बुधवार, 13 मई 2009

कुत्ता हमसे बेहतर

गत दिनों मैंने रविश जी का लेख पढ़ा-सुना और देखा भी। पढ़ा उनके ब्लाॅग पर और देखा एनडीटीवी पर। दोनों जगह प्रस्तुतिकरण अच्छा। लेख का लबोे-लुबाव था नाम में क्या रखा है। पप्पू नाम को लेकर जो बखेड़ा उठा, उसका प्रस्तुतीकरण लाजबाव रहा। पढ़ने की प्रक्रिया के दौरान ही मेरे दिमाग में राजधानी दिल्ली के कमोबेश हरेक चैक-चैराहों पर लगे पोस्टर की बात सूझी।
पोस्टर में एक कुत्ता के मुंह से कहलवाया गया है कि अकारण जब मैं नहीं भौंकता तो भला आप क्यों हाॅर्न बजाते हैं। एकबारगी में कोई विशेष बात नहीं । बेवजह गाड़ीचालकों को हाॅर्न बजाने से रोकने के लिए यह प्रयोग था, जिसे कुछ गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्थाओं ने चलाया था। रिस्पांस कितना मिला, अभी कहा नहीं जा सकता। जब पुलिस गाड़ीवानों पर लगाम नहीं लगा सकी तो भला पोस्टर पर चस्पा किए गए कुत्तों की क्या बिसात ?
ऐसे में सवाल उठता है कि इनसान को सही रास्ते पर लाने के लिए इतने सारे पशुओं, उपालंभों में से कुत्ता का ही चुनाव क्यों किया गया ? इसके कई कारण हो सकते हैं। मसलन, कुत्तेे की स्वामिभक्ति, उसकी घ्राण क्षमता, लक्ष्य प्राप्ति की सतत उत्कंठा। संभव है इसकी सर्वत्र उपलब्धता भी एक कारण रहा हो। इन तमाम तर्क को एकबारगी ताक पर रख दिया जाए तो जेहन में आता है कि छोटी सी बातों पर भी बतंगर खड़ा करने वाले कई अधिकारों की बात करने वाले संगठन जो महज किसी भी मुद्दे पर अपना झंडा-बैनर साथ लेकर जंतर-मंतर पहुंचने वाले एक भी संगठन ने इस पोस्टर के खिलाफ कोई धरना-प्रदर्शन नहीं किया और न ही जनहित याचिकाओं की बाढ़ से त्रस्त रहने वाले न्यायपालिकाओं में एक और बारिश नहीं हुई। आखिर, हमें कोई बुरा अथवा छोटा बताने की कोशिश करता है तो हम झगड़ लेते हैं। कई बार हुक्का-पानी भी बंद कर लेते हैं। मगर, इस बार हम चुप रहे। आखिर क्यों ?
मैंने कई बार पढ़ा और दूसरों से सुना कि पत्रकार कुत्तों की तरह होते हैं और जो कुत्तों की गुण को आत्मसात नहीं कर पाता, वह अच्छा पत्रकार नहीं बन सकता। भला पत्रकारिता और कुत्ता में क्या संबंध ? अरे भाई, जब पूस की रात में प्रेमचंद अपने नायक को कुत्ते के आगोश में लपेट सकते हैं तो पत्रकार अपने भीतर उसके गुण को क्यों नहीं धारण कर सकता। खबरों को सबसे पहले सूंघने या यूं कहें कि सबसे पहले बे्रक करने वाले ही तो आज के इलेक्ट्राॅनिक युग में नाम कमा सकता है न !
गौर करने योग्य यह भी है कि बाजारवाद की चपेट में आकर भारतीय सामाजिक ताना-बाना जब धुंधला रहा है, संवेदनाएं छीजती जा रही है, फिर भी कुत्तों की स्वामिभक्ति की मिसाल पूर्व की तरह ही कायम है। इतिहास बताता है कि कई बार स्वामी की सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मी ने वि’वासघात करते हुए स्वामी की हत्या की, मगर किसी कुत्ते के कारण उसके स्वामी की मौत हुई हो, यह खबर मैंने नहीं सुनी है। क्या आपने सुनी है ?

4 टिप्‍पणियां:

Udayesh Ravi ने कहा…

कुत्ता अब लोकतंत्र का स्थाई कालम बन गया, सो दिल्ली पुलिस ने उसे हर स्ट्रीट लाइट वाले पोल पर चिपका दिया. वैसे भी मेनका गाँधी के दिन अभी ख़राब चल रहे हैं- कभी वरुण को लेकर तो कभी मायावती से तू-तू मैं-मैं को लेकर. ऐसे में वो कुत्ते को लेकर बखेडा करना नहीं चाहती होंगी.
बेच्रारा कुत्ता! अब जाये तो जाये कहाँ?
वह किसी भी बुद्धिजीवी के चिंतन में नहीं आ सका. आपने चिंता व्यक्त की तो अच्छा लगा.

Sanjay Swadesh ने कहा…

ab kaya kahu. najar najar ki bat hain. par ye hakikat hain. kutte ki jindgi ka patik hain journalism. aap mane ya n mane- ek kutta car me gumta hai, uske liye v alga ghar aur bed hota hin. har manwiya subidha ko bhogta hain, wahi dusara kutta galiye me gumta hai roti ki talash me.
ab jara patrkaro ko dekhiye.
ye community v kutte ki hain. eska bhojan khabar hain. dono bhojan kior lapkate hain.
par ek antar hai. gali ka kutte ko aap jab v kuch khane ko phekenge to wah wastu ki or lapkega jarur par use niche girne dega, niche girne ke bad sungh kar kahyega.
wahi car wale elit kutte ko kuch v pheko wah hawa me hi lapak kar kha jayega.
emandar patrkar gali ke kutto ki tarah hota hain.
so colled elit patrkar amiro ke kutto ki tarah hain.

BHUL CHUK MAFI SAFI.

बेनामी ने कहा…

bahut satik bat,kutta hamase behatar,kamse kam wo swani bhakt to hota hai aur bebajah to shore pardushan nahi fela ta hai,

RAJ SINH ने कहा…

सही दोस्त और वफादारी को हम इंसान क्या समझते हैं ये इसी मानसिकता का परिणाम है . स्वामिभक्ति को दुनिया यही नाम देती .