क्या हम 22 दिसंबर 1953 को गठित राज्य पुनर्गठन आयोग के सबक को भूल गए हैं? इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 30 सितंबर 1955 को सौंपी थी। इसके तीनों सदस्यों-जस्टिस फजे अली, हृदयनाथ कुंजरू और केएम पाणिक्कर की निष्पक्षता पर किसी को संदेह नहीं था। तब विपक्ष कमजोर था और कांग्रेस का वर्चस्व था। फिर भी आयोग की रिपोर्ट आने के बाद मुंबई, अहमदाबाद और कई अन्य स्थानों पर दंगे भड़के थे। हाल ही में दस नए प्रदेशों के लिए अचानक दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग के गठन की मांग उठी है। पहले से ही कई समस्याओं से जूझ रहे हम लोग क्या ऐसा विभाजनकारी कदम उठा सकते हैं? आखिर इसका फायदा भी क्या होगा?
समुचित विकास और बेहतर प्रशासन के लिए छोटे राज्यों के गठन की मांग और उस पर की जाने वाली राजनीति नई नहीं है। ऐसे में केंद्र सरकार के पास 10 नए प्रदेशों की मांग कोई आश्चर्य नहीं पैदा करता है। केंद्रीय गृहमंत्रालय का कहना है कि बिहार से मिथिलांचल, गुजरात से सौराष्ट्र और कर्नाटक से कूर्ग राज्य अलग बनाने सहित कम से कम दस नए प्रदेशों के गठन की मांग की गई है। मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि ये मांगें तेलंगाना राष्ट्र समिति और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा जैसे अन्य संगठनों और व्यक्तिगत लोगों से मिली हैं। अधिक मुखर संगठन टीआरएस ने आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र को मिलाकर तेलंगाना राज्य बनाने की मांग कुछ वर्ष पहले रखी थी। वहीं जीजेएम पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग और आसपास के क्षेत्रों को मिलाकर गोरखालैंड बनाने को दबाव डाल रहा है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बांदा चित्रकूट झांसी ललितपुर और सागर जिले को मिलाकर बुंदेलखंड राज्य बनाने की मांग लंबे समय से मंत्रालय के पास लंबित है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों को मिलाकर हरित प्रदेश या किसान प्रदेश के गठन को लेकर भी मांगें की गई हैं। पश्चिम बंगाल और असम के क्षेत्रों को मिलाकर वृहद कूच बिहार राज्य, महाराष्ट्र से विदर्भ राज्य, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों को मिलाकर भोजपुर राज्य बनाने की मांग भी की गई है। एक और मांग सबसे खुशहाल प्रदेश गुजरात से सौराष्ट्र राज्य अलग बनाने की है जो पिछले कई वर्ष से मंत्रालय के समक्ष लंबित है।
छोटे प्रदेशों के पैराकारों का मानना है कि जनसंख्या एवं क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत के प्रदेशों के आकारों में बड़ी विषमता है। एक तरफ़ बीस करोड़ से भी अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश जैसे भारी भरकम राज्य तो वहीं सिक्किम जैसे छोटे प्रदेश जिसकी जनसंख्या मात्र छ: लाख है। इसी तरह एक ओर राजस्थान जैसा लंबा चौडा राज्य जिसका क्षेत्रफल साढे तीन लाख वर्ग किमी है वहीं लक्षद्वीप मात्र 32 वर्ग किमी ही है । किंतु तथ्य बताते हैं कि छोटे प्रदेशों में विकास की दर कई गुना अधिक है। उदाहरण के लिए बिहार की प्रति व्यक्ति आय आज मात्र 3835 रु है जबकि हिमाचल जैसे छोटे राज्य में यही 18750 रु है । छोटी इकाइयों में कार्य क्षमता अधिक होती है । सिर्फ आर्थिक मामले में ही नहीं बल्कि शिक्षा,स्वास्थ्य जैसे विभिन्न मामलो में भी छोटे प्रदेश आगे हैं। जैसे कि शिक्षा के क्षेत्र में यूपी का देश में 31 वां स्थान है (साक्षरता दर -57 फीसदी) जबकि इसी से अलग होकर नवगठित हुआ उत्तराँचल प्रान्त शिक्षा के हिसाब से भारत में 14 वां स्थान रखता है (साक्षरता दर -72 फीसदी)।
बताया जाता है कि 1956 में, भारत में जिस तर्क पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया था उसका मुख्य आधार भाषा था। भाषा राज्यों के गठन का एक आधार तो हो सकती है लेकिन पूर्ण और तार्किक आधार नहीं। इसको हम इस तरह से समझ सकते हैं कि क्या सभी हिन्दी भाषी राज्यों को मिलाकर एक राज्य बना देना उचित होगा और क्या भाषा के आधार पर राज्य का विकास किया जा सकेगा? इसका जवाब कोई भी दे सकता है कि भाषा के आधार पर बनाए गए राज्यों का विकास समान योजनाओं के आधार पर नहीं किया जा सकता क्योंकि क्षेत्र विशेष की आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न होती हैं। बड़ा राज्य होने पर प्रशासनिक नियंत्रण भी चुस्त-दुरूस्त नहीं रह पाता और आम लोगों को यदि राजधानी पहुंचना हो या फिर हाईकोर्ट में गुहार लगानी हो तो यह काफीखर्चीला और लम्बी दूरी तय करने वाला साबित होता है।
जहां तक छोटे या बड़े राज्यों का प्रश्न है, तो छोटे राज्य के प्रशासन पर मुख्यमंत्री का पूरा नियन्त्रण रहता है। हरियाणा से लेकर हिमाचल और गुजरात तक इसके सटीक उदाहरण हैं। कुछ लोग तीनों नवनिर्मित राज्यों के उदाहरण देकर कहते हैं कि ये तीनों अपने खर्च के लिए केन्द्र पर निर्भर हैं; पर वे यह भूल जाते हैं कि इन तीनों की आर्थिक, भौगोलिक और शैक्षिक स्थिति क्या रही है? शासन पहले इनकी ओर कितना ध्यान देता था? उत्तरांचल के निर्माण से पूर्व कोई सरकारी कर्मचारी वहां जाना पसंद नहीं करता था। आम धारणा यह थी कि सजा के तौर पर उन्हें वहां भेजा जा रहा है। इसलिए वहां पहुंचते ही वह वापसी की जुगाड़ में लग जाता था। यही स्थिति झारखंड और छत्तीसगढ़ की भी थी। इन राज्यों में शिक्षा की स्थिति क्या थी, यह इस बात से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि 1997-98 तक सम्पूर्ण उत्तरकाशी जिले का एकमात्र डिग्री कालिज जिला केन्द्र पर ही था। लगभग ऐसी ही स्थिति चिकित्सालय की भी थी। यह सब तब हुआ, जब 50 साल तक तो यह क्षेत्र अपने मूल राज्य में ही थे। तब इनका विकास क्यों नहीं हुआ? वस्तुत: जब तक शासन-प्रशासन में समर्पित और सही सोच वाले लोग नहीं होंगे; तब तक विकास नहीं हो सकता। ऐसे लोग हों, तो भी छोटे राज्य में विकास तीव्रता से हो सकता है।
बिहार में मिथिलांचल राज्य आंदोलन से जुड़े ताराकांत झा का कहना है कि छोटे राज्य और बहुत छोटे राज्य में अंतर अवश्य करना होगा। यहां संकेत पूर्वोत्तर भारत के ऐसे राज्यों से है, जहां जनसंख्या कुछ लाख ही है। इनमें से कई का निर्माण कांग्रेस ने ईसाइयों को खुश करने के लिए किया था। कांग्रेस ने सदा भाषायी और जातीय-जनजातीय भेदों को बढ़ाया, जिससे उसे वोट मिल सके। इससे उसे कुछ समय के लिए तो लाभ हुआ; पर इससे देश के हर भाग में भाषा, बोली या जातीय आधार पर राज्य बनाने की मांग उठ खड़ी हुई। इसलिए राज्य निर्माण का आधार प्रशासनिक सुविधा होनी चाहिए। जब जनसंख्या लगातार बढ़ रही है, तो नये या छोटे राज्यों के निर्माण को कब तक टाला जा सकता है? इसलिए 'दूसरा राज्य पुनर्गठन आयोगÓ बनाकर व्यापक विचार-विमर्श प्रारम्भ करना चाहिए। अच्छा हो, इस बारे में कोई समान नीति बने। जैसे किसी भी राज्य की जनसंख्या 50 लाख से कम और दो-ढाई करोड़ से अधिक न हो। ऐसे ही हर 25 साल बाद राज्यों की पुनर्रचना की जाये।
वहीं, बुन्देलखंड एकीकृत पार्टी के संयोजक संजय पाण्डेय के अनुसार यदि भारत को वर्ष 2020 तक विकसित देश बनाना है तो भारत के राज्यों का एक बार पुनर्गठन जरूरी है । पाण्डेय का कहना है कि जब तक भारत में बुन्देलखंड और विदर्भ जैसे अति पिछड़े क्षेत्र बदहाल हैं (जहां विकास तो दूर लोग भुखमरी से जूझ रहे हैं) तब तक विकसित भारत की परिकल्पना भी बेमानी होगी, क्योंकि जिस तरह शरीर को तभी स्वस्थ कहा जा सकता है जब शरीर के सभी अंग स्वस्थ हों , ठीक उसी तरह भारत को तभी विकसित कहा जायेगा जब इसकी सीमा के भीतर आने वाले सभी भाग समृद्ध होंगे । उनके अनुसार बुन्देलखंड जैसे पिछड़े क्षेत्रों को नया राज्य बनाकर विकास के नए आयाम स्थापित किये जा सकते हैं।
पश्चिम उड़ीसा में उठ रहे कौशलाचंल से जुड़े आर।के. साहु कहते हैं कि अमेरिका पचास छोटे राज्यों का संघ है इसलिए उसकी सम्पन्नता आज जगजाहिर है। हमारे देश में कुछ लोग छोटे राज्यों का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि उनका मानना होता है कि इससे देश टुकड़ों में बंटता है,किन्तु उनकी यह धारणा विल्कुल गलत है । आज़ादी के समय भारत में 14 प्रदेश थे आज 35 हैं तो क्या इतने सारे नए प्रदेशों के बनने से देश खंडित हुआ नहीं । तब भी भारत अखंड था ,आज भी अखंड है और कुछ नए राज्य बने तो भी भारत अखंड ही रहेगा।
राजनीतिक हलकों में कहा जाता रहा है कि कांग्रेस भी छोटे राज्यों के गठन की समर्थक रही है। यह अलग बात है कि इस सैद्धांतिक सहमति के बावजूद कांग्रेस कभी भी किसी भी क्षेत्र को अलग से राज्य बनाने को लेकर आंदोलन वगैरह चलाने से परहेज ही करती रही है, बल्कि तेलंगाना और विदर्भ के मसले पर उसे ठंडा रुख अख्तियार करते भी देखा गया है।
सच तो यह भी है कि हर राज्य और क्षेत्र की भू राजनीतिक स्थितियां एक जैसी नहीं होतीं। फिर भी जैसे आंदोलन उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ को लेकर चले या तेलंगाना और विदर्भ को लेकर आज भी चल रहे हैं, वैसा कुछ पूर्वाचल, बुंदेलखंड और पश्चिमी उत्तरप्रदेश को लेकर नहीं दिखाई पड़ा। अजीत सिंह जरूर गाहे-बगाहे अपनी आवाज बुलंद करने की कोशिश करते रहे हैं, पर कभी उसे जनांदोलन की शक्ति नहीं दे पाए। इसलिए कभी-कभी इस बात को लेकर संदेह पैदा होता है कि उत्तरप्रदेश के विभाजन को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों और नेताओं की ओर से आने वाले वक्तव्यों को वास्तविक जनसमर्थन कितना प्राप्त है? बेहतर प्रशासन और जनाकांक्षाओं की समुचित देखभाल के लिए नि:संदेह छोटे राज्य एक बेहतर विकल्प हो सकते हैं। लेकिन जब ऐसे मुद्दे महज राजनीतिक शिगूफे में तब्दील होने लगते हैं, तो तय मानिए कि वे अपनी तार्किक नियति तक नहीं पहुंच सकते। बहरहाल, किसी भी राज्य ने अपनी सिफारिशें नहीं की हैं जो नया राज्य बनाने के लिए जरूरी है। पर मांगें उठना जारी है। मंत्रालय ने किसी भी नए राज्य के गठन को लेकर की गई मांग पर कोई फैसला नहीं किया है।
1 टिप्पणी:
bas isi ka intzar hai, lekin haqiqat hai ye,
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