आम धारणा है कि एक झूठ को बार-बार पूरे शिद्दत के साथ बोला जाए तो वह सच जैसा लगने लगता है और संभवत: इसी धारणा पर मुंबई हमले के आरोपी अजमल कसाब चल रहा था। फिर अचानक एक दिन उसने वह सच कबूला जो वाकई सच था। तभी तो कहा जाता है कि सत्य प्रताडि़त हो सकता है पराजित नहीं। इस प्रकरण में तो सौ फीसदी सही है। ऐसे में सवाल उठता है कि महीनों तक झूठ बोलने वाला कसाब अचानक सच बोलते ही अपने लिए 'फांसीÓ की मांग क्यों करने लगा? जो अपने मुल्क से हिंदुस्तान आया था लोगों की जान लेने, आज वह अपने प्राण क्यों गंवाना चाहता है? जानकार कहते हैं कसाब 'जन्नतÓ के लिए फांसी के फंदे पर झूलना चाहता है।
अद्र्घसत्य भी तो यही है। पाकिस्तान के कुछ मदरसों में जहां आतंकवादियों को पहली शिक्षा दी जाती है उसके पाठï्यक्रम में पढ़ाया जाता है कि जिहाद करने वालों को जन्नत नसीब होती है। इस पाठयक्रम का सार इस प्रकार है,'हमारा धर्म दुनिया का सबसे अच्छा धर्म है, हमारे मुस्लिम अफगानिस्तान पर रूसी कम्युनिस्टों ने कब्जा कर लिया है, ये कम्युनिस्ट अल्लाह में विस्वास नहीं करते, इसलिए वे काफिर हैं। इन काफिरों को मारना जिहाद कहा जाता है। इस जिहाद में कुर्बानी देने वाला सीधे जन्नत जाएगा, जहां 72 कुंवारी हूरें उसका इंतजार कर रही होंगी।Ó
तभी तो मुंबई में 26/11 को हुए आतंकवादी हमलों के केस में मोहम्मद अजमल आमिर कसाब ने अपना जुर्म स्पेशल कोर्ट में कबूल किया। उसने जज से मुकदमे को जल्द खत्म करने की गुजारिश की। इससे पहले कसाब जुर्म कबूल करने से इनकार कर चुका था और खुद को नाबालिग भी बता चुका था। खुद कसाब के वकील अब्बास काजमी ने अचानक आए इस बदलाव पर हैरत जाहिर करते हुए कहा, 'मुझे आज से पहले इसका पता नहीं था।Ó वहीं सरकारी वकील उज्ज्वल निकम की त्वरित प्रतिक्रिया थी, ' यह कम सजा पाने के लिए कसाब की नई तिकड़म है। Ó काबिलेगौर है कि मुकदमे के 65 वें दिन जब इस केस में 135 वां गवाह बयान देने के लिए सामने आया , तभी कसाब ने अपने वकील से 30 सेकंड बात की। फिर वकील ने कोर्ट में बताया कि कसाब कुछ कबूल करना चाहता है। इजाजत मिलने पर कसाब ने जज को बताया कि वह कैसे करांची से मुंबई आया , छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और कामा अस्पताल पर हमले किए। उसने तीन पुलिसवालों की हत्या करने और टैक्सी में बम प्लांट करने की बात भी मानी। कसाब ने उन लोगों के नाम भी लिए , जो अटैक को पाकिस्तान से हैंडल कर रहे थे। इनमें अबू हमजा , अबू जिंदाल , अबू काफा और जकी - उर - रहमान लखवी हैं। कसाब के मुताबिक , लखवी ने ही उन्हें कराची से बोट पर विदा किया था और वही हमले का मास्टरमाइंड था।Ó बकौल सरकारी वकील उज्ज्वल निकम, 'कसाब ने लश्कर - ए - तैबा के संस्थापक हाफिज मोहम्मद सईद का नाम एक बार भी नहीं लिया , जबकि इससे पहले वह सईद का पूरा ब्यौरा मैजिस्ट्रेट को बता चुका है। जिंदाल का नाम वह काफी सोच - समझ कर ले रहा है।Ó
गौर करने योग्य तथ्य यह भी है कि स्पेशल कोर्ट के जज एम । एल . ताहिलयानी ने कसाब से पूछा , ' आज अचानक आपने क्यों कबूल किया ? जब पहले चार्ज लगाए गए थे तब क्यों नहीं किया ?Ó इस पर कसाब ने कहा , ' पहले पाकिस्तान ने यह नहीं माना था कि मैं उनका हूं। आज मान लिया है , इसलिए मैं बयान दे रहा हूं।Ó गौरतलब है कि पाकिस्तान में फेडरल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी ने रावलपिंडी की अदालत में जो चार्जशीट दाखिल की है , उसमें कसाब को पाकिस्तानी नागरिक माना गया है।
