ किले का निर्माण कराया। चूंकि यह किला इंद्रप्रस्थ गांव की सीमा में बनाया गया था, इसलिए पांडवों ने अपनी राजधानी का नाम भी इंद्रप्रस्थ रखा।
इतिहासकारों और किवंदतियों पर विश्वास किया जाए तो किले के निर्माण के दौरान पांडवों ने किले के पृष्ठï भाग में दो दरवाजे बनवाये थे। ये दोनों दरवाजे यमुना नदी के किनारे खुलते थे। इन्हीं द्वारों से पांडु पत्नियां स्नान करने यमुना जाती थी। इन रास्तों की सुरक्षा के लिए पांडवों ने लाल भैरव की स्थापना की। राजमाता कुंती प्रतिदिन भैरव जी को दूध चढ़ाया करती थी। कालांतर में जब महाभारत का युद्घ हुआ तो कुंती ने लाल भैरव से वर मांगा कि मेरे पुत्र युद्घ में विजयी हों और अंतत: पांडव विजयी हुए। अपनी विजय के उपलक्ष्य मेें युधिïिïष्ठïर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया, लेकिन कुछ आसुरी शक्तियों के उपद्रव के कारण यज्ञ मेें विघ्र पडऩे लगा। विघ्र निवारण के लिए पांडव श्रीकृष्ण के पास पहुंचे। श्रीकृष्ण ने पांडवों को बताया कि यदि काशी से काल भैरव को इंद्रप्रस्थ लाया जाए तो यज्ञ निर्विघ्र संपन्न हो सकता है।
शिवपुराण के अनुसार काल भैरव भगवान शिव के सर्वप्रिय एवं प्रमुख गण थे। उनकी काशी पहुंचने की कथा कुछ इस प्रकार से है :
कहा जाता है कि एक बार भूलवश ब्रह्मïा जी अपनी पुत्री सरस्वती पर मोहित हो गए। अपनी रक्षा के लिए सरस्वती भगवान शंकर जी के पास पहुंंची। ब्रह्मïा जी भी उनके पीछे-पीछे थे। तब भगवान शंकर ने काल भैरव को ब्रह्मïा जी को रोकने का आदेश दिया। ब्रह्मïा जी को रोकने के लिए काल भैरव को उनसे युद्घ करना पड़ा। इस युद्घ में काल भैरव ने अपने नाखून से ब्रह्मïा जी का एक शीश काट दिया। हालांकि काल भैरव ने यह कार्य अपने स्वामी भगवान शिव केे आदेश पर किया था। फिर भी उन्हें ब्रह्मï हत्या का पाप लगा और इस पाप का प्रायश्चित भी आवश्यक था। अत: भगवान शिव ने उन्हें अपनी पापमोचन नगरी काशी में भेज दिया। इस तरह काल भैरव काशी पहुंचे और वहीं रहकर नगरी का सुरक्षा भी करते रहे और अपने पाप का प्रायश्चित भी।
बहरहाल हम बात कर रहे थे- श्रीकृष्ण के आदेश पर काल भैरव को बुलाने की। सो श्रीकृष्ण के आदेश पर महाबली भीम काल भैरव को लेने के लिए काशी पहुंचे और जैसे-तैसे उन्हें अपने साथ इंद्रप्रस्थ चलने के लिए राजी कर लिया। लेकिन इसके साथ काल भैरव ने भीम के साथ एक शर्त भी रख दी। शर्त यह थी कि भीम काल भैरव जी को गोद में उठाकर अविराम इंद्रप्रस्थ तक चलेंगे और यदि मार्ग में भीम कहीं पर थक कर बैठ गये तो भैरव जी वहीं स्थापित हो जायेंगे। भीम ने उनकी यह शर्त मान ली। काल भैरव को साथ लेकर भीम काशी से चल दिए। शर्त के अनुसार वे कई दिन तक लगातार बिना रूके चलते रहे और अंतत: इंद्रप्रस्थ नगरी के पिछले प्रवेश द्वार पर पहुंच गये। द्वार पर पहुंचकर अचानक भीम ने सोचा कि क्यों न थोड़ा-सा विश्राम कर लिया जाये। उन्होंने काल भैरव को दरवाजे के साथ ैबैठाया और स्वयं वहीं पसर गये। कुछ विश्राम करने के बाद जब वे आगे चलने के लिए तैयार हुए तो भैरव जी ने आगे जाने से इंकार किया। वे भीम से बोले कि शत्र्त के मुताबिक तुम्हें मुझे लेकर अविराम चलना था जबकि तुमने यहां रूककर विश्राम किया। इसलिए अब मैं आगे नहीं जा सकता। भीम ने काफी मिन्नतें की, लेकिन भैरव जी नहीं मानें लेकिन भीम को आश्वासन दिया कि जब यज्ञ शुरू होगा तो मैं यहीं से किलकारी मारूंगा। मेरी किलकारी से सारी आसुरी शक्तियंा भाग जायेंगी। ऐसा ही हुआ भी। पांडवों ने यज्ञ शुरू किया तो काल भैरव ने हुंकारनुमा किलकारी मारी, जिससे सारी आसुरी शक्तियां भाग गई। पांडवों का यज्ञ संपन्न हुआ। यज्ञ समाप्त होते ही कालभैरव मूत्र्ति के रूप में प्रकट हो गये तभी से उनका एक नाम किलकारी भैरव भी पड़ गया।
पांडवों के स्वर्गारोहण के बाद इंद्रप्रस्थ सूना हो गया। अभिमन्यु पुत्र परीक्षित ने अपनी राजधानी पर परीक्षित गढ़ में बनाई थी, इसलिए इंद्रप्रस्थ उपेक्षित हो गया। सदियों बाद इस किले पर राजा सुदर्शन का अधिकार हुआ। राजा सुदर्शन के पास अथाह धन-संपदा थी। इसलिए उसके पड़ोसी राजा विजय ने उस पर आक्रमण करके उसे मार डाला और स्वयं किले का मालिक बन ैबैठा। राजा विजय के बाद इतिहास इंद्रप्रस्थ के बारे में मौन है। शायह यह नगरी उपेक्षित हो गई थी।
अनुमान है कि छठी शताब्दी में यहां का राजा दिलू हुआ था। उसके नाम पर ही इंद्रप्रस्थ का नाम दिल्ली पड़ा। राजा दिलू के बाद भी सदियों तक पांडवों का किला उपेक्षित पड़ा रहा। हालांकि इस बीच मुसलमानों का दिल्ली आगमन हो चुका था। लेकिन उनमें से किसी ने भी इस किले की ओर ध्यान नहीं दिया। सोलहवीं सदी मेें शेरशाह सूरी ने दिल्ली पर अपना कब्जा जमाया। इतना ही नहीं, उसने पांडवों के किले को ही अपनी रानधानी बनाया। शेरशाह ने किले में व्यापक रद्दोबदल कराई। उसने पांडवों के यज्ञ मंडप के स्थान पर मस्जिद बनबाई, देवी के मंदिर को तोड़कर शेरमण्डल बनवाया और यमुना की तरफ खुलने वाले दोनों दरवाजे बंद करवा दिये। लेकिन उसने काल भैरव और लाल भैरव की मूत्र्तियों के साथ किसी प्रकार की छेड़-छेड़ नहीं की। शेरशाह के बाद हुमायूं दिल्ली पर काबिज हुआ। उसने भी अपनी राजधानी इसी किले मेें रखी और अपनी रूचि और सहूलियत के हिसाब से किले में परिवर्तन कराए। हुमायंू ने किले का नाम बदलकर दीनपनाह नगर कर दिया, लेकिन इसने भी भैरव के मूत्र्तियों को कुछ नहीं कहा। उस समय तक काल भैरव और लाल भैरव के पुजारी मंदिर में ही रहते थे।
वर्ष 1857 के प्रथम स्वंतत्रता संग्राम में पराजय के बाद अंतिम मुगल बादशाह बहाुदरशाह जफर ने इसी किले मेें शरण ली थी। उस समय तक काफी लोग इस किले मेंं रहते थे लेकिन बाद में वर्ष 1917 में अंग्रेजों ने किले को पूर्णत: खाली करा दिया। उन दिनों भैरव बाबा के पुजारी थे छीतर नाथ। छीतर नाथ के दो पुत्र थे - नत्थी नाथ और खचेडू नाथ। छीतरनाथ और उनके दोनों पुत्रों के भगीरथी प्रयास से भैरव बाबा का वर्तमान मंदिर अस्तित्व में आया। आज यह मंदिर काफ ी बड़ा हैै। मंदिर के भीतर काल भैरव (किलकारी भैरव) और लाल भैरव (दूधिया भैरव) की मूत्र्तियों के अलावा अन्य देवी-देवताओं की मूत्र्तियां भी हैैं। हर रविवार को इस मंदिर मेंं दूर-दूर से दर्शनार्थी आते हैैं। दिसंबर माह के अंतिम रविवार को यहां वार्षिक मेला लगता है।

