कब तक हम सहते रहें, सत्ता के अन्याय
पानी सिर पर आ गया, कर लें कोई उपाय।
दर्शक बनकर देखते, हम सत्ता का खेल
बिन पटरी के भागती सभी दलों की रेल।
राजनीति दिखला रही, अजब अनूठे रंग
उनकी पूजा हो रही, जो चेहरे बदरंग।
लोकतंत्र के देश में इसका है अवसाद
धुंध चढा सूरज बना, मेरा गांधीवाद।
कैसे दुनिया से मिटे, बतला हा-हाकार
सच्चाई की देह पर होते हैं नित वार।
है ये शहरी सभ्यता, इससे मोह बिसार
जितने उंचे हैं महल उतने तुच्छ विचार।
सर्द गर्म सब सह लिया, मिला न फिर भी चैन
रिशते सारे हैं यहां, ज्यों पत्थर के नैन।
बुधवार, 6 मई 2009
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