टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर आजकल रिएल्टी शो की भरमार है। गीत-संगीत, नाच-गान, जंगल-मंगल, प्रतियोगिता आदि कितने रिएल्टी को बाजार का मुलम्मा चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। विकास के पहिए पर सवार होकर समय जिस गति से आगे बढ़ रहा है, उसका पार पाना मुश्किल है। इस सब के बीच एक नई बात यह हुई कि कम उम्र के बच्चों को अपनी प्रतिभाओं को निखारने-संवारने का बेहतरीन मौका मिल रहा है। कम उम्र में ही वे नए आयाम गढ़ रहे हैं और स्थापित लोग हैरत भी नजरों उन्हें अपलक निहार रहे हैं।
सच में नन्हे उस्ताद हैं। वे लिटिल चैंपियन हैं। वे किड्स स्टार हैं। अब वे ही नहीं, उनके घर वाले भी मशहूर और मालामाल हैं। टीवी के स्क्रीन पर, सिनेमा के परदे पर और जब-तब स्टेज पर जलवे बिखेर रहे उन लिटिल स्टार्स को देखकर शायद हर मां-बाप अपने बच्चों को यही याद दिला रहे हैं। एक हालिया सर्वे के अनुसार अब बच्चों में डॉक्टर, इंजीनियर या सिविल सर्वेंट के बजाय सेलिब्रिटी बनने का क्रेज ज्यादा है। जब से रियलिटी शोज की धूम मची है, बच्चों के ख्वाबों को तो मानो पंख लग गए हैं। वे उडऩा चाहते हैं शोहरत के पंख लगाकर। रियलिटी शोज ने बच्चों में सेलिब्रिटी बनने की ललक जगा दी है।
अपने इसी ललल को वे साकार भी कर रहे हैं। कुछ बच्चे तो अपने हुनर से नामचीन और स्थापित कलाकारों को भी हैरत में डाल देते हैं। वरना कोई तुक नहीं बनता कि इंदौर के सात वर्षीय स्वरित शुक्ला के 'सरगमÓ पर पकड़ देखकर गायक सुखविंदर अपने गले पर हाथ रखकर कहें कि ऐसा अजूबा मैंने आज तक नहीं देखा है। (सा रे गा मा लिटिल चैम्पस,2009)। जिन शब्दों का अर्थ तक स्वरित नहीं जानता उसको बखूबी अपनी गायकी में ढाल लेता है। वहीं, छह वर्षीय अप्सा एंकरिंग कर रही है। अमूमन छह-सात वर्ष के बच्चे सही ढंग से स्कूल जाने लायक भी नहीं बन पाते, उनके माता-पिता को हर पल उनका ख्याल रखना पड़ता है, वैसे में एक-दो नहीं दर्जनों बच्चे विभिन्न रिएल्टी शोज में अपने 'फनÓ से कार्यक्रम के जज और दर्शक को दांतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर कर रहे हैं। कोई इन्हें ईश्वर की नेमत कह रहा है तो कोई इसे परिवार की संगत का नाम दे रहा है। सूफी गायकी सहित अन्य गायकी में अपना नाम स्थापित कर चुके कैलाश खेर कहते हैं, 'गीत-संगीत से संबंधित रिएल्टी शोज में जिस प्रकार से आठ से बारह वर्ष तक के बच्चे जिस प्रकार से गायकी कर रहे हैं, वह केवल रियाज से संभव नहीं है। कितना भी रियाज किया जाए लेकिन बगैर ईश्वर की नेमत के यह सहज नहीं है। जरूर इन बच्चों पर ऊपर वालों की असीम कृपा है।Ó