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

ये तो ठीक न रहा

सियासी के मद में चूर होकर कोई किस कदर मदांध हो सकता है कि तमाम वर्जनाएं तोड़ दे ? महिला पर राजनीति करने की खातिर एक महिला दूसरी महिला पर घोर आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करें, जिसका प्रयोग किसी सभ्य समाज में उचित नहीं ठहराया जा सकता है, हमारी सभ्य समाज के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता है। बेशक, न्यायालय ने उत्तरप्रदेश कांग्रेस की अध्यक्षा रीता बहुगुणा जोशी को सूबे की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के खिलाफ आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल करने के लिए न्यायायिक हिरासत में भेजा हो, लेकिन इस पर बहस-मुहाबिसे होते रहेंगें।
दरअसल, मुरादाबाद में रीता बहुगुणा जोशी ने आयोजित एक कार्यक्रम में प्रदेश सरकार और उसकी मुखिया मायावती पर जमकर निशाना साधा। रीता बहुगुणा ने कहा कि प्रदेश सरकार रेप पीडि़त को 25 हजार रुपये देकर इतिश्री कर लेती है। रीता बहुगुणा यही नहीं रुकीं। उन्होंने मायावती पर बेहद व्यक्तिगत और अपमानजनक टिप्पणी भी की। रेप पीडि़त को प्रदेश सरकार द्वार दिए जा रहे मुआवजे के परिपेक्ष्य में रीता बहुगुणा ने कहा कि प्रदेश में एक नवविवाहिता का रेप हुआ तो माया सरकार ने 25 हजार मुआवजा दिया, एक अन्य युवती जिसकी रेप के बाद मौत हो गई, उसे 75 हजार रुपये मुआवजा दिया गया। ऐसा मुआवजा मायावती के मुंह पर मारते हुए कहो कि हो जाए तेरा (मायावती का) बलात्कार, हम देंगे 1 करोड़ । इस आपत्तिजनक टिप्पणी के बाद बीएसपी कार्यकर्ता बेहद भड़क गए और उन्होंने लखनऊ में उनके घर में आग भी लगा दी। देर रात रीता बहुगुणा को यूपी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। हालांकि रीता बहुगुणा जोशी ने अपनी इस टिप्पणी के भी माफी भी मांग ली है। रीता बहुगुणा जोशी पर एससी / एसटी ऐक्ट के अलावा धारा 109,152 और 509 के तहत भी मुकदमा दर्ज किया गया है। ये धाराएँ किसी वर्ग विशेष की भावनाएं आहत करने से संबंधित है । जानकारों के अनुसार एससी / असटी ऐक्ट में आसानी से जमानत नहीं मिलती है , इसलिए रीता को एक - दो दिन जेल में ही रहना पड़ सकता है। हालांकि रीता बहुगुणा ने बाद में इस पर सफाई देते हुए कहा कि मेरा मकसद किसी का अपमान करना नहीं था। मेरा मकसद सिर्फ एक महिला को आईना दिखाना था। अगर मेरी बात से किसी को ठेस पहुंचती है तो मैं माफी मांगती हूं। कांग्रेस नेता भी रीता बहुगुणा के बयान पर बचाव की मुद्रा में नजर आए और ज्यादातर नेता ने यह कहा कि उन्होंने बयान नहीं सुना है। हालांकि देर रात बहुगुणा की गिरफ्तारी और उनके बंगले में आग लगाए जाने के बाद प्रदेश कांग्रेस के नेता आक्रामक हो गए। पूरे आसार हैं कि कांग्रेस कार्याकर्ता गुरुवार सुबह होते ही सड़कों पर उतर आएंगे। इसके मद्देनजर मुरादाबाद में सुरक्षाबलों की तैनाती कर दी गई है।
वहीं इस मामले में कांग्रेस अपनी नेता का बचाव करते हुए उनके साथ किए जा रहे बर्ताव और उनके घर पर की गई आगजनी को घोर निंदा कर रही है। वहीं रीता बहुगुणा ने कहा कि वह भी मायावती के खिलाफ रिपॉर्ट दर्ज कराएगी। उनके घर पर हमला माया ने ही कराया है। रीता ने कहा कि मायावती ने आदमियों ने मेरे नौकरों को किडनैप कर लिया है। जबकि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने कहा कि यह सारा उपद्रव राज्य सरकार के निर्देश पर किया जा रहा है। रीता बहुगुणा के घर रात हुए हमले में एक बीएसपी विधायक भी शामिल था। कांग्रेस रीता के बयान से असहमत है, परंतु जरूरी है कि उस परिपेक्ष्य को भी समझा जाए, जिस बावत रीता बहुगुणा ने यह बात कही है। रीता बहुगुणा पहले ही इसके लिए माफी मांग चुकी है। एससी/एसटी ऐक्ट लगाने का कोई औचित्य नहीं है। कांग्रेस रीता बहुगुणा के घर हुई आगजनी की घोर निंदा करती है। सरकार कानूनी कार्यवाई करे, लेकिन गुंडागर्दी करना कौन सा कानून है।
इस संबंध में मुख्यमंत्री मायावती ने कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी की चुप्पी को दुर्भाग्यजनक बताया। मायावती के अनुसार , ' बसपा रीता बहुगुणा के अमर्यादित व अभद्र टिप्पणी की तीखी निंदा करती है। सोनिया ने अपमानजनक , घटिया , अमर्यादित टिप्पणी की निंदा नहीं की , न ही रीता बहुगुणा के खिलाफ कार्रवाई की । रीता बहुगुणा की टिप्पणी कांग्रेस हाईकमान के इशारों पर की गई है। जब रीता बहुगुणा कांग्रेस में नहीं थी उस वक्त उन्होंने अपनी एक किताब में गांधी परिवार के बारे में भी अनेक अमर्यादित टिप्पणियां की थीं। दुख की बात यह है कि ऐसी महिला को सोनिया गांधी ने यूपी की कमान सौंपी हुई है। सोनिया ने अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते रीता की तमाम टिप्पणियों को नजरअंदाज किया है। रीता बहुगुणा की अभद्र और आपत्तिजनक टिप्पणी बिलकुल माफ करने लायक नहीं है। रीता बहुगुणा के विरोध में बसपा कार्यकर्ताओं ने देश व्यापी विरोध का निर्णय ले लिया था, लेकिन मैंने देश की आम जनता के हित में बसपा कार्यकर्ताओं के आक्रोश को सड़कों पर प्रदर्शित न करने को कहा।Ó

संगीनों के साये में आवाम


यही पखवाड़ा था जब कोसी नदी की बाढ़ ने गत वर्ष बिहार में भारी तबाही मचाई। कोसी को बिहार का शोक भी कहा जाता है। सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि कोसी नदी के पानी का अगर उचित प्रबंधन किया जाए तो इससे बिहार के बड़े भूभाग को सिंचाई की सुविधा मिल सकती और नेपाल में पनबिजली उत्पादन बढ़ सकता है। 1954 में भारत और नेपाल के बीच कोसी नदी के पानी के इस्तेमाल और प्रबंधन पर एक संधि भी हुई। लेकिन उसपर समुचित अमल नहीं हो पाया। नतीजा एक बार फिर कोहराम का अंदेशा...

नेपाल द्वारा हाल ही में कोसी नदी में बड़े पैमाने पर पानी छोड़े जाने से बिहार के हजारों लोगों को बीते वर्ष जैसी विनाशकारी बाढ़ का डर सताने लगा है। मधेपुरा, पूर्णिया, सहरसा और अररिया जिलों में लोगों में घबराहट को देखते हुए राज्य सरकार ने कोसी बांध से जुड़े अभियंताओं को सतर्क रहने और स्थिति पर नजर बनाए रखने को कहा है। दूसरी ओर नेपाल के कुसहा और मधुबन इलाके में कोसी नदी के नवनिर्मित पूर्वी तटबंध पर गंभीर संकट मंडराने लगा है। कहा गया कि नदी में पानी का डिस्चार्ज एक लाख 90 हजार क्यूसेक के आसपास पहुंचने के बाद तटबंध पर धारा का दबाव काफी बढ़ गया। बताया जाता है कि स्पर पर दबाव का मतलब साफ है कि नदी का अगला निशाना तटबंध ही होगा। लेकिन दो लाख क्यूसेक से कम में जब यह हाल है, तो आगे क्या होगा ? इस बात की सहज कल्पना की जा सकती है। उल्लेखनीय है कि कोसी में कभी-कभी पानी का डिस्चार्ज 8-9 लाख क्यूसेक तक पहुंच जाता है। स्थानीय लोगों का कहना है कि अगर अविलंब युद्ध स्तर पर तटबंध को अपरदन से नहीं बचाया गया, तो पिछले साल की तरह एक बार फिर नदी तटबंध को तोड़ देगी। वहीं, सूचना यह भी है कि पानी के दबाव के कारण भीमनगर स्थित कोशी बराज का एक गेट (फाटक) बह गया है। फिलहाल 56 में से 29 गेट को खोलकर रखा गया है। लेकिन डाउन स्ट्रीम में पानी के दबाव को देखते हुए और गेट खोलने की जरूरत है। पता नहीं, बांकी गेटों को क्यों नहीं खोला जा रहा ।

सुपौल में तैनात एक अभियंता के अनुसार, 'सभी अभियंताओं से जरूरी उपकरणों के साथ तैयार रहने और बांध की सुरक्षा की खातिर हर स्थिति का सामना करने को कहा गया है।Ó दरअसल, भारी बारिश की वजह से नेपाल ने 1।64 क्यूसेक पानी कोसी नदी में छोड़ चुका है। कहा जा रहा है कि इस वर्ष यह रिकार्ड स्तर पर छोड़ा गया पानी है। जैसे ही यह खबर कानों-कानों होते हुए बहुसंख्यक तक पहुंची लोगों के मन में कई प्रकार की शंकाए उत्पन्न होने लगी। लोगों को किसी भी प्रकार से घबराने की बात नहीं करते हुए बिहार के जल संसाधन मंत्री बृजेंद्र प्रसाद यादव ने कहा कि कोसी बांध सुरक्षित है और घबराने की जरूरत नहीं है। कोसी नदी में ज्यादा पानी छोड़े जाने से बांध को कोई खतरा नहीं है। यह सब महज अफवाह है। गौरतलब है कि कोशी को बिहार का शोक माना जाता है। हर साल बाढ़ और नेपाल के बांध टूटने से आने वाली बाढ़ से लाखों लोग अभिशप्त हैं। बीते वर्ष 18 अगस्त में आई बाढ़ की वजह से बिहार में 30 लाख से ज्यादा लोग बेघर हो गए थे।

पिछले वर्ष जब कुसहा में तटबंध टूटा था, तो 30 से ज्यादा गेट बंद थे। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर आपात स्थितियों में भी भीमनगर बराज के सभी गेट क्यों नहीं खोले जाते? कहीं सरकार और अधिकारी किसी कड़वा सच को छिपाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह बराज अपनी सारी शक्ति खो चुका है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि अधिकारी समझ रहे हैं कि अगर सभी गेटों को खोला गया तो बराज ध्वस्त हो सकता है ? अगर यह सच है और इसे छिपाने की कोशिश की जा रही है, तो जनता के प्रति इससे बड़ा विश्वासघात और कुछ नहीं हो सकता है। वैसे भी भीमनगर बराज का निर्धारित कार्यकाल वर्ष 1988 में पूरा हो चुका है। कुसहा हादसे के बाद बराज के सशक्तिकरण या पुननिर्माण पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया ? किन्हीं के पास आज इस सवाल का जवाब नहीं है। काबिलेगौर है कि गत वर्ष भारत और नेपाल ने नदी के पानी के प्रबंधन और भविष्य में बाढ़ जैसी आपदाओं से बचने के लिए कई उपाय करने का फैसला किया था। नई दिल्ली में भारत के तत्कालीन जल संसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज और नेपाल के जल संसाधन मंत्री विष्णु पौडेल ने एक बैठक में इस बारे में अहम बातचीत की थी और 1954 की संधि पर ठीक तरीके से अमल करना तय हुआ था। मगर एक वर्ष बाद भी स्थिति जस की तस है।

