‘साम्प्रदायिक पार्टी’, ‘साम्प्रदायिक एजेंडा’, ‘साम्प्रदायिक भाषण’ आदि शब्दों पर जिस तरह से राजनीतिक पार्टियांॅ विभिन्न अवसरों पर गाहे-बगाहे हो- हल्ला मचाने के लिए आतुर दिखती है, उससे इस शब्द के सही अर्थ और संदर्भ पर ही प्रशन चिन्ह लगता दिखने लगा है। ‘सरदार’ और ‘बिहारी’ की तरह साम्प्रदायिकता भी एक ऐसा जुमला बनता जा रहा है कि घर-परिवार के झगड़े में भी यदि इसका इस्तेमाल होने लगे तो शायद ज्यादा आशचर्य नहीं होगा। स्वघो’िषत धर्मनिरपेक्षतावादियों ने कथित राषट्रीयतावादियों के लिए इस शब्द का ऐसा प्रचलन शुरू कर दिया है कि सम्पूर्ण भारतीय राजनीति ‘आरोपित’ साम्प्रदायिकता के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई है। साथ ही क्रूर हकीकत यह भी है कि धर्मनिरपेक्षता के प्रखर समर्थक और घो’िषत रहुनुमा अपने व्यवहार में कहीं अधिक साम्प्रदायिक हैं और इसके विरोध में उठने वाली हर आवाज को ही कटघरे में खड़ा करने पर आमादा हंै।
मुस्लिम लीग की स्थापना के साथ ही देश की राजनीति में साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण शुरू हो गया था। इसकी प्रतिक्रिया में जब हिन्दुओं के एक संगठन का गठन किया गया तो स्वाधीनता संग्राम के चरम काल में भी देश में मुस्लिम और हिन्दुओं के बीच की खाई और चैड़ी हो गई थी। विडम्बना यह है कि आज ‘लीगी’ सोच और मानसिकता वाली जमात को धर्मनिरपेक्षता को तगमा पहना दिया गया है जबकि प्रतिक्र्रियावादी शक्ति को साम्प्रदायिक घो’ त कर दिया गया है। वैसे सामान्य सिद्धान्त यही है कि किसी क्रिया के बाद ही उसकी प्रतिक्रिया होती है। किन्तु वत्र्तमान दौर में प्रतिक्रिया जताना ही गुनाह होे गया है।
देश में रा’ट्रपिता महात्मा गाॅंधी पर ‘तु’टीकरण‘ का आरोप लगाया जाता है जो कि सम्पूर्ण सच् नहीं है। मुसलमानों को स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा से जोड़ने और देश की अखण्डता को अक्षुण्ण रखने के लिए उनके कुछ निर्णयों पर अंगुली उठाई जा रही है। किन्तु हकीकत यह भी है कि इन सबके अलावा महत्मा गाॅधी ने आज के संदर्भ में साम्प्रदायिक करार दिये गये वंदे मातरम्, राम, हिन्दू, धर्मांतरण, गौ रक्षा आदि के संदर्भ में अपनी स्प’ट राय रखी थी जो आज के धर्मनिरपेक्षतावादियों को हजम नहीं हो सकती। इस संदर्भ में एक घटना विशो’ा उल्लेखनीय है, देश विभाजन की त्रास्दी से उपजे दंगे के समय महात्मा गाॅधी नोआखाली गये थे। वहाॅ उन्होंने कुछ मुसलमानो के घर और मस्जिद में भी रामधुन का आयोजन किया था। मस्जिद में रामधुन पर कुछ मुसलमानों ने आपत्ति की तो मस्जिद के प्रभारी ने उन्हें महात्मा गाॅधी के व्यक्तित्व के बारे में समझाते हुए कहा था कि महात्मा गाॅधी साम्प्रदायिक नहीं हैं। इतना ही नहीं उन्हौंने यह भी कहा था कि राम और रहीम एक ही ईशवर के दो नाम हैं इसलिए मस्जिद में रामधुन करने में कोई हर्ज नहीं है। महात्मा गाॅधी ने उसी