लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को मूर्खों का शासन भी कहा जाता है। कारण, यहां विद्वता पर आंकड़ों की बाजीगरी हावी हो जाती है और बहुमत के खेल में काबिल पीछे छूट जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यह सिलसिला भारत में आजादी के बाद शुरू हुआ है, आजादी से पूर्व भी इतिहास में कई उदाहरण ऐसे हैं जिससे जाहिर होता है कि शासन करने के लिए शिक्षा की कोई विशेष अहमियत नहीं होती है। बस, जरूरत इस बात की है कि आप जनता को किस कदर अपनी ओर 'हांकÓ ले जाते हैं, प्रबंधकीय क्षमता कितनी है और आपके सिपहसालार किस दर्जें के हैं। दीन-ए-इलाही के नाम से मशहूर अकबर अनपढ़ था, लेकिन उसने जिस प्रकार से सत्ता को संभाला वह काबिले-तारीफ है। वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भी कई शासक ऐसे हुए हैं जो सही से दो पंक्ति नहीं पढऩा जानते लेकिन वर्षों तक शासन की बागडोर संभाले रहे। बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमति राबड़ी देवी इसकी मिसाल हैं और उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की ज्ञान कितनी है, इसको हर कोई जानता है। हिंदुस्तान के सियासी गलियारे में कई ऐसे अनपढ़ हैं जो पढ़े-लिखे लोगों पर शासन करते हैं। इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था की विडंबना भी कही जा सकती है।
आज का समय शिक्षा और सूचना-तकनीक का है, जहां एक सूई से लेकर परमाणु करार की बारीकियों को समझने के लिए शिक्षा की जरूरत है, वहीं हमारे नेता (विशेषकर सांसद) शिक्षा की महत्ता से अनभिज्ञ हैं। औसतन दस लाख व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले कई सांसद नाममात्र के शिक्षित हैं। वर्तमान 700 सांसदों में कम से कम तीन प्रतिशत सांसद ऐसे हैं जो या तो पांचवीं-छठीं पास हैं और किसी प्रकार से हस्ताक्षर करने में सक्षम हैं। दूसरी अहम बात यह है कि गैर मैट्रिक या निम्न शिक्षा का स्तर सिर्फ क्षेत्रीय या किसी खास पार्टी में नहीं है, बल्कि राष्टï्रीय राजनीतिक पार्टी भी इसमें बराबर की हिस्सेदार हैं। राष्टï्रीय पार्टियों में सीपीआई (एम) ही इकलौती पार्टी है, जिसमें वर्तमान में एक भी गैर-मैट्रिक नहीं है। वहीं, बहुजन समाज पार्टी में अशिक्षित राजनीतिज्ञों की संख्या सर्वाधिक हैै।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर शिक्षितों पर अशिक्षितों का राज कितना उचित है? सीपीआई(एम) भले ही सबसे पढ़ी-लिखी नेताओं से भरी-पूरी पार्टी हो, लेकिन उसे केंद्रीय सत्ता का सुख आज तक नहीं मिला है। इसके बाद दूसरे नंबर पर भारतीय जनता पार्टी के नेता शिक्षित हैं। सो, केवल उन्हें एक बार सत्ता सुख मिला। जबकि कांग्रेस पार्टी में करीब 12 प्रतिशत नेता अपेक्षाकृत कम शिक्षित हैं और इसने ही आजादी के बाद देश पर सबसे अधिक शासन किया। देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस में गैर मैट्रिक सांसदों का प्रतिशत 2।