तुम्हारी हसरत, तुम्हारा गम,
तुम्हारा नहीं, मेरा भी हैै
यह हाल इक तेरा नहीं,
दुनिया का है, मेरा भी है।
कवि की यह पंक्ति दिल्ली के उन बच्चों की व्यथा और अभिव्यक्ति को और संपुष्टï करती है, जो पेट की आग शांत करने के चक्कर में अपना सब-कुछ दांव पर लगा चुके हैं। भले ही राïष्ट्रीय राजधानी को दिलवालों की दिल्ली कहा जाता हो, यहां की मुख्यमंत्री इसे पेरिस से भी सुंदर बनाने की सपना देख रही हों, लेकिन यथार्थ के धरातल पर तमाम तर्क की कसौटियां धरी की धरी रह जाती है। गाहे-बेगाहे हमें उन यथार्थ को स्वीकार करना ही पड़ता है जो कल्पित यथार्थ न होकर वास्तविक यथार्थ हैं। एक तरफ राष्टï्रमंडल खेल के नाम पर सरकार दिल्ली को संवारने का यत्न कर रही हैं और स्वयं ही इठला रही हैै। लेकिन एक कोना ऐसा है, जो बरबस ही सबका ध्यान अपनी ओर खींच लेता है।
अपनी पेट की आग और परिवार के जरूरतों को पूरा करने वाले करीब 5 लाख कामगार बच्चे दिल्ली में प्रताडि़त किये जा रहे हैं। इतना ही नहीं, पैंतीस शहरों में बच्चों से संबंधित जो अपराध हो रहे हैं, उनमें दिल्ली पहले नंबर पर है। राजधानी के लोग एक साल करोड़ों रुपए का शराब गटक जाते हैं, तो कू ड़ा बीनने वाले बच्चों साल में तकरीबन 100 करोड़ रुपए को नशे के रूप में बर्बाद कर देते हैं। दिल्ली में रेलवे स्टेशनों, डलावों और गली-मुहल्ले में कूड़ा बीननेवाले बच्चे व्हाइट फ्लूड (सफेद नशा) की चपेट में बड़ी तेजी से आते जा रहे हैं। एक गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्था के सर्वे में दिलोदिमाग को झकझोरने वाले आंकड़े चीख-चीखकर इस बात की गवाही दे रहे हैं कि दिल्ली में कूड़ा बीनने वालों बच्चों की हालत सुधारने की सख्त जरूरत है, नहीं तो यह असमय ही काल के गाल में समा जाएंगे। व्हाइट फ्लूड का केमिकल नाम टोलविन है, यह एक आर्गेनिक कंपाउंड है जिसका इस्तेमाल आमतौर पर वाइटनर के रूप में किया जाता रहा है। बीते दिनों कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद अब फ्लूड की शीशी पर कंपनी की तरफ से यह वैधानिक चेतावनी लिखकर आने लगी है कि इसे 18 साल के कम उम्र के बच्चों को नहीं बेचपा जा सकता है। दिल्ली हार्ट केयर फाउंडेशन के डा।के.के. अग्रवाल का कहना है कि इसके इस्तेमाल से मानव शरीर पर कई तरह के दुष्प्रभाव पड़ते हंै।
दरअसल, रेलवे स्टेशनों, डलावघरों और गली-मुहल्ले में कूड़ा बीनने वाले अधिकतर बच्चे घर से भागे हुए होते हैं। ये बच्चे माता-पिता के प्यार से महरूम होते हैं या फिर कई बच्चों के माता-पिता में से किसी एक की मौत हुई होती है। उसके बाद जब उनकी जिंदगी में सौतेली मां या बाप आता है तो उनका जीवन नरक में तब्दील होने लगता है। रोज-रोज की मारपीट से पीछा छुड़ाने के लिए वह बच्चा घर छोडऩे पर मजबूर हो जाता है। इनमें से कुछ ऐसे बच्चे भी हैं जिनके माता-पिता दोनों जिंदा होते हैं, लेकिन दोनों ही नशा करने के आदी होते हैं। ऐसी हालत में बच्चों पर कमाने के लिए वे जोर डालते हैं। दिल्ली की कई ऐसी पुनर्वास कालोनियां, झुग्गी-बस्तियां और स्टेशनों के आसपास की कॉलोनियों के बच्चे घर छोडऩे के बाद रेलवे स्टेशनों पर ही आश्रय लेते हैं। इसके अलावा, कुछ दूसरे प्रदेशों से भी आते हैं और यहीं के होकर रह जाते हैं। उसके बाद शुरू होती है इन बच्चों की जिंदगी की कशमकश। सुबह होते ही बच्चे रोटी की जुगत में जुट जाते हैं। जब ये सेनेटरी लैंडफिल, कॉलोनियों में बने डलाव, बड़े नालों और स्टेशनों पर कूड़ा आदि बीनते हैं तो वहां पर इन्हें कई तरह की परेशानियों से जूझना पड़ता है। इन परेशानियों से बचने के लिए ये बच्चे नशे का सहारा लेते हैं। वैसे तो बच्चों में 10 नंबर के नाम से जानेवाली गोली काफी प्रचलित है, लेकिन इन बच्चों में सफेद नशा खासा प्रचलित होता जा रहा है। कुछ बच्चे जूता पॉलिश और पंचर में इस्तेमाल होनेवालो सॉल्यूशन का भी नशे के रूप में इस्तेमाल करते हैं। जानकारों का कहना है कि व्हाइट फ्लूड स्टेशनरी आइटम होने की वजह से प्रतिबंधित नहीं है, इसलिए बच्चे इसका धड़ल्ले से नशे के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कूड़ा बीननेवाला विक्की बताता है कि माता-पिता के गुजर जाने के बाद वह घर की परेशानियों से छुटकारा पाने के लिए वाराणसी से दिल्ली चला आया। हालांकि, उसके घर वालों का यह नहीं पता है कि वह कहां है। साल 2002 में वह घर से भागकर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन आया था, जब उसकी उम्र महज 9 वर्ष थी। यहां आकर वह दूसरों बच्चों की तरह भीख मांगने लगा, जब भीख नहीं मिलती थी तो उसने अन्य बच्चों के साथ मिलकर कूड़ा बीनना शुरू किया। धीरे-धीरे उसे भी सफेद नशा का नशा करने की लत लग गई। वह एक दिन में फ्लूड की दो-तीन बोतल पी जाता है। नशा करने से दिमाग सुन्न हो जाता है और सारी टेंशन खत्म। व्हाइट फ्लूड पीने वाले दूसरे बच्चों ने बताया कि इसे शराब की तरह नहीं गटका जाता है। एक कपड़े को फ्लूड से गीला कर लिया जाता है, उसके बाद उस कपड़े को मोड़कर मु_ïी में रख लिया जाता है। मु_ïी से मुंह लगाकर अंदर की तरफ संास खींची जाती, यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कपड़े से फ्लूड का असर कम नहीं होता। असर खत्म होते ही कपड़े पर दोबारा फ्लूड डाला जाता है। इस तरह से बच्चा पूरे दिन नशे में झूमता रहता है। इस बीच उसका दिमाग पूरी तरह से सुन्न हो जाता है और उसे बदबू का कोई अहसास नहीं होता। यहां तक कि जब कभी कोई पुलिस वाला पकड़ लेता है तो उन्हें पिटाई का भी अहसास नहीं होता।
व्हाइट फ्लूड को नशे के तौर पर इस्तेमाल करने वाले बच्चों ने बताया कि रेलवे स्टेशनों के आसपास दर्जनों ऐसी दुकानें हैं जहां पर आसानी से यह मिलता है। आमतौर पर फ्लूड स्टेशनरी की दुकान पर ही मिलता है, मगर यह रेलवे स्टेशनों के आसपास की पान-बीड़ी की दुकान और परचून की दुकान पर भी आसानी से मिलता है। इन दुकानदारों के ग्राहक कोई और नहीं कूड़ा बीननेवाले बच्चे ही होते हैं। इनके अलावा, दुकानदार किसी दूसरे के मांगने पर भी फ्लूड नहीं बेचते।
ऐसे ही कुछ दूसरे कटु सत्य हाल के दिनों में सामने आए हैं, जब बाल सहयोग, यंग वूमेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन और इंडियन एलांयस ऑफ चाइल्ड राइटस ने मिलकर एक सर्वे किया । सर्वे के रिपोर्र्ट में खुले तौर पर कहा गया है कि दिल्ली में सड़कों और अन्य कार्यस्थलों पर काम करने वाले 5 लाख बच्चे प्रताडि़त किये जा रहे हैं। भावनात्मक रूप से , शारीरिक रूप से और यौनिक दृष्टि से । तेरह राज्यों में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा अध्ययन कराया गया, जिसमें कहा गया कि हर दूसरा बच्चा यौन उत्पीडऩ का शिकार है। वहीं दिल्ली में यह प्रतिशत 83।12 है।
रोटी की जुगाड़ में राजधानी की सड़कों और गलियों में बच्चे भटक रहे हैं। जिस समय हाथों में कॉपी-कलम और कंधे पर स्कूली बस्ता होना चाहिए , उस समय इनके हाथ में कोई औजार और पीठ पर बोझा होता है। ठीक से बचपना आता नहीं कि यौवन की जिम्मेदारी आ धमकती है। देखने से लगता है सभी कुपोषण के शिकार। बात करने पर पता चलता है कि शिक्षा से इनका दूर तक कोई सरोकार नहीं है। बस चाहत है तो पैसे की। वह भी इतना ही, जितने में दो वक्त की रोटी और कभी मस्ती के लिए पर्याप्त हो। अधिकतर की जिंदगी खानाबदोश-सी, आज यहां तो कल वहां। आखिर स्थायी ठौर कौन देगा ? सरकार या समाज ? या कि परिवार ? यदि सही मायने में परिवार होता तो यह दिन नहीं देखना पड़ता । भला इस सभ्य समाज में इसकी जिम्मेदारी कौन उठाए? बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? जब सबको अपनी-अपनी पड़ी हैै। हां, कुछ गैर-सरकारी स्वयं सेवी संस्था अपना हित साधते हुए इनके लिए काम जरूर कर रही हैै।
ऐसा नहीं है कि सरकारी मशीनरी की तरफ से इन बच्चों की दशा और दिशा सुधारने के लिए कोई पहल नहीं की गई। पहल तो की गई। स्थानीय और ग्लोबल स्तर पर भी की गई। आखिर आज हम लोग ग्लोबल जीवन जो जी रहे हैें ? अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बच्चे के विकास के लिए कई प्रकार की योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है, उसी के तहत यूएन मिलेनियम डेवलपमेंट सेल यहां भी चलाया गया। योजना तो आए दिन चलती ही रहते हैं। यदि अभागे बच्चे के पास कोई नहीं पहुंची जो इसमें दिल्ली सरकार क्या करें ? उसे इतना ही काम थोड़े है? आखिर राष्टï्रमंडल की तैयारी भी करनी है। दिल्ली को पेरिस भी बनाना है और फिर पेरिस और रोम में झुग्गियों, गरीब बच्चों और उपेक्षितों के लिए जग्ह ही कहां बचता है? बच्चों की स्थिति के बारे में यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर हॅयूमन राइटस कहता है कि क ेवल भारत ही नहीं, दुनिया के दूसरे देशों में भी यह समस्या आम हो गई है। केवल दिल्ली में 5 लाख बच्चे तमाम मूलभूत सुविधाओं से मरहूम होकर किसी प्रकार काम करके अपना रोजी -रोटी चलाते हैं।
विभिन्न आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में कामगार बच्चों में से एक तिहाई अपने मां-बाप के साथ रहते हैं। 17 प्रतिशत रैन-बसेरा आदि में सोते हैं, जबकि 50 प्रतिशत का हाल बेहाल है। इन्हें खुद भी पता नहीं होता है कि कल क्या खाएंगे, कहां रहेंगे? सबसे ज्यादा परेशानी तब आती है जब इन्हें कोई संक्रामक रोग आदि अपनी गिरफ्त में ले लेता है। बाल श्रमिक, जिन्हें आमतौर पर स्ट्रीट चिल्ड्रेन ही कहा जाता है, 56 प्रतिशत अवैध रूप से कल-कारखानों में काम करते हैं। कुछ रिहायशी इलाकों में चल रहे ढाबों,दुकानों , रेस्तरां, निर्माण कार्य, छोटे-मोटे व्यवसाय आदि से जुड़े होते हैं। इनक ो सप्ताह में सातों दिन काम करना होता है, बिना किसी साप्ताहिक अवकाश के और मेहनताना के रूप में मिलता हैै कुुछ सौ रूपये। न तो श्रम विभाग द्वारा निर्धारित मेहनताना मिलता है और न ही दूसरी कोई सुविधा। हां, बोनस के रूप में मालिक की गाली और मार , सहकर्मियों की झिड़की और भी ऐसी ही कई प्रकार की चीजें मिलती है। शारीरिक, मानसिक दोहन भरपूर किया जाता है। अधिकांश जगहों पर तो बाल श्रमिकों के साथ यौन उत्पीडऩ की शिकायत भी प्राप्त होती है। विभिन्न प्रकार की अवसाद के कारण ये बच्चे क ई प्रकार के व्याधियों के शिकार हो जाते हैं। कई प्रकार की कुंठाएं इन्हें नरक के द्वार तक ले जाती है। कई बच्चों में ऐसी यौन रोगों को देखा गया है जो बड़ो को ही होता है। वे कहते हैं कि इन बच्चों की दशा सुधारने के लिए सरकार और गैर सरकारी स्वंयसेवी संस्थाओं को एक साथ सच्चे मन से काम करना होगा, तभी स्थितियां काबू में होंगी।
शनिवार, 4 जुलाई 2009
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2 टिप्पणियां:
bahut hi marmsparshi issue ko uthaaya hai........bahut hi sundar
बेहतरीन प्रस्तुति ।
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