वक्त यह सवाल किया था कि जब राम और रहीम एक ही परमात्मा के दो नाम हैं तो क्या दोंनों नाम लेना जरूरी है? एक ही नाम पर्याप्त नहीं है? (वे टू काम्युनल हाॅंर्मोनी, नवजीवन प्रकाशन) भाजपा और मोदी के खिलाफ अक्सर महात्मा गाॅंधी को याद करनेवाले काॅंग्रेसी, वामपंथी और महज कुछ वोटों की खातिर धर्ममनिरपेक्षता का राग अलापने वाले क्षुद्र मानसिकता वाले क्षेत्रीय पुरोधा क्या महात्मा गाॅधी की तरह यह बेबाकी भी अपना पायेंगें? राजनीतिक स्वार्थवश महात्मा गाॅधी को याद करने वाले नेता क्या धर्मांतरण और वंदे मातरम् पर भी उनके धर्मनिरपेक्ष विचारों को अपनायेंगे? क्या इसका विरोध करने वाले कथित धर्मनिरपेक्षतावादी वही तेवर और मुखरता अपनायेंगे जो वे ‘साम्प्रदायिक’ भाजपा के खिलाफ अपनाते रहे हैं? धर्मांतरण, वंदे मातरम, गो हत्या, हिन्दु, राम आदि पर गाॅधी के विचारों की अन्देखी कर इन्हें साम्प्रदायिक मुद्दा माननेवालों के मुॅंह से गाॅंधी का स्मरण मात्र भाजपा के विरुद्ध हथियार के रूप में करनेवालों की बातें कितनी हास्यास्प्रद हो गई हैं। गाॅधी ही नहीं लोहिया भी राम और शिाव को सांस्कृतिक एकता का प्रतीक मानते रहे किन्तु लोहियावादियों ने इसे साम्प्रदायिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा।
राजनीति दलों की क्षुद्र मानसिकता ने आज देश की सम्पूर्ण राजनीति का साम्प्रदायिकरण कर दिया है। राजनीतिक साम्प्रदायिकरण की खाई इतनी चैड़ी हो गई है कि इसे पाटना आसान नहीं दिख रहा। भारतीय जनता पार्टी को साम्प्रदायिक घो’िात कर दिया गया है और उसका डर दिखा कर मुस्लिम वोटों को अपनी ओर खीचने में हर तिकड़म अपनानेवाले राजनीतिक दलों की जमात स्वघो’िात धर्मनिरपेक्षता के झंडेबदार बन गई हैं। साम्प्रदायिकता की उनकी परिभा’ाा महज भाजपा के इर्द-गिर्द घूमकर रह जाती है और इसका एकमात्र निहितार्थ भाजपा के खिलाफ मुस्लिम वोटों का धु्रवीकरण करना रह गया है। यह परिभा’ाा इतनी क्षण भंगुर है कि कब किस दल को साम्प्रदायिक या धर्मनिरपेक्ष करार दिया जाय, कहना मुशिकल हो गया है। भाजपा के सहयोगी दल को भी साम्प्रदायिक घो’िात कर दिया जाता है और भाजपा से उन्हें अलग होते ही धर्मनिरपेक्षता का सर्टिफिकेट थमा दिया जाता है। इस आधार पर रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, जयललिता, नवीन पटनायक, चन्द्रबाबू नायडू, एचडी देवगौड़ा, उमर अब्दुल्ला समेत दर्जनों क्षेत्रीय क्षत्रप साम्प्रदायिक करार दिये जा चुके हैं। भाजपा गठबंधन से अलग होते ही मानों उन्हें गंगा स्नान का पुण्य मिल गया और वे एक बार फिर से धर्मनिरपेक्षता के पुरोधा घो’िात कर दिये गये हैं। जब धर्मनिरपेक्षता का सर्टिफिकेट इतनी आसानी से मिल जाती है तो क्षेत्रीय दल भला सुविधानुसार अवसरवादी राजनीति से क्यों हिचकेंगें? और तो और साम्प्रदायिकता का यह शिागूफा कितनी लचर हैं कि भाजपा शासन के दौरान कई मुस्लिम संस्था और उलेमाओं ने भी भाजपा को साम्प्रदायिक मानने से इंकार कर दिया था। यह भी दिलचस्प है कि पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली के शाही ईमाम तक ने भाजपा के समर्थन में वोट डालने का फतवा जारी किया था। तब शायद उन्हें भी राजग के दुबारा जीत की उम्मीद थी, और स्वभावतः सŸाा के नजदीक रहने की उनकी जमाती रणनीति भी।