ऐसा नहीं है कि बच्चे केवल रिएल्टी शोज में ही भाग लेते हैं। कई बाल कलाकार विभिन्न फिल्मों और धारावाहिकों में अपने हुनर का झण्डा बुलंद कर चुके हैं। 'बालिका वधूÓ की आंनदी, 'आपकी अंतराÓ की अंतरा सरीखें बाल कलाकार अपने बूते चैनल का टीआरपी बढ़ाने में सक्षम रहे हैं। ऐसे में बच्चों की एक नई फौज तैयार हो रही है जो अब बाल कलाकार बनना चाह रही है। एक तरह से उनमें गुणात्मक विकास हो रहा है। साथ ही बच्चों से माता-पिता की अपेक्षाएँ काफी बढ़ गई हैं और अधिकांश पालकों से बातचीत में यह तथ्य सामने आता है कि हम अपनी इच्छा आकांक्षाएँ बच्चों पर नहीं लाद रहे हैं, बल्कि यह प्रतिस्पर्धा का जमाना है। इस कारण बच्चों को मेहनत कर सफलता तो प्राप्त करना ही होगी। बच्चों के मन में अच्छाई और बुराई के बीच के अंतर को समझाने की अपेक्षा सफलता की परिभाषा ही रटवाते रहते हैं। मीडियाकर्मी तब्बसुम हक कहती हैं, 'टीवी की दुनिया में जाते ही बच्चे भावनाओं और प्रेम से ऊपर सफलता को समझने लगते हैं और एक रोबोट की तरह काम करने लगते हैं। इस प्रक्रिया में बचपन कहीं खो-सा जाता है। बच्चों का बचपन माता-पिता की सामाजिक प्रतिष्ठा और आकांक्षाओं की बलि चढ़ जाता है। बचपन मन ही मन रोता होगा, पर उसका रुदन माता-पिता को सुनाई नहीं देता, क्योंकि वे अपने बच्चों को सफलता दिलवाने के लिए स्वयं इस प्रक्रिया में इतने उलझ जाते हैं कि अपने बच्चे की तरफ ही उनका ध्यान नहीं जाता।Ó दर्शकों की वाहवाही जीतने के लिए व अपने शो की टीआरपी बढ़ाने के लिए आजकल रियलिटी शो में छोटे बच्चों को हथियार बनाकर बाजी खेली जा रही है। जिसमें शायद इन शो के निर्देशकों की तो चाँदी हो रही है पर दूसरी ओर जीवन की जंग में उन बच्चों की हार हो रही है, जिनमें कल तक जीत का जुनून था पर आज हार की मायूसी। टेलीविजन पर वर्तमान में दिखाए जाने वाले कई रियलिटी शो जैसे छोटे मियाँ, बूगी-वूगी, सारेगामा, अमूल स्टार वॉइस ऑफ इंडिया का केंद्र नन्हे बच्चे ही हैं, जो अपनी पढ़ाई व परिवार को छोड़कर इन कार्यक्रमों में शिरकत करने दूर-दूर से आते हैं व एक जोकर की तरह सबको हंसाते है। बच्चों के बारे में जैसा कि कहा जाता है कि वे तन और मन दोनों से ही कोमल होते हैं। एक छोटी सा आघात ही उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए काफी है। फिर मजा नहीं आया, तुमने ऐसा गाना क्यों चुना, आज तुम नहीं छाए ... वगैरह कमेंट तो आग में घी की तरह काम करते हैं। पढ़ाई की उम्र में एक ओर जहाँ ये मासूम बच्चे एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी बन जाते हैं वहीं पैसे व ख्याति का लालच इनसे इनका बचपन छीन लेता है व छोटी सी उम्र में ही बड़ा बना देता है। कई बार सुनने में आता है कि रियलिटी शो में हार के सदमे को न सह पाने के कारण किसी बच्चे ने आत्महत्या की कोशिश की तो किसी को अपने तनाव पर काबू पाने के लिए मनोचिकित्सक का सहारा लेना पड़ा। आखिरकार बच्चों के बीच टैलेंट की जंग के नाम पर जिंदगी से जंग कैसी?
