शनिवार, 22 अगस्त 2009

भाजपा में गर्मी का एहसास

शिमला की हसीन वादियां, जहां देश के अन्य हिस्सों के अपेक्षा सर्दी का एहसास होता है। शायद यही कारण था कि भाजपाइयों ने अपने अन्र्तमन की तपिश और एक-दूसरे के प्रति कटुभाव को समाप्त करने के लिए चिंतन बैठक का आयोजन यहां किया। जब बात 'अपनोंÓ के बीच 'अपनोंÓ के छल-छद्मों की होती है खुले मैदान में नहीं होती। चारदीवारियों के बीच होती है। तभी तो शिमला का कोई सभागार नहीं लिया गया और न ही बंगलुरू की तर्ज पर नए स्थल का पंडालों के सहारे निर्माण किया गया। अभूतपूृर्व सुरक्षा और गोपनीयता को ध्यान में रखकर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने कई होटल का बंदोबस्त किया था। तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद भाजपाई अपने अंर्तमन की ज्वाला को शांत नहीं कर पाए। तीन दिनों के चिंतन बैठक के बाद भी भाजपा ने एक बार फिर अपने सामने मौजूद असल सवालों से आंख चुराने की कोशिश की। जिन्ना प्रकरण को लेकर पार्टी अलाकमान ने जसवंत को निकालने में जहां एक दिन का भी समय नहीं लिया, वहीं पार्टी के आंतरिक ताने-बाने को एक बार फिर समय के हवाले कर दिया।
यूं तो शिमला पहुंचते ही शीर्ष भाजपइयों में एकमत हो गई थी कि जसवंत सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए, जिसके केंद्र में मुरली मनोहर जोशी, अरूण जेटली और सुषमा स््रवराज माने जाते हैं। अरूण जेटली तो काफी समय से जसवंत सिंह से खुन्नस खाए हुए थे।पार्टी के अंदर नूराकुश्ती चल ही रही थी कि कि सरसंघचालक मोहन भागवत की ओर से पहली बार सार्वजनिक रूप से दी गई नसीहत और हार का पता लगाने के लिए पार्टी उपाध्यक्ष बाल आप्टे की अगुवाई बनाई समिति की रिपोर्ट के मद्देनजर चिंतन से पहले ही जसवंत सिंह पर कार्रवाई करने का मन बना लिया गया था , तभी तो राजनाथ सिंह ने कहा भी कि मैं जसवंत सिंह को पहले ही बताना चाहते था कि वह चिंतन बैठक के लिए शिमला न पहुंचे लेकिन तब तक वह निकल चुके थे। दरअसल , जसवंत सिंह को भाजपा से निकालकर पार्टी एक तीर से कई शिकार करना चाहती है। पार्टी ने अपने एक दिग्गज नेता को निकालकर अनुशासन तोडऩे वाले बाकी लोगों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि अनुशासन का चाबुक किसी पर भी चल सकता है। दूसरी तरफ पार्टी यह भी जानती है कि जसवंत को निकाले जाने से उसके ऊपर कोई खास असर नहीं पडऩे वाला है। जसवंत लंबे समय से राज्यसभा की ही राजनीति करते रहे हैं और उनका कोई खास जनाधार भी नहीं है।
वैसे ऐसा लगता है कि समय ने अपना चक्र पूरा कर लिया है। जिन्ना पर टिप्पणी करने से पार्टी के सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी के अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा था और मुंबई में हुए पार्टी के सिल्वर जुबली समारोह में राजनाथ सिंह की ताजपोशी हुई थी। अब जब राजनाथ सिंह का पार्टी के अध्यक्ष पद का कार्यकाल पूरा होने को है, जसवंत सिंह की किताब- 'जिन्ना : भारत, विभाजन, आजादी' से निकलकर जिन्ना का जिन्न फिर आ खड़ा हुआ है। राजनीतिक पर्यवेक्षक, रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और वित्त मंत्री बनाने के बाद जसवंत सिंह को बेआबरू करके पार्टी से निकाल दिया। अभी देखना यह भी बाकी है कि जसवंत को पार्टी से निकालने के कदम का असर राजस्थान में क्या होता है।
बहरहाल, लोकसभा चुनाव में हार के कारणों पर जब पार्टी में बहस की मांग उठी तो इसे टाल दिया गया। कहा गया कि इस पर अगस्त में चिंतन बैठक में चर्चा होगी। लेकिन इस अवसर पर भी पार्टी ने उन मुद्दों से कतराना बेहतर समझा जिन पर विचार के लिए बैठक बुलाई गई थी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इसकी वजह यह है कि जसवंत सिंह की कितबा पर उठे विवाद ने पार्टी को एह असहज स्थिति में ला खड़ा किया और ऐसे में बैठक का एजेंडा बदल गया? मगर यह किताब इन दिनों न आई होती तब भी बैठक का रूख यही होता। दरअसल, लोकसभा चुनाव में पराजय के कारणों की पड़ताल के लिए बाल आप्टे की अध्यक्षता में जो समिति बनाई गई थी उसकी रिपोर्ट भाजपा नेताओं के लिए बेहद असुविधाजनक है। सच तो यह है कि इस रिपोर्ट में हार के लिए नेताओं की आपसी खींचतान और धड़ेबाजी की को जिम्मेदार ठहराया गया है। राजनीतिक हलकों में जसवंत सिंह के निष्कासन को भी इसी रिपोर्ट से जोड़कर देखा जा रहा है। तभी तो भाजपा की चिंतन बैठक में उस आत्मचिंतन की धुंधली झलक नजर आई है, जिसकी मांग जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे नेता कर रहे थे। सच का सामना करने की इस पहली ऑफिशल कोशिश का नाम है- 'आप्टे रिपोर्ट।Ó तभी तो लोकसभा चुनाव में हार की वजहों की जांच के लिए वरिष्ठ नेता बाल आप्टे की अगुआई में बनी कमिटी की रिपोर्ट शिमला में गुपचुप तरीके से बांटी गई। गौरतलब है कि अरुण जेटली ऐसी कमिटी के होने से ही इनकार करते हैं। बहरहाल इस रिपोर्ट में कोई नतीजा निकालने से बचा गया है और कुछ संभावित वजहें पेश की हैं, जिन पर चर्चा होनी चाहिए।