मां बाजरे की रोटी पका रही थी।कच्चे लकडी के जलने से घर में धुआं फ़ैल चुका था.चारपाई पर पिताजी लेटे हुए थे.दस साल की बच्ची चुपके से घर से निकल पडी.आज पुर्णीमा की रात है.साहब के घर कविजन आए होंगे.कविताऎं गाऎंगे और पुरी-जलेबी खाऎंगे.उसे भी खाने को मिलेगा-यह सोचकर वह चुपके से साहब के कमरे मे आकर खडी हो गयी.एक कवि ने कहा "मेरे मह्बुब की तरह यह चांद भी खुबसुरत लग रहा है. इसक रंग भी उसके होठों की तरह लाल है."
तभी उसकी मां चिल्लाती हुई आई और उसके बालों को पकडकर खीचने लगी।"उधर तेरा बाप बीमार है,घर मे खाने को कुछ भी नही है और इधर तु साहेब लोगों की कविता सुन रही है."फ़िर उसने खिडकी से झांकते हुए पुनम की चांद को देखा और कहने लगी"देखो तो आज ये चांद कितन बदसुरत लग रहा है,इसका रंग गर्म तवे की तरह लाल है."
- अरविन्द झा
बिलासपुर
09752475481
सोमवार, 7 सितंबर 2009
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7 टिप्पणियां:
मार्मिक लेख ....और क्या कहे
एक कवि और एक दुखियारी के दिमागी सोच का फर्क देखिये !
haqiqat ka chand,bahut hi marmik.
सच को चरितार्थ करने वाला मार्मिक लेख
sach ka kafhi darnak chitran hai
sahi hai ki samay sab kuch hai
chhoto kahani our saral sabdon ke jariye lekhak ne bahut bade satya ko prakat kiya hai.
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