शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

..तो ख्याल कौन गायेगा


- उस्ताद गुलाम मुस्तफा खां


हमारे घराने के लोग तराना गायकी के लिए प्रसिद्ध हैं, मैं भी गजलें गा सकता हूं, तराना भी गा सकता हूं लेकिन जब मंैने गाना शुरू किया तो सोचा कि, अगर मैं भी यही सब गाता रहा तो ख्याल कौन गायेगा। बस मैं ख्याल गायकी में जुट गया। अल्लाह का करम जो मुझे ऐसी बुलंदी से नवाजा। संगीत अल्लाह का कीमती सरमाया है, इसकी ओर ध्यान दीजिये, इसे बचाइये।

बढ़ती व्यावसायिकता के कारण संगीत की दुनिया चकाचौंध भरे खेल के मैदान में तब्दील होती जा रही है और अच्छा संगीतकार बनने के लिए इल्म एवं साधना के बजाय अब आत्मप्रचार और दिखावा बढ़ता जा रहा है। संगीत के क्षेत्र में व्यावसायिकता बढऩे से कलाकारों के बीच राजनीति, ईर्ष्या और गुटबंदी बढ़ी है। गुटबंदी बढऩे से असल फन दब-सा गया है और प्रतिभावान फनकार गुमनामी के अंधेरे में जीवन बसर करने के लिए मजबूर हो गए हैं।

यह विडम्बना है कि संगीत के क्षेत्र में आज किसी फनकार की हैसियत उसके इल्म और साधना से नहीं, बल्कि मार्केट रेट से आंकी जाती है। आज शोर-शराबा परोसा जा रहा तथा हिंदुस्तानी संगीत खत्म हो रहा है। पश्चिमी देशों के संगीत में एक खुलापन है जो आम आदमी को सहज ही अपने आकर्षण में बांध लेता है। पाश्चात्य संगीत का खुलापन भारतीय संस्कृति के अनुकूल नहीं है। इसके प्रभाव से हमारे संगीत में अश्लीलता बढ़ गई है, लेकिन यह दौर ज्यादा टिकाऊ नहीं होगा। भारतीय शास्त्रीय संगीत में आसमान से पानी बरसा देने और पत्थर को भी पिघला देने की तासीर है। इसके सुर कड़ी साधना के बाद ही आत्मा की गहराई से निकलते हैं और इसीलिए हमारा संगीत शाश्वत कहा जाता है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत आधारित है स्वरों व ताल के अनुशासित प्रयोग पर। सात स्वरों व बाईस श्रुतियों के प्रभावशाली प्रयोग से विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। सात स्वरों के समुह को सप्तक कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के ये सात स्वर इस प्रकार हैं : षडज (सा), ऋषभ(रे), गंधार(ग), मध्यम(म), पंचम(प), धैवत(ध), निषाद(नि)।

सप्तक को मूलत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है...मन्द्र सप्तक़, मध्य सप्तक व तार सप्तक। अर्थात सातों स्वरों को तीनों सप्तकों में गाया बजाया जा सकता है। षड्ज व पंचम स्वर अचल स्वर कहलाते हैं क्योंकि इनके स्थान में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया जा सकता और इन्हें इनके शुद्ध रूप में ही गाया बजाया जा सकता है जबकि अन्य स्वरों को उनके कोमल व तीव्र रूप में भी गाया जाता है। इन्हीं स्वरों को विभिन्न प्रकार से गूँथ कर रागों की रचना की जाती है। राग संगीत की आत्मा हैं, संगीत का मूलाधार। किसी भी राग में ज़्यादा से ज़्यादा सात व कम से कम पॉंच स्वरों का प्रयोग करना ज़रूरी है। राग के स्वरूप को आरोह व अवरोह गाकर प्रदर्शित किया जाता है जिसमें राग विशेष में प्रयुक्त होने वाले स्वरों को क्रम में गाया जाता है। किसी भी राग में दो स्वरों को विशेष महत्व दिया जाता है। इन्हें वादी स्वर व संवादी स्वर कहते हैं। वादी स्वर को राग का राजा भी कहा जाता है क्योंकि राग में इस स्वर का बहुतायत से प्रयोग होता है। दूसरा महत्वपूर्ण स्वर है संवादी स्वर जिसका प्रयोग वादी स्वर से कम मगर अन्य स्वरों से अधिक किया जाता है। इस तरह किन्हीं दो रागों में जिनमें एक समान स्वरों का प्रयोग होता हो, वादी और संवादी स्वरों के अलग होने से राग का स्वरूप बदल जाता है।

भारतीय संगीत की साधना के लिए धैर्य और नियमबद्धता जरूरी है, लेकिन आम लोगों के बीच इसे लोकप्रिय बनाने के लिए इसकी सहज और सरल प्रस्तुति की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। पहले योग्य शार्गिद का चयन करके उस्ताद उसे अपने घर अथवा गुरुकुल में ही रखकर शिक्षा देते थे और पुत्रवत उसका सारा भार उठाते थे। इसी वजह से 'घरÓ और 'आनाÓ दो शब्दों के योग से घराना शब्द बना। पहले राजा-महाराजा खुद कलाओं के ज्ञाता होते थे। फन और फनकारों को गुणी राजाओं ने हर युग में बढ़ावा दिया, मगर अब खुद गुरुजनों के पास खाने के लिए नहीं होता तो वे शार्गिदों को अपने घर पर कैसे रखें। चिराग जले बिना रोशनी नहीं हो सकती और रोशनी तेल के बिना नहीं होगी। कॉलेज की डिग्रियां हासिल कर लेने से ही हिंदुस्तानी संगीत में महारत नहीं आ सकती। शास्त्रीय संगीत की साधना किसी योग्य गुरु की देखरेख में ही संभव है और अपने संगीत को जीवित रखने के लिए उसके उस्ताद फनकारों को बिना भेदभाव के राजाश्रय मिलना चाहिए।

शेरवानी पहनकर मंच से बड़ी-बड़ी हवाई बातें करने से हिंदुस्तानी संगीत का कल्याण नहीं होगा। अगर पूरी गंभीरता से कोशिश नहीं हुई तो हो सकता है कि हमारी आनेवाली नस्लों को अपने मुल्क के शास्त्रीय संगीत की शिक्षा हासिल करने के लिए विदेशों में भटकना पड़े।

अपने शहर में मैने जिंदगी का एक अहम हिस्सा गुजारा है। आज जब भी मुझे शहर की याद आती है तो मैं शेर गुनगुना लेता हूं,

'उनको याद आए तो शायद वो करें याद मुझे,

इतना मायूस न कर दिले नाशाद मुझे।Ó


(पद्मभूषण से सम्मानित रामपुर-सहसवान-ग्वालियर घराने के उस्ताद संगीतज्ञ )

1 टिप्पणी:

ओशो रजनीश ने कहा…

अच्छी प्रस्तुति ....
( क्या चमत्कार के लिए हिन्दुस्तानी होना जरुरी है ? )
http://oshotheone.blogspot.com