दरअसल, बिहार के उत्तर में मूसलाधार बारिश की वजह से कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक और बागमती जैसी प्रमुख नदियां ऊफान पर हैं, जिससे कई क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा पैदा हो गया है। बाढ़ के खतरे को देखते हुए बाढ़ संभावित सभी इलाकों के जिलाधिकारियों को चौकस रहने का आदेश दिया गया है। नेपाल और बिहार के सीमावर्ती इलाकों में दो दिनों से हो रही लगातार बारिश से नदियों के जलस्तर में वृद्धि देखी जा रही है। बीरपुर बैराज के सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर एम। एफ. हमीद के अनुसार, 'बैराज के ऊपर कोसी में 1,88,951 क्यूसेक पानी है जबकि बहाव के समय पानी 1,86,951 क्यूसेक है। कोसी नदी के कैनाल में 3,000 क्यूसेक पानी छोड़ा जा रहा है। पानी के बहाव के कारण बैराज में दबाव बना हुआ है।Ó इतना ही नहीं, बढ़ते जलस्तर के कारण मधेपुरा और अररिया की कई छोटी नदियां ऊफान पर हैं। वाल्मीकिनगर में गंडक बैराज का जलस्तर 1. 71 लाख क्यूसेक बना हुआ है। लखीसराय जिला में किउल तथा हरूहर नदी में जलस्तर बढ़ जाने के कारण पिपरिया प्रखंड का जिला मुख्यालय से सड़क संपर्क भंग हो गया है। इसके साथ ही नेपाल में हो रही भारी बारिश के बाद कटिहार जिला के कुरसेला रेल ब्रिज पर कोसी का जलस्तर 24. 85 मीटर है, जो खतरे के निशान से नीचे है। हालांकि इसमें बढ़ोतरी के संकेत हैं। केन्द्रीय जल आयोग के एक अधिकारी के मुताबिक नेपाल से पानी छोड़े जाने के बाद बागमती नदी का जलस्तर खतरे के निशान को पार कर गया है, वहीं गंडक नदी के जलस्तर में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। अधिकारिक सूत्रों के अनुसार जलस्तर में बढ़ोतरी को देखते हुए जल संसाधन विभाग के इंजीनियरों को संवेदनशील तटबंधों पर नजर रखने के निर्देश दिए गए हैं।

सच तो यह है कि कोसी, कोसी है कोई हंसी-ठ_ा नहीं ! पहले भी इसके साथ काफी मजाक किया जा चुका है। भ्रष्टाचार के कारण इसका तल गादों से भर चुका है। दशकों की लूट के कारण तटबंध भी मेड़ में परिणत हो चुके हैं। कोशी का फूंफकार तो पिछले वर्ष दुनिया देख ही चुकी है। अगर समय रहते नहीं चेता गया तो नदी डंसने के लिए मजबूर होगी।

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

किसान सरकार साझेदारी क्यों?

अपनी बेबाकी के लिए ख्यात धूमिल ने कहा था,
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं ये तीसरा आदमी कौन है
मेरे देश की संसद मौन है।

