मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

रोशनी अभी बाकी है...

आठ लाख बच्चे अभी भी बिहार में स्कूल नहीं जा पाते हैं, जबकि पिछले चार वर्षों में ये आंकड़ा 25 लाख से घटकर आठ लाख पर पहुँचा है।बिहार में सरकार बच्चों के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिलाने वाले क़ानून को अगर सही मायने में लागू करके दिखा दे तो उसे किसी चमत्कार से कम नहीं माना जाएगा। यहाँ सरकार के ज़रिए उपलब्ध कराई गई प्राथमिक शिक्षा-व्यवस्था जैसी चरमराई हुई है, वैसी शायद ही कहीं और होगी।
पटना के काठपुल मंदिरी मोहल्ले के सरकारी प्राइमरी स्कूल बजबजाती गंदगी से भरे नाले के बिल्कुल किनारे पर किसी तरह टिका हुआ एक जर्जर स्कूल भवन है। दो कमरों का एक मकान, जिसमें पहली से पाँचवीं कक्षा तक पढ़ाई के लिए बने दो-दो स्कूल चलाए जा रहे हैं। बिना भवन वाले लोदीपुर उर्दू प्राइमरी स्कूल को काठपुल मंदिरी के राजकीय प्राथमिक विद्यालय में शरण दी गई है। अमूमन चार शिक्षिकाएँ और कुल मिलाकर पचास बच्चे आते हैं स्कूल में। जबकि रजिस्टर में तीन सौ से अधिक बच्चों के नाम दर्ज हैं। अभी तक जो स्कूल चलाने का नियम-क़ानून बना हुआ है वो सब ठीक से लागू होता तो राजधानी पटना के इस सरकारी स्कूल की नरक जैसी हालत क्यों होती? वहीं, कुपोषण के शिकार लग रहे यहाँ के स्कूली बच्चों का कहना है कि स्कूल में चापाकल (हैंडपाइप) नहीं है इसलिए पानी पीने के लिए दूर जाना पड़ता है। बहुत दिनों से स्कूल की बिजली लाइन कटी हुई है। शौचलाय नहीं है, ऐसे में शौच के लिए नाले के उस पार जाना पड़ता है। बरसात में जब छत से पानी चूने लगता है तो बोरिया-बस्ता लेकर इधर-उधर भागना पड़ता है।
जब राजधानी पटना का यह आलम है, जहां मुख्यमंत्री से लेकर तमाम विभागों के आला अधिकारी और मंत्री मौजूद होते हैं। गाहे-बेगाहे सड़कों पर अपनी उपस्थिति का एहसास भी करा जाते हैं। पटना शहरी क्षेत्र से आगे मनेर प्रखंड के ग्रामीण इलाके के गाँव ख़ासपुर में एकमात्र सरकारी प्राइमरी स्कूल की शक्ल-सूरत देखी तो लगा जैसे वर्षों से बेकार पड़े तबेले का जर्जर अवशेष। वहाँ दो महिला शिक्षक और आठ-दस बच्चे स्कूल के अस्तित्व में होने का संकेत भर दे रहे थे।
दरअसल, मूल समस्या जो है वो संसाधन की, पैसे की समस्या है। शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव अंजनी कुमार सिंह के अनसुार, विधेयक पर चर्चा के लिए राज्य सरकार की तरफ से दिल्ली में मैंने कहा था कि बिल के प्रावधान तो बड़े अच्छे-अच्छे हैं, लेकिन उन्हें लागू करने में जो बोझ राज्य सरकार वहन ही नहीं पाएगी,उसे जबरन राज्य पर कैसे डाला जा सकता है। ठीक है, आने वाले ख़र्च का 75 प्रतिशत केंद्र दे और 25 प्रतिशत राज्य दे तो फिर ठीक है।
जमीनी हकीकत तो यह है कि शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव भी मानते हैं कि आठ लाख बच्चे अभी भी बिहार में स्कूल नहीं जा पाते हैं, जबकि पिछले चार वर्षों में ये आंकड़ा 25 लाख से घटकर आठ लाख पर पहुँचा है। पंचायत स्तर पर दो लाख से ज़्यादा प्राइमरी और मिडिल स्कूल शिक्षकों की नियुक्ति की गई है, लेकिन ये सच्चाई उन्होंने छिपा ली कि जाली शैक्षणिक प्रमाणपत्रों को दिखाकर हज़ारों-हज़ारों अयोग्य और फज़ऱ्ी शिक्षक नियुक्त हुए हैं। ऐसे में यहाँ लोगों का भरोसा टूटा है। सभी बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार दिलाने वाला क़ानून बिहार में ठीक से लागू हो सकेगा, इसपर थोड़ा नहीं, पूरा संदेह प्राय: सभी वर्गों में है।
अब जहाँ शैक्षणिक महकमे से जुड़ी हुई हर इकाई भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई हो, जहाँ राज्य सरकार की नाक के नीचे पटना के सैंकड़ों प्राइमरी स्कूल नारकीय हालात में पड़े हों, जहाँ शिक्षा व्यवस्था में सुधार के पहले से बने नियम-क़ानून बेअसर नजऱ आने लगे हों, जहाँ मध्याह्न भोजन योजना से लेकर 'आँगन बाड़ीÓ या बाल पोषाहार योजना पूरी तरह से बेईमानों और भ्रष्टाचारियों के हाथों लुट रही हों। वहाँ केंद्रीय शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल का ड्रीम प्रोजेक्ट परिकल्पना से नीचे सरज़मीन पर उतर पाएगा?

कोई टिप्पणी नहीं: