ग़ज़ल काव्य और संगीत की एक ख़ूबसूरत विधा है। पहले ग़ज़लें फ़ारसी भाषा में लिखी जाती थीं। ग़ज़ल की शुरुआत काव्य की एक शैली के रूप में हुई, और फिर ये भारतीय गायकी की एक शैली बन गई। यह इस्लामी और भारतीय संगीत के आपसी संपर्क के सबसे खूबसूरत तोहफों में से एक है। गजल का विकास तेरहवीं शताब्दी के आस पास पश्चिमी भारत में हुआ। हिन्दी-उर्दू की पहली ग़ज़ल अमीर ख़ुसरो की लिखी मानी जाती है।
जब कभी यह प्रश्न पूछा जाता है कि ग़ज़ल क्या है तो सवाल सुन कर मन कुछ उलझन में पड़ जाता है। क्या यह कहना ठीक होगा कि ग़ज़ल जज़्बात और अलफ़ाज़ का एक बेहतरीन गंचा या मज्मुआ है? या यह कहें कि ग़ज़ल उर्दू शायरी की इज़्ज़त है,आबरू है? लेकिन यह सब कहते वक़्त मेरे मन में एक प्रश्न उठता है कि क्या यह सच है! माना कि ग़ज़ल उर्दू काव्य का एक अत्यंत लोकप्रिय ,मधुर, दिलकश और रसीला अंदाज़ है मगर यह भी उतना ही सच है कि उर्दू साहित्य में ग़ज़ल हमेशा चर्चा का विषय भी रही है। एक तरफ तो ग़ज़ल इतनी मधुर है कि लोगों के दिलों के नाजु़क तारों को छेड़ देती है और दूसरी ओर वही ग़ज़ल कुछ लोगों में ऐसी भावनाएं पैदा करती है कि जनाब कलीमुद्दीन अहमद साहब इस ‘नंगे शायरी’ यानी बेहूदी शायरी कहते हैं। जनाब शमीम अहमद इसे मनहूस शैली की शायरी कहते हैं, और जनाब अज़्मतुल्लाखान साहब तो यह कहने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते कि ,’ग़ज़ल क़ाबिले गर्दन ज़दनी है’,यानी इसे जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिये।
वैसे, ग़ज़ल में दो पंक्तियों में स्केल-मीटर के साथ कोई बात कही जाती है जिसे एक शेर (बहुवचन: अशआर) कहते हैं। ग़ज़ल के प्रथम शेर को मकता और आख़िरी शेर को कहा जाता है। आख़िरी शेर या मतले में शायर प्राय: अपना उपनाम या तख़ल्लुस देता है। ग़ज़ल का हर शेर अपने में संपूर्ण अर्थ लिए होता है। एक ग़ज़ल के विभिन्न शेर अलग-अलग भावनाएँ या अलग-अलग विषय लिए भी हो सकते हैं। एक ग़ज़ल के हर शेर का तुकान्त (rhyme) एक ही होती है। ग़ज़ल उर्दू भाषा में अधिक लिखी गई हैं परंतु अन्य भाषाओं में भी लिखी जा सकती हैं और लिखी जाती रही हैं जैसे दुष्यंत कुमार ने अपनी पुस्तक साये में धूप में हिन्दी में बहुत सी ग़ज़लें लिखी हैं।
कुछ जानकर की राय में ग़ज़ल का मतलब है औरतों से बातचीत अथवा औरतों के बारे में बातचीत करना। यह भी कहा जा सकता है कि ग़ज़ल का सर्वसाधारण मतलब है माशूक़ से बातचीत का माध्यम। उर्दू के प्रख्यात साहित्यिक स्वर्गीय रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी साहब ने ग़ज़ल की बड़ी ही भावपूर्ण परिभाषा लिखी है। आप कहतेहैं कि,’ जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता है और हिरन भागते समय किसी झाड़ी में फंस जाता है जहां से वह निकल नहीं पाता ,उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज़ निकलती है। उसी करुण स्वर को ग़ज़ल कहते हैं। इसीलिये विवसता का दिव्यतम रूप प्रकट होना ,स्वर का करुणतम हो जाना ही ग़ज़ल का आदर्श है।’
