हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक चिंतक अनिल चमडिय़ा, जो कुछ ही माह पूर्व वर्धा गए थे, पत्रकारिता पढ़ाने। दो दशक से अधिक का उनका जनपक्षीय अनुभव, जिसमें जनसरोकार कूट-कूट कर भरा हुआ था, चंद महीनों में छीजता दीख रहा है। ऐसा नहीं है कि यह केवल मैं कहने की हिमाकत कर रहा हँू, बल्कि मुझ जैसे दर्जनों लोग कह रहे हैं, जो उनके लेखों के माध्यम से उनको जानता-बूझता है। 'भड़ासÓ पर स्वयं उन्होंने ही उदघोष किया है कि वर्धा से केवल और केवल इसी कारण उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया गया कि वे दलित हैं। सवर्ण लोगों ने उन्हें प्रपंच के बल पर बाहर का रास्ता दिखाया। गलत है। सरासर गलत। आखिर एक दलित को बाहर का रास्ता क्यों दिखाया गया? सवाल अहम है।
खबर तब बनती है जब किसी को बाहर का रास्ता दिखाया दिया जाता है, क्योंकि वह दलित है। उस वक्त नहीं बनती जब उसे किसी संस्थान में नौकरी पर रखी जाती है। दलित पैरोकार चूं तक नहीं करते। भला, वर्धा जैसे प्रतिष्ठित संस्थान ने ऐसा क्यों किया? वह भी एक दलित के संग?
गत दिनों मैं दिल्ली के अंबेडकर भवन में आयोजित एक संगोष्ठि में गया। गया क्या बुलाया गया। कुछेक मित्रों द्वारा। मंचासीन तमाम लोगों ने इस बात को लेकर जमकर नारेबाजी की और कराई कि वह दलित हैं, इसी कारण उनके साथ भेदभाव हो रहा है। सरकार ने पिछले छह दशकों में उनके साथ कुछ विशेष नहीं किया। न तो सामाजिक स्तर पर और न ही आर्थिक स्तर। केवल आरक्षण का झुनझुना थमा दिया गया। बजाते रहो। वह भी चुनावी मौसम में। लेकिन, जो लोग मंचासीन थे, उसमें कुछ सांसद तो कुछ वरिष्ठ नौकरशाह, जिनको भारत सरकार की ओर से लालबत्ती मिली हुई है, और वह उसी से संगोष्ठि स्थल पर आए थे, ने अपने गिरेबां में एक बार भी नहीं झांका कि उन्होंने दलित के नाम पर देश और समाज से कितना लिया और बदले में देश की तो छोडि़ए , अपने समाज को ही कितना दिया? यदि वास्तव में उन्होंने दिया होता तो डा। भीमराव अंबेडकर के गुजर जाने के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी केवल और केवल उनके नाम पर ही आयोजन नहीं कराए जाते? अंबेडकर भवन के पुस्तकालय में पुस्तकें धूल फांकती दिखी। जैसे कोई उसका सही से रखवार नहीं हो? हद तो तब हो गई जब दलित आंदोलनों की मीडिया में जमकर आवाज उठाने वाले पूर्व नौकरशाह उदित राज केवल इस कारण बैरंग लौट गए कि बैनरों और पर्चें पर उनका नाम नहीं था। क्या कहेंगे इसे आप?
दलित समाज के प्रति उनकी जबावदेही? स्वांग? प्रपंच? या कुछ और?
इसी प्रकार का व्यक्तिगत अनुभव दलित साहित्य शोध संस्थान के एक सज्जन से जुड़ा हुआ है। सिविल लाईंस इलाके में उनके कार्यालय में केवल और केवल साहित्य में दलित को ढंूढ़ा जा रहा है। जब ऐसे लोगों साहित्य में दलित और सवर्ण का अलगाव करेंगे तो उस समाज का क्या होगा? यदि साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है तो उस समाज का क्या होगा? कुछेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों की दुकान तो केवल दलित चिंतन और विमर्श के नाम पर ही चलती है। जब चिंतन और विमर्श भी दलित के फर्में में फीट होने लगे तो भगवान ही मालिक?
