मराठी मानुष बनाम उत्तरी भारतीय लोग। यह मुद्दा शिवसेना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई बनता जा रहा है, और इससे भगवा खेमा दो फाड़ हो गया है। साथ ही कांग्रेस भी इसमें परोक्ष रूप से कूद कर बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अभी से अपनी दुकान चमकाना चाहती है। सच तो यही है कि शिवसेना शुरू से स्टंट की राजनीति करती रही है। यह राजनीति कुछ समय के लिए पॉप्युलर भले हो जाए, कोई समस्या नहीं सुलझाती। चार दशकों की राजनीति में ठाकरे ने महाराष्ट्र की कोई समस्या नहीं सुलझाई। पार्टी राज्य में भी सत्ता में आई और केंद्र में भी, मगर मराठी अस्मिता के सवाल पर भी महाराष्ट्र में या मुंबई में हालात बेहतर होने का दावा खुद शिवसेना भी नहीं कर सकती।
फिर भी, ठाकरे उसी शैली में राजनीति करने को मजबूर हैं, क्योंकि अब राज ठाकरे के रूप में उनका नया राइवल उभर आया है। पूरी जिंदगी मराठी राजनीति करने के बाद उन्हें प्रदेश की मराठी जनता के सामने एक बार फिर खुद को साबित करना है। नहीं कर सके तो खारिज कर दिए जाएंगे। खारिज करने की यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। यह बात पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में ठाकरे देख चुके हैं। इसीलिए राजनीतिक वानप्रस्थ से वापस आकर उन्होंने उद्धव के हाथों में सौंपी जा चुकी कमान एक बार फिर अपने हाथ में ली है।
इससे इत्तर बात की जाए कांग्रेस की और विशेषकर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की तो आजकल वह युवाओं के बल पर भारतीय राजीनीति की दशा-दिशा बदलने की योजना पर आगे निकल पड़े हैं। युवाओं के देश में यदि एक युवा नेता ऐसा करता है, तो कोई किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हां, शिवसेना सरीखे क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपनी दुकान फीकी पड़ती जरूर नजर आने लगती है। अतीत के बजाय भविष्य के लिए क्रियाशील होने की सलाह देते हैं राहुल गांधी। तो भला, क्यों राहुल पर तनी हैं सेनाएं? सवाल अहम है।
भारत का हर हिस्सा, सब भारतीयों के लिए है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने पटना में यही कहा था। लेकिन शिवसेना और मनसे इस पर बौखला गईं। क्या राहुल ने कोई नई बात कह दी? उन्होंने तो भारत के संविधान के लिखे को ही दोहराया है। संविधान के आर्टिकल-19 के मुताबिक, प्रत्येक भारतीय देश में कहीं भी जा सकता है और रह सकता है। खैर, राहुल ने शिवसेना को अपने ही तरीके से जवाब दिया। दिल्ली लौटकर अगले दिन ही उन्होंने महाराष्ट्र के युवा नेता राजीव सातव को ऑल इंडिया यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया। राजीव के अध्यक्ष बनने से महाराष्ट्र में साफ संदेश गया कि देश में भी मराठी मानुस के लिए बहुत बड़ी जगह है। बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों पर मुंबई में हमले के खिलाफ लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और हाल में संघ और भाजपा भी विरोध जता चुके हैं। लेकिन शिवसेना ने सबसे निचले स्तर का हमला राहुल और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया के खिलाफ किया।
इसकी वजह साफ है। पिछले तीन साल में जिस तरह राहुल की लोकप्रियता बढ़ी है उससे शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे बुरी तरह विचलित हो गए हैं। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष प्रभा ठाकुर ने कहा है कि बाल ठाकरे पुत्र मोह से ग्रस्त होकर इस तरह कीचड़ उछाल रहे हैं। अस्सी साल से ऊपर के हो चुके ठाकरे ने अपने बेटे उद्धव को राजनीति में स्थापित करने के लिए भतीजे राज ठाकरे को अलग-थलग कर दिया। मगर राहुल से पहले राजनीति में सक्रिय उद्धव को जनता के बीच वह स्वीकार्यता नहीं मिल पाई, जो राहुल ने कम समय में अर्जित कर ली। राहुल के ताजा बयान से बिहार और उत्तरप्रदेश के नौजवानों को जबर्दस्त हिम्मत और सुरक्षा का अहसास मिला है।