साम्प्रदायिकता बनाम् धर्मनिरपेक्षता की बहस को काॅंग्रेसियों और वामपंथियों ने बड़े जतन से हवा दिया। अपने हर मुमकिन कोशिाश में उन्होंने हिन्दूत्व से जुड़े हर सांस्कृतिक, एेितहासिक और साहित्यिक तथ्यों को भी साम्प्रदायिकता के चशमे से ही देखा। यही कारण रहा कि देश के चिंतन की मुख्यधारा से उन चीजों को हटा दिया गया जो सेकुलर चशमे में ‘हरा‘ नहीं दिखता था। हिन्दुत्व से जुड़े गाॅंधी के विचारों से भी कन्नी काटनेवाले लोग भाजपा के खिलाफ गाॅंधी की दुहाई देते नहीं अघाते हैं। अयोध्या विवाद के चरम काल में वामपंथियों ने एक नारा गढ़ा था ‘गाॅंधी हम शर्मिन्दा हैं, तेरे कातिल जिन्दा हैं’। ये वही वामपंथी हैं, जो गाॅंधी और सुभा’ाचन्द्र बोस को ‘सामा्रज्यवादी कुŸाा’ और पता नहीं क्या -क्या कहा करते थे। 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन का भी इन लोगों ने विरोध किया था। इतना ही नहीं आज चन्द्रशोखर आजाद, बटुके”वर दŸा आदि भारत माता के सैकड़ों सपूतों की अन्देखी कर महान क्रांतिकारी भगत सिंह को वामपंथी साबित करने की होड़ में वे इस तथ्य को भी निर्लज्जतापूर्वक भूल गये हैं कि भगत सिंह को जीते-जी वे मात्र ‘उपद्रवी’ मानने रहे और जेल में भी उन्हें हिकारत की दृ’िट से ही कामरेड लोग देखा करते थे। ये तो भला हो एक पत्र और भगत सिंह के लेखनी का जिस पढ़कर उनकी “ाहादत के बाद लाल झंडावालों को लगा कि भगत सिंह को पहचानने में उनसे भूल हो गई और वे भी विचारों से ‘कामरेडो के समान’ ही थे। तब से इस महान क्रांतिकारी को ‘लाल झंडा’ में लपेटने का कोई अवसर उन्होंने नहीं छोड़ा और अब तो शहीद भगत सिंह को ‘कामरेड’ के रूप में ही देखा जाने लगा है वामपंथी खेमे में।
जहाॅ तक काॅग्रेस की बात है तो वह आजादी मिलते ही गाॅंधी और उनके विचारों से कटने लगी थी। आजादी के बाद गाॅंधीजी ने काॅंग्रेस पार्टी को खत्मकर एक नई पार्टी बनाने का सुझाव दिया था जिसे ‘दूरदर्”ाी’ जवाहर लाल नेहरू ने ठुकरा दिया था। गाॅंधीजी की प्रार्थना सभा की परम्परा भी काग्रेस से खत्म कर दी गई और ‘रघुपति राघव राजा राम’ अघो’िात रूप से ‘साम्प्रदायिक’ मान लिया गया। इतना ही नहीं, वंदे मातरम्, धर्मांतरण, गो-हत्या आदि पर गाॅंधीजी के विचार काॅंग्रेस सहित तमाम सेकुलर पार्टियों को विचलीत करने के लिए काफी है। हालात यह है कि आज इन तमाम विचारों को भाजपा की झोली में डालकर काॅंगे्रस इन्हें साम्प्रदायिक घो’िात कर चुकी हैं। दूसरे शब्दों में काॅंग्रेस के लिए गाॅंधी के कई विचार भी मौजूदा दौर में साम्प्रदायिक हो चुुका है।
काॅंग्रेस के सहयोगियों की बात की जाय तो मतलबपरस्ती और सत्ता सुख के माहिर खेलाड़ी राम विलास पासवान ने राजग सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं मिलने का गुब्बार गुजरात दंगे की आड़ में निकाला था। ये वही पासवान हैं जो रेल मंत्री के रूप में गुजरात जानेवाली ट्रेन से गाॅंधीजी के प्रिय भजन ‘ बै’णव जन तो तिणै कहिये, जो पीर पराई जाणे रे’ का प्रसारण मात्र इसलिए बंद करवा दिया था क्योंकि एक मुस्लिम यात्री ने इस ‘साम्प्रदायिक भजन’ के खिलाफ शिाकायत की थी। विशो’ा परिस्थितियों में गाॅंधीजी को दुहाई देनेवाले वामपंथियों ने तो राम-सीता को भाई-बहन साबित करने की अथक मुहिम चलाकर न सिर्फ करोड़ों हिन्दुओं के आस्था पर चोट किया था बल्कि गाॅंधीजी के आराध्य राम पर कीचड़ उछालने का कुत्सित अपराध भी किया था। राजनीति के साम्प्रदायिकरण ने देश की राजनीति को दो ध्रुवीय खेमे में तब्दील कर दिया है। एक तरफ भाजपा है तो दूसरी तरफ वे तमाम दल जो कथित धर्मनिरपेक्षता की छदम् और मौका परस्त व्याख्या पर ही राजनीति चलाते हैं। इसकी आॅंच उन दलों पर भी पड़ता है जो भाजपा के साथ होते हैं। भाजपा और उसके सहयोगियों के लिए प्रगतिशील मीडिया और दूसरे खेमे के राजनीतिक दलों ने ‘साम्प्रदायिक’ मुहावरा गढ़ दिया है जबकि बाॅकी दलों को घो’िात तौर पर ‘सेकुलर’ मान लिया गया है। इतना ही नहीं बंगलादेशी, ‘सिमी सदस्यों‘ और ‘इंडियन मुजाहिदीन के कार्यकर्ताओं‘ सहित सभी मुसलमानो को सेकुलर होने का सर्टिफिकेट पहले ही दे दिया जाता है। इसके अलावा भाजपा विरोधी हिन्दुओं को भी सेकुलर शब्द से सम्मानित किया जाता है जबकि हिन्दुत्ववादी दल और उनके समर्थकों को ‘देश तोड़ने वाला और समाज बाॅंटनेवाला साम्प्रदायिक‘ मान लिया गया है। यहाॅं यह भी शीशो की तरह साफ है कि सेकुलरिज्य का राजनीतिक निहितार्थ महज बड़े वोट बैंक के तौर पर मुसलमानों की सेवा परस्ती है। अल्पसंख्यक शब्द की राजनीतिक व्याख्या मुसलमानों से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाती है। बौद्ध, जैन, पारसी आदि वोट ब्ैंक के लिहाज से अमहत्वपूर्ण अल्पसंख्यकों की कोई व्याख्या सेकुलर दलों के डिक्सनरी में नहीं होता। हाॅं, पंजाब में सिख और पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा विभिन्न राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों में, जहाॅं धर्मांतरण में व्यस्त हैं, वहाॅं ईसाई को मतों की आवशयकतानुसार अल्पसंख्यक मान लेने की मजबूरी सेकुलर दलों में साफ देखी जा सकती है। सवाल यह भी है कि इस तरह मनमाने आधार पर साम्प्रदायिक और धर्म निरपेक्षता का सर्टिफिकेट बाॅंटने वाले कौन लोग है और यह अधिकार उन्हें किसने दे दिया है ? क्या इस तरह किसी को घो’िात तौर पर बिना किसी प्रमाण के साम्प्रदायिक या धर्मनिरपेक्ष करार देने का उनकेेे पास कोई संवैधानिक या कानूनी अधिकार प्राप्त है ?
