शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

कम हो रहे हैं नागा साधु


दिन-दुनिया से कोई सरोकार नहीं, अपने में ही मदमस्त। देह पर भभूत लपेटे, बेतरतीब बढ़े बाल-नाखून, हाथों में त्रिशूल-ओ-कमण्डल। सामाजिक संस्कार ओ रीति-रिवाज से वास्ता नहीं। निर्वस्त्र, निर्गुण। स्वयं को आदिदेव महादेव के अनुचर बताने वाले - नागा साधु ही तो हैं। कहां रहते हैं? क्या करते हैं? जीवनयापन कैसे होता हैï? आम जन को इसका जरा भी भान नहीं।

कुछ ऐसे ही अलमस्त होते हैं नागा साधु। आम लोगों को उनके दर्शन तभी होते हैं जब कोई विशेष धार्मिक अनुष्ठान हो रहा हो। मसलन, कुंभ और अर्धकुंभ। कहने को अखाड़ों में रहते हैं, लेकिन और साधु-संतों की तरह इनके दर्शन नहीं होते हैं। इन्हें अखाड़ों का सैनिक कहा जाता है। हाथों में विभिन्न पौराणिक अस्त्र-शस्त्र से सुस्सजित। जब ये चलते हैं तो लोग बाग इनका रास्ता खाली कर देते हैं। यहां तक कि सरकारी प्रशासन भी पूरी तरह इनके लिए चुस्त-दुरूस्त रहता है। महाशिवरात्रि के दिन हरिद्वार के प्रसिद्घ 'ब्रह्मï कुंडÓ (चर्चित नाम हरकी पौड़ी) में जब विभिन्न अखाड़ों के नागा साधुओं ने स्नान किया तो कोई भी आम लोग घाट पर स्नान के लिए नहीं था।

यंू तो हरेक के मन में यह सवाल कौंधता है कि नागा साधु रहते हैं कहाँ? करते हैं कहाँ? जबाव मिलना इतना आसान नहीं है। हालंाकि, यह विभिन्न अखाड़ों से संबद्घ होते हैं। कंदराओं में निवास करते हैं। जो भी मिला खा लिया। शिव के अनुचर जो ठहरे। लेकिन हाल के दिनों में यह खबर आने लगी है कि इनकी संख्या कम हो रही है। एक नहीं कई अखाड़ों में यह कमी देखी गई है। सबसे बड़ा अखाड़ा है जूना अखाड़ा। जूना अखाड़ा के महामण्डलेश्वर आचार्य श्री अवधेशानंद गिरी जी महाराज भी इससे सहमति जताते हैं। उनकी रायशुमारी यह है कि पहले की तरह अब लोग महज भावावेश में आकर कंदराओं में नहीं आ जाते। आज का साधु अध्ययनशील होना चाहता है। सामाजिक संस्कारों की भी ईच्छा रखता है। पहले अध्ययन करता है, सीखता है, फिर साधु की रंगत में आता है।