विपिन बादल
चुनाव प्रचार अपने चरम पर है उपलब्धि और नाकामी के आरोप और प्रत्यारोप से बढ़ी चुनावी सरगर्मी में सब दल मात्र किसी तरह सत्ता हासिल करने की जुगत मंे मशगूल हैं। अपने को कमजोर प्रधामंत्री कहे जाने से आहत और हताश मनमोहन सिंह जाने-अनजाने इस आरोप को सही साबित करते ही दिखते हैं कि वे निःसंदेह कमजोर ही हैं और सरकार की वास्तविक कमान 10 जनपथ में ही है। इसका एक मात्र प्रमाण तो उन्होंने राजस्थान के एक चुनावी रैली में स्वयम् रैली मे स्वयम् यह कहकर दे दिया कि वे यहां ’सोनिया गंाधी’ के दूत में रुप में् आये हैं। जब देश का प्रधानमंत्री अपने ही देश में किसी का दूत मानने में गौरवान्वित होता हो तो समझा जा सकता है कि वह कितना मजबूत है और निर्णय लेने में कितना सक्षम। स्वाात्रोच्ची के मामले में उनका यह कहना भी इतना ही हास्यास्पद है कि किसी को तंग करना अच्छी बात नहीं है। मामले कोर्ट मंे होने के बाद भी सरकार नियंत्रित सीबीआई द्वारा स्वात्रोच्ची से रेड अलर्ट हटाने की इंटरपोल को दी गई सूचना और उसके बाद प्रधानमंत्री का अतार्किक रूप से उसका बचाव करना शंका उत्पन्न करना है कि सरकार को कहंा से निर्देश मिलता है। जबकि सोनिया गंाधी और स्वात्रोच्ची की मित्रता के बारे में काफी कुछ मीडिया की खबरों मंे आता रहा है। कोर्ट में मामला लंबित होने के बाद भी सरकारी एजेंसी और सरकार के मुखिया ने पहले ही अपना फैसला सुना दिया है उससे यह भी स्पष्ट है कि कंाग्रेसी सरकार न्यायालय और न्यायिक प्रक्रिया को कितना अहमियत देती है। वैसे न्यायिक आदेश और प्रक्रिया को धता बताने कंाग्रेस की पुरानी परमपरा रही है। 1975 मंे न्यायालय के आदेश को मानने से इंकार करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में ईमरजेंसी लगा दिया था। पूर्व प्रधामंत्री राजीव गंाधी ने शाहबानो केस में संसद मंे मिले प्रचण्ड बहुमत के बदौलत अदालत के फैसले को ही पलट दिया था 1984 मंे हुए सिख विरोधी दंगे के प्रमुख आरोपियों को पार्टी ने कई बार टिकट भी दिया था जबकि उनके खिलाफ संगीन मामला अदालत में था। इसी तरह समान नागरीक संहिता लागू करने सम्बन्धी अदालत का दो आदेश अभी भी सरकारी फाइलों मंे ही कहीं दबा पड़ा है। अफजल गुरू के फंासी के मामले मंे जिस तरह से अदालती आदेश के बाद भी उस फाइल पर धूल की परत मोटी होने के लिए छोड़ दिया गया है उससे भी साबित होता है कि सरकार और उसकी मुखिया कितने मजबूत हैं।
यह सरकारी मजबूती भारत की विदेश नीतियों और खासकर पड़ोसी देशों से हमारे संबंधांे पर भी दिखाई देता है। पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, चीन, नेपाल सभी पड़ोसियों से हमारे सम्बन्ध तल्खी भरे हैं। पाकिस्तानी रवैया को देखते हुए भी हमारी ढुलमुल नीति का ही तकाजा है पाकिस्तान की नजरों मंे हमारी अहमियत नहीं के बराबर रह गई है। जम्मू-कश्मीर सहित देश भर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी कार्यवाही के प्रमाण के बाद भी पाकिस्तान का रूख अड़ियल रहा है जबकि भारत की गर्जना अंततः गिड़गिड़ाने में तब्दील होती रही है। इसकी ताजा मिसाल मुम्बई हमलों में पाकिस्तानी संलिप्तता सामने के बाद भी देखने को मिल रहा है। भारत की तमाम ’कूटनीति’ फिसड़डी साबित होती रही है। यही हाल श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका सरकार पर दवाब बनाने की ’नीति’ मंे भी देखने को आया है। लिट्टे के भारत विरोधी गतिविधियों और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गंाधी की हत्या मं संलिप्त्ता के बाद भी महज तमिल वोटों की खातिर सरकार ने श्रीलंका सरकार पर दवाब बनाने का गलत कदम उठाया। श्रीलंका के तमिल जनता की सुरक्षा पर भारत की चिंता जायज हो सकती है किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए था श्रीलंकाई सरकार भी अपनी जनता के जान-माल की सुरक्षा के प्रति कहीं ज्यादा संवेदनशील होगी। जाहिर था अपने देश की सुरक्षा और लिट्टे के आतंक से दशको ंसे त्रस्त श्रीलंका के लिए भारत के युृद्ध विराम की अपील कोई मायने नहीं रखती थी। यही हाल पाकिस्तान में सिख और हिन्दूओं पर तालिबानियों द्वारा जजिया कर लगाने और उन्हें प्रताड़ित करने के सम्बन्ध मंे मनमोहन सिंह की चिंता पर देखने को मिला जब पाकिस्तान ने उन्हें टका सा जवाब दे दिया कि वह पाकिस्तान के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करे।
जाहिर है जो सरकार अपने देश में पाक समर्थित आतंकी कार्यवाही से विस्थापन का दंश झेल रहे कश्मीरी पंडितों के संवेदनाओं के प्रति असंवेदनशील रहा हो उसका दूसरे देश की जनता के प्रति संजीदगी दिखाना महज दिखावा ही माना जाएगा। इतना ही नहीं भारत ने नेपाल को भी प्रधान सेनापति रूक्मांगद कटवाल को बर्खास्त नहीं करने की सलाह दी थी किन्तु भारत विरोधी माओवादियों की नेतृत्ववाली सरकार ने उसे मानने से इंकार कर दिया। यह अलग बात है कि नेपाल के इस अंदरूनी समस्या से अल्पमत में आई प्रचण्ड सरकार को इस्तीफा देना पड़ गया। हूजी आतंकियों के भारत विरोधी अभियान के बाद भी भारत की ’कूटनीति’ वहंा कोई रंग लाती नहीं दिखाई देती। जाहिर है वोट बैंक पर आधारित सरकार की ढुलमुल विदेश नीति हर मोर्चे पर असफल होती रही है।
शनिवार, 9 मई 2009
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