कुछ इसी प्रकार का मामला संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरू की है जो भारतीय कानून की नजरों में अपराधी है और न्यायालय उसे फांसी की सजा मुकर्रर कर चुका है। लेकिन भारतीय सरकारी-राजनीतिक व्यवस्था के चंद छिद्रों के कारण उसका मामला अधर में लटका हुआ है। जबकि हिंदुस्तान के अतिसुरक्षित तिहाड़ जेल में हाईप्रोफाइल कैदी के रूप में जीवनयापन कर रहा है अफजल स्वयं कई बार मांग कर चुका है कि उसे जल्द से जल्द फांसी दे दी जाए। लेकिन, हमारी व्यवस्था है कि हम फांसी नहीं दे रहे? सुरक्षाबलों ने कई साथियों की प्राण गंवाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन किया और न्यायपालिका अपना काम कर चुकी है, बावजूद सियासत पर कुण्डली मारकर बैठे चंद लोग अपने कौन सा स्वार्थ देख रहे हैं, कहा नहीं जा सकता?
दरअसल, बार-बार हो रहे आतंकी हमलों ने जिन जुमलों को जनता की जुबान पर चढ़ा दिया है उनमें से एक है जेहाद। जानकारों की मानें तो कुरआन में यह शब्द कहीं नहीं है। इसे गढऩे का श्रेय अमरीकी प्रशासन को है। डब्ल्यूटीसी टावर्स पर हमले, जिसमें तीन हजार से ज्यादा बेकसूरों ने अपनी जान गंवाई थी, के बाद इस शब्द का मीडिया में जमकर इस्तेमाल शुरू हो गया। जेहाद और काफिर शब्दों को मीडिया ने नए अर्थ दे दिए। धीरे-धीरे ये शब्द पहले आतंकवादियों से और बाद में सभी मुसलमानों से जुड़ गए। सच यह है कि कोई जन्म से आतंकवादी नहीं होता। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक कारण उसे आतंकवादी बनाते हैं। अल् कायदा का गठन आईएसआई ने सीआईए के इशारे पर करवाया था। अल् कायदा ने बडी़ संख्या में मदरसों की स्थापना की। इनमें पढऩे वाले मुस्लिम युवकों के दिमाग में यह भर दिया गया कि (काफिरों) को मारना (जिहाद) है। इस सबका उद्देश्य था अल् कायदा के नेतृत्व में मुस्लिम लडा़कों की ऐसी फौज तैयार करना जो अफगानिस्तान से रूसी सेनाओं को खदेड़ सके। कुर्बानी देने वाला सीधे जन्नत जाएगा जहां 72 कुंवारी हूरें उसका इंतजार कर रही होंगी। इस प्रकार एक राजनैतिक लड़ाई पर धर्म का मुल्लमा चढ़ा दिया गया। अल कायदा के लड़ाके अफगानिस्तान की लड़ाई खत्म होने के बाद दक्षिण एशिया में आतंक फैलाने में जुट गए। इस तरह अपने निहित राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए अमरीका ने एक ऐसे भस्मासुर का निर्माण कर लिया जिसकी चपेट में बहुत कुछ भस्महोनेवाला था। कुरान में (जिहाद) का अर्थ होता है बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्ष करना, अन्याय के खिलाफ लडऩा लेकिन जिहाद के नाम पर अमरीका ने विश्व को आतंकवाद का उपहार दिया है। यह सही है कि भारत जैसे कई देशों की इस्लामिक संस्थाएं, शिक्षण-संस्थान और उलेमा तथा विद्वान यह प्रचार कर रहे हैं कि आतंकवादी जिस जेहाद शब्द के इस्तेमाल के साथ निर्दोष लोगों का कत्ल कर रहे हैं, इस्लाम में उसको पूरी तरह ख़ारिज किया गया है। इन संस्थाओं ने इस मुत्तलिक बाकायदा मुहिम संचालित कर रखी है। लेकिन आतंकवादियों का 'जेहादÓ दिन पर दिन और तीखा तथा मारक होता जा रहा है। उसका एक कारण यह भी है कि उलेमाओं की बात समझने और जेहाद का सही अर्थ खोजने के लिए एक सीमा तक धैर्य और समझदारी की ज़रूरत है, वहीं आतंकवादियों का 'जेहादÓ किसी उत्तेजक नारे की तरह 'थ्रिलÓ पैदा करता है। यही कारण है कि जेहाद के खिलाफ जेहाद का आंदोलन बहुत हद तक असरकारक सिद्ध नहीं हो रहा है। इसके अलावा आतंकवाद को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मिलने वाली राजनीतिक मदद और उप्रेरणा से भी इन्कार नहीं किया जा सकता जिसके चलते धर्मगुरुओं की एक फौज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इन आतंकवादियों की हिमायत में लगी है। 