सन् 1940 से 1950 तक
इसी दौरान मैं इस नश्वर संसार में अवतरित हुआ था। बुद्धिजीवी लोग मेरे अवतरित शब्द पर कुछ प्रश्न खड़े सकते हैं और मुझ पर देवत्व का भ्रम पाले रखने का इल्जाम भी लगा सकते हैं जबकि मैं एक सामान्य जन से बढ़कर कुछ भी नहीं हूं। मेरा बचपन किसी भी मायने में विशिष्ट नहीं था... एक सीधी-सादी जिंदगी, बिना किसी अलंकार के कटता बचपन। एक साधारण किसान का साधारण बेटा। मां विशुद्ध ग्रामीण घरेलू महिला जिसका कार्य पति की सेवा करना, घरेलू कार्यों को संपन्न करने में निरंतरता रखना एवं मेरी देखभाल करने तक ही सीमित थी। मां मुझे अकसर गोद में लेती और बड़े सुर में कोई धार्मिक गीत-गाना शुरू कर देती जिसमें मुझे अवतार स्थापित करती और खुद राजसी भाव का भ्रम पालने का प्रयास करती।
सन् 1951 से 1960 तक
भारत के अधिकांश लड़कों की तरह मेरी पढ़ाई-लिखाई हुई। एक टिपिकल हिंदुस्तानी छात्र जो आज की तरह अंग्रेज बनकर स्कूल नहीं जाता था, जिसे संस्कृत में अच्छे अंक मिलने पर शाबाशी मिलती थी, जो अच्छा पत्र या निबंध लिखता तो श्रेष्ठ छात्रों की श्रेणी में स्थान पाता। पढ़ाई में मैं हमेशा अव्वल रहा लेकिन मेरे माता-पिता ने कभी मेरे प्रथम आने पर अपने दोस्तों को 'कॉकटेलÓ पार्टी पर नहीं बुलाया। हां, मेरे रिजल्ट आने पर मैंने अपनी मां को दोवताओं के फोटो के सामने कुछ बुदबुदाते हुए अवश्य देखा था।
सन् 1961 से 1970 तक
मैं पढ़-लिखकर सरकारी सेवा में आ गया। मां-पिताजी से दूर चला गया मैं। हफ्ते में एक बार पिताजी की चिट्ठी मिलती थी जिसका जवाब मैं तुरंत दे देता था। तनख्वाह मिलते ही मैं उसमें से अच्छी खासी रकम घर मनीऑर्डर कर देता था। पिताजी ने उन रुपयों को बचाकर गांव में कुछ जमीन खरीद ली थी। एक गाय भी दरवाजे पर आ खड़ी हुई थी। इसी दौरान मेरी शादी भी हो गई। सरकारी नौकरीवाला लड़का सबकी पहली पसंद बन जाता है। मेरी शादी भी एक अच्छे परिवार में हो गई थी।
सन् 1971 से 1980 तक
पत्नी जब ससुराल अर्थात मेरे घर आई तो मेरे साथ शहर जाने की जिद करन लगी। मेरी इच्छा थी कि कुछ दिन वह गांव में मेरे माता-पिता के साथ रहे लेकिन उसकी वाणी की उग्रता देखकर माता-पिता ने अपने दिल की बात दिल में ही दफन कर उसे मेरे साथ शहर भेज दिया था। फिर फरमाइशों का एक लंबा सफर शुरू हुआ... मिस्टर सिन्हा के यहां जो पलंग है, मैं भी बस वैसा ही लूंगी... इस घर में बहुत गर्मी लगती है, एक टेबुल फैन चाहिए। प्रोविडेंट फंड के कीमती पैसे बाजार में बिखरने लगे थे और मैं इन भौतिक प्रपंचों में उलझता चला गया था।
सन् 19८१ से 1990 तक
मां और पिताजी दोनों का देहांत इसी दौरान हुआ था। वैसे मृत्यु तो पृथ्वी का एकमात्र सत्य है लेकिन पुत्र के फर्ज को मैं भी निभा न सका। बाजार में गए पैसे को मैं वापस कैसे लाता? मेरे पास पैसे नहीं थे और गंभीर बीमारियों के शिकार वे दोनों एक के बाद एक परलोक सिधार गए। फिर पत्नी की फरमाइस हुई कि गांव की जमीन बेचकर शहर में ही कुछ जमीन खरीदी जाए और एक मकान बना लिया जाए। मैंने कठपुतली की तरह वैसा ही किया और जिस दिन मैंने गांव की जमीन बेची, उस रात मैं बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोया। आंगन में पड़े मां के चूल्हे को मैं घंटों निहारता रहा था।
सन् 1991 से 2000 तक
