वर्तमान में भाजपा का किला दरका हुआ है और ऐसे में कमान सौंप दी गई है युवा नेता नितिन गडकरी को। गडकरी का अर्थ होता है 'किले की रक्षा करने वाला।Ó तो सवाल उठता है कि गडकरी अपने नाम को कितना सार्थक कर पाएंगे? प्रश्न यह है कि आडवाणी या राजनाथ सिंह के जाने के बाद भाजपा में कोई खास परिवर्तन आ पाएगा? क्या पार्टी के भीतर गहरे तक पैठ जमा चुकी कलह पर विराम लग सकेगा? क्या पार्टी व्यक्ति में बदलाव के साथ-साथ अपने विचारों को भी बदल पाएगी? वैसे तो ऐसा कुछ होगा नहीं, हां, अगर होता है, तो इसे महज चमत्कार ही मानिएगा।
देश की राजधानी नई दिल्ली में भाजपा के नवनियुक्त राष्टï्रीय अध्यक्ष निनित गडकरी ने पार्टी मुख्यालय में अपने पहले ही औपचारिक संबोधन में कहा कि अल्पसंख्यकों और दलितों तक पहुंचकर पार्टी का संगठनात्मक विस्तार करना उनकी पहली प्राथमिकता होगी। पार्टी की विचारधारा का आधार राष्ट्रवाद था, है और रहेगा। अनुशासन, दृढ़ संकल्प, परस्पर विश्वास एवं सम्मान यह हमारी कार्यपद्धति की आधारशिला होगी। साथ में ही उन्होंने कह डाला कि अगले तीन वर्षो में मुझे पार्टी का संगठनात्मक विस्तार करना है। हमें पार्टी का वोट बैंक बढ़ाना है। हम अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों, असंगठित श्रमिकों तक पहुंच बनाएंगे और अल्पसंख्कों के लिए और अधिक काम करेंगे।
साथ ही संकेत मिलने लगा है कि गडकरी विपक्ष को एकजुट करने में अभी से ही जुट गए हैं। झारखण्ड को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। साथ ही पार्टी के अंदर भी जिन नेताओं को हाशिए पर डाल दिया गया था, उनकी भी अब पूछ होने के संकेत मिले हैं। ऐसे हालात में सत्तारूढ़ कांग्रेसियों के लिए परेशानी खड़ी हो सकती है।
देखा जाए तो किसी राजनीतिक दल के मुखिया होने के लिहाज से उनका वक्तव्य जरूरी भी था और उचित भी। लेकिन सियासी गलियारों सहित तमाम राजनीतिक प्रेक्षकों के जेहन में एक सवाल यह भी है कि क्या विभिन्न कुनबों में हो रहे घात-प्रतिघात से क्या गडकरी पार्टी को 'पार्टी विद ए डिफरेंसÓ के तहत आगे बढ़ा पाएंगे? नाम के निहितार्थ जो कि एक किले की रक्षा करने वाला होता है, क्या पार्टी को तमाम झंझावातों से निकालते हुए मुकाम तक ले जाने में समर्थ होंगे।
सवाल यह भी अहम है कि क्या नितिन गडकरी दिल्ली की कथित भाजपा चौकड़ी की मौजूदगी में पार्टी को प्रभावी नेतृत्व दे पाएंगे? क्या दिल्ली का समर्थन-सहयोग गडकरी को मिल पाएगा? ये सवाल हवा में उछाले जा रहे हैं। कुछ लोग अचंभित है कि 'दिल्ली संस्कृतिÓ से दूर 'झुनका भाकरÓ संस्कृति वाले गडकरी राजधानी की चिकनी सड़कों पर पैर जमाएंगे तो कैसे? मगर, गडकरी को जानने वाले कहते हैं कि गडकरी जरूरत पडऩे पर कारपोरेट संस्कृति और आवश्यकतानुसार गली-कूचों की संस्कृति को न केवल सरलतापूर्वक अपना लेते हैं बल्कि इनकी वेश-भूषा में सफल नेतृत्व भी भली-भांति कर लेते हैं। गडकरी राजनीति के लिए नहीं, बल्कि विकास के लिए राजनीति करने वाले राजनीतिक हैं।
राजनीति में व्यक्ति नेता तभी तक रहता है, जब तक समय उसका साथ देता है। कुछ ऐसे ही हालात भारतीय जनता पार्टी के हैं, जहां आखिरकार लालकृष्ण आडवाणी युग का अंत हो गया है। आडवाणी अब से भाजपा के लिए कुछ नहीं हैं; ठीक अटल बिहारी वाजपेयी की तरह। पार्टी के भीतर-बाहर अब लालकृष्ण आडवाणी का नाम कम ही सुना-बोला जाएगा। गडकरी को भाजपा के कार्यकर्ताओं को संगठन की सर्वोच्चता और महिमा के प्रति आश्वस्त करते हुए नए मुहावरे और यौवन की संघर्षगामी दिशा देनी होगी। वे उन राज्यों व क्षेत्रों में जहां पहले जनसंघ और अब भाजपा का गहरा प्रभाव रहा है, पार्टी के राजनीतिक-सांगठनिक क्षरण को भी रोकना चाहेंगे और कर्नाटक यदि दक्षिण विजय के लिए भाजपा का पहला पड़ाव बना है, तो नए कदम आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल की ओर कितना बढ़ पाएंगे, यह देखना होगा।
सियासी हलकों में तो यह भी कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव में हार के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा की खामियां दूर करने का जो 'भागवत एजेंडाÓ बनाया था, नए अध्यक्ष नितिन गडकरी उसे लागू करने में जुट गए हैं। संघ की जन्म स्थली नागपुर में संघ के अनुशासन में पले बढ़े गडकरी ने पार्टी में नई 'कार्य संस्कृतिÓ लागू करने का संकेत दे दिया है । इस कार्य संस्कृति में चाटुकार को जगह नहीं मिलेगी। नई टीम में उन्हें जगह मिलेगी जो ड्राइंग रूम से राजनीति करने के बजाय आम आदमी के बीच जाएंगे।
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