गुरुवार, 12 मई 2016

...ताकि डोर न हो कमजोर


वर्तमान से भविष्य का रास्ता दिखता है। इस लिहाज से साल 2017 भाजपा के लिए किसी ‘लाक्षागृह’ से कम नहीं साबित होने वाला है। उत्तर प्रदेश में जहां उसे कमल खिलाना है, तो गुजरात के किले को बचाना है। पार्टी अध्यक्ष जिस प्रकार से भाजपा शासित राज्यों में पत्ते फेंटकर अशोक रोड पर नए चेहरे ला रहे हैं। कहीं यह नया सत्ता सूत्र तो नहीं...



सुरक्षाकर्मी पहले से ही मुस्तैद। धड़ाधड़ मुख्य द्वार खोला गया। द्वार पर तैनात सुरक्षाकर्मी पोजीशन लेने लगे। चंद सेकेंड में गाड़ियों का काफिला आना शुरू हुआ। एक-दो-तीन... गाड़ियों की संख्या बढ़ती गई। सरपट गाड़ियां पार्टी मुख्याल में प्रवेश करती गर्इं। आगे और पीछे की गाड़ियों से अर्द्धसैनिक बलों के तैनात पलक झपकते ही उतरते हैं। सुरक्षा घेरा बनाते हैं। बीच वाली बड़ी गाड़ी से एक शख्स सधे कदमों से उतरता है। अपने कक्ष की ओर आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता है। गेट का दरवाजा बंद। सुरक्षा बलों के जवान गेट पर मुस्तैद। वहां पर पहले से मौजूद आगुंतकों को किनारा कर दिया जाता है। यह शख्स कोई और नहीं, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह हैं। पार्टी मुख्यालाय के लोगों के लिए यह नजारा कोई नया नहीं रहा अब। जब भी पार्टी अध्यक्ष आते हैं, ऐसा ही होता है।
प्रतीक्षा हॉल में दूर-दूर से लोग आकर बैठते हैं। कद और पद के हिसाब से प्रतीक्षा के लिए स्थान निर्धारित है। आम कार्यकर्ता हैं, तो पीछे चले जाएं। बड़ा सा हॉल बना हुआ है। मंच बना हुआ है। पार्टी अध्यक्ष आएंगे और सामूहिक रूप से चंद मिनटों में सबसे मिलेंगे। यदि विधायक, सांसद और मंत्री हैं, तो उन्हें वातानुकूलित प्रतीक्षा हॉल में बिठाया जाता है। तामीरदार चाय-पानी भी कराते हैं। यह उस भाजपा का कार्यालय है, जिसकी केंद्र में सरकार है। जिसके दोबारा अध्यक्ष अमित शाह बने हैं। पूरी ठसक से भरी हुई। अध्यक्ष जब कार्यालय में हों, तो क्या मजाल कि कोई चूं तक कर जाएं। यह पार्टी का ‘अनुशासन’ है। बता दें कि जब भाजपा सत्ता में नहीं थी, तो अध्यक्ष चाहे नितिन गडकरी रहे हों या राजनाथ सिंह। उनसे मिलना सहज था। उससे पहले भी वैंकेया नायडू काफी मिलनसार रहे हैं।
अनुशासन की आंच में खुद को पगाने वाली पार्टी कहलाने को आतुर भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश किसी ‘लाक्षागृह’ से कम नहीं साबित होने वाला है। अगले साल उसे वहां जाना भी हैं और सकुशल अपनी उपस्थिति भी दर्ज करानी है। लोकसभा में नरेंद्र मोदी के आभामंडल ने पार्टी को प्रदेश में अपार बहुमत दिया। पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष इसी प्रदेश से ‘चाणक्य’ कहलाए। अंतरिम अध्यक्ष बने। अब पूर्णकालिक अध्यक्ष बने हैं। उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में दलित-पिछड़े को नया सूबेदार बना दिया।
अब उनकी नजर मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ और हरियाणा पर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह दोनों ही गुजरात से आते हैं। फिर भी गुजरात के हालात ‘बेकाबू’ सरीखे दिखते हैं। भारत की राजनीति के हाल-फिलहाल ग्रांडमास्टर नरेंद्र मोदी और अमित शाह से भला गुजरात भी नहीं संभले, यह कैसे हो सकता है! मानना चाहिए कि वहां सब ठीक है और रहेगा। यह भरोसा इसलिए, क्योंकि यदि वहां ठीक नहीं हुआ तो फिर दोनों किस बात के ग्रांडमास्टर!  23 साल के जिस हार्दिक पटेल ने बगावत करवाई, उसे राष्ट्रद्रोह के आरोप में जेल में डाला हुआ है। कई महीनों से साम, दम, दंड, भेद के बावजूद यदि हाल ही में मुख्यमंत्री के गृह जिले मेहसाना में हजारों पटेल फिर बिफर पड़े, तो इसका अर्थ क्या यह नहीं कि कुछ बुनियादी गड़बड़ है? इतने महीनों के बावजूद यदि पटेल जस के तस खुन्नस में हैं, तो फिर आगे क्या होगा?  अगले साल ही विधानसभा चुनाव होना है। यदि गुजरात हारे, तो देश के दूसरे प्रदेश में किस मुंह से जाएंगे? 12 साल मोदी के राज में प्रदेश सरकार, भाजपा के खिलाफ आंदोलन, विरोध के सुर चुनाव आते-आते अपने आप जैसे फुस्स होते थे वैसे पटेल आंदोलन भी हो जाएगा। गुजरात में कुछ नहीं बिगड़ सकता, यह ठोस और कोर आत्मविश्वास नरेंद्र मोदी और अमित शाह में शुरू से रहा है। शायद उसी कारण पटेल आंदोलन के प्रति इन्होंने वैसी संवेदनशीलता नहीं दिखलाई, जैसी हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन पर दिखलाई।
संघ की शाखा से निकले मनोहर लाल खट्टर हरियाणा के मुख्यमंत्री तो बन गए, लेकिन बीते डेढ़ साल में वह अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के बीच स्वस्थ सामंजस्य नहीं बिठा पाए हैं। करीब डेढ़ दर्जन सलाहकार तो बना लिए, लेकिन सकारात्मक पहल अब तक नहीं दिखाई दी। भाजपा मुख्यालय में संघ से जुड़े लोगों की संख्या में इजाफा होती जा रही है। वह दिन दूर नहीं, जब खट्टर की खटिया इसी 11, अशोक रोड से खड़ी कर दी जाए। पार्टी मुख्यालय में एक नेता ने आपसी बातचीत में बताया कि जाट भाजपा के रहे हों या न रहे हों, पटेल तीस साल से लगातार भाजपा के भगवाई रंग में रंगे हुए हैं। केशुभाई पटेल जैसे अपने दिग्गजों की बगावत के बावजूद हिंदुत्व के असर में पटेल हमेशा नरेंद्र मोदी के साथ खड़े रहे। तब नरेंद्र मोदी, अमित शाह, आनंदी बेन पटेल को क्यों नहीं यही सोच कर पटेलों को आरक्षण का झुनझुना दे देना चाहिए।
मालवा क्षेत्र में आजकल ‘सिंहस्थ’ का महापर्व चल रहा है। महाकाल की नगरी उज्जैन में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल पर शिप्रा से मिलने नर्मदा पहले आ चुकी हैं। इन दोनों के जल में लाखों धर्मामंलंबी आस्था की डुबकी लगा रहे हैं। उसी ‘सिंहस्थ’ के नाम पर जब शिवराज ने पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से मनुहार की कि मध्य प्रदेश के संगठन महामंत्री अरविंद मेनन को सिंहस्थ के समापन के बाद नई दिल्ली बुलाया जाए, तो उसे खारिज कर दिया गया। प्रदेश की राजनीति में इस बात को हर कोई जानता है कि अरविंद मेनन शिवराज के ‘यस बॉस’ की भूमिका में रहे हैं। फरवरी 2011 से 11 अप्रैल 2016 तक भाजपा संगठन की बागडोर अपने हाथों में थामे रहने वाले मेनन की इस तरह विदाई की उम्मीद किसी ने नहीं की थी। सियासी गलियारों में पिछले कई दिनों से मेनन को हटाए जाने की अटकलें थी। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अरुण सिंह की ओर से इस आदेश का ई-मेल प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान को कर दिया गया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और केंद्रीय खनन मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने मेनन को रोकने की हरसंभव कोशिश की। शाह ने प्रदेश नेतृत्व को सूचना दे दी थी, लेकिन मुख्यमंत्री चाहते थे कि इस फैसले को घोड़ाडोंगरी (बैतूल) विधानसभा के उपचुनाव, सिंहस्थ और प्रधानमंत्री के दौरे को देखते हुए इस फैसले को फिलहाल टाला जाना चाहिए। मेनन को हटाए जाने का आदेश आते ही संघ के नेताओं ने आनन-फानन में भोपाल के दानापानी क्षेत्र स्थिति समाज सेवा न्यास में गोपनीय बैठक की। इसमें क्षेत्रीय प्रचारक अरुण जैन, प्रांत प्रचारक सुहास भगत समेत कई नेता मौजूद थे। इसमें अरुण जैन ने भगत के भाजपा में जाने की जानकारी दी। इसके बाद क्षेत्र संघ चालक अशोक सोनी ने इसके निर्देश दिए। आखिरकार, सुहास भगत के हाथों में संगठन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी आ गई। कानाफूसी है कि शिवराज को एक सीमा में रखने के लिए नई दिल्ली ने अपने हाथ में ‘डोर’ रखनी की पहल की है।
छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सिंह को सत्ता में रहते हुए एक दशक से अधिक का समय हो चुका है। संघ से उनकी नजदीकियां भी बढ़ी हैं। बृजमोहन अग्रवाल सरीखे लोग बेशक उनके कबीना में शामिल हों, लेकिन किसी भी सूरत में उनसे कमजोर नहीं हैं। रायपुर से लेकर अशोक रोड तक कई लोगों की आवाजाही बढ़ी है। यदि चाउर बाबा की चौहद्दी भी दिल्ली खींचना शुरू कर दो, तो भगवाई राजनीति में किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
पार्टी के वर्तमान राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल सधे रणनीतिकार में शुमार हैं। सार्वजनिक रूप से कुछ भी नहीं बोलना चाहते हैं। बंद कमरों में उनसे आप बात कर लें। कई बातें बता देंगे। लेकिन... पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय संगठन महामंत्री संजय भाई जोशी हाल के दिनों में अचानक से सक्रिय होते दिखे। नॉर्थ एवेन्यू से लेकर इंटरनेट की दुनिया में मानो बाढ़-सी आने लगी। आज भी वे सक्रिय दिखाई देते हैं। लेकिन, बिना पद और जिम्मेदारी के कैसा निर्णय और कैसी पहुंच? एक और पूर्व राष्ट्रीय संगठन महामंत्री हैं के.एन. गोविंदाचार्य। अपने अभियान में लगे हुए हैं। भाजपा के मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए हैं। सरसंघचालक मोहन भागवत के सतत संपर्क में हैं।
11, अशोक रोड से चंद कदम चलकर 9, अशोक रोड पर पहुंचते ही भाजपा के मुखर कार्यकर्ता से अधिक संगठन के प्रति समर्पित लोग मिलते हैं। संगठन से जुड़े लोगों का कहना है कि पार्टी यदि ठान लें, तो मिशन उत्तर प्रदेश असंभव नहीं है। हां, वर्तमान परिस्थितियों में मुश्किल जरूर हैं। हमारे पास अभी साल भर का समय है। संगठन में काम कर चुके पुराने लोगों को ‘फ्री हैंड’ दिया जाए और टीवी पर आने वाले वातानुकूलित नेताओं की एक सीमा तय कर दी जाए, तो उत्तर प्रदेश विधानसभा में ‘कमल’ खिलाना संभव होगा। राजनीतिक नफे नुकसान को देखते हुए हर उस ‘निर्णय’ पर भाजपाइयों को ‘झंडेवालान’ के जरिए ‘नागपुर’ को संतुष्ट करना होगा।

रविवार, 10 अप्रैल 2016

सियासी ‘शिल्पकार’ कैसे साधेंगे राजनीति को?





आखिरकार वही हुआ, जिसकी चर्चा बीते कई दिनों से थी। जनता दल यूनाइटेड (जदयू) ने अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया। कोई नया चेहरा नहीं, बल्कि पार्टी ने अपना सर्वमान्य नेता और सोशल इंजीनियरिंग के ‘चाणक्य’कहे जाने वाले नीतीश कुमार को राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत किया। न किसी ने चूं-चपर की और न ही विरोध किया। अब, नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री का दायित्व निर्वहन करते हुए संगठन को भी बेहतर और रचनात्मक-सकारात्मक बनाने की दिशा में पटना से लेकर दिल्ली तक आएंगे-जाएंगे। दोहरी जिम्मेदारी जो मिली है। यह जिम्मेदारी अगले लोकसभा चुनाव में एक बड़े फलक पर होगी। अतीत की घटनाओं को वर्तमान की राजनीति को देखकर यही कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार की यह ताजपोशी उन्हें ‘मिशन-2019’ के लिए प्लेटफार्म मुहैया कराएगी। कारण, नीतीश राजनीति में रूकने का नाम नहीं है।
बिहार में उनकी प्रशासनिक और राजनीतिक उपलब्धियों ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर गैर-भाजपाई गठबंधन बनाने का सक्षम राजनेता साबित किया है। बिहार विधानसभा चुनाव के बाद की जद(यू) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने बिहार के भाजपा-विरोधी गठबंधन के राजनीतिक प्रयोग की राष्ट्रीय स्तर पर संभावना की तलाश के लिए न केवल अधिकृत किया, बल्कि उन्हें परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री के भावी उम्मीदवार के तौर पर पेश भी कर दिया। यह उनकी राजनीति की राष्ट्रीय स्वीकृति की मुखर अभिव्यक्ति थी। राष्ट्रीय नेता के तौर नीतीश कुमार का यह उत्कर्ष अनायास या अप्रत्याशित नहीं है। इन टिप्पणी के साथ पटना के राजनीतिक हलके में शिद्दत से सवाल भी किए जा रहे हैं, यह इतना सहज था क्या? अब औपचारिक तौर पर वह गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेसी राजनीति से इतर प्रधानमंत्री पद के भावी और ताकतवर उम्मीदवार बन कर उभर रहे हैं। यह बात अब रहस्य नहीं रही कि चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल और बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मंच के जनता दल में विलय का मूल प्रेरक तत्व नीतीश कुमार की राजनीति ही रही।
असल में, शरद यादव ने ही अगले जेडीयू अध्यक्ष के लिए नीतीश कुमार का नाम सुझाया है। इस संबंध में शरद यादव, नीतीश कुमार, केसी त्यागी, आरसीपी सिंह और प्रशांत किशोर की बैठकें भी हो चुकी थी। हालांकि, सवाल यह भी है कि नीतीश कुमार के अध्यक्ष पद को संभालने के बाद तो ‘एक व्यक्ति दो पद’ की नैतिकता का सवाल उठेंगे ही। जेडीयू के वरिष्ठ नेता और पार्टी प्रवक्ता केसी त्यागी ने तो अपनी ओर से पहले ही साफ कर दिया था कि शरद यादव जनता दल-यू के लगातार तीन बार अध्यक्ष रह चुके हैं। पिछली बार जब 2013 में वे अध्यक्ष बने थे, तब पार्टी के संविधान में संशोधन करना पड़ा था, क्योंकि पार्टी के संविधान के मुताबिक कोई दो ही बार अध्यक्ष बन सकता है। इस बार उन्होंने स्वयं ही मना कर दिया और मुझसे कहा कि मैं यह बयान जारी करूं कि वे अब चौथी बार के लिए तैयार नहीं हैं। जेडीयू के बिहार प्रदेश अध्यक्ष बशिष्ठ नारायण सिंह ने भी नीतीश कुमार को इस पद के लिए सर्वथा उपयुक्त बताया था।
सियासी बियावान में यह भी चर्चा है कि जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद राज्यसभा शायद ही जा पाएं शरद यादव। कहीं उनकी दुर्गति भी पार्टी के वयोवृद्ध नेता जॉर्ज फर्नांडीस की तरह तो नहीं हो जाएगी? माना जा रहा है कि नीतीश कुमार के साथ काफी नजदीक आए अजित सिंह को तो राज्यसभा भेजने की तैयारी पूरी कर ली गई है। दूसरे सीट पर प्रशांत किशोर का जबर्दस्त दावा बताया जा रहा है।
बिहार की राजनीति को जानने-बूझने वाले इस सच को बेहतर तरीके से समझते हैं कि दूसरी राजनीतिक पार्टियां जहां जात पांत की रोटी सेंकने में व्यस्त रहीं, वहीं सोशल इंजीनियरिंग के जादूगर नीतीश कुमार एक सिरे से विकास का मुद्दा लेकर चुनाव मैदान में डटे रहे। लक्ष्य केंद्रित निशाना साधने के लिए बिहार की राजनीति में ‘चाणक्य’ के नाम से मशहूर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सूबे में राजग का चुनावी परचम लहरा कर अपने विशेषण को एकबार नहीं, तीन बार सही ठहराया है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1974-1977 में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की उपज रहे नीतीश कुमार उस समय समाजसेवी एवं राजनेता सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के काफी करीबी रहे थे। पटना के राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान से विद्युत अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) की शिक्षा के साथ ही नीतीश कुमार जेपी आंदोलन में कूद पड़े। वर्ष 1985 में नीतीश कुमार पहली बार बिहार विधानसभा के सदस्य चुने गए। इसके बाद 1987 में उन्हें युवा लोकदल का अध्यक्ष बनाया गया।
1989 में बिहार जनता दल के सचिव बने और उसी साल लोकसभा चुनाव में लोकसभा सदस्य चुने गए थे। राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद 1990 में पहली बार नीतीश कुमार केंद्रीय मंत्रीमंडल में बतौर कृषि राज्यमंत्री की हैसियत से शामिल हुए। वर्ष 2000 में नीतीश कुमार केवल सात दिनों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री बने। सात दिन बाद उनको त्यागपत्र देना पड़ा। उसी साल वे फिर से केंद्रीय मंत्रीमंडल में कृषि मंत्री बने। मई 2001 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में नीतीश कुमार केंद्रीय रेलमंत्री रहे।
2004 के लोकसभा चुनाव में बिहार की बाढ़ और नालंदा से चुनाव लड़े, लेकिन बाढ से चुनाव हार गए। नंवबर 2005 में राष्ट्रीय जनता दल की बिहार में पंद्रह साल पुरानी सत्ता को उखाड़ फेकने में सफल हुए और मुख्यमंत्री बने। 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में अपने विकास कार्यों के आधार पर भारी बहुमत से गठबंधन को विजयी बनाया और पुन: मुख्यमंत्री बने। 2014 में लोकसभा चुनाव में पार्टी के खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। और 22 फरवरी 2015 को पुन मुख्यमंत्री बने। वर्तमान में भी बिहार के मुख्यमंत्री पद को सुशोभित कर रहे हैं।
बिहार में चुनाव में एक समय ‘धर्म’ और ‘जाति’ की बयार बहा करती थी और राजनीतिक पार्टियों की रोटी सेंकने का यह बड़ा एजेंडा हुआ करता था, लेकिन नीतीश को ‘विकास’ के नाम पर जनता को भरोसे में लेने का श्रेय जाता है। सत्ता विरोधी लहर को बेदम करते हुए राममनोहर लोहिया की सामाजिक विचारधारा के झंडांबरदार और जेपी आंदोलन में बढ़ चढकर हिस्सा लेने वाले नीतीश 2005 के चुनावों में 15 वर्षों ं के लालू राबड़ी शासन को खत्म किया था। सोशल इंजीनियरिंग के माहिर नीतीश ने हालांकि अति पिछड़ा और महादलित का नारा देकर बिहार के बड़े वर्ग को अपने पक्ष में गोलबंद किया। सादगी पसंद और जमीनी नेता नीतीश को बिहार की आधुनिक राजनीति का ‘शिल्पकार’ भी माना जाता है।