गुरुवार, 14 मई 2009

कविता, जो मैंने नही लिखी

सत्य

सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए– जाए सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता पथराई नज़रों से वह यों ही
देखता रहेगा सारा –सारा दिन,
सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा –सारा दिन, सारी–सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक
लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा लोथ की तरह,
स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!


नोट - यह कविता नागार्जुन जी की है. मुझे काफी अच्छी लगी..

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