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये
पंखुड़ी एक गुलाब की सी है।- मीर
ग़ज़ल शेरों से बनती है। हर शेर में दो पंक्तियाँ होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की खा़स बात यह है कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक सम्पूर्ण कविता होता है और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले,पिछले अथवा अन्य शेरों से हो ,यह ज़रुरी नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना गलत न होगा कि उसमें २५ स्वतंत्र कवितायें हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे शेर को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं। मत्ला ग़ज़ल के पहले शेर को ‘मत्ला’ कहते हैं। इसके दोनो मिसरों में यानि पंक्तियों में ‘काफिया’ होता है। अगर ग़ज़ल के दूसरे शेर की दोनों पंक्तियों में का़फ़िया तो उसे ‘हुस्ने मत्ला’ या ‘मत्ला-ए-सानी’ कहा जाता है। क़ाफिया वह शब्द जो मत्ले की दोनों पंक्तियों में और हर शेर की दूसरी पंक्ति में रदीफ़ के पहले आये उसे ‘क़ाफ़िया’ कहते हैं। क़ाफ़िया बदले हुये रूप में आ सकता है। लेकिन यह ज़रूरी है कि उसका उच्चारण समान हो, जैसे बर, गर, तर, मर, डर, अथवा मकाँ,जहाँ,समाँ इत्यादि। रदीफ़ प्रत्येक शेर में ‘का़फ़िये’ के बाद जो शब्द आता है उसे ‘रदीफ’ कहते हैं। पूरी ग़ज़ल में रदीफ़ एक होती है। ऐसी ग़ज़लों को ‘ग़ैर-मुरद्दफ़-ग़ज़ल’ कहा जाता है। ग़ज़ल के आख़री शेर को जिसमें शायर का नाम अथवा उपनाम हो उसे ‘मक़्ता’ कहते हैं। अगर नाम न हो तो उसे केवल ग़ज़ल का ‘आखरी शेर’ ही कहा जाता है। शायर के उपनाम को ‘तख़ल्लुस’ कहते हैं।
अमूमन ग़ज़लकार कोई न कोई तखल्लुस रख लेते हैं, लेकिन उसको साकार नहीं कर पाते हैं। कम भी ऐसे ग़ज़लगो हुए हैं जिन्होंने अपने तखल्लुस को सार्थक किया है। गालिब, मीर जैसे महान शायर भी इसको सार्थक करने में उतने सफल नहीं हो सके। पूरे ग़ज़लकारों पर नज़र दौड़ाई जाए तो बलवीर सिंह ‘रंग’ ऐसे ग़ज़लकार हैं, जिन्होंने अपने ‘रंग’ उपनाम को सार्थक किया है। उसी प्रकार श्री देवेन्द्र ‘मांझी’ ने भी अपने ‘मांझी’ उपनाम को तमाम उपमाओं में पिरोकर ग़ज़ल को एक नई दिशा देने का काम किया है। मांझी को ग़ज़ल की व्याकरण और काफिया-रदीफ की मुक्कमल जानकारी है, लिहाजा वह औरों से अलग दिखता है।
ये है मांझी की गजल:
अंधी रातों के दरम्यां कैसे,
डूब जाती हैं सिसकियां कैसे ?
ला के इस आरजू के साहिल पर,
तोड़ दी तूनें सीपियां कैसे ?
याद जब कोई करने वाला नहीं?
आ रही हैं ये हिचकियां कैसे ?
लिखके अ’शकों की रोशनाई से,
उसने भेजी है अर्जियां कैसे ?
तीरगी में नहा रहे हैं लोग?
शहर की गुल हैं बतियां कैसे ?
चल के देखें हूजूर में उनके?
मुआफ होती हैं गलतियां कैसे ?
तेरी कशती से झील में मांझी
वो पकड़ते हैं मछलियां कैसे ?
सोमवार, 18 मई 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने...सरल सीधे शब्दों में ....मांझी साहेब की ग़ज़ल और मक्ता बहुत ही उम्दा है...शुक्रिया आपका.
नीरज
अच्छी गज़ल पढवाई आपने धन्यवाद।
एक टिप्पणी भेजें