बच्चे... नहीं.... बच्चा... एक जवान बेटे का बाप था मैं। इसी दौरान मेरा बेटा नौकरी में गया और मैं नौकरी से सेवनिवृत्त हो गया। बेटे की शादी भी हुई और पत्नी के साथ वह भी शहर में जाकर बस गया। गाहे-बगाहे कभी अपनी मां और मुझसे मिलने आ जाता था लेकिन उससे न तो मेरी प्यास बुझ पाती थी और न ही मां की ममता को शीतलता प्राप्त हो पाती थी। मेरी बहू तो दो-दो साल तक हमारे पास नहीं आती। हां, अपने मायके वह नियमित जाया करती। अब हम मात्र दो जनों का परिवार बनकर रह गए थे। एक बार बहू जब हमारे यहां आई थी तो आने के दूसरे ही दिन रसोईघर से मेरी पत्नी के रोने की आवाज सुनाई दी। मैंने कारण जानना उचित नहीं समझा लेकिन मेरी समझ में सारी बातें आ गई थीं। मेरी बहू मेरी पत्नी का सारा जेवर बंधक रखकर शहर में जमीन खरीदना चाहती थी जिसके लिए मेरी पत्नी तैयार नहीं थी। फिर तो बहू ने एलान-ए-जंग कर दिया और बूढ़ी हड्डी इस जंग के लिए तैयार नहीं हो पाई थी और रोकर इस नाटक का पटाक्षेप कर दिया।
सन् 2001 से २००८
संघर्ष, अपमान और विद्रोह... इन सबके बीच अपन जीवन का सायंकाल व्यतीत हो रहा था। भौतिकता और सांसारिकता आत्मीयता और भावुकता पर हावी हो गया था। अपनों का विद्रोह निरंतरता बनाए रखा था। दुनिया के सब कुछ अनजान-सा लग रहा था। इतने दिनों का संघर्ष घाव के मवाद की तरह बह रहा था। शेष शून्य बनकर रह गया था। जिजीविषा और आत्मबल साथ छोडऩे पर आमादा हो गए थे। बाजारवाद के इस दौर में दोस्त और दुश्मन के बीच फर्क खत्म होने लगा था। चारों ओर अंधेरे का सम्राज्य कायम था और अखबारों-पत्रिकाओं में विकास दर में बढ़ोतरी के जश्न मनाए जा रहे थे। दोस्त... पत्नी... बेटा... बहू और मां-पिताजी के बीच जिंदगी बसर करने वाला मैं आज बिलकुल तन्हा हो गया हूं। पत्नी दिनभर पूजापाठ और व्रत में समय गुजार रही है लेकिन उसका पूजापाठ मुझे किसी पाखंड से कम नहीं लग रहा है। आज बहू जो कुछ भी करती है, उसका प्रेरणाबीज कहीं न कहीं मेरी पत्नी ही है। यह अलग बात है कि पत्नी को मेरी बहू ने बहू के रूप में नहीं देखा, बल्कि सास के रूप में ही देखा है। आज मैं बाप होकर भी बेटे के दीदार से विमुख हो गया हूं। पता नहीं, पिता के कॉलम में भी मेरा बेटा मेरा नाम लिखता होगा या नहीं? जिस दिन बहू ने मेरी पत्नी के सारे जेवर मांगे उसी दिन से मेरा बेटा भी अपनी मां से नाराज हो गया था। बाजार पूरे शबाब पर था।
सन् २००९
आज मेरी मृत्यु हो गई है। मैं अपनी लाश के करीब खड़ा हूं। लोगों की भीड़ जुट गई है... मैं एक-एक चेहरे को पहचानने की कोशिश कर रहा हूं... अरे यह तो रामधन है... वही रामधन जिसकी बुरी नजर जवानी में मेरी पत्नी पर थी। लंपटों की जमात मुझे मोक्ष दिलाने के लिए खड़ी है। पास ही मेरी पत्नी, मेरा बेटा और मेरी बहू भी खड़ी है। मेरी लाश उठकर भागना चाहती है लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद भी मेरी लाश ज्यों की त्यों पड़ी है। अब मैं अपनों का चेहरा पढऩे की कोशिश करने लगता हूं... लेकिन पढ़ नहीं पाता... जिंदा लोगों ने अपने चेहरे के ऊपपर कई चेहरे लगाए दिखने लगे हैं। मेरी अर्थी सजने लगी है। अब मेरा शरीर जलने ही वाला है... अरे, अब तो अर्थी की आग जोर पकडऩे लगी है... मैं जल रहा हूं तभी भीड़ में से एक व्यक्ति चिल्लाया- आज सेन्सेक्स काफी उछाल पर है... मैं तो यहां से सीधे बाजार जाकर अपने सारे शेयर बेच दूंगा।
संपर्क :सत्येंद्र कुमार झा
आकाशवाणी केंद्र, दरभंगा- 846004 बिहार,
मो। 09709773853
1 टिप्पणी:
जीवन के कई सूक्ष्म प्रश्नों को अपने तरीके से उठाया है...
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