ेऐसा नहीं है कि सवर्ण का प्रतिनिधि ये कहता है कि अमुक व्यक्ति दलित है? अमुक साहित्य दलित साहित्य है? उसका चिंतन दलित चिंतन है? आदि-आदि... ये तमाम बातें दलित समाज के सरोकारी व्यक्ति ही कहते हैं। सरकार जब उनके बातों को नहीं मानती, तो दलित संगठन बनाकर आंदोलन करते हैं। साहित्य की पुस्तकें यदि नहीं बिकती हो तो कह देंगे कि यह दलित साहित्य है, कम से कम दलित के नाम पर दुकान चलाने वाले दुकानदार तो खरीद ही लेंगे? इन्हीं दुकानदारों की कारामात है कि हिंदी साहित्य के नक्षत्र प्रेमचंद की किताबों को सरेआम जलाते हैं।
खैर, इसी प्रकार का एहसास अनिल चमडिय़ा भी करा जाते हैं। हालंाकि व्यक्तिगत स्तर पर जब मैं उनसे पहली बार मिला था, तब ऐसा नहीं लगा था। दिल्ली के ही कॉन्सट्यूशनल क्लब में उन्होंने प्रेस वार्ता की थी, 'गोहाना कांडÓ के समय। जबरदस्त विचार दिए थे। सामाजिक सरोकार से लैस एक जीवट इनसान उस वक्त लगे थे। उसके बाद भी उनके कई लेखों ने उद्वेलित किया था, मानवीय सरोकारों के प्रति। अचानक, उनका भड़ास पर इस कदर पढऩा, अखर सा गया।
समझ में नहीं आता एक के एक चिंतक, सामाजिक आंदोलनकर्ता जब अन्यान्य कारणों से अपने को तथाकथित लक्ष्य संधान में असफल पाता है तो बड़ी सहजता से कह जाता है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वह दलित समुदाय से है। आखिर, विभिन्न धर्म-जाति वाले इस देश की यही नियति बन चुकी है? कुछ समय पूर्व सिने अभिनेता इमरान हाशमी ने भी तो यही कहा था कि मुझे मकान इसलिए नहीं मिला क्योंकि मैं मुसलमान हॅंू। कष्टï होता है यह सब सुनकर-पढ़कर। शायद इसलिए कि मैं न तो दलित हँू और न ही मुसलमान ?
5 टिप्पणियां:
बंधु दलित शब्द का गान सत्ता के व्यापार की धुरी है सही कहा आपने
khud ko dalit kahakar fayda uthane wale dheron hai.ab correpati mayavati bhi khud ko dalit bata nirih bana leti hai to desh ke dusare logo ki kya baat ki jaye. apke lekh me sawarn hone ka dard jhalakta hai jo hai sawarn ka dard hai
sab paisha ka khel hain gur. jante hain ki ek profesher ki salery kitni hoti hain.
anil ji delhi chor ka eshi lalach me gye. ab koe jansarokaro se bharpur ho to kaya usaki buniyadi yogyta ki andheki kar di jaye.
jar sochiye aap 8th pass hoto aur av jitni yogyata hain to kaya aapko achhe media house me job mil jati.
sipak bat hain yaar .
anil ji k pas degree nahi thi. esh desh me log bina digree cm pm ban sakte hian profeshar nahi.
आप दलित के पीछे क्यों पड़े हैं भाई, आज आप चले जाएं जहां मात्र पंडित पंडित ही मिलेंगे आपसे हमने तो कभी नहीं कुछ कहां। बोर्ड ऑफिस का गठन जब हुआ था तब लाला चैयरमैन बना आपके स्टेट का। उसके बाद दो पीढ़ी तक उनकी की नियुक्ति हुई। कोई कुछ नहीं कहा। आप शुक्ला जी का नाम सुने होंगे नहीं सुना तो सुन लें अब तक के बीपीएससी के सबसे अच्छे चेयरमैन माने जाते हैं। लेकिन उनके समय का नियुक्ति का लिस्ट मंगा कर देख लीजिए। कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इंटरमीडियट के बारे में भी कुछ कहना पड़ेगा क्या।
- manvendra
सही है...
एक टिप्पणी भेजें