'जेहादÓ शब्द सुनते ही लोगों के दिमाग पर तुरंत युद्ध की तस्वीर खिंचने लगती है, लेकिन इस्लाम के नजरिए से यह सही मतलब नहीं है। जेहाद सिर्फ लड़ाई नहीं, बल्कि ऐसे नियमों और बुराइयों से जंग है, जो इंसान और इंसानियत के खिलाफ हों। इस्लाम में इंसानियत के दुश्मनों के खिलाफ लड़ी गई लड़ाइयों को ही जेहाद कहा गया है। किसी के खिलाफ बिना किसी मुद्दे के जंग का ऐलान दरअसल जेहाद नहीं है। मौलाना मोहम्मद अबुल हसन अशरफ मियां कहते हैं, 'इस्लाम और इंसानियत के खिलाफ काम करने वालों का सामाजिक बहिष्कार भी जेहाद है। केवल लड़ाई से बुराइयों पर जीत नहीं होती। बुराई करने वाले या उसे बढ़ावा देने वाले लोगों को समाज से दूर करना भी जेहाद है। लोगों को सच्चाई और चैन व अमन के राह पर चलवाने के लिए किया गया हर काम जेहाद है।Ó
केवल यह कहकर छुटकारा नहीं पाया जा सकता कि आतंकवादी हिंसा सिर्फ कुछ सिरफिरे या बहके हुए लोगों का काम है। पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर हो रही आतंकवादी गतिविधियां इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि इस्लाम की पूरी विचारधारा में कहीं ऐसा कुछ जरूर है जिसे इस तरह की हिंसा के लिए आसानी से आधार बनाया जा सकता है। चार दिन की चांदनी की तरह चार दिन की शांति और फिर धमाका! यह हिंदुस्तान की नियति बन गई है। क्या देश का कोई हिस्सा ऐसा बचा है जिसके बारे में कहा जा सके कि यहां आतंकवाद के नापाक कदम नहीं पड़ सकते। सच यही है कि कहीं भी कभी भी आतंकवादी हमले हो सकते हैं और दुखद यह है कि ऐसी प्राय: हर घटना के तार इस्लामी मान्यताओं से जुड़ जाते हैं या जोड़ दिए जाते हैं।
ऐसे में सवाल सुरसा की भांति मुंह खोले खड़ा है कि अफजल और कसाब को फांसी मिलेगी या नहीं? सच तो यह भी है कि अफजल की फांसी को आजीवन कारावास में बदलने से दुनिया में कोई नहीं मानेगा कि किन्हीं शांतिवादी या गांधीवादी मूल्यों की विजय हुई है। यह तो सबसे भयावह अपराधियों के पैरोकारों के दबाव में अपनी ही न्याय प्रक्रिया का उपहास करना है। इसलिए इससे केवल यही माना जाएगा कि इसलामी आतंकवाद, उग्रता और ब्लैकमेल के समक्ष टिकने का साहस और आत्मबल भारत में नहीं है। दुनिया भर के इसलामी जेहादी इससे यह भांप लेगे कि किस हद तक भारत भूमि पर उनका आदेश, चाहे अप्रत्यक्ष ही सही चलने लगा है। यह हमारे देश और जनगण के भविष्य के लिए कितनी चिंताजनक बात होगी, उसे समझने का प्रयास करना चाहिए।
गुरुवार, 6 अगस्त 2009
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2 टिप्पणियां:
भारतीय राजनिति बहुत कमजोर है....इसी का नतीजा है जो यहाँ भ्रष्टाचार व जुल्म बढ़ रहे हैं.......एक ओर सरकारी तंत्र का दबाव तो दूसरी और लटकते मामले...आम इन्सानों को न्याय के प्रति हतास ही कर रहे हैं।
aapkee chintaa jaayaz hai.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
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