यकीनन यह भारतीय लोकतांत्रक व्यवस्था की विडंबना है जिस किसान को अन्नदाता की संज्ञा से अभिहित किया जाता रहा है, वह आज अन्न के लिए मोहताज हो रहा है। कहीं वह अपने वजूद के लिए संघर्श कर रहा है तो कहीं तो समस्याओं के निराकरण नहीं होने पर आत्महत्या तक का कठोर फैसला करने को बाध्य है। जो लाखों लोगों के पेट के लिए हाड़तोड़ मेहनत कर रहा है, वह आज अपने हक के लिए सड़क से संसद तक धरना-प्रदर्षन करने को बाध्य है। वरना कोई तुक नहीं है कि विदर्भ के किसान आत्महत्या करें, बझेड़ा खुर्द के किसान पुलिसिया डंडे से अपना हाथ-पैर तुड़वाए, सिंगूर के लोग गोली खाएं और तो और राजधानी दिल्ली में कंझावला के किसानों को महीने भर से ज्यादा दिनों तक जिला उपायुक्त कार्यालय का घेराव करना। इस सबके बावजूद कोई विषेश बदलाव नहीं आया, लेकिन जनसंघर्श वाहिनी के जुझारू संघर्श से एक आषा किरण दिखाई देने लगी कि अब किसान-सरकार की साझेदारी की बात होने लगी।
यूं तो विश्व के गिने चुने देशों में जो लोकतांत्रिक व्यवस्था है उसमें भारत एक है और पूरे विश्व में उदाहरण के रूप में भी जाना जाता है। हकीकत में जब इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर गहराई और ईमानदारी से झांकने के बाद जो सच्चाई सामने आती है उससे साफ लगता है कि यह व्यवस्था अधूरी है और इसको बदलना जरूरी है। अंग्रेज तो चले गए किंतु आजादी के छह दषक बीत जाने के बाद भी आजाद हिंदुस्तान की सरकारें अंग्रेजी नीतियों केा नहीं त्याग सकी है; यदि यह कहा जाए कि केवल चेहरा बदला है और षरीर व सोच वहीं है तो कोई अतिष्योक्ति नहीं होगी। अंग्रेजों के षासनकाल में भी किसानों से जमीने ली जाती थी और किसान के मनमाफिक मुआवजा नहीं मिलता था, कमोबेष वही स्थिति आज भी है। देश के किसानों की जमीन उनके द्वारा बनाए गए भू-अर्जन कानून के तहत हड़पने का सिलसिला आज भी जारी है। देश में क्या नहीं हो रहा होगा जब देश की राजधानी दिल्ली में भी किसान अपनी जमीन नहीं बचा पा रहे हैं अबतक .......गांवों की जमीन हड़पी जा चुकी है।1894 में बने इस कानून की आड़ में देश भर में किसानों की जमीन हड़पने का काम निंरतर जारी है और देश के विभिन्न भागों में किसान अपनी जमीन बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुतियां दे रहे हैं। अव्वल तो यह है कि जिस जगह आज राश्ट्रपति भवन और संसद भवन बना हुआ है, दिल्ली का वह रायसीना गांव आज कहीं चर्चा में नहीं है। इतिहास के पन्नों में समटकर रह गया है यह गांव। दिल्ली देहात के लोग बताते हैं कि अंग्रेजी सरकार ने 1900 ई में 99 साल के लीज पर रायसीना गांव की जमीन ली थी, जिस पर आज का राश्टपति भवन, संसद भवन, नाॅर्थ ब्लाॅक, साउथ ब्लाॅक बना हुआ है, जहां से पूरे देष के लिए नीति-निर्धारण होता है। लेकिन रायसीना गांव के मूल वाषिंदे लीज के 99 साल बीतने पर नया मुआवजा की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकार का कोई नुमाईंदा उनकी ओर देखता तक नहीं है। इसी प्रकार का मामला चंद्रावल गांव के लोगों का भी है। जिस चंद्रावल गांव की जमीन पर आज दिल्ली विधानसभा बना हुआ है पूरा सिविल लाईंस बसा हुआ है, वहां के लोगबाग आज भी अपने हक के लिए अंतहीन लडाई लड रहे हैं। दिल्ली देहात के लोगों ने अपने हक के लिए दिल्ली ग्राम विकास पंचायत का भी गठन किया जो उनके हक की बात कर सके और सरकार के पास तक उनकी बातों तक पहुंचा सके; सालों आंदोलन की गई, लेकिन बाजारबाद की आंधी ने गांववालों की नहीं सुनी।
दरअसल, अंग्रेजों ने भारत में आवोहवा अन्य प्राकृतिक सुबिधाओं और अपनी सुरक्षा को ध्यान में रख कर अपने रहने और सुख भोगने के लिए इस देश के कई आबाद गांवों को गिरा कर अपने रहने के लिए कालोनियां और कस्बे सहित शहर भी विकसित किए। इसी अलिखित सिद्धांत पर भी सरकार काम कर रही है।अंग्रजों ने जमीन हथियाने के लिए 1894 बाकायदा एक कानून भी तैयार किया जिसका नाम तो जन हित दिया गया और उसमें प्रावधान किया गया कि जन हित के नाम पर किसी भी जमीन का अधिग्रहण किया जा सकता है।
इन हालातों में यह सोचना लाजिमी हो जाता है कि देश के दूर-दराज के राज्यों में क्या हो रहा होगा जब देश की राजधानी दिल्ली और दिल्ली के इर्द-गिर्द किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है। समय-समय पर केन्द्र के मंत्रियों के साथ विभिन्न जन आन्दोलनों और संगठनों के प्रतिनिधियों ने भू-अर्जन कानून को रद्द करने और राष्ट्रीय पुनर्वास नीति को जन पक्षिय रूप में स्वीकार करने के लिए जब बैठकें की गई तो उन बैठकों के दौरान कृषि मंत्री शरद पंवार और ग्रामिण विकास मंत्री रघुवंस प्रसाद सिंह के समक्ष जन संघर्ष वाहिनी के संयोजक भूपेन्द्र सिंह रावत ने सवाल किया था कि सरकार का काम न तो जमीन हड़पने का है और नही कालोनाईजरी और प्रोपर्टी डीलरी करने का तो फिर सरकार क्यों किसानों की जमीन चंद रूपयों में हड़प कर लाखों रूपयों की दर से प्रति बर्ग मीटर जमीन बेचने का कारोबार कर रही है।
सरकार किसानों से औने-पौने दामों पर जमीन लेती है और फिर उसे बाजार भावों से बेचती है। इस कार्य के लिए उसने बकायदा विकास प्राधिकरण और हाउसिंग सोसाईआटी बना रखी है। इसका सबसे बेहतर उदाहरण दिल्ली विकास प्राधिकरण, डी।एस.आई.डी.सी. और यूपी में गाजिया बाद विकास प्राधिकरण हो या नोएडा अथारिटी या हरियाणा का हुड्डा हो सभी ने किसानों की जमीन चंद रूपयों में हड़पकर लाखों रूपयों में बेचने के कारोबार में लीन हैं। सरकार के मुखिया जब अतिरिक्त लाभ कमाना चाहते हैं तो नोएडा घोटाले जैसे घोटाले सामने आते हैं।आजादी के लिए कुर्वानी देने वाले ज्यादातर लोगों के मन में था कि गोरों के जाने के बाद हमारे देश वासियों को रहने के लिए घर पहनने के लिए कपड़ा और खाने के लिए भोजन की व्यवस्था सहजता से उपलब्ध होगाी। उन्हेें क्या पता था कि उनकी सहादत के बाद का दृष्य इतना भयानक होगा। जिसमें ग्राम प्रधान देश के गांवो को उपेक्षित करके रखा जाएगा और ऐसे हालात बनाए जाएंगे कि गांवों के लोग रोजी रोठी के लिए गांवो से पलायन कर शहरों की तरफ जाने के लिए वाध्य किए जाएंगे जिनमेंसे ज्यादातर आबादी अमानवीय परिस्थितियों में जीवन व्यतीत करने के लिए विवश होगी। और ऐसे गांवों की तब तक सुध नहीं ली जाएगी जब तक उस गांव की जमीन से देश के किसी साधन संपन्न तबके का हित नहीं सधता। और जैसे ही सरकार को लगता है कि अमुक गांव की जमीन से अमुक राष्ट्रीय या बहुराष्ट्रीय कंपनी का हित होगा वह उस गांव के लोगों को उनकी जमीन से बेदखल करने में रति भर भी संकोच नहीं करती है।
अपने हित के लिए सरकारी एजेंसियां इस कदर अंधी हो जाती है अपने स्वार्थ के लिए किसानों की जान यानी उनकी जमीन की इनक ेलिए कोई अहमियत नहीं होती है; आज आजादी के 60 साल से ज्यादा हो चुके हैं और हमारे देश के किसानों के द्वारा तैयार फसल हो या उनकी पुस्तैनी जमीन दोनों को बेचते समय उसकी कीमत तय करने का अधिकार किसानों के पास नहीं है। जबकि दूसरी तरफ किसानों की फसलों से तैयार माल को बेचने की कीमत तय करने का अधिकार व्यापारियों को है। यहि नहीं देश की राजधानी दिल्ली के चैराहों पर भीख मांगने वाले भी अपना ठिकाना दूसरे भिखारी को तभी बेचता है जब वह उसके मुताविक कीमत अदा कर देता है। ऐसे मे सवाल यह पैदा होता है कि किसानों की हालात भिखारी से बदतर बनाकर रखने की चाल शासक वर्ग ने सोची समझी नीति के तहत कर रखी है या किसानों की बात करने वाले उनकी बात ईमान दारी से नहीं उठा पा रहे हैं? कल्पना की जा सकती है कि देश के दूरदराज के राज्यों में किसान, मजदूर और मछुआरों सहित दलितों और आदिवासियों के साथ सरकारें क्या सलूक कर रहीं होंगी जब देश की राजधानी दिल्ली में ही किसानों की जमीन जबरन हड़पने का धंघा सरकारें करती आ रही हैं और दिल्ली का पढालिखा ताकतबर किसान सड़क पर लड़ाई लड़ रहा है।दिल्ली में जमीन हड़पने का यह सिलसिला आज भी थमा नहीं है सन् 2005 में सरकार ने जमीन हड़पने की इसी नीति के तहत दिल्ली के उत्तर-पश्चिमी जिला कंझावला के 6 गांवों की जमीन हड़पनें कें लिए धारा-4 के नोटिस जारी किए और मार्च 2008 में इन गांवों की जमीन को अवार्ड कर दिया किसानों ने दिल्ली में जमीन बचाने की कल्पना भी नहीं की थी इस लिए किसान मुआवजा बढाने की मांग को लेकर 19 मार्च 2008 से जिला मुख्यालय के पास धरना दे कर बैठ गए किसानों की मांग के समर्थन में राजनीतिक पार्टियों के नेता और किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत भी पंहुचे और किसानों ने अप्रैल 2004 में विधान सभा पर प्रदर्शन भी किया लेकिन सरकार ने एक न सुनी।
किसानों ने तमाम राजनीतिक पार्टियों के दरवाजे पर अपनी फरयाद सुनाई किंतु किसी भी प्रकार की राहत जब किसानों को नहीं दी गई तब अंत में किसानों ने फैसला किया कि गैर राजनीतिक रूप में इस लड़ाई की अगुवाई करने के लिए जन संघर्ष वाहिनी का सहयोग लिया जाय। जन संघर्ष वाहिनी के साथ किसानों की पांच दौर की बैठक हुई और इस बीच में एक बार धरने पर जन संघर्ष वाहिनी के कार्याकर्ताओं ने सिरकत की किंतु किसानों ने पुनः अपनी लड़ाई का पुराना तरीका ही जारी रखा जिस कारण से जन संघर्ष वाहिनी ने अपने हाथ पीछे खींच लिए। तब किसानों ने दुबारा से जन संघर्ष वाहिनी के साथ चर्चा की और आग्रह किया कि किसानों के साथ की जा रही इस सरकारी लूट का विरोध कर किसानों को न्याय दिलाने के लिए जन संघर्ष वाहिनी अगुवाई करे। आजादी से पूर्व हो आजादी के बाद देश में नियोजन का जो तरीका अंग्रेजों ने अपना रखा था कमोवेस स्वतंत्रता के बाद भी सरकारों ने उसी ढर्रे को अपना कर रखा और उसी की प्रणिती है कि ग्राम प्रधान देश नगर प्रधान देश का स्वरूप धारण कर चुका है।के विकास में जो नियोजन का जो तरीका अपनाया उसके कारण एक ओर नगर और महानगरों को प्राथमिकताऐं दी गई और ग्राम प्रधान देश होने के बावजूद गांवों की तरफ ध्यान नहीं दिया गया। नियोजन के इस असंतुलित तरीके के कारण एक ओर गांवों में रोजगार के साधन सीमित ही रह पाये और नगर और महानगरों में रोजगार के साधन निरंतर इजाद होते रहे। जिस कारण से लोगों को गांवों से रोजगार के लिए शहरों की तरफ पलायन करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। पलायन का यही एक मात्र कारण नहीं है बल्कि अच्छि शिक्षा, स्वासथ्य, मूलभूत सुविधाएं से वंचित गांवो के साधन संपन्न लोग भी नगर और महानगरों की तरफ निरंतर पलायन करने के लिए विवश हैं।
गांवों से शहरों की तरफ पलायन के कारण जंहा एक ओर शहरों का विस्तार हो रहा है वंही दूसरी ओर शहरों के इर्द-गिर्द आबाद गांवों का अस्तित्व समाप्त हो रहा है। गांवो के अस्तित्व के साथ-2 इन गांवों के लोगों को उनकी पुस्तैनी जमीन से बेदखल कर जंहा एक ओर भूमिहीनों की संख्या में निरंतर सरकारी व गैर सरकारी डब्लपरों द्वारा बढाई जा रही है। वंही चिंता का सबसे बड़ा विषय यह है कि जिस जमीन पर शहरों का विस्तार हो रहा है और उस जमीन पर बनने वाले औद्योगिक, आवासीय और व्यवसायिक कांपलेक्स के मालिक उन किसान परिवारों की बजाय अन्य लोग हैं। द्वारा देश के विकास में नियोजन के असंतुलित तरीके के कारण एक ओर नगर और महानगरों कआजादी से पूर्व हो या आजादी के बाद भी किसानों की कृषि योग्य जमीन हो या गौचर की जमीन या उस जमीन पर गांव आबाद हों यदि शासक वर्ग को उस जमीन पर कुछ करने का मन आ गया तो किसानों से वह जमीन निरंतर हड़पी जाती रही है। भले जमीन को हड़पने के इस खेल को अधिग्रहण का नाम ही क्यों न दिया गया हो और जिस नाम पर हड़पा जा रहा है उसको भी एक भला सा नाम दे दिया है ‘विकास’ ! लेकिन शासक वर्ग से आजतक किसी ने यह नहीं पूछा कि जिनके पुरखों की जमीन पर विकास के नाम पर दिल्ली, मुंबई, कलकता और मद्रास जैसे महानगर हों या कानपुर, चण्डीगढ जैसे तमाम नगर इनमे आबाद आवासीय, व्यवसायिक और औद्योगिक कांपलेक्स तैयार किए जा चुके हैं तो ऐसे कांपलेक्स के मालिक व्यापारी ही क्यों हैं किसान क्यों नहीं हैं ? जिस जमीन पर ये आबाद हैं उस जमीन पर खेती करने वाले खेतिहर मजदूरों की आजीविका कैसे चल रही है? आखिर देश सेवा करने वाले किसान और खेतिहर मजदूरों के साथ में ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों किया गया है ? और आज भी निंरतर जारी है। देश में कृषि भूमि पर शहर, उद्योग और सेज स्थापित करने के नाम पर