आजाद भारत में धर्मनिरपेक्षता की रेखा मुस्लिम वोटों से खींचने की शुरूआत देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने की थी तो वत्र्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘देश की संपदा पर अल्पसंख्यकों का पहला हक’ की उद्घो’ाणा कर साम्प्रदायिक राजनीति का सम्पूर्ण खाका ही सामने रख दिया। वामपंथी सोच से प्रभावित पंडित नेहरू ने कहा था कि ‘अल्पसंख्यक साम्प्रदायवाद ज्यादा खतरनाक नहीं होती‘। हिन्दुस्तान में बहुसंख्यक हिन्दुओं को दोयम दर्जा और उनकी भावनाओं को दर किनार करने की परिपाटी तभी से राजनीति में चल पड़ी। वैसे नेहरू के व्यक्तिगत अहं और अदूरदार्शिाता का दु’परिणाम कशमीर समस्या के रूप में देश भुगत ही रहा है। काॅग्रेस और वामपंथियों के अलगाववादी सोच तथा फूट डालो और राज करो की राजनीति ने वोटरों को जाति और मजहब में बाॅंटकर दशकों तक सत्ता सुख भोगा है। ‘धर्म को अफीम’ माननेवाली विचार धारा न तो अपने ही पार्टी के मुस्लिम संासदों और बुद्धिजीवियों को इस्लाम को अफीम मनवानेे में सफल हो सकी न ही ‘लाल दुर्ग’ पशिचम बंगाल में अपने पार्टीजनों को दुर्गा पूजा या सरस्वती पूजा के सार्वजनिक पंडालों से अलग रख सकी। अपनी असफलता को सांस्कृतिक उत्सव के नाम पर ढ़कनेवाले वामपंथियों ने एक ही काम सबसे सफलतापूर्वक किया, वह था- पशिचम बंगाल को बंगलादेशी मुसलमानों का सैरगाह बनाना। मेहमान की तरह उनका आवभगत कर उन्हें राशन कार्ड और पहचान पत्र तक उपलब्ध कराया गया। ‘सेकुलर’ वोट बढ़ाने का उनका रा’ट्र विरोधी और मजहबी मुहिम कभी साम्प्रदायिक नहीं माना गया लेकिन इसके प्रतिरोध में उठी आवाज ‘फासिस्ट’ करार दी गई। इसी सोच और कार्य प्रणाली ने न सिर्फ असम से दिल्ली तक बंगलादेशिायों की बाढ़ ला दी है बल्कि वे कानून व्यवस्था के समक्ष भी एक चुनौती बनते जा रहे हैं। कथित सेकुलर बिरादरी के घो’िात धर्मनिरपेक्ष पार्टियाॅं किस मुस्तैदी से राशन कार्ड और वोटर कार्ड मुहैया करवा देती है इसकी झलक पिछले दिनों राज ठाकरे ने दिखलाया था जब उन्हौंने अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन और मुम्बई हमले के आतंकी कसाव का फर्जी राशन कार्ड पेश कर दिया। निरपेक्षतावादी खेमा ठाकरे को तो साम्प्रदायिक मानता है किन्तु देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करनेवालेे सेकुलर ही बने रहते हैं।