सच तो यह भी है कि गत 5 वर्षों में चैनलों पर बच्चों के लिए भी रियलिटी शो के आयोजन किए गए, जिनमें देश के कुछ ही राज्यों से बच्चों ने भाग लिया है। महाराष्टï्र, आंध्रप्रदेश, जम्मू-कश्मीर सहित दक्षिण के तमाम राज्य जहां भाषाई भेदभाव अपेक्षाकृत अधिक है, के बच्चे इन शोज में नहीं आते। हिंदी कार्यक्रम उन्हें रास नहीं आता। हिंदी चैनलों पर जितने भी रिएल्टी और टेलेंट शो होते हैं उनमें बिहार, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम और उत्तरपूर्वी प्रदेशों से ही प्रतिभागी आए हैं। जबकि बॉलीवुड और हिंदी की दुनिया इससे कहीं अधिक है। कई कार्यक्रमों में तो विदेशों के भी प्रतिभागी आए हैं, जिनका सरोकार हिंदुस्तान से रहा है। लेकिन भाषा और क्षेत्रीयता के नाम पर हो-हल्ला करने वाले महाराष्टï्र और आंध्रपदेश सरीखें राज्यों के प्रतिभागी ने इसमें शिरकत नहंी की। कुछ बच्चों ने तो तमाम रूढि़वादी बंदिशों को तोड़कर भी अपने हुनर का मुजाहिरा किया है। हाल ही में राजस्थान के बीकानेर की प्रियंका माल्या ने अपने परिवार और गांव वालों से विरूद्घ गीत-संगीत के कार्यक्रम में भाग लिया। कार्यक्रम के जज अलका याज्ञनिक, अभिजीत और कैलाश खेर ने लोगों से विशेष रूप से उनके गांववालों से निवदेन किया कि एक प्रतिभा को केवल अपनी पुरातन विचारधारा के कारण मत कुचलिए। इसका असर हुआ और गांव के आधे से अधिक लोग प्रियंका के पक्ष में खड़े हुए। लिहाजा, छोटे उस्ताद जो आगे बढऩे का जज्बा रखते हैं तमाम रूढि़वादी बंदिशों को तोड़कर आगे बढ़ रहे हैं। निश्चित रूप से यह आने वाले कल के लिए एक सुनहरी किरण है।
हरेक सिक्के के दो पहलू होते हैं। सो, एक ओर बाल कलाकार नए आयाम गढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर वे कई परेशानियों में भी फंसते जा रह हैें। बच्चों के अभिभावक की अपेक्षा बढ़ती चली जाती है। रियलिटी शोज के औचित्य और अभिभावकों के बर्ताव पर सवाल खड़े करते हुए वरिष्ठ मनोविद डॉ। संदीप वोरा कहते हैं , 'सफलता का कोई शार्टकट नहीं होता। दरअसल, बच्चों के अभिभावक और रियलिटी शोज के आयोजक सेलिब्रिटी बनाने के नाम पर मासूम बच्चों को अपनी कमाई का हथियार बना रहे हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो बच्चे रियलिटी शो में चमकने के बाद भी आगे चलक र गुमनाम हो जाते हैं। छोटी उम्र में तनाव का अंजाम खौफनाक हो सकता है। इसका असर मानसिक विकास पर तो पड़ता ही है, पढ़ाई-लिखाई भी चौपट होने लगती है।Ó लेकिन डॉ. वोरा इस बात का भी हिमायत नहीं करते कि अपने बच्चों को सेलिब्रिटी बनाने का ख्वाब कोई पाले ही नहीं।Ó एक रियलिटी शो के होस्ट और भोजपुरी फिल्मों के स्टार रवि किशन भी मानते हैं कि कई बार तो बच्चों को 12 से 14 घंटे तक लगातर रियाज और फिर शूटिंग करनी पड़ती है। जाहिर है छोटे बच्चों के लिए यह बोझिल काम ही होगा। वह कहते हैं, 'आयोजकों को भी यह बात समझनी होगी। बच्चों के मूड का भी ध्यान रखना होगा। सबसे बड़ी चीज यह है कि शोज में शामिल होने वाले जज अगर बच्चों की तारीफ न कर सकें, तो कम से कम उनकी खिंचाई तो न करें।Ó
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