शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

प्रेम ही तो है - 3

गतांक से आगे

आज मुझे अपार खु’शी है कि हमने विवाह जैसी संस्था में बंधने के बजाय उन्मुक्त जीवन जीने की सोची। हो सकता है तुम इसे मेरी भीरूता कहो, क्योंकि कुछ लोग कह सकते हैं कि मनुशय को विवाह कर लेनी चाहिए, अपना पेट तो कुता भी पाल लेता है ओर अपनी वासना की पूर्ति कर लेता है। लेकिन इतिहास के कई प्रसंग ऐसे हैं, जहां हमारे महानायकों ने विवाह नामक संस्था को स्वीकार नहीं किया। तो क्या मैं उनकी राह का अनुसरण नहीं कर सकता ? जब कभी मुझे विचार आता है कि मेरे आज यहां होने के कारणों में से एक कारण यह भी हो सकता है - अविशवास की प्रतिक्रिया। उस दिन के बाद सोते-जागते, चैतन्य में सु”शुप्ति में, संग्राम और पलायन में, जितनी अधिक बार अविशवास के उस भयंकर आकस्मिक ज्ञान का चित्र मेरे सामने आया है, उतनी बार कोई अन्य चित्र नहीं आया। ऐसा नहीं है कि मैं सदा आनंदित रहता हूं। जीवन की पुरबा-पछुआ मुझे भी झकझोरती है और यहां की शीतलहर का अंदाजा तो तुमको है ही .... कभी-कभी मैं पीड़ा से इतना घिर जाता हूं कि आनंद मेरा अपरिचित हो जाता है। लेकिन कल्पना की आंखों से जब अंधियारे आकाश के पेट पर दो उलझे हुए शरीरों का चित्र देखता हूं, तब मेरे अंतरतम में भी कोई शब्दहीन स्वर मानो चैंककर अपने आपको पा लेता हूं।
आज जब तुमको पत्र लिख रहा हूं तो पुराने दिनों की कुछ घटनाएं बेतरतीब आंखों के सामने आ रही है और मुझे हंसी आती है। तुमसे दो-चार बातें क्या कर लेता, अपने आप को तीसमारखां समझता। और कभी मन ही मन खु’श होता कि शायद प्रेम हो गया है। पर अपना अधिकार भी समझता, तभी तो कई बातें तुमको कह देता। तुम किसी गैर से बात करती तो मन में खुंदक होती, क्योंकि तुम्हें अपना जो मानता ... आज समझ रहा हूं कि बहुत सारे लोगों की प्यार में यही हालत हो जाती है। मेरा प्यार केवल मेरा है, किसी से उसने हंसकर बात कर ली तो बस कयामत .... जब किसी से प्यार हो जाता है तो यह स्वभाविक हे कि एक-दूसरे के उपर अधिकार जमाया जाता है। परंतु यह अधिकार एक सीमा में रहे तभी अच्छा लगता है। यदि यह प्यार ओर यह अधिकार किसी की स्वतंत्रता पर रोक लगाता है तो समझिए कि गड्डी विच हिंड्रेंस। मनोवैज्ञानिकों का भी मानना है कि रिशतों को बनाए रखने हुए स्वतंत्रता और अधिकार भावना का एक अच्छा संतुलन जरूरी होता है। जैसे ही यह संतुलन बिगड़ता है रि’ते भी टूट जाते हैं। वैसे पजेसिवनेस हमेशा रिशते नहीं तोड़ती, जोड़ती भी है। पजेसिवनेस की भावना एक तरह से किसी के प्रति हमारे अंटेशन को व्यक्त करती है एंव प्रत्येक व्यक्ति को अटेंशन की जरूरत होती है। बस, हमें यह पहचानना आना चाहिए कि दूसरे व्यक्ति को किस समय अटेंशन की जरूरत है। यदि हम प्यार के रिशते की विश”श तोर पर बात करेंतो इसमें पजेसिवनेस होना व्यक्ति को किस समय अटेंशन की जरूरत है। यदि हम प्यार के रि’ते की विशश तौर पर बात करें तो इसमें पजेसिवनेस होना स्वभाविक है क्योंकि यह वह रिशता होता है, जिसमें व्यक्ति उम्मीद करता है कि सामने वाला केवल उसका होकर रहे। क्यों सही है न ?
लेकिन हम भूल गए कि रिशता प्यार को हो अथवा कोई दूसरा, मुट्ठी में बंद की रेत की तरह होता है। रेत को यदि खुले हाथों से हल्के से पकड़े तो वह हाथ में रहती है। जोर से मुट्ठी बंद करके पकड़ने की को’िशश की जाए तो वह फिसलकर निकल जाती है। आज की तारीख में यही हाल मेरा है। सो, मैं भी कोरे कागज को काली रोशनाई से स्याह करता जा रहा हूं। और अपनी भावनाओ को चस्पा करने की कवायद कर रहा हूं। तो क्या कवायद की जाए... तुम्हीं बताओ ? यह सिलसिला जारी रखूं कि इसे भी अल्पविराम के बाद पूर्णविराम तक जाने दूं?
समाप्त

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