काॅग्रेस, वामपंथी दल, मुलायम, लालू, पासवान, मायावती आदि तमाम सेकुलरतावादियों के लिए धर्मनिरपेक्षता की एकमात्र व्याख्या देश के दूसरे सबसे बड़ी जनसंख्या वाले मुस्लिम जमात का ऐन-केन- प्रकारेण वोट हासिल करना है। इसके लिए सेकुलरवादी दल, मीडिया और इससे जुड़े बुद्धिजीवी तरह तरह की व्याख्या, मुहावरों और अतार्किक विशले’ाण गढ़ने में माहिर हैं। यहाॅं तक कि भाजपा की राजनीतिक सहयोगी जदयू भी दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यक आबादी की वोट हासिल करने के गरज से ही भाजपा के ‘साम्प्रदायिक मुद्दे’ से अपनेको अलग-थलग दिखाने का भरसक प्रयास करने से नहीं चूकती। मुसलमानों से जुड़े मसले पर कब चुप्पी साध लेनी है और कब चीख-चीख कर आसमान सिर पर उठा लेना है इस कला में ‘सेकुलर समुदाय‘ को महारत हासिल है। शायद उनके ‘धर्मनिरपेक्षता’ का तकाजा भी यही है।
धर्मनिरपेक्षता की मनगढ़ंत व्याख्या करनेवाली जमात अपने अतिवादी अभिव्यक्ति में ऐसा व्यवहार कर रही है मानों वे सुपर संवैधानिक संस्था हों। अयोध्या के विवादित ढ़ाॅंचा के तोड़ने से लेकर गोधरा ट्रेन अग्निकांड के बाद की जन प्रंतिक्रिया तक उनके अभिव्यक्ति की उतेजक और भड़काऊ मुखरता कभी कशमीर में आतंकियों को तंदूर मुहैया कराने से लेकर अफजल गुरू की सजा या अयोध्या, अक्षरधाम सहित दिल्ली में बारंबर होने वाले श्रृख्लाबद्ध विस्फोट के कसूरवारों को सजा दिलवाने के मामले में नहीं देखी गई न ही 1983 के मुम्बई विस्फोटों के मास्टर माइंड दाऊद इब्राहिम के पाकिस्तान से प्रत्र्यापण के मामले को रा’ट्रीय एजेंडा से जोड़ने की मुिहम के तहत देखी गई। अफजल गुरू के फाॅंसी पर सरकारी उदासीनता के आरोपों को भी महज साम्प्रदायिक पार्टी के अनावशयक मांग के रूप में देखा गया। बटाला मुठभेड़ में शहीद इंस्पेक्टर शर्मा के प्रति संवेदनशीलता के बदले इस पर प्रशन उठाने वाले पर ही इनका मुुख्य जोर रहा। धर्मनिरपेक्षतावादी दल और सेकुलर मीडिया के सामने देश की सुरक्षा से भी बड़ा मामला भाजपा है। कभी नरेन्द्र मोदी की ही तरह कल्याण सिंह भी इस खेमे के लिए देश के सबसे बड़े गुनाहगार हुआ करते थे। किन्तु उनके मुलायम सिंह से हाथ मिलाने के बाद अचानक ही वे सवकी नजर में पाक साफ हो गये। नरेन्द्र मोदी पर सवाल उठानेवाले 1984 के सिख विरोधी दंगा तथा गुजरात दंगे पर सुप्रीम कोर्ट के जाॅंच समिति में तीस्ता सीतलवाड़ के झूठे बयानों और गलत साक्ष्य और गवाह खड़ा करने के रिर्पोट पर लगभग पल्ला झाड़ते ही दिखते रहे। इतना ही नहीं, क्वात्रोच्ची पर से रेड अलर्ट वारंट हटाने और नरेन्द्र मोदी के गोधरा कांड के बाद के दंगे की भूमिका पर जाॅंच का सर्वोच्च अदालत के आदेश की खबर एक ही दिन आने के वाद भी मीडिया में मोदी तो छा गये किन्तु क्वात्रोच्ची पर सीबीआई और सरकार का रूख सामान्य घटना बनकर रह गई। इलेक्ट्राॅंनिक मीडिया की बात छोड़ भी दे ंतो सेकुलर प्रिंट मीडिया ने भी अगले ही दिन अपने त्वरित एकतरफा संपादकीय का वि’ाय केवल मोदी को ही बनाया। यह अकारण नहीं है कि मीडिया की साख आम लोगों में काफी घटगई है और उन्हें ‘सत्ता के दलाल‘ के रूप में अधिक जाना जाने लगा है। दूसरे को नैतिकता और राजधर्म सिखाने वाली मीडिया अपनी गिरेवान में झांकने की खुद भी हिम्मत जुटा पाने की स्थिति में नहीं रह गया है।
