- विपिन बादल
चुनावी मौसम में टिकटों की घो’ाणा के साथ ही नेताओं के दल बदल का सियासी खेल शुरु होना अब प्रचलन - सा बन गया हैं। अवसरवादी नेता जहाॅं जनसेवा के नाम पर जन प्रतिनिधि बनने को आतुर रहते हैं वहीं राजनीतिक दल भी महज कुछ सीटों के लोभ में इस संस्कृति को बढ़ावा देने में रत्ती भर भी हिचक नहीं दिखाते। पाला बदलकर दूसरे दल का दामन थामने का चलन भारतीय राजनीति में नया नहीं है और कई ऐसे नेता है जिन्होंने दल बदलकर कर न सिर्फ चुनावी वैतरणी पार की बल्कि सता सुख भी भोगा। ऐसे नामो की सूची लंबी है जिन्होंने समय समय पर पाला बदला। गठबंधन के दौर में व्यक्तिगत स्तर से लेकर पार्टी स्तर तक यह नजारा खूब देखने को मिलता है। कइ्र्र क्षेत्रीय पार्टी तो सत्ता सुख से इतर रह ही नहीं सकते। लोजपा प्रमुख राम विलास पासवान तो मंत्री पद की मलाई खाने के लिए राजनीतिक आस्था और प्रतिबद्धता बदलने के माहिर खेलाड़ी के रुप में अपनी खास पहचान बना चुके हैं।
विभिन्न पार्टियों द्वारा प्रत्याशिायों की घो’ाणा के बाद तो दूसरे दलों का दामन थामने वालों की मानो बाढ़ ही आ गई। इस चुनाव में राजनीतिक निस्था बदलने वाले सांसदों मे सलीम शोरवानी,सुखदेव सिंह लिब्रा, साधू यादव, रंजीता रंजन, एस बंगरप्पा रमेश दूबे, सीमाभाई जी पटेल, कीर्तिवर्धन सिंह वगैरह इस परम्परा में शामिल हो गये हंै। पहले भी जिन लोगों ने पुरानी पार्टी छोड़कर नई पार्टी का दामन थाम नये निजाम में महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया उनमें मौजूदा केंद्रीय शहरी विकास मंत्री एस जयपाल रेड्डी केंद्रीय मंत्री रेणुका चैधरी और शंकर सिंह वाघेला प्रमुख है।
इतना ही नहीं, 14 वी लोकसभा में भी ऐसे सदस्य रहे जो पूर्व मंे न सिर्फ दूसरे दलों मंे थे। बल्कि उन्हें सरकार में महत्वपूर्ण पद हासिल हुआ जिनमें एमवी चंद्रशखरन और रघुनाथ झा शामिल है। कांग्रेस उम्मीदवार के खिलाफ इनेलो और भारतीय लोकदल से लड़ चुके एमवी राजशोखरन यूपीए सरकार मंे मंत्री भी थे जबकि 1999 मंे जद (एकी) में निर्वाचित रघुनाथ झा 2004 में न सिर्फ राजद के टिकट पर विजयी हुए बल्कि बाद में मंत्री का पद भी उन्हें मिला। कांग्रेस के वरि’ट नेता सुबोधकांत सहाय भी ऐसे नेताओं मंे शामिल है जो दूसरे दलों में रहे परन्तु दल बदलने के इनाम के तौर पर मंत्री बना दिये गये।
पुरानी पार्टी छोड़कर नए के साथ पिछले सदन में मौजूद नेताओं मंे तेदेपा से कांग्रेस में आने वाली झांसी लक्ष्मी और चिंतामोहन, जनता पार्टी से चुनाव लड़ चुके कांग्रेस के आर एल जलप्पा कांग्रेस से 1971 मंे जीते बीजद के अर्जुन चरण सेठी शामिल है। तथ्य है कि अपनी पार्टी का टिकट नहीं मिलने पर दूसरी पार्टी का दामन थामने का सिलसिला दूसरे आम चुनाव से ही शुरु होने लगा था। 57 के चुनाव मे कम से कम 14 ऐसे लोग जनता की मुहर से लोकसभा में पहुंचे जो पिछली दफा किसी दूसरे चुनाव चिह्नन पर जीते थे। उनमें सुचेता कृपालानी प्रमुख थी जो 1952 में किसान मजदूर प्रजा पार्टी तो 1957 में भारतीय रा’ट्रीय कांगे्रस के टिकट पर नई दिल्ली संसदीय सीट से चुनी गई। ऐसे लोगों मंे चार ऐसे निर्दलीय भी शामिल थे जिन्होने बाद में दूसरे दलों से नाता जोड़ लिया था। 52 का चुनाव के बाद दूसरे दलो में शामिल होने वालों मेें असम के रोबोडेपल्ली, मध्य प्रदेश के लीलाधर जोशी, ओडीशा के उमा सी पटनायक ने कांगे्रेस का दामन थामा जबकि धुबरी से सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव जीतने वाले अमजद अली ने अगला चुनाव प्रजा सो”ालिस्ट पार्टी से लड़ा। इनके अलावा गुजरात के एफबी दाबी, केरल के पीटी पुन्नूस और बी कोकर, भटिंडा के हुकूम सिंह, शिावकाशी के एम रामसामी तमिलनाडु के एनआर मुनिसामी ने दूसरे दल का दामन था। दूसरी तरफ पार्टी का टिकट नहीं मिलने पर कांग्रेस के एफबी दागी, रणचंद्र मांझी के एल बाल्मीकि और एमएसएमएल केबी पोकर, आरएसपी के त्रिदीप चैधरी ने 57 का चुनाव निर्दलीय के तौर पर लड़ा और जीते।
दल बदल 1977 और 1989 मंे सबसे ज्यादा स्प’ट प्रतीत होता है जिसकी वजह बंटे विपक्षी दलों का एकजुट होना है। 1977 में जहाॅं पूर्व काॅंग्रेसी मोरारजी देसाई केन्द्र में पहले गैर काॅंग्रेसी सरकार के मुखिया बने वहीं बाद में विशवनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशोखर और देवगौड़ा ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। बावजूद इसके ऐसा कभी नहीं रहा है जब नेताओं ने व्यक्तिगत स्वार्थ में पाला नहीं बदला हो।
सर्वविदित है कि दे”ा के पूर्व प्रधानमंत्री मोराजी देसाई किसी जमाने में कांग्रेस के वरि’ठ नेता हुआ करते थे और काॅंग्रेस के पक्ष में वेाट माॅंगने की उनकी दलील होती थी कि यही पार्टी दे”ा को स्थिर सरकार दे सकती है। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्र”ोखर भी किसी जमाने में कांग्रेस के युवा तुर्क माने जाते थे। पूर्व प्रधानमंत्री एच डी दैवगौड़ा ने कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने पर बागी के तौर पर चुनावी सफर की शुरूआत की थी तो पूर्व प्रधानमंत्री विशवनाथ प्रताप सिंह भी कभी कांग्रेस के समर्पित नेता थे। और उन्हें शीर्’ा पद तक ले जाने वाले देवीलाल उन शुरूआती नेताओं में शुमार हैं जिन्होंने कांग्रेस से बगावत कर चुनाव लड़ा था।
यूपीए सरकार मंे महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाल रहे कई सदस्य विभिन्न वजहों से पूर्व में पार्टी से बाहर चले गए थे और लौटने पर भी उन्होंने उसी प्रकार का सम्मान हासिल किया जिनमें पी चिंदबरम, अर्जुन सिंह, सतपाल महाराज शामिल है जो पीवी नरसिंह राव के जमाने में कांग्रेस से अलग हो गए थे। इनमें से अधिकांश का बाहर जाना और लौटना पूरी तरह अवसरवाद का नतीजा था। इसके विपरीत कुछ नेताओं ने देश में हमेशा एक धारा की राजनीति की जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और भाजपा नेता लालकृ’णा आडवाणी प्रमुख हैं। पुराने दल का साथ छोड़ नए के साथ राजनीतिक कामयाबी हासिल करने वालों में विजयराजे सिंधिया और उनके बेटे माधवराव सिंधिया का नाम भी शुमार हैं। विजयराजे ने 1957 में गुना से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीता था लेकिन बाद में वह विपक्ष की राजनीति में चली गई जबकि 1971 मंे भारतीय जनसंघ से जीतने वाले माधवराव 1980 में कांग्रेस से जीते फिर उन्होंने कांग्रेस कंेद्रित राजनीति ही की। जयपाल रेड्डी ने 1980 मंे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ मेडक से जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा था लेकिन पराजित हुए थे। बाद में काॅंग्रेस पार्टी में शामिल होने पर उन्हें मंत्री पद से नवाजा गया। इसी तरह शंकर सिंह बघेला कभी गुजरात में भाजपा के क्षत्रप हुआ करते थे तो रेणुका चैधरी कभी तेदेपा की ग्लैमरस् चेहरा हुआ करती थीं।
ऐसा नहीं है कि आस्था बदलने का यह खेल सिर्फ पार्टी स्तर तक ही सीमित रही है। राजनीतिक दल भी इस खेल में लगातार शामिल होते रहे हैं। खासकर जबसे गठबंधन सरकार का दौड़ चला है छोटे और क्षेत्रीय दलों की चाॅंदी ही हो गइ्र्र हैं। अवसरवाद के घोड़े पर सवार और सत्ता सुख के माहिर खेलाड़ी नीति, सिद्धान्त और प्रतिबद्धता बदल कर मंत्री पद का सुख लेते नहीं अघाते हैं। इस कला में लोजपा अध्यक्ष राम विलास पासवान ने सबको पीछे छोड़ दिया है। पिछले लोकसभा चुनाव में काॅग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले कई दलों ने बाद में काॅंग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को अपना समर्थन देने में कोई हिचक नहीं दिखाई। इस बार भी काॅंग्रेस के विरुद्ध चुनाव में उतरने वाले वामपंथी सहित राजद, लोजपा, सपा आदि दलों ने अभी से सरकार बनने की स्थिति में उसके समर्थन की घो’ाणा कर रखी है। ऐसे में कहना मुशिकल है कि मतदाता खुद को छल रहे हैं या अवसरवादी पार्टीयाॅं उन्हें छल रही हैं क्योंकि दल बदलुओं की प्रवृति बदलने वाली नहीं है।
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009
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