मंगलवार, 25 अगस्त 2009

आस्था के प्रश्न

मत कुरेदो आस्था के प्रश्न को
जख्म हरे हैं अभी
कभी नहीं भर पाएंगे
सोचो,
ये आस्था के श्रोत कहाँ हैं
पूछो अपने विवेक से
सदियों से, कहानियों से
चली आ रही लोरियों से नहीं
पूछो अपने आप से
एक कुँवारी कन्या से
कैसे बन जाती है माँ
विषैले वृक्ष ने
कहाँ से मीठा फल पाया
कीचड़ और गुलाब का संबंध
मस्तिष्क के किस कोने में सही उतरता है
क्या हमारा नैतिक संस्कार
इसकी इजाजत देता है
करो मंथन और बनो विद्रोही
अपने अंदर पैदा करो एक आग
जो नापाक ग्रंथों को राख कर दे
जिनकी पृष्ठभूमि
नफरत और आतंक के
बूते तैयार की गई हो
विधर्मी का सर-कलम
या धार्मिक पराधीनता
वहशीपन की हद ही तो है
और इस घृणा का प्रचारक
किसी दरिंदे से कम नहीं
हवा में तैर रहा है प्रश्न
आखिर करोड़ो देवताओं को
किसने पैदा किया?
बाँटकर देखो
क्या प्रत्येक सर पर
एक देवता बैठता है
समान लहू वाले लोगों के अंदर
आस्था न पनपने देने का फरमान
किसने जारी किया?
जानता हँू
तुम्होर पास
उन प्रश्नों का जवाब
हो ही नहीं सकता
जिसके लिए
तर्क की तह में उतरना पड़े
आतंकित-आरोपित भावुकता ने
सदा से ही
अक्ल को बोझ माना है
तभी तो हम
दोजख के डर से
आरोपित सत्य के विरूद्घ
कुछ कहना-सुनना
बर्दाश्त ही न कर पाते
नियति की विडम्बना तो देखो
बुर्के में कैद
संकीर्ण विचारधारा की निगरानी में
हमें सदा से ही
विशाल फलक दिखाया जा रहा है
जहाँ शब्द अर्थहीन हैं
और
अभिव्यक्ति पर बंदिश लगी है।
- विपिन बादल