मुम्बई हमलों के बाद भी काॅंग्रेस के एक मंत्री ने आतंकी हमले में मारे गये करकरे की शहादत पर सवाल उठाया तो दूसरे मंत्री ने बटाला कांड पर न्यायिक जाॅंच पर अपना बयान दिया। क्या उनके लिए देश की सुरक्षा से भी बढ़कर वोट बैंक हो गया है? मुसलमानों का वोट हथियाने के फेर में उलझे रहनेवाले दल उनकी समस्याओं से वास्ता नहीं रखते यह तथ्य अब मुसलमानो के समझ में भी आने लगा है। हिन्दूओं को विभिन्न जाति के चशमे से देखनेवाली राजनीतिक बिरादरी मुस्लिम समाज में व्याप्त घोर जातियता को नजरअंदाज कर उनके ‘एक मुशत वोट‘ को ही देखते हैं। और उन्हें ‘साम्प्रदायिक भाजपा और अन्य हिन्दूवादी’ संगठनों का डर दिखा कर इस एक मुशत वोटों को अपनी झोली में डालने की चाल ही चलते रहते हैं। इसमें भी उनका राजनीतिक नफा-नुकसान का पूरा समीकरण काम करता है। यदि मुसलमानों को वे विभिन्न जाति और वर्ग में बाॅंट कर देखेंगे तो उनके समस्याओं के अंबारों से भी विभिन्न मोर्चे पर अलग-अलग जूझना होगा और उनके विकास और सुविधाओं का भी ध्यान रखना होगा। जवाहदेही से भागनेवाला सेकुलर राजनीतिक दल, बुद्धिजीवी और मीडिया इन झमेलों से पल्ला झाड़ केवल एक आरोपित डर दिखा कर आतंकित दूसरे बड़े बहुसंख्यक समुदाय का एकमुशत वोट बटोरने की कुत्सित चाल में ही उलझा रहता है और घड़ियाली आॅंसू और मनभावन संवाद संपर्को से उनका सबसे बड़ा हमदर्द बनने का स्वंाग मात्र करता है। गोधरा पर लालू यादव द्वारा बनर्जी आयोग का गठन या मुसलमानों की स्थिति पर सच्चर कमिटी की रिपोर्ट ऐसे ही स्वांग मात्र साबित हुए। मुसलमानों की बदहाली यथावत् ही बनी रही किन्तु अपने हथकंडों से उनका वोट बटोरने मंे ये सफल होते रहे। मुसलिम धर्मगुरू भी राजनीतिक सरपरस्ती और निजी महत्वाकांक्षा के तहत राजनीतिज्ञों वाला स्वांग ही करते आये हैं और मुसलिम समुदाय के मूलभूत समस्याओं को नजरअंदाज कर उनके एकमुशत वोट पर फतवा जारी करने तक ही अपना दायित्व मानते हैं। इसके बावजूद इन सेकुलरिस्टों का विद्रूप चेहरा तब बेनकाब हो जाता है जब एक कथित सेकुलर पार्टी अपने एक सांसद को मात्र इस इल्जाम में पार्टी से नि’कासित कर देता है कि उसने गुजरात के विकास की तारीफ विदेश में कर दिया था।