सोमवार, 13 जुलाई 2009

महाकवि का ज्योतिष प्रेम

महाकवि कालीदास के जीवन प्रसंग को लेकर कई प्रकार की किवंदियां हैं, यथा उनके जन्म स्थान और विद्याप्राप्ति को लेकर। कोई उन्हें मिथिला का बताता तो कोई उनका सरोकार सीधे तौर पर मध्यप्रदेश के उज्जैन से जोड़ता है। यदि कहा जाए कि उनके साहित्य को छोड़कर उनके दूसरे प्रसंग पर विद्वानों का एकमत नहीं रहा तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। गाहे-बेगाहे महाकवि कालीदास से जुड़े प्रसंगों को मैं पढ़ता रहता हूं और उसी क्रम में ये भी पढ़ा कि महाकवि को साहित्य के अलावा ज्योतिष से भी बेहद प्रेम था। सो, मैंने सोचा कि आप भी इसका आनंद उठाएं :
कवि कुलगुरु कालिदासकी विद्वता और बहुमुखी प्रतिभा ने विश्व के समस्त विद्वानों को आकृष्ट किया है। संस्कृत से इतर भाषाओं के विद्वान भी उनकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं। उनके ग्रंथों में चारों पुरुषार्थ (धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष),अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, संगीत, दर्शन, इतिहास, भूगोल एवं ज्योतिष के साथ-साथ अन्यान्य विषयों का भी समावेश मिलता है। महाकवि कालिदास ने कई महाकाव्यों की रचना की, जिनमें सात प्रसिद्ध हैं-रघुवंशम्, कुमारसंभवम्,मेघदूतम्, ऋतुसंहारम्, अभिज्ञानशाकुंतलम्, विक्रमोर्वशीयम्तथा मालविकाग्निमित्रम्।इन ग्रंथों में यत्र-तत्र ज्योतिषीयप्रयोग महाकवि के ज्योतिष प्रेम को प्रकट करते हैं। महाकवि ने काव्य रचना के साथ जहां आवश्यकता हुई वहां स्पष्ट रूप से ज्योतिष संदर्भो को समायोजित किया। अपने ग्रंथों में महाकवि ने नक्षत्र, तारा, तिथि, मुहूर्त, अयन, ग्रह, दशा, रत्न, ग्रहशांति,शकुन, यात्रा, स्वप्न, राजयोग, ग्रहों की उच्चता,नीचता,वक्रत्व,मार्गत्व,ग्रहण, संक्रांति, ग्रहों का योग, काल विधान, पुनर्जन्म, भवितव्यताआदि का प्रसंगवशवर्णन किया है। अभिज्ञान शाकुन्तलम्के मंगलाचरण में भगवान शंकर की अष्टमूर्तियोंमें सूर्य चंद्रमा रूपी मूर्ति का उल्लेख करते हुए ये द्वेकालंविधत्त:कहकर संपूर्ण काल विधान जो ज्योतिष शास्त्र का मूल उद्देश्य है, को स्पष्ट कर दिया। वस्तुत:तिथि, वार, नक्षत्र योग तथा करण जो पंचाङ्गहैं, सूर्य- चंद्रमा पर ही आधारित हैं। दिवा-रात्रि ही नहीं सृष्टि से लेकर प्रलय पर्यन्त सूर्य चंद्रमा ही काल का विधान कर रहे हैं। ये दोनों ज्योतिषशास्त्र के मेरुदंड हैं। इनमें भी चंद्रमा, सूर्य से ही पोषित हो रहा (प्रकाशित हो रहा है) का स्पष्ट उल्लेख रघुवंशम्के तृतीय सर्ग में है-पुपोषवृद्धिं हरिदश्वदीधितेरनुप्रवेशादिवबालचन्द्रमा:।
किसी भी जातक की कुंडली में यदि पांच ग्रह निर्मल होकर अपने उच्च स्थान में स्थित हों, तो वह जातक निश्चित ही चक्रवर्ती सम्राट होता है,ज्योतिष शास्त्र के इस कथन को महाराजा रघु के जन्मकालकी ग्रह स्थिति (कुंडली) से महाकवि ने प्रमाणित किया है। ग्रहों की प्रतिकूलता में ग्रहशांति अवश्यमेव लाभदायी होती है, तभी तो महर्षि कण्व शकुन्तला के प्रतिकूल ग्रहशांतिहेतु सोमतीर्थजाते हैं-दैवमस्या: प्रतिकूलंशमयितुंसोमतीर्थगत:। विवाह में शुभ मुहूर्त आवश्यक होता है। हिमालय पुत्री पार्वती से शिव का विवाह निश्चित हो गया तब मांङ्गलिक कृत्य जो विवाह से पूर्व होते हैं, को मैना ने मैत्र मुहूर्त तथा उत्तराफाल्गुनीनक्षत्र में कराया। सप्तर्षिगणोंसे विवाह की तिथि पूछकर हिमालय ने स्वाती नक्षत्र में विवाह का दिन निश्चित किया। विवाह का श्रेष्ठ नक्षत्र स्वाती ज्योतिर्विदों में मान्य है। इतना ही नहीं वैवाहिक लग्न में सप्तम स्थान सर्वथा शुद्ध होना चाहिए।
विवाह के पश्चात् वधू प्रवेश तथा द्विरागमन में शुक्र सन्मुख प्रतिकूल रहता है। इसका उल्लेख कुमारसम्भवम्के तीसरे सर्ग में किया है। मालविकागिन्मित्रम्में विदूषक राजा से कहता है, चलिए हम लोग निकल चलें कहीं मंगलग्रह के समान वक्री गति से चलता हुआ वह पुन: पिछले राशि पर न आ जाए।
नक्षत्रों में अश्र्विनी, कृत्तिका, पुनर्वसु,पुष्य,उत्तराफाल्गुनी,चित्रा,विशाखाका उल्लेख करते हुए किस नक्षत्र में कितने तारे हैं, का वैज्ञानिक वर्णन किया है। तिथियों में प्रतिपदा,अमावस्या,पूर्णिमा के साथ एकादशी का भी उल्लेख है। मेघदूतम्के उत्तर भाग में प्रबोधनी(देवोत्थान) एकादशी का उल्लेख करते हुए उस दिन यक्ष के शाप निवृत्ति की बात कही है। यही कारण है कि संस्कृत के अनेक विद्वानों ने यही कालिदासकी जन्मतिथि मानी है। मेघों के निर्माण में धुआं, प्रकाश, जल तथा वायु कारण है, का भी उल्लेख उनकी वैज्ञानिक दृष्टि का संकेत करता है। अषाढ माह में वर्षारंभ का उल्लेख मेघदूतम्के दूसरे श्लोक में किया है।
वर्षा के पश्चात अगस्त्य तारा का उदय होता है, का प्रामाणिक ज्योतिषीय वर्णन किया है। कभी वर्षा के समय यदि कू्रर ग्रह वर्षाकारकग्रहों के मध्य आ जाए तो वर्षा नहीं होती, अकाल पड जाता है, इसका उल्लेख रघुवंशम्में है। दो तीन ग्रहों के आपस में युति होने से परिणाम सुखद होता है इसका उल्लेख भी है। अङ्गस्फुरण से होने वाले परिणामों का यत्र-तत्र वर्णन है। राजा दुष्यंत कण्व के आश्रम में प्रवेश करना चाहते हैं, उसी समय उनकी दाहिनी भुजा फडक उठती है, इसका परिणाम ज्योतिषशास्त्र में पत्नी लाभ कहा गया है। राजा विचार करते हैं कि भला आश्रम में यह कैसे संभव होगा तथापि भवितव्यता कहीं भी होकर रहती है। इस प्रकार वे भवितव्यतामें अपना अटल विश्वास प्रकट करते हैं। रघुवंशम्के चौदहवेंसर्ग में सीता जी का दाहिना नेत्र फडकता है इसे अपशकुन मान वह डर जाती हैं। स्वप्न दर्शन का भी फल होता है, इसका वर्णन रघुवंशम्महाकाव्य में प्राप्त होता है।
अपशकुनों का विस्तृत वर्णन कुमारसम्भवम्महाकाव्य में प्राप्त होता है। जब तारकासुरयुद्ध के लिए प्रस्थान करता है, उस समय गीधोंका झुंड दैत्यसेनाओं के समीप आकर ऊपर मंडराने लगता है, भयंकर आंधी चलने लगती है, आकाश मंडल जलते हुए अंगारों, रुधिरोंऔर हड्डियों के साथ बरसने लगता है तथा दिशाएं जलती हुई प्रतीत होने लगी, ऐसा लगता था जैसे दिशाएं धुंआउगल रही हैं। हाथी लडखडाने लगे, घोडे जमीन से गिरने लगे, सेनाओं में कम्पन होने लगा, कुत्ते इक_े होकर मुख को ऊपर करके सूर्य में दृष्टि लगाकर कान के पर्दे को फाडने वाली भयंकर आवाज में रोने लगे। ऐसे अनेक अपशकुनों को देखकर भी तारकासुरने प्रस्थान किया और उसका परिणाम वह युद्ध में मारा गया। रघुवंशम्में बारहवें सर्ग में जब खर दूषण राम से युद्ध के लिए प्रस्थान करते हैं तो वे शूर्पनखाको आगे करके चले, उसकी नाक कटी थी, अत:यही अपशकुन हो गया, और खरदूषणका विनाश हुआ। रत्??नों का भी प्रभाव मानव पर पडता है, इसके अनेक उदाहरण महाकवि ने दिए हैं। सूर्यकान्तमणिसूर्य की किरणों के स्पर्श से आग उगलती है जबकि चंद्रकान्तमणिचंद्र किरणों के स्पर्श से जल। रत्??न विद्ध होने से कम प्रभावी होते हैं, जैसा कि शकुन्तला के सौंदर्य वर्णन में अनाविद्धं रत्नम्कहा है। पन्ना, माणिक्य, पद्मराग, पुखराज आदि रत्??नों का यथास्थान प्रसंगवश उल्लेख आया है। इन ज्योतिषीयवर्णनों को देखकर कहा जा सकता है कि महाकवि कालिदासजितने काव्यमर्मज्ञ थे, उतने ही ज्योतिषमर्मज्ञ भी। हों भी क्यों न उन पर भगवान् महाकालेश्वर एवं भगवती महाकाली जगदंबा का वरदहस्तजो था।
यह प्रसंग कैसा लगा, बताएंगे तो उत्साहवद्र्घन होगा...