सच तो यह भी है कि राहुल की नई तरह की राजनीति पुराने कांग्रेसियों को राजीव गांधी की याद दिला रही है। राजीव द्वारा कंप्यूटर की शुरुआत करने पर उनका भी इसी तरह विरोध हुआ था। लेकिन राजीव के एक पुराने साथी कहते हैं कि आज माउस के एक क्लिक पर पुरी दुनिया है और आश्चर्य नहीं कि अगले दस साल में इस ग्लोबल विलेज की कैपिटल भारत बन जाए। भारत से ही कंप्यूटर का सबसे ज्यादा टैलंट निकल रहा है। इंटरनेट को शांति का नोबेल देने की बात हो रही है। क्योंकि नेट तोड़ता नहीं जोड़ता है। राहुल भी भारत को जोडऩे की बात कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि झगड़ा यूं कहें कि वाकयुद्घ केवल शिवसेना और कांग्रेसियों के बीच ही है। संघ भी पहले ही इसमें कूद चुका है। संघ के वरिष्ठ नेता राम माधव ने कहा था कि संघ ने अपने स्वयंसेवकों को हिंदी भाषियों व उत्तर भारतीयों की रक्षा के लिए आगे आने का निर्देश दिया है। तो शिवसेना ने भी संघ पर प्रहार शुरू कर दिया है। पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने कहा कि मुम्बई दंगों के समय संघ कहां दुम दबाकर बैठा था? उन्होने संघ को सलाह दी कि मुंबई के मामले में बीच में ना आए, अगर हिंदी का प्रचार करना ही है तो दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार करके दिखाए।
दिलचस्प है कि भाजपा इस टकराव में पडऩे से फिलहाल बच रही है। इस बीच, शिवसैनिकों ने पाकिस्तानी खिलाडिय़ों के आईपीएल में खेलने की हिमायत करने वाले शाहरूख खान के विरोध में मुंबई में उनके घर पर प्रदर्शन कर अपना रूख और प्रदर्शित किया। साथ ही शिवसेना ने मुंबई पर सभी भारतीयों का हक होने की संघ की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया जताते हुए कहा डाला कि देश की औघोगिक राजधानी पर सिर्फ मराठी लोगों का ही अधिकार है। इस मुद्दे पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि वह भाषा के आधार पर भेदभाव के खिलाफ है। उनकी मांग है कि मराठी-गैर मराठी को लेकर महाराष्ट्र में जारी अराजकता रोकने के लिए कदम उठाए जाएं। संघ प्रमुख भागवत ने इससे पहले कहा था, 'मुंबई सभी भारतीयों की है। सभी समुदायों के लोग, विभिन्न भाषाएं बोलने वाले नागरिक और आदिवासी भारत की संतान हैं...किसी भारतीय को रोजगार की तलाश में देश के किसी भी हिस्से में जाने से कोई नहीं रोक सकता।Ó
राजनीतिक दृष्टिï से देखा जाए तो पिछले पचीस वर्षों में सिर्फ सीटों के लेनदेन पर छोटी-मोटी तनातनी को छोड़कर भाजपा और शिवसेना के बीच कभी कोई गंभीर टकराव नहीं देखा गया है। जहां तक सवाल भाजपा के वैचारिक पूर्वज यंू कहें कि उसके मातृसंगठन राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ का है , तो उसके साथ शिवसेना की कभी कोई तकरार भी नहीं सुनी गई। हकीकत चाहे जो हो, लेकिन एक आम भारतीय की नजर में पिछले तीन दशकों से शिवसेना की छवि संघ के ही किसी परिवारी संगठन जैसी रही है। ऐसे में शिवसेना नेतृत्व का एक दिन अचानक संघ के खिलाफ उग्र बयान जारी कर देना चकित करने वाली बात है।
कहने को संघ जातीय और क्षेत्रीय पहचानों के ऊपर राष्ट्रीय पहचान को हमेशा से ही तरजीह देता आया है। लेकिन उसकी राजनीतिक प्रतिनिधि भाजपा ने जब असम में एजीपी, महाराष्ट्र में शिवसेना, आंध्र प्रदेश में टीडीपी, तमिलनाडु में बारी-बारी दोनों द्रविड़ पार्टियों और गोरखालैंड और अन्य क्षेत्रों की उग्र क्षेत्रीयतावादी ताकतों के साथ गठबंधन बनाया तो संघ को को कभी इस पर एतराज जताते नहीं सुना गया। हालिया घटनाक्रम में भाजपा-झामुमो गठबंधन पर भी किसी ने चूं तक नहंी किया। चालीस साल पहले हिंदी-हिंदू-हिंदुस्थान का नारा लगाने वाले संघ परिवार का काम इस बीच हिंदी भाषा और हिंदीभाषी लोगों की अलग से कोई चिंता किए बगैर भी बखूबी चलता रहा। इस परिवार की राजनीतिक भुजा भाजपा के दोस्तों की सूची में हिंदी विरोध और हिंदीभाषी विरोध को अपना राजनीतिक औजार बनाने वाली ताकतें भी शामिल रहीं, लेकिन इससे कभी उसे कोई नुकसान नहीं उठाना पड़ा। संघ नेतृत्व ने इस दौरान एक बार भी उसे न तो ऐसा करने से रोका, न ही इस दिशा में आगे आने वाले खतरों से आगाह किया।
सियासी हलकों में यह भी माना जा रहा है कि नए भाजपा अध्यक्ष गडकरी महाराष्ट्र से हैं और उनके आने के बाद बदलाव की उम्मीद की जा रही थी। सवाल यह भी है कि 2014 में होने वाले महाराष्टï्र विधानसभा चुनाव में बाल ठाकरे नाम की कोई शक्ति रहेगी या नहीं? इतना ही नहीं, यह भी कहने-सुनने को मिलती है कि शिवसेना को ऐसी ताकतों में शामिल करके देखना शायद ठीक न हो, क्योंकि गुजरातियों, मलयालियों और मुसलमानों के खुले विरोध के बावजूद कुछ समय पहले तक उसने हिंदीभाषियों को कभी सीधे तौर पर अपने हमले का निशाना नहीं बनाया था। उसकी धार इस तरफ मोडऩे का श्रेय राज ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को जाता है, लेकिन दोनों ताकतों के बीच इस दिशा में होड़ की राजनीति अब शुरू ही हो गई है तो दोनों में से किसी के लिए भी पांव पीछे खींचना शायद आसान न हो। इस तरह यह पहला मौका है, जब संघ का काम चित भी मेरी, पट भी मेरी वाली रणनीति से नहीं चलने वाला है।
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