गोधरा ट्रेन कांड के बाद भड़का हिंसा अतीत बन चुका है। इतने सालों मे बहुत पानी बह चुका है और गुजरात ने विकास का एक नया अध्याय लिखा है। इससे समाज के सभी वर्गों को फायदा हुआ है और अब वे वत्र्तमान में जीना चाहते हैं। किन्तु वोट के स्वार्थ में उलझे सेकुलर बिरादरी और उनसे जुड़े बुद्धिजीवी और मीडिया न सिर्फ गड़े मुर्दे उखाड़ने के चतुर सयान खेलाड़ी हैं बल्कि हिन्दूत्व के मुद्दे पर इतना आक्रोशिात हो जाते हैं कि खुद अपने को प्रताड़ित पक्ष मानकर हल्ला. बोल की अगुवाई मंे शामिल हो जाते हैं। यही कारण है कि जो लोग अयोध्या और गोधरा के बाद के दंगे को हर पल हवा देते रहते हैं वे सिख विरोधी दंगा, क”मीर के लाखेा हिन्दुओ के हत्या आ विस्थापन का दर्द और गोधरा में ट्रेन में जले लोगों की संवेदन से कभी जुड़ नहीं पाते। ‘हिन्दू आतंक’ की नई व्याख्या गढ़नेवाले लोग साध्वी के नारको की वकालत तो करते हैं किन्तु दे”ा के विभिन्न भागों में विस्फोट करने वाले आतंकियों के नारको टेस्ट को साम्प्रदायिक मांग मान लेते हैं। वरुण गाॅंधी के कथित भड़काऊ भा’ाण पर हल्ला बोलनेवाले लोग लालू यादव के भा’ाण पर तीखी प्रतिक्रिया तक नहीं करते। और तो और चुनाव आयोग द्वारा वरुण गाॅंधी के भा’ाण के मामले में सुझाव और निर्देश के बाद भी काॅंग्रेस के इमरान किदवई और डी. श्रीनिवास के उŸोजक भा’ाणों पर न तो सेकुलर दलों की नजर जाती है और न ही चुनाव आयोग ही वरुण वाला तेवर अपना पाता है। मीडिया भी वरुण मामले में अपनाये गये अपने खबरोशं की धार को कुंद पाने लगता है। शाहबानो मामले में दिखाई गई तु’ितकरण नीति भी सेकुलर राजनीति का हिस्सा बनकर रह जाती है इस देश में। मुसलमानों द्वारा तलाक पर कोर्ट के आदेश को शरीअत मामले में दखल और भारतीयता और संविधान के ऊपर इस्लामिक बंधुत्व तथा कुरान को माननेवाली मानसिकता भी सेकुलर ही माना जाता रहा और सेकुलर समाज ने इस मुद्दे पर अपनी जुवान बंद ही रखी। कथित धर्मनिरपेक्ष देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारो से भरे सेकुलर बिरादरी ने सलमान रुशदी और तस्लीमा नसरीन के किताब पर लगे बंदिशके खिलाफ जुवान तक नहीं खोली। नरेन्द्र मोदी और भाजपा को कोर्ट की दुहाई देने वाली जमात ने समान नागरीक संहिता पर कोर्ट के दो आदेश आने के बाद भी न्यायिक फैसले को मानना भी शायद साम्प्रदायिक ही मान लिया है। पता नहीं राजनीति और मीडिया का साम्प्रदायिकरण क्या-क्या गुल खिलाने वाली है। पर इस आगाज के अंजाम भयावह होने का खतरा तो बना ही हुआ है।
- बिपिन बादल
मंगलवार, 12 मई 2009
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1 टिप्पणी:
बहुत सटीक !
सब मुस्लिम भयादोहन के लिए किया गया प्रयास है .
शायद वो दिन आये जब देश जगे .
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