- विपिन बादल
चुनावी घोषणा के शंखनाद के बाद मौसमी बरसात की तरह तीसरें मोर्चे के आने का चलन-सा हो गया है, उद्धेशय क्या, नेतृत्व किसका आदि हर सवाल चुनाव के बाद तय करने की परम्परा-सी इस मोर्चे ने बना रखी है। जिसका सीधी मतलब है चुनाव परिणाम के बाद जोड़-तोड़ और मोल भाव के समीकरण पर तुक्का के रूप मे नये सरकार और नये नेतृत्व का अचानक अस्तित्व में आ जाना। कुल मिलाकर तीसरा मोर्चा हताश मानसिकता और निराश लोगों का जमावड़ा भर रह गया है जो ऐन केन प्रकारेण मात्र सता हासिल करना चाहता है।
तीसरे मोर्चे के गठन पर ध्यान दिया जाय तो साफ नजर आता है कि इसमें शामिल सभी दल कभी संप्रग या राजग का हिस्सा हुआ करता था। प्रमुख घटक दल से हाथ लगी निराशा और अतृप्त महत्वकांक्षाओं ने उन्हें अलग मोर्चा के रूप में खड़ा किया है। समस्त आकलन चुनावी भगदड़ पर अधारित है जिसमें हठात् पता ही नहीं चलता कि कौन किधर है। और चुनाव के बाद ऊँट किस करवट बैठेगा। तीसरे मोर्चे के गठन का तमाम आकलन सीट बँटवारा से लेकर, टिकट वितरण और चुनाव परिणाम के बाद तक अंसतु’टों के आकलन के पूर्वामान पर आधारित रहता आया है। अक्सर ऐसा भी हुआ कि चुनाव परिणाम आने के बाद तीसरी मोर्चा बिखर गया है और इसके घटक दल सत्ता के नजदीक दिखनेवाली पार्टी या मोर्चा की ओर छिटक गई है।
बहरहाल तीसरे मोर्चे में जहां मायावती और देवगौड़ा जैसे प्रधानमंत्री पद के स्वघोषित दावेदार हैं वही बंगाल और केरल को छोड़कर बाकी जगह पहचान की संकट से गुजर रहे वामपंथियों का जमावड़ा भी है। परजीवी वामपंथी पार्टी दूसरे के कंधे पर बैठकर ही अपना अंकशास्त्र मजबूत करती रही है। किन्तु इस बार कांग्रेस से हुए खटास और लालू-पासवान द्वारा संप्रग नहीं छोड़ने के ऐलान ने बंगाल और केरल के बाहर इनके खाता खुलने की स्थिति पर ही प्रशन चिन्ह लगा दिया। बिहार में टिकटों के बंदरबाट से लालू पासावन की जोड़ी ने भले ही कांग्रेस से पार्टी स्तर पर अलग राह चुनी पर वे वामपंथियों को घास भी नहीं ड़ाले। केरल और बंगाल जैसे अपने गढ़ों में भी इस बार वामपंथियों की हालत काफी पतली है। गठजोड़ के दौर में संख्याबल की महता को देखकर उन्होंने एच.ड़ी देवगौड़ा चन्द्र बाबू नायडु, जयललिता आदि लोगों की भीड़ जुटाकर वह अपने लिए मात्र कुछ सीटों का ईजाफा चाहती है।
तीसरे मोर्चे की बात सुनकर मैथिली की एक लोकोक्ति याद आती है-तीन टिकट, महा विकट, यानि कि अपने ही उद्देशय को बिगाड़नें वाले लोगों का जमावड़ा है। वैसे भी, तीसरी मोर्चा नाम से ही स्प’ट है कि ये चुनावी मैदान में कहीं स्पर्धा में न होकर अपने ’तीसरा’ पहले से ही मानकर चल रहे है ठीक वैसे ही जैसे पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा दिल्ली में पहले से ही घोषित कर चुकी थी कि 'भारी' पड़ा कांग्रेस।
मोर्चे में शमिल दलों का हाल यह है कि इन दलों और उसके नेताओं का राज्य से बाहर पहचान का घोर संकट है। मायावती ने पहले ही प्रधानमंत्री पद की दावेदारी और घटक दलों से चुनावी तालमेल न करने की घोषणा कर तीसरे मोर्चे की हवा पहले ही निकाल दी। किन्तु अपने सीटों के चिंता में वामपंथियों को उतावलान देखते ही बनता है। राज्य-बीजद गठबंधन टूटते ही वामपंथी एक तरफा उसका स्वागत करने लगे और येचुरी तो 'सीताराम' भजते तुरंत नवीन पटनायक के दरबार में पहुंच गये। पटनायक का स्तुतिगान कर वे उड़ीसा में भी बीजद के सहारे एकाध सीट प्राप्त करने की फिराक में दिखते रहे। बावजूद तमाम दौड़-भाग के वामपंथी अपनी हार लगभग स्वीकर ही चुके हैं। तभी तो वामपंथी नेता अभी से 'कांग्रेस' से परहेज नहीं और चुनाव के बाद धर्मनिरपेक्ष सरकार का राग अलापना शुरू कर दिया है।
बिहार मे संप्रग घटक दलों के बिखराव और जदयू तथा राजद मे बगावत के बाद भी तीसरे मोर्चे या वामपंथियों को कोई लाभ मिलना नही दिखा। लालू पासवान ने स्प’ट कहा है कि वें संप्रग का घटक बने रहेंगे। साथ ही बगावती नेताओं ने भी कांग्रेस या अन्य दलों का ही दामन थामा है। तीसरे मोर्चे की हताश मानसिकता ही है किय यह धड़ा अभी से दो स्पष्ट ध्रुवों मे बंटा दिख रहा है। सबकी अपनी गोटी अपनी चाल है।
वैसे भारतीय लोकतंत्र अनिशचतताओं से भरा पड़ा है और राजनीतिक स्वार्थ बेमेल गठजोड़ पर इस हदतक आश्रित है कि कब क्या हो जाय, इसका पूर्वानुमान लगाना नितांत मुशिकल हो गया है। यह स्थिति तीसरे मोर्चे के लिए लाभदायक भी सिद्ध हो सकती है। दरअसल चन्द्रशखर दैवगौड़ा और गुजरल जैसे हाशिाये के लोगों को अचानक प्रधानमंत्री बन जाने की घटना ने कई क्षेत्रीय नेताओं में के महत्वकांक्षाओं में उफान ला दिया है। मायावती, पासवान, लालू, पवार, आदि नेताओं ने अपने प्रधानमंत्री बनने की इच्छा का सार्वजनिक उद्गार भी किया है। देवगौड़ा भी ’दूसरी पार्टी’ का मंसूबा बाँधे है। ऐसे में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और दो या अधिक उप प्रधानमंत्री आदि प्रलोभन एक नये गठजोड़ को चुनाव के बाद जन्म दे सकता है। सब कुछ चुनावी नतीजों और नेताओं के महत्वकांक्षाओं पर निर्भर करता है।
वैसे तो चुनाव परिणाम के बाद तीसरे मोर्चे का बिखराव तय माना जा रहा है। ’साम्प्रदायिकता’ या भ्र’टाचार और कमजोर प्रधानमंत्री के तर्क पर राजग और संप्रग के बीच ही ध्रुवीकरण होने की फिलहाल संभावना दिखती है। परंतु यदि गंगा उलटी बह गई तो ’पदों’ के भूखे नेताओं का जमावड़ा संप्रग और राज्य से छिटक कर फिर से एक नया इतिहास रच सकता है। जिससे हताश-निराशा जमावड़ा सŸाा के केन्द्र में आकर अचानक प्रांसगिक हो सकती है। अनिशिचतता भरे भारतीय लोकतंत्र में कुछ भी हो सकता है। यहां सुविधावादी अवसरवदिता के पक्ष में नई-नई परिभाषाऎं और तर्क गढ़ने मे पारगंत नेताओं का भरमार जो है। फिलहाल आगे-आगे देखिये होता है क्या ?
1 टिप्पणी:
chunavi mousam mein lekh prasangik hai... naye blog ke liye subhkamna.
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