8 है जबकि दूसरे नंबर पर काबिज भाजपा में 2.86। राजनीतिक ताकत के नजरिए से देश का भविष्य इनके विचारों और कार्यों पर निर्भर करता है। ऐसे में इन बड़ी मछलियों का कुछ हिस्सा बेकार होना आगे चलकर पूरे तालाब को गंदा कर सकता है, इस संदेह को नकारा नहीं जा सकता है। नतीजतन, उसका परिणाम देश और जनता को भोगना पड़ेगा। उन हालात में पूर्व राष्टï्रपति डा. एपीजे अबुल कलाम आजाद के सपनों के भारत (भारत - 2020) में ये कहीं नहीं टिकते। स्मरणीय है कि जब देश के अधिकांश बुद्घिजीवी डा. कलाम सहित भारत-अमेरिका परमाणु करार के पक्ष में हैं तो शत-प्रतिशत शिक्षित पार्टी वाममोर्चा क्यों कर इसके विरोध में है, यह चिंता का विषय है। कहा जा सकता है कि देश की शासन की बागडोर संभालने के लिए किताबी ज्ञान के साथ-साथ प्रशासकीय ज्ञान की भी समझ होनी चाहिए।
संसद में ऐसे नेताओं की संख्या काफी है जो गर्व से कहते हैं वे मैट्रिक हैं। वर्तमान संसद में तकरीबन 16 फीसदी प्रतिनिधि ऐसे बैठे हैं, जिन्होंने या तो सिर्फ मैट्रिक तक पढ़ाई की है या तो इंटरमीडिएट तक। यदि इनको गैर मैट्रिक के साथ जोड़ दिया जाए तो ऐसे सांसदों का प्रतिशत बढ़कर 20 हो जाता है। यानी करीब एक चौथाई सांसदों ने न तो किसी विषय विशेष का अध्ययन किया और न ही उच्च शिक्षा के द्वार तक पहुंचे हैं। यह भी सच है कि ऐसे अधिकतर सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक रही है। न तो अपनी विद्वता और न लोकप्रियता के कारण जीतकर आते हैं, बल्कि अपनी दबंगई और जातीय समीकरण के सहारे इनके संसद में प्रवेश करने का गेट पास मिलता है। ऐसे में सवाल मौजूं है कि ये सांसद जब मंत्री पद संभालते हैं तो शासन का कामकाज किस प्रकार चलाते हैं। इस संबंध में सेवानिवृत्त वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जोगिन्दर सिंह कहते हैं, '' सारा काम-काज तो अधिकारी करते हैं, नेताओं अथवा मंत्रियों से केवल उनकी सहमति ली जाती है। किसी भी नीति के नियमन-निर्धारण में नेता अपनी राय बताते हैं और संबंद्घ अधिकारी उसी अनुरूप ड्राफ्ट बनाते हैं। वरिष्ठ अधिकारियों के साथ काम करने से ऐसे नेताओं की समझ भी बढऩे लगती है और वे स्वयं को एक समझदार के रूप में प्रचारित करते हैं।ÓÓ
फिलहाल, वर्तमान सरकार ने शिक्षा पर खासा जोर दिया। साल 2007-08 के बजट में सर्वशिक्षा अभियान के लिए 2006-07 के दौरान प्रावधान किए गए 7 हजार 156 करोड़ रुपए को बढ़ाकर 10 हजार 41 करोड़ रुपए कर दिया गया। शिक्षा को सभी तक पहुंचाने के लिए इसे सरकार का महत्वपूर्ण कदम कहा जाना चाहिए। इतना ही नहीं, साल 2006 से ही संसद से सड़क तक जिस प्रकार से शिक्षा में आरक्षण की गूंज सुनाई पड़ी, उससे लगने लगा कि आरक्षण की बैशाखी पर ही सही देश के नौनिहालों की शैक्षणिक स्थिति में साकारात्मक परिवर्तन दिखेगा। मगर, यथार्थ के धरातल पर केवल ये घोषणाएं राजनीतिक खेल ही साबित हुई। आखिर हो भी न क्यों? जब नीतियों के निर्धारण के लिए बनी समिति के मुखिया जब अशिक्षित और कम पढ़े-लिखे हों तो अंजाम क्या होगा- इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
यह भी जानना रोचक होगा कि अशिक्षित सांसद अधिकतर किस क्षेत्र से आतें हैं। इस मामले में हिंदी पट्टïी ही इसके लिए जिम्मेदार दिखती है। अमूमन, हिंदी प्रदेशों में शिक्षा दर भी अपेक्षाकृत कम है। उत्तरप्रदेश से वर्तमान में समाजवादी पार्टी के दो दर्जन से ज्यादा संासद हैं जिसमें गैर-मैट्रिक सांसदों का प्रतिशत 5।