घुल गया है चित्र तेरा

घुल गया है चित्र तेरा,
बह गये हैं रंग मेरे ।

साँझ थी कैसा सृजन था,
सिंधु से मिलता गगन था।
वस्त्र से लिपटी वधू का,
तिमिर में सोया सदन था।

व्योम से तारे पिरो तू,
डाल दे बहिरंग मेरे।
घुल गया है चित्र तेरा,
बह गये हैं रंग मेरे ।।

सुधर उपवन की सुमन थी,
चपल चंचल, कनक मन थी।
रात थी पूनम गगन था,
अधर तेरे गीत मेरा।।

नीर का है तीर गहरा,
कल्पना का कड़ा पहरा।
सजनी तू मैं मीत तेरा,
चित्र यह मनोनीत तेरा।।

साँझ के छिपते सवेरे,
दे गए धुंधले अंधेरे।
धुल गया चित्र तेरा,
बह गए हैं रंग मेरे।।


सुरेश चंद्र शुक्ला
नार्वे

रविवार, 12 जुलाई 2009

'बहादुर नहीं मांगता

समय बदलता है, चीजें बदलती है, मान्यताएं बदलती हैं। तभी तो परिवर्तन को प्रकृति का शाश्वत नियम बताया गया। पहले 'बहादुरÓ इतना भरोसेमंद होता था कि उसके भरोसे पूरा घर छोड़कर पूरा परिवार कहीं भी चला जाता था लेकिन राजधानी दिल्ली में एक के बाद एक हो रही है वारदातों ने इन 'बहादुरोंÓ की बहादुरी पर सवाल लगने लगे हैं। और अब गृहिणियां स्वयं मोर्चा संभालने को तैयार हो गई हैं। नौकरों द्वारा मालिकों की हत्याएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन हाल ही में राजधानी के जनकपुरी इलाके में जब नेपाली नौकर ने नशीला पदार्थ खिलाकर मकान मालिक को लूट लिया तो 'बहादुरÓ के नाम से मशहूर इन नौकरों पर लोगों ने भरोसा करना छोड़ दिया। इसके कई कारण भी हैं। मसलन, बहादुरों की आपूर्ति करने वाले कई प्लेसमेंट एजेंसियों का कहना है कि नेपाली नौकरों की पहचान में काफी दिक्कत होती है, पुलिस वाले मामला नेपाल का होने के कारण जांच से इनकार कर देते हैं। पहले नेपाली नौकरों में इतना विश्वास होता था कि जांच की जरूरत ही नहीं पड़ती। लेकिन हाल के दिनों में कुछेक नौकरों की कारस्तानी ने पहचान की जरूरत खड़ी कर दी है। हालात इस कदर हो गए हैं कि गेहूं के साथ घुन पिसने वाली कहावत याद आती है। नेपाल से यहां काम के लिए आ रहे नेपालियों को अब काम नहीं मिल रहा है। इस बाबत भारत में रह रहे नेपाली समाज के प्रमुख संगठन मूल प्रवाह अखिल भारतीय नेपाली एकता समाज के अध्यक्ष गिरधारी लाल का कहना है, 'यह सही है कि पिछले कुछ सालों में नेपाली नौकरों की छवि धूमिल हुई है और अपराधों में संलिप्त नेपाली नौकरों को बख्शा भी नहीं जाना चाहिए। लेकिन यह भी सही है कि कई बार गरीब और बेसहारा होने के कारण अपराधों में नेपाली नौकरों को फंसाया भी जाता है।Ó वास्तविकता भले ही कुछ और हो, लेकिन दिल्लीवाले कहने लगे हैं, '... बहादुर नहीं चाहिए।Ó सच तो यह भी है कि जब से नेपाल में माओवादी ने सत्तारोहण किया है, तब से भारत में रह रहे नेपालियों के जेहन में भी कुलांचे भरने लगी है। वे सरकार तो हासिल नहीं सकते मगर घरों के 'गृहमंत्रीÓको तो निशाना बना ही सकते।

शनिवार, 11 जुलाई 2009

मांझी की गजल


ले के खत मेरा, जो हरकारा गया,
मुफ्त में मारा वो बेचारा गया।

मेरे हिस्से के अंधेरे तू भी जा,
अब यहां से भोर का तारा गया।

जब तलक नदियों में था, मीठा ही था,
क्यों समंदर में ये हो खारा गया।

जीत के चर्चे थे जिसके हर तरफ,
हार कर सामान वो सारा गया।

जब भी मरने की खबर 'माँझीÓ उड़ी,
लोग बोले ये, कि 'आवारा गयाÓ।



यूं ही ना मस्ताते रहना,
खुद को भी समझाते रहना।

दम घुटता है बेशक घर में,
फिर भी आते-जाते रहना।

खिड़की के रस्ते कमरे में,
नयी रोशनी लाते रहना।

अपने प्रश्नों से महफिल में,
सबको ही उलझाते रहना।

तट की चिंता छोड़ के 'माँझीÓ,
अपनी नाव चलाते रहना।

- देवेन्द्र माँझी
मो. ९८१०७९३१८६

नकली नोटों के सहारे नव आतंकवाद

भारतीय राजव्यवस्था में शासनगत नीतियों के लिए विख्यात चाणक्य नीति के अनुसार बलशाली शत्रु को छल से तबाह करना चाहिए और इसके लिए साम, दाम, दंड, भेद चारों युक्ति का इस्तेमाल करना बुद्धिमानी है। चाणक्य ने ही अपने 'कौटिल्य अर्थशास्त्रÓ में कहा है कि यदि किसी देश को तोडऩा है तो सबसे पहले उसकी अर्थव्यवस्था को नेस्तोनाबूद कर दें, उसके बाद उस देश पर हमला करें। इसी नीति के तहत हिटलर ने भी जर्मनी में अपनी सत्ता कायम की थी। वर्तमान में यही चाणक्य नीति आज भारत को उलटे पल्ले पड़ गई है। पड़ोसी देश की खुफिया एजैंसी आईएसआई भारत को तबाह करने के लिए एक तरफ बम विस्फोट और विध्वंसक कार्रवाइयां कर रही है और दूसरी तरफ जाली नोटों के जरिए देश की अर्थव्यवस्था को तबाह करने पर तुली हुई है। यह सर्वमान्य सत्य है कि मुसीबत के समय काफी मुश्किलात 'अर्थÓ के सहारे हल किए जा सकते हैं, लेकिन जब आपकी 'अर्थÓ ही अप्रासंगिक हो जाएगी तो भला कैसे मुसीबतों का मुंहतोड़ जबाव देंगे। वाकई यह आतंकवाद का नया रूप है और अपना रूप विकराल करता जा रहा है। तभी तो इसे पर काटने के लिए गत दिनों भारत सरकार ने फैसला किया कि 1996 शृंखला के हजार और पांच सौ के नोटों का प्रचलन बंद करके इनके स्थान पर 2006 के महात्मा गांधी सीरीज के नोटों का प्रचलन बढ़ाएगी। असल में, सरकार के कान तब खड़े हुए जब राजधानी दिल्ली में भी नकली करंसी पकड़ी गई है।
सूत्रों के अनुसार हालिया दिनों में जब भारत सरकार ने पाकिस्तान पर निगरानी बढ़ा दी है तो पाकिस्तान नेपाल और बांग्लादेश के रास्ते सबसे ज्यादा नकली नोट भारतीय बाजार में उतार आ रहा है। जो सिलिपिंग मॉडयूल आतंकी घटनाओं को अंजाम देने का काम करता रहता है, उसी नेटवर्क का इस्तेमाल करके इस 'नव आतंकवादÓ को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे पूर्व भारत में नकली नोट मध्य-पूर्व और पूर्वी एशिया के देशों के रास्ते पहुँचता रहा है। इन देशों में भारतीय बड़ी संख्या में काम करते हैं। ये वो देश हैं जहां के लिए भारत ने सीधी विमान सेवाएं हाल ही में शुरू की है। कहा जाता है कि नकली नोटों का सौदागर कुछ भारतीय लोगों को नोटों का वाहक बनने के लिए राजी कर लेता है। उत्तरप्रदेश से पहले राजस्थान, पंजाब, मध्यप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, आंधप्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्टï्र, कर्नाटक आदि रास्तों से आयात किया जाता है।
कहा जा रहा है कि पाकिस्तान भारतीय धन के साथ भारत में छद्म लड़ाई लड़ रहा है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने का मकसद भी पूरा होता है। खुफिया एजैंसियों के अनुमान के मुताबिक आईएसआई देश की वाणिज्यिक राजधानी मुम्बई में ही विभिन्न गतिविधियों और आतंकी कार्रवाइयों के लिए करोड़ों रुपए दे रही है। जाहिर है इसके लिए वह जाली करंसी का सहारा लेती है। इससे पूर्व देश में जाली स्टाम्प पेपर का अरबों रुपए का घोटाला सामने आया था। जिस प्रकार सरकारी स्टाम्प पेपरों में जो कागज इस्तेमाल किया जाता है ठीक ऐसे ही कागज का इस्तेमाल जाली स्टाम्प पेपरों या नोटों के लिए किया जाता है। इस कारण आम आदमी इसका अंतर नहीं समझता। विदेशों में बैठे भारत विरोधी तत्व इसके लिए सक्रिय हैं जिन्हें पाकिस्तान की खुफिया एजैंसी आईएसआई का संरक्षण प्राप्त है। देश के गुमराह युवक या रातोंरात करोड़पति बनने का ख्वाब देखने वाले युवक इसके हत्थे आसानी से चढ़ जाते हैं जिसके माध्यम से यह खेल शुरू हो जाता है। हाल ही के वर्षों में हैदराबाद ऐसे केन्द्र के रूप में उभरा है जहां आईएसआई की नकली करंसी दुबई से भेजी जाती है। दुबई में जाली भारतीय करंसी नोटों की बिक्री व वितरण में लगे एक एशियाई गिरोह का पर्दाफाश हुआ जिसमें 20 लाख की जाली करंसी के साथ एक सदस्य गिरफ्तार हुआ था। बाद में उसके कुछ अन्य सहयोगियों को भी जाली मुद्रा के साथ काबू किया गया। यह भी रहस्योद्घाटन हुआ कि दाऊद इब्राहिम की 'डीÓ कम्पनी भी आईएसआई के सहयोग से जाली भारतीय करंसी के धंधे में लगी है। ये नकली नोट दुबई से सीधे हैदराबाद, बेंगलुरु, तिरुवनंतपुरम, कोच्चि व अन्य जगह भेजे जाते हैं। इनकी खेप काठमांडौ, ढाका भी भेजी जाती है जहां से इन्हें भारत में भेजा जाता है।
कहा तो यहां तक जा रहा है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने भारत की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने की हरचंद कोशिशेां में जुटी है। लगता है कि करेंसी नोट छापने के कागज आईएसआई के हाथ लग गए है और वह इसका फायदा उठाकर आतंकियों को बेहिसाब पैसा उपलब्ध करा रही है। इसी को ध्यान में रखकर संसद की एक समिति ने सरकार से कहा कि वह इस बात की जांच कराए कि जिन विदेशी कंपनियों के साथ इस कागज की आपूर्ति को लेकर समझौता किया गया है, कहीं उन्होंने किसी दूसरे देश को भी इस कागज की सप्लाई तो शुरू नहीं कर दी है। इस संदेह की पुष्टि इससे भी होती है कि कोलकाता में एक पाक नागरिक मोहम्मद यूसुफ उर्फ सरफराज को दस लाख के नकली नोटों के साथ पकड़ा गया है। यह व्यक्ति बांग्लादेश के एक बैंक में निदेशक है। सुरक्षा एजेंसियों को इस तरह की आशंका पहले भी रही है। खुफिया ब्यूरो में एक सूत्र ने कहा कि सरकार को इस बात की जानकारी है।
नेपाल में शरण लिए भारत के भगोड़े अपराधी देश की आर्थिक रीढ़ पर प्रहार करने के लिये वहां से भारतीय जाली नोट का कारोबार कर रहे हैं। इस कार्य में ये अपराधी बिहार के बेरोजगार युवकों और यहां से अन्य प्रदेशों में मजदूरी करने के लिए जाने वाले लोगों को लोभ देकर उनसे भी जाली नोटों का धंधा कराते हैं। बिहार के रास्ते होने वाले नोटों की तस्करी में बताते हुए सीमा सशस्त्र बल के कमाडेंट एच।सी. भरोट ने बताया कि भारत के भगोड़े अपराधी मुन्ना खान, रामचन्द्र चौहान, मुरारी, पहलवान, राधे यादव आदि नेपाल में शरण लिए हुए हैं और वे भारत के सीमावर्ती इलाकों में जाली नोट के अपने धंधे का संचालन वहीं से करते हंै। भारतीय जाली मुद्रा की तस्करी के लिए ये अपराधी बिहार के पश्चिम चंपारण, किशनगंज, कटिहार, सीतामढी, मधुबनी एवं बिहार के नेपाल से सटे अन्य सीमावर्ती जिलों का उपयोग ट्रांजिट कैम्प के रूप में कर रहे है। ये अपराधी जिले के बेरोजगार युवकों तथा दूसरे राज्यों में रोजगार की तलाश में जाने वाले यहां के मजदूरों के माध्यम से एक हजार पांच सौ तथा सौ रुपये के जाली नोटों को देश के अन्य भागों में पहुंचाया जा रहा है। जाली नोट के इन धंधेबाजों के तार पश्चिम बंगाल पूर्वोत्तर क्षेत्र जम्मू कश्मीर, पंजाब, दिल्ली,राजस्थान, हरियाणा, उत्तारांचल तथा महाराष्ट्र सहित देश के अन्य भागों से जुड़े हुये हैं। नतीजतन आये दिन इन राज्यों में कोई न कोई जाली नोटों का सौदागर पकडा जाता है और वहां की पुलिस भी अन्य अभियुक्तों को पकडने के लिये यहां दस्तक देती रहती है। नेपाल से बिहार के सीमावर्ती इलाकों में इन दिनों बढे जाली नोटों, हथियारों और मादक द्रव्यों की तस्करी, बिहार में फिरौती के लिए अपहरण सहित अन्य आपराधिक गतिविधियों पर कैसे नियंत्रण पाया जा सके। इस संबंध में नेपाल के वित्तमंत्री बाबूराम भट्ट्टïराई से जब संपर्क किया गया तो उन्होंने बताया कि सीमावर्ती इलाकों में जारी आपराधिक गतिविधियों पर नियंत्रण के लिए भारत-नेपाल द्वारा एक क्षेत्रीय समन्वय कमेटी बनाने का निर्णय लिया गया है। हमने भारत सरकार से हरसंभव सहयोग का वादा किया है। अव्वल तो यह कि गत वर्ष 30 जुलाई को नेपाल की राजधानी काठमांडू के त्रिभुवन अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डा पर एक करोड़ के भारतीय जाली नोट के साथ एक व्यक्ति को अधिकारियों ने गिरफ्तार किया था। यह व्यक्ति नेपाल के बारा जिला का निवासी था।
पिछले कुछ वर्षो में नकली नोटों के एकदम असली जैसे दिखने के बाद से ही खुफिया एजेंसियों ने इस बारे में संबंधित विभागों को सतर्क किया था। सूत्रों का मानना है कि नोट छपाई में उपयोग आने वाली विशेष स्याही और कागज आाईएसआई को उपलब्ध है। अनुमान तो यह भी है कि भारतीय बाजार में उपलब्ध मुद्रा में 10 से 15 फीसदी नकली हो सकती है। साल 2007-08 के दौरान जाली नोटों की जांच के बाद उनकी कीमत में 137 फीसदी की वृद्घि दर्ज की गई। पिछले वित्तीय वर्ष के 2।4 करोड़ रुपए के मुकाबले इस साल उनका मूल्य बढ़कर 5.5 बढ़कर रुपए हो गया। वित्त मंत्रालय संबंधी की स्थायी समिति ने इस बात पर नाराजगी जताई है कि कई दशक बाद भी नोट का कागज बनाने और छपाई से जुड़ा पूरा काम अपने देश में नहीं होता। उसने सरकार से पूछा है कि हम अब तक क्यों विदेशी कंपनियों पर निर्भर है। नोट का कागज बनाने के लिए अब तक संयुक्त उद्यम पेपर मिल क्यों नहीं बना। सुरक्षा पेपर और इंक के लिए विदेशों के भरोसे रहने से देश पर नकली मुद्रा के प्रयार का खतरा मंडरा रहा है। वित्त मंत्रालय के मुताबिक नोट छपने वाला कागज देश में नहीं बनता। सरकार इसे ब्रिटेन, नीदरलैंड, जर्मनी, इटली और फ्रांस जैसे यूपरोपीय देशों की छह कंपनियों से मंगाती है। इसके लिए कंपनियों से समझौता किया गया है कि वे किसी अन्य देश या संगठन को वह कागज नहीं बेचेंगी जिस पर भारतीय नोट छापे जा रहे हैं। समिति की रिपोर्ट में हालांकि ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिया गया है जिससे इस कागज के दुरूपयोग की बात सामने आए। पिछले तीन वर्ष में करीब सात करोड़ रूपये के नकली नोट बरामद किए गए है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले उत्तर प्रदेश में ही 40 करोड़ रूपये मूल्य के नकली नोट प्रचलन में हैं।
आलम तो यह है कि अब सरकारी और प्रतिष्ठित बैंकों द्वारा भी धड़ल्ले से जाली नोटों का प्रचलन हो रहा है। आए दिन एटीएम से जाली नोट निकलने की शिकायतें मिल रही हैं। इसका मतलब साफ है कि असली और नकली नोटों में विभेद करना बैंक अधिकारियों के लिए भी संभव नहीं रहा है या इस षड्यंत्र में वे भी शामिल हैं तो ऐसे में आम जनता क्या करे? असली-नकली में भेद करना विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में सहज नहीं है। एक मोटे अनुमान के अनुसार इन दिनों भारत में लगभग 17 खरब रुपए की नकली करंसी प्रचलन में है। सर्वविदित है कुछ समय पूर्व उत्तर प्रदेश के डूमरियागंज स्थित एक बैंक से लगभग तीन करोड़ की नकली करंसी मिली। नेपाल सीमा से लगे इस बैंक से रोजाना करोड़ों का लेन-देन होता है।
और तो और राष्टï्रीय राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा का आलम यह है कि लोग पांच सौ और एक हजार का नोट देखते ही पहला सवाल यही करते हैं कि यह नकली तो नहीं है? यही हाल बैंकों का भी है। अधिकांश बैंकों ने अपने यहां नोट चेक करने के लिए मशीनें लगा दी हैं। बैंक सूत्रों के मुताबिक यहां के बैंकों में प्रतिदिन दो या तीन नोट नकली निकल रहे हैं। अधिकत्तर पांच सौ या एक हजार के नोट ही नकली मिल रहे हैं। कुछ बैंक इन नोटों को जला देते हैं तो कुछ इन पर क्रॉस कर लाने वाले को वापस कर देते हैं। बैंक अधिकारी भी इस बात को कहते हैं कि जिन लोगों के पास एक-दो नकली नोट निकल रहे हैं वे लोग गलत नहीं है। उनकी मंशा बाजार में नकली नोट चलाने की नहीं है। बैंक ऐसे लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करता है और न ही पुलिस को सूचना देता है। बैंक उसी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करता है जिसके प्रति आभास हो जाता है कि यह नकली नोट जानबूझकर चलाने का प्रयास कर रहा है।
बात मध्यप्रदेश की कि जाए तो प्रदेश की राजधानी भोपाल सहित पूरे प्रदेश में नकली नोट का कारोबार तेजी से पांव पसार रहा है। एक अनुमान के अनुसार हर महीने दो करोड़ रुपए के नकली नोट प्रदेश के बाजार में उतारे जा रहे हैं। राजधानी में भी बड़ी संख्या में लोग यह शिकायत करते हैं कि उन्हें एटीएम या बैंक के काउन्टर से नकली नोट मिला। कई बार तो स्थिति यह होती ळै कि एक बैंक जिस नोट को असली बताता है, दूसरा उसे नकली बता कर जब्त कर लेता है। रिजर्व बैंक के सूत्रों के अनसुार दो सालों में नकली नोट मिलने की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। एक समय था जब रिजर्व बैंक के स्थानी कार्यालय में महीने में एक या दो नकली नोट आते थे, लेकिन यह संख्या अब बढ़ते-बढ़ते रोजना दो से तीन नोट रिजर्व बैंक में आ रहे हैं। इनमें से अधिकत्तर पांच सौ और हजार के होते हैं। साल 2007 के अंत में मध्यप्रदेश पुलिस ने भोपाल से करीब 75 किलोमीटर दूर होशंगाबाद में चार लोगों को गिरफ्तार किया था जिनके पास नकली नोट बनाने वाली मशीन की भी बरामदगी हुई थी। इस गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने खुलासा किया था कि ये लोगे 20 हजार रुपए लेकर एक लाख रुपए का नकली नोट देते थे।
वहीं, उत्तरप्रदेश में नकली नोटों के संजाल से परेशान होकर भारतीय रिजर्व बैंक पेट्रोल पंप कर्मचारियों को नोटों की पहचान करना सीखा रहा है। कहा जा रहा है कि अब पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भरवाने के बाद उन्हें जाली नोट थमा कर नौ-दो ग्यारह होने वालों की खैर न होगी। पेट्रोल पंप एसोसिएशन के एक अधिकारी के अनुसार, 'अक्सर लोग पेट्रोल पंप पर आते हैं, अपनी गाड़ी में पेट्रोल भरवाते हैं और पांच सौ या हजार रुपए का नोट पकड़ा कर चले जाते हैं। बाद में जब हम पेट्रोल पंप बंद होने के बाद कैश चेक करते हैं तो एकाध नोट जाली पाया जाता है। हमारा अनुमान हैकि प्रतिदिन सर्वाधिक नकली नोट पेट्रोल पंप पर ही आते होंगे क्योंकि ग्राहक और पेट्रोल पंप कर्मचारी इतनी जल्दबाजी में होते हैं कि उन्हें असली और नकली नोट का फर्क करने की फुरसत नहीं होती।Ó इन हालातों से निपटने की बाबत भारतीय रिजर्व बैंक के क्षेत्रीय निदेशक जे।बी. भोरिया बताते हैं, 'पेट्रोल पंप एसोसिएशन ने भारतीय रिजर्व बैंक से कहा था कि वह पेट्रोल पंप कर्मचारियों और डीलरों को असली और नकली नोट की पहचान बताए और यह भी जानकारी दें कि विशेषकर पांच सौ या हजार का नोट ग्राहक से लेते समय क्या विशेष सावधानी बरतें क्योंकि अधिकत्तर यहीनोट नकली निकलते हैं। प्रथम चरण में करीब 100 पेट्रोल पंप कर्मचारियों को असली-नकली नोट की पहचान का प्रशिक्षण दिया गया है। शीघ्र ही दूसरे चरण में और अधिक पेट्रोल पंप कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया जाएगा।Ó ऐसा नहीं है कि यह पहली बार किया गया। इससे पहले भी रिजर्व बैंक पुलिसकर्मियों, रेलवे कर्मचारियों, डाक और टेलिफोन कर्मचारियों को इस प्रकार का प्रशिक्षण दे चुका है। श्री भोरिया का स्पष्टï कहना है, 'जिस किसी विभाग को नकली-असली नोट के बारे में जानकारी हासिल करनी हो वह सीधे रिजर्व बैंक अधिकारियों से संपर्क कर सकता है। रिजर्व बैं का लक्ष्य लोगों को असली-नकली नोट में फर्क करना सीखाना है, साथ ही उन्हें वित्तीय साक्षरता देना है ताकि देश की अर्थवव्यवस्था को खोखला करने वाले नकली नोट के कोढ़ को जड़ से समाप्त किया जा सके।Ó
भारतीय मुद्रा के जाली नोट के संकट पर लगाम लगाने के लिए सीबीआई ऐसी मुद्रा का राष्ट्रीय डाटा बैंक तैयार कर रही है। यह पहल हाल में करीब आठ करोड़ रुपए के जाली नोट बरामद होने की घटना के बाद सामने आई है। एक वरिष्ठ सीबीआई अधिकारी ने कहा कि हम जाली मुद्रा नोट का एक राष्ट्रीय डाटा बैंक बना रहे हैं ताकि इससे स्रोत को पहचानने में मदद मिले। इससे हमें जाली नोट का स्रोत और जिस क्षेत्र में इसका प्रसार किया गया है उसे पहचानने में मदद मिलेगी। इसका मकसद है जाली नोट की प्रिंटिग पर लगाम लगाना। सूत्रों ने बताया कि प्रस्ताव योजना आयोग को मंजूरी के लिए भेज दिया गया है। हाल में ज्यादातर 500 रुपए के जाली नोट सामने आए हैं। जाली नोट का लक्ष्य है देश में आर्थिक आतंकवाद फैलाना और अर्थव्यवस्था को पलटना। पहले जाली मुद्रा को पहचानना आसान था क्योंकि इसे कम विशेषज्ञता वाले लोग बनाते थे। लेकिन अब इस व्यवसाय से जुड़े लोगों ने उच्च स्तर की तकनीक प्राप्त कर ली है और ऐसे नोट को पहचानना मुश्किल होता जा रहा है। एक अन्य अधिकारियों ने कहा कि जालसाजी का यह काम इतनी अच्छी तरह किया जाता है कि नकली मुद्रा को पहचानना मुश्किल होता है। जिस व्यक्ति को कोई संदेह नहीं है उसे जाली नोट असली नोट की ही तरह दिखता है।
दरअसल नकली नोटों पर अंकुश लगाने के लिए सरकार द्वारा जो कदम उठाए जाते हैं वह कारगर साबित नहीं हो रहे हैं। सरकार की इस कार्रवाई का अधिकतर भोले-भाले आम नागरिक शिकार होते हैं। अब जबकि एटीएम के माध्यम से निकला धन भी जाली साबित हो रहा है, ऐसे में पूरे तंत्र की त्वरित जांच कर एहतियाती उपाय करना जरूरी है, जिसमें आम जनता कम से कम परेशान हो। इसके लिए तत्काल न्याय की जरूरत होगी क्योंकि विलम्बित न्याय प्रणाली ही किसी अपराध प्रवृत्ति की पृष्ठपोषक होती है। अपराधी के मन में भय होना भी अपेक्षित है जो कि वर्तमान कानूनी प्रक्रिया में संभव नहीं, क्योंकि कहा भी जाता है 'भय बिनु होत न प्रीति।Ó

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

गायों के लिये मौत का फरमान

मनों पॉलीथिन लील जाती हैं हजारों गायें, जिससे उन्हें कई प्रकार की व्याधियां अपने चपेट में ले लेती हैं और आखिरकार गाय की जीवनलीला समाप्त हो जाती है। मरने वाली गायों के पेट से 40 किलो से लेकर 65 किलो तक पालीथिन पाई गई
भारतीय जनमानस में गाय का विशेष महत्व है और इसके संरक्षण आदि को लेकर विभिन्न हिंदू संगठनों आए दिन आंदोलन चलाते रहते हैं। विशेष रूप से यह आंदोलन 'गोहत्याÓ रोकने के लिए चलाया जाता है। मगर उत्तरप्रदेश के कुछ इलाकों में हालात इस कदर हैं कि गायों को परोक्ष रूप से मौत का इंतजाम खुद-ब-खुद हो जाता है। दरअसल, इन दिनों शादी-विवाहों को मौसम है और विवाह आदि आयोजन के दौरान भारी संख्या में विनाशकारी पॉलीथिन का उपयोग किया जा रहा है । इस पॉलीथिन को उपयोग के बाद कचरे के ढेरों में फेंक दिया जाता है, जिसे बाद में भारी मात्रा में पशुओं द्वारा भोजन व स्वाद की चाह में लील लिया जाता है । जिसमें गायों तथा अन्य चौपायों की संख्या काफी अधिक है ।
उल्लेखनीय है कि चम्बल क्षेत्र भगवान श्री कृष्ण की लीला स्थली एवं पाण्डवों की ननसार रही है, अत: चम्बल में गौ पालन व संरक्षण का विशेष महत्व है । इसके अलावा लगभग 70 प्रतिशत गायें यहॉं या तो महज सेवा करने के लिये पाली जातीं हैं या वैसे ही आवारा ढील दी जातीं हैं । जो यत्र-तत्र-सर्वत्र यूं ही मुक्त विचरण करतीं रहतीं हैं और भोजन-पानी तलाशती फिरती हैं । आश्चर्य तो यह है कि मथुरा-वृंदावन में , जहां गायों को सीधे तौर पर भगवान श्रीकृष्ण से जोड़कर देखा जाता है और उनकी पूजा-अराधना की जाती है, वहां भी गायों के रख-रखाव की उचित व्यवस्था नहीं है। भूख और प्यास से व्याकुल गायों को इन दिनों शहर और गॉंवों में होने वाले विवाह समारोहों के पश्चात फेंकी जाने वाली झूठन और कचरे से काफी भोजन प्राप्त हो जाता है जिससे गायों व अन्य चौपायों की मौज हो जाती है । लेकिन आधुनिक विवाहों में भारी मात्रा में पॉलीथिन जैसी विषैली और विनाशकारी उपयोग की जातीं हैं जिन्हें भोजन की झूठन के साथ ही मिश्रित रूप में फेंक दिया जाता है, कई बार तो भोजन की झूठन ही इन पॉलीथिनों में कैद रहती है । इसके अलावा पॉलीथिन चबाने में नरम होने से पशुओं को चबाने में सुखद अनुभूति कराती है । सो, लालच व भूख में गाय तथा दूसरे चौपाये इन्हें निगल जाते हैं ।
प्रतिवर्ष अकेले चम्बल में पिछलें सात साल के दौरान पॉलीथिन के लीलने से औसतन 700 गायों और दूसरे चौपायों सहित 1900 पशु अनजाने व अकाल मारे गये । इसमें वे आंकड़े भी शामिल हैं जिनमें पशुओ की मृत्यु पीने का पानी न मिलने से प्यास से भी मरे हैं । जब कई मरी हुई गायों को ढो-ढो कर पशु चिकित्सकों ने उनका पोस्टमार्टम किया तो 93 फीसदी के अंदर पॉलीथिन के भण्डार मिले । जिसमें गायों की मौत के आंकड़े और भी भयावह हैं, मरने वाली गायों के पेट से 40 किलो से लेकर 65 किलो तक पालीथिन पाई गई। पॉलीथिन धरती को बंजर कर रही है, इसका परिणाम भुगतने में तो हमें अभी दस पन्द्रह साल लगेंगे लेकिन पशुओं को अकाल मौत के घाट तो पिछले पन्द्रह साल से उतार रही है, इससे हम वाकिफ होकर या तो मौन हैं या नावाकिफ । मथुरा निवासी रामकिशन सिंघल कहते हैं, 'गायों को मातृतुल्य मानकर पूजा करना अच्छी बात है। यह हमारी धर्म-संस्कृति से जुड़ा है। लेकिन सही मायनों में गायों की असमय मौत को टालना है तो लोगों को खुद पॉलीथीन का प्रयोग नहीं करना होगा। बेशक, सरकार की ओर से संबंधित कानून बनाए जाएं लेकिन जब तक लोगों में जागरूकता नहीं आएगी, हल नहीं निकलेगा।