65 है जो बाकी की पार्टियों के मुकाबले ज्यादा है। उसी प्रदेश की दूसरी बड़ी पार्टी बहुजन समाज पार्टी है जिसके तकरीबन दो दर्जन सांसद हैं जिसमें 5 प्रतिशत गैर-मैट्रिक हैं। दोनों पार्टियों में अशिक्षित सांसदों का जो प्रतिशत है वह राष्टï्रीय स्तर के मुकाबलें दो प्रतिशत ज्यादा है। यह इस बात का संकेत है भारत के सबसे बड़े प्रदेश में राजनीति करनेवाले में अशिक्षितों का बोलबाला है, जबकि राज्य में साक्षरों का प्रतिशत 57.36 है। यही हाल उत्तरप्रदेश से सटे बिहार का है। वर्तमान में राजद के सबसे अधिक 30 सांसद हैं, जिनमें 3.23 प्रतिशत गैर मैट्रिक है। उत्तरप्रदेश और बिहार देश के ऐसे दो राज्य हैं जहां पर शासन करनेवाली पार्टियां केंद्र पर हावी रहती हैं और कह लें कि सरकार बनाने का माद्दा रखती है। इन प्रदेशों में सांसदों की शिक्षा का स्तर कम है। इसका एक कारण है भी है कि यहां की राजनीति विकास के मुद्दे से कम और जातीय मुद्दों से ज्यादा प्रभावित होती हैं। सांसदों के पढ़े-लिखे होने न होने का असर यहां के विकास कार्यों से जोड़कर देखा जा सकता है। बिहार, झारखण्ड, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे बीमार प्रदेश तेजी से विकास करने वाले राज्यों की फेहरिस्त में निचले पायदान पर हैं। वहीं दक्षिण के राज्य तेजी से विकास कर रहे हैं। पंजाब और गुजरात भी इस मामले में बेहतर हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि यहां शिक्षा का प्रतिशत भी बढिय़ा है। पंजाब में 69.95 प्रतिशत लोग शिक्षित हैं जबकि गुजरात में 69.97 प्रतिशत जो कि राष्टï्रीय शिक्षा प्रतिशत दर से बेहतर है।
विभिन्न दलों के नेताओं के शैक्षणिक स्थितियों का वृहद अवलोकन करने के बाद जो नतीजे मिले, वह चौंकाने वाला सर्वे में जिन सियासी पार्टियों में शिक्षा की स्थिति से अलग से दिखाया गया है उसमें से पांच तो हिंदी प्रदेशों पर अपना कब्जा जमाए हुए हैं, जबकि सीपीआई(एम) का केरल और पश्चिम बंगाल पर मजबूत पकड़ है। केरल में शिक्षितों का प्रतिशत 90।92 है तो पश्चिम बंगाल में 69.22 जहां कि हिंदी पट्टïी वाले राज्यों से कहीं ज्यादा है। इन्हीं पांच बड़ी पार्टियों में भ्रष्टïाचार और अपराध का भी ज्यादा बोलबाला है। इसे दूसरे रूप में कहें तो, हिंदी प्रदेशों पर राज करनेवाली पार्टियों ने अपनी जिम्मेदारी को न तो गंभीरता से लिया है और न ही वहां के आधारभूत समस्याओं को सुलझाने में अपनी कोई खास रूचि दिखाई है। इससे एक और रोचक बात निकल कर सामने आई कि संसद के दोनों सदनों में करीब सत्तर महिला सांसद हैं लेकिन ये पढ़ाई के मामले में पुरुषों से भी आगे हैं। यह पुरुष प्रधान समाज के अशिक्षित पुरुष सांसदों को अपने पर हंसने के लिए काफी है। महिला सांसदों में जहां गैर-मैट्रिक का प्रतिशत 1.45 है, वहीं पुरुषों में 2.84।
परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, जाहिरतौर पर हरेक क्षेत्र में परिवर्तन हो रहा है। भले ही सियासी हलकों में वंशवाद को हिकारत भरी नजरों से देखा जा रहा है और कांग्रेस को वंशवाद के लिए दोषी ठहराया जाता हो लेकिन राजनीति में जो वंशवाद की नई पौध आई, वह ज्यादा पढ़ी-लिखी आई। उनके पिता भले ही कम पढ़े हों, मगर उनके पुत्र और पुत्री विदेशों से पढ़ाई करके आते हैं। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी इंग्लैण्ड से पढ़कर आए हैं, तो केंद्रीय राज्य मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट, जसवंत सिंह के पुत्र मानवेंद्र सिंह, राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह, मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव, एम। करूणानिधि की पुत्री कानिमोजी करूणानिधि, एच.डी. देवगौड़ा के पुत्र एच.डी. कुमारस्वामी सरीखे नेता उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। जाहिरतौर पर इनके सोचने-समझने की शक्ति औरों से बेहतर होंगी। संसद में युवा बिग्र्रेड ने जिस प्रकार से अपनी छाप छोड़ी है, वह प्रशंसनीय है। इन युवाओं ने आशा की एक नई किरण दिखाई है, जनता को उम्मीद जगाई है। हालांकि, कुछ युवा नेता संसद की कार्यवाही के दौरान अपनी जोरदार उपस्थिति का एहसास करा पाने में सफल नहीं हो सके। कुछेक लोग इसे उनकी संकोची स्वभाव बताते हैं तो कुछ इसे सीखने-समझने का समय कहते हैं। दरअसल, वर्ष 2004 में चुनी गई 14वीं लोकसभा के पांच वर्ष के कार्यकाल में से चार साल पूरे हो चुके हैं, पांचवां साल चल रहा है। इन चार सालों में सदन में राहुल गांधी ने दो, सोनिया गांधी ने चार, धर्मेन्द्र ने शून्य, विनोद खन्ना ने चार और नवजोत सिंह सिद्धू ने केवल चार मामले उठाए। संसद की वेबसाइट में राज्यसभा और चौदहवीं लोकसभा के सदस्यों द्वारा अपने-अपने सदनों में इन चार सालों में किए गए कार्यों के संबंध में दिए गए वर्णन के अनुसार संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी इस अवधि में चार बार बोलीं। इनमें सबसे पहले सोमनाथ चटर्जी के लोकसभा अध्यक्ष बनने पर चार जून 2004 को उनके द्वारा दिया गया बधाई भाषण शामिल है। इसी साल 9 जून को उन्होंने चरणजीत सिंह अटवाल के उपाध्यक्ष बनने पर उनके सम्मान में बधाई भाषण दिया। तत्पश्चात अगस्त 2005 में उन्होंने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना विधेयक पर हुई चर्चा में हिस्सा लिया। लाभ के पद मामले में इस्तीफा दे देने के बाद दोबारा लोकसभा सदस्य चुने जाने पर उन्होंने सदन में 15 मई 2006 को हिन्दी में शपथ ली। सदन के कामकाज के विवरण में उनके बोले जाने के ये कुल चार मामले दर्ज हैं। इन चार साल में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने दो मामले उठाए। 21 मार्च 2005 को उन्होंने उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का मामला उठाया और उसके अगले साल 9 मई को आम बजट पर चर्चा में हिस्सा लिया। इसके अलावा उन्होंने प्रश्नकाल के दौरान तीन सवाल भी किये।
लोकसभा की कार्यवाही के रिकार्ड बताते हैं कि कांग्रेस की यंग ब्रिगेड ने सदन की अपनी जिम्मदारियों को गंभीरता से लिया। नवीन जिंदल ने 34 मामलों की चर्चा में हिस्सेदारी की और 338 प्रश्नों के जरिए विभिन्न मामलों में सरकार से जानकारी ली। सचिन पायलट ने 16 चर्चाओं में हिस्सा लिया और देश में भूख को पूरी तरह से समाप्त करने संबंधी उपायों पर चर्चा के लिए एक प्राईवेट मेम्बर विधेयक भी रखा। जितीन प्रसाद ने पांच विषयों पर चर्चा की और प्रश्नकाल में छह प्रश्न उठाए। कांग्रेस की युवा ब्रिगेड के अन्य सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मंत्री बनने से पहले तक 15 चर्चाओं में हिस्सा लिया और 526 प्रश्न किए। ज्योतिरादित्य की बुआ और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत कुमार अपने ममेरे भाई से कम सक्रिय नहीं रहे। भाजपा के इस युवा सांसद ने 46 चर्चाओं में शिरकत की और 577 प्रश्न सरकार पर दागे। भाजपा सांसद और जसवंत सिंह के पुत्र मानवेन्द्र सिंह ने 38 चर्चाओं में हिस्सा लिया।
सदन की कार्यवाही में जिस प्रकार से संासदों ने भाग लिया उससे स्पष्टï होता है कि राजनीतिक पृष्ठभूमि से आने के बजाए दूसरे किसी क्षेत्र से आने वाले लोग जनहित मुद्दों पर कम बोलते हैं। उनके लिए राजनीति दोयम स्तर की है, प्रथमत: उनका वह काम होता है जिस क्षेत्र से वे आते हेैं। जो नेता आम जनता के बीच से चुनकर आते हैं और खालिस राजनीति की दुकान ही चलाते हैं, वे अपेक्षाकृत जनहित की चर्चाओं में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। चुनावी वर्ष को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भले ही दलितों की कुटिया में जाकर रात बिताते हों, लेकिन भारत की सामाजिक परिस्थिति की पूरी जानकारी उन्हें आज भी नहीं हुई, सदन की कार्यवाही के आंकड़े तो कम से कम यहीं बयां करते हैं। दूसरी बात, अशिक्षित सांसदों को सदन में किस प्रकार चर्चा करनी चाहिए, किस प्रकार के सवाल करने चाहिए - इसकी अवगति भी नहीं के बराबर होती है, सो वे सदन की कार्यवाही में नाममात्र को उपस्थित होते हैं, जिससे उनकी भत्ता आदि मिलती रहे। सरकार की ओर से ऐसे अशिक्षित नेताओं के लिए कई प्रकार की कार्यशालाओं का आयोजन भी किया जाता है।
फिर सवाल यह उठता है कि आखिर अशिक्षित सांसदों को आने से कैसे रोका जा सकता है ? चूंकि आजादी के साठ बरस बीत जाने के बाद भी राजनीतिक पार्टियों ने अपने उम्मीदवारों को तय करने के लिए शिक्षा का कोई एक आधार नहीं बनाया है, उनके लिए उम्मीदवारों के चुनाव का जो आधार है, वह आज भी राजनीति को सड़ा चुका है। ऐसे में एक ही प्रभावी कदम शेष दिखती है, वो है चुनाव लडऩे के जो मानदण्ड तैयार किए गए हैं उसमें सुधार किए जाने चाहिए। यह भी पार्टियों के इच्छाशक्ति के बगैर नहीं हो सकता। कई दफा विभिन्न राजनीतिक दल कहते हैं कि सियासी प्रत्याशियों के लिए भी शैक्षणिक योग्यता को अनिवार्य किया जाए, लेकिन जातिगत और क्षेत्रीय समीकरण के भय से वे इसको अनिवार्य नहीं कर पाते हैं। राष्टï्रीय युवा जनता दल के दिल्ली प्रदेश महासचिव अजीत कुमार पाण्डेय कहते हैं, ''जब तक नेता जी पढ़े-लिखे नहीं होंगे, उस समाज का विकास नहीं हो सकता। समाज में व्याप्त बेरोजगारी और भ्रष्टïाचार के लिए भी अशिक्षा ही जिम्मेदार है। संसद में बैठे प्रतिनिधियों को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे जनप्रतिनिधियों की अनिवार्य शैक्षणिक योग्यता स्नातक हो।ÓÓ अकेले श्री पांडेय ही नहीं जो यह मांग करते हैं, राजनीतिक गलियारों में तमाम ऐसे युवा हैं जो इस सोच से इत्तेफाक रखते हैं लेकिन अपने सियासी आकाओं से कह नहीं पाते और न ही उनकी बातों को फिलहाल तवज्जो दी जा रही है। चुनाव आयोग के पास भी तमाम बुद्घिजीवी आए दिन इस प्रकार की गुहार लगाते हैं, मगर जब तक संविधान में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं की जाएगी, चुनाव आयोग तो बस मूक दर्शक बना अपना काम करता जाएगा। आखिर घंटी कौन बांधे?
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विचारणीय पोस्ट. अशिक्षित ही हमारे कर्णधार बने बैठे है यह हमारा